६ «६ ।
श्रीमद्वाल्पीकि-रामायशु
[ हिन्दीभाषाजुवाद सहिकल”
बालकाणड/-१
अनुवादक
चतुर्वेदी दारकाप्रसाद शर्मा, एम० धोर० एगघुख०
. प्रकाशक
रामनारायण लाल
पब्छिशर और बुकसेलर
.. इलाहाबाद
१९२७
प्रथम संस्करण २००० | [ मूल्य .
सात
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अनुवादक की सूचना
छोटे छोटी पुस्तकों में भी ज़ब भूमिका देना, प्रचल्रित प्रथा के
धजुसार अनिवाय समझा जाता है; तब इतने बड़े प्रन्य के आरस्म
में सो भूमिका का होना परमावश्यक है। किन्तु भूमिका या
ते। स्वयं अन्थकार की लिखी होनी चाहिये अथवा प्रन्थकार से
घनिए परिचय रखने वाले उसके किसी श्ात्मीय, सम्बन्धी अथवा
मित्र की लिखी हुईं । ये दोनों प्रथाएँ आज ही प्रचलित हुई हैं, यह
कहने। उचित न होगा । इस देश में ये दोनों ही प्रधाएँ प्राचीनकाल
से प्रचलित जान पड़ती हैं । इस इतिहास -अंन्ध-रल्न श्रीमद्धाव्मीकोय
रामायण में भी भूमिका है ओर यह भूमिका स्वयं आदि्किवि की
लिखी हुई नहीं, प्रत्युतः उनके किसी शिष्य प्रशिष्य की लिखों हुई
है। वालकाण्ड के प्रथम सर्ग को छोड़, दूसरे से ले कर चोथे' सर्ग
तक--तीन सर्ग आदिकाव्य के भूमिकात्मक हैं। इसके रामायण
थीकाकारों में श्रेष्ठ आचायंप्रवर गाविन्द्याअ जी ने श्री
स्वीकार किया है।
# सगंत्रयमिद॑ केनचिद्दास्मीकिशिष्येण. रामायण
नि्ेत्यनन्तरं, निर्माय वेमव प्रकटनाय- संगमितं । यथा
' याज्वल्क्यस्पृत्यादों तथैव तत्र विज्ञानेश्वरेण व्याझृत॑ ।
उक्त तीन सर्गों में यत्र तत्र|इस अनुमान की पुष्टि करने वाले
प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं। यथा चतुर्थ सर्ग का प्रथम इत्ताक हैः---'
/ प्राप्तराज्यस्य रामस्य वाल्मीकिभंगवानऋषि
चकार चरितं क्ृत्स्न॑ विचित्रपदमात्मवान् ।|
(॥])
इस श्लोक में महषि वाल्मीकि जी के लिये “ भगवान् ” ओरे
“ झात्मचान, ” जे! दे। विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं, थे आदि -
काव्यस्वयिता जैसे मार्मिक एवं सर्वक्ष प्रन्थस्वयिता, शिश्रतावश
छा अपने लिये कभी व्यवहार में नहीं ला सकते | फिर इस श्लेक
के अर्थ पर ध्यान देने से भी स्पए्ट विदित होता है कि, इस' श्लेक
का कहने वाला ग्न्थ रचयिता नहीं, प्रत्युत कोई अन्य ही पुरुष '
है। अतः प्रन्थ की भूमिका पढ़ने के लिये उत्सुक जनों के, वाल-
काण्ड के दूसरे तीसरे ओर चौथे सर्ग के पढ़ झपना सनन््तोप कर
केना चाहिये। क्योंकि भ्न्थ की भूमिका में जे आवश्यक वार्तें
देनी चाहिये, वे सब इसमें पायी जाती हैं। यथा, प्रन्थ की उत्कषठता
ना दिग्दशन, भ्रन्थ में. निरूपित ,विषयों का संत्तिप वर्णन, अच्य-
निर्माण का कारण, प्रत्थनिर्माण का स्थान, अ्न्थनिर्माण का समय,
ग्रन््थ का, भ्रकाशनकाल ओर भ्रन्थ पर लोगों को सम्मति। ये
सभी वातें उक्त तीन सर्गों में पायी ज्ञाती हैं। अतएव इसमें नयी
भूमिका जेड़ने की आवश्यकता नहीं है ।
तब हाँ, इस अन्थ के पढ़ने पर ऐतिहासिक दृष्टि से, सामाजिक
दृष्टि से, घामिक हष्टि से, राजनीतिक द्वृष्टि/से पढ़ने वाले किन
सिद्धान्तों पर उपनीत हो सकते हैं, यह वात दिखलाने के आवच-
श्यकता है। प्राचीन टीकाकारों ने इस प्रयाजनीय विपय की
उपेक्षा नहीं की (उन महानुभावों ने भी यथास्थान अपने स्वतंत्र
विचार लिपिवद्ध किये हैं। उन्हींके पथ
/ अनुभव कर, अनुवा-
. एक का विचार, प्रन््थ के परिशिए्र भाग में, अपने विचारों के
( ॥। )
विपयाज्लक्रम से विस्तार पूर्वक लिपिवद्ध करने का है। अतणएव ....
अन्य के पाठकों. के परिशिए भाग छपने तक थैय (धारण करने
अज्ुवादक की ओर से साम्रह अनुरोध है ।
अचन्ुवादक के अनुवाद के विषय में विशेष कुछ सी व
नहीं है | जे। कुछ मला बुरा अनुवाद वह कर सकता है, चह प्रका।
शक मद्दोदय की सहायता से सर्वसाधारण' के सल्पुख 3 *
किया जाता है | हित्दू जाति की इस शाच्य अश्रधःपतित अवस्था
में, इस भन्यरल के सुलभ मूल्य पर प्रचार करने से हिन्हुओं की
प्राचीन सम्यता, प्राचीन संस्कृति और प्राचीन पद्धतियों के”
जीर्णेद्वार दो, इस ग्रन्थ के हिन्दी भाषा में अडुवाद कर, प्रकाशित,
« ऋस्ने का आनुयपदक ओए पाए, देएे को कप, यह ,
उद्देश्य है।
दारागंज-प्रयाग ्ै अनुवादक
कार्तिक शक्का १४शी सं० १९८२ $ | ह
विषयानुक्रमणिका
पहला सम 4 -र५|
नारदजी द्वारा वाल्मीकि जी को (रामचरित्र का संत्तिप्त
उपदेश । ।
दसरा सर्ग «. २५-३
तमसा नदी के तठ पर वाल्मीकि का वहेलिया के. शाप
देना । रामायण बनाने के लिये ब्रह्मा जी का वाल्मीकि जी
के प्रोत्साहित करना | ह
तीसरा सर | ३६-४ '
सम्राधि द्वारा ऋषि का सम्पूर्ण रामचरित के "“प्रत्यक्ष-
मिच” देखना ।
चाथा सर्ग ५-५
प्राश्ममचासी भ्रीरामचन्द्र जी के पुत्र कुश शोर लव के
वाल्मीकि द्वार रामायण का पढ़ाया जाना और कुश ओर
लवब का राजसभा में समायण गाना |
पाँचवाँ सगे ५२-५९
ध्रयोध्या नगरी का विस्तृत वर्णन ।
छठवाँ सग ७९-- ६६
कझयोध्या. में महाराज दशरथ के शासनकाज़ का चणेन। ,
सातवाँ सगे ६६-७१
श्रमात्यों, पुरोहितों ऋतिजों के साथ मद्दाराजं ' दशरथ के
व्यवहार फा वर्णन ।
(२)
ग़ठवों सगे ७१-७६
महाराज द्शस्थ का पुत्रप्राप्ति के लिये यज्ञ करने का
विचार करना ओर कुलपुरोदित वशिष्ठ जी से परामश्शे
करना । |
नवाँ सग॑ ७-८१
ऋष्यश्डु की कथा और सुमंत्र का उनके घुलवाने की
» -आवश्यकता प्रकठ करना । े
दुसवाँ सग॑.. ः.. ८१-८८
' शजा रोमपाद के यहाँ ऋष्यश्डू के आगमन को कथा।
शेमपाद की कन्या शान््ता के साथ ऋष्यश्णक्न के विचाह
की कथा ।
ध्यारहंवाँ सगे ह ८-९४
महाराज द्शस्थ का यज्ञ करवाने के लिये अंगदेश में
जाकर ऋष्यशडू के अयोध्या में लाना ।
बारहवाँ सगे
कर ९५-९९
ऋष्य्ण्क़की आज्ञा से महाराज दृशस्थ का न्नाह्मणें के
बुलवा कर सय्यू के दक्तिण तठ पर यज्ञविधान के लिये
मंत्रियों के आज्ञा देना । *
तेरहवाँ सगे ९९-१०७
यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये देश देशान्तरों के राजाओं
तथा बाहायणों को बुलवाया ज्ञाना |
चौदहवाँ सगे १०७-११९
यज्र का वर्णन और ऋष्फश्ढः की भविष्यद्ाणी ।
(के...
पन्द्रहवाँ स्ग ११९-१२६
दशरथ के यक्ष में यज्ञसाग लेने के आये हुए देवताओं
का ब्रह्मा जी के साथ वार्तालाप |
दशरथ के घर में भगवान विष्ठु की मनुप्यरुप में अचत्तीर्ण
होने की घोषणा |
, सोलहवाँ सगे । “१२६-१३३
अभिकृणए्ड से अशम्निदेव का प्रकट हो कर, महायाज
दशरथ के दिव्य पायस (खीर ) का देना ओर डसे
विभाजित कर महाराज की रानियों का खाना]
सत्रहवाँ सर्ग १३३-१३९
ब्रह्मा जी की श्ाज्ञा 'से देवताओं की वानरयेानि में
उत्पत्ति । हि
अठारहवाँ प्र * १३९--१५१
यज्ञ समाप्त कर दशरथ का रानियों सद्दित नगर में प्रवेश ।
यकज्ष समाप्त होने के वारहवें महीने में श्रीरामचन्द्रादि चार
पुत्रों का जन्म । पुत्रों का नाम करण विद्याभ्यास | रॉज-
कुमारों के विवाह के लिये महाराज का चिन्तित होना ।
विश्वामित्र जीका आगमन !
उन्नीसवाँ सगे :.. १५२-१५६
विश्वामित्र जी का श्रीरामचन्द्रजी को यज्ञर॑क्षाथ महाराज .
से माँगना और महाराज दशरथ का दुःखी होना । विश्वा- -
मित्र जी के मुख से श्रीरामचन्द्र जी की महिमा का वर्णन
किया जाना |
(४ )
वीसवाँ सगे १५६-१६९
श्रीयमचन्द्र जी वालक हैं, वलवान राज्ञसों से लड़ने येग्य
' कहीं हैं, इस आधार पर ।महाराज का श्रीयमचन्ध जी के
विश्वामित्र के साथ भेजना अस्वीकार करना ।
इक्कीसवाँ सगे ह १६३-१६८
विश्वामित्र का कुद्ध होना, वशिष्ठ जी का महाराज के
समभाना और यह कह कर कि, विश्वामित्न जी के साथ
जाने से श्रीरामचन्द्र जी का बड़ा अम्युद्य होगा, परेत्साहित
करना। ८
बाइसवाँ सर्ग १६८-१७३
वशिष्ठ जी के समझाने से महाराज्ञ का श्रीरामचन्द्र जी का
भेज्ञना।स्वीकार करना | श्रीयम ओर लक्ष्मण! की विश्वा- -
मित्र के साथ यात्रा । विश्वामित्रद्वारा दोनों राज़कुमारों के
वला ओर अतिवला नाज्नी दे! विद्याविशेष की प्राप्ति
: तेहसबाँ सर्ग १७३-१७८
गड्ढा और सरयू के सड्म पर पहुँच कर विश्वामित्र का
दोनों राजकुमांरों के शिवाश्रम दिखलाना और उस
आश्रम का वृत्तान्त खुनाना | े
चौबीसवाँ सगे १७८-१८५
तीनों का गछ्ला के पार होना । सरथू नदी का वृत्तान्त |
ताडुका के चन का बर्णव | *
पच्चीसवाँ सगे १८६-१९१
ताड़का का पूर्ववृत्तान्त | ताड़का के वध के लिये विश्वामिन्न
का श्रीयमचन्दरू जी के उत्साहित करना ।
(5४३)
छब्पीसवाँ सगे १९१-१९९
ताड़कावध झौर ताड़काबध पर देवताओं का सन्तोष
प्रकट करना । विश्वामित्र के साथ दोनों राजकुमारों का
शत भर ताड़काचन में चास |
सत्ताइसवाँसग.... १९९-२०४
विश्वामित्र का श्रोयमचन्द्र जी के समस्त अश्यों का देना ।
अद्वाइसवाँ सगे *. २०४-२०९
विश्वामित्र का याजकुमारों के अस्त चला कर उनके
लोटाने की विधि वतलाना। यज्ञ में विश्न डालने वाले
रक्तसों का वर्णन करने के लिये श्रीरमचन्द्र जी की
विश्वामिन्न ज्ञी से प्रार्थना ।
उन्तीसवाँ सर्ग २०९-२१६
सिद्धाश्रम में विश्वामित्र ओर दोनों राजकुमार। सिद्धाभ्रम
. की कथा ।
तीसवाँ सगे ह २१६--२२१
राज़कुमारों द्वारा विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा | मानवास्र
से मारीच के सागर में फेंकना । आग्न्येयासत्र से सुवाहु
का शोर वायब्यासत्र से अन्य राक्षसों का वध ।
इकत्तीसवाँ स्ग ! . २२२-२२७
जनक के यहाँ यक्ष ओर धनुष देखने के लिये आरश्रमवासी
मुनियें का विश्वामित्र जी से ध्राथना करना। समस्त मुनियों
शोर दोनों राजकुमारों के साथ कोशिक की जनकपुर-यात्रा।
सेन नदी के तठ पर सायड्डाल के निवास | वहाँ रात में
( ६ )
उस प्रान्त का वृत्तान्त छुनने की श्रोरमचन्द्र द्वारा इच्छा
प्रकठढ क्रिया जाना १
बत्तीसवाँ संग ...' २२७-२३ ३
विश्वामित्र जी के बंश का विस्द॒त चत्तान्त चर्णन |
! तेतीसबाँ सगे ु २३३-२३९
कुशनाभ की कत्याओं के विवाह का घर्णन ।
चौतीसवाँ सगे . । २३९-२४४
गाधि की उत्पत्ति । विश्वामित्र ओर विश्वामिन्न की वहिन
की उत्पत्ति का वर्णन ।
पैतीसवाँ सगे २४४-२४९
' विश्वामित्रज्ञी के मुख से गड़गा ओर उम्रा की कथा का
वर्णन ।
| छत्तीसवाँ सर्ग .._ २५०-श५६
क्रुद्ध उमा का देवताओं के शाप देना।
सैतीसवाँ सर्ग ु २५६-२६३
कातिकेय को उत्पत्ति का विस्तार पूर्वक चर्णन |
अड्तीसवाँ से
२६४-२६५९
सगर के साठ हज़ार पुत्रों की उत्पत्ति। सगर का यज्ञ ।
| उनतालीसवाँ से २६९--२७४
सगर के यज्ञीय पशु का इन्द्र द्वारा हरण । यज्ञीय पशु की
खोज्ञ में सगर के साठ।हज़ार पुत्रों की यात्रा। सगर पुत्रों
द्वारा पृथिवी का खोदा ज्ञाना। देवताओं का विचलित हो
च्ह्मा जी के पास जा, प्रार्थना करना | .
(७)
चालीसवाँ से :.. २७४-२८१
प्रह्मा जी का घवड़ाए हुए देवताओं के धीरज वंधाना | .
यज्ञीय पशु के न मिलने 'के कारण महाराज सगर की
शग्राक्षा से पुनः सगरपुत्रों द्वारा पृथिवी का खोदा ज्ञाना।
' धन्त में कपिल जी का दर्शन ओर कपिल के हुँकार शब्द्
से साठ हज़ार सगरपुओं का भस्म होना ।
इकतालीसवाँ सर्ग *. १२८१-२८
साठ दज़ार पुत्रों की खोज में अंशुमान का आना। सगर-
पुत्रों की भस्म के देख उसका दुःखी होना । यज्ञीय पशु
का कपिल आश्षम में अंशुमान द्वारा देखा जाना तथा दुग्ध
हुए सगरपुजों के उद्धारार्थ गड़ा लाने के लिये गरुड़ जी
द्वाय अंशुमान के उपदेश मिलना । यज्ञीय पशु ले ज्ञा कर
श्रैश्यमान का महाराज के दे कर यज्ञ के पूरा कराना ओर
उनसे अपने पिठ्व्यों के भस्म होने का दृत्तान्त कहना ।
वयालीसवाँ सर्ग .... २८७-२९
अंशुमान का कुछ दिनों तक राज्य कर के अपने पुत्र दिल्लीप
के राज्य सौंप स्वयं तप करने के लिये हिमालयम्ट॒डु पर
ज्ञाना और वहां से स्वर्ग सिधारना। दिलोप का अनेक
यज्ञ करना ओर पुरखों के उद्धार के लिये चिन्तित हो,
अपने पुत्र सगीरथ को राज्य सौंप, स्तरय॑ स्वर्ग सिधारना |
तद्नन्तर भगीरथ का उग्रतप कर वर पाना |
तेतालीसवाँ सगे २९२१-३०
गडुएं के वेग को धारण करने के लिये ,भगीरथ का एक
चर्ष तप कर महादेव जी के प्रसन्न करना । गड़्गवतरण |
गड्ा के झपने जठाजूद में शिव जी का लिप कर लेना।
६ 8.)
तब भगीरथध का पुनः तप द्वारा शिवजी को प्रसन्न करना ।
तव शिवजी का गड्जा के विन्दुसरोबर में छोड़ना। गड्ढा
का भगीरथ के पीछे पीछे वह कर. उनके पृर्वज़ों का
उद्धार करना ।
चौवालीसवाँ सगे ३०१-३०६
भगीरथ पर ब्रह्मा जी का अनुभह । रसातल में गद्भाजल
से सगीय्थ का अपने पितरों का तर्पण करना ।
पैतालीसवाँ सर्ग ३०६-३१६
अगले दिन गड्ढडा के पार कर उत्तर तठ पर पहुँच कर
कोशिकादि का :विशालापुरी के देखना । भ्रीरामचन्द्र जी
के पूंछुने पर विश्वामित्र जी का विशालापुरी का इतिहास
छुनाना । द्ति और अदिति के पुत्रों का बूत्तान््त वर्णन ।
' समुद्रमंधथन की कथा । समुद्र से निकले हुए हलाहल के
, शिवज्ञी का अपने कशणठ में रखना। धन्वन्तरादि की
सप्रुद्र से उत्पत्ति । ।
छेयालीसवाँ सगे ३१६-३२१
दिति का दुःखी हो मारीच से इन्द्रहन्ता पुत्र के लिये
याचना करना। मारीच का दिति के ईप्सितवर देना।
दिति की सेवा करते हुए इन्द्र का दिति के गर्भ में घुस कर
गर्भस्थ वालक के चज्न से दुकड़े टुकड़े कर डालना।
गैतालीसवाँ सर्ग ३२१-३२६
वायु को उत्पत्ति। विशाला की उत्पत्ति का घृत्तान्त।
राजा खुमति की इच्तवाकुबंशीय राजाओं की न
मा
राजा खुमति ओर कविश्वामित्र का समागम | ५५
(६ )
अड़तालीसवाँ सर्ग ३२६-३३४
छुमति का दोनों राजकुमारों के सम्बन्ध में विश्वामरित्र
: खेप्रश्ष ओर विश्वामित्र का उत्तर। राजा सुमति द्वारा
दोनों राज़कुमारों का सक्कार | तद्नन्तर सव का मिथिला
के लिये विशात्ता से प्रस्थान मिथिला के निकय्स्थ
एक शाश्रम के विषय में श्रीरामचन्द्र जी का विश्वामित्र से
प्रशक्ष। उस आश्रम में पू्वंकाल में वसने चाले गौतम
की कथा | अहल्या झोर कपट रुपधारी इन्द्र का समागम |
गौतम का इन्द्र को अपने आश्रम से अहल्या के साथ
व्यभिचार करके निकलते हुए देखना | गौतम का अहल्या
. ओर इन्द्र को शाप देना । भ्रीयमचन्द्र जी के पाद्सपश से
अहल्या के शापोद्धार को वात गोतम द्वारा शअहल्या से
कहा जाना |
उनचासवाँ सर्ग ३२३५-३४०
गौतम के शाप से इन्द्र के अगडकाशों का गिर पड़ना।
अप्नि आदि देवताओं की प्रार्थना से पितृ देवताओं से
इन्द्र को मेष के अणडकोशों को प्राप्ति। विश्वामित्र के
प्रोत्साहन प्रदान से भ्रोरामचन्द्र जी का गोतम के आश्रम
में जाना । शाप से छूठ कर अहल्या का भ्रीरामचन्द्र जा:
का सत्कार करना ओर गोतम तथा झहरया का मिल कर
श्रीरामचन्द्र जी का पूजन करना |
पचासवाँ सर ३४०-३१४
शरामचन्द्र जी सहित विश्वामित्र का जनक महाराज ,
की यज्ञशाला में जाना ओर वहाँ ठहरना | जनक छारा
विश्वामित्रजी का आतिथ्य | दोनों याजकुमारों का परिचय
६ 8९
पाने के लिये राजा जनक का विश्वामित्र से प्रश्न ।
विश्वामित्र जी का उत्तर ।
इक्यावनवाँ से ३४७-३५३
विश्वामित्र के मुख से अपनी माता का शाप छूढ जाने
का बृत्तान्त खुन शतानन् का प्रसन्न होना। शतानन्द
कृत भ्रीरामचन्द्र जी की स्तुति । शतानन्द द्वारा कोशिक
चंश का चृत्तान्त कहा जाना | गाधिनन्दन राजा विश्वा-
मित्र का ससैन््य चशिछाश्रम में प्रवेश ।
बावनवाँ सर्ग ३५४-३५५९
कफोशिक और वशिप्ठ का परस्पर कुशल प्रश्ष। कैाशिक
आतिथ्य करने के लिये, चशिष्ठ ज्ी का शवला के सामग्री
का प्रस्तुत करने के लिये प्रेरणा करना।
त्रेपनवाँ सर्ग १५९-१६५
चशिष्ठ जी द्वारा शवला की सहायता से विश्वामित्र का
अपूर्व सत्तकार। कोशिक का चाशिए ज्ञो से शवला को
माँगना । वशिष्ठ ज्ञी का शवल्ना देना अस्वीकृत करना।
, चौअनवाँ संग ३६५-३७०
कोशिक का वरजोरी शवत्ता के ।वाँध कर पकड़ ल्ले
ज्ञाना। शवला का वंधन छुड्टा कर चशिष्ठ ज्ञी के पास
आना ओर दुःख प्रकट करना। वशिए्ठ जी का शवत्षा
के धीरज वंधाना । विश्वामित्र का सामना करने के लिये
,..._ शबल्ा का स्ल्ेच्छ यवनादि का उत्पन्न करना ।
' पचपनवाँ सगे े ३७१-३७७
चशिष्ठ और विश्वामित्र का युद्ध । विश्वा
धर मित्र का पराजय ।
विश्वामित्र का अपने पुत्र के राज्य सोंप कर तप करने के
( ११ )
दिमालय पर जाना । धरदान में महादेव जी से समस्त
घत्मों के प्राप्त कर, विश्वामित्र का पुनः वशिष्ठाश्रम पर
४. ध्ाक्रमण करना आर श्राश्रम को उजाड़ना ।
छप्पनवाँ सर्ग ३७७-३८२
चशिष्ठ जी का प्रपने श्रह्मद॒ए॒ड से विश्वामित्र के चलाये
समस्त शस्त्रों को निष्फल कर देना | विश्वामित्र के चलाये
ब्रह्मास्ध तक के अपने प्रह्मदएरड से चशिष्ठ जी का निष्फल
कर डालना | तव ब्रह्मवल के सर्वेत्किण्ठ जान विश्वामित्र
का ब्रह्मतल सम्पादन करने की प्रतिज्ञा करना ।
सत्तावनवाँ सर्ग ३८२-३८७
रानी के साथ ले विश्वामित्र का महाषिपद् प्राप्त
करने के लिये दत्तिण दिशा में ज्ञा घार तप करना | वहाँ
उनके अपनी रानी से दृविः्ष्यन्दादि पुत्रों की प्राप्ति और
एक हज़ार वर्ष तप करने के वाद ब्रह्मा जी का प्रकढ
हो।॥कर उनके “ राजापि ” की पद्वी प्रदान करना । इसी
बीच में राजा न्िश छ्रुका सदेह स्वर्ग जाने के लिये वशिष्ठ
जी से यज्ञ कराने की प्रार्थना करना। उनके निषेध
करने पर त्रिशद्र का वशिए जी के पुत्रों के पास जाना |
अद्वावनवाँ सर्ग ३८८-३५९ ३
गुरुआज्ञा-उल्लइुन-कारी राजा भिशह्लु को चशिष्ठपुत्रों छाया
' चण्डालत्वको प्राप्त होने का शाप | तव विशक्ल का विश्वा-
मित्र.के निकट गमन झोर उनसे झपना अभौष्ट निवेद्न ।
उनसठवाँ सगे ३९४-३९८
विश्वामित्र का त्रिशड्ड के सदेद स्वर्ग भेजने को प्रतिज्ञा
करना । निशड्ढ के यज्ञ करवाने के लिये अपने शिष्य
ष्् + | हू
( १२ )
भेज्ञ कर विश्वामित्र का पन्य ऋषियों का घुलवाता।
वशिष्टपुत्नों का तथा महोद्य नामक ऋषि का चुलान पर न
आाना । ध्तः विश्वामित्र का उनके धाप देना |
पाठवाँ सर्ग ३९९-४०६
बिशद्ठु के यज्ञ का वर्णन । यक्षभाग केने फे लिये
उस यद्ष में बुलाने पर भी देवताओं का न आना। इस
पर क्रूद हो विश्वामिन्न जी का अपने तपेवल से विश्ध
के सदेह स्वर्ग भेजना। किन्तु! इन्द्रादि देवताओं के
विश्ट का सदेह)स्वर्ग में आना सला न लगते पर त्रिशद्ध
का। प्रथिवी पर गिरना ओर ५ वचाइये वचाहये ” कह कर
चिल्लाना | तव क्रोध में भर विश्वामित्र का नयी ख्टि
रचने में प्रवृत्त हिना । तव घवड़ा कर देवताओं का विश्वा-
मित्र ज्ञी के! मनाना। जि शह्ल सदा आकाश में खुख पूर्वक
, देवताओं के यह स्व्रीकारे कर लेने पर, नयी सुफ्टि रचना
से विश्वामित्र का निवृत्त होना ।
इकसठवाँ से ४०६-४११
दक्तिण दिशा में तप में विश्व होने पर विश्वामित्र जो
का उस दिशा के छोड़ पश्चिम में पुष्कर में जा कर
उम्र तप करना । इस बीच में अस्वरोप राजा का यह्ष
करना । उनके यक्षपशु फा.इन्द्र द्वारा चुराया ज्ञाना। यक्ष
पूरा करने के लिये पुरोहित का अस्प्रीष से किसी यज्ञोय
नरपशु केएलाने का झनुरोध करना । गोशों के लालच
में आ ऋंचोक का अपने विचले पुत्र. शुनःशेप के राज्ञा
के” हाथ बेचना। शुनश्शेष के ले राजा असख्रीप का
प्रस्थान करना ।
( (३ )
पासद्यों सर्ग ४११-४१७
राजा अम्बरीष का पुष्कर में झागमन। शुनःशेप का
विश्यामिन्र के निकट ज्ञा प्राण बचाने ओर प्रखखरीप का
प्रधूरा यज्ञ पूण होने फे लिये प्राथना करना;। विश्वामित्र
का शुनःशेप के बदल अपने पुत्रों के! नरपशु चन कर राजा के
साथ जाने की झआक्षा देना । श्राज्षा न मानने पर विश्वामित्र
का पुत्रों के शाप देना | विश्वामित्र के बतलाये मंत्रों का
ज्ञप करने से शुनः्शेप की यक्ष में रत्ता प्लोर अम्वरीप के
यक्ष की समाप्ति
प्रेसटवाँ सगे ४१८-४२४
विश्वामित्र का ओर मेनका का समागम | पीछे पुष्कर-
क्षंघ झड़ विश्यामित्र फा उत्तर दिशा में ज्ञा कोशिकी के
तद पर रहू कर तप करना । किन्तु वहां भी अभीए खिदछ
न द्ीना । उनका पुनः घेर तप करना ।
चौसठवाँ सगे ४३२४-४२९
विश्वामित्र के तप से डिगाने के लिये इन्द्र का रमश्मा
अप्सरा का विश्वामित्र के पास भेजना। विश्वामित्र का
क्रोध में भर सम्भा के शाप देना। क्रोध के कारण तप
नए होने पर विश्वामित्र का आगे कभी क्रोध न करने का
सदुएप करना ।
पंसठवों सगे ., ४२९-४३९
पक हज्जार वर्षा तक निराहार तप करने के पीछे विश्वा-
मित्र का श्ाहार करने के! बैठना शोर उस समय ब्राह्मण
का रूप घर इन्द्र का थ्रा कर विभश्यामित्र से भेजन साँगना
ओर विश्वामित्र का उनके अपने सामने परोसा सारा अन्न
( १४ )
उठा कर दे देना | तव विश्वासिन्न फा घेर तप फरना ।
उनके तप से तीनों लोकों के नष्ट है जाने फी शर्ट से अह्मा
का विश्वामित्र की ब्रह्मपिपद प्रदान करना। चशिश् जी
हारा विश्वामित्र के ब्रह्मपि होने का प्रतुमेदन। शवानन्द्
के मुख से विश्वामित्र का चत्तान्त छुन राजा जनक का
हित हो ओर विश्वामित्र से घ्राज्ञा माँग कर वहाँ से विदा
होना ।
छियासठवाँ सर्ग ४४०-४४६
विश्वामित्र का राजा जनक के दोनों राजकुमारों का धनुष
देखने फे लिये वहाँ झाना वतत्लाना । राजा जनक का उस
शिवधल्ुष का पूर्व बृच्ान्त कहना । फिर हल चलाते दुए
सीता की प्राप्ति का घत्तान्त राजा जनक द्वार कहा जाना ।
जनक का यह भी कहना कि, दूसरों से न चढाये गये
धनुष पर यदि श्रीरामचन्द् जी रोदा चढ़ा देंगे ते, वीर्य
छुल्का सीता उनके विवाह दी ज्ञायगी। के
सरसठवाँ सगे ४४६-४५२
' विश्वामित्र ज्ञी के कहने पर राज! जनक का शिवधनुप
मेंगवा कर दिखलाना । भ्रोरामचन्द्र जी का श्नायास उसे
उठा लेना ओर उस पर रेदा चढ़ा कर खींचना | खींचने
में बड़े घड़ाके के साथ धन्रुष के दे ठुकड़े हो जाना।
विश्वामित्र जी की अनुमति से वरात सज्ञा कर लाने के
लिये, रोज्ञा जनक का अपने दूतों के! प्रयाघ्या भेजना |
अड्सठवाँ सगे ४५२-४५७
मिथिल्लेश्वर के दूतों से शुभ संवाद छुन “महाराज दशरथ
फा मंत्रियों ओर 'पुरोदितों से सलाह कर अगक्े दिन प्रातः
फाल जनकपुर के किये प्रस्थान करना ।
( १५ )
उनदृत्तरवाँ सगे ४५७-४६१
मद्ाराज दशरथ की जनक्रपुर्याध्ा। जनकपुर में दशरथ
आर जनक की भंद और दानों का दोनों के देख हर्प
प्रकट करना |
सत्तरवाँ स्ग ४६२-४७२
सांकाश्यपुर से राजा जनक फा दूत भेज्ञ कर भ्पने भोई
कुशध्यज के चुलवाना। राजाजनक श्रीकुशध्चज का पुत्रों
तथा पुरादित वशिए सहित महाराज दशरथ से समागम।
घणिए ज्ञी का दशरथ की वंशाचली का निरूपण फरना
आर श्रोरामचन्र एवं लक्ष्मण के विचाह फे लिये कन्याप्रों '
का माँगना |
इकहृत्तरवाँ सर्ग ४७२-४७७'
अनक के मुख से अपने वंश का परिचय । श्रीराम शोर
लक्ष्मण के सीता झोर ऊमिला देने की राजा जनक की
प्रतिन्ना ।
वहत्तरवाँ सगे ४७७-४८ १
वशिए की अ्रद्भमति से विश्वामित्र जी का कुशध्वज्ञ की
लड़कियों के भरत पोर शन्नन्न के लियेभांगना। जनक
का देना स्वीकार करना ! प्रगक्ले दिन विवाद करने का
निरचय करने पर महाराज दशरथ का जनवासे में जांना
शोर गेदानादि करना |
तिदत्तरवाँ सगे ४८३-४९१
राज्ञा जनक के राजभवन में श्रीरामचन्द्रादि के विवाह
होने का वणन ।
चौहत्तरवाँ सगे ४०३०-४५
झगल्ले दिन धीरामचन्द्रादिकों के आ्रशीवाद ६ कर विश्वा-
परिन्र का विदा होना | मदारात दशरथ क्रो जनकेपुर से
विदाई और जनक द्वारा दायले का दिया ज्ञाना | महाराज
दशरथ की यात्रा भर मार्ग में विन्न। परशुराम जी का
आगमन । परशुराम और शध्रीरामत्द्ध का परस्पर
चार्तालाप ।
पचहत्तरवाँ सगे ४९९-५०५
परशुराम की भ्रीरामचन्द्रज़ी से कुछ गर्मागर्मी क्री बातें ।
महाराज दशरथ की परशुराम जी से वालकों के अमयदान
देने की विनती। परशुराम का शिवधनुप की प्ेत्ता
चेष्णवधनुष का अधिक प्रभाव वतलाना ।
य छियत्तरवाँ 0
'छियत्तरवाँ सगे ५०५-५१ १
धोरामचन्द्रजी का चेष्णवधनुप पर वाण रख उसे खींचना
ओर परशुराम को परलेकगति के नए कर देना। तव
गये त्याग कर परशुराम ज्ञी का क्रीरामचन्द्र जी की प्रशंसा
करते हुए महृन््द्र पततत पर गमन ।
' सतत्तरवाँ सगे ५१२-५१८
महाराज दशरथ का प्रसन्न हां श्रयेष्य की ओर पुनः
प्रस्थान । मद्ाराज़ दशरथ के राजधानी में पहुँचने पर
नगरनिचासियों का हर्ष प्रकट करना | शन्नप्न सहित भरत
का ननिहाल जाना | सीता और श्रोराम के पारस्परिक
प्रेम की चृद्धि
इति
ग्रन्थ में व्यवह्नत सड़ताक्षरों की व्याख्या
( गे।० ) गेविन्दराजीय भूषणटीका ।
( रा० ) नागेश भट्ट की रामासिरामी टीका ।
( शि० ) शिवसहायराम की शिरोमणिटीका ।
( वि० ) विषमपदविव्वतिदीका ।
( )ज्ञा वाक्य ऐसे काए्क के भीतर हैं वे प्नुवादक के '
अपने हैं क्लोर कथा की असड्ुति। दुर करने के लिये
जड़ दिये गये हैं ।
[ नोढ ] ऐसे काएक के भीतर मिहीन अत्तरों में जे " नोढ !
ध्र्थात् टिप्पणियाँ दी गयो हैं, वे अनचुवादक के स्वतंत्र
विचार हैं ।
'( शि० गो० ) अनुवाद के जिस रोक के अन्त में (शि० ) या
( गो० ) अक्ञर दिये गये हैं, वहाँ समझना चाहिये
कि बह शोक शिरोमणि दीकाकार के मताछुसार
अथवा गाविन्द्राजीय भूषणटीका के अज्ठुसार
अनूदित किया गया है।
री: ऐ*
श्रोमद्रामायणप सियणौपेकस:-
ल्र5--सवातनधम हे अन्तर्गत मिन वैदिकपम्पदायों-एों-प्रीक्रामायेण
का पारायण द्वोता है, उन्हीं सम्प्रदायें के भनुसार उपक्रम और सम्तापन क्रम
प्रत्येक खण्ड के भ्रादि और अन्त में क्रमशः दे दिये यये हैं । ]
गन
श्रीवेष्णवसम्पदाय;
० * आल
कूजन्त राम रामेति मधुर मघुणक्तरम् |
शआरुह्य कविताशाखां वन्दे वाद्मोकिकीकि तम ॥ १ ।॥
चाद्मीकिसुनिसिहस्प कविताववचारिण: ।
श्रयवन्राम रूथानाद के न याति परयां गतिम् ॥ २ ॥
यः पिवन््सत्त राभचरितासतसागरम् ।
अतृप्तरत पुनि चन््दे प्राचेतसमकद्मपम् ॥ ३ ॥
गेष्पदीकृतवारोश मशकरीकृतराक्ष सम् |
रामायणमद्धामाजारत्न॑ वन्दें॥इनिज्ञाव्मजस् ॥ ४ ॥
पजञ्ञनानन्दन बोर जान क्रीशोकनाशनम |
कपीशमक्नदवन्तारं चन््दे लड्भगभयहुस््म् ॥ ५ ॥
मनेजतं मारुततुल्यवेग
चितेन्द्रियं चुद्धिमतां वारिछठम ।
वातात्मजं पानरयूथमरुख्य
भ्रीरामदूतं शिरसा नमामि ॥ ६ ॥
( २ )
उल्लज्च्य सिनन््धो; सलिलं सलोलं
” यथः शाकवहि झ्नद्यात्तजायाः ।
प्रादाय तेनैच ददाद् लड्डां
ममापि द॑ प्राज्ललिराशनेयम् ॥ ऊ ॥
पाजनेयमतिपाव्लाननं
फास्चनाद्विकमनीयचिअदहम ।
पारिज्ञाचत्रुसूलया सिने
भावयाप्रि पव्रमाननन्दूनम ॥ ८ ॥
यत्र यत्न रघुनाथज्ञीर्दर्न
चच्र तन्न कृतमस्तऊ्ाजलिम् |
वाष्पवारिपरिपूर्ण॑त्ते।य नं
मारुति नमत राक्तसान्तकस् ॥ ६ ॥
पेद्वेद्ें परे पुंसि ज्ञाते दृशरघाव्मजे ।
घेदः प्राचेचसादासोत्छात्षाहामायणात्मना ।
तदुपगतसमाससन्धियार्
सममछुरापनतार्थवाक्पदद्धस् ।
रधुचरचरितं मुनिप्रणीतं
दृशशिश्खश्च चर्घ निशामयच्चम ॥ ११ ॥
भीराघव दशरथात्मज्ञसप्भ्ेय॑
सीतापतिं रघुकुलान्वयरलदोपम्
भ्राज्ञाउवाएमरविन्द्दूलायतातक्ष
राम निशाचरविनाशकरं ममामि ॥ १२ ॥
पैदेहोसहितं खुरहुमतले हैमे मद्यामण्डपे
मध्येपुष्पफमासने मणिमये पीराखले ख्ु
; २० ॥
स्य्तिम्
( ३.)
ग्रे घाचयति प्रभश्चनछुते तत्व मुनिभ्यः पर
च्याख्यात्ते भरतारिभिः परिदृर्त राम सजे श्यामन्षमु ॥१ शा
गा
ग्राध्वस स्थदाय;
घुक्काम्पररघर विष्णं शशिवर्ण चतुभंजम् ।
प्रसन्नचदन ध्यायेत्सवंविष्नोपशान्तये ॥ १ ॥
लक्त्मीनारायणं बन्दे तहूकप्रवरे! हि य+।
श्रीमदानन्दतीर्धाख्यों गुरुस्तं च नमास्यद्रम ॥ २ ॥
धैदे रामायण चेव पुराणे मारते तथा ।
शआादाचन्ते च मध्ये च विष सर्वत्र मीयते ॥ ३ ॥
'सर्वविष्नप्रशमन सर्वंसिद्धिकर परम्।
सर्चजीवप्रणेतारं चन्दे विजयद् हरि ॥ ४ ॥|
सर्वाभीएप्रदं राम॑ सर्वारिए्निवारकम् ।
ज्ञामक्नीजआनिमनिशं वन्दे मदूगुरुपन्द्तिम् ॥४५॥
श्रश्नममं मड़रहितमजर्ड विमल॑ सदा ।
झानन्दतीयमतुर्ल भजे ताएत्रयापहम् ॥ ६ ॥
भसवति यद्लुभावादेडसूक्रा5पि पाग्मी
जडमतिरवि झन््तुर्जायते प्राक्षमोलिः ।
सकलवचनचेतोदेवता भारती सा
मम वचसि विध्र्तां सबत्रिधि मावसे च ॥ ७॥
मिथ्यासिद्धान्तदुर््वान्वविध्वंसन विचत्तणः ।
जयवीर्थास्यतरणिमा वर्तां नो दृदमरे ॥ ५ ॥ी
( ४)
चिडे: परदेश्च गर्मी रैवॉक्यैमॉनिरसपिब्ते ।
शुरुभाघ॑ व्यक्षयन्तो भाति धोजयवीर्धवाकू॥ ६ ॥
कूजन्ते राम रामेति मधुर मधुरात्तसम ।
झारुह्य फविताशासां उन््दे घाल्मीकिकेकिलम ॥ ९० मै
धएमीफेसुनिसिदस्य कविवाचनचारिणाः ।
खयवन्यमकथणाद के न याति पर्णा गतिम ॥ ९ £#
घर पिवन््सतत रामचस्तिय्तसागरम ।
प्तृप्तस्त झुर्ति पन््दे प्राचेतलमफद्मप्त् ॥ रे ॥
गेष्पदोकृतचारीश मशक्रीकृतरात्तस*»
रामायणमद्दामालासत्न॑ पन्देषनिलातमजम ॥ रै३े 0
अब्जनानन्दनं चीरं जानफीशोकनाशनम् |
कपीशमत्तहन्तारं पन््दे लड्गसयहुरस ॥ १४ ॥े
भनेाजवं मारुततुल्यवेगे
जितेन्द्रिये बुद्धियर्ता चरिएस्
घाताक्षजजे चानय्यूथपुखूय
श्रीरामद्त्तांशरसा नमामि ॥ १५ १
बहछुछुय सिन््धो: सलिलें सत्ती्ल
यः शोफपहि ज्नकात्मज्ञाधा3
घादाय तेनेव दृदाह लहरें
नमामि ते प्राजलिशजनेयम ॥ १६ ॥
' आश्वनेयमतिपाठत्ताननें
काथ्चनाद्रिकमनीयविश्रहम ।
( ४ )
पारिजञादतदमूलवासिन
भायया प्रि पचमानतन्दनम ॥ १७ ॥
यत्र यप्ष रघुनाधकीतंन
तन्न ततन्न कृतमस्तकाअलिम् |
वाष्पधारिपरिपूरण् नाचनं
मारुति नमत राक्षसान्तकस्॥ १८ ॥
चेद्वेदे परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
घंदः प्राचेतसादासीत्साज्ञाद्रामायणात्मना ॥ १६ ॥
झ्रापदामपदर्तारं दातारं सर्वंसम्पदाम
जोका मिराम॑ श्रीराम भूया भूया नमाम्यंहम् ॥ २० ॥
तदुपगतसमाससन्धियेग
सममधघुरापनताथंवाक्यवद्धम् ।
रघुवरचरितं घुनिप्रणीतं
दृशशिरसश्च घध॑ निशामयध्वम् ॥ २१ ॥
वैदेद्दीसद्वितं खुरहुमतत्ले हैमे मद्यामण्डपे
मध्ये पुष्पकमा सने मणिमये चीरासने छुस्थितम् ।
झग्रे चाचरयाति प्रभश्ननछुते तत्व मुनिभ्यः परू
घ्याख्यान्तं भरतादिमिः परिदृतं राम॑ भजे श्यामत्वम् 0२५)
धन्दे पन्धय॑ विधिभवमहेन्द्रादिवुन्दार केन्द्र
ब्यकं व्याप्त ्रगुणगणते देशत: कालतश्च ।
घूतावयं छुलचितिमयेमंडुलैयकमऊै
सानाथ्यं ने विद्धद्धिकं अ्रह्म नारायणाख्यम् ॥२३॥
भूषारतं भुवनवलयस्याखिलाश्चर्यरत्न॑
ल्लीलारत्न॑ जलधिदुदितुदंवतामोलिस्लम् ।
( ६ )
एचन्तारत्न॑ जगति सजञ्ञतां सत्सरोजयुरत्न
कौसल्याया लसतु मम हन्मण्डल्ते पुनरलम् ॥ २४ |
मद्दाव्याकरणाम्मेधिमन्यमानसमन्द्रस
कवयन्तं रामकीर्या हचुमनन््तपुपास्मदे ॥ २४५ ॥
घुख्यप्राणाय भीमाय नमे। यरुप स्ुज्ञान्तरम् ।
नानावीरसुवर्णाना निक्पाश्मायितं बसे ॥ २६ ॥
स्वान्तस्थानन्तशय्याय पूर्णाज्ञानमद्दार्णस्े ।
उन्तुकुवाक्तरड्डाय मध्चदुग्धाच्धये नमः ॥ २७ ॥
चास्मीकेंगी: पुनीयाज्नों महीघरपदाश्रया।
यद्दुग्धपुपजञ्जीवस्ति कचयस्टणका इव ॥ रे८ ॥
खूक्ति सलाकरे रस्ये सूतरामायणार्णने ।
विदहरूतेा महीयांख: प्रीयन्तां शुरवी मम ॥ २६ ॥
हयभ्ौव दहयञ्रीच हयश्रीवेति ये। चदेव्॥
तस्य निःसरते चाणी जहुफन्याप्रवाहवत् ॥ ३० ॥
नि
७
स्मातसमस्पदाय(
शुकस्घस्धरं विष्ण शशिवण चतुर्सेजम ।
सच्मवदन ध्यायेत्सवेविष्नोपशान्तये ॥ १॥
चागीशायाः खुमनसः सर्वार्थानाप्रुपकमे |
थे नत्वा छृतछृत्याः रुघुरुते नमामि गजाननम ॥ २ ॥
देशमिय॑क्ता चतुभिः स्फटिकमणिमयीमत्तमाला द्धाना
दस्तेनैकेन पद्म सित्मपि च शुर्क पुस्तक चापरेण !
ध्
( ७ )
भासा ऊुन्देनुशझस्फब्किमणिनिसा भासमानांसमाना
सा मे वार्ईवर्देयं निवसतु पदने सर्वदा छुप्रसन्ना ॥शा
कूजन्दं राम रामेति मघुरं मधुराक्षरम ।
शारहा कविताशाखां वन्दे वाद्मीकिक्रेकिलम् | ४ |
वाह्मोक्षेप्ुनिसिएस्प कवितावनचा रिणः ।
श्ट्य्वन्रमकथानाद के न याति पर्रा गंतिम् ॥ ५॥
यः पिवन््सतत॑ रामचरितासूतसागरम् ।
अतमस्त मुनि बन्दे प्राचेतसमकल्मपम् ॥ ६ ॥
गाप्पदीक्ृतवारीशं मणशक्लीकृतराक्त पम्त् ।
रामायग़ामद्ामाल रत्न वन्देषनिलात्मज्ञम् ॥ ७ ॥
अजञ्नाननदनं चीर॑ जानकीशोकनाशनम् |
क्पीणशमक्तइन्तार वन्दे लदझ्गभयडरम ॥ ८॥
उल्लइय सिन्धोंः सलिलं सल्ील॑
यः शेकपहि जनकात्मज्ञाया:
आादाय तेनेव ददाह लड़ी
नमामि ठं प्राश्षल्षिराज्षनेयम् ॥ 8 ॥
झाझनेयमतिपादलानन
काश्चनाद्विकमनीयविश्रहम् ।
पारिज्ञाततरुघूलवासिन
भावयामि पवमानननन््द्नम ॥ १० ॥
झीतन हि
थन्र यन्न रघुनाथक
तन्न तत्र छृतमस्तकाल्ज लिम् ।
(६
चाष्पवारिपरिपूर्णलेचर्न
मारुति नमत राज्सान्तकम ] १६१ १
मनेजवं मारुततुल्यव्गं
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां घरिष्टम्
घातात्मजं पानस्यूथमुख्य॑
श्रीरामदुर्त शिर्सा नमामि ॥ ऐ२ ॥
यश कर्याजलिससम्पुटैरदरहः सम्यक्पिवत्यादराात्
वात्मीकेर्यद्नारचिन्दगलित रामायणाख्यं मधु ।
जम्मव्याधिज्मराविपत्तिमरणेरत्यन्तसेपद्वच
संसार स विद्यय गच्छृति पुमान्विष्णो: पद शाम्वतम ॥ररे
तदुपगतसमाससन्धियेगं हा
सममधुरोपनतार्थवाक्यवद्धम् ।
रघछुघरचरितं पुनिप्रणीर्त
दृशशिरसश्च वर्ध निशामयध्यम् ॥ १४ ॥
धाल्मीकिगिरिसस्भूता रामसागरगामिनो ।
पुनातु छुबन पुणया रामायगमद्ानदी ॥ १५ ॥
श्लोकसारसमाकीर्ण सर्गकल्लोल्रसद्भूलम् ।
फाण्डआहमहामीन चन्दे रामायणाणवत्र॥ १६ ॥
घेद्वेचे परे पुंसि ज्ञाते दुशरथात्मजे ।
बेदः प्राचेतसादासीत्सात्षाद्रामायणात्मचा ॥ १७ ॥
चेदेहीलदितं खुरदुमतले हैमे महामण्डपे
मध्येपुष्पकमासने मणिमये वोरासने खुस्थितम ।
अग्ने वाचयति प्रभ्ननखुते तत्व॑ मुनिम्यः पर
व्याख्यान्त भरताद्भिः परिदृतं राम सजे श्यामलम ॥ै८
( ६ )
घामे मूमिसुता पुरशच एनुमान्पश्चात्उुमिन्ाछुतः
शरश्चा भरतदच पाइवबदलयावाय्यादिकाणिपु च |
छप्मीयदय पिमीषणए्च सुधराद ताराखुताो जवान
ध्ये नोल्तसरोज् क्रैमलयचि राम॑ भजे प््यामलम ॥९ १॥
नमाइस्लु रामाय सलर्मगाय
देव्ये थ तस्पवे जनकात्मजाय ।
नमोस्तु रद्े कयमानिलम्यों
नमोईस्नु चनद्धाकमस्दूगगोस्यः ॥ २०॥
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धोरामचतस्त्रायनमः
श्रीमते रामाठुनाय नमः
ध्रायाय शठऊपदेशिकमध प्राचायपारंपरोम,
धोमहध्मणयेगिवर्ययमुनावास्तम्यनाथादिकान ।
वात्मीकि सद्द नासदेन मुनिना चारदेवतावल्में,
सीतालइमगवायुयूउसदित धीरामचम्द्र सजे ॥ १॥
पितामहस्थापि पितामद्राय,
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धोनैलपुर्णाय नमेनमस्दात् ॥ २ ॥
'
प्रानेतसादेशफलप्रदाय ।
धीमाप्यक्रारोतमदेशिकाय,
जद्पोनाथ समारंभाम्,
नाथयापुनि मध्यमां
धस्मादाचार्य पर्यन्ताम
चंद्रे मुमपरग्पराम् ॥ ३॥
भ्रीवृत्तरत्नकुलवारिधिशीतभानुं,
श्रीध्षीनिवासगुरुवर्यसुतंछुतांसम् ।
गेाविन्ददेंशिकपदाम्वुजभ्ृड्ररा जम
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तप+स्वाध्यायनिरतं तपस्त्री वाग्िदां बरस! | '
नारद परिपप्रच्छ वात्मोकिसुनिपुज्ववम् ॥ १ ॥
तपस्या और स्वाष्याय ( बेद्पाठ ) में निरत और वोलने वालों
में श्रेष्ठ, श्रीनारद् मुनि ज्ञी से वाल्मीकि जी ने पूछा ॥ १॥
के न्यस्मिन्प्तांप्रतं छोके गुणवान्कश्न वीयंवान्।
धमंत्नश्व कृतज्ञध सत्यवाक्यां ढत्॒त। ॥ २॥
चारित्रेण च को युक्त) सवभूतेषु के हितः
विद्वान्क; क। समथरच करचेकप्रियदशनः ॥ ३ ॥
आत्मवान्को' जितक्रोधों चुतिमान्कोश्नसूयकः
करय विभ्यति देवारव जातरोपस्य संयुगे || ४॥
इस समय इप संसार में गुणवान, वीय॑वान, धर्मज्ष, झृतक्षक
( किये हुए उपकार के न भूलने वाले ) सत्यवांदी, हृढ़बत, अनेक
१ यावदिवरक्षितार्थप्रतिरादनक्ष मशब्दप्रयोगविदः तेषां वरस् श्रेष्ठ (गो०/
२ आत्मवान् -धर्मवान् ,गे।०)
# कई उपकारों की अपेक्षा न कर, एक द्वी उपकार के बहुत सावने वाछे |
( रा००) |
२ ' वालकायडे
प्रकार के. चरिषज्न'करने चाल्े, प्राणीमात्र के दितेपी, विद्दान, समर्थ#
श्रति दर्शहीयं, घैयंवान, क्रोध के जीतने वाल्ते, तेजस्वी, ईर्ष्या-
शुत्य, आर गुद्ध में ऋच देने पर देवताञं के भी भयभीत करते
घाल्ते, कौन है॥ २॥ ३॥ ४॥
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पर॑ कोतूहलं हि मे ।
महर्षे त्व॑ समये5सि ज्ञातुमेबंविध नरम ॥ ५ ॥
हे महपें | यद जानने का मुझे वड़ा चाय है ( उत्कथ इच्छा है )
' और आप ऐसे पुरुष का ज्ञानने में समर्थ हैं। ध्यर्थात् ऐसे पुरुष
के बतला भी सकते हैं ॥ ५ ॥
श्रुत्वा चैतबरिले।कज्ञो वास्मीक्रेनारदो बचः ।
. श्रूयतामिति चामन्व्य प्रहष्टो वाक्यम्त्रवीत् ॥ ६॥
यह खुन, तीनों लोकों का ( भूत, भविष्य, और वर्तमान )
पृत्तान्त जानने वाले देवषि नारद प्रसन्न हुए और कहने लगे ॥ ६ ॥
वहवे दुलभारचैव ये त्वया कीर्तिता गुणा) ।
सुने वश्ष्याम्यहं बुद्धवा तैयुक्तः श्रयतां नर: ॥ ७॥
है मुनि | आपने जिन गुणों का वखान किया है, थे सव दुलंभ
हैं, किन्तु हम ध्यपनी समझ से ऐसे गुणों से युक्त पुरुष का वतलाते
हैं, छुनिये ॥ ७ ॥
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जने! श्रत)।
नियतात्मा' महावीयों घुतिमान्ध्ृतिमानशवज्ञीर ॥ ८॥
३ बियतात्मा--नियतल्भावः (गा. वश्चोज्ात[प् 7८ (गेा०
२ तिमान्ू--निरतिशय।नन््दः( गे।०
वश्ी, सर्वखासीह्यथेः (गे०)
' # लौकिक ज्यवदार ८- प्रजाअ्षनादिक,
) वशोीक्षत्ान्तःकरण: (रा०)
) ३ वश्ी--सर्वजगतवशेषस्याल्तीति
उसमें कुशाछ | (रा०) *
प्रथमः सर्गः
मद्दाराज इक्त्वाकु के वंश में उत्पन्न भ्रीशमचन्द्र जी के
जन जानते हैं । वे नियतस्वसाव ( मन के वश में रखने वाले '
पड़े वली, झति तेजस्वी, आनन्दरूप, सव के स्वामी ॥ ८॥
'बुद्धिमान्नीतिमानवाग्मी श्रीमाज्शत्रुनिवंणः ।
विपुलांसो मद्ाबाहु। कम्बुग्रीबों महाह॒तु) ॥ ९ ॥
महारस्को महेष्वासे गूठजत्रुररिंदमः ।
आजाजुवाह। सुशिरा। सुललाट) सुविक्रम/ ॥ १०॥
सर्वक्ष, मर्यादावान, मधुरभापी, श्रीमानू, शधनाशक, विशाल
फंचे वाले, शोर सेदी भ्जाशों वाले, शहः के समान गरदून पर
तीन रेखा वाले, वडो हड्टी ( ठोढ़ी ) चाले, चोड़ी छाती वाले भोर'
विशाल धनुपधारी हैं । उनकी गरदन की हड्डियाँ ( हसुली हृड्डियाँ)
भाँस से क्विपी हुई हैं, उनकी दोनों वाँहँ घुटनों तक लडकती हैं।
उनका सिर और मस्तक खुन्दर है ओर वे बड़े पराक्रमी हैं ॥६॥१०)
सम; समविभक्ताडु; स्निग्धवर्णः प्रतापवान् ।
पीनवक्षा विशालाक्षों लक्ष्मीवाज्युभलक्षण। ॥ ११ ॥
उनके समस्त अड्ठ न वहुत छोटे हैं और न वहुत बड़े हैं, ( जे।
छैग जितना लंबा या छोटा हिना चाहिये वह उतना ही लंबा या
छोटा है। ) उनके शरीर का चिक्रना झुन्दर रंग है, थे प्रतापी या
तेजस्वी हैं | उनकी छाती भाँसल है, ( अर्थात् दृषट्टियाँ नहीं दिख-
लायी पड़ती ) उनके दोयों नेन्न बड़े हैं, उनके सव अ्ह् प्रत्यड्ध
छन्दर हैं और वे संब शुभ लक्षणों से युक्त हैं ॥ ११॥
_ | ददिमाद्--सर्वज' (गै०) २ नीतिभान्--मर्थादावान् (ये ०) ३ सदया[ घुद्धिमानू-लवेज्ञः (गे।०) २ चीतिमान्--मर्यादावान् (ये ०) ३ मदद
याहुः--व तपीवरबाहु३ (गे।०) ४ लक्ष्मीवान---अवयवशे।भायुक्तः (गो०)
| 8 वालकायडे
धर्मज्!' सत्यसन्धंश्व प्रजानां च॒ हिते रत;
यशस्वी ज्ञानसंपन्नः शुचिवेश्य; समाधिमान ॥ १२ ॥
थे शरणागत की रक्ता करना, इस अपने धर्म के जानने
पाले हैं। प्रतिक्षा फे उढ़ ( वादे के पक्के ) अपनी प्रज्ञा ( स्थाया )
के दितेषी, अपने ध्ाश्चितों की रक्षा करने में फीति प्राप्त, सर्वक्ष,
पवित्र, भक्ताधीन, ध्ाश्नितों की रक्ता के लिये चिन्तावान् अथवा
निज तत्व का चिन्तमन करने वाले हैं ॥ १२ ॥
प्रजापतिसम; श्रीमान्धाता रिपुनिषृदनः ।
रक्षिता जीवलेकस्य धर्मस्य परिरक्षिता | १३॥
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य* च रक्षिता ।
वेदवेदाज्भतत्त्ज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः ॥ १४॥
वे ब्रह्मा के समान प्रज्ञा का रक्तण करने वाले. पति शामावान
सव के पोषक, शत्र का नाश करने वाले अर्थात् वेदहीही अर
घर्मद्रोही उनके शतन्र हैं उनका नाश करने पाले, धर्मप्रवर्तक,
इवधर्म# ओोर ज्ञानो जन के रक्तक हैं। घेद वेदाड् के तत्वों के
ज्ञानने वाले तथा धनुविद्या में अति प्रवोण हैं।॥ १३६॥ १७ ॥
सर्वशास्रार्थतत्त्वज्ञ। स्मृतिमान्मतिभानवान् ।
सबलेकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षण:* ॥ १५॥
१ धर्मेज्ा--शरणागतरक्षणरूपं जानातीति घर्मज्ष। ( गे० ) २ समा-
घिमानू--समाधिः आश्रितरक्षणचिन्तातद्वान् (ग्रो०) ३ स्वजन+--खभूतोज्नश
. स्वजन३, ज्ञाडी (गे।०)-४ विचक्षण+--कौकिकालौकिक करियाकुशल: (गो०).
# अपने घर; भर्थात् यज्ञ, अध्ययन, दान, दण्ड और युद्ध की विशेष
हप से रक्षा करने वाले हैं|
प्रधमः सर्गः ४.
ये सर शार्खरों के तत्यों फे भली भाँति ज्ञानने पाले,#
ध्रस्द्ठी सारण शक्ति घाले, मद्दा प्रतिभाशाली, सर्वप्रिय, परमसाधु,
कमी देन्य प्रदर्शित न करने वाले, प्रर्धात् बड़े गम्भीर, प्रोर
सिकिक धलीकिक क्रियाप्रों में कुणल हैं ॥ १५॥
सर्वेदाभिगतः सद्ठिः समुद्र इ सिन्धुमिः |
ई् न ० प्रियदर्शन
आय; स्वेसमइचेव स्देव प्रियद्शनः ॥ १६ ॥
ज्ञिस प्रकार सब नदियाँ सप्रद्र तक पहुँचती हैं, उसी प्रकार
सज्जन जन उन तक सदा पहुंचते हैं ध्र्थात् क्या प्रस्ाभ्यास के
समय, कया माजन काल में, उन तक ध्च्छे लोगों को पहुँच सदा
रहती है। प्रच्छे लोगों के लिये उनके पास ज्ञाने फी मनाई कभी
नहीं है। घे परम धेछ हैं, थे सबके प्र्थात् ब्राह्मण त्तत्रिय वैश्य
शुद्र- पशु पत्ती--जै फोई उनका हो, उसके समान द्वृष्टि से देखने
धाके दें श्रौर सदा ग्रियदर्शन हैं॥ १६ ॥ '
सच सर्वगुणापेतः कॉसल्यानन्द्वर्धन: ।
समुद्र इंच गाम्भीर्यें धर्येण हिमवानिव ॥ १७ ॥
विप्णुना सदशो वीर्य सेमवत्मियदर्शनः ।
कालाग्िसदश; क्रोधे क्षमया पृथिवीसम! ॥ १८ ॥
वे सव गुणों से युक्त कोशल्या के ध्ानन्द के पढ़ाने वाले हैं।
वे गम्मीरता में समुद्र के समान, थैय॑ में हिमालय फी तरह, पराक्रम
में विष की तरह, प्रियदर्शनत्व में चन्द्रमा फी तरह, क्रीध में फालामि'
* के समान, कौर त्तमा करने में पृथिवी के समान हैं| १७॥ १८॥
० चर्मशास्त्रं पुराणं चमीमसा5एनन््वीक्षिकी तया ।
चध्वायेंतान्युपाड्वानिशासंत्राः संप्रचक्षते ॥
* ! हा" बालकायडे
धनदेन समस्त्यागे सल्ये धर्म इवापरः ।
तमेवंगुणसंपन्न राम॑ सत्यपराक्रमम् ॥ १९ ॥
वे दान देने में कुवेर के समान अर्थात् जब देते हैं तब अच्छी
|] तरह देते हैं, सत्यभाषण में मानों दूसरे धर्म हैं। ऐसे गुणों से खुक्त
$सत्यपराकरी श्री रामचन्द्र जी हैं॥ १६ ॥
ज्येष्ठं श्रेषठाणणैयुक्त॑ प्रियं दशरथः सुतम्।
प्रकृतीनां' हितैयुक्त प्रकृतिप्रियकास्यया ॥ २० ॥
यौवराज्येन संयेक्तमैच्छलमीला महीपतिः ।
तस्पामिषेकसंभारान्दष्टा भार्याप्य कैकयी ॥ २१ ॥
( ऐसे ) श्रेष्ठ गुणों से युक्त प्यारे तथा प्रजा के हित के चाहने
वाले ज्येछ ( पुप ) भ्रीरामचन्द्र जी थे, प्रज्ञा की हित्तकामना के
दद्देश्य से, महाराज दृशरथ ने प्रोति पू्षंक युवराज पद् देना चाहा ।
'ओोपम्रामिषेक् की तैयारियाँ देख, महाराज दशरथ की प्रिय महिषी
"कैकेयी ने ॥ २० ॥ २१॥
पूर्व दत्ततरा देवी वरमेनमयाचत ।
विवासन च रामस्य भरतस्थाभिषेचनम्॥ २२॥
पहिले पाये हुए दो! वरदान ( महाराज दशरथ से ) माँगे।
एक चर से भ्रीरामचन्द्र ज्ञी के लिये देश निकाला और दूसरे से
( प्रपने पुत्र ) भरत का राज्याभिषेक ॥ २२ |
स सत्यवचनाद्राजा धर्मपाशेन संयतः |
विवासयामास सुत॑ राम॑ दशरथः प्रियस् ॥ २३ ॥
३ परहणीवा...पुछ- अरब प्यदलागक। पर. "77 प्रकृत्ीना ...युक्त॑-अनेन सर्वानुकूत्यमुक्त । (गो०)
प्रथमः सर्गः ७
घमपश से बद, ( धथात् प्पनो बात के घनो होने फे फारण ) :
' सत्यतधादां मदाराज दशरथ ने, प्राण से भी चढ़ फर पपने प्यारे
उप धारामचद्ध जी के पनगमन की धात्षा दो ॥ २३॥
से जगाप्र बने बार! मव्ित्वामनुपालयन |
पितुबंचननिर्देशास्केकरेय्या: प्रियकारणात् ॥ २४ ॥
पारवर धारामचत्र जी, पिना फो श्रात्षा का पानन फरने
प्रार फकयो के प्रसन्ष करने के लिये पिठ्ग्राक्ानुसार बन के
गये॥ २४ ॥
तें व्रजन्तं प्रिया भ्राता लक्ष्यणेश्लुनगाम है ।
स्नेहाट्िनयसंपत्न! सुमित्रानन्दवभन। ॥ २५ ॥|
,.... माता सुमित्रा के घानन्द के बढ़ाने घाले# स्नेह शैर विनय
से सम्पन्न श्रीलत्मण ज्ञी ( श्रात-स्नेह-चश )। धीरामचन्द्र जी के
पीछे # लिये ॥ २५॥
श्रातरं दयितों श्रातु! साम्राव्रमनुदशयन् |
रामस्य दगिता भाया नित्य॑ प्राणसमा हिता ॥ २६ ॥
जनकऋत्य कुछे जाता 'देवमाय्ेव नि्मिता |
सर्वलक्षणसंपत्ना नारीणामुत्तमा वधूः ।
सीताप्यतुगता राम॑ गशिन राहिणी यथा | २७॥
__] देवमायेबनिर्मिता --अद्वमथनानन्तरमपुरमे।दनाथनिर्मिताबिष्णुमा
येबरश्थिता (गो०)
# विनय से सम्पत्ष | | छन्नाहृभाव का प्रदर्शन करते हुए ।
दर वालकाणडे
क्षैन्ों भाइयों के जाते देख, श्रीयाम जी की प्राण्ों फे समान
सदा दितैषिणी, रज्ञा जनक की बेटी, सात्तात् लक्ष्मी का शव-
वार और स्त्रियों के सर्वोत्तम गुणों से युक्त, श्रीसीता जी भी
'प्ोरामचन्द्र जो के साथ वैसे ही गयीं, जेसे चन्धरमा के साथ
शेद्दिणों ॥ २६॥ २७ ॥
पेररनुगतो दूरं पिन्रा दशरयेन च।
शूल्लिबेरपूरे सू्त गड्ाकूे व्यसजेयत ॥ २८ ॥
इस तीनों के पीछे दूर तक महाराज दशरथ और पुरधासी भी
गये। श्टड्रबेरपुर में पहुँच कर गड्जा जी के किनारे भ्रीरामचन्ध
औ ने (रथ सहित अपने ) सारथी (छुमंत ) के भी लोठा
दिया ॥ १८ ॥
गुहमासाथ धर्मात्मा निषादाधिपति प्रियम् ।
गुहेन सहितो रामे! लक्ष्णेन च सीतया॥ २९ ॥
ते बनेन वन गत्वा नदीस्तीला बहुदका! ।
चित्रकूटमजुप्राप्य भ्रदाजस्थ शासनात् ॥ ३० ॥
धर्मात्मा श्रीरामचन्द्र ज्ञी निषादों ( महाहों ) के पुलिया धपने
प्यारे गुहु से मिले । ध्रीरामचन्द्र जी, भ्रीजक््मण जी, श्रीसीता जी
और शुद्द पहुत जलवाजी श्रर्थात् वड़ी बड़ी नदियों के पार कर,
नेक यनों में घूपें फिरे और भरद्वाज मुनि के बतज्ाये हुए वित्र-
कूट में पहुँचे ॥ २६ ॥ ३० ॥ सर
रम्यमावसथ्थ कृत्वा रमम्राणा बने त्रय! ।
. देवगन्धरवसंकाशास्तत्र ते न्यवसन्युखम्॥ ३१ ||
प्रथमः सगे: ६
उस रख्य स्थान में तीनों ( भीराम, श्रीलह्मण और सीता )
रम गये भर्थात् दस गये। देवता और गन्धर्वों की तरह घ्दां ये
तौनों छुस पूर्वक रहने लगे ॥ ३१॥
चित्रकूट गते रामे पुत्रशेकातुरस्तदा ।
राजा दशरथः खर्ग जगाम विलूपन्तुतम्॥ ३२॥
भीरामचन्द्र जी के चित्रकूट में पहुँच जाने बाद ( उधर )
अ्रयाष्या में पुत्नधियोग से विक्रल महाराज दशरथ हा राम | हा
राम कह कर विलाप करते हुए स्वर्ग सिधारे ॥ ३२॥
मते तु तस्मिन्भरतो वसिष्ठप्रमुखेद्धिने! ।
निमुज्यमानो राज्याय नेच्छद्राज्यं महावर। ॥ ३३ ॥
महाराज्ञ के (इस प्रकार ) स्वर्गंवासी होने पर चशिष्ठादि
प्रतुख द्विज्ञवर्यो' ने धीभरत जी के राजतिलक करना चाद्दो,
किन्तु भरत जी ने यह स्वीकार न किया॥ ३३ ॥
स जगाम वन बीरो रामपादप्रसादक! |.
गता तु सुमहात्मान॑ राम॑ सत्यपराक्रमम || रे४ ॥
शोर थे पूज्य भ्रीरामचन्द्र जी को प्रसन्न कर मनाने वन के
गये । सत्यपराक्रमी महात्मा श्री रामचन्द्र जी के पास पहुँच
कर ॥ २५ ॥
अयाचदआ्रातरं राममायभावपुरस्कृतः ।
त्वमेव राजा ध्मज्ञ इति राम वचाजथवीत् ॥ २१५ ॥
१ रामपादम्रसादकः यूज्यरासंप्रसादबिजुमिलर्थः (गो०) २ अयाचत् --
प्राश्याम्ास (गो०)
, १० वालकायडे
उन्दोंति अत्यन्त विनय सात से प्रार्थना की है राम | आप धर्म
हैं ( अ्र्थाव् यद धर्म शाख की धाज्ञा है कि बड़े भाई के सामने छोटा 7
भाई राज्य नहीं पा सकता) अतः झापददी राजा द्वोने योग्य हैं ॥ २४॥
रामाजपि परमेदार। सुझ्ुखः' सुमहायश्ञा+* ।
न चेच्छत्पितुरादेशाद्राज्यं रामे महावल। ॥ ३६ ॥
किन्तु श्रीराम जो के अति उदार पत्यन्त प्रसन्नददन शोर
श्यति यशस्वी दोने पर भी, उन महावत्ती श्रीराम जी ने पिता के
धादेशानुकूल राज्य करना स्वीकार नहीं किया ॥ ३६ ॥
पादुके चास्य राज्याय न्यासं दत्त्वा पुनः पुनः ।
निवर्तयामास तते भरतं भरताग्रज/ ॥ ३७॥
राज्य का कार चलाने के लिये अपनो ( प्रतिनिधि रूपो )
खड़ाऊ भरत के दों और अनेक वार उनके समझता कर
लोदाया ॥ ३७ ॥
स काममनवाप्येव रामपादावुपस्पृशन् ।
नन्दिग्नामेष्करेद्राज्यं रामागमनकाहुया ॥ ३८ ॥
भरत जो धीराम जो द्वारा अपने मनेारथ के इस प्रकार
प्राप्त कर, उनके चरणों के स्पर्श करतथा धोरामबन्द्र जी के लौटने
की प्रतीक्षा करते हुए, नन्दिप्राम में रह कर, राज्य करने लोग ॥ ३८ ॥
गते तु भरते श्रीमान्सल्यसंधे। जितेन्द्रिय:३ |
रामस्तु पुनरालक्ष्य नागरस्य जनस्थ च॥ ३९ ||
५ .._? झबुलाः-अर्धिनवलभेबप्ातुब, गा.) 7 पापा पे उउ सुमुखः--अधिजनलामेनग्रप्नन्नमुखः शे।०) २ सुमदायशाः “नदाथिनः
कायवशादुपेता: काकुषत्थवंशे विमुखा/प्याल्द'! विष्णुपुरागे (गो०) ३६ जिते-
न्ियाः--मातृभरतादि प्रार्थना ज्याजेश्नद्यपि राज्यभोगलौलित्परदितः (यो)
प्रधमः सर्गः ११
भरत जो के लोद ध्राने पर, सत्य प्रतिप्त और जितेच्धिय श्रीमान्
»» पमचन्ट् जी ने % यद विचार फर क्रि, चिभरकूद में ( हमारा वास
जान कर ) अयेध्यायासियों का ध्ाना ज्ञाना शुरू हो गया है,
[ भार उन लोगों के आने से चित्रकूट चासी तपस्ियों के जप
तप में वित्तेप पड़ता है ) ॥ ३६ ॥
तम्रागमनमेंकाग्रो! दण्दकान्पविवेश है ।
प्रविश्य तु महारण्यं रामे राजीयलेाचन! || ४० ॥
पिदृधात्ता के पालन में दृत्तव्रित श्रीरामचन्ध ( चित्रकूट छोड़ )
दग्टफारणय बन में चत्ने गये प्योर दृग्डक्न में पहुँच राजीव-
क्षाच्नन ध्रोरामचन्द्र जी ने ॥ ४० ॥
विराध राक्षस हत्या शरभड्ढ ददश ह ।
सुतीक्ष्ण चाप्यगस्य॑ च् अगस्लश्रातरं तथा ॥ ४१॥
विराध नामक एक रात्ञस के ज्ञान से मारा श्रौर तत्पश्वात्
वे शरभड़ ऋषि से मिक्रे। तत्श्चात् वे ुतीदण, अगसूय और
ध्रगस्य के भाई से मित्ते ॥ ४१॥
अगस्त्यवचनाच्चव जग्राहेन्द्रं शरासनम् |
खड़े च परमपीतस्तृणी चाक्षयसायका || ४२॥
१ एकाग्र: पितृवचन पालने दत्तावधाना (गो?)
# किसी टीकाकार ने ऐप्ता लिखा है--श्री रामचन्द्र जी ने यद्द सोच कर
कि; विन्नकूट में हमारी स्थिति को ज्ञान कर निकट दाने के कारण अयेध्या-
बासी और ख़ास कर महाराज दशरथ के साथ में रहने वाले चुंढ मन्त्र
गण भाने छगेगें, किर चित्रकूटवासियों का यद्ध कहना कि, आप छेग यहाँ से
जाये, भच्छा न होगा; इसलिये उन्दोंने चित्रकूट छोड़, दण्डकपन में प्रवेश किया |
१२ बालकायडे
धगरत्य जो के कहने पर उनसे उन्होंने इन्द्र का धनुष भरहणा
किया ( ध्र्थात् लिया ) साथ ही परम प्रसन्न हे कर, एक प्रति .
पैती तलवार और तरकस जिसमें वाण फभी चुकते दी न थे,
(श्री रामचन्द्र जो ने अगस्त्य जो से ) लिये ॥ ४२ ॥
वसतस्तस्य रामस्प बने वनचरे!' सह।
ऋषयेउभ्यागमन्सर्वे वधायासुररक्षसाम् ॥ ४३ ॥
उस वन में, उन वानप्रस्थ ऋषियों के साथ रहते समय, रातास
और ध्यछुरों का नाश करवाने की कामना रखने वाले, ऋषि राम-
चन्द्र के पास गये॥ ४३ ॥
स तेषां प्रतिशुभ्राव राक्षसानां* वध बने ।
प्रतिज्ञातवच रामेण वध; संयत्तिर रक्षसाम्॥ ४४ ॥
श्रोस,पचन्द्र जी, ने दस्डकारण्यवासी राक्तसों के चध कराने --
के लिये जेसी कि, ऋषियों ते प्रार्थना को थो, तदुसार युद्ध में ,
उनकी मारने के लिये प्रतिज्ञा की ॥ ४४ ॥
ऋषीणामश्रिकस्पानां दण्डकारण्यवासिनामू |
तेन तत्रेव वसता जनस्थाननिवासिनी ॥ ४५ ॥
इस प्रतिक्षा का खुन भप्नि के समान तेजस्वी दृष्डफवासी
ऋषियों ने जाना कि अब राक्तस अवश्य मारे जायेंगे । इसके
पश्यात् उसी जनस्थान में रहने चाल्ी ॥ ४४ ॥
विरूपिता शूपणखा राक्षसी कामरूपिणी |
एः
ततः शूपंणखावाक्याहुब॒क्तान्सवराक्षसान् ॥ ४६ ॥
१ वनचरेः--वानप्रस्थे: (रा० ) २ राक्षत्रानांचने--दण्डकारण्ये |
है संयति--युद्धे (गो०)
प्रथमः सगे: १
खर॑ त्रिशिरसं चव दूषणं चेंव राक्षसम ।
निजधान रणे रामस्तेपां चंव पदानुगान!ं ॥ ४७७॥
क्रामरुपिणी ( अपनी इच्छानुसार प्रपता रूप बदलने वाली )
रात्तती छपनखा के, उन्होंने विरुप किया। तत्पप्थात् सूपनखा
के वाफ्यों से उत्तेज्ञित है। लड़ने के लिये ध्याये हुए खरदूपण
जिशिरादि तथा उनके सव धानुचरों के श्रीरामचन्ध जी ने युद्ध में
मार डाला ॥ ४६ ॥ ४७॥
बने तस्मित्रिबसता जनस्थाननिवासिनाम ।
रफ्तसां निहतान्यासन्सइस्ताणि चतुदंश | ४८ ॥
श्रीरामचन्द्र जी ने उस चन में वसते हुए, चोदद हज़ार
जनध्थानवासो राप्तत्तों के माए डाला ॥ ४८ ॥
तते ज्ञातिबर्ध श्रुत्वा रावणः क्रोपमूछित:
सहाय॑ वरयामास मारीच॑ नाम राक्षसम ॥ ४९ ॥
ध्पनी जाति वालों के चध का संवाद खुन, रावण बहुत क्रुद्ध
हुमा ओर मारीच नाम राज्ञस से सहायता माँगी ॥ ४६ ॥
वायमाण; सुवहशे मारीचेन स रावण; ।
न विराधा वलवता क्षमा रावण तेन ते ॥ ५० ॥
मारीच ने रावण के वहुत मना किया और कहा कि दे रायण
: अपने से पध्रधिक वलचान के साथ शत्नता फरनी अभ्रच्छी बात
नहीं क्र ॥ ५० ॥ *
१ पदालुगान--अनुचर्राद्च (गो?)
॥
श्छ वाह्नकाणंडे
|
अनाइत्य तु तद्वाक्य॑ रावण! कालचेदितः ।
|. जगाम सहमारीचस्तस्याश्रमपर्द तदा ॥ ५१॥
किन्तु कालचशवर्ती राचण ने मारीत्र की वातों का पअनाद्र
किया ओर उसी समय मारीच के साथ ले वह उस प्राश्रम में
'गया जहाँ श्रीरामचन्द्र जी रहते थे ॥ ५१॥
तेन मायाविना' दृरमपवाह्म हृपात्मजी |
जहार भार्या रामस्य ग्रध॑ हत्वा जटायुपम॥ ५२ ॥
मारीच दोनों राजकुमारों के शआ्राश्रम से दुर हटा लेगया। ,
उसी सम्रय रावण जठायु नामक गिद्ध .के मार श्रीरामचन्द्र जी
की भार्या भ्रीजानकी जी के हर के गया ॥ ४५२ ॥
गरृध्ध॑ च निहत॑* हृष्ठा ह॒तां श्रुत्वा च मैथिलीमू ।
राघव; शाकसंतप्ती विललापाकुलेन्द्रिय/ ॥ ५३ ॥
जठायु के मृत्युप्राय दशा में देख छोर डससे सोता जी का
हरा ज्ञॉना सुन, भ्रीरामचन्द्र बहुत शाकसन्तप्त हुए और विकल हो।
उन्होंने विज्ञाप किया। ॥ ५१ ॥
ततस्तेनेव शेकेन थृभ्न॑ दश्ध्वा जदायुषम् ।
मागमाणे बने सीतां राक्षस संददश ह।॥ ५४ ॥
तस्पश्चात् उस शोक से व्याकुल श्रीरामजी ने, जठायु की दाहक्रिया
कर, वन में सीता जी के हूं ढ़ते समय, एक राज्ञस को देखा ॥ ४४ ॥
कबन्ध॑ नाम रूपेण विक्ृत घोरदर्शनस ।
त॑ निहत्य महाबाहुदेदाह खर्गतरच सः॥ ५५॥
१ सायाविना --सारीचेत ( रा० ) २ निद्वतं--मुमूष (गो०)
प्रधमः सर्गः १्भू्
उस राक़्स का नाम फक्स्ध था शौर चह वह़ा विकराल
« सैयडुर रूप का था | प्रोरामचद्ध जी ने उसे मार कर दग्ध
जिससे धह स्वर्ग गया ॥ ४४ ॥ *
स चाऊरुय कथयामास शबरीं धम्रचारिणीम् ।
श्रमर्णी' धमनिषुणाम'मिगच्छेति राघवम ॥ ५६ ॥
घर्ग जाते समय कपन्ध ने तपस्विनी धर्मचारिणी शवसी के।
' पास आने के लिये श्रीरामचन्द्र जी से कहा ॥ ४६-॥
सोध्श्यगच्छन्महातेजा। शवरी शत्रसूदन:
शवया पूजितः संस्यग्रामो दशरथात्मजः ॥ ५७ ॥
शत्र के नाश करने वाके महातेज्स्त्री ध्रीयमचन्र जी शवरी
के पास गये। शबरी ने दृशरथनन्दून भीरामचन्द्र जी का भली
भाँति पूजन किया॥ ४७ ॥
पम्पातीरे हनुमता संगतो वानरेण ह* |
इनुमदचनाच्चेव सुग्रीवेण समागत३ ॥ ५८-॥
पंपासर के समीप उनकी भेंट दृश्ुमान नामक वंद्र से हुई झोर
हनुमान जी के कहने पर धीरामचन्द्र जी का सुप्नीव से समागम
हुआ ।॥ ५४८ | हे
सुग्रीवाय च तत्सवे शंसद्रामे. महावरूः
आदितस्तद्यथाहत्तं सीवायाश्च विशेषतः ॥ ५९ ॥
पराक्रप्ती श्रीरामजी ने आदि से ज्ेकर और विंशेष कर सीता
* जी के हरे जाने-का सव द्वाल सुग्रीव से कद्दा ॥ ५६॥
। ध्रमणी--तपस्रनी ,(गै।०) २ धर्मनिषुणाम--धर्मयूक्ष्मज्षां (गो०)
३ ६द-दड्ति दप (शि०
दा ०र०--२
. बालकायड़े
सग्रीवश्चांपि तत्सवे श्रुत्वा रामस्य वानरः ।.
चकार सख्य॑ रामेण प्रीतृश्चेवाभिसाक्षिकम् ॥ ६० ॥
.. घानर सुम्रीव ने भी श्रीरामचन्द्र का सारा' पृत्तान्त खुन ओझोर
झग्मि को साक्ती कर मैत्री की ॥ ६० ॥
ततो वानरराजेन वेराजुकथंनं प्रति ।
रामायावेदितं सब प्रणयाददुःखितेन च ॥ ६१
तदनन्तर वानरराज ते श्रीरामचन्द्र ज्ञी पर विश्वास कर कोर
खी दा उनसे वाल्ली को शन्रता फा सम्पूर्ण हाल कद्दा ॥ ६१॥
'.. प्रतिज्ञात॑ च रामेण तदा वालिवधं प्रति |
वालिनश्व बल तत्र कथयामास वानंर। ॥ ६२॥
उसे सुन श्रीरामबन्द्र जी ने वाली के चध की प्रतिक्षा की ।
तब खुप्नीव ने वाल्ली के वल पराक्रम का वर्णन किया ॥ ६२॥
सुग्रीवः शद्धितआसीज्नित्य॑ वीर्येण राघवे |
राघवप्रत्ययाथ' तु दुन्दुभे! कायपमुत्तमम्रे ।| ६३ ॥
सुप्रीव के भीरामचन्द्र ज्ञी के झत्यन्त वल्ली द्वोने में
अतः भ्ीरामचन्द्र जी की जानकारी के लिये दुन्दुभी शक्तसके
बड़े लंबे शरीर की हड्डियों का ॥ ६३ ॥
दशयामास सुग्रीवो महापवंतसंनिभम् ।
उत्स्मयित्वा महाबाहुः प्रेश््य चारिथ महावरू। ॥ ६४ ॥ -
: १ राघचप्रत्ययाधे--रामविषयज्ञानाथ ( गे।० )
राश्यि ( गे ) ३ उत्तप्त-- उन्नत ( गेल )
२ कार्य --कायाका-
श
' प्रधमः सगे े १३
हेर, जे एक बड़े पहाड़' के समान था, छुग्रीव ने लंबों
मुज्ञाओं वाले आरामचन्द ज्ञी का दिखलाया। उसके देखे महा
बलवान श्रीरमचन्द्र मुसक्याये ॥ 5४ ॥
पाद्ांगुष्ठेन चिक्षेपं संपूर्ण दशयेजनस् |
विभेद च पुन! सालान्सप्रकेन महेपुणा ॥| ६५ ॥ ४
श्र पैर के शगूठे की ठोकर से उस हड्डियों के ढेर को चंह्ाँ |
सै.दूस येज्षन दर फेक दिया। फिर एक हो वाण सात ताल .
घुत्तों के छेंद्रता हुआ, ॥ ६५ ॥
गिरिं रसातल्ं जैव जनयत्मत्यय॑ तदा। . .
तत। पोवमनास्तेन विश्वस्तः स महाकपि। ॥ ६4 ॥
पहाड़ फोड़, स्सातल के चला गया । तब ते सुप्रीव का सन्देह
दूर हो गया | तद्वन्तर छुप्रोव प्रसन्न दि भोर विश्वास कर ॥ हैई ॥
किफिन्यां रामसहितों जगाम च गुहाँ' तदा ।
ततोअ्मज॑द्धरिवर; सुग्रीवो हेषपिज्ञ छः ॥ ६७ ॥
श्रीरापजी के साथ ले गुफा को तरद्द पचतों के वीच' बसी
हुई किम्किस्धा पुरी के गये । पहाँ पहुँच पीले नेत्र वाले खुप्रीव ने
' ज्ञोर से गरजना की ॥ ६७ ॥
तेन नादेन महता निर्ंगाम हरीश्वरः
< अजुमान्यः तदा तारा सुग्रीवेण समागतः ॥ ९4 ॥
6 30 किक 57द आर _म 2 मल सक कद अल डक
॥ उच्चिशेस्-उद्स्यम्यचित्ेत (गै०) २ शुद्धं-सुझवत्पवंतमब्यवरतिं तींपूर्री
(गान) ३६ भवुतान्य --परिपान्ल्य ; सन्तेष्य (गो):
श्ड़ वालकांणडे'
*.' उस महागर्जन के खुन महावली'चाली वाहिर निकला | ( तास
के मना करने पर ) वालि ने तारा के समक्राया ओर वह सुन्नीव
से ध्या सिड़ा.] दै८ ॥
निरमघान च तत्रेन' शरेणेकेन्त राधवः ।
तत॥ सुग्रीववचनाद्धत्वा वालिनमाहवे* ॥। ६९ ॥'
श्रीरांमचन्द्र. जी ने इसी वीच में एक, दी वाण से युद्ध करते
हुए वालो के मार डाला | तद्नत्तर सखुग्नीव के कद्दने से खुआ्ीव॑ से
युद्ध करते समय वाली के मार कर, ॥ ६६ ॥
सुग्रीवमेव तद्राज्ये राघवः प्रत्यपादयत् ।
स॑ च सर्वान्समानीय वानरान्वानरपभः ॥ ७० ॥
, श्रीरामचन्द्र जी ने किष्किन्धा का राज्य खुप्नीव के दे दिया।
तब बन्दरों के राजा सुत्रोव ने वानरों के एकत्र कर ॥ ७० ॥
दिल प्रस्थापयामास दिरक्षुजनकात्मजास |
ततो गशध्रस्य बचनात्संपातेहेनुमान्चछी ॥ ७१ ॥
बनके सीता जी के लाजने के लिये चारों ओर भेज्ञा | तद
समस्पाति नामक शुद्ध के बतलाने पर महावत्नो हतुमान, ॥ ७१ ॥
शतयेजजनबिस्ती्ण पुप्छेवे लवणाणवम्र ।
तत्र लट्ढां समासाद पुरी रावणपालिताम् || ७२ ||
सै। योज्नन चौड़े खारी समुद्र को लाँध, रावणपालित लक
तुरी में पहुँचे ॥ ७२ ॥ का
१ एनें.--परेणयुडुकृतम पिवालिनं (गे।०)
२ आाइवे--सुप्रीवस्ययुदे (यो०)
प्रधमः सर्गः १६
दद्श सींतां ध्यायन्तीमशेकवनिकां गताम् ।
ः. निर्वेदयित्वाअभिज्ञानं पहत्ति चु निवेध च.॥ ७३ ॥
. अशेकवन में थश्रो रामचन्द्र जी के ध्यान में मन्न सीतु जो के
' देखा । फिर श्रीरामचन्द्र जी की दी हुई शंधूठी सीता जो फी दे दी
' ओर श्रोरामचन्द्र जी का सब हाल कद्द ॥७३॥
संमाश्वास्थ च पैदेहीं मदेयामास तेरणम्' |
पञ्च सेनांग्रगानइत्वा सप्त मन्त्रिसुतानपि ॥ ७४ ॥
सीता जी की घोसज बूँधाया | फिर '्रशाकवाटिका. के वादिर
चाले फांदक के तोड़ डाला तथा ( रावण के ) पाँच सेनापतियों'
के, सात मंत्रि-पुत्रों का ॥ ७४ ॥
भूरमक्ष॑ च निष्पिप्य ग्रहर्ण समुपामगमत् । ,
अस्नेगेन्युक्तमात्मानं ज्ञात्वा पैतामहाइरात् ॥ ७५ ॥
. और शूरवीर ( रावगापुत्र ) प्रत्तयकुमार को पीस ,कर,
( धर्धात् मार कर ) शात्मसमर्णण किया । हनुमान जी. ले प्रह्माज्ी के
चरदान के प्रभाव से ध्रपने का त्रह्माख से भक्त जान कर भी ॥७५ ॥
मर्पयन्राक्षसान्वीरो यन्त्रिणस्तान्यदच्छया |
ततो दर्ध्वा पुरी लक्कामते सीतां च मेथिलीम् ॥| ७६ ॥
रात्त्ों की इच्छातुसार श्रपने के वँधवाया और उनके सब
झनादर सहे, फिर ध्रीसीता ही के स्थान के छोड़ समस्त लडा
भ्रम कर ॥ ७६ ॥ ह '
१ तोरणं--अश्ोकवर्निकबद्दिदारिं (गौ ) मा वन गीली
शक बालकायंडे
रामाय प्रियमाख्यातुं पुनरायान्महाकपि! |
से5मिगम्य महांत्मान॑ कृत्वा राम॑ प्रदृ्षिणम् || ७७ ॥
हनुमान जी, श्रोगयम जी के यद खुखदायी संवाद-सुनाने के
ल्लौठ धमाये । श्रीरामचन्द्र जी की परिक्रमा कर प्मपरमित चैंय और
बलवान हनमान जी ने ॥ ७४ ॥
न्यवेदयदमेयात्मा' दृष्ठा सीतेति तत्त्व: | ' .
तृतः सुग्रीवसहिते गत्वा तीरं महादधे! ॥ ७८ ॥
सीता ज्ञी क देखने का ज्यों का त्यों सम््त चृचान्त उनसे कहा।
तब छुम्मीव आदि के साथ ले (भ्रीरामचन्द्र जी.) समुद्र के तट
पर पहुँचे ॥ ७5॥ - तल
समुद्र क्षोमयामास शरेरादित्यसंनिभ; । ु
दशशयामांस चात्मानं समुद्र/ सरितांपतिः-॥ ७९.॥ .
और सूर्य के समान चमचमाते ( भर्थात् पैने ) वाण से सप्तुद्र
के कुब्ध कंर डाला | तव नदीपति सप्तुद्र सामने आया ॥ ७६ ॥
,सममुद्रबचनाओ्ैव नर सेतुमकारयत्।
'तैन गत्वा पुरी लड्जां हत्वा रावणमाहवे || ८० ॥
,. और उसके कथनाछुसार नत्न ने समुद्र का पुल वाँधा '
डस पुल पर हो कर भ्रीरामचन्द्र लड्ढ पहुँचे और रावण का
' बुद्ध में वध कर ॥ ८० ॥
रामः सीतामजुप्राष्य परां त्रीडामुपागमत् ।
.तामुवाच तते रामः परुषं जनसंसदिर ॥ ८१॥
जाकर कक पता आालतादक 7 यम प इक इनक कपल > 73 22 पल आलम कस: मम कस
! कमेयात्मा--अपरमितभैयेयलादिवान (गो०) २ तत्त्वतः--यथावद
(गोल) ३ जनसंसदि--देवादिसभायां (गो०)
प्रथमः सर्गः श्श्
सीता जी को प्राप्त कर वे बहुत सझ्लेेच में पड़ गये। ॥ -
जो ने सब के सामने सोता जी से कठोर वचन कहे || ८१ ॥
अमृप्यमाणा सा सीता विवेश ज्वलनें संती |
: ततेअग्रिवचनात्सीतां ज्ञात्वां विगतकेल्मपाम्' | ८२॥
कठोर वचनों को न सद कर सीता जी ने जलती आग में प्रवेश
किया। नव प्रप्निदव की सात्ती से सीता के निश्षाप मान | ८०५ "
यम रामः संप्रहुष्ठ पूजितः सवदवते! |
कंमंणा तेन महता श्रले[क्यं सचराचरम ॥ ८३ ॥
,. खब देवताप्ों से पूजित श्रीरामचन्द्र जी प्रसन्न हुए।
' श्रीरामचन्द्र जी के इस कार्य से ( राचशवध से ) तीनों लेकों
चर ध्यचर, ॥. परे | ४
: संदेवपिंगणं तुप्ठ राधवस्य महात्मंनः ।.
अभिषिच्य च लड्ढायां राक्षसेन्द्रं विभीषणम् || ८४ ॥
देव और ऋषि सन््तुए हुए । तदनन्तरं रात्तसरांज विभीषण
लड्डा के राज्नसिददासन पर विठा ॥ ५४० ॥ |
कृतकृत्यस्तदा रामे पिज्वर/प्रमुमेद ह |.
देवताभ्ये! वर प्राप्य समुत्थाप्य च वानरान् ॥ ८५ ॥
श्रीरामचन्द्र छतार्थ हुए, सन्ताप से छूरे और हित हुए ।
ताध्यों से वर पा और मस्त वानरों का फिर जीवित कर, ॥ ८४५॥
अयेध्यां प्रस्थितो रामः पृष्पकेण सुहृद्दतः ।
भरदाजाश्रमं॑ गत्वा राम; सल्यपराक्रम/ ॥ ८६॥
श्र वालकायडे '
' खुप्रीव विभीषणादि संद्दित पुष्पक विमान में बैठ कर ध्योध्या '
के रवाना हुए. भरद्वाज ऋषि.के भ्राधम में पहुँच सत्यपराकृरमी
शीरामचन्द्र ज़ी ने,.) ८६ ॥
भरतस्पान्तिक रामे! हनूमनन््तं व्यंसनंयत् ।
पुनराख्यायिंकां! जव्पन्णुग्रीवसहितस्तदा ॥| ८७ |
हनुमान जी के .मरत जो के पास भेज्ञा फिर छुप्मोच से अपना
पूर्व वृत्तान्त कदते हुए ॥ ८5७ ॥
पष्पक॑ तत्समारुह्म नन्दिग्राम ययो तदा |
नन्दिग्रामे जटां हित्वा श्रातृभि! सहितेोइनघः ॥८८॥
( भीरामचन्द्र ) पुष्पफ पर सवार हा नन्दिग्राम में पंहुँचे। अच्छी '
तरह पिता की. ध्याज्ञा पालन करने दाल्ले. भोरामचनद्र जी भारयों '
धंदित जठा विसर्जन कर अर्थात् बड़े बड़े बालों के क्या ॥ ८८ ॥
राय) सीतामनुभाप्य राज्यं पुनरवाप्तवान् |
प्रहष्ठमुदितों छोकस्तुष्ट/ पृष्ठ! सुधामिकः ॥ ८९ ॥
'” सीता को प्राप्त कर अयेष्या की राज्गद्दी पर विशज्ञे | श्रीराम-
चद्ध जी के राज-सिद्ा सनासोन होने पर सब प्रज्ञाज़न प्रानन्दित
सन्तुए और पुए तथा छुधामिक द्वो गये हैं. ८६ ॥
निरामये" हरोगश्र" दु्मिक्षमयवर्जितः
न पुत्रमरणं केचिद्द्र॒हयन्ति पुरुषा! कचित् ॥ ९० ॥
१ आख्यायिकां--पू्ववुत्ततर्या (यो०) ३ दित््वा--श्ोधवित्वा [यो०)
३ अनधघः--सम्यगनुछ्ठितपितृूवबचतः ४ निरामयः--शरीररोगरद्वितः (गो०)
'५ क्षरोगं: - मानसब्याधिरदितः (गो०
ल्
प्रथमः सर्गः *, * ३
इनके ने तो शाररिक कोई ' व्यथा ही रही और न मानसिक
“चिन्ता रदी प्योर न दुसिज्ष का ही भय रह गया है। किसी पुरुष का
पुत्रशीक नहीं दाता ॥ ६० ॥
तरायश्ाविधवा नित्य भविष्यन्ति पतिव्रता
न चाम़िजं भय किचित्राप्सु मज्जन्ति जन्तवः ॥ 8१॥
हक फेई सत्री कमी विधवा द्वाती हैं.ग्रोर सब सिरयाँ'पति-
बता ही हूँ न कभी किसी के घर में ध्याग लगतो है झोर न कोई .
.जल में हवव कर हो मरता है ॥ ६१ जा
' न वातजं भय किंचित्रापि ज्वरकृतं तथा ।
न चापि क्षुद्धयं तत्र न तस्करभणयं तथा ॥ ९२ ॥
इसो प्रकार न तो कभी श्राँधी तृफान से. द्वानि दोती है श्रोर न्
ल्वर आरारिमद्ामारी का भय उत्पन्न दाता है। न कोई भूंखों मरता है
५भौर न किसी के घर चोरी होती है ॥ ६९ह॥
नगराणि च राष्ट्राणि पनपान्ययुतानि थे |
नित्य प्रमुद्धिता: सर्वे यथा कृतयुगे तथा ॥ ९३ ॥॥
राजधानी भ्रौर राष्ट्र धन धान्य से भरे पूरे रददते हैं ।# सव लोग
उसी प्रकार धानन्द सद्ित दिन विताहे हैं जैसे सत्यथुग में लेग
विताया करते हैं ॥ ६३ ॥
अश्वमेधशतैरिप्ठा तथा बहुसुबर्णके)।
गयां केख्ययुतं दत्त्वा ब्रह्मलेक॑ गमिष्यति.॥ ९४ ॥
# यह रामायण उस समय वनी थी जिस .समय श्रीरामचन्द्र जी का
राज्यामिपेक है। चुका था और वे राज्य कर रहे थे। इस छिये यहाँ पर
वर्चमान कालिक क्रियाओं का प्रयोग किया गया है ।
शछ - चालकायडें
५ श्रीरामचन्द्रे जी ने सै अश्वपेध यज्ञ किये हैं शोर ढेरों खुचर्णा
का दान दिया है। नारद जी वात्मीक्ि जी से कहते हैं, मंद्यायशस्वी '
श्रीरामचन्द्र जो करोड़ों गे।एँ दे कर वेकुयठ के जाँयगे ॥ ६४॥
: असंख्येय॑ धन दत्त्वा ब्रह्मणेम्यो महायशाः |
राजवंशाब्शतगुणान्स्थापयिष्यति राघवः ॥ ९५ ॥
मंदायशस्वी श्रीरामचन्द्र जी ब्राह्मणों के श्परमित घन दे
, कर, राजवंश की प्रथम से सै। गुनी अधिक उन्नति करेंगे ॥ ६५ ॥
चातुर्वण्य च छेकिअस्मिन्स्रेस्पे धर्मे नियेक्ष्यति ।
प्र ] जा के
दशवषसहस्राणि दशवपंशतानि च ॥ ९६ ॥
ओऔर .चारों बर्णो.के लेगों के अपने अपने वर्णानुसारं कर्च॑व्य
पालन में लगावेंगे। ११,००० वर्ष, ॥ ६६ ॥ ० तन
रामें राज्यम्ुपासित्वा ब्रह्मलेक प्रयास्यति ।
इद पवित्न॑ पांपप्न' पुण्य॑ वेदेश संमितम्' ॥
हि थी...
; य; पठेद्रामचरित॑ सबंपापे प्रसुच्यते | ९७ ॥
फलस्तुति
राज्य कर, श्रीरामचन्द्र जी बैकुएठ जाँयगे। इस पुनीत, पाप
छुड़ाने वाले, पुए्यप्रद, रामचरित्र को जे पढ़ता है, चह सब पापों
से छूट जाता है। क्योंकि यह सव वेदों के तुल्य है॥ ६७ ॥
. एतदाख्यानमायुष्य॑ पठन्रामायणं नर: ।
चर है प मर
सपन्रपोन्र; सगणः प्रेत्य स्त्रगें महीयते' ॥| ९८ ॥
१ वेदेश्चसंमितम--सर्ववेद्सह्श्ममित्यर्थ/(गो०) २ मददीयते--पूज्यते (गो०)
द्वितीयः सर्गः ,... २४
धध्रायु बढ़ाने वाली वालरशामायश को कथा को जे! अ्रद्धा भक्ति
पू्वफ पढ़ता है, वह अन्त में पुत्र पोच्र श्लौर नौकर चाकरों सहित
सवा में पत्रा जाता है॥ ६६॥
पठन्द्रिजा वागपयत्मीया'
त्स्थातक्षत्रियों भूमिपत्िलमीयात् ।
वणिग्नन। पृण्यफलल्मीया-
ज्जनश्र श॒द्रोषपि महत््वमीयात् ॥ १९ ॥
!.. इति प्रथमः सर्ग
इस वालरामायगा के ब्राह्मण पढ़े तो वह बेद शास्त्रों में
पारदूत हो, त्षत्रिय पढ़े: तो 'पृध्वीपति हो, वैश्य पढ़े तो उसका
अच्छा व्यापार चले और शूद पढ़े तो उसका महत्व पर्थात् प्रपनी
ज्ञति में श्रे्टत्य बढ़े या उन्नतिं है| ॥ ६६ ॥ '
*.. बालकागढ़ का प्रथम सर्ग पूरा हुआ |
[इन ९६ होकों के प्रथमथर्ग . का नाम " मूझरामायण या बाल
रामायण है । इसझा स्माध्याय प्रायः आत्तिक हिन्दू नित्य किया करते हैं ।*
इसको य्राद्मणं, क्षत्रिय, वैश्य और गझद्ध भी पढ़ें, यद बात ९९ थे ऋोक से
'घिद्ग द्वाती है ।]
_++औ
द्वितीयः सर्गः
नारदस्य तु तद्बाक्यं श्रुत्रा वाक्यविशारदः ।
__पूजयामास धर्मात्मा सहिष्ये महाओनिः | धर्मात्मा सहशिष्ये। महामुनि! ॥ १ ॥
१ ईयात-प्राप्छुयात् (यो०) वाक्यविशारद्:--वं क्येधिशारदो
विद्वानू (गो०)
को डे.
: देव्षि नारद के मुख से यह उत्तान्त खुन छुकने पर, महपि
वाब्मोकि ने अपने शिष्य भरद्वाज सद्दितः नारद् जो का पूजन
किया ॥ १॥ : मा 0०३ ४
यथाव्यूजितस्तेनं 'देवपिनारदस्तदा |
आपएच्छयेवाभ्यनुज्ञात/ स'जगाम विहायंसम्: (| २ ||
' देवषि नारद जो वाह्मोकि जो से यधाविधि पूजे जाकर
और उनसे जाने को घ्तुमति प्राप्त कर, वहाँ से पध्राकाश को ओर
चन्ने गये ॥ २॥ , | जे ह्
. स मुहूर्त गते तस्मिन्देवलेक सुनिस्तदा | .
' जगाम तमसातीरं जाहनव्यास्वविद्रतः ॥ ३॥
वाल्मीकि जी, नाख् जी के देवलेक चन्ने जाने के दो घड़ी
वाद, उस तमसा नदी के तद पर पहुँचे, जे श्रीगड्ठा ज्ञी से थोड़ी
ही दूर पर थी ॥ ३॥ हक ह
''*' सतु तीर सम्रासाधथ तमसाया मुनित्तदा |
* स्थितं पु 6 *
. शिष्यमाह स्थित॑ पाइवें दृष्ठा तीर्थभकदमम ॥ ४ ॥
नदी के तठ प्र पहुँच और नदो का सवच्छु जल ( भ्र्धात्'
कीचड़ रद्वित ) देख मह॒त्रि वाह्मीकि जी पास खड़े हुए अपने शिष्य
मरद्दाज से बाले ॥ ४ ॥
अकदममिदं तीर्थ भरद्वाज निशामयरे ।
रमणीय' प्रसन्नास्वु” सन्मतुष्यमने यथा ॥ ५॥
लए हे वि पिडसििक ललनन कल 39+>२८२- 3 4८5८-33 5; ड नल ही ५
१ “/ तारदाबासुरपंयः ११ । २ विद्यायसम्--जाकाश ज्ञगास (गो)
३ निशांसय--पहय (गो०) ४ प्सन्नास्यु--रवच्छजकम् (गो०)
]्क
द्वितीय: सर्ग ४ २७-
हे भरद्वाज | देखा ते इस नंदी का जल वैसा ही स्वच्छ और ह
उम्य है जैसा सज्ञन जन का मन-॥ ४-॥
* न्यस्यतां कलशस्तात दीयतां व्क्ल मम |
इंदमेबावगाहिष्ये" तमसातीर्थमुत्तमम ॥ ६ ॥ *
है वत्स ! कलसे के ते ज्ंमीन पर रंखं दो और हमारा चद्कल
वख् हमें दो । हम इस उत्तम तीर्थ तमसा नदी में,. स्नान
करेंगे ॥ ६ ॥ (०३
एवमुक्तो भरद्वाजों वाल्मीकेंन महात्मना । *
. धायच्छत' म्ुनेस्तस्थ वरकलं.नियतोंशुरो! ॥ ७॥
महर्षि वाद्मीकि के इस कथन के सुन, उनके शिष्य भरद्वाज ने
उनके चदकल चस्त्र दिया ॥ ७॥
स शिष्यहस्तादादाय वर्कर नियतेन्द्रिय! ।
विचचार ह पहयंस्तत्सवंदों विषुलं बनम्॥ ८॥
शिष्य के हाथ से वदकल त्ते महर्षि विशाल वन की शोसा
निरखते हुए ठदलने लगे | ८॥ |
तस्या"भ्याशें तु मिथुन चरन्तम*नपायिनस् |
ददश भगवांस्तत्र क्रोग्बयोश्चारुनि।स्वनस् ॥ ९ ॥
१ अवगाहिष्ये--अग्नेवस्नास्थामि (गौ०) २ प्रायच्छतत--आदात् (गो०)
३. गुरोनियतताः--परतंत्रभ्मरद्याज: (गो० ) ४ तल्य--तीर्थस्व (गो०) ।
५ भ्क्यादे--सभीषे (गो०) ६ चरन्तसू--विद्दरूतम्् (रा०) ७ अनपायिनम्---
वियेगशन्यस्र (यो)
जे ' बालकायडे
* नदी के समौष ही उस धन में महर्षि: वाव्मीकि जी ने मीठी
घाली वेलने वाले वियेगशून्य एवं विद्दार. करते ( जाड़ा खाते ) ५
हुए क्रॉंच पत्ती के एक जोड़े को देखा ॥ ६ ॥
"तस्माततु मिथुनादेक पुमांस पापनिश्चय;'
जघान वेरनिलयो' निपादस्तस्य पश्यत) ॥ १० ॥,
इतने सें पत्तियों के शत्रु एक. वहेलिये ने उस जोड़े में से नर
कौंच पत्ती के वाल्मीकि जो के सामने ही मार डाला ॥ १० ॥
' ह॑ शोणितपरीताज्ञ” वेहमान महीतले ।
, भा्या तु निहतं हृष्ठा- रुराव करुणां गिरम् | ११ ॥.
तब उस फ्रोंच पत्ती की भादा अपने नर के रक्त से लद्द फद्द
और पृथिवी पर छुटपढाते हुए देख, फरुणरुचर से विल्ाप करने
लगी ॥ ११॥
बियुक्ता पतिना तेन ढिजेनरे सहचारिणा।
ताम्रशीषेंण मत्तेन पत्रिणासहितेन वे ॥ १२ ॥
चह क्रोंची ञ्रव उस लाल चोटो वाक्े काममत शोर सम्भेग
करने के लिये पर फेलाये हुए नर से रहित दो गयो भथवा उससे
उसका वियेग दो गया ॥ १२॥
तथा तु त॑ द्विज॑ दृष्ठ निषादेन निपातितम ।
ऋष धमोत्मनस्तस्य कारुण्यं समपययत ॥| १३ ॥
5
१ पापनिंइचयः--रतिसमयैपिहननकरणात््क्रनिश्वयः (गो०) ३ चैर- ह
निकय;--अकारणगेदाश्रयः (रा०) ३ ट्विजेन --पक्षिणा
(यो०) ४ पत्निणा
“-प्रस्भोगाये विस्तारितपत्रिणा (शि०)
द्वितोवः सर्ग $ है ; २६ ट
वदैलिया द्वारा पत्ती को गिरा दुधा देख, धर्मात्मा ऋषि के
नमन,में बड़ी दया आयी ॥ १३ ॥
तत; करुणवेदित्वादधर्मो3्यमिति, द्विजः
निशाम्य रुदती क्रॉंचीमिदं वचनमृत्रवीत् ॥ १४ ॥
इस पाप पूरित दिखा कर्म श्रोर विलाप करती हुई कौंची के
देख, मद्गांत्मा वाद्मीकि ने यह कहा ॥ १४॥
मा निपाद पतिष्ठां मगर) शासवती! समा:
यत्कोशमिधुनादेकमवधीः काममोहितम,॥ १५ ॥|
है वद्देलिये | तूने जे .इस कामान्मत्त नर यत्ती का माय है,
इस लिये नेक वर्षा तक तू इस घन में मत. आना ; झथवा तुझे
खुष शान्त न मिलते ॥ १५ ॥
तस्यवं ब्रुवतरिचिन्ता वभूत्र हृदि वीक्षतः ।
शोकार्तेनास्य शकुने! क्रिमिंदं व्याहुतं मया ॥ १६ ॥
: यह कह चुकने पर ओर भन में इसका श्रर्थ .चिचारने पर,
चाद्मीकि जी के वड़ो चिस्ता हुई कि, इस पत्तो के कष्ट से. कश्ति
हो, मैंने यह फ्या कद्द डाला ) ॥ २६ ॥
चिन्तयन्स महाप्राज्श्चकार मतिमानमतिस |
शिप्य॑ चैवान्रवीद्राक्यमिंद स झुनिपुद्धच/ ॥ १७॥
. बड़े बुद्धिमान भर शास्कज्ञ वास्पीकि जी सोचने लगे, तद्नन्तर
पुनिश्रेष्ठ ने निज्र शिष्य भरद्दाज़ से यह कहा ॥ १७ ॥
१ मतिम्ातू-शाखकज्ञा नवान_ (गो) -
््० ..._ ; वाह्नकायणडे
: पादवद्धोउक्षरशमस्तन्त्रीलयसमन्वितः । ः
' शैक्कार्तस्य प्रहत्तो मे इलेके भवतु नान्यथा ॥ १८ ॥
देखा, यह शोक दमने मुख से शाकार्स दे निकाला दे इसमें
: आचार पाद हैं, प्रत्येक पाद्.में समान ध्रक्तर है. भोर वोणा पर भी यह
४ र्ह्र
गाया 'जा सकता है। प्रतः यह यशीव््य हो अर्थात् यद प्रसिद्ध दे
' कर मेरा यश वढ़ाचे, ध्रपयश नहीं ॥ १८ ॥
शिष्यस्तु तस्य ब्र् बते मुनेवाक्यमनुत्तमम् |
: प्रतिजग्राह संहृष्टस्तस्य तुष्ठोड्मवदगुर/ ॥ १९ ॥।
' वाद्मीकि जी के इस वचन के सुन, उनके शिष्य भरहाज ने
“ छति प्रसन्न द्वो यद कछोक करटठाग्र कर लिया। इस पर गुरु जी
शिष्य पर प्रसन्न हुए ॥ १६ ॥
से5भिपेक॑ ततः कृत्वा तीर्थे तस्मिन्यथाविधि |
तमेव चिन्तयन्नर्थमुपावतत वे मुनि) ॥ २० ॥
यथाविधि उस तोर्थ में स्नान कर शोर उसी वात के भन ही
मन सेचतें विचारते ऋषिप्रवर वात्मीकि झपने ध्याश्रम में लाट
आये ॥ २० ॥
भरद्ाजस्ततः शिष्यो विनीतः श्रुतवान सुनिः ।
के (0
कलश पूणमादाय पृष्ठताञ्नुनगाम ह॥ २१॥
- इनके पीछे पीछे श्रति नप्न ओर शार्रज्ञ भरद्वाज जी भी
जल--
का भरा कल्लसा लिये हुए, चल्ले आये ॥ २१॥ हे
१ श्रुतवान--शाखबाव्, अवध्तदान्वा (यो०)
द्वितोषः सगे ३१
स प्रविश्याश्रमपर्द शिप्येण सह धर्मवित' ।
““.. उपबिष्ठ! कथाश्वान्याझचकार ध्यानमास्थित! ॥२श।)
झ्राश्षम में पहुँच कोर देवपूलनादि घर्मक्रियाएँ कर तथा
शिष्य फे सहित बैठ ऋषिप्रधर विधिध पोराशिक कथाएँ मनेयोग
पूर्वक कंहने लगे | २२ ॥ ः
आजगाम तता ब्रह्मा छोककता स्वयं प्रश्चु। |
चतुमख्ा महातेजा द्व॒प्ट त॑ मुनिपुद्धवम ॥ २३ ॥
इसी बीच में महातेजस्थी, चारमुखवाले, लेकफर्ता ब्रह्मा
जी चाद्मीक्षि ज्ञी से भेंद करने के उनके ध्राध्ष॑ंप से स्वयं
पह़ेंचे | २६ ॥
वाल्मीकिरथ त॑ दृष्ठा सहसेत्थाय वाग्यतार |
प्राज्नलि! प्रयते भूत्ता तसस््थीं परमविस्थित) ॥ २४॥
५. पृजयामास तं देव॑ पाद्यार्ष्यासनवन्दनेः
प्रणम्य विधिवच्चन पृष्ठाउनामयमज्ययम् ॥ २५ ॥
रक्षा जी को पांते देख, वाह्मीकि जी फट उठ# खड़े हुए भर
नम्न दे उनके प्रणाम किया और प्रत्यन्त झ्ादर पूर्वक आसन,
१ धर्मविन--कृतदेवपूजादिधमं: (गो०) २ अन्याकथा;--पुराण-
पारायणनि (गो०) ३ चाग्यंतः--अतिसभ्रमधशायतवाक मौनब्रतेव प्रयतोषति
नम्नः (०)
दृढ़ छोक में यद्द बतलाया गया है ।
ऊध्च प्राणार्दमत्कमन्ते यूनःस्थविरंआगतते ।
प्रध्युत्यानामिवादाक््यां पुन:हतानप्रतिपद्यते । '(गो०)
वा० राू०--३
श्२ चालकागुडे
: ह्ष्य, और पाधादि से उनकी यथाविधि पूजा फर कुशल
पूँछी ॥ २४ ॥ २५॥
अथेपविश्य भगवानासने परमाचिते |
वाल्मीकये च ऋपये संदिदेशासनं तत। ॥ २६ ॥
पूजा प्रहण कर, ब्रह्मा जी भ्रासन पर विराजे और वाल्मीकि
' जी से भी बैठने के कहा ॥ २६ ॥
ब्रह्मणा समनुज्ञातः सेपप्युपाविशदासने |
उपबिष्टे तदा तस्मिन्साक्षाब्लोकपितामहे || २७॥
ब्रह्मा जो को झाज्ञा पाकर, महषि भो वैठ गये ।'जब सात्तात्
ज्ेकपितामह ब्रह्मा जो प्रासन पर विराज चुके, ॥ २७ ॥
- तदूगतेनैव मनसा वाल्मीकिर्ध्यानमारिथित; ।
पापात्मना छृत॑ कष्टं वेरग्रहणबुद्धिना ॥ २८ ॥
यस्तादर्श चारुखं क्रोश्व॑ हन्यादकारणात् ।
शाचनेव भुहु) क्रोश्वीमृप छोकमिम पुन। ॥ २९ ॥
तब मदृषि का ध्यान उसी वात की शोर गया कि, पापी चहेलिये
ने वैखुद्धि से आनन्द से वालते हुए पत्ती का बंध व्यर्थ ही कर
डाला भोर क्रोंची की याद कर, थे वार वार चहो सछोक:
| मै रे $2
“४ प्ानिषाद् ” पढ़ सेचने लगे ॥ २८ ॥5६६॥ की
७ पु
जगावन्तगतमना भूत्वा शेकपरायण: |
तमुवाच ततो ब्रह्मा प्हरुय मुनिषुड्ठवम् ॥| ३० ॥
इस प्रकार वात्मौकि के चिन्तातुर औ दे
-. मैक्षा जी ने हँस कर कहा, | ३० | 500&७७8५
नि
द्वितीयः सगे: ३३
कोक एवं ल्वया वद्धो नान्न कार्या विचारणा |
मच्छन्दादेव' ते ब्रह्मन्मठत्तेयं सरस्वती ॥ ३१ ॥
है ऋषिश्रेष्ठ | यह तो तुमने शछोफ ही वना डाला है, इस पर
कुछ विचार न कीजिये। मेरी ही प्रेरणा से या इच्छा से वह शोक
तुम्हारे छुख से निकला है ॥ ३१॥
रामस्य चरित॑ं कृत्सनं कुरु लगृषिसत्तम |
धर्मात्मने। गुणवते लेकके रामस्य धीमतः ॥ ३१ ॥
हतं कथय वीरस्य यथा ते नारदाच्छु तम।
रहस्य॑ च प्रकाशं च यद्ुत्तं तस्य पीमतः ॥ २२ ॥
ल्ेकों में धर्माव्मा, गुणवान् शैर बुद्धिमान भ्रीरामचन्ध जी
कै छिपे हुए ध्मथवा प्रकद सम्पूर्ण चरित्रों का चर्णन, तुम वैसे ही
करे जैसे कि, तुम नारद ज्ञी के मुख से सुन चुके दो ॥ ३२ ॥ ३३॥
रामस्य सह सोमित्रे राक्षसानां च सबंश) ।
वेदेद्ाश्यैव यहुत्तं प्रकाश यदि वा रह ॥ ३४ ॥
तद्नाप्यविदित सब विदितं ते भविष्यति ।
न ते वागंदता काव्ये काचिदत्र भविष्यति ॥ ३५ ॥
शोरामचन्द्र, श्रीलद्मण और शभ्रीजानकी जी के तथा राक्तसों
के प्रकट श्रथवा गुप्त जे कुछ चुत्तान्त हैं--मे तुमको प्रत्यक्त
देख पड़ेंगे और इस काव्य में कहीं भी तुम्दारी कही हुई कोई वात
म्रिथ्या न होगी ॥ ३४ ॥ ३५ ॥
१ सच्छन्दादिव--मदमसिप्राथादेव (गे।०)
३७ बालकायड़े
कुरं रामकर्थां पुण्यां छोकवद्धां मनारमाम् |
यावत्स्थास्यन्ति गिरय। सरितश्व महीतके ॥ ३६ |
तावद्रामायणक्रथा लेक़ेपु प्रचरिष्यति |
' यावद्रामायणकथा त्वत्कृता प्रचरिष्यति ॥ ३७ ॥
ए ०, मटलोके
तावदूध्व॑मधश्व त्व॑ मटलोकेपु निवत्स्यसि ।
: इत्युक्वा भगवान्त्रह्मा तत्रेवान्तरधीयत ॥ ३८ ॥
'अतएव तुम श्रीरामचच्ध्र की मनोहर ओर पवित्र क्रया लीक-
चद्ध ( पद्चों में ) बनाओ । ज्ञग तक इस धराधाम पर पहाड़ और
नदियाँ रहेंगी, तव तक इस लेक में श्रीरामचन्द्र जी की कथा का
प्रचार रहेगा और जव तक तुम्हारी रची हुई इस रामायण-कथा का
प्रचार रहेगा, तव तक तुम भी मेरे बनाये हुए लेकों में से जब तक
शरीर रहैगा तव तक प्रुथिवी पर और तदनन््तर ऊपर के लेक ५ श
स्थिर रहेंगे । यह कद कर ब्रह्मा जी वहाँ घअन््तर्घान शि
गये ॥ ३६ ॥ ३७॥ ८ ॥ 2
ततः सशिष्यों भगवान्मुनिविस्मयमाययों । ु
तस्य शिष्यास्ततः सर्वे जगु।' इलेकमिम पुन! ॥ ३९ ॥
यह देख महृषि का तथा उनके शिष्यों के। बड़ा आश्चर्य हुआ।
मदृषि के शिष्य प्रसन्न दे वार वार वह न्छोक पढ़ने लगे ॥ ३६ ॥
सहन हु! भीयमाणा प्राहुअ भुशविस्मिताः ।
समाक्षरेश्रतु्िय: पादेर्गीति* महपिंणा || ७० |
वे प्रसक्ष हा और वड़े विस्मित दो, आपस में कहने लगे कि.
- मद्ि ने समान अक्तरों और चार पद वाले जिस शछोझ सें महाशेक
ु ३ पुनजोंगु;--पुनःकथितवन्तः | २ गीत;--उक्तः (ग्रो०) _॥ पन्जयु--पुनश्कथितवन्त। | २ गोतः पका गोए)
द्वितीयः सर्गः ३४
प्रकट फिया हैं उसके वार वार पढ़ने से वह तो न्होफ ही धन
गया है ॥ ४० ॥
साज्नुन्याहरणादअय) शोक) छोकलमागत! |
तस्य बुद्धिरियं जाता वाल्मीकेभांवितात्मन
कृत्स्न॑ रामायणं काव्यमीदश। करवाण्यदम् ॥४१॥
सद्नम्तर ध्यपने मन में परमात्मा का चिन्तन करते हुए वाल्मीकि
ओ की समझ में यह यांत आरयो कि, इसी ढंग के स्कोक्रों में, में
सारा रामायगाकाग्य चनाऊँ ॥ ४२ ॥
उदारदइसाथपदमनारम-
सतत) स रामस्य चकार कीत्तिमान |
समाक्षरें। छोकशर्तेयशस्थिना
यशस्कर॑ काव्यमुदारधीर् नि || ४२॥
यह विवार, यणल्तों वात्मीकि जी परम उदार श्रौर पश्मति
भनाहर धीरामचन्ध जी फा चांरत, समान प्रत्तर वाले तथा यश के
बढ़ाने धाले हड़ाकों में वगुन करने लगे ॥ ४२ ॥
तदुपगतसमाससंप्रियेगं
सममधुरापनताथवाक्यवद्धम् |
रघुवरचरितं मुनिप्रणीत॑
दशशिरसश्च व्ध निशामयध्यम् ॥ ४३ ॥
इति द्वितीय: सगे:
३ भावितात्मन)--विन्तितवरसात्मन/ (यो०) प
३६ 'वालकायडे
सन्धियों समासों तथा अन्य ध्याकरण के अंगों से सम्पन्न,
मधुर और प्रसन्न करने वाले चाफ्यों से युक्त, श्रीरामचरित्र पचे
रावणवधघ रूपी काव्य के महर्षि वात्मोकि जी ने लेकिापकाराय'
सवा ॥ ४३ ॥
वालकाणड का दूसरा सर्ग पूरा शुआ--
“5
तृतीयः सर्गेः
हि «प$ हे ६६
श्रुत्वा वस्तु! समग्र॑ तद्धमात्मा धर्मसंहितम्" |
व्यक्तमन्वेपते भये| यद्गुत्त तस्य घीमतः ॥ १ ॥
घर्म, अर्थ, काम ओर भेक्त का देने वाला, बुद्धिमान श्रीराम-
जी का चरित्र, नारद् जो के सुख से सुन श्रौर उससे भी पध्यधिक
चरित्र जानने फी कामना से, ॥ १॥
उपस्पृश्येदकक सम्यड्सुनि! स्थित्वा कृताञज्जलि। ।
प्राचीनाग्रेषु दर्भेषु धर्मेणारेन्दीक्षते गतिस ॥| २॥
५ जल से हाथ पैर था, आ्राचभन कर, हाथ जाड़, कुशासन पर
पूर्व की शोर मुख कर बैठे हुए मदृषि, येगवल से श्रोरामचन्द्रादि
' के चरिषों के देखने लगे ॥ २ ॥
रामलक्ष्मणसीताभगी राज्ञा दशरथेन च ।
सभारयेण सराष्ट्रेण यत्माप्त॑ तत्र तत्त्ततः॥ ३ ॥
णप्रर्टपप्नक्नफ्ता 7 क्र उज्उ
१ पस्तु--कथाशरीरं (पो०) २ धर्मस्॑द्ितम--घधर्मंसद्दितम् (यो)
३ धर्मेण--प्रह्मप्रसादरूपश्रेयल्साधनेच (मो०), येगजवलेन (रा०) ४ गतिम्
“परामादिवुत्त (गो०)
तृतीयः सर्गः ३७
हसितं भाषितं चेव गतियां यत्व चेप्टितम् |
| भर्मी रे
तत्सव धममंदीर्येण! यथावत्संप्रपश्यति || ४ ॥
ख्रीततीयेन च तथा यत्माप्तं चरता बने ।
सत्यसंधेन रामेण तत्सव चान्यवेक्षितम॥ ५॥
धीरामचन्द्र, लक्ष्मण, सीता क्रोर कैशिल्यादि सद्दित महाराज
दशरथ का भोर सम्पूर्ण राज्यमगढल का जे कुछ हँसना. वालना,
झारि वृत्तान्त घोर चरित्र थे श्यौर सत्यवत श्रीरामचन्द्र जी ने बन में
ज्ञा कुछ चरित किये थे से महर्षि वादयीकि फो ब्रह्मा जी के घरदान
के प्रभाव से ज्यों के त्यों सब देख पड़ने लगे ॥ ३॥ ४॥ ५॥
ततः पश्यति धम्मात्मा तत्सत येगमास्थितः ।
( ५
पुरा यत्तत्र निहत्त पाणावामलक॑ यथा ॥ ६ ॥
...यौगास्यास द्वारा महर्षि वाब्मीकि ने उन सब चरितरों के जे।
., पद्लले है। चुके थे, हथेली पर रखे. हुए प्रँवले को तरह देखा ॥ ६ ॥'
तत्सव तत्त्वतो दृष्टा धर्मेण स महाद्युतिः ।
अभिरामस्य रामस्य चरितं कतुग्रुधतः ॥ ७॥
सव पृत्तान्तों के ब्रह्मा जी के वरदान के प्रभाव से यथार्थतः
(ज्यों का ध्यों ) जान लेने के पत्मात् मद्मा्युतिमाद महपि वाल्मीकि
सेकामिराम श्रीराम ज्ञी के चरित्रों के क्लोकवद्ध करने के लिये
तत्पर हुए ॥ ७॥
कामाथंगुणसंयुक्त धर्मारथशुणविस्तरस् ।
न 0
समुद्रमिव रताढ्यं सवश्रुतिमनाहरम | ८ ॥
१ धर्मवीयें ग--मह्यवसप्रसादशक्त्या (यो०)
के वालकांयडे
स॑ यथा कथित. पूर्व नारदेन महर्षिणा |
रघुनाथस्य चरितं चकार भगवात्पि; ॥ ९ ॥
घर्म, प्र, काम ओर मेत्त के देने वाला सप्तुद्र की तरह
रलों से भरा पूरा ओर सुनने से मन के दस्ने चाला। श्रीराम चन्द्र जी
का चरित्र जैसा कि नारद जी से सुन चुके थे, वेसा दी महर्षि
चाद्मीकि जी ने बनाया ॥ ८॥ ६॥
जन्म रामस्य सुमहद्वीय सर्वानुकूलताम ।
लेकस्य त्रियर्ता क्षान्ति साम्यतां सत्यशीलताम् ॥१०॥
नानाचित्रकथाइचान्या विश्वामित्रसहासने |
जानक्यांश्च विवाह च धनुपश्च विभेदनम् ॥११॥
ध्रीरामचन्द्र का जन्म, उनका पराक्रम, सव का उन पर प्रसन्न
रहना, उनके किये लेक-प्रिय कार्य, उनकी ज्ञमा, सैम्यता, सत्य--
| 4७]
शीलतादि-गुण-सम्पन्नता, विश्वामित्र की सहायता करना, विश्वा-
, मित्र का श्रीरमचन्द्र जी से नाना प्रकार की कथाएँ कहना वा
उनका सुनना, धनुष का तोड़ना, जानकी जी के साथ उनका
, विवाद होना, ॥ १० ॥ ११॥
रक-
धर
_रामरामविवाद च गुणान्दाशरथेस्तथा ।
तथा रामाभिषेक॑ च केकरेय्या दुष्ठभाववाम् ॥ १२ ॥
श्रीरामचन्द्र जी व परशुराम जी का वादजिवाद, श्रीराम-
चन्द्र जी के गुण तथा उनके राज्यामिषेर्क की तैयारियां, कषैकेयी
का उसमें वाधा डालना, ॥ १२ ॥
_..... विधात चामिषेद्रस्प रामस्य च विवासनस |
|
बनना
_ राज शेकविलापं च परलेकस्य चाश्रयम ॥ १३ ॥
वृत्ीयः स्ग: ३६
श
प्रभिषेक के कारये में व्रिश्ल का पद़ना, श्रीरमचन्ध जी का
! धनगमन, मद्दाराज् देशस्थ फा चिज़ाप तथा ठनका परकेाक-
' गन, ॥ १३६॥
प्रकृतीनां विपाद ने मक्ृतीनां विसमनम |
निपादाधिपसंबादं सवाधावतन तथा | १४ ॥
ग्रयाध्याक्ास्र्यों का शोफर्िागन देना, फ्रिए उनक्षा भार्ग
से भवाध्या की लोट छाता, निशद्राज का संचाद, सुभन््त की
दिदाई, ॥ १४३
गड्जायाश्चापि संतार भरद्वाजस्प दर्शनम |
श्र
भरदानाभ्यनुतानाबित्रकूट॑स्य दशनम ॥ १५ ॥
थी रामसस्द्रादि का श्री गा जी के पार उनरना, भरहाकज्ष जी
का दर्शन, उनकी प्रनुमति से चित्रकूट गमन)॥ १५ ॥
*. व्रास्तुकमजिवेशं च भरतागमरन नथा |
प्रसादन॑ थे रामस्य प्तुश्च सलिलक्रियाम् || १३६ ॥
प्ों (चिभ्रकृद में | शासक विधि से पर्गकुटी बना फर उसमें
धास करना | भगत जो छा धोराम जी के मनाने के जिये ध्रागमन,
झीराम जी का पिता का जलदान, ॥ १६ ॥
पादकास्यामभिप्क थे नन्दिग्रामनिवासनस |
दण्ठकारण्यगमन विराधस्य वध तथा ॥ १७॥
'« « श्रीरामचनद्ग जो की पादक्ाओं का भरत जी द्वारा प्रभिषेक ।
उनका धअर्वाद पादुकापों का राजसिदासन पर प्रभिपषिक ऋर नन्दि
सजी जितने २ अमन फमननननननम««+नकमग
) बाल्तुकमं--शांखोकप्रकारेगपधोवितमन्दिरनिर्माणं (यो०)
४० वालकायड़े
ग्राम में रह अयेध्या का शासत करना, श्रीरामचन्द्ध जी का देगढ-
कारण्य-गमन, विराध-चच, ॥ १७॥
दरशन शरभड्टस्य सुतीक्षणनापि संगतिम् ।
अनसूयानमस्यां च अद्भरागस्य चापणस् ॥ १८ ॥
शरभद्ु का दर्शन, खुतीज्षण से सेंड, अनुसूया जी से मिलना
धैर उनके द्वारा सीता ज्ञी के आगराग का दिया जाना, ॥ १८॥
अगस्त्थवदशन चैव जटायेरमिसंगमस् ।
पश्चवव्याश्च गमन॑ शूपंणर्याइच दशनम ॥ १९ ॥
प्रगस्थ जी का दर्शन, जदायु से सेंड, पंचवटों में जाना,
शूपनखा का दिखलाई पड़ना, ॥ १६ ॥
शूपंणरूयाइच संवाद विरूपकरणं तथा |
वर्ध खरत्रिशरसेरुत्थानं' रावणस्य च॥ २० ॥
शूपंनखा से बातचीत और उसके विरूप करना, खर तिशिरादि '
का मारा जाना (वध ) राग का निकल्लना, ॥ २०॥
मारीचस्य वर्ध चेव वैदेशा हरणं तथा |
राघवस्थ विलाप॑ च ग्रधराजनिवहंणम ॥ २१ ॥
के मारीचवध, सोताहरण, श्रोरामचद्ध ज्ञो का ( सीता के
ग॒में ) विल्ाप करना, जदायु को रावण द्वारा हिंसा, ॥ २११ ॥
, : फवन्धदरन चैच पम्पायाश्चापि दर्शनमू ।
शबया दर्शन॑ चैव हनूमहर्शन॑ तथा ॥ २२ |
१ . ॥ इ््ाव-निर्मनम गो. "पा: (गो०)
ठृतीयः स्गेः ४१
कर्वंध का मिलना व पंपासर देखना, शवरी का मिलना पर
>.. दैशमान से भेंठ द्वेना, ॥ २२॥
ऋष्यमूकस्य गमन सुग्रीवेण समागमस् |
प्रत्ययेत्पादनं सख्य॑ वालिसुग्रीबविग्रहम् ॥ २३ ॥
ऋष्यपूक पर्वत पर गमन, खुप्मीव से समागम, खुप्नीव को वालि-
बंध का विश्वास दिलाना, उनके साथ मंत्री का दीना, वालि-छुम्मीव
की लड़ाई, ॥ २३ ॥
बालिप्रमथन चेव सुग्रीवश्रतिपादनम् ।
ताराबिछापं समय॑ वर्षराव्रनिवासनम् ॥ २४ ॥
चालि का वध, सुप्रीच का राज्यामिपेक, तारा का विजाप,
यर्षाऋतु में पर्वत पर धीरामचन्द्र जी का निवास, ॥ २७॥
केाप॑ राघवर्सिहस्य वलानामुपसंग्रहम् ।
दि प्रस्थापनं चेत्र पृथिव्याशइच निवेदनम्॥ २५ ॥
सुग्रीच पर श्रीयमचन्द्र जो का काप, चानरी सेना का जमा
करना । बानरों के सीता ज्ञी का पता लगाने के लिये भूमग्डल का
बृत्तान्त समझता कर भेजा ज्ञाना, ॥ २४५ ॥
अंगुलीयकदान च ऋक्षस्प विलदशनम् |
प्रायेपवेशनं चापि संपातेश्वेद दशनम् ॥ २६ ॥
“५ श्रीयमचद्ध जी का हनुमान जी के शैगूठी देनो, बानरों का
( सयंप्रमा के ) बिल में प्रवेश, उपचासादि कर सपुद्बरतद पर
सथ्यु की श्रार्कोत्ता करना, सम्पाति का दर्शन, ॥ २६ ॥
8४ चालकायडे
पवेतारोहणं चेव सागरस्य च् छड़नम् ।
को के (हे
समुद्रवचनाओव गनाकस्यापि दशनम् [| २७ ॥
पर्वत पर दृशुमान जी का चढ़ना, और सागर का नधिना,
समुद्र के कथनाठुसार मेनाक पर्वत का समुद्रक्षत्ष के अपर
निकलना, ॥ २७॥
सिंहिकायाइच निधन रड्भामलयदशनम् |
रात्रों लह्गामवेशं व एकस्यापि विचिन्तनम् ॥| २८ ॥
छायाअहण करने वाली सिंद्दिका राक्षसी का चध; लड्ढा के
, दिखता, रात्रि में दृशुमान जो का लड्ढा में प्रवेश करना, ध्प्रकेले
, सोचना, ॥ २८॥
दर्शन रावणस्यापि पुष्पकस्य च द्शनम् |
आपानभूमिगमनमबरोधस्य' दशेनम् || २९ ॥
रावण फे देखना, पुश्पक विभान के देखना, उस घर में जहाँ
रावण शराब पीता था वहां हनुमान ज्ञी का ज्ञाना और धम्तःपुर
श्र्थात् रावण की झ्लियों के रहने की जगह का श्रवले।कव, ॥ २६ ॥
अशेकवनिकायानं सोतायाश्चापिदशनम ।
क्षसीतजन » 5
रा चैव त्रिजणखम्तदर्शनम् | ३० ॥|
अशेकवारिका में ज्ञाकर सोता जी का दर्शन करता, रा्षसियों
का सीदा जी के इराना, त्रिज्ञद! राक्तसा का स्वप्न देखना, ॥ ३० 0
अभिज्ञानप्रदान॑ च सीतायाइचामिधापणम् |
मणिप्रदान॑ सीत्ाया इक्षभड़“ं तथैव च ॥ ३१ ॥
१ अवराधल्य -भन््तःपुरत्य (यो०)
तृतीयः सर्गः धरे
देलुमान जी का सीता जो को पदिचान की शेमूठी देना, सीता
“जी के साथ हनुमान ज्ञी की वातचीत, सीता ज्ञी का हनुमान जी
के चूड़ामणि देना, दचुमान जी द्वारा अशाकवादिका के छूत्तों का
नए्ठ किया जाना, ॥ ३१ ॥
राफ्षसीचिद्रव॑ चर किल्लराणां निव्देणम |
ग्रहण वायुमूनाइच छड्लादाहभिगननम ॥ ३२१॥
राक्तसियों का भागता, श्र रावण के नोकरों का मारा जाना,
हनुमान जी का पकड़ा जाना तथा हचुमान जी के द्वारा गरज गरज
कर लड्ढा का दग्घ किया जाना, ॥ ३२२ ॥
प्रतिप्रवनमेवाथ मधूनां हरण तथा ।
रापवाइवासन चंव मणिनिंयातन' तथां | ३१ ॥
... झप्तुद् के पुनः नाँधना, मधुचन के मधु फल के खाना, श्री-
रामचन्ध जी के धोरन वंधाना, तथा उनके चूड़ामणि का दिया
ज्ञाना, ॥ २३ ॥
संगम च समुद्रेण नलसेताश्च वन्धनम ।
प्रतारं च समुद्र॒स्य रात्रा लल्वावराधपनम | ३४ ॥
भीरामचन्ध जो का समुद्र तठ पर पहुँचना, ओर नल नील
फा सप्तुद्र पर पुल वाँधना, समुद्र के पार द्वोना, रात्रि में लड्ढु
के घेरना, ॥ ३४ ॥
विभीपणेन संसर्ग वधेपायनिवेदनम् |
कुम्भकर्णस्य निधन मेघनादनिवहेणम् | ३५ |
१ मगिनिर्यातनम--रामायचुड्ामणिप्रदान (मो० )
४४ वालकायडे
रादण के भाई विभीपण का भ्रोरामवन्ध जी से समागम होना,
झैौर रावण फे वध का उपाय वतलाना, कुम्मकर्ण का मारा ज्ञाना
और मेघनाद का वध, ॥ २५ ॥
रावणस्य विनाश च सीताबाप्तिमरे/* पुरे |
विभीषणाभिषेक च पुष्पकस्य निवेदनम् ॥ ३६ ॥
रावण का नाश तथा शन्रुपुरी लड्ढा में सोता जी का मिलना,
. विभीषण का लड्ढा की राजगद्दो पर श्भिषेक, पुष्पक विमान का
विभीषण द्वारा श्रीराम बन्द्र जी के सेंठ में दिया जाना; ॥ २६ ॥
अयेाध्यायाश्च गमन॑ भरतेन समागमस् |
अप >>, घंसैन्य ए
रामामिषेकास्युदय॑ ससैन्यविसमनम् ॥॥ ३७ ॥
भ्ोरामचन्द्र जो का अयेध्यागमन, वहाँ सरत से समागम,
ओरामचन्द्र जी का राज्यामिषेक तया घानरी सेना की विदाई, ॥३७॥
स्वराष्ट्रक्ञनं चेव वेदेशाश्च विसजेनस् |
अनाग॒तं च यह्किचिद्रामस्थ वसुधातले ।
तत्नकारोत्तरे काव्ये वात्मीकिभगवाहषिः ॥ ३८ ॥
इति कृतीयः सर्गः ॥
श्रीराम जी का, राज्य सिद्दासनासोन होने पर प्रजाजन के खुशी
करना, वैदेही का त्याग, इनके अतिरिक्त भ्रोण्मचन्द्र जी ने इस
। भूमण्डल पर भर जे! जे! चरित्र आगे किये, उन सव का वर्णन भी
: इस काव्य में भगवान् वाद्मीक्ति जी ने किया ॥ ३८॥ |
! वाल्काण्ड का तीसरा सर पूरा हुआ ।
६ छरेः पुर इति शौर्यातिशयेक्तिः उत्तरत्नचान्वय: (गो०)
चतुर्थ: सर्गः
प्राप्तराज्यस्य रामस्य वात्मीकिभंगवानपिः |
चकार चरितं क्ृृत्स्नं विचित्रपदमात्मवान् ॥ १ ॥
जब भोरामचन्ध जी प्रयाघष्या के राज-सिहसन पर आसीन
है| चुके थे, तव मदृषि वात्मीक्ि जी ने विचित्र पदों से युक्त इस
सम्पूर्ण काव्य को रचना की 4 १॥
[ नाट--हस छोक से स्पष्ट है कि, यद्द इतिद्वास श्रीरामचन्द जी का
समकालीन इतिद्दात है। ]
चतुर्वि शत्सदस्ताणि क्ोकानामुक्तवादपिः |
तथा सगशतान्पश्व पट काण्डानि तथेत्तरम् ॥ २॥
चाबीस हजार स्छोक पाँच से सर्ग, छः काण्ठ और साथ हो
उत्तरकायगड की भी रचना महर्षि ने की | २॥
कृत्वापि तन्मद्प्राज्) सभविष्य' सहोत्तरम् |
चिन्तयामास के न्वेतत्मयुझ्लीयादिति पग्) ॥ ३ ॥
इस प्रकार जव वे छः काणड और उत्तरकायड बना चुके तब
वे विदारने लगे कि यह कान्य पढ़ावे किसे ॥ ३ ॥
तस्य चिन्तयमानस्थ महर्पेभावितात्मनः ।
अग्रह्लीतां ततः पादों मुनिवेषों कुशीलवों | ४ ॥
पे यह सोच ही रहे थे कि, इतने में कुश और “लव ने आकर
चाद्मीकि जी फे चरण छूए ॥ ४॥
१ प्रयुञ़ीयात्ू--वास्विधेय कुर्यात् इतिचिन्तयासास ( गे।० )
४६ वालकायडे
कुशीलवो तु धर्मज्ञौं राजपुत्रो यशस्विनों ।
भ्रातरों स्व॒रसंपन्नो दृदर्शाश्रमवासिनों ॥ ५ ॥
उन यशल्त्री घर्मात्मा दोनों राजपुत्रों ( थोरामचनद्र जो फे पुत्रों )
के महपि ने देखा जिनका करठ्स्वर वंडा मधुर था और जे
उन्हीं के धाश्रम में उन दिनों वास करते थे ॥ ५ ॥
सतु मेधाविनों दृष्टा वेदेष परिनिष्ठितों ।
वेदोपबूहणार्थाय तावग्राहयत प्रशु) ॥ ६॥
- बुद्धिमान और वेदों में निष्ठा रखने वाल्ले ज्ञान कर, वेद के
अर्थ के खोकों में प्रफ८ कर, महर्षि ने उन दोनों के यह काज्य
पढ़ाया ॥ ६ ॥
'काँव्य॑ रामायण कृत्स्त॑ सीतायाश्चरितं महत् ।
'पौलरत्यवधमित्येब चकार चरितव्रतः ॥| ७ ||
भद्ृषि ने सोताराम के सम्पूर्ण चरित रावणवध के चूचान्त
सहित इस काव्य का नाम ' पोल्लस्थवध ” काश्य रखा ॥ ७ ॥|
५ ने--रावण का जन्स पुरुस््य कांप के वंश में हुआ था, जत३ रावण
के पौलछ्य सी कहते हैं। रौरल्थवध अर्थात् रावण का वध, जिम वर्णन
किया गया चद्द पौलस्त्यवध कान्य काया । ]
पाव्ये गेये च मधुरं प्रामाणेख्िमिरन्वितम् ।
जातिमिः सप्तमिवद्धं तन््त्रीछयसमन्वितम् ॥| ८ ||
यह चरित्र पढ़ते तथा गाने में प्रधुर, तोनों प्रमाणों से युक्त
अर्थात् छुत, मध्य, विज्ंचित सहित » सातों रुबरों से वंधा हुआ,
ग्रेर बीणादि वज्ञा कर गाने येम्य है॥८]|
हु
चतुर्थः सर्गः ४७
हास्यप्ृज्ञारकारुण्यरोद्रवीर भयानकै) ।
वीभत्सादइतसंयुक्त॑ काव्यमेतदगायताम् ॥ ९ ॥
शज्ञार, करुणा, हास्य, रोद, भयानक, चीर, वीभत्स, अदुभुत
शान्त ; इन नव रखों से युक्त काव्य का कुश और लव ने गाया ॥ ६ ॥
(0 बे
ते तु गान्धवंतत्तज्ञौं मूछनास्थानकेविदो ।
3 रसंपन्नो पिणे
अ्रातरो खरसंपन्नों गन्धरवाविव रूपिणा ॥ १०॥
वे दोनों राजकुमार गान विद्या में निपुण, ताक्ष और स्वर
के भत्नी भाँति जानने वाले, धरसस्पन्न और गन्धवों की तरह
छुन्दर थे ॥ १०॥
० कहे भाषिणोी
रूपलक्षणसंपन्नों मधुरखरः ।
विम्बादिवेद्धुता विम्वा रामदेहात्तथापरों ॥ ११॥
छुस्वरुप और सुलक्तणों से सम्पन्न, मीठे कण्ठ वाले दोनों राज-
« कुमार पेसे जान पड़ते थे, मानों श्रीरामचच्ध की देह के प्रतिविश्व
लग रखे हों ॥ ११॥
ते राजपुत्रों कात्स्येंन धर्माख्यानमनुत्तमम् ।
वाचे विधेय॑ं! तत्सव कृत्वा काव्यमनिन्दिता ॥११॥
प्रशंशनीय उन दोनों राजकुमारों ने धत्युत्तम धर्म का बतलाने
वाले रामायणकाज्य का वार वार पढ़ कर कण्ठात्र कर डाला ॥ १२॥
ऋषीणां च् द्विजातीनां साधूनां च समागमे |
५ मिली सी. रे हित
_. यथोपदेश्व तत्त्ज्ञी जगतुस्तों समाहिता ॥ १३ ॥
वे ऋषि, ब्राह्मण और साधुओं के सामने रामचरित्र को जैसा
कि उन्हें वतलाया गया था, बड़ी सावधानी से गाया करते थे ॥११॥
१ वाचोविधेयं--आवत्तिवाहुल्पेनवाग्वशवत्ति कृत्या (गो०)
वां० रा०--४
छ८ बालकायणडे
महात्मानौं महाथागों स्बलक्षणरुक्षितों ।
ते कद्ाचित्समेतानाभपीणां भावितात्मनाम! ॥१४॥
आसीनानां समीपस्थाविद॑ काव्यमगायताम |
तच्छु त्वा मुनय; सर्वे वाष्पपयाकुलेक्षणा। ॥ १५ ॥
पक वार धर्थात् ध्ीरामचन्द्र जी के अश्यमेभ्रयक्ष में, महात्मा
महाभाग तथा सर्वल्न्षणयुक्त दोनों भाइयों ने प्रोढ़-विचार-सम्पन्न
महात्मा ऋषियों की सभा में वेठ कर यह काव्य गाया, जिसके खुन
कर मुन्रियों के शरीर रोमाश्चित दे गये ओर उनके नेश्रों से प्रा
ट्पकने लगे ॥ १७४ ॥ १४॥ ह
साधु साध्विति चाप्यूचु) पर॑ विस्मयमागत्ता; |
ते प्रीतमनस; सर्वे मुनये। धर्मवत्सछा) ॥ १६ ॥
व ध्राश्चर्य चकित हे ' साधु साधु ” कह कर उन वोनों राज-
कुमारों की प्रशंसा करते हुए वे घमंवत्सल ऋषि, पध्रत्यानन्दित्त
हुए ॥ १६ ॥
प्रशशंसु) प्रशस्तव्यों गायन्ता ते कुशीलवों ।
अह्े गीतस्य माधुय शछोकानां च विशेषतः ॥ १७॥
उन गाते हुए प्रशंसा करने योग्य राजकुमारों की प्रशंसा कर, वे
बेल कि, गान वड़ा मधुर है और जछोकों का माधुय॑ ते वहुत ्धिक
चढ़ चढ़ कर है ॥ १७॥
चिरनिहेत्तमप्येतत्पत्यक्षमिव .दर्शितम् । कु
प्रविश्य ताबुभो झुष्दु तथा भावमगायताम् ॥ १८ ॥
पक सकल 34222 कक कप: 46 टीम 46 पल
! भावितात्मचाम्--निर्रिचतधियं (गो०)
चतुर्थ: सगे ४६
क्योंकि वहुत दिनों की दीती घटना परत्यत्त की तरह दिखलाई
सी पड़ती है। इस प्रकार ऋषियों द्वारा प्रशंसित दोनों राजकुमार
उनके मन के भावातुकूल ॥ १८॥
सहिता मधुरं रक्त! संपन्न स्व॒रसंपदा |
एवं प्रशस्यमानों ता स्तपःछाध्येमहात्मभिः ॥ १९॥
प्रति मधुर वाणों से धर्थात् राग से उस कात्य के गाने लगे |
उसे सुन ऋषियों ने उन गाने चालों की वड़ी वड़ाई फी ॥ १६ ॥
संरक्ततरमत्यथंमधुरं तावगायताम् |
प्रीत। कश्चिन्मुनिस्ताभ्यां सस्मितः कलश ददों ॥२०॥
प्रसन्नों बल्कल कश्चिददों ताभ्यां महातपाः ।
अन्यः कृष्णानिन प्रादान्मोब्जीमन्ये! महाझुनि। ॥२१॥
करश्चित्कमण्डलुं प्रादायजसत्रमथापरः ।
ओदुम्बरी तसीमन्यों जपमालामथापर! ॥ २२ ॥
आयुष्यमपरे चोचुमंदा तत्र महपंय! |
आश्रयमिदमाखू्यानं मुनिना संग्रकीतितस् ॥ २३ ||
राग सहित मधुर कराठ से गाने वाले उन राजकुमारों के मधुर
गान पर प्रसन्न हा, छुनने धालों में से किसी ने हँस कर उनके
कलसा, किसी ने चढ्कल, किसी ने रूगचर्म, किसो ने यशक्कोपवीत,
किसी ने कमण्डछु, किसी ने मोंजी मेखत्ता, किसी ने आसन
“ विशेष, किसी ने केपीन, किसी ने कुल्दाड़ी, फिसी ने फापाय चस्र;
छिसो ने चीर, किसी ने ज्ञठ्म वाँधने का डारा, किसी ने कोई
१ रक्त-रागयुक्त (गो०)
रा वालकायणडे
'बहुपात, और किसी ने माला दी । किसी ने प्रसन्न है| ऋर खस्ठि
और घ्रयुष्मान कद कर प्ाशोर्वाद ही दिया। इस शआम्यमद काव्य
के प्रणेता की प्रशंसा कर वे कहने लगे, ॥ २० ॥ २१॥ २५ ॥ रेरे ||
पर॑ कदीनामापारं समाप्त च यथाक्रमम् ।
गीत॑ सबंगीतेपु काविदों दे
अभिगीतमिदं गीतं सबंगीतेषु केविंदों | २४ ॥
यह काव्य पीछे फे कवियों का आधर स्वरुप है और यथाक्रम
समाप्त किया गया है। यद्द ग्रन्थ जैसा अद्भुत है वैसा हो गीत-
विशारद् इन दोनों राजकुमारों ने इसे गाया भी है. ॥ २४ ॥
आयुर्ष्य॑ पुष्टिननकक॑ सर्वश्रुतिमनाहरस् ।
प्रशस्यमानों सर्वत्र कदाचित्तत्र गायनो ॥ २५॥
यह काव्य श्रोताओं की आयु बढ़ाने वाला तथा उनकी पुएि
करने वाला और छुनने से सब के मन के हरने वाला है। इस
प्रकार घुनियों से प्रशंसित दोनों राज़कुमारों को, ॥ २४ ॥
रथ्यातु राजमार्गेषु ददश भरताग्रजः ।
सखवेश्म चानीय तते भ्रातरों च कुशीलवो ॥ २६ ॥
राजमार्ग पर जाते हुए श्रीरामचन्द्र जी ने देखा और वे उन्त
दोनों भाई कुश और लव के अपने भवन में लिया ले गये ॥ २६ ॥
पूजयामास पूजाही राम; शत्रुनिवहंणः ।
आसीनः काश्वने दिव्ये स च सिहासने प्रभु! ॥२७॥
शत्रु का वाश करने वाले श्रीराम जो ने घर पर उन सत्कार
करने येण्य दोनों कुमारों का भत्नी भाँति आदर सतककार किया और
आप ख़ुबरण के दिव्य सिंहासन पर वैंडे ॥ २७॥
|
चतुर्थ: सर्गः ४१
उपाषविष्ठ; सिचेश्रांठभिश्र परंतपः |
““ हंष्ठा तु रूपसंपन्ना तावुभा नियतस्तदा | २८ ॥
मंत्रियों व भाइयों सहित बैठे हुए श्रीरामचन्द्र ज्ी उन रुपवान
ग्रर छुशितित दोनों भाइयों के देख कर ॥ २८॥
उबाच लक्ष्मणं राम; शत्रुध्न भरत तथा ।
श्रृयतामिदमाख्यानमनयेर्देववर्चसा;! ॥ २९ ||
लक्ष्मण, शन्नप्त और भरत से ऋहने लगे कि, इन देव समान
तेज्ञस्त्री, मायकों के गान किये हुए इतिद्ास के छुने। ॥ २६ ॥
विचित्रार्थपद॑ सम्यग्गायनों समचादयत् ।
ता चापि मधुर॑ व्यक्त खब्चितायतनिःखनम |
ए् अं
तन्त्रीलयचदत्यथ विश्रुतार्थभगायताम् ॥ ३० ॥
इसमें नाना प्रकार के विचिन्न पशर्थ सद्दित पद् हैं, यह कह
' उन्दोंने उन बालकों का श्च्छे प्रकार गाने की प्राक्षा दी | तव उच
दानों ने उस भली भांति सीखे हुए काव्य का वीणा के साथ स्वर
मिला कर ऊँचे स्वर मे स्पष्ठ गाया ॥ २० ॥
हादयत्सबंगात्राणि मनांसि हृदयानि च |
श्रोत्राभयसुख॑ गेय॑ं तद़्भो जनसंसदि ॥ ३१ ॥
उस समा में बैठे हुए लेगों के मन और हृद्य.उस गान का खुन
कर प्रत्यन्त भाल्दादित है गये ॥ ११ ॥
कटे च्
“ -. इममों मनी पाधिवलक्षणान्वितों
कुशीलवो चैव महातपस्थिनों |
१ देंववर्चसाः--देवहुल्यतेजला: (गो०)
५० वालकायणडे
ममापि तद्भूतिकर॑ प्रचक्षते
महाजुभाष॑ चरित॑ निवराधत ॥ ३२ ॥
भ्रीरामचन्ध जी भो कहने लगे कि, राजलत्तेणों से युक्त इन
बड़े तपस्वी कुश और लव ने प्रभावात्पादक जे। चरित गाये हैं थे
मुझे वहुत प्रच्छे जान पड़ते हैं ॥ ३२ ॥
ततस्तु ता रामवच!प्रचादिता-
वगायतां मार्गविधानसंपदा ।
स चापि राम) परिपद्गत) शने-
धुभूषया सक्तमना वभव ह॥ ३३ ॥
इति चतुर्थः सर्गः ॥
इस भ्रकार भ्रीरामचन्द्र जो द्वारा प्रोत्साहित हो, दोनों भाई,
गायन विद्या को सीति को सरसा कर, बड़ी भ्रच्दी तरद गाने लगे।
सभा में वेहे श्रीरामचन्द्र उनका गान खुन धीरे धीरे उनके गान पर
मादित हो गये ॥ ३३ ॥
चैया सर्ग पूरा हुआ
अर
पञ्ञमः सगे:
हिल जी
सवा पूर्व!म्रियं येपामासीत्कृत्त्ना वसुंधरा |
प्रणापतिसुपादाय' दृपाणां जयशालिनाम ॥ १॥
5५ बंप बुबम गो ॥ दा गत रस १ अपूर्व--दुलभ (गो०) २ उपादाय--आरस्य (यो०)
पञ्चमः समेः ५३
राजा वैवस्वृत मनु भ्ादि जयशालो राजाशों के समय से यह
“- संप्तेद्वीपान्मिका प्रत्लिल पृथ्वी, अपूर्य ही चली भआतोी है, श्रथवा
महात्मा भनु जी से लेकर जयणाली राजाओं के समय से इस
सप्तद्वीपात्मिका समस्त पृथिवीमण्डल पर एककछूत शासन रहा
है॥£॥ ।
येषपां स सगरो नाम सागरो येन खानित) ।
पष्टि! पुत्रसहस्नाणि य॑ यान्त॑ पर्यवारयन! || २॥
जिस वंश में वे सगर माम के राजा हुए, जिनके साथ साठ
हज़ार पुत्र चला करते थे और' जिन्होंने सप्रुद्र खोदा था ( समुद्र
का सागर नाम समर राज़ा हो से हुआ है ) ॥ २॥
इक्ष्वाकृणामिद्द तेपां राज़ां वंशे महात्मनास्।
महतुत्पन्नमाझ्यांनं रामायणमिति श्रुत्म् ॥ ३ ॥
उन महात्मा इक्त्याकुबंश वाले राजाशओं के वंश में यह महा-
कथा उत्पन्न हुई है, जे। रामायण के नाम से जगत में प्रसिद्ध हे
( श्र्थात् इसमें उन्हीं सगर राजा के वंश वालों का इतिहास दिया
गया है ) ॥ ३॥
तदिद वर्तय्रिप्यामि' सब निखिलमादितः ।
धर्मकामाथंसहितं श्रोतव्यस्मनसूययाँ ॥ ४ ॥
३ पर्यवारयन---परितो$गच्छनू (यो९) हे चर्त॑यिप्यामि--प्रवतंविष्यासि
ी०) ६ श्रोत्तय --नतुस्त्रयंलिषितपाठेननिरीक्षितव्यं (गी०) ४ अब
घूथया--अयूयामित्रया श्रद्धयेत्यथे३ (गो०)
2 वालकायदे
उसी रामायण की कथा के दम थ्ायन्त ( श्रादि से अन्त तक )
. कहेंगे। ध्यतः इसे ईष्यों अर्थात् डाह के छोड़ धर्थाव् धद्धा सहित ..
छुनना चाहिये# ॥ ४ ॥
/ केसलो नाम मुदितः' स्फीतो जनपदे। महान ।
निविष्ठ; सरयूतीरे प्रभूतथनघान्यवान् ॥ ५॥
सरयू नदी के तठ पर सन्तुए्ट जनों से पूर्ण धनधान्य से भरा
पुरा, उत्तराचर उन्नति को प्राप्त, कोसल नामक एक वड़ा देश
था॥४॥
अयोध्या नाम नगरी तत्रासौल्छोकविश्रुता ।
मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मित खयम् ॥ ६ |।
इसी देश में मनुष्यों के ग्रादिसजा प्रसिद्ध मद्दारात्ष मनु की
नगरी वसाई हुई, तीनों क्षैकों में चिख्यातः प्याध्या नामक एक
थी॥ ६ ॥
<आयता दश च है व येजनानि महापुरी ।
मती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा || ७ ||
यह महापुरी वारह योजन ( ४८ कोस यानी ६६ मील ) चौड़ी
थी। नगरी में वड़ो सुन्दर लंवी भार चौड़ी सड़के थीं॥ ७ ॥
१ मुदिता--सन्तुटगचः (गो०) २ एफोत:--पस्द्धई (यो०)
डक » इस छोक का भाव या है कि, यह प्रस्थ चह्मा जी का बनाया हुआ
' होने के कारण, मुझे केव्छ इसके अचार करने का आधिकार है | भतः
विचारशीकों को इसे मेरा बनाया हुआ समझ इस शभ्रन्थ से डाह ने करना
चादिये, किन्तु श्रद्धा भक्ति के साथ हमे सुनना चाहिये-।
पश्चम+ सर्ग धछ
५ शजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोमिता |
मुक्तपृष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यशञ। ॥ ८॥
वह पुरी चारों भार फैली हुई बड़ी बड़ी सड़कों से छुशाभित
थी। सड़कों पर नित्य जल छिड़का ज्ञाता था और फूल विछाये
जाते थे ॥ ८५॥
५ ता तु राजा दशरथो महान्राष्ट्रविव्धनः ।
प्रीमावासयामास दिव॑ देवपतियेथा ॥ ९ ॥
इन्द्र की ध्मरावती की तरह महाराज दशरथ ने डस पुरी को
सजाया था ! इस पुरी में राज्य के खूब पढ़ाने चाले मद्दाराज दशरथ
डसी प्रकार रहते थे जिस प्रकार स्वर्ग में इन्द्र वास करते हैं ॥ ६ ॥
(-“कवाटतारणवती सुविभक्तान्तरापणाम ।
[+ पक जी. सवशि ८
सर्वयन्त्रायधवतीमुपेतां सबेशिल्पिभि; | १० ॥
इस पुरी में बड़े वढ़े तोरण द्वार ( पोल ) सुन्दर बाज़ार और
नगरी की रक्ता के लिये चतुर शिव्पियों द्वारा बनाए हुए सब प्रकार
के यंत्र और शस्त्र रखे हुए थे ॥ १० ॥
-सूतमागधसंवाधां श्रीमतीमतुलूपभाम् ।
उच्चाद्राल्थ्वजवर्ती शतप्लीशतसंकुलाम ॥ ११ ॥
उस में खूत, मागघ बंदीजन भी रहते थे, वहाँ के निवासी
हि घन सम्पन्न थे, उसमें बड़ी बड़ी ऊँची घ्रद्ारियों वाले मकान,
' ज्ञा ध्वाजा पताक्राश्रों से शामित थे, वने हुए थे, और परकोरटे की
दीवालों पर सैकड़ो तोपें चढ़ी हुई थीं ॥ ११॥
६ वालकायडे
वधुनाटकर्समैश्व संयुक्तां सबंतः पुरीम् ।
'उद्यानाम्रवणेपेतां मह्ती सालमेखलाम् ॥ १२ ॥
स्लियों की नाथ्य समितियों की भी उसमें कमी नहीं थी
और सर्वत्र जगह जगह पार्क यानो उद्यान थे और श्याम के वाग़
नगरी की शेभा वढ़ा रहे थे । नगर के चारों श्रेर सालुश्रों के
लंबे लंबे चृत्त लगे हुए ऐसे जञान पड़ते थे, मानों 'भयग्राध्या रुपिणी
स्त्री करधनो पहने हे ॥ १२ ॥
दुरगगम्भीरपरिखां दुर्गामन्येद्रासदाम् |
वाजिवारणसंपूर्णा' गेमिरुष्टें! खरेस्तथा ॥ १३ ॥
यह नगरी दुर्गम क्िल्ले और खाँई से युक्त थी तथा उसे किसी
प्रकार भो शत्रु जन भ्पते द्वाथ नहों लगा सकते थे। हाथी घोड़े
वैज्ञ ऊँठ खब्चर जगह जगह देख पड़ते थे ॥ १३ ॥
सामन्तराजसंपेश्व वलिकर्ममिराहताम् |
नानादेशनिवासेथ वणिग्मिस्पशेमिताम ॥ १४ ॥
करद् राजाओं श्र पहलवानों का यहाँ सदा जमाव रहता था।
उस पुरी में घ्रनेक देशों के लेग व्यापारादि धंधों के लिये चसते
थे॥ १७ ॥
प्रासादे रत्नविकृते) पर्वतेरुपशोभितास ।
“कूटागारेथ' संपूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम् ॥ १५॥
रल खचित महलों शेर पर्वतों से वह पुरी शोभायमान हो रही
थी। वहाँ पर स्त्रियों के क्रीडाशृह भी बने हुए थे, जिनको सुन्दरता *
बेख यही जान पड़ता था मानों यद् दूसरी प्ममरावती बुरी है ॥ १६ ॥
१ कूठागारै--रीणांक्रीडाग्रृहैः (गो०)
पश्चमः सर्मः ५
चित्रा'मष्टापदाकारां वरनारीगणेयताम ।
सवरवसमाकीर्णा' विभानशहशेभिताम ॥ १६ ॥|
राजभवनों का खुनदला रंय था। नगरी में सुन्दर स्वरुूपवती
ख््रियाँ रहतो थीं। रलों के ढेर वहाँ लगे रहते थे भ्रोर आकाशस्पर्शों
हर मकान ( विमान गृह ) जहाँ देखे वहाँ दिखलाई पड़ते
॥
ग्ृहगाठामविच्छिद्रां समभगो निवेशितास |
शाहितण्डरूसंपूणामिश्षुदण्डरसेदकास् || १७ ॥
उसमें चोरस भूमि पर बड़े मज़बूत आर सघन मकान अर्थात
वड़ी सघन बस्ती थी । नगरी में साठी के चाँवलों के ढेर लगे हुए
थे और कुओं में गन्ने के रस जैसा मीठा जल भरा हुआ था ॥ १७॥
दुन्दुभीमिम दद्वेश्च वीणामि! पणवेस्तथा ।
नादितां भुशमत्यथ पृथिव्यां तामनुत्तमाम् ॥ १८ ॥
नगाड़े, सद॒द्ू, चीणा, पनस आदि वाजों की ध्वनि से नगरी
सदा प्रतिध्वनित हुआ करती थी । पृथ्वीतल पर ते इसकी दक्कर
की दूसरी नगरी थी नहीं ॥ १८ ॥
विमानमिव सिद्धानां तपसाधिगतं दिवि।
सुनिवेशित वेश्मान्तां नरोत्तमसमाहताम ॥ १९ ॥
१ चित्रां--नानाराजगृदवर्तोी (यो०)। ३२ अष्टापदारा्त --अभशपर्द छुवर्ण
तजलेन कृतः आकारः भल्ड्ारों यत्याहत्येके (रा०) २ सुनिवेशिता:--हुप्ड-
निर्सित्ताः (गों०)
न चालकायडे
उस पुरी में, तप द्वारा ख्वर्ग में गये हुए सिद्ध पुरुषों के विमानों
जैसे सुन्दर धर बने हुए थे, जिनमें उत्तम कादि के मलुष्य रहा,
करते थे ॥ १६ ॥
५“यथे च् बाणैन विध्यन्ति विविक्तमपरावरम् ।
शव्दवेध्यं च विततं' लघुहरुता विज्ञारदा। ॥ २० ॥
उसमें ऐसे भी वीर थे जे असहाप और युद्ध छोड़ कर सागने
वाले शत्र का कभी वध नहीं करते थे, जे शब्दवेधी वाण चलाते
थे, जे! वाण चलाने में बड़े फुर्तीले थे तथा जे प्रस्न-शखस््र-विद्या
में पूर्ण निषुण थे ॥ २० ॥
'सिंहव्याप्रवराह्मणां मत्तानां नदंतां बने ।
हन्तारो निशिते्वाणेवलाद्वाहुवलेरपि ॥ २१॥
सिह, व्याप्र, वराह ध्यादि चनन््य पशु जे। वनों में दहाड़ते हुए...
घूमा फरते थे, उनका असर श्रों से वथा उनके साथ महयुद्ध
करके डनके मारने वाले भी वीर इस नगरी में अनेक थे। शअर्थात्'
हस्वलाघवता में तथा शारीरिक वल में यहाँ के बीरगण बहुत
चड़े बढ़े थे ॥ २१ ॥
. वाहशानां सहस्रेस्तामभिपूर्णा' महारथेः ।
“: पुरीमावासयामास राजा दशरथस्तदा || २२ ||
ऐसे हज़ारों महारथी बेहाँ रहते थे । महाराज दशरथ ने इस
प्रकार से अयेध्यापुरी वसायी थी ॥ २२ ॥
तामभिमद्विगुणवद्विराहवां
दिजेततमेवेंद्पदज्पारगः ।
१ विततं--पछायितं व (गो०)
पष्ठः सा: 8
सहस्रदे; सत्यरतेमंहात्मभि-
महपि कल्पैक् पिभिश्व केवछे:' || २३ ॥
इति पशञ्चमः सर्गः ॥
प्रयेध्यापुरी में रूदृदस्नों सामिक ( नित्य भ्श्निद्वीत्र फरने चाक्षे'
द्विज़्) सब प्रकार फे गुणी, पढड़ु वेद का पारायण करने वाके
विद्वान ब्राक्षण, सद्वादी महात्मा और जप तप में निरत हज़ारों:
क्रपि महात्मा ही मुख्यतया वास करते थे ॥ ०२ ॥
पाँचवाँ सर्ग समाप्त हुप्मा ।
५ मम
पए्ठः सर्ग
लि मल
तेस्यां पृर्यासयेथ्यायां वेदवित्सवसंग्र
दीघंदर्शी महातेजा। पारजानपदभियः ॥ १॥
इध््याकृणामतिरथा यज्या धमरते वशी |
महपिंकल्पे। राजपिखिपु छोकेपु विश्वतः ॥ २॥
ब्लवानिहतामित्रों मिन्रवान्विजितेन्द्रिय!
धर्मश्र संचयेआन्ये! शक्रवेश्नतणेपम। ।| हे ॥
यथा मनुमेहातेजा छेकस्य परिरक्षिता |
,.. तया दशरथों राजा वसझ्भगदपालयत् ॥ ४ ॥
१ छेवले--मुख्येः (चि०) ३ दीघपेदर्शी--वचिर्कालभाविपदार्धद्रष्टुश्षील-
मध्यास्तीति तथा (गो)
६० वांलकाणडे
उस ध्येष्यापुरी में वेदवेदार्थ जानने वाले, सब वस्तुश्ों का
संग्रह करने वाले (सत्य संग्रह:--धर्म का विचार रखते हुए सव का
संग्रह करने बाते ) सत्यप्रतिन्ष, दुरदर्शों, महातेजत्वी, प्रजाप्रिय,
इच्चाकुचंश में महारथी, अनेक यज्ञ करने वाले, धर्म में रत सब
के अपने वश में रखने वाले, महर्षियों के समान, राजवि, तीनों
लेकों में प्रसिदच, वल्वान, शत्रुरहित, लव के मिश्र, इन्द्रियों के
वश में रखने वाले, धनादि तथा धन्य वस्तुमोों के सश्चय करने में
इन्द्र और कुबेर के समान, मदाराज दशरथ ने, प्येध्यापुरी में राज्य
करते हुए उसी प्रकार प्रज्ञापालन क्रिया जिस प्रकार महाराज
मु किया करते थे ॥ १॥२॥ ३॥ ४॥
५. “तेन सत्याभिसंधेन त्रिवगमनुतिष्ठता ।
पालिता सा पुरी श्रेष्ठा इन्द्रेणवामरावती ॥ ५ ॥
सत्यसन्ध, तथा त्रिवर्ग प्राप्ति ( धर्म, अर्थ और काम ) के लिये
अनुष्ठानादि करने चाले महाराज दशरथ शअयेषध्यापुरी का पालन
हा प्रकार करते थे, जैसे इन्द्र अपनी अमरावती पुरी का ऋरते
॥४॥
तस्मिन्पुरवरे हृष्टा' धर्मात्मानों वहुश्रुताः ।
नरास्तुष्टा धनेः सर्वे! स्वैरलुव्धा। सल्यवादिनः ॥ ६ ॥
उस श्रेष्ठ ध्येध्यापुरी में खुख से वसने वाले, घर्मात्मा वहुश्न॒त
अर्थात् बहुत सा ज्ञमाना देखे भाले हुए, अपने अपने धन से सन्तुए,
'निर्लोभी, तथा सत्यवादी पुरुष रहते थे ॥ ६ ॥ फ्
नाव्पसंनिच॒यः कश्चिदासीत्तस्मिस्पुरोत्तमे ।
कुटुम्वी यो हसिद्धार्थोनवाश्वधनधान्यवान || ७ ॥
१ हेष्टाः--वाससीस्यैनप्रीताः (गो०)
पष्ठः सर्गः है?
उस उत्तम पुरी में ग़रीव यानी धनहोन ते कोई था ही नहीं,
प्रहिक फ्म घन वाला भी कोई न था, चक्ष॑ जितने कुटुम्ष वाल्ते
जग वसते थे, उन सव के पास धन धान्य, गाय, बैल, और
थोड़े थे ॥ ७ ॥
कामी वा न कदयें वा उशंसः पुरुषपः कचित ।
द्रष्ट शक्यमयेध्यायां नाविद्वान्न च नास्तिकः ॥८॥
अयेष्यापुरी में लम्पट, फायर, नृशंस, घूर्ख, नास्तिक भादमी
ते हॉढ़ने पर भी नहों मिलते थे ॥ ८ ॥
सर्वे नराइच नाययइच धर्मशीछा! सुसंयताः ।
उदिता। शौलद्त्ताभ्यां महपेय इवामलाः || ९ ॥
अयेध्याचासो क्या खो और फ्या पुरुष, सत के सव घर्मात्मा
“और जितेद्धिय थे। वे अपने शुद्ध और निककलड श्राचरणों में
' निध्पाप महर्षियों से दक्कर ल्लेते थे भर्धात् इन बातों में दह्ां के रहने
चाले सव क्लाग ऋषियों के समान थे ॥ ६ ॥
नाकुण्डछी बामुकुटी नांखग्वी नातएभेगवान !
नाग्ष्टी* नाजुछिप्ताज्ञो नाठुगन्थश्च बियते ॥ १० ॥
चहाँ ऐसा एक भी जन नहीं था जे। कानों में कुशडल, सिर पर
मुकुद तथा गले में पुष्प माला धारणा न करता हो, और ले तेल,
फुलेल, चन्दून न लगाता द्वो या जे हर प्रकार से छुखी न दे।। ऐसा
५ तो कोई भी न था जिसके (स्वच्छुता न रहने के कारण ) शरीर
+ से बदबू निकलती हे। ॥ १० ॥
१ अल्पभोगवान् -अद्यसुलबात् (गो० ) ९ सष्ट--अस्यप्वस्ताव-
शुद्ध: (गो०)
हर वालकायडे
नामृष्ट| भोजी नादाता नाप्यनड्रदनिष्कशक |
नाहस्ताभरणो वाउपि दृश्यते नाप्यनात्मवान् || ११॥
वहाँ ऐसा एक भी जन न था जे #च्रशुद्ध श्रन्न खाता दी ( ५५
अच्छे पदार्थ न खाता दी ) या जे भूखे के अन्न न देता हो या
जिसके गले और हाथों में सेने के गहने न हों या जिसने प्रपने
मन को न ज्ञीत रखा हो ॥ ११॥
नानाहिताप्रिनायज्वा' न क्षुद्रो वा न तस्करः ।
श्चिदासी $ निहत्तसं ४ >
करिचदासीदयेध्यायां न.च करः ॥ १२॥
अयोध्या में न तो कोई पुरुष ऐसा द्वी था जिसे अ्रप्निज्षेत्र वलि-
वेश्वदेव करना चाहिये और न करता हो या जे कुद्रचेता यानी
नीच स्वभाव का हो, या चेर दे, या वर्णसुर है ॥ १२॥
स्वकर्मनिरता नित्य॑ ब्राह्मणा विजितेन्द्रियाः ।
दानाध्ययनशीलाश्च संयताशच प्रतिग्रहे || १३ ॥
चहां पर तो अपने वर्णाश्रम' धर्मों का नित्य भनुछ्ठान करने
वाले, जितेद्धिय. दान और श्रध्ययवशीज्न तथा दान ( प्रतिग्रह )
क्षेते में हिचकने वाले ब्राह्मण वसते थे ॥ १३ ॥ |
न नास्तिकों नाइतके न करिचद्वहुश्॒तः |
नातयकी न चाओ्शक्तो नाविद्ान्वियते कचित् ॥ १४॥
१ नासष्टभाजी “अशुद्धान्नभोजी (शि०) २ नायज्वा--सेमयागर द्वितश्र
(शि० ) ३“ निधर् ततसइराश--निव् त्ः अनुष्ठितः, सह्टरः पक्षेत्रेवीजावापा:
दियेंन स$ (यो०)
+ बलिवैश्वदेवादि कर्म किये बिता अन्न शुद्ध नहीं देता ।
पछ स्येः 8६३
अयेष्या में न तो कोई नास्तिक ही था, न कोई असत्यवादी
“था, न कोई अल्य अनुसवी था,न कोई परनिन्दाप्रिय था, न कोई
अशक्त था और न कोई प्भित्तित मूर्ख ही था ॥ १४ ॥.
नापषइज्ञविदत्रासीन्नावते' नासहस्द!* ।
न दीनः प्षिप्तचित्तो वा व्यथिताो वापि कश्चन ॥१५॥
यहाँ न कोई ऐसा ही द्विज था जे! नित्य पडडडवेद का स्वाध्याय
न करता दी, या जे। पकादशो आदि ह्ञतों को न रखता दो, या जे!
पढ़ाने में केताई करता हवा, या दोन हि। या पागल हो, या व्यथित हो,
ध्थता दुखिया हा ॥ १४ ॥
कृश्चिन्नरों वा नारी वा नाश्रीमान्नाप्युरूपवान् |
द्रष्ट शक्यमयेध्यायां नापि राजन्यभक्तिमान् ॥१३॥
ध्येध्या में वसने वाले क्या पुरुष और क्या स्रियाँ कोई भी
निधन और कुरूप न थीं | उस पुरी में ऐसा भी कोई पुरुष नहीं देख
पड़ता था, जे। राजभक्त न हो कर राजद्रोही दहे। ॥ १६ ॥
वर्णेष्वग्यचतुर्थेषु देवतातिथिपूजकाः ।.
कृतज्ञाश्च वदान्याश्च शूरा विक्रमसंयुता। ॥ १७॥
चहाँ तो चारों वर्ण वाले लेग वसते थे, जे। देवता और
घतिधियों का पूजन किया करते थे, जे। कृतज्ञ, वदान्य, (वचन के
पूरा करने वाले, दाननिपुण ) शूरवोर और विक्रमशाली थे ॥ १७ ॥
दीर्घायुषो नराः सर्वे धर्म सत्य॑ च संभ्रिता: ।
सहिता; पृत्रपौत्रेश्व नित्य द्धीमिः पुरोचमे ॥ १८ ॥
१ एकादश्यादिवतःरद्वितः (वि०) । २ नासदंस्रद!--अबहुप्रदः ( गो० )
वा० रा०--५
६४ वालकाणडे
सब अयेध्यावासी दीर्ध ग्रायु वाक्े, धरम और सत्य का शाभश्रय
लेने वाले, पुत्र, पोश्न और ज््रियों से भरे पूरे थे | १८॥
पत्र ब्रह्ममु्ख' चासीद्वेश्याः प्षत्रमनुत्रताः ।
शृद्रा। खधंम निरतास्रीन्वर्गानुपचारिण; ॥ १९ ॥
', वहाँ के ज्ञत्रियगण ब्राह्मणों के प्राज्ञाकारी, वेश्यगण ज्ञत्रियों के
शरनुवर्ती ( भर्थात् कहने में चलने वाक्ते ) और शुद्रगण घपतने चर्णा
धर्माउसार ब्राह्मण, ज्न्रिय शोर चैश्य जाति के कागों की सेवा
करने वाले थे ॥ १६ ॥
सा तेनेक्ष्याकुनाथेन पूरी सुपरिरक्षिता ।
यथा पुरस्तान्मनुना पानवेन्द्रेण धीमता ॥ २० ॥
महाराज दशरथ उसी प्रकार भ्येष्यापुरी का पालन किया
करते थे, जिस प्रकार उनके पूर्वज बुद्धिमान नरेन्द्र महाराज मनु
कर चुके थे ॥ २० ॥
येधानामगिकल्पानां पेशछानां' अमपिणस् |
संपूर्णा कृतविद्यानां गरुह् केसरिणामिव ॥ २१ ॥
प््मि के समान तेजखी, सरलचित्त, शत्रु वल का न सहते
वाले, भर्त्र शस्र परिचालन में निपुण योद्धाप्रों से 'येध्यापुरी
डसी प्रकार भरी हुई थी, जिस प्रकार पर्वत-कन्द्राएं सिंहों से भरी
हुई होती हैं ॥ २१॥
-फीस्मेजविषये जातैर्बाहीकैश हयेत्तमै) |
वनासुजैनदीजैश् पूर्णा हरिहयेत्तमैः | २२ |
आलम न पर पमल मनन तनमन न न न ननलनल ता
* मह्ममुख--ब्राह्मणप्रधानंभासीत् (गो०) २ पेशरानाम्--अकुरिकानाम्
पहठः सर्गः ६५
पु इन्द्र के घाड़ों के सम्रान कस्वाज, वारहीक, वनायुज और सिल्धु
मंदी के समीपवर्तो देशों में उत्पन्न हुए घोड़ों की जाति के उत्तमे।-
सप्त घाड़ों से अयेष्यापुरी सुशामित थी ॥ २२ ॥
«विन्ध्यपरबतजहत्तेः पूर्णा हैमवतैरपि ।
मदान्वितिरतिवलैमातिज्रं: पर्वतोपमे) ॥ २३ ॥
ऐरावतकुलीनेश्व महापत्रकुलैस्तथा ।
अज्ञानादपि निप्न््नैवामनादपि च द्विपे! ॥ २४ ॥
भद्रेमन्दमगेश्वेव भद्रमन््दशगैस्तथा ।
च् भद्रमगे >> धरे
भद्ठमन्दे मंद्रणगेशगमन्देश सा पुरी | २५ ॥
निल्यमत्तेः सदा पूर्णा नागेरचलूसंनिनेः ।
सा येजने च हे भय; सत्यनामा प्रकाशते ॥ २६॥
किन्याचल ओर हिमालय पर्वतों में उत्पन्न मद्मस्त, अ्रति
वचलशाली तथा पहाड़ों की नाई' ऊँचे शेर महाप्म' कुल वाले;
भद्ठ, मच और म्ग ज्ञाति वात्ते और इन तोनों जातियों के मिश्रित
लक्तणयुक्त ; भद्रमन्ध, भद्स्ण और सुपमन्ब--इन दे। दे! जातियों
के मिश्रित कत्तण युक्त, पर्ववाकार हाथियों से भरी, दो! येजन
बाली, अपने नाम को सार्थक करने वाल्ली भ्येष्यापुरी थी।
( अयाध्या का अर्थ है-जिससे कोई युद्ध न कर सके श्रर्थात्
. अजेया) ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६ ॥
यस्यां दशरथों राजा वसश्जगद्पालयत् ।
तां पुरी स महातेजा राजा दशरथे! महान ।
शशास शमितामित्रों नक्षत्राणीव चस््रमाः ॥ २७ ॥
!
हि वाल्नकायडे
| इस प्रकार की ध्येध्या नगरी में महाराज दशरथ रह कर राज्य
करते थे। उस पुरी में महाराज दशरथ राज्य करते हुए उसी प्रकार॑«
शाभायमान होते थे, जिस प्रकार नक्षत्रों के वीच में चन्धमा ॥ २७ ॥
ता सत्यनामां दृतोरणागंलो -
हेवि रा शाभि ' ५, ०
: ग्रहेवि चित्रेस्पशेमितां शिवास् ।
+
ह। के यह री का)
पुरीमयेध्यां दुसहससंकुलां
, शशास वे शक्रसमे। महीपति। ॥ २८ ॥
इति पष्ठः सर्गः ॥
अपने नाम के चरिताथ करने वालो ग्येध्यापुरी में, जे।
हृढ़ तोरण अर्लादि से युक्त थी, जिसमें चित्र विचित्र घर वने हुए
थे और जिसमें हज़ारों धनी मनुष्य वास करते थे, महाराज दृशरछ
इन्द्र की तरह राज्य करते थे ॥ २८॥
वालकाण्ड का छुठवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
+-त+
सप्तमः सगे
/ तस्यामात्या गुणैरासब्निक्ष्वाकेस्तु महात्मन! ।
स्मन्त््ञाश्चेल्वितज्ञात्र नित्य॑ प्रियहिते रता) ॥| १ ॥
उन इच्वाकुवंशाज्व महाराज दशरथ के मंत्रिगण, सर्वगुण ३
सम्पन्न, सत्परामश देने में निपुण, अपने स्वामी ( घर्थात् महाराज
. दशरथ ) के मन की गति के समझाने वाले, धघ्र्थोत् इशारों
सप्तमः सर्गः ६७
पर काम करने वाले श्र महाराज की सदा भलाई चाहने
चाले थे ॥ १॥
अष्टी वभूबुर्वीरस्य तस्यामात्या यशखिनः ।
#शुवयथानुरक्ताश्च राजकृत्पेषु नित्यशः ॥ २॥
महाराज दशरथ के भंजिमगडल में पश्राठ मंत्री थे। थे सव वहे
यशस्वी, ईमानदार और नित्य राज्यक्ताय में निरत रहने वाके थे ॥शा
धृष्टिजेयन्तो विजय) सिद्धाथों हयथंसाधक। |
अज्ञोका मन्त्रपालश्च सुमन्त्रश्चाएमेज्मभवत् ॥ रे ॥
ध्याठ मंत्रियों के नाम ये थे--( १ ) घृष्टि, (२) जयन्त (३ )
विजय (४ ) सिद्धार्थ (£ ) ध्र्थशाधक (६ ) प्शेाक (७ ) मंत्र-
पाल आ्रौर ( ८५ ) खुमंन्र ॥ ३॥
भे
ऋत्विजा द्वावभिमतों तस्यास्तामपिसत्तमा ।
वसिष्ठो दामदेवश्च मन्त्रिणश्च तथापरे ॥ ४ ॥
इनके धतिरिक्त ऋषिवरय वशिछठ, और चामदेव # महाराज के
यक्ष भी कराते थे और मंत्रिपद का सी काम करते थे ॥ ४॥
विद्याविनीता हीमन्त कुशला नियतेन्द्रिया; ।
परस्पराजुरक्ताश्च नीतिमन्तो वहुश्रुता ॥ ५ ॥
श्रीमन्तरच महात्मानः शाख्ज्ञा दृढविक्रमा। |
कीरिमन्त) प्रणिहिता यथावचनकारिण) ॥ ६ ॥
- # किसी क्िपी रामायण की पुस्तक में सुयज्ञ, जावालहि, काश्यप। सौतस,
मा्कण्डेय, जोर कात्ययत महर्पियों को भी कुछपरम्परा से महाराज दशरथ के
मंत्रिमण्डल में सम्मिलित छिख्ला है ।
ह्घ वालकायडे
तेज! क्षमायश/प्राप्ता) स्मितपूर्वाभिभाषिणः ।
क्रोधात्कामार्थहेलोवा न ब्रुयुरद्त॑ बच: ॥ ७ ॥
तेषामविदित॑ किंचित्स्वेपु लारित परेषु वा ।
क्रियमाणं कृत वापि चारेणापि चिकीपितम् || ८ |
कुशला व्यवहारेषु साहदेषु परीक्षिता!
प्रापकालं तु ते दण्ड धारयेयु। सुतेषयपि || ९ ॥
ये सव मंत्री विद्या-चिनय-सम्पन्न, सलझ, कार्य-कुणल,
जितेक्तिय, शआ्रपस में सरह्वाव रख॑ने वाले, मीतिधिशारद, बड़े
घमुभवी, धन सम्पत्ति से भरे पूरे, महात्मा, शास्त्र फे मम के जानने
वाले, पड़े पराक्रमो, प्रसिदं, ( जागरुक ) सावधाव, शजा के
कथनानुसार काय करते वाले अथवा अपने वात के धनी ( जा,
फहै वही करे भी ) तेजली, ज्ञमाचानू, यशप्वी ओर सदा प्रसन्न
मुख हो वचन कहने वाले, क्रोध अथवा लेभमवश हो कमी स्कुठ
न बालने वाले थे। शअपनी प्रजा तथा दूसरे राज्यों की प्रजा का कोई
भी हाल इन मंत्रियों से छिपा न था, वर्योंकि वे चरों द्वारा सव
वत्तान्त जानते रहते थे। वे व्यवहारकुशल, सोहाहं में जञाँचे हुए
और घत्याय कार्य करने पर अपने पुत्र के भी न््यायेत्तित दण्ड देने
घालेथे॥ ५ ॥ ६ ॥ ७॥८५॥ ६ ॥
केशसंग्रहणे युक्ता वलस्य च परिग्रहे |
अहितं वापि पुरुष न विहिस्युरदूषकम || १० ॥
बे सव मंत्री त्र्थ और सैन्य विभागों
कामों में चतुर, मि<-
पराध शत्रु के भी न सताने वाले थे ॥ १० ॥
सप्तमः सर्ग ह६
वीराश्च नियतेत्साहा रानशास्रमनुत्रताः ।
शुचीनां रक्षितारश्च नित्य विषयवासिनास॥ ११ ॥
थे बीर और उत्साह के नियमित रखने वाले, राजनीति में
निपुण और राज्य में बसने वाले पविन्नात्मापं की रक्ता करने
बाले भे' ॥ १६॥
ब््मक्षत्रमहिंसन्तस्ते केश समवर्धयन् ।
मुतीएणदण्डा संमेक्ष्य पुरुपस्य वछावलूम् ॥ १२ ॥
वे ब्राक्षणों ग्रर त्॒श्ियों के विना सताये ही राजकाष की
वृद्धि करने चाले थे, और अपराधी का वज्ञावल विचार कर कठोर
दण्ड की व्यवस्था करने बाते थे ॥ १२॥
»>थुचीनामेकबुद्धीनां सर्वेपां संप्रजानताम् |
नासीत्पुरे वा राप्ट्रे वा मूपावादी नरः क्चित् ॥११॥
“फंरिचच् दुष्तस्तत्रासीत्परदाररतो नरः ।
बे सबमेबासीद्राप्टं कक के
प्रशान्तं सबमेबासीद्राप्द पुरवरं च तत्॥ १४॥
मंत्रियों में परस्पर ऐक्च और आतहुः ऐसा था कि, राजधानी
और राज्य भर में न तो कोई रूठा और न कोई लम्पठ और दुराचारी
ही मनुष्य रदने पाता था। राज्य भर में धश्रमनचैन विराजता
था॥ २१३॥ १४ ॥
सुवाससः सुवेपाश्च ते च सर्वे सुशीलिनः ।
हिताथ च नरेन्द्रस्य जाग्रतो नयचब्लुपा ॥ १५ ॥
वे लाग भ्रच्छे वस्र पहनते थे और शप्च्छा पेशभूषा रखते थे
तथा बड़े खुशील थे | वे सदा राजा का हित चाहने वाले और
नीति से चलने पाले थे ॥ १५ ॥
हे वालकायडे
गुरी गुणशहीताश्च प्रख्याताश्च पराक्रमे । ह
विदेशेष्वपि विख्याता; सबंते वुद्धिनिश्वयात् ॥१३॥
थे अच्छे गुणों के आहक, और प्रसिद्ध पराक्रमी थे। थे प्पने
बुद्धिलल से विदेशस्थ पुरुषों के भी गुण दोप ताड़ लेने के लिये
विख्यात थे ॥ १६ ॥
संधिविग्रहतत्तज्ञाई प्रकृत्या संपदान्विता; ।
मन्त्रसंपरणे युक्ता: छदष्णा। सक्ष्मासु बुद्धिपु ॥१७॥
, थे संधि और विग्ह को नीति के मर्मज्ष, वास्तविक संपत्ति वात्ते
राज्ञकाज सम्बन्धी सलाह के छिपा कर रखने वाले, प्रतिभावान्
और छुत्मम विचार करते के लिये सदा तत्पर रहते थे ॥ १७ ॥
नीतिशास्रविशेषज्ञा। सतत प्रियवादिनः ।
इह्शैस्तेरमात्येश्व राजा दशरथो5्नघ: ॥ १८ ॥
उपपन्नो गुणेपेतेरन्वशासदइसुंधराम् ।
अवेक्षमाणश्चारेण प्रजा धर्मेण रक़्यन् ॥ १९ ॥
वे नीति शास्र के विशेषज्ञ ओर स्व प्रियवचन वालने वात
थे, इस प्रकार के शुणथुक्त मन्त्रिमगढल से युक्त, महाराज दशरथ
,.भेदिया पुलिस द्वारा राज्य के समाचार ज्ञान कर, प्रजा का मने-
, रंजन करते हुए, पृथ्वी पर राज्य करते थे ॥ १८॥ १६ ॥
प्रजानां पालन कुर्वन्नधर्म परिवर्जयन्।
विश्वुतस्धिषर लाकेषु वदान्यः सत्यसंगर। ॥ २० ॥
वे अधम त्याग कर प्रज्ञा को पालन करते थे.। वे सत्य बाल
और वदान्यता के लिये तोनों लेकों में विख्यात थे ॥ २० ॥
्ः-
तन
ध्यएमः सर्गः ७१
स तत्र पुरुषव्याप्र; शशास पृथिवीमिपाम् |
नाध्यगच्छद्विश्िष्ट॑ वा तुल्यं वा शत्रमात्मनः ॥११ह॥
वे पुरुषसिद महाराज दशरथ इस पृथ्वो का शासन करते हुए,
अपने से भ्रधिक व अपने समान, शत्रु को कभी न देखते थे॥ २१॥
.मित्रवान्नतसामन्त; प्रतापहतकण्टकः ।
स शशास जगद्गाजा दिव॑ देवपतियंथा ॥ २२ ॥
घपने अधीनस्थ छोटे शज्ञाशों से सम्मानित और मित्रों से
युक्त महाराज दशरथ, अपने प्रताप से इन्द्र को तरह राज्य करते
थे ॥ २९॥
तैमन्त्रिभिम॑न्त्रहिते नियुक्ते-
बताओतुरक्तेः कुशले; समयें! ।
स पाथिवो दीप्तिमवाप युक्त-
स्तेजामयेगोंमिरिवादितोज्क; ॥ २३ ॥
इति सप्तमः सगेः ॥
दितकारी, तेज्ञस्वी, समर्थ, अन्गुरागी, मंत्रियों सहित, महाराज
दशरथ श्येध्या को रक्ता करते हुए, खूर्य की तरह तपते थे ॥ २३ ॥
वालकाण्ड का सातर्वा सर्म पूरा हुआ ।
>>
अष्टमः सगे
+++ क ३ --
तस्य ल्वेबंप्रभावस्य धर्मज्ञस्थ महात्मन! ।
. झुताथे तप्यमानस्थ नासीईंशकरः सुतः ॥ १ ॥
७२ वालकाणडे
ऐसे प्रतापी, घन महाराज दशरथ के तपस्या करने पर भी
वंशवृद्धि करने चाला कोई पुञ्न न था ॥ १॥
चिन्तयानस्थ तस्थेय॑ चुद्धिरासीन्महात्मनः ।
सुतार्थी वानिमेषेन क्रिमथ न यजाम्यहम || २ |
तब बुद्धिमान महाराज दशरथ ने मन में साचा कि, में पुत्रआप्ति
के किये अभ्वमेध यज्ञ क्यों न करूं ॥ २॥
स निरिचितां मर्ति कृत्वा यहुव्यमिति बुद्धिमान ।
सन्त्रिमिः सह धर्मात्मा सर्वेरेव कृतात्मभि! ॥ ३ ॥
- इस प्रकार यज्ञ करते का भल्री भाँति निश्चय करके, परमक्षानी
महाराज ने अपने बुद्धिमान मंज्ियों की बुलाया ॥ ३ ॥
तते/अ्रवीदिद॑ राजा सुमन मन्त्रिसत्तमम ।
शीघ्रमानय मे सर्वान्गुरुंस्तान्सप्रोहितान् ॥ ४ ॥
सब मंत्रियों में थेष्ठ खुमंत्र से महाराज दशरथ ने कह कि, तुम
हमारे सब गुरुओं और पुरोहितों को शीघ्र बुला लाओे! ॥ ४ ॥
ततः सुमन्त्रस्तवरितं गत्वा त्वर्तिविक्रम) |
समानयत्स तान्सवोन्गुरूंस्तान्वेदपारगान् ॥ ५ ॥
शीघ्रगाप्री सुमंत्र अति शीघ्र उन सव पेदपारग भुरुओं के बुल्ला
,' ज्ाये॥४॥
म्ुयज्ञं वामदेव॑ च जावालिमथ काश्यपय |
पुरोहित वसिष्ठं च ये चान््ये द्विनसत्तमा! ॥। ६॥
खुयक्ष, वामदेव, जावाल्ि, काश्यप, और पुरोहित वशिष्ठ के
अतिरिक्त अन्य उत्तम प्राह्मणों के भी सुमंत्र बुला ले गये | है ॥
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ध्प्रमः सर्य ७३
वान्यूजयिला धर्मात्मा राजा दशरथरतदा ।
इृदं धर्मार्थसहितं छक्ष्णं बचनमत्रवीत् ॥ ७ ॥
उन सब का धमतत्मा महाराज दशरथ ने सम्मान किया और
धर्म गौर अर्थ युक्त उनसे यह मधुर वचन कहे ॥ ७॥
मम लालप्यमानस्य पुत्रा्थ नारित में सुखम ।
तदर्थ हयमेपेन यक्ष्यामीति मतिमम ॥ ८ ॥
पुत्न के लिये बदुतत विलाप करने पर भी पुझे पुत्रसुल प्राप्त
नहीं हुआ । इस लिये पुत्रप्राप्ति के लिये श्रश्वमेध यक्ष करने की
मेरी इच्छा है ॥ ८॥
तदहं यप्डुमिच्छामि शास्त्रदष्टेन कर्मणा ।
कथं प्राप्स्यास्यई कार्म बुद्धिरत्र विचायताय ॥ ९ ॥
किन्तु में जाख्र की विधि के अनुसार यज्ञ करना चाहता हैं।
प्राप लाग सेोच विचार कर वतलावें कि दमारी इट)्टसिद्धि किस
प्रकार दे सकतो है ॥ ६ ॥
तत) साध्विति तद्गाक्य व्राह्मणा; प्रत्यपूजयन् |
बे ए कप
बसिष्टममुखाः सर्चे पाथित्स्थ मुखेरितस ॥ १० ॥
महाराज के थह वचन छुन कर, सव उपस्थित ब्राह्मणों ने
महाराज के विचार की प्रशंसा की, और वशिष्ठादि बेले कि, आपने
_बहुत भ्रच्छा कार्य करना विचारा है ॥ १० ॥
ऊचुश्च परमपीता! सर्वे दशरथं वचः |...
संभाराः संप्रियन्तां ते तुरगश्च विम्च्यताम् ॥११॥
७8 वालऋगणडे
थे सव अत्न्त प्रसन्न हे महायात् से वाक्ते कि, यक्ष नी
सामग्री एकत्र करके घोड़ा दोड़िये ॥ ११ ॥
०] यज्ञभमिवि पी
सरथ्वाश्चोत्तरे तीरे यज्ञभूमिविधीयताम् |
भिप्रेतांश्च पार्थिव ॥ १२॥
सवथा प्राप्स्यसे पृत्रान व॥ १२
सरयू नदी के उत्तर तट पर यक्षमएटप वनत्राइये। दे राजन !
ऐसा करते से आपका पुत्र-प्राप्ति का मनारथ श्रवश्य पूरा
होगा ॥ १२॥
यस्य ते धा्मिकी बुद्धिरियं पृत्रार्थभागता ।
ततः प्रीताउ्भवद्राना श्रु्नेतद्द्विममापितस ॥ १३ ॥
पुत-प्राप्ति के लिये श्रापने यह उपाय बहुत द्वी अच्छा विचारा
है। उन ब्ाह्मणों की ये वातें सुन महाराज्ञ दशरथ प्रसन्न हुए ॥१३॥
अमालांब्ान्रवीद्राना हषपर्याकुलेक्षण; ।
संभारा संप्रियन्तां मे गुरूणां वबचनादिह ॥ १४ ॥
और प्रसन्न हो मंत्रियों के ध्राज्ञा दो कि मेरे गुरु की श्राज्ञा के
अबुसार यज्ञ की तैयारियाँ को जाये ॥ १४ ॥
समर्थाधिष्टितश्चाश्वः सेपाध्याये। बिम्नुच्यताम ।
सर्वाश्चात्तरे तीरे यज्ञभूमिविधीयताम ॥ १५॥
उपाध्याय के साथ समर्थ रक्तकों सदित घेड़ा छोड़ा जाय, और
सरजू के तटपर यज्ञ के लिये स्थान ठोक किया ज्ञाय ॥ १४॥
शान्तयश्चामिवधन्तां यथाकर्पं यथाविधि |
शक्यः कर्तुमय यज्ञ! सर्वेणापि महीक्षिता ॥ १६ ॥
घष्टमः सर्गः ७४
विप्ननिवारक क्रियाकलाप यथधाक्रम शऔर यथातिधि कियेः
जाय | क्योंकि सव राजाञ्नों के लिये श्रश्वमेध यज्ञ करना सहज
काम नहीं है ॥ १६ ॥
नापराणे भवेल्कष्टो यद्यस्मिन््क्रतुसत्तमे ।
छिद्रं हि मृगयन्तेत्च्र विद्वांसा ब्रह्मराक्षता। | १७ ॥
_ एक वात का ध्यान रखा जाय कि, इस यज्ञ की विधि पूरी करने
में न तो कोई अ्रपचार हे श्र न किसी के कफ होने पावे। यदि
कहाँ ऐसा हुआ तो किद्वान्शेपी चिद्वान् ब्रह्मराक्षस यक्ष में बड़ा पिन्च
खड़ा कर देंगे ॥ १७॥
विहतस्य च यज्ञस्य सत्र) कर्ता विनश्यति ।
अं
तद्यथा विधिपू् मे ऋतुरेष समाप्यते॥ १८ ॥
विधिद्दीन यज्ञ करने से यश्षकर्ता का नाश द्वोता है। अ्रतएव'
विधिएूर्वक यज्ञ प्रा होना चाहिये ॥ १८॥
यथा विधान क्रियतां समथा। करणेष्विह |
तथेति चात्रुवन्सर्वें मन्त्रिण: प्रदपूजयन् ॥ १९ ॥
थाप जेग ऐसा प्रयत्न. करें जिससे यद्द यज्ञ यथाविधि द्वो।
यह कार्य श्राप ही लागों पर निर्भर है । महाराज के इन बचनों के
छुन सब मंत्री लागों ने कह्--" जे। झाक्षा,” ॥ १६ ॥
पाथिवेन्द्रस्प तद्गाक्य यथाज्ञप्त॑ निशम्य ते ।
तथा डिजास्ते धर्मज्ञा व्धयन्तो हृपात्तमम्् ॥ २० ॥
अजुज्ञातास्तत; सर्वे पुनजस्मु्यथागतस् |
विसजयित्वा तान्विप्रान्सचिवानिदमब्रवीतू ॥ २१ ॥
२७ चालकाणडे
ऋत्विग्पिरुपदिष्टो5यं यथातरत्कतुराप्यताम । है
इत्युक्त्वा रपशादूलः सचिवान्समुपस्थितान् ॥ २२ ॥
विसजंयित्वा स्व वेश्म प्रतिवेश महाद्यति; ।
तत) स गत्वा ता; पब्नीनरेन्द्रो हृदयभ्रिया। | २३ ॥
ब्राह्मणगणश भी महाराज्ञ के! श्ाशीर्वाद दे और महाराज से
विदा माँग अपने अपने घरों के ल्ोठ गये । आह्मणों के विदा कर
महाराज अपने मंत्रियों से कहने लगे--ऋत्विज्ों ने जैसी परिधि
चतलाई है यह यज्ञ उसी विधि के अनुसार निविश्न पूरा ही--इसका
भार शाप ही लेशों पर है । यह कह ऋर महाराज ने उपस्थित
मंत्रियों के भी विदा किया और आप भ्ली चहां से उठ कर
रनिवास में चत्ने गये और अपनी प्राणप्यारी सनियों से
चले ॥ २० ॥ २१ ॥ २६५ ॥ १३॥
उबाच दीक्षां विशत यश्ष्ये'ं सुतकारणात् ।
तासां तेनातिकान्तेन वचनेन सुब्चसाम् |
मुखपद्मान्यशेभन्त पद्मानीव हिमालये ॥ २४ ॥
इति अधश्मः सम ः ॥
हम पुत्र-पप्ति के लिये यज्ञ करेंगे, तुम भी य्ञदीत्ञा के नियमों
का पालन करो । महाराज के मुख से यह प्यारे वचन छुन रानी
चहुत प्रसन्न हुई। इस सुखदायी संचाद के सुन शनियों के छ-
मल ऐसे सुशाभित हो गये, जैसे बसन्तकाल में खिले कमल के
फल शोभा को प्राप्त दोते हैं ॥ २४ ॥
वालकाणड का आठवाँ सर्ग पूरा हुआ।
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एतच्छू त्वा रह; मतों रानानमिदमब्रवीत् ।
ऋत्विग्मिरुपदिष्टो5्यं प्राहृतो मया श्रृतः ॥ १॥
यज्ञ की चर्चा छुन, सुमंत्र ने पकान््त में महाराज से कहा कि,
मैंने ऋत्विज्ञों से एक पुरानी वात छुनी है ॥ १॥
सनत्कुमारो भगवान्पूवें कथितवान्कथाम् |
ऋषीणां संनिषा राज॑स्तव पश्नाग्म प्रति ॥ २॥
आपके सन््तान के बारें में सगवाब् सनत्कुमार ने ऋषियों से
यह कथा कही थो ॥ २॥
कश्यपस्य तु पृश्नोअरित विभण्डक इति श्रृतः ।
ऋश्यभृद्ध इति ख्यातस्तस्य पुत्रों भविष्यति ॥ ३ ॥
कश्यएपुत्र विभगढक के ऋष्यश्टड्न नामक पुत्र होंगे ॥ ३ ॥
स बने नित्यसंद्ृद्धों मुनिर्बनचर। सदा ।
नान््य जानाति विप्रेन्द्रों नित्य॑ पित्रतुवर्तनात् ॥४॥
वे वन ही में रहेंगे और छा वन में पिता के पास रहने के *
फारण अन्य किसी पुरुष वा स्त्री को नहीं जान पावेंगे ॥ ४ ]
हेदिध्य॑ ब्रह्मचयेस्य भविष्यति महात्मनः ।
लोकेपु प्रथित॑ राजन्विपेश्व कथितं सदा ॥ ५॥
छ८ बालकायडे
ऋष्यःटज् दोनों प्रकार के त्रह्मचय॑, जे। प्राह्मणों के लिये वतल्ाये
गये हैं, और लेक में प्रसिद्ध हैं, धारण करेंगे ॥ ५ ॥ से
[ नोाद--मेखछा अजिन धारण करके गुरुकुछ में ने्टिक ब्रक्षचारी के
रूप में रहना मुख्य वहाचय है और सन्तान कामना से चातु में दी पत्नी का
सम्रायस करना सौण ब्रह्मचर्य है | पर है यद ब्रह्मचयं ही। इस पर यागी
याज्वक्ष्य ने छिखा है कि, पोडशर्तुनिशः खीणांतश्मिन् युग्मासुसंविशेष् |
ब्रह्मचार्येंव पर्वाण्याद्ाश्नतलश्ववर्जयेत् ॥ ]
न 3 समभिवर्त
तस्येव॑ वतमानस्य काल; ते।
अग्नि शुअषमाणस्य पितर॑ च यशखिनम् ॥| ६ ॥
अग्नि और अपने यशस्वी पिता को सेचा करते हुए जब ऋष्य-
शरद के बहुत समय बीत ज्ञायगा ॥ 4 ॥
एतस्मिल्ेव काले तु रोमपादः प्रतापवान् |
अज्लेषु प्रथितो राजा भविष्यति महावर || ७॥
तब अडुदेश में महावली और प्रतापी रोमपाद् नाम का एक '
प्रसिद्ध राजा होगा ॥ ७ ॥
तस्य व्यतिक्रमाद्राज्ञो भविष्यति सुदारुणा |
अनाइष्टि; सुधेरा वे सवंभतभयावहा ॥ ८ ॥
कुछ दिनों वाद रोमपाद के भ्रत्याचार से वर्षा बंद होने के
कारण मद्दा विकराल सव प्राणियों का सयदायी दुभिक्ष पड़ेगा ॥5॥
अनाहष्ट्यां तु इचायां राजा दुःखसमन्वितः ।
ब्राह्मणाब्श्ुतदृद्धांथ समानीय प्रवक्ष्यति || ९ ॥
तब वह राज्ञा उस अ्रनाज्ुएि से दुःखी हा, छुविज्ञ एवं शाखश
ब्राह्मणों के बुलाकर पछेगा ॥ ६ ॥
नव सर्गः 96
भवन्तः श्रुतधर्माणो छेकचारित्रवेदिनः ।
समादिशन्तु नियम॑ प्रायश्चित्त यथा भवेत् ॥ १० ॥ '
शाप लेाग लेकाचार ओर चेद्किधर्मो के जानने वाले हैं। अतः
धाप हमारे उन कमो का जिनके कारण वर्षा नहीं हे! रही, प्राय-
श्वित्त वतलाइये ॥ १० ॥
वक्ष्यन्ति ते महीपार्ं त्राह्मणा वेदपारगाः ।
विभण्डकसुतं राजन्सवेपायेरिहानय ॥ ११ ॥
शजा के इस प्रश्न के छुब, पेद्पारग ब्राह्मण उत्तर दंगे कि,
राजन | जैसे वने वैसे विभगडक मुनि के पुत्र ऋष्यश्टड़ के यहां
क्ते ग्राइये ॥ ११॥
आनीय च महीपाल ऋश्यमृड्ें सुसत्कृतम । |
, प्रयच्छ कन्यां शान्तां वे विधिना सुसमाहितः ॥ १२ ॥
कोर उनके यहाँ लाकर उनका सत्तकार कीजिये श्ौर यथा-
विधि उनके साथ पपनी कन्या शान््ता का चिचाह कर
दीजिये ॥ १२॥
तेषां तु बचन श्रुत्वा राजा चिन्तां प्रपत्स्यते ।
केनोपायेन वे शक््य इहानेत॑ स वीयवान ॥ १३ ॥
उनके इस कथन के छुन राजा के यद्द चिन्ता होगी कि, वे
जितेन्द्रिय मुनि ऋष्य्श्ड् किस उपाय से यहाँ लाये जा सकते
हैं॥ ११॥
ततो राजा विनिश्रित्य सह मन्त्रिभिरात्मवान् ।
पुरोहितममा त्यांश्व ततः प्रेष्पति सत्कृतान्॥ १४ ॥
चा० रा०- ६
घ० वालकायडे
बहुत सोच विचार के वाद् राजा अपने पुरोहित ओर मंत्रियों
के मुनि के पास जाने के कहेंगे ॥ २४॥
ते तु राज्ञो बचः श्रुत्वा व्यथिता विनताननाः ।
न गच्छेयुऋषेभीता अनुनेष्यन्ति त॑ नृपस् ॥ १५ ॥
किन्तु, वे विनीत लोग मुनि कैशाप के डर से भयभीत है
राजा से निवेदन करंगे कि, हम लोगों के स्वयं वहां ज्ञाने से ऋषि
के शाप का डर लगता है ॥ १५ ॥
हा वक्ष्यन्ति चिन्तयित्वा ते तस्येपायांश्व तत्क्षमान् |
| आनेष्यामे वर्य विष न च देषो भविष्यति ॥१६॥
। परन्तु हाँ, हम अन्य किसी ऐसे उपाय से उन मुनि के यहां ले
. .< श्रावेंगें कि, जिससे हमकेा दोष न लगेगा ॥ १६ ॥
एवमझ्ाधिपेनेव गणिकामिऋषे: सुतः |
आनीतगोे (४ डे
ध्वषयदेव) शान्ता चारम प्रदीयते ॥ १७॥
राजा वेश्याओं द्वार ऋषिपुत्र के बुलावेंगे भोर उनके
झआाने पर बुष्टि होगी ओर राजा अपनी कन्या शान्ता ऋषिशक् को
ब्याह देंगे ॥ १७ ॥
ऋश्यश्डस्तु जामाता पुत्रांस्तव विधास्यति ।
सनत्कुमारकथितमेतावद्व्याहुत॑ मया ॥ १८ ॥
बे हदीऋष्य्एज् आपके पुत्र देगे--यह वात मुझसे सनत्कुमे
हा ने पहले हो कद 'रखी है ओर वही मैंने थापसे कही ;
॥ १८॥ | द
च्ज
दृशमः सर्गः घर
अथ हुए दशरथ; सुभनन््त्र प्रत्यभापत |
यथश्य॑घृड्स्त्वानीतों विस्तरेण लयेच्यताम् ॥ १९ ॥
हृति नवमः खर्गः ॥
यह खुन मद्दाराज दशरथ प्रसन्न हुए ओर सखुमंत्र से वाले कि
जिस प्रकार रोमपाद ने ऋष्यश्टड के घुलाया वह हाल हमसे
च्योरे वार कही ॥ १६ ॥
वालकायणड का नर्वा सम समाप्त हुआ |
“--+
दशमः सगे:
बन छ इकआनन
समन्त्रथ्नो दितो राज्ञा प्रोवाचेदं वचस्तदा ।
यथश्यश्ृड्धस्वानीतः श्ृणु मे मन्त्रिभि; सह ॥ १॥
महाराज दशरथ के इस प्रकार पूछने पर खुमंत्र ने विस्तार
पूर्वक वृचान्त कहना आरब्भ किया । उुमंत्र बोले, हे महाराज !
जिस उपाय से शेमपाद के मंत्रिवर्ग ऋष्यश्टड को लाये, से में
कहता हूँ। उसे आप मंत्रियों सहित छुनिये ॥ १॥
रेामपादमुवाचेद॑ सहामात्यः पुरोहित) ।
उपाये निरपाये<यमस्माभिरमिमन्त्रितः 4॥ २ ॥
मंत्री भ्रौर पुरोहित रोमपाद से बेत्ते कि हमने निविन्च कृतकार्य
ने का एक्र उपाय साया है ॥ २॥
ऋषश्यभड़ो वर्नचरस्तप)ख्वाध्यायने रत ।
अनभिज्ञ) स नारीणां विषयाणां सुखस्य च॥ ३॥
घर वालकायडे
ऋष्य्टक वन के रहने चाले और सदा तप प्रोर स्वाध्याय में
विरत रहते हैं. । उनके ख्रीखुल और धन्य विषयों का छुछ4
बिल्कुल नहीं मालूम है ॥ ३॥
इन्द्रियार्यैरभिमतैनरचित्तप्रमाथिमि: ।
पुरमानाययिष्यामः क्षिप्रं चाध्यवसीयताम् || ४ ॥
ध्यतः मनुष्यों के मुम्ध करने वाली इक्धियों के घिपयों द्वाय
उनकी शीघ्र नगर में ले श्रावेंगे। वस अब इसका शीघ्र तिश्वय करना
चाहिये ॥ ४ ॥
गणिकास्तत्र गच्उन्तु रूपंवल) खलंकृता; |
धेपायेरानेंप्यंन्तीह 9..« 2
प्रल़ोभ्य विविधेपायरानेप्यंन्तीह सत्कृता। ॥ ५ ॥
रूपदतो ओर अलड्ुगर युक्त पेश्याएँ सरकार पूर्वक भेजी ज्ञायँ
वे छुनि के तेरंह तरह के प्रलोभन दिला लिया ल्लारेंगी॥ ५.॥
श्रुत्वा तथेति राणा च भत्युवाच पुरोहितम्।
, पुरोहितो मन्त्रिणश्र तथा चक्रुथ ते तदा॥ ६॥
यह खुन राजा ने पुरोहित के ओर पुरोहित ने मंत्रियों का
तदनुसार करने के कहा ॥ ६ ॥
वारमुख्यास्तु तच्छु त्वा वन प्रविविशुमहत् ।
आश्रमस्याविद्रेजस्मिन्यत्न॑ कुवेन्ति दशने ॥ ७ ॥।
इस प्रकार को बातें छुन वेश्याएँ घेर वन में जहाँ ऋष्यश्टड
का आधम था गयों ओर ध्ाश्रम के निकट पहुँच कर सदा प्राश्रम
में रहने वाले ओर धीर ऋषिपुत्न के दर्शन करने का प्रयंल करने
लगीं ॥9॥ के |
दशमः सर्मः दे
ऋषिपृत्रस्य धीरस्य नित्यमाश्रमवासिन; |
पितुः स नित्यसन्तुप्ये नातिचक्राम चाश्रमात् ॥ ८ ॥'
फ्योदि आष्यम्टड पिता के लालन पालन से सनन््तुए देकर
फभी भी स्राधम के वादिर नहीं निऋूलते ये ॥ ८ ॥
न तेन जन्मप्रभुति दएपूर्व तपस्थिना |
स्रो वा पुमान्वा यज्ञान्वत्सत्व॑ नगररा्ट्रजम् ॥ ९ ॥
तपस्वी ऋष्यश्ट्ञ ने ्राज तक ख्रो, पुरुष, नगर व राज्य के ,
धन्य जीधों के कमी नहीं देगा था ॥ ६ ॥
तत! कऋदाचित्त देशमाजगाम यहच्छया ।
' विभावकसुतस्तत्र ताथापश्यद्वराज़्ना। । १० ॥
- देवयेश से एक दिन श्पने श्राप जिस जगह थे वेश्याएँ
उस चन में दिक्की हुई थीं, ऋष्यश्टज्ञ पहुँचे और उन वेश्याश्रों को
उन््हींने देखा ॥ १० ॥
ताथ्ित्रवेषा: प्रमदा गायन्त्या मधुरखरेः ।
ऋषिपुत्रस॒ुपागम्य सवा बचनमत्रुवन् ॥ ११॥
7७ ».,
चित्र निश्चित्र वेश बनाये मधुर स्वर से गाती हुई वे सव
वेश्याएँ ऋषिएुत्र के पास ज्ञाकर वेलीं ॥ ११ ॥
कस्त्व कि वर्तसे ब्रह्मब्ज्ञातुमिच्छामहे वयम् |
: एकस्त्य॑ विजने परे वने चरसि शंस न! ॥ १९॥ «
हैं ब्रक्मदेव | तुम किस जाति के दा, किसके लड़के है।, तुम्दारा
क्या नाम है शेर तुम यहाँ फ्या करते ही !? तथा हम. जानना
४ वालकाणडे
चादती हैं कि, तुम किस लिये इस निर्जन वन में श्रकैले घूमते,
फिरते दो !.॥ ११॥
अद्ृष्टरुपास्तास्तेन काम्यरूपा बने स्त्रियः ।
हादात्तस्य मतिजांता ह्ाख्यातुं पितर॑ खकम् ॥ १३ ॥
फऋष्यश़् ने तो इसके पूर्व कभी ( कमनीय कान्ति वाली )
स्त्रियां (घन में ) देखी ही न थीं--उनकी बुद्धि माद्तित हो! गयी |
ओर वे हृदय से अपने पिता का नाम वतलाने के तैयार हो
* गये ॥ १३ ॥
पिता विभण्डकेश्माक तस्याईं सुत औरस! ।
ऋष्यथूज् इति ख्यात॑ नाम कर्म च मे झरुवि ॥१७॥
मेरे पिता विभगड॒क हैं ओर मैं उतका और्स पुत्र हूँ। के
नाम ऋष्यश्ज्र है। में जे यहां करता हूँ वह सब के विदित
है॥ १४॥ हैँ
इहाश्रमपदेउस्मार्क समीपे शुभदशना: ।
करिष्ये वे'धञर पूजां वे सर्वेषां विधिपूषकय ॥ १५॥
हे दे शुभानना | यहाँ से समीप हो मेरा भाश्रम है। वहाँ चल्िये,
विधि पूर्वक प्रापका सत्कार करूँगा ॥ १४॥
ऋषिपुंत्रवच श्रुत्वा सर्वासां मतिरास वे ।
तदाभ्रमप्द द्रष्टं जस्मु। सर्वाश् तेन ता। ॥ १६ ॥ -
मुनि के यह वचन छुन और उनके भ्राशम के देखने की इच्छा
से थे वेश्याएँ मुनि से साथ उनके आश्रम में गयीं ॥ १६ ॥
दशमः सर्गः घ्
आगतार्ना ततः एजामपिपत्रथ्कार ह |
इंद्मध्यमिदं पाद्रमिद मूलमिदं फलम || १७॥
उनके ध्ाश्रम में पहुँचने पर ऋषिकुमार ने उनका सककार किया
प्रार प्र्ध्य, पांच, फल, मूल उनके दिये ॥ १७॥
प्रतिगृद्य तु तां पूजां सवा एवं समृत्सुकाः ।
ऋषभभीतास्तु शी ता गमनाय मति दधु।॥ १८॥
अस्पाकमपि भुख्यानि फलानीमानि वे द्विज ।
ग्रहण प्रति भ ते थक्षयसत्र च मा चिरस | १९ ॥
तदनन्तर, वे वेश्याएं ऋष्यश्टक् के पिता के डर से वहाँ से
शीघ्र लौटने की इच्छा से तरह तरह की सुस्वाद मिठाई, जे थे
धपने साथ ले गयी थीं, ऋषिपुत्र को देकर बालों क्लीजिये, ये
हमारे फल हैं, इन्हें श्राप स्वीकार कीजिये और इनके शीघ्र
चलखिये॥ १८ ॥ १६ ॥
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ततस्तारद॑ समालिड्गय सवा हपंसमन्बिताः |
मेदकान्पददुस्तस्म भक्ष्यांत्र विविधाव्ुभान ॥२०॥
तदनन्तर उन सब ने प्रसन्न हा मुनिकुमार के गले लगा,
ध्ति स्वादिए तरह तरह के लड॒डू तथा खाने को प्न्य विविध
चस्तुएँ उनके दीं ॥ २० ॥
तानि चाखाद् तेजखी फलानीति सम मन्यते |
अनाखादितपूर्वांणि बने नित्यनिवासिनाम् ॥ २१ ॥
उन्हें चखने पर भो ऋषिपुच्र फल ही समभते रहे। क्योंकि
हमेशा घन में रहने के कारण उन्होंने इसके पहले कभी मिठाई तो
है वालकायडे
खाई न थी, फिर वे क्या समर्से कि, मिठाई और फल में भो कु
श्न्न्तर होता है ॥ २१!
आपूच्छय च तदा विष ब्रतचया निवेध च |
गच्छन्ति स्मापदेशाचा; भीतार्तस्य पितु) स्त्रिय/ ॥२२॥॥
वे वेश्याएँ विभगडकऋषि के झ्ाश्रम में लौट कर थ्या जाने के
भय से झूठ मूठ घ्रत का वह्दाना वना प्राश्रम से चलो आयी ॥ २२॥
गतास् तास सवास काश्यपस्यात्मजाो ह्विज)
अखस्थहृदयश्चासीहःखात्संपरिवतेते ॥ २३ ॥
इत वेश्याञों के लाठट आने पर ऋष्यश्टडू' दुःख के मारे उदास
हुए ॥ २३ ॥
ततोथरेथरुरत॑ देशमाजगाम स वीयेवान्।
मनाज्ञा यत्र ता दृष्ठा वारशुख्या) स्लंकृता। ॥२४॥
अग्रले दिन वे स्वयं फिर वहीं पहुँचे जहाँ पहले दिन उनकी
भेंठ उन मन के मेदले चाली वनो ठनी वेश्याञ्रों से हुई थी ॥ २७॥
हृप्नेव च तदा विभमायान्तं हृष्टमानसाः ।
उपसत्य ततः स्वोस्तास्तमूचुरिदं बचः ॥ २५ ||
आषि-कुमार के आते देख वेश्याएँ प्रसन्न हुईं, और उनके
पास जाकर यह कहने लगीं ॥ २४ ॥
एज्माश्रमपर्द साम्य हस्माकमिति चाव्रवन |
तत्राप्येष विधि: श्रीमान्विशेषेण भविष्यति ॥२५६॥
च्ज
दशमः सर्मेः घ्छ
दे वाली--मद्यराज | श्राइये, हमारा श्राश्रम भो देखिये।
“यहाँ की प्रपेत्ता वर्दा ग्रापका सत्कार श्रश्चिक होगा ॥ २६ ॥|
श्रृत्रा तु वचन तासां मुनिस्तद्भदयंगमम ।
गमनाय म्ति चक्रे तं व निन्युस्तदा स्रिय/ः ॥ २७॥
यद खुन ऋषि-कुमार के मन रमें उनके साथ ज्ञाने को इच्छा
उत्पन्न हुई श्र पेश्याएँ उनके प्रपने साथ के प्यायीं ॥ २७ ॥|
तत्र चानीयमाने तु विप्रे तस्मिन्महात्मनि |
0 ल
ववष सहसा देवा जगत्यहादायंसस््तदा ॥ २८ ॥
मुनि के नगर में पहुँचते दी इन्द्रदेव ने रोमपाद के राज्य में जल
वर्षाया जिससे सब प्राणी प्रसन्न दे गये ॥ २८ ॥
वर्षणेवाग् विम्र॑ं विषय॑ स्व नराधिपः ।
प्रत्युद्गम्य मुर्नि प्रीत! शिरसा च महीं गत; ॥२९॥
अध्य च प्रददों तस्मे नियत) सुसमाहितः ।
बत्रे प्रसाद विभेन््द्रान्या विर्भ' मन्युराविशेत् ॥ ३० ॥
चर्षा छोते हो सामपाद ने मुनि के! ध्लाया ज्ञान, और पुनि के
पास ज्ञा वड़ी नम्नता से उनके प्रशाम क्रिया और यथाविधि अप््य
पाधादि प्रदान कर उनका पूजन क्रिया श्र उनसे यह चर माँगा
कि, उनके पिता विभगडक रोमपाद पर कैप न करें ॥ २६ ॥ ३० ॥
अन्त[पुरं म्रविश्यास्म कन्यां दत्त्ता यथाविधि ।
५ कप |. ४
कप 28 7247 अं की %5% 20020 अल, 0. 3:07 शान्तेन मनसा राजा हपमवाप स || ३१ ॥
१--विभण्डक ऋषिम ( बि० )
ज चाल्षकायडे
फिर रेमपाद, ऋषि-कुमार के रनिवास में लिया ले गया और
शान्ता फा उनके साथ यथाविधि विवाह कर बह बहुत प्रसष्ठ.
हुआ॥ ३१॥
एवं स न्यवसत्तत्र सवंकामेः सुपूलितः |
ऋष्यमड़ो महातेमा) शान्तया सह भायेया ॥३२॥
हति दशमः सभः ॥
झष्यश्टड़ भी शान्ता के साध सब प्रकार से खुखी हो रोमप
की राजधानी में रहने लगे ॥ ३२ |
चालकायड का दसवां सर्ग समाप्त हुआ |
>--३६ झ। ३००००
एकादशः सगे क्
भूय एव हि राजेन्द्र शृणु मे वचन हितस्।
यथा स देवप्रव॒र! कथायामेवमत्रवीत् | १ ॥
इतना कह झुमंत्र ने महाराज दशरथ से कहा कि, है राजन !
इसके उपरान्त देवप्रवर सबत्कुमार ने जे। और कहा से भी ।
ल्लीजिये ॥ १॥
इक्ष्वाकूणां कुले जातो भविष्यति सुधार्मिक) ।
राजा दशरथो नाम श्रीमान्सल्प्रतिश्रद! ॥ २ ॥
इत्ताकु महाराज के चंश में बड़े घर्मात्पा और सत्यप्रतिक्ष श्ोमान्
महाराज्ञ दशरथ होंगे ॥ २॥
पकादणशः सभ्ेः है
अद्गराजेन सख्य च तस्य राज्ञों भविष्यति |
पुत्रस्तु साश्ड्राजस्य रोमपाद इति श्रुत्त ॥ ३॥
उनकी मैत्री अ्रक्ुंद्देशाघिपति शेमपाद से दागी ॥ ३॥
त॑ स राजा दशरथो गमिष्यति महायशा; |
अनपत्योजस्म धर्मात्मज्शान्ताभ्ता मम ऋतुम् ॥श।
आहरेत लगाजप्तः संतानाथ कुलस्य च |
श्रुत्वा राज्ञोअथ तद्वाक्यं मनसापि विमृश्य च ॥ ५॥
चदराज के पु्॑र रामपाद फे पास महायशस्वी महाराज दशरथ
जाँयगे और करेंगे कि, मेरे सन््तान दोने के लिये यक्ष कराने के
श्राप शान््ता के पति ऋष्यश्णड़ के मेरे यहाँ भेजिये । यद छुन रोम-
पाद मन में सोच घिंचार कर, ॥ ४ ॥ ५ ॥
प्रदास्यते पुत्रवन्तं शाम्ताभर्तारमात्मबान् ।
प्रतियद्य च॒ त॑ पिप्रं स राजा विगतज्वर। ॥ ६ ॥
शान्ता के पति ऋष्यश्टड़ के पुत्र सहित भेज्ञ देंगे। ऋष्यशडु
के पाने से महाराज दशरथ की चिन्ता दूर दागी ॥ ६ ॥ |
आहरिप्यति ह॑ यज्ञ परहुष्टेनान्तरात्मना ।
त॑ च राजा दशरथो यपष्टुकामः कृताज्ञक्िः ॥ ७ ॥
ऋष्यथूक्क॑ द्विलश्रेष् वरयिष्यति धर्मवित् ।
यज्ञार्थ प्रसवार्थ च खर्गार्थ च नरेश्वरः | ८॥
मन में अत्यस्त प्रसन्न हो महाराज दशरथ उन ऋषिप्रवर के
साथ ल्लावेंगे और यज्ञ करने की धमभिज्ञापा रखने. वाले महाराज
६8० बालकायडे
. दशरथ हाथ-लाड़-कर धर्मात्मा ऋष्यश्टज् के यज्ष कराने के लिये
वरण करे झरर्थात् पुत्र के लिये श्रोर स्व प्राप्ति के लिये उनके-
यक्ष में ऋत्विज़ वनावेंगे ॥ ७ ॥ ८ ॥
लभते च स त॑ काम ह्विजमुख्याद्विशां पतिः ।
पुत्राआर॒य भविष्यन्ति चत्वारोइमितविक्रमा: ॥ ९ ॥
इस यज्ञ के प्रभाव से भर्थात् फल सव्रर्प महाराज दशरथ के
अमित पराक्रमी चार पुत्र उत्पन्न होंगे ॥ ६ ॥
वंशप्रतिष्ठानकराः स्वेलेकिषु विश्रुताः |
एवं स देवप्रवर! पूर्व कथितवान्क्थाम्॥ १० ॥
सनत्कुमारो भगवान्पुरा देवयुगे प्रश्! ।
स त्वं पुरुषशादूल' तमानय सुसत्कृतम् ॥ ११॥
स्वयमेव महाराज गत्वा सवलवाहन; ।
अनुमान्य वसिष्ठं च सूतवाक्य निशम्प च ॥ १२॥
वे पुत्र वंश बढ़ाने वाले और सारे संखार में विख्यात होंगे । इस
प्रकार सनकुमार जी ने यह कथा वहुत पूर्च भर्थात् इस चतुर्युगी
के प्रथम सत्युग में कही थी। धतः दे नरशादेल श्याप' स्वयं फोञ
ओर सवारियों सहित जाकर उन ऋष्यश्टक्ञ का आदर पूर्वक लिया
लाइये | महाराज दशरथ ने छूत अर्थात् खुमंत्र की कही यह कथा
अपने गुरु वशिष्ठ ज्ञी के धुला कऋर खुनायी ॥ १० ॥ ११॥ १२ ॥
वसिष्ठेनाभ्यनुज्ञते! राजा संपूर्णणानसः ।
सान्त|पुरः सहाम्रात्यः प्रययौ यत्र स ट्विजः ॥ १३ ॥ -
एकादशः सर्गः ६१
जब सशिएठ जी ने भी प्रपनी प्यनुमति दे दी तव महाराज
“देशरथ बड़ी लालसा के साथ, ध्पनी रानियों और मंत्रियों के
पपने साथ ने चद्दों गये, अदा ऋष्यत्ट॒ढ़ः रहते थे ॥ १३ ॥
बनानि सरितश्चेव व्यतिक्रम्य शने! शर्म! ।
अभिनक्राम त॑ देश यत्र वे मुनिषुद्ठचः ॥ १४ ॥
अनेक बसों श्रोर तदियों के पार कर महाराज धीरे धीरे उस
देश में जा पहुँचे जहाँ वे मुनिप्रवर निवास करते थे ॥ १४॥
आसादय त॑ हविजश्रेष्द रोमपादसमीपग्् |
ऋषिपूरत्न॑ ददशांदों दीप्यमानमिवानलम ॥ १५ ॥
वहाँ ज्ञाकर मद्दायज़ दशरथ ने भ्रप्मि के सम्रान तेजस्वी ऋष्य-
श्र के रोमपाद के समीप बैठा देखा ॥ १४ ॥
ततो राजा यथान्याय॑ पूजां चक्र विशेषतः |
सखिलात्तस्थ ये राज्ः पहप्टेनान्तरात्मना ॥ १६ ॥
समपाद ने मित्रधर्म से प्रेरित ही ध्रत्यन्त प्रसन्नता के साथ
न्यायानुकूल मद्दाराज़ दशरथ का विशेष ध्मादर सत्कार किया ॥१६॥
रोामपादेन चारुयातरृपिपुनत्नाय धीमते ।
सख्य॑ संवन्धर्क चेव तदा तं॑ प्रत्यपूजयत् ॥ १७॥
उन बुद्धिमान ऋष्यश्टडु दशरथ के साथ अपनी मैत्री होने का
वृत्तान्त कद्दा, जिसे छुन ऋष्यन्टजू भी प्रसन्न हुए और दशरथ की'
? » प्रशंसा की ॥ १७ ॥
एवं सुसंत्कृतस्तेन सहोपित्वा नरपभः |
सप्माप्ठ दिवसान्राजा राजानमिदमब्रवीत् || १८ ॥
8२ बालकाणडे
इस प्रकार सत्कार के साथ दशरथ चहां सात शआहठ दिन रह
|, कर रोमपाद से बेलले ॥ १८॥ -
शान्ता तव सुता राजन्सह भर्ता विशांपते ।
मदीय॑ नगर यातु कार्य' हि महदुद्यतम ॥ १९ ॥
है राजन | यदि आपकी पुत्री शान्ता अपने पति के साथ भेरो
गञजधानो में चलें ता बड़ी कृपा. दो, फ्योंकि एक पड़ा कारय था
उपस्थित हुष्पा है॥ १६ ॥
तथेति राजा संभ्रुत्य गमन॑ तस्य धीमतः ।
उवाच वचन विप्र॑ गच्छ त्व॑ सह भायया | २० ॥
यह खुन रामपाद ने "ऐसा हो होगा ” महाराज दशरथ से कह,
ऋष्यश्टड्र से कहा कि, ग्राप झपनो पत्नी सहित मद्दाराज दशरथ वे
साथ जाइये ॥ २० ॥
ऋषिपुत्र; प्रतिभ्रुत्य तथेत्याह उृप॑ तदा।
स नृपेणाभ्यनुज्ञतः प्रययों सह भायेया ॥ २१ ॥
' ऋष्यश्शड जाने के राज़ी दो गये और राजा रोमपाद की श्राज्ञा
के घनुसार भार्या सहित मद्दाराज़ द्शस्थ के साथ हे। लिये ॥ २१॥
तावन्योन्याब्ललि क्ृत्वा स्नेहात्संडिष्य चोरसा |
ननन्दतुदेशरथो रोमपादथ वीयबान ॥ २२ ॥
तब चे द्वोनों राजा परस्पर हाथ जेडू और पक दूसरे की गत्ते
लगा अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ २२ ॥
तृतः सुहृदमापृच्छन्य प्रस्थितो रघुनन्दन३
पीरेश्य; प्रेषयामास दतान्वे शीध्रगामिनः.॥-२३ ॥
एकादश: सर्मः ६३
व महाराज दशरथ अपने मित्र रोमपाद से विदा हो प्रस्थानित
हुए और पहले ही शीघ्रमामी हृत अयोध्या भेजे ॥ २३ ॥
क्रियतां नगर सब्र श्षिप्मेव खलंकृतम् |
धूपित॑ सिक्तसंमृप्ट पताकामिरलंकृतम् ॥ २४ ॥
पर उनके झआाज्षा दो कि, तुम यहाँ पहुँच कर राजधानी की
सफाई आर ध्रच्छो सजावट करवाओ | लड़ छिड़काना, सुगन्धित
द्रव्य ( भुग्झुलादि ) जलवाना और ध्वज्ञा पताकाओं से नगरी
सजवाना ॥ २४ ॥
तंतः प्रहष्टाः पारास्ते श्रत्ता राजानमागतम |
तथा प्रचक्रस्तत्सव राज्ञा यत्रेपितं तदा ॥ २५॥
प्रद्दाराञ दशरथ के जाने का संचाद पा, अयेध्याचासी बहुत
) प्रसन्न हुए धार जैसा मद्दाराज ने दूतों द्वारा फहलाया था, तदनुसार
/ नगरी का साफ फर उन लोगों ने सज्ञाया ॥ २५ ॥
१
ततः खलंकृतं राजा नगर प्रविवेश है ।
शहुदुन्दुभिनिरोपेः सुरस्कृत्य द्विनपभम् ॥ २६ ॥
' * उस सजी सज्ञाई साफ स्वच्छ नगरो में छुनिवर के आगे कर
गाने बाज्ने के साथ महाराज ने प्रवेश किया ॥ २६ ॥
ततः प्रमुद्धिताः सर्वे दृष्टा त॑ नागरा द्विजम् |
प्रवेश्यमानं सत्कृत्य नरेन््द्रेणेन्द्ररमणा ॥ २७ ॥
प्रप्यश्थद का ध्रूमधाम से नगर में इन्द्र समान पराक्रमी -
महाराज दृश्य द्वारा आगत स्वागत हुआ देख, समस्त पुरवासी
हुत प्रखद्ष हुए ॥ २७॥
६्छ बालकायडे
अन्त[पुर॑ प्रवेश्येन॑ पूजां कृत्वा च शाख्रतः ।
कृतकृत्य॑ तदात्मानं मेने तस्येपवाहनात् ॥ २८ ॥|
अन्तःपुर में उनके ( ऋष्यशडु के ) ज्ञाने पर वहाँ भी शाद््र
विधि के अचुसार उनका पूजन किया गया ओर महाराज ने मुनि-
प्रचर के आगमन से अपने के कृतक्षत्य माना ॥ २८ ॥
अन्त!पुराणि सर्वांणि शान्तां दृष्ठा तथागतास् ।
: सह भर्रां विशालाक्षीं प्रीत्यानन्दय॒पागमन् ॥ २९ ॥
ऋषिप्रवर के साथ उनकी पत्नी बड़े बड़े नेत्र वाली शान्ता के
आयी देख, अन्तःपुरवासिनी सब रानियों ने बड़ा प्रानन्द
मनाया ॥ २९ ॥
पृज्यामाना च तामिः सा राज्ञा चैव विशेषतः ।
उवास तत्र सुखिता कचित्काल सह््तिजा ॥ ३०॥
इति एकाद्शः सगेः ॥
रानियों झोर विशेष कर महाराज दशरथ द्वारा पूजे जाकर
शान्ता, भ्पने पति ऋष्यशड्ः सहित रनवास में कुछ दिनों तक
छुल से रहे ॥ ३०॥ . ;
वाल्काणड का स्यारहर्वाँ सर्ग समाप्त हुआ |
++---+-
(६
हादशः से:
ज+ है ३ --
ततः काले बहुतिथे कस्मिश्रित्सुमनेहरे ।
वसन्ते समनुप्राप्ते राज्ञो यप्टुं मने5भवत् || १ ॥
इस प्रकार कुछ समय वीतने पर जब मनाहर चसन्त ऋतु
भ्रायो, तब मद्दाराज फी इच्छा यक्ष करने की हुईं ॥ १॥
तत। प्रसाध शिरसा त॑ विष देववर्णिनम ।
यन्ञाय वरयामास संतानाथ कुछस्य च ॥ २॥
मद्वाराज दशरथ ने शज्ञीऋषि के पास जा उनझहे प्रणाम
क्रिया प्रीर चंशवबूद्धि के लिये देने वाले पुत्रे्ि यक्ष में, देवतुल्य
ऋषि को यहा के लिये वरण किया ॥ २॥ '
तथेति च राजानम्ुदाच च सुसत्कृत। ।
संभाराः संप्रियन्तां ते तुरगश्च' विम्ुच्यताम ॥ ३े ॥
तब अआप्यग्टक ने दशण्थ से कहा कि, हम आपके यक्ष करावेंगे
थाय यक्ष फी सामग्री इकट्टी करवाइये ओर धेड़ा छड़वाइये ॥ ३ ॥
ततो राजात्रवीद्ाक्य॑ सुमन्त्रं मन्त्रिसत्मस |
सुमन्त्रावाहय क्षिप्रमृत्विनो ब्रह्मयवादिन! [| ४ ॥
यह छुन महाराज दशरथ ने मंत्रिप्रवर झुमनत से कहा कि, पेद-
5 करने वाले ऋत्विजों को तुरन्त वुज्नचाइये ॥ ४॥
सुयक्ष वामदेव॑ च जावालिमथ काश्यपम |
पुराहितं वसिष्ठं च ये चान्ये द्विजसत्तमा। ॥ ५ ॥
चा० साण०--७9
६ वालकायडे
छुयज्, वामदेव, जावालि, काश्यप, पुरादित चशिठ्ठ तथा ध्रन््य
प्राह्मणश्रेष्ठों को शीघ्र दुलवाइये ॥ ५ ॥
तत; सुमन्त्रस्त्वरितं गत्वा त्वर्तिचिक्रम। ।
समानयत्स तान्विष्रान्समस्तान्वेदपारगान् ॥ ६ ॥
फुर्तीले छुमंत्र तुरन्त गये और घेद्परग उन सत्र श्रेष्ठ ब्राह्मणों
को चुला लाये ॥ ६ ॥
तान्यूजयित्वा धर्मात्मा राजा दशरथस्तदा |
धर्माथसहितं युक्त छक्ष्णं चचनमत्रवीत् | ७ ॥।
तब धर्मात्मा म्रद्ाराज़ दशरथ ने उन सब की पूजा कर उनसे
धर्म और अर्थ से युक्ष मीठे वचन कहे ॥ ७ ॥
मम लालप्यमानस्य पुत्रा्े नासित वैं सुखम्। |“.
तदरथे हयमेषेन यक्ष्यामीति मतिर्मम ॥| ८ ॥
पुत्र के लिये बहुत दुशखी देने पर भी मुझे लन््तान का सुख
नहीं दै। तद्र्थ में चाइता हूँ कि, पु्प्राप्ति के लिये भ्थमेथ
यज्ञ करूँ ॥ ८ ॥
तद्हं यध्टुमिच्छामि शास्रदृष्टेन कर्मणा ।
ऋषिपुत्रपभावेण काम्रान्याप्स्यामि चाप्यहस ॥ ९ ॥|
यह यद्ञ, में शाद्द्र की विधि से करना चाहता हूँ। मुझे विश्वास
है कि, ऋष्य/शज की कृपा से मेरा मनेरथ पूर्ण होगा ॥ ६ ॥
तत; साध्विति तद्दाक्य ब्राह्मण! प्रत्यपूजयन् |
वसिष्ठप्मुखाः सर्वे पार्थिवस्य मुखाच्च्युतम् ॥ १०॥
हु
घादश। सर्गः ६5
._ यदे छुन कर चशिए भ्रपुख प्राह्मणों ने महाराज के मुखारधिन््द्
से निकलो हुई चाणी की धड़ी प्रशंसा की ॥ १० ॥
ऋष्यमह्पुरोगाथ पत्यूचुटपतिं तदा ।
संभार। संप्रियन्तां ते तुरगश्न विमुच्यताम ॥ ११॥
ऋष्य्दह आदि बराह्य दृशरव से कहते लगे कि। शाप पव
यप करने फे लिये सत्र साधान पक्त्र करवाइये ओर यह्ष फा घोड़ा
छाड़िये ॥ ११ ॥
सर्वथा प्राप्स्यसे पत्रांश्वतुरो४मितविक्रमान् |
यरय ते धामिकरां बुद्धिरेयं पत्राथमागता ॥ १२॥
जब श्पको डुद्धि पुत्र प्राप्ति के लिये ऐसी धर्ममयी दे रदी है,
तब निश्चय द्वी भ्रापक्रे भ्रमित पराक्रमी चार पुत्र उत्पन्न होंगे ॥ १२॥
ततः प्रीतोज्भवद्राजा श्रुत्वा तु द्विजभाषितम ।
अमालांध्ात्रवीद्राजा हर्पेंणेद शुभाक्षरम् ॥ १३ ॥
ब्राद्मर्णों की कही इन बातों को सुन, महाराज दशरथ बहुत
प्रसन् हुए और मंत्रियों के यह शुभ प्राज्ञा सर्प प्रदान की ॥ १३ ॥
संभारा; संप्रियन्तां मे गुरूणां वचनादिह |
समयाधिष्टितश्ाश्व! सेपाध्याये विमुच्यताम् ॥१४॥
, जैसी कि, इन गुरुवर्य से शआद्ा दी है, तदचुसार आप ले
यप्ष की सत्र तैयारियाँ करें और चार अआत्विज्ञों और चार सो रक्तकों
“री देक्षरेत्न में थोड़ा छोड़ा जाय ॥ १४ ॥
सरय्वाधोत्तरे तीरे यज्ञभूमिर्षिधीयतास् |
शान्तयश्रापि वर्तन्तां यथाकरप यथाविधि ॥१५॥
हद वालकायणडे
सस्यू के उत्तर तट पर यक्षशाला वनवाई जञाय' आर
विज्न प्रशमनार्थ शाआउमादित यथाक्रा शान्तिकर्म करवायें:
ज्ञाय ॥ १५४ ॥
शक्यः कर्तृमयं यज्ञ) सर्वेणापि महीक्षिता ।
नापराधे भवेत्कष्टी यद्रस्मिन्क्रतुसचमे ॥ १६ ॥
यह यज्ष कर ते सभी राजा सकते हैं, किन्तु इस उत्कृष्ट यज्ष
कार्य में किसी प्रकार का अपचार या किसी के कष्ट न दाना
चाहिये॥ १६ ॥
छिद्व॑ हि मृगयन्तेत्त्र विद्वांसि ब्रह्मराक्षसा) |
: विहृतश्य हि यहस्य सच; कर्ता विनश्यति ॥ १७ ।॥
' क्योंकि विद्वान ब्रह्मरात्तल यज्षकायों में छिद्गान्वेषण किया.
करते हैं और यज्ञ की विधि में प्रपचार दोले से यज्ञ करने बाला |
तुस्त नाश के प्राप्त द्वता है धर्थात् मर जाता है॥ १७॥ /
तथयथा विभिषूव मे ऋतुरेष समाप्यते ।
तथा विधान क्रियतां समर्था; करणेष्विह ॥ १८ ॥
थतः अपनी शक्ति भर ऐसा उपाय कीजिए जिससे यह यज्ञ
विधि पूर्चक-खुसम्पन्न हो ॥ १८॥
तथेति च तत; सर्वे मन्त्रिणः प्रत्पूजयन्
पार्यिवेन्द्रस्य तद्वाक्यं यथाज्ञप्तमकुबत || १९ ॥
महाराज के ये वचन छुन, मंत्रि लेग वहुत प्रसन्न हुए और
इनके आज़ाज़ुसार कार्य करने में प्रवृत्त हुए | १६ ॥
धयादशः सर्गः ६६
तते द्विजारते धर्मजगस्तुवन्पार्थिवरप मम ।
कि अप ९ छह
अनुज्ञातास्तत पर उनजेग्युमथागतम् ॥ २० |
तदनन्तर ये आहाग, धर्मात्मा सृपतिश्रेष्ठ दशरथ की प्रशंसा
कर आर विदा दे वहाँ से अपने अपने घरों के चन्ते गये ॥ २० ॥
गतेणथ द्विजाग्येप मन्त्रिणस्तान्नराधिप)
विसमंयितला सर वेश्म पिविनेश महाद्यति। | २१॥
शत द्ादण। सगे ॥
ऋ्राक्षणों के चलते जाने पर, महाद्रतिमान मद्याराज़ ने मंत्रियों
की विद्या किया और शाप भी श्रन्तःपुर में चल्ले गये ॥ २१ ॥
वालकायड का वारहयाँ सगे पूरा हुश्ना ।
+--४६---
श्रयोदशः सर्गः
पुनः प्राप्ते बसन्ते तु पूण; संवत्सरो5भवत् ।
प्रसवार्थ गते यप्ट हयमेघेन वीयेबान् ॥ १॥
एक चर्ष वाद पुनः चसन््तऋतु आने पर, पुत्रप्राप्ति के लिये
प्रतापी महाराज ने यश्ष करने की इच्छा की ॥ १॥
अभिवाद्र दसिष्ठ च न्यायतः पतिपूज्य च ।
अन्नवीत्मश्रितं वाक्य प्रसवार्थ द्विनात्तमम् | २॥
चशिछ जी के प्रणाम कर और उनका यथाविध्रि पूजन कर
पुत्रपाप्ति के लिये नम्नता पू्षफ उनसे महाराज दशरथ बाते ॥ २ ॥
१०० वालकायडे
यज्ञो मे प्रीयतां बहान्यथोक्त मुनिपुद्धव |
यथा न विध्न) क्रियते यज्ञाज्ेप विधीयताम || हे ॥7<
हे मुनिश्नेष्ठ | प्रसन्नतापूर्वक्ष और विधिपुर्वक यक्ष आरम्भ
कोजिये, जिससे यक्ष के किसी भी कम में विश्व न दा ॥ ३॥
भवान्स्निग्ध! सुहन्मन्व॑ गुरुअ परे महान ।
वेढव्यो भवता चेव भारों यज्वस्य चाद्यतः ॥ ४॥
प्योंकि आपका मेरे ऊपर अविच्छिन स्नेह है और आप मेरे
फेवल द्वितिषी ही नहीं प्रद्युत मेरे सत्र से पड़े शुरु भी हैं। इस
उपस्थित थक्ष का जे! बड़ा भारी वारू है, उसे आप सम्हालिये;
ध्र्धात् इस महान् यज्ञ का सारा भार आपके ही ऊपर है ॥ ४॥
तथेति च स राजानमत्रदीदृद्टिजसत्तमः ।
करिष्ये स्बवमेबैतद्भवता यत्समर्थितम् ॥ ५ ॥
यह छुन मुनिपुड़च चशिष्ठ जो ने दशरथ ज्ञी से कहा--आाए
जो निवेदन किया तदमुसार ही हम सब कार्य करेंगे ॥ ५॥
ततोज्व्रवीदृह्िजान्दद्धान्यज्ञकर्मंसु निष्टितान् ।
स्थापत्ये निप्ठितांश्ेव इृद्धान्परमधार्मिकान् ॥ ६॥
कर्मान्तिकाज्शिस्पकरान्वर्धकीन्खनकानपि |
गणकाड्शिल्पिनश्रैव तैद नटनतंकान् ॥ ७॥
तथा शुचीज्शाख्रविद! प्रुषान्तुवहुभुतान् |
यज्ञकर्म समीहन्तां भवन्तो राजशासनात् ॥ ८॥
* तहुपरान्त वशिष्ठ ज्ञो ने चुद्ध और यहकार्थ में कुशल ब्राह्मणों
का, परम धार्मिक और चृद्ध स्थापत्य विद्या ( सवन-निर्माण-ऋल्ला )
अयादशः सर्मः १०१
, में कुशल कारीयरों के, शिवियियों को, अथवा लेखकों के, नटों और
जानने बालियों के, वहुत जानने वाले औ्रेर सच्चे ( ईमानदार )
, शाखयत्ता आहागों के इला कर क॒टद्दा कि, ग्राप लोगों के लिये
महाराज की आता है कि, यक्षकाय में मनेयेग पूर्वक झयाप लग
जाँय॥ ६ ॥७॥ ८॥
इ8का वहसाइलाः शीघ्रमानीयतामिति ।
ऑपकाया; क्रियन्तां च राज्ञां वहुगुणानिता। ॥९॥
बहुत ली ईंट शीघ्र एफ कर, प्राने घाले महमान राजाओं के
ठहरने के लिये तथा प्रन्य, सम्प्रान्त लेगों के ठहरने फे लिये सब
तरह के छ्ुपास के ( आराम के ) घलग घ्त्नम घर बना कर
तंथार करे ॥ ६ ॥
ब्राह्मणावसथारचत्र कतव्या; शतशई शुभा;
भश््यान्नपनिव हुमि ; समुपेताः सुनिष्ठिताः ॥ १० ॥
इसी प्रकार सैकड़ों सुन्दर मकान श्च्छी अच्छी जगहों पर
' ब्राह्मणों के ठहरने के लिये वनाग जिनमें भाज्ननादि की खब शव"
श्यक साम्रग्रो रहें ॥ १० ॥
तथा पारणनस्यापि कतव्या बहुविस्तरा।
आवासा वहुभक्ष्या वें सबकामेसुपस्थिता: ॥ ११॥
नगर निवासियों के टहरने के लिये भी बड़े बड़े लंबे जड़े
'भकान बनाये जायें, .झिनमें भोजन प्रौर सव प्रकार की सामग्री,
लाकर ययास्थान सजा दी ज्ञाय ॥ ११॥
तथा जानपदस्यापि जनस्थ वहुशेभनम् |
दातव्यमन्न विधिवत्सत्कृूल न तु लीलया ॥ ११॥
१०२ वालकायडे
देहातियों के लिये भी सब खुविधाओं के मकान बनें । एक
वात का ध्यान रखना कि, जिसके अ्रन्नादि भाजन सामश्री दी,
ज्ञाय, उसे सत्कार पूर्वक दो ज्ञाय, देते समय किसी का भी अनादर
न किया जाय ॥ १२ ॥
सर्वे वर्णा यथा पूजां प्राप्लुवन्ति सुसत्कृताः ।
न चावज्ञा प्रयेक्तव्या कामक्रोधवशादपि | ११ ॥
ऐसा प्रबन्ध ही कि, किसो दर्ण का भी मनुष्य, जे। यक्ष में आावे,
उसके वर्ण के अनुरूप उसका यथेबित सत्कार किया जाय | लाभ
अथवा फरोच फे वशवर्ती दे, खबरदार ! किसी का भी अनाद्र
मे किया ज्ञाय ॥ १६ ॥.
यज्ञकर्मसु ये व्यग्रा; पुरुषा! शिल्पिनस्तथो |
तेषामपि विशेषेण पूजा कार्या यथाक्रमम् ॥ १४ ॥
यज्ञशाला के काम में जे कारोगर काम करें उनकी भी विशेष
रूप से यथाक्रम ख़ातिरदारों की जाय ॥ १७ ॥
ते च स्थुः संभुताः सर्वे बस॒ुभिभेजनेन च् ।
यथा सब सुविहितं न किंचित्परिहीयते ॥ १५॥
तथा भवन्तः झुवेन्तु प्रीतिस्निंग्येन चेतसा ।
तत; सर्वे समागम्य वसिष्ठमिदमत्रुवन् ॥ १६ ॥
सेवाकार्य में निरत नोकरों के उनकी मज़दूरी और सेज्न
दिया जाय, जिससे वे मन लगा कर अपना श्पना काम करें और
ध्यपना काम न छोड़ बैठे | आप सब केग मन लगा कर प्रीति पूर्वक हे
उनके सोथ चर्ते' जिससे सब काम ठीक ठीक हों । यह खुन वे सब
.. चशिष्ठ जी के समीप जा उनसे बात्ले ॥ १४ ॥ १६ ॥
हि.
श्रयोदशः सर्गेः १०३
यथोक्त॑ तत्सुविद्दितं न किचित्परिहीयते ।
ततः सुमन्त्रमाहूय वसिष्ठो वाक््यमत्रवीत् ॥ १७॥
प्रापने अंसी धाज्ञा दी है, तदघुसार ही दम सब करेंगे, किसी
काम में घुटि न रदने पाषेगी । तव चशिष्ठ जी ने खुमंत्र को बुलचाया
और उतसे याले ॥ १७ ॥
निमस्त्रयख नृपतीन्पृथिव्यां ये च पार्मिका) ।
व्राह्मणान्क्षत्रियान्वेश्याज्यद्रांशबेव सइख्शः ।। १८ ॥
समानयस्त्र सल्कृत्य सर्वदेशेपु पानवान् |
मिथिलाधिपति झूरं जनक॑ सत्यविक्रमम् | १९ ॥
निष्ठितं सबंशास्त्रेप् तथा वेदेषु निप्ठितस् ।
तमानय महाभाग खयमगेव सुसत्कृतम्॥ २० ॥
इस पृथिवीमग़हल पर जे। धामिक राजा हैं, उनके पास
निमंत्रण भेज दो । सत्र देशों के बहुत से प्राह्मणों, क्ष्रियों, चैश्यों
और शूद्रों के भी सादर बुलवाओ । सत्यपराक्रमी, शुरशिरोमणि,
बेद् और सब शास्रों में निषणात, मद्राभाग मियलाधिपति के ख्य॑
ज्ञाकर ध्यादर सहित लिया लाग्रे ॥ १८५॥ १६ ॥ २०)
पूर्व संवन्धिर्न ज्ञाल्ला ततः पूर्व त्रवीमि ते।
तथा काशीपतिं स्निग्धं सतत॑ प्रियवादिनम् ॥ २१ ॥
सद्॒चं देवसंकाशं स्वयमेवानयख ह |
तथा केकयराजानं हझं परमधार्मिकम् ॥ २२ ॥
१०७४ वालकाणडे
श्व॒शुरं राजसिहस्य सपुत्र लमिहानय ।
अज्ेश्वर॑ महाभागं रोमपाद सुसत्कृतम् | २३ ॥ 75
वयस्य॑ राजसिंहरय समानय यशखििनय्।
प्राचीनान्सिन्धुसौवीरान्सौराष्ट् यांश्च पार्यिवान् ॥२७॥
दाक्षिणाह्यानरेन्द्रांशश समस्तानानयख ह |
सन्ति स्निग्घाश्व ये चान्ये राजान! पूथिबीवल्ले ॥२५॥
तानानय तत; क्षिप्रं सातुगान्सहवान्थवान् |
वसिष्ठवाक्य तच्छु, ता सुमन्त्रस्तरितस्तदा ॥ २६ ॥
उनके इस घराने का पुराना व्योहारी ज्ञान उन्हें सव से पहले
घुलाने के लिये हम तुमसे कहते हैं । सदैव प्रिय बालमे वाले, सदा-
चारी, देवतुल्य काशीनरेश के भी सककारपूर्वक लिवा ज्ञाओ।
इसी प्रकार बुद्ध और परम धामिक केक्यराज़्, जे! महाराज के
ससुर हैं, पुत्र सहित यहाँ लिया लाग्रे।। ध्ड्भदेशाधिपति यशस्वी
महाभाग रोमपाद का, जे! महाराज के प्रिन्न हैं, सत्कार पूर्वक लिया
लाओ । इनके प्रतिरिक्त पूर्व देश के; सिन्धु देश के; सोबीर
के, दक्तिण देश के राजाओं तथा पृथ्वीमगडल के प्रन्य पच्छे
राजाओं के, भाई वंघु नोकर चाकर सहित दूत भेज- कर
' शीघ्र बुलचाले। | तव वशिष्ठ ही के इस कथन के सुन सुमंत्न ने
ठुझ्त ॥ २१॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५॥ २६ ॥
व्यादिशत्पुरुषांस्तत्र राज्ञामानयने शुभान् |
स्वयमेव हि. धर्मात्मा प्रययो मुनिशासनात् ॥ २७।॥|
देश देश के राजाशों के बुलाने के लिये दूत भेजे और स्वयं भी
चशिष्ठ जी की थाज्ञा के अजुसार राजाओं के लाने के लिये
हुए ॥२ज। के लिये रवाना
तन
घयेादणशः सर्गः १०५
सुमन्त्रसत्वरितों भूल्वा समानेतुं पहीक्षितः ।
ते च कर्मान्तिका; सर्वे वसिष्ठाय चे पीमते || २८ ॥
छुमंत्र वशिष्ठ जी के वतलाये विशिष्ट राज्ञाओं के बुलाने के
लिये शीघ्रता से रवाना दी गये | यप्ष कार्य में लगे हुए मनुष्य बुद्धि
मान् मद्दपि चशिष्ठ जी से ॥ र८॥
सर्व निवेदयन्ति सम यज्ञे यदुपकल्पितस् ।
ततः पीता द्विजश्रेष्टस्तान्सवानिदमत्रवीत् ॥ २९ ॥
जो कुछ यप्त सम्बन्धी काम करते घद सब कह दिया करते थे ।
तब प्रसन्न हा चनिष्ठ जी उन स्व से कहते ॥ २६॥
अवज्या न दातव्य कस्पचिरलीलयापि वा ।
अवज्या कृत हन्यादातार नात्र संशय! || ३२० ॥
देखना, किसी के हँसी दिल्लगी में भी कोई चरतु ध्यनादर करके
मत देना ; क्योंकि ध्नाद्र करके देने वाले दाता का निश्चय ही
नाश होता है ॥ ४० ॥ |
ततः केश्चिदहे रात्ररुपयाता मदीक्षितः ।
वहूनि रक्नान्यादाय राज्ञों दशरथस्य हि॥ ३१ ॥
इसके कुछ ही दिनों वाद प्मनेक प्रकार के रत्नों की मेंटे क्षेत्ते
कर राजा लोग महाराज दशरथ ही यश्षशालरा में था पहुँचे ॥ ३१॥
ततो वसिष्ठः सुप्रीतो राजानमिदमत्रवीतू ।
जउपयाता नरबव्याप्र राजनानस्तव शासनात् ॥ ३२॥
तब चशिए जी राजाप्ों को श्राये हुए देख, प्रखन्न ही, महाराज
दशरथ से वाले--आपके अआदेशाजुसार सब राजा क्षेाग ध्या
गये ॥ ३२ ॥
१०ई वालकायणडे
मया च सत्कृता: सर्वे यथाई राजसत्तमाः |
यज्ञियं च कृत राजन्पुरुपेः सुसमादितिः ॥ २३ ॥
है महाराज ! मैंने भी उनका ययेतचित सत्कार फर दिया और
यक्ष की भी सत्र तैयारी दो चुकी ॥ २३ ॥
नियांतु च भवान्यप्ुं यज्ञायतनमन्तिकात् ।
0 छह ३ ० थे,
स्वका्मरपहुतेरुपेत॑ वे समन्तत। || ३४ ॥|
द्रष्टुमईसि राजेन्द्र मनसेव विनिर्मितम् ।
तथा वसिष्ठवचनाहश्यश्ृद्धरय चोभये।) ॥ ३१५ ॥
अव आप भी यक्ष करने के लिये यज्ञशाला में पधास्यि और
यक्ष की सद सामग्री के देखिये कि, सेवकों ने कैसी उत्तमता और
सावधानता से सव सामान सजा कर रखा है। तव वशिष्ठ जी
और ऋष्यश्टह दोनों के कहने से ॥ ३४॥ ३४ ॥
शुभे दिवसनक्षत्रे नियोते जगतीपति) ।
तते| वसिष्ठप्मुखा) सब एवं द्विमात्तमा। ॥ ३६ ॥
ऋष्यशूड प्रस्कृत्य यज्ञकर्मारम॑स्तदा ।
यज्ञवाववता। सर्वे यथाश्ाद्नं यथाविधि |
श्रीमांध सहपत्बीभी राजा दीक्षा॒पाविशत्् ॥२७ ॥
इति घयेदशः सगगः ॥
घुभ दिन और नत्तत्र में महाराज दशरथ यज्ञशा्रा में गये ।
तंत्र वशिष्ठ प्रछुख सब ब्राह्मणों ने ऋष्यश्टदु के अपना नेता बना
चतुद॒शः सर्मः १०७
यप्षशाला में यप्षक्रार्य यधाविधि आरम्त क्रिया और महाराज ने
« रानियों सहित यद्तदीत्ता जी ॥ ३२६ ॥ ३२७ ॥
है वाल्काण्ड का तेरदवाँ सर्ग परा हा ।
+--+
(७
चतुरदशः समेः
>> १60०-००
अथ संवत्सरें पूर्ण तस्मिन्माप्ते तुरज्मे ।
सरस्वाधोचरे तौरे राज्ो यज्ञोज्म्यवर्तत ॥ १॥
पक वर्ष वाद जब यक्ष का घेड़ा चारों श्र घूमकर सा गया,
तव महाराज दशस्थ का अख्मेधयश सरयू के उत्तरतद पर
हैने लगा॥ १॥
ऋष्यमृड् परस्कृल फर्म चक्रर्दिनपभा! ।
' अब्वमेपे महायज्ञे राज्ो्स्य सुमहात्मन। ॥ २॥
आप्यश्टड् प्रमुख ब्राह्मणश्रेटों ने महाराज दशरथ से पश्यमेध-
यक्ष करवाया ॥ २॥
कर्म कुबन्ति विधिवद्याजका वेदपारगाः |
यथाविधि यथान्याय॑ परिक्रामन्ति शास्त्रतः ॥ ३ ॥
बैद जानने वाले तथा यक्ष कराने चाक्ते प्राह्मण, ( ऋत्विज्ञ )
कव्पसत्रों में कथित यज्ञ को विधि के शअख्ुसार सव कार्य कर-
'“-धाते थे ॥ ३ ॥
प्रवा्य शास्ततः कृत्वा तमवेपसद॑ द्विजा। ।
चक्रुथ विधिवत्सवेमधिक कर्म शास्त्रतः ॥ ४ ॥
श्०८ वालकायडे
'अभिपूज्य तते हष्टा; सर्वे चक्रुय॑थाविधि ।
प्रात।सवनपूर्वाणि कमाणि झुनिपुद्धता। ॥ ५ ॥
प्रवर्ग और उपसद (यक्लीयक्रम विशेष) दानों कर्म शाआछुसार
विधिवत् करके, वड़ी प्रसन्नता के साथ तत् ततु कर्मों में पूज्य देव-
ताश्रों की पूजा ब्राह्मणों ने की और दूसरे दिन थे्ठ मुनियों ने
प्रात+ सबन ( यक्षीय विधि विशेष ) कर के; ॥ ४ ॥ ५ ॥
ऐन्द्रथ विधिवद्त्तो राजा चामिष्टुताउनघः ।
माध्यंदिनं च सबन॑ प्रावतंत यथाक्रमस् [| ६ ||
विधि पूर्वक इन्द्र का भाग दे और पाप दूर करने वाल्ली
सेमल्वता का रस निकाल, मध्यान्ह पतन किया गया ॥ 4 ॥
ततीयसवरन चेव राज्ञोज्स्थ सुमहात्मनः ।
चक्रस्ते शास्त्रते दृष्टा तथा ब्राह्मणपुड्वा। ॥ ७ ॥
फिर महाराज पोर ब्राह्मणों ने शाख्ानुलार यथाविधि तीसरा
सायंसवन किया ॥ ७ ॥
न चाहुतमभूत्तत्र रखलित॑ वापि किचन ।
दृश्यते ब्रह्मवत्सबे क्षेमयुक्त हि चक्रिरे | ८ ॥
इस यक्ञ में किसी प्रकार की त्रढि तहीं होने पायी। पूर्ण
ज्ञानी यज्ञ करवाने वालों को उपस्थिति के काण्ण, कई आहुति
भूल से अथवा निष्प्रयाज्न नहीं दी गयी, जे। कुछ कर्म किया गया
वह कल्याणकारक ही किया गया ॥ ८ |]
न तेष्वहछु श्रान्तों वा क्षुधितों वाष्पि दृश्यते ।.
नाविद्ान्त्राह्मणस्तत्र भनाशतानुचरस्तथा ॥ ९ ||
चुद शः. सर्मः १०६
यक्षकाल में कोई भी ब्राह्मण भूखा प्यासा नहीं रद्दा। न ते!
*चहाँ कोई ऐसा ही ब्राह्मण देख पड़ता जे। मूर्ख दे और न वहां केई
“ थेसा ही आाह्मण था ज्ञिसके पास सैकड़ों शिष्य न थे ॥ ६ ॥
व्राह्मणा भुल्लते नित्य नाथवन्तश्व सुझ्जते |
. तापसा झुझ्जते चापि श्रमणा झुल्ते तथा ॥ १० ॥
यही नहीं कि वहाँ केवल ब्राह्मणों ही को भोजन दिया ज्ञाता
था, प्रत्युत शूद्र नौकर चाकरों के भी भोजन मिलता था । इनके
ध्तिरिक्त तपस्त्रो, संस्यासी भी भोजन पाते थे ॥ १० ॥
दृद्धाथ व्याधिताश्रेव स्त्रियो वालास्तयेव च [|
अनिशं भ्ुज्ञमानानां न तृप्तिस्पलभ्यते ॥ ११ ॥
बूढ़े, रोगो, ल्लियां ओर वालक वारंवार भोजन करते थे ते भी
भेाजन कराने वाले भधाते न थे ॥ ११॥
दीयतां दीयतामन्न वांसांसि विषिधानि वे ।
इति संचादितास्तत्र तथा चक्ररनेकशः ॥ १२ ॥
मद्दाराज़ की भाज्ञा से भण्डारी लेग भ्रन्न श्रोर चआादि फा
दान बड़ी उदारता से जी खोल कर करते थे ॥ ११॥
अन्नक्ृटश्॒ वहवे! दृश्यन्ते पवंतोपमा ।
दिवसे दिवसे तत्र सिद्धस्थ विधिवत्तदा ॥ १३ ॥
: कच्चे पक्के भन्न के ढेर पदाड़ों जैसे ऊँचे लगे रहते थे जे
जैसा माँगता उसे नित्य बैसा ही भोजन दिया ज्ञाता था ॥ १३॥
नानादेशादलुप्राप्ताः पुरुष! स्त्रीगणारतथों न.
अन्नपाने! सुविहितास्तस्मित्यज्ञे महात्मनः ॥ १४ ॥
११० चालकाएंडे._
झनेक देशों से आये हुए स्री पुरुषों के कुण्ड के झुणड नित्य
भोजन से तृप्त दते थे ॥ १४ ॥ ,
ल् ५ द्विजपभा
अन्न हि विधिवत्खादु प्रशंसन्ति हर ।
अह्े! तृप्ता। सम भद्वं त इति श॒ुभ्राव राघव) ॥१५॥
स्वादिष्ट सोजनों से तृप्त हुए ब्राक्षणों के आशीर्चाद् छूचक शब्द
महाराज को चारों श्रोर से खुन पड़ते थे ॥ १४ ॥
सखलंकृताश पुरुषा ब्राह्मणान्पयवेषयन् |
उपासते च तानन्ये सुमृष्टमणिकुण्डला! ॥ १६ ॥
बच्चों और गहनों से सजे हुए झनन््य राज्ञाश्ों के नौफर चाकर
आ्रह्मणों की सब प्रकार सेवा करते श,र उन 'तेगों की परिचर्या
फे लिये मणिजद्त कुएडल्लधारी अन्य लोग थे ॥ १६ ॥
कर्मानतरे तदा विभा हेतुवादान्बहूनपि ।
प्राहु स्प्र वाग्मिना धौराः परस्पर जिगीपया ॥ १७ |
एक सबन समाप्त होने पर ओर दूसरा सवन धारम्स होने के
वीच जे। समय बचता उससें एक दूसरे के पारिडत्य में हरा देने की .
इच्छा से विद्वान ब्राह्मण परस्पर शास्यार्थ करते थे ॥ १७॥
दिवसेद्वसे तत्र संस्तरे कुशला द्विजा! । ,
सर्वेकर्माणि चक्रुस्ते यथाशास्त्र प्रचादिता! ॥ १८.॥
उस यज्ञ में कुशल आ्रह्मण शाखानुकूल नित्य प्रति यश्ञकर्म
करते फराते थे | १८॥
नापदक्षविदत्रासीज्नानतो नावहुअुतः ।.
बे ध्छ
सदस्यास्तस्य वे ग़ज्ञो नावादकुशछा ट्विजाः ॥ १९॥
चतुदंशः सर्गः १११
इस यक्ष में एसा ब्राह्मण न था जे घेद ओर पेदाहुवित् न दो,
योर मद्ाराज़ का कोई ऐसा सदस्य ने था, जे! ध्तधारी नही,
' अथवा वहुश्रत न ही भथवा वेज्नचाल में कुशल न हो | १६ ॥
प्राप्त यृपोच्छुये तस्मिन्पद वेल्वा! खादिरास्तथा ।
ताबन्तो विस्वसहिता; पणिनश्र तथाओ्परे || २० ॥
श्लेप्पातकमयस्लेंके देवदारुपयस्तथा |
दावेव विहिता तत्र वाहव्यस्तपरिग्रहों ॥ २१ ॥
उस यज्ञ में लकड़ी के शंकूवार भर मारे इक्कीस खंभे गाड़े
गये थे | इनमें से ६ बेल फे, ६ खेर के, ६ ढाक के, १ लिसेड़े
का झोर २ देवदारु फे थे ॥ २० ॥ २१॥
कारिता: सब एवंते शास्त्रजयन्ञकाविदे! ।
हम ९
गाभाथ तस्य यद्वस्य काखनाल्झू ताउपवन् ॥२२॥
यक्षकर्म में चतुर शास्तरियों ने यक्षशाजा फी शोभा बढ़ाने के
लिये इन खंभों का सेने के पन्नों से मढ़चा दिया था ॥ २२ ॥
एकचिंशतियूपास्ते एकर्विशत्यरतय; ।
वासेभिरेकविंशद्धिरेकेकं समरलंकृता। ॥ २३ ॥
इक्तोखों ख॑ंगे इकोल इक्कोस अरति# ऊँचे थे प्लोर सब
कपड़े से सज्ञाये गये थे ॥ २३ ॥
विन्यस्ता विधिवत्सवें शिल्पिभिः स॒क्ृता दृढा। ।
अप्लाश्रय। सव एवं छक्ष्णर्पसमन्विता। | २४ ॥
» अरबि---मुद्ठी ; यानो द्वाथ की बंधी हुईं मुठ्ठी ।
बा० णख००-८
११२ वालकाणड
यथाविधि शिल्पियों ने वना, इनके वड़ी मज़बूती से प्रथिवी
में गाड़ा था, जिससे दिल्ले नहीं, ओर ये खंभे बड़े चिकने और
अठपहलू वनाये गये थे ॥ २४ ॥
आच्छादितास्ते वासेमिः प्ष्पेंगन्यैश्व भूषिताः
सप्तपये दीप्विमन्तो विराजन्ते यथा दिवि ॥ २५॥
इन खंभों पर वस्त्र लपेरे गये थे ओर ये पुष्प ओर चन्दन से
सज्ाये गये थे। उस समय इनकी शोभा आकाश-मसयडल में
सप्तषियों की तरह देख पड़ती थो ॥ २४ ॥
इष्ठकाथ यथान्यायं कारिताश्र प्रमाणतः |
चितों मेब्राह्मणैस्तत्र कुशले ९
उम्रिब्राह्मणे सतत ; शुर्यकमंणि || २६ ॥
स चित्मो राजसिंहस्य संचितः कुशलेद्विजे! ।
गरुडो रुक््मपक्षों वे त्रिगुणोज्ट्टादशात्मक: ॥ २७ ॥
जितनो बड़ी और जितनी अपेतज्तित थीं उतनो इस तेयार होने
पर शिल्पनिपुण त्राक्षणों ने उन इंटों से अग्विकुएड वनाया | राजसिंद
महाराज द्शरथ के यक्ष में चतुर ब्राह्मणों ने खुपर्ण की ईस से
पंख बना अठारह प्रस्तार का एक गरुड़ बचाया ॥ २६ ॥ २७ ॥
नियुक्तास्तत्र पशवंस्तत्तदुहिस्य देवतम् ।
उरगाः पक्षिणश्रेव यथाशास्त्र प्रचादिता) || २८ ॥
जैसो शास््रों में विधि वतत्लायी गयो है, तदसुसार जिस देद
के लिये जे पशु चाहिये वह बाँधचा गया। यथाविध्रि सर्य औः
पत्ती भो यशशात्रा में लाये गये ॥ २८ ॥
चतुदंशः सर्गः ११६
शामित्रे तु हयस्तन्न तथा जलचराश्र ये |
ऋत्विग्मि! सवमेबतल्नियुक्तं शास्त्रतस्तदा ॥ २९॥
घात्विओों ने पाड़े श्रेर जज़चर जन्तु कच्छप श्रादि शाखरीति
से यधारवान दाँध्रे ॥ २६ ॥
पश्ुनां त्रिशत तत्र युपेपु नियत तथा |
अद्वरक्ोत्तम तस्य राजा दशरथस्प च ॥ ३० ||
उन खंभों में तीन सो पश्च आर प्रत्येक्न दिशा में घूम कर ध्राया
हुआ मद्ाराज का ग्रति उत्तम घाड़ा वाँधा गया ॥ ३० ॥
कैसल्या त॑ हय॑ तत्र परिचय समन्ततः ।
क्रपाणबविशशासन त्रिभिः परमया भुदा ॥ ३१ ॥
फोशल्या जी ने उस बोड़े की अच्छी तरह पूंजा की भार प्रसन्न
है, तीन तलवारों से उम्त घेड़े के दुकड़े किये ॥ ३१ ॥
पतत्रिणा तदा साथ स॒स्थितेन च चेतसा |
अवसद्रजनीमेकां कासल्या प्रमंकाम्थयया )| ३२ ॥
फिर धर्मसिद्धि की क्रामना से कोशल्या जी उस ( खत ) अश्व
की रक्ता करने के एक रात, शवस्पर्श की घणा रहित मन से
उसके पास रहीं ॥ ३२ ॥
हाताउध्वयुस्तथाद्गाता हयेन समयेजयन् |
पहिष्या परिहृत्या च बाबातां च तथा पराम् ॥ ३३ ॥
११७ वालकायडे
फिर दोता, प्रष्वर्य और उद्गाताप्नों ने फोशल्या जी के,
परिबरूति# का तथा चायाता के पशश्व के साथ नियेजित
किया ॥ ३३ ॥
पतत्रिणस्तस्य वपामुद्धुत्य नियतेन्द्रिय; ।
ऋत्विकपरमसंपन्न; अपयामास शास््तत) ॥ ३२४ ॥
जितेन्द्रिय ऋत्िजों ने उस घाड़े की चर्ची के यथाविधि अप्ि
पर चढ़ा उसे पकाया ॥ ३७ ॥
धूमगन्धं वपायास्तु जिप्नति सम नराधिपः |
० हि निर्ण
यथाकालं यथान्यायं निणदन्पापमात्मनः ॥ २५ |
मद्दाराज़ दशरथ होमकाल में चर्वो के पकाने पर निकली हुई
गन्धि फे! शासत्र की विधि के ध्अमसार संघ संघ फर, अपने पापों
का नष्ट करने लगे ॥ ३४५ ॥
हयस्य यानि चाड्भानि तानि सर्वाणि ब्राह्मणा। ।
अग्नो प्रास्यन्ति विधिवत्समन्त्राः पोडशर्त्विज! ॥३६॥
सालह ऋत्विज़ उस घोड़े के अंग काठ काठ कर विधिवत् प्मप्नि
में हवन करने त्वगे ॥ २६ ॥
पक्षशखासु यज्ञानामन्थेषां क्रियते हवि। ।
अश्वमेधस्य चेकरुय वेतसे। भाग इष्यते || ३७ ॥
# राजा की झूद्रा स्त्री; परिवृति वैज्य। १ैराजा कौ वैश्या री
वावाता कहलाती है ।
चतुदंशः सर्गः ११४६
ध्रन््य यज्ञों में' पाकर को लकड़ो से दि की भ्राहुति दी
*ज्ातो हैं, किन्तु घकेले पअभ्यभेध दी में यह काम वेत से लिया
: ज्ञाता है॥ २७ ॥
अयहोष्शवमेथ; संख्यातः कर्पमृत्रेण त्राह्मणें! ।
चतुशेममहस्तस्य प्रथमं परिकल्पितम् ॥ रे८ ॥
उक्थ्य॑ द्वितीय संख्यातमतिरात्र तथात्तरम्।
कारितास्तत्र वहबे। विहिताः शास्त्रद्शनात् ॥ ३९॥
कल्पदूत्र श्रोर ब्राह्मण भाग ने, प्यश्वमेध यक्ष में तीन दिन सवन-
क्रिया फरने फे वतलाये हैं। उनमें प्रथम दिन श्रम्िष्टोम दिन है, दूसरा
उकथ, तोसरा ध्रतिराभि--से ये भी शाख्-विधि के अनुसार तथा
प्रग्य वहत से विधान फिये गये ॥ ३८ ॥ २६॥
ज्योतिष्टीमायुपी चेवमतिरात्रों च निर्मिता ।
अभिनिद्विश्वमिचबमप्तोयामे महाक्रतु। ॥ ४० ॥
ज्योतिशेम, प्रायुश्रेम, प्रतिरात्रि भग्रभिज्ितू, विश्वज्ित्,
ध्राप्तोर्याम महायक्ष किये गये ॥ ४० ॥
प्राची होते ददों राजा दिश्वैं खकुलवधनः ।
अध्वयतरे प्रतीची तु त्रह्मणे दक्षिणां दिशम् ॥ ४१ ॥
उदगात्रे च तथोदीचीं दक्षिणेपा विनिर्मिता ।
अश्वमेधे महायज्ञे खय॑भूविहिते पुरा ॥ ४२ ॥
क्रतूं समाप्य तु तदा न्यायतः पृरुषपभः ।
ऋत्विग्भ्यो हि ददा राजा धरां तां कुलवर्धन! ॥७ ३॥
११६ चालकायडे
स्वकुल-दृद्धि-कारक महाराज दशप्थ ने इसः मद्ायज्ञ को यथा-
विधि समाप्ति पर पूर्व दिशा का राज्य द्वाता का, पश्चिम का,
घध्वय्य॑ के, वृक्तिण दिशा का ब्रह्मा के और उत्तर दिशा
का डदुगाता के यक्ष की दत्षिया में दियां। खायंभुवमन् ने जिस
प्रकार अपने महायक्ष में, पूर्वकाल में, दक्षिणा दो थी, उसी प्रकार
द्शस्थजी ने दी । तब यज्ञ का शासत्रानसार विधिवत् समाप्त
कर, पुरुषश्रेष्त महाराज ने ऋत्विज्ञों के प्रूयियोदान कर
दी ॥ ४१॥ ४२ ॥ ४३ ॥
ऋत्विजस्ल्वब्रुवन्सर्वें राजानं गतकल्मपम् |
कप 6९० पेका (९
भवानेद महीं कृत्स्नामेके रक्षितुमहेति || ४४ ॥
न भ्ूम्या कार्यमस्मार्क न हि शक्ता। सम पालने ।
रता; स्वाध्यायकरणे वय॑ नित्य हि भूमिप ॥ ४५ ॥
निष्क्रय॑ किचिदेवेह प्रयच्छतु भवानिति ।
मणिरत्नं सुद्ण वा गावे। यहा समुग्यतम् ॥ ४६॥
तत्मयच्छ नरश्रेष्ठ घरण्या न प्रयाजनस् ।'
एवयुक्तो नरपतिब्राह्मणैर्वेदपारगें! ॥॥ ४७ ॥
जब दशरथ ने अपने राज्य की सारो भूमि यज्ञ कराने वाले
ब्राह्मणों को दे दी, तव सब ब्राह्मण निष्पाप महाराज दशरथ से बोले
कि, दे नरनाथ | इस भूमि की रक्षा तो आप ही कर सकते हैं । न ते
हमें भूमि की आवश्यकता है और न हम इसका पालन ही करने,
में समर्थ हैं। क्योंकि हम ल्लाग बेदपाठ में लगे रहते हैं अर्थात् हमें
जरर्मीदारी या राज्य के संकठों में पड़ने की फुरसत कहाँ है।
आतएंव आप ते हमें इस भूमिदान के बदले मणि, रक्त, खुबर्ण,
चमुदंशः सगः ११७
गाए-जे ध्ाप देंता चाँद, दें दे । हम भूमि ले कर फ्चा करे?
दुपारण प्राह्म्णों के थे वचन छुन ॥४४॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ७७ ॥
गयां शतसदस्राणि दक्ष तेश्यो ददों दृप३ |
देशकाटी। सुवणस्य रजतस्य चतुगुंणम् ॥ ४८ ॥
मद्दाराज़् ने पक लाव गोएँ, दस करोड़ सेने की मेहरें,
चालीस कोइ चाँदों के रपये सब ऋत्विजों के दिये ॥ ४५ ॥
ऋत्टिजस्तु ततः सर्वे प्रददु। सहिता बसु ।
ऋषश्यसड्धाय मुनये वसिष्ठाय व धीमते ॥ ४९ ॥
उन खब ने दत्तिया में मिलो टुईये सब चीजे वावने के लिये
चणिएठ जो व ऋथशक्ष जो के सामने रख दो ॥ ४६ ॥
ततस्ते न््यायतः क्ृत्वा प्रतिभागं हिजात्तमा। ।
हक सर्चे पक
सुप्रीतमनसः सर्च प्रत्यूचुमुद्रिता भशम्॥ ५० ॥
उन््दीने न्यायानुसार दिससा कर, सब के वह घन वाँद दिया।
थे अपना श्पना हिरुसा वाद पा कर आर प्रसन्न हो बेले, हम वहुत
प्रसन्न हैं ॥ ५० ॥
| रिरण्यँ
तत; प्रसपक्ेभ्यस्तु हिरण्य॑ सुसमाहितः |
जाम्बूनदं काविशितं ब्राह्मणेभ्ये। ददो तदा ॥ ५१॥
फिर महाराज्ञ ने उन ले।गों की ज्ञे। यक्ष देचने ध्यावे थे मेहहरें
वॉर्टी और जामस्थूनद् के सेने की कई करोड़ मेहर भनन्य ब्राह्मणों
“ के दीं ॥ ५१ ॥
दरिद्राय द्विनायाथ हस्ताभरणमुत्तमस् ।
कर्स्मसिद्राचमानाय दरों राघवनन्दनः ॥ ५२ ॥
श्श्८ वालकाणडे
तद्नन्तर मद्ाराज दशरथ ने एक दरिद्ध भिन्लुक को, उससे
मांगने पर, प्मपने हाथ का गहना उतार कर दे दिया ॥ ४२ ॥
तत; प्रीतेषु उृपतिर्ददिनेपु द्विजवत्सल) |
प्रणाममकरोत्तेपां हपपर्याकुलेक्षण: ॥ ५३ ॥
ब्राह्मणों के प्रसन्न देख, महाराज ने श्रतीव प्रप्तन्न चित्त से
उनके प्रणाम किया ॥ ४३ ॥
तस्याशिषो5्थ विविधा ब्राह्मणेः समुदीरिताः ।
उदारस्य नृवीरस्य धरण्यां प्रणतस्य च || ५४ ॥
इस पर उदार, वोस्वर और प्ृथित्रों पर पसर ऋर प्रणाम
करते हुए महाराज के, ब्राह्मणों ने विविध आशीर्वाद दिये ॥ ५४ ॥
तत प्रीतमना राजा प्राप्य यज्ञमनुत्तमम् |
पापापह खनन दुष्करं पार्थिव में ॥ ५५॥
उदारचित्त महाराज दशरथ, पाप नाश करने वाले, स्वग्गंप्रद्
एवं धन्य राजाधों के लिये दुष्कर, इस यज्ञ के कर ॥ ५५ ॥
ततोज्ब्रवीदृश्यघूड़ं राजा दशरथस्तदा ।
कुरुस्य वन त्व॑ तु कतुमईसि सुत॒द ॥ ५६ ॥
ऋष्यश्टड्र से बेले-- दे सुत्॒त | अब अआप मेरे कुल की बुद्धि
के लिये उपाय कीजिये ॥ ४६ ॥ +
तथेति च स राजानमुवाच ह्विजसत्तमः । पु
भविष्यन्ति सुता राज॑श्रत्वारस्ते कुलाहनहा। ॥ ५७ ॥
* इति चतुदंशः सभ्ंः ॥
पश्चदशः सगः ११६
यह छुन भोर तथास्तु कद कर अष्य्टडः वेल्े-- हे राजन !
>शपके कुल के दढ़ाने वाले चार पुत्र होंगे ॥ ४७॥
ता
चालकायह का खोददयाँ सर्ग समाप्त हुआ |
-++औ-++-
पन्नुदशः सर्गः
*-४ है ३०--
मेधावी तु ततो ध्याला स किचिदिदमुत्तरम् ।
लब्धसंजस्ततस्तं तु बेदज्ों हृपमत्रवीत् ॥ १ ॥
मेधावी, वेदत् ऋष्यश्टड़ जी कुछ काल तक ध्यान कर के,
महाराज्ञ दशरथ से बेत्ते कि, ॥ १॥
दृष्टि तेह करिष्यामि पत्रीयां पुत्र॒कारणात ।
अगवशिरसि प्रोक्तिमन्त्रं: सिद्धां विधानत; ॥ २ ॥
है राजन ! मैं तेरे लिये प्रयर्वणवेद में कह्दी हुई पुजेशि यज्ञ की
विधि के ध्मुसार सिद्धि देने वाला पुत्रेप्टि यज्ञ करूंगा जिससे
तुम्दारा मनारथ पूरा होगा ॥ २ ॥
ततः प्रक्रम्य तामिष्टि पुत्रीयां पृत्र॒कारणात् |
जुद्ाव चाग्नो तेजखी मन्त्रदप्टेन कमंणा ॥ ३े ॥
हू कद पृत्नषप्राप्ति के लिये, उन्होंने पुतरेष्टि यज्ञ प्रारम्भ किया,
और विधिवत् मंत्र पड़ कर, वे ध्राहुति देने लगे ॥ २ ॥|
“ततों देवा! सगन्धर्वा) सिद्धाथ परमपेयः ।
भागप्रतिग्रहार्थ वें समवेता यथाविधि ॥ ४ ॥
१२० वालकायणडे
तब तो देवता, गन्धवे, सिद्ध ओर महांप, अपना अपना यज्ष--
भाग लेने के था कर जमा हुए ॥ ४ ॥
ता) समेत्य यथान्याय॑ तस्मिम्सदर्सि देवता; ।
अन्ल॒वस्ले|ककर्तार॑ ब्रह्माणं वचन महतू | ५ |
इस यज्ञ में यथाक्रम एकत्र दो देवताग्रों ने खशिकर्ता ब्रह्मा ज्ञो-
से विनय की ॥ ५॥
भगव॑स्तवत्मसादेन रावणो नाम राक्षस) ।
सबोन्नों वाथते वीयाच्छासितुं तं न शक्तुमः ॥ ६॥
है भगचन | आपकी कृपा से रावण नामझ राक्षस, हम सब के
बहुत सताता है, और हम उसका कुछ सी नहीं कर सकते ॥ ६ ॥
त्वया तस्मे बरे। दत्त; प्रीतेन भगवन्पुरा ।
मानयन्तश्र त॑ं नित्य॑ सर्व तस्य क्षमामहे || ७ |
क्योंकि आपने प्रसन्न हो उसे पहले चरदान दें दिया है, इस लिये-
हम सब सहते हैं और कुछ नहीं बालते ॥ ७ ॥
उद्देजयति छोक़ांखीउुच्छितान्देष्टि दुर्मतिः
श्र त्रिदशराजान॑ प्रधषयितुमिच्छति ॥ ८ ॥
वह तीनों लोकों के सता रहा है, और ल्लेकपालों से
शप॒ता वाध कर, सुपग के राज्ञा इचद्ध के भी नोचा दिखाना
चाहता है ॥ ८॥
ऋषीन्यक्षान्सगन्धर्वानसुरान्त्राह्मणांस्तथा ।
अतिक्रामति दुधषों बरदानेन मेहित) ॥ ९॥
को
पञश्चदशः सर्गः श्श्र्
फ्या ऋषि, फ्या यत्त, क्या गन्धर्च, क्या देचता, क्या ब्राह्मण,
आपके वरदान के प्रभाव से. घद्द दुर्धप किसी का कुछ भी ते नहीं
'समझता ॥ ६॥
नन सूचः प्रतपति पाएवें वाति ने घारुतः ।
चुलामिमाली त॑ दृष्ठा समुद्राईपि न कम्पत्ते ॥१०॥
उम्ते न ते हुवे ही गर्मी पहुंचा सकते ध्यौर न वायु देव ही
उम्रके समोप शेग से चल सझते हैं । उसे देखते ही समृद्र भी
कापना लटराना बंद ऋर, शान्त दि जाता है॥ १० ॥
हर बढ |
छम्दनला भर्य तस्पाद्राक्षसादबारदअनात |
ष न (९
वधाथ तस्य भगवन्तुपाय कतुमइंसि ॥ ११॥
इस भयानक रास के देखने दी से हमें बड़ा हर लगता है।
भ्रतः है भगवन | उसके बच के लिये केई उपाय कीलिये ॥ ११ ॥
एवमुक्तः सुरे! सर्वेध्िन्तयित्वा ततोब्ववीत् ।
हन्ताय॑ विद्वितस्तस्य वधापायों दुरात्मन;॥ १२ ॥
उन सव देवताशों के ये चचन छुन, ब्रह्मा जो कुछ साच कर
चाले--मेंने उस दुरात्मा के मारने का उपाय से।च लिया हैं ॥ १६ ॥
« ः 2० हु
तन गन्धवयक्षाणां दवदानवरक्षसाम् ।
अवध्योज्स्मीति वागुक्ता तथत्युक्तं च॒ तन्मया ॥१३॥
रावण के चर मौगने पर हमने उसे गन्धर्य, यत्त, देवता, दानव
और राक्षसों द्वारा भ्रवध्य होने का वरदान ते श्रवश्य दे दिया
हैं॥ १३ ॥
१२५२ : बालकायडे
नाकीतेयदवज्ञानात्तद्क्षो मानुपांस्तदा ।
तस्मात्स मानुपाद्ध्यो मृत्युनान्योज्स्य विद्यते ॥१४७॥74
किन्ठु उसने मनुष्यों के कुछ भी न समझ वरदान में मनुष्यों ५
का नाम नहीं लिया था | अतः चद लिवाय मनुष्य के और किसी
के द्वारा नहीं मारा जा सकता ॥ १७ ॥
एतच्छु त्वा प्रिय॑ वाक्य ब्रह्मणा समुदाहतम् ।
देवा महषयः सर्वे प्रहष्टास्तेव्भवंस्तदा ॥ १५॥
ब्रह्मा जी का यह प्रिय वचन खुन, सब देवता मह॒पषि आदि वहुत
प्रसन्न हुए ॥ १४॥ '
एतस्मिचनन्तरे विप्णुरुपयातों महाद्युतिः ।
शह्नचक्रगदापाणि; पीतवासा जगत्पति! ॥ १६॥ _
इतने दी में श्ढू चक्र गदा घारण किये शोर पीतास्वर धारण
किये महा तेजस्वी जगत्पति विभा भगवान, वहां पर धाये ॥ १६ ॥
ब्रह्मणा च समागम्य तत्र तस्थों समाहित! ।
तमन्रुचन्सुरा; सर्चे समभिष्टूय संनता। || १७ ॥
जव विधठठ भगवान् ब्रह्मा जी से मिल कर उनके पास वैडे
तव देवताओं ने वड़ी नज्नता के साथ उनकी स्तुति की और
बाक्ते ॥ १७॥
तां नियेक्ष्यामहे विष्णो छेकानां हिंतकाम्यया ।
राज दशरथस्य स्वमयेध्याधिपतेः प्रभो! ॥ १८ ॥
धमज्ञस्य वदान्यस्य महर्षिसमतेजसः |
तस्य भायांसु तिसुषु होश्रीकीर्त्युपमासु च॥ १९ ॥
पञ्चदृशः से: श्र
विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाज्य्त्मानं चतुर्विधम |
तत्र त्व॑ मानुपों भूत्वा प्रदृद्धं लोककण्टकम् ॥ २०॥
अवध्य॑ देवतर्िप्णो समरे जहि रावणम् |
स हि देवान्सगन्धवान्सिद्धांश मुनिसत्तमान ॥ २१ ॥
राक्षस रावणों मूखे वीयेस्सेफेन वाथते ।
ऋ्पयस्तु ततस्तेन गन्धवाप्सरसस्तथा ॥ २२॥
हम लेग धभापसे सव की भलाई के लिये यद्द प्रार्थना करत
है कि श्राप धर्मात्ता, दानो प्रोर ऋषियत् तेजस्ती भ्रयाध्याधिपति
भद्दाराज्ष दशरथ की ही थी और कीर्ति के समान तीन शानियों में
प्रपने चार प्रशों से पुत्रमाव स्वीकार करें। श्राप मनुष्य शरोर
'घारण कर, मदा भ्रसिमानी लोककश्टक उस रावण का, जे हम
( देवताप्नों ) से मी भ्रवध्य है, युद्ध में परास्त करे'। क्योंकि वद्द
मूर्ख रात्तस रावग देवता, गन्धर्व, सिद्ध श्ोर मुनिर्यों को अपने
वल्त से वहुत सताता है॥ १८॥ १६ ॥ २० ॥ २१॥ २२॥
क्रीडन्तो नन््दनवने ऋरेण किल हिंसिता। ।
बधार्थ वयमायातास्तस्य वे सुनिभिः सह ॥ २३ ॥
देखिये, उस दुए ने ( इन्द्र के ) ननस्दनवचन नामक उद्यान मे
क्रीड़ा करते हुए धनेक गत्थर्वों तथा प्रप्सणओं के मार डाजा।
डसीके मरवाने के लिये, हम यहाँ मुनियों सह्दित आये हैं ॥ २३ ॥
सिद्धगन्थवयक्षाश्र ततस्तां शरण गताः | .
त्व॑ गति; परमा देव सर्वेषां न; परन्तप-)| २४ ॥
१५७ वालकायडे
हम सिद्ध, गन्धर्व श्रोर यक्तों सहित आपके शस्ण में आये हई।
दे देव | हमाये दोड़ तो आप ही तक है ॥ २४ ॥
वधाय देवशत्रणा चृणा छाक मंच; कुछ |[
विष्णुखिदशप् ।२०॥
एवमुक्तस्तु देवशा [वष्णु ]प्द्धच; ।
ध्यतः आप देवताधों के शत्र राचण का वध करने के लिये
मनुष्यज्ञेक में भ्रवतोर्ण हजिये। इस प्रकार देवताओं ने भगवान्
विष्णु की स्तुति की ॥ २५ ॥
पितामहपुरोगांस्तान्सवलेझनमस्कृतः ।
' अब्नवीज्विदशान्सवबान्समेतान्धर्मसंहितान ॥ २६ ॥
सर्वज्लाकों से नमस्कार किये जाने वाले अयथीत् सर्वेपुज्य भग-
वान् विष्णु ने, शरण भाये हुए पकत्रित ब्रह्मादि देवताशों से यह
कहा ॥ २६ ॥
भय॑ त्यजत भद्धं वे। हिताथ सुधि रावणम् |
सपुत्रपात्रं सामात्यं समित्रज्ञातिवान्धवभ् । २७ ॥
हत्वा क्रर॑ं दुरात्मानं देवपीणां भयावहम् ।
दर वर्षसहताणि दश् वपषंशतानि च ।
बत्स्यामि मानुपषे लेके पालयन्पूथिवीमिमाम् | २८ ॥
दे देवताओ [ तुम्हारा मड्बल हा ; तुम अब मत हरेा। तुम्हारे
हित के लिये में रानण से लह्ढगा। में पुत्र, पोत्र, मंत्रि, मित्र,
जाति वालों तथा वन्धु वान्चव सहित, उस क्रूर, दुए और.
देवताञओं तथा ऋषियों के लिये मयप्रद राचण के मार शोर ग्यारह
इज्जार वर्ष तक म्यत्ताक में रह कर, इस प्रथिवी का पालन
करूंगा ॥ २७ ॥ २८ ॥|
पश्चद॒णः सर्गः १५४
एवं दत्ता वर देवे। देवानां विप्णुरात्मवान् |
माजुप चिन्तयामास जन्मभूमिमथात्मनः ॥ २९ ॥
इस प्रकार भगवान् विधा देवताओं के वरदान दे प्रपने जन्म
लेने याग्य मनुप्यजेक में स्थान साचने लगे ॥ २६ ॥
ततः प्मपलाशाक्ष: क्रत्वाउत्त्पानं चतुर्तिधम् |
पितरं रोचयामास तदा दश्रथं दृपम् ॥ ३० ॥
कमलनय॒न भगवान् विपा ने ध्पने चार रुपों से महाराज
दशस्थ को श्रपना पिता बताना, अर्थात् उनके घर में जन्म लेना
पसंद किया ॥ ३० ॥
ततो देवर्पिंगन्धर्वांः सरुद्रा साप्सरोगणा; |
सतुर्तिंभिर्दिव्यस्पाभिस्तुष्टचुम धुमूद्नम् ॥ ३१ ॥
तब देवपि, गन्धर्व, रुद्र, अप्सरागगा--इन सव ने मधुलुदन
भगवान् की स्तुति कर, उनके सन््तुए्ट किया ॥ ३१ ॥
तमुद्धत॑ रावणमुग्रतेजस
प्रदद्धदप त्रिदशेश्वरद्धिपस् ।
विरावणं साथु तपस्थिकण्टक
तपस्विनामुद्धर द॑ भयावहम् ॥ ३२ ॥
तमेव हलवा सबर्ल सवान्धवं
विरावर्ण रावणमुम्रपैरुपम् |
खलाकमागच्छ गतज्वरश्रिरं
सुरेन्द्रगुर्त गतदेपकल्मपम्् ॥ ३३ ॥
इति पश्चरशः सर्गाः ॥
१५६ वालकायडे
और कहा, हे प्रभो ! इस उद्गड, बड़े तेजस्वी, भत्यन्त अहड्डूरी,
देवताशों के शत्रु, लाकों के रुलाने वाले, साधु तपस्वियों का सताने
चाले और भयदाता रावण को, नाथ कीजिये। उस लोाकों का
रुलाने वाले और उम्र पुरुषाथों राचण की वंधु, वान्धव तथा सना
सहित मार कर और संसार के दुःख को दूर कर, इन्द्रपालित
तथा पाप पव॑ दोपशून्य छ्वर्ग में पथारिये ॥ ३२॥ झेरे ॥
वाल्ञकायड का पद्धहर्वाँ सर्ग समाप्त हुआ |
धार: *
षोडशः सर्गः
“पक ३०
ततो नारायणो देवे। नियुक्त: सुरसत्तमः ।
जानन्नपि सुरानेव॑ छूछणं वचनमत्रवीत् ॥ १ ॥
देवताश्रों की स्तुति छुन, सव जानने चाक्ते सात्तात् परन्रह्म
नारायण, देवताश्नों के सम्मानार्थ यह मधुर वचन वाले ॥ १॥
उपायः के वधे तस्य राक्षसाधिपतेः सुरा; ।
यमहं त॑ समास्थाय निहन्यामृपिकेण्टकस ॥ २ ॥
है देवताओं ! यह ते वतल्ाओ कि, उस राक्षक्षों के राजा और
छुनियों के कयणक के हम किस उपाय से मारे । ॥ २॥
एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचु्विष्णुमव्ययम् |
मानुषी तनुमास्थाय रावणं जहि संयथुगे ॥ ३ ॥
गे देवताओं ने अव्यय विधषरु से कहा--मनुष्य रूप में
अवतीण हो, राचण के युद्ध में मारिये ॥ ३ ॥
पीोडशः सरर्गः १२७
स॒ हि तेप तपस्तीर्न दीथंकरालमरिन्दम।
येन तुषप्टोइ्मबद्ब्रह्मा छोककृतलोकपूजितः ॥ ४ ॥
है प्ररिन्द्म | उसने धहुत दियों तक कठोर तप कर लोककर्ता
और ल्लाकपूनित ब्रह्मा क्षा प्रसन्ष किया ॥ ७॥
संतुष्ट! भद॒दो तस्मे राक्षसाय वर॑ प्रभु ।
नानाविधेश्यों भूतेभ्ये। भय॑ नान््यत्र मानुपात् | ५॥
तब उन्होंने प्रसन्ष है उस रात्तल का यह चर दिया कि। मनुष्य के
सिधाय इमारो खश्टि फे छिसी भी जीव के मारे तुम न मरोगे ॥ £ ॥,
अवज्ञाताः पुरा तेंन वरदानेन मानवा।। .,
एवं पितामह्ात्तस्मादरं प्राप्य स दर्पितः) ॥ ६ ॥
| बह भनुष्य की तुच्छ समझता था। ध्रतः उसने मलुप्यों,से असय
.दना न माँगा । श्रह्मा जी के वर से वह गवित है गया ॥ ६ ॥
त्सादयति छाकांद्रीन्थयश्राप्यपकर्षति |
तस्मात्तस्पय वधा दृष्टा प्रानुप स्यथ, परन्तप ॥ ७॥
इस समय यह तीनों लोकों के उज़ाड़ता है और छियों को
पक्रड कर के जाता हैं, अतएच चद्द मनुष्य के हाथ ही से मर
सकता है ॥ ७॥
इत्येतद्नचन श्रुत्वा सुराणां विष्णुरात्मवान् ।
पितरं रोचयामास तदा दशरथ वृपम् ॥ ८ ॥.
देवताओं की इन वारतों के सुन भगवान विधा ने महाराज
दर्शर्थ का अपना पिता बनाना पसंद किया ॥ ८ ॥
चा० रा०--६
श्श्द वालकायडे
स चाप्यपुत्रो उपतिस्तस्मिन्काले महाद्युतिः ।
अयजतत्रियामिष्टि पुत्रेप्सु ररिसदनः ॥ ९ ॥ हि
उसी समय पुत्रद्दीन, महाद्युतिमान, शन्न॒हन्ता महाराज दशरथ ने
पुत्रप्राप्ति के लिये पुत्रेश्यिज्ञ करना प्राय किया ॥ ६ ॥
स कृत्वा निश्रयं विष्णुरामन््य च पितामहम् ।
: अन्तर्धानं गतो देवे! पूज्यमाने महर्पिभिः ॥ १०.॥
इस प्रकार महाराज्ञ दशरथ के घर में जन्म लेने का निश्चय
कर ओर ब्रह्मा जओ से वातचीद कर भगवान् विष वहाँ से
ध्यन्तर्धान हो गये ॥ १० ॥
ततो वे यजमानस्य पावकादतुरूपभस्त ।
प्रादूरथूतं महद्भूत॑ महावीय महावलूस ॥ ११॥ .
कृष्ण रक्तास्वरधर॑ रक्ताक्ष॑ दुन्दुभिखनम |
स्निग्घहयेक्षततुजश्मश्रुप्रवस्मूघेजस् ॥ १२॥
शुभलक्षणसंपन्न॑ दिव्याभरणभूपितम् ।
शेल्मज्भसमुत्सेधं रप्तशादुूविक्रमम् ॥ १३ ॥।
दिवाकरसभाकार॑ दीघप्तानलशिखेपमस |
तप्तजाम्बूनदमयी राजतान्तपरिच्छदास् | १४ ॥
दिव्यपायससंपूणा' पात्रीं पत्नीमिव प्रियाम ।
प्रयृह्न विषुरां दोभ्याँ खर्य मायामयीमिव ॥ १५ ॥|[:
उधर महाराज दशरथ के अपश्विकृुण्ड के शअप्नि से महावली
अतुल प्रमा वाला, काले रंग का, लाल बस्तर घारण किये हुए,
चालकाण्ड
20322
महाराज दशरथ के पुन्नेष्टि यक्ष में पप्नि से यज्ञ देव का
प्रकद है कर महाराज के पायस देना
पोडशः सर्गः १२६
'जाल रंग के मुंद बाला, नगाड़े जैसा शब्द् करता हुआ; सिंह के
शम जैसे राम और मूछो वाला, शुभ लक्तणों से युक्त, छुन्दर
“धाभूपणों को घारण किये हुए, पंत के शिखर के समान ल्लंवा,
सिंह जैसी चाल वाला, सूर्य के समान तेजस्वी, और प्रज्वलित भ्रप्नि
शिखा की तरए रूप वाला, दोनों हाथों में सोने के धाल में, जे।
चाँदी के ढकने से ढका दुआ था, पत्नी की तरद प्रिय और दिव्य
खीर लिये हुए, मुसक्धाता हुआ एक पुरुष निकला ॥ ११॥ १२ ॥
२३॥ १४॥ १४ ॥
समवेक्ष्यात्रवीदाक्यमिदं दशरथं तृपम् |
प्राजापत्यं नर॑ विद्धि मामिहाभ्यागतं हृप ॥ १६ ॥
बह भहाराज्ञ दशरथ को ओर देख कर यह वेत्ञा--“महाराज्ञ [
में प्रजापति के पास से यहां धाया हूँ ॥ १६ ॥
तत। पर तदा राजा प्रत्युवाच क्ृताज्ञलि) ।
भगवन्खागतं तेड्स्तु क्रिपह करवाणि ते ॥ १७ ॥
यह सुन महाराज दशरथ ने हाथ जड़ कर कहा-भगवन |
प्रपका में स्वागत करता हूँ कहिये, मेरे लिये क्या झाज्षा है ॥१७॥
अथो पुनरिदं वाक्य॑ प्रजापत्यों नरोज््रवीतू ।
राजन्नचयता देवानब प्राप्तमिदं या ॥ १८ ॥
इस पर प्रजापति के भेजे उस मनुष्य ने फिर कद्दा--देवताभों
का पूजन करने से आज्ञ तुमक यह पदार्थ मिला है ॥ १८ ॥
इदं तु नरशादूल पायसं देवनिर्मितस् ।
प्रजाकर ग्रहण त्व॑ धन्यमारोग्यवर्धेनम ॥ १९ ॥
१६० वालकाणडे
. हैं नरशादंल | यह देवताओं की बनाई हुई खीर है, जे।
सन््तान की देने वाली तथा धन और पऐश्वर्य की बढ़ाने वाल्नी है
इसे आप लीजिये ॥ १६ ॥
भार्याणामनुरूपाणामश्रीतेति प्रयच्छ वे |
तासु त्व॑ं रूप्स्यसे पुत्रान्यदर्थ यजसे ढृप ॥ २०.॥
ओर इसके अपने अचुरूप रानियों के खिलाइये। इसके:
प्रभाव से आपकी रानियों के पुत्र उत्पन्न होंगे, जिसके लिये आपने.
यह यक्ष किया है ॥ २०॥
तथेति दृपतिः प्रीत: शिरसा प्रतिग्द्य ताम ।
' पात्रीं देवाज्नसंपूर्णा' देवदत्तां हिरण्मयीस ॥२१॥
इस वात के छुन महाराज ने प्रसन्न हे, उस देवताओं की
बनाई हुई और भेज्ञी हुई खीर से भरे खुवर्शपात्र 'को ले प्रपने
माथे चढ़ाया ॥ २१ ॥* ः
, - अभिवाद्य च तद्भूतमदुत॑ प्रियद््शनस |
झुदा परमय्ा युक्त्रकाराभिप्रदक्षिणस् || २२ ॥
तद्नन्तर डस झदुभ्भुत एवं प्रियद््शन पुरुष के महाराज्ञ नेः
प्रणाम क्रिया और परम प्रसन्न दे उसकी परिक्रमा को ॥ २२॥
ततो दशरथ; आप्य पायस देवनिर्मितस |
वुभूव परमप्रीतः प्राप्य वित्तमिवाधन! ॥ २३ ॥
डस देवनिमित खीर के पा कर महाराज दशस्थ उसी त
गम प्रसन्न हुए, जिंस तरह कोई निर्धन मनुष्य घव पा कर परम
हज
पसन्न होता है ॥ रछ॥ « -
पोडशः सर्गे १३१
ततस्तदद्भुतप्रखु्य॑ भृत॑ परमभाखरम् |
संवतेयित्या तत्कम तत्रवान्तरधीयत ॥ २४ ॥
चह मदातेजल्ली अद्द्युत पुरुष महाराज दशरथ के पायसपात्र
5 ऊर वहीं अन्तर्धान दो गया ॥ २४ ॥
हपरश्मिभिरुद्योत॑ तस्थान्तःपुरमावमी |
शारदस्याभिरामस्य चन्द्रस्येव नभोशुभि) ॥ २५ ॥
महाराज की रानियाँ भी यह झुल्ल-संचाद सुन, शरहकालोीन
चनद्धमा की किरणों से ध्राकाश को भाँति (प्रसन्नता से ) खिल
उठी; अर्थात् शाभायमान हुई ॥ २४ ॥
सेन्तःपुरं प्रविश्येव कौसल्यामिदमत्रवीत् ।
पायस॑ पतिगृह्नीष्व पत्रीय त्विदमात्मन! ॥ २६॥
महाराज दशरथ रनवास में गये और महारानी फोशल्या ज्ञी
ते यह वाले--“ के यह खोर है, इससे तुमको पुत्र की प्राप्ति
दैगी ॥ २६ ॥
कौसल्याये नरपति! पायसाध ददों तदा |
अधांदर्भ ददी चापि सुमित्राय नराधिपः ॥ २७॥
तदननन््तर महासज्ञ दृशरथ ने उस खीर में से श्ाधी ते कोशल्या
ज्ञी के और वची हुए आधो में से आ्रावी सुमित्रा का दी ॥ २७ ॥
कैकेय्ये चावशिष्टाध ददौ पुत्राथकारणात् ।
प्रददों चावशिष्टाघ पायसस्याझतोपंमम || २८ ॥
अनुचिम्त्य सुमित्राये पुनरेव महीपति: |
एवं तासां ददो राजा भागांणां पायस पृथक ॥ २९॥
१३२ वालकायडे
कुल खीर का पश्ाठवाँ दिसगा वीफेयी के। दिया प्यट उम्र
पग्रतोपम खीर फा बचा हुआ झाठवाँ भाग, कुछ सेचकर रा
सुमित्रा के दे दिया | इस प्रकार महाराज्ञ ने अपनी शानियों फे।
घतलमग अलग हिसले कर गवीर दाँदी ॥ ८८ ॥ २६ ॥
तास्लेतत्पायसं प्राप्य नरेन्द्रस्याचमाः शिया ।
सम्मान मेनिरे सवा: महपादितचेनस; ॥ ३० ॥
उस खीर के करा कर, मदाराज की फीणस्यांदि उनन््दरी रानियाँ
बहुत प्रसन्न हुई आर प्रपने के ध्यत्त भाग्यचती माना ॥ ३० ॥
ततस्तु वा; प्राश्य तदुत्तमद्धिया
महीपतेस्तमपायस प्रथक् |
हुताशनादित्यसमानतेजस-
शिरेण गर्भान्यतिपेदिरे तदा ॥ ३१ ॥
तद्नन्तर उन उत्तम रानियों ने, मद्ारात् की प्रथकू पृथकू दी
हुई खीर खा कर भध्यप्रि और घर्य के समान तेज्न बाते गर्भ शीघ्र
धारण किये ॥ ३२ ॥
ततस्तु राजा प्रसमीक्ष्य ता; स्त्रिय!
(४
प्ररूदगर्भा; प्रतिरूब्धभा नस! |
वभूव हृएस्त्रिदिवे यथा हरि;
सुरेन्द्रसिद्धर्पिगणाभिपूजितः | ३२ ॥
इति पोडशः सर्गः॥
हर महाराज दशस्थ भी अपनी रानियों के गर्भचती और प्पना
मनारथ पूण देता देख, उसी प्रकार प्रसन्न हुए, किस प्रकार भगवान्
सप्तदशः सर्गः १३३
विभाई देवताओं ओर सिद्धों से पूज्ित हो, स्वर्ग में प्रसन्न होते
हू॥ २२॥
वालकागड का सेालहतवां सर्ग समाप्त हुआ ।
>ौ--
सप्तदशः सगेः
>> | 0०७७७
पुत्रत्व॑ तु गते विष्णा राज्स्तस्थ महात्मनः ।
जवाच देवताः सवा! ख्य॑भूभगवानिदम्॥ १॥
महात्मा महाराज दुशस्थ के धर में भगवान् चिध्णु को पुत्र
झूप से प्रवतोरण दोते देख, ब्रह्मा जो ने सव देवतापों से कहा ॥ १॥
सत्यसंघस्य बीरस्य सर्वेपां नो हितेषिणः ।
बिष्णे! सहायावव॒लिन) सजध्य॑ कामरूपिण। ॥२॥
मायाविदश् शरांथ वायुवेगसमाझ्वे |
नयवाग्वुद्धिसंपत्नान्िविष्णुतुल्यपराक्रमान् ॥ ३े ॥
असंहार्यानुपायज्ञान्सिहसंदननान्वितान् ।
सर्वास्त्रमुणसंपन्नानमृतप्राशनानिव ॥ ४ ॥
अप्सर;छु च मुख्यासु गन्धर्वीणां तनूछु च |
किनरीणां च गात्रेपु वानरीणां तनूपषु च॥ ५॥
यक्षपत्नगकन्यासु ऋष्षिविद्याधरीपु च।
सजध्व॑ हरिरूपेण पुत्रांस्तुल्यपराक्रमान् ॥ ६ ॥
सत्यसंघ, चोर, ओर रुव का दित चाहने वाले: सगवान विष
की सहायता के लिये तुम लोग भी बलवान, कामरुपी ( जैसा चाहे
१३७ बालकायडे.
वैसा रुप बनाने वाले ) माया के जानने वाले,-चेग में पवन तुल्य,
नीति, चुद्धिमान, पराक्रम में विधए के ही समान, जिनके कोई,
मार न सके, उच्मी, दिव्य शरीर वाले, अख्य विद्या में निषुण
और देवताओं के सद्ृश घानरों के ; भ्रप्सराभों, गन्धर्च की स््रियों
घोर यक्ञों एवं नागों की कन्याप्रों, ऋत्तियों, विद्याधरियों, किन्नरियों
घोर वानरियों से उत्पन्न करो ॥ २॥ ३ ॥ ४॥ ५॥ ६ ॥
पूवमेव सया रूष्टे जाम्ववारक्षपुद्धव) ।
जुम्भभाणस्य सहसा मम वक्त्रादणायत ॥ ७ ॥
मेंने भी पहले भाद्ुश्रों में श्रेष्ठ जास्बवान नामक रीहु॑ के पैदा
किया था, वह जपुहाई लेते समय मेरे मुख से सहसा निकल
पड़ा था ॥ ७ ॥
ते तथोक्ता भगवता तत्मतिश्रुत्य शासनम् |
जनयामासुरेव॑ ते पुत्रान्वानररूपिण; | ८ ॥
ऋषयश्र महात्मानः सिद्धविद्याधरोरगाः ।
चारणाश्व॒ सुतान्वीरान्ससंजुबेनचारिणः ॥ ९ ॥
ब्रह्मा जी के इस थ्राज्ञाचुसार, ऋत्तों, सि्धों, चारणों, विद्याधरों
ओर नागों ने चानर रूपी पुत्रा के! उत्पन्न किया ॥ ८ हे ६ ॥
* वानरेन्द्र महेन्द्राभमिन्द्रो वालिनमूर्जितम् ।
सुग्रीब॑ जनयामास तपनस्तपत्ता वर; ॥ १० ||
बृहस्पतिस्त्वजनयत्तारं नाम महाहरिस् ।.
सवंवानरसुख्यानां बुद्धिमन्तमनुत्तमम || ११॥
सप्तदशः सगे; १३४
धनदस्य सुतः) श्रीमान्वानरों गन्धमादन। ।
3 $; पे
विश्वक्रमा लजनयत्नल नाथ महाहरिम् ॥ १२ ॥
पावकस्य सुतः श्रीमान्नीले“प्रिसदशप्भ ।
तेजसा यश्ञसा वीयांदत्यरिच्यत वानरान् ॥ १३॥
रूपद्रविणसंपन्नावश्विनों रूपसंमती |
मेन्दं च ट्विविंदं चेच जनयामासतु। ख्यम ॥ १४ ॥
वृरुणा जनयामास सुपेर्ण नाम वानरम् |
शरभं॑ जनयामास पजन्यस्तु महावछूम ॥ १५ ॥
मास्तस्थात्मज; श्रीमान्दुमान्नाम वानर। । -
'वजसंहननेपेतों वनतेयसमे जबे ॥| १६ ॥
इन्द्र ने महेन्द्राचल की तरह वालि, घूय्य ने सुश्रीव, वहसुपति ने
तार, जे सब बानरों में मुख्य और अति चतुर था, कुषेर ने गन्ध-
मादन, विश्वकर्मा ने नक्त, अप्लनि ने मील जे पअपश्नि के समान
ही तेजस्वी था तथा यश घ्योर पराक्रम में जे अपने पिता से भी बढ़
कर था; भ्रश्विनी-कुमारों ने मेन्द और हद्विविद, चरण ने सुषेण,
मेघ ने शरम और पवन ने हनुमान नामक वानर उत्पन्न किया।
इनकी देह वज्ञ करे समान दृढ़ थी ओर यह वेग में गरुड़ के समान
श्रे॥ १० ॥ ११॥ १२५॥ १३॥ १४॥ १४ ॥ १६ ॥
सववानरमुख्येप बुद्धिमाल्वलवानपि ।
रूष्ठा बहुसाहस्रा दशग्रीववभे रता। ॥ १७ ॥ .
१३६ 'बालकाणंडे
हलुमान जी युद्धि और पराक्रम में अन्य सब बानरों से चढ़
बढ़ कर थे।.इनके अतिरिक्त ह॒ज्ञारों और भी बंदर, रावण के वश
के लिये उत्पन्न किये गये ॥ १७॥ ह
अप्रमेयवला वीरा विक्रान्ता! कामरूपिण; | .
' ते गजाचलसंकाशा वप॒प्मन्तों मबहावछा; ॥ १८ ॥
जितने वानर उत्पन्न हुए थे सव के सव शत्यन्त वल्वान,
स्वेच्छाचाये, गज और भूधराकार शरीर वाले हुए ॥ श८॥
ऋष्षवानरगापुच्छा; क्षिप्रमेवाभिजक्विरे ।
यस्य देवस्य यद्गप॑ वेषो यश्व पराक्रम: | १९ ॥
अजायत समस्तेन तस्य तस्य सुतः पृथक ।
३ हि &
गेलाड्गूलीषु चेत्पन्ना;- केचित्संमतविक्रमा; [२० _
रीछ, घंदर, लंगूर सब ऐसे ही थे। ज्ञिस देवता का जैसा
रूप, पेष व पराक्रम था, उनके अलग अलग वैसे जैसे ही पुत्र भी
हुए--वह्कि इन यानियों में विशेष पराक्रृमो हुए ॥ १६ ॥ २० ॥
ऋशक्षीषु च तथा जाता वानराः किनरीषु च।
: देवा महर्षिगन्धवास्ताक्ष्या यक्षा यशखिनः ॥| २१ ॥
नागा; किंपुरुषाश्रेव सिद्धविद्याधरोरगाः ।
वहवो जनयामासुहंष्टास्तत्र सहख़शः ॥ २२ ॥
इनमें से कोई ते लंगमूरिनों से कोई रीक्िनियों से, और कोई
किन्नरियों से के हुआ ।. यशस्त्री देवता, ऋषि, गन्धर्व,
उरग, यत्ष, नाग, किन्नर विद्याघर श्ादि ने इज्ारों हृष्ट पुष्ट
उत्पन्न किये ॥ २१ ॥ २२ ॥ न् 5
चसतदश।+ सर्मः १३७
वानरान्सुमहाकायान्सवान्च वनचारिणः |
सिंहशादूलूसदशा दर्पेण च वलेन च॥ २३ ॥
_ ये सब वानर बड़े भारी डील डौल के थे श्रौर दर्प तथा वतन
में सिद्द और शार्ट्ल के समान थे ॥ २३ ॥
शिलापरहरणाः सर्दे सर्वे पादपयेधिनः ।
नखदंप्रायुधाः सर्वे सर्वे स्वाखकेविदा! || २४ ॥
सव के सव शिलाप्ों, पर्चतों, न्ों और दांतों से प्रहार करने
चाक्ने तथा सब अख्रों के चलाने में पगिडत थे ॥ २४ ॥
विचालयेयुः शैलेन्धान्भेदग्रेयुः स्थिरान्दुपान् ।
प्षेभयेयुश्व वेगेन समुद्र सरितां पतिम् ॥ २५ ॥
ये लोग बड़े बड़े पर्वतों के हिला देने वाके, बड़े बड़े जमे हुए
पेड़ों के उज़्ाड़ देने वाले, ओर अपने वेग से सप्लुंद्र के भी
विचलित करने वाले थे ॥ २४ ॥ पण को ग ।
कप 8 (१
दारयेयु) क्षिति पद्भथामाइवेयुमहाणवस ।
नभस्थलं विशेयुश्र शह्ीयुर॒पि तेयदान् | २६॥
ये अपने पेर के प्रहार से प्रथिवी के फोड़ने वाले, सप्रुद्र के
पार जाने वाले, झ्राक्नाश में उड़ने वाले, और वादलों के भी
पकड़ने वाले थे ॥ २६ ॥
गृहीयु रपि मातड़ान्मत्तान्प्रजतों बने |
नदमानाथ नादेन पातयेयुर्विह्ठमान् ॥ २७ ॥
ये वानर, जंगलों में घूमने वाले, मद्मस्त द्वाधियों के पकड़ने
वाके, ग्रैर किलकारी मार कर, आकाश .में उड़ते हुंए पत्तियों का
गिराने की सामर्थ रखने वाले थे ॥ २७ ॥
श्श्च वालकायडे
इह्शानां प्रछृतानि हरीणां कामरूपिणाम् |
शर्त शतसहस्राणि यूथपानां महात्मनाम्॥ २८॥ -
इस प्रकार कामरूपी वानरों को उत्पत्ति हुई | ते ऐसे महावल्ी
ज्ञाखों वानरों के यूथों के यूथपति हुए ॥ २८ ॥
ते प्रधानेषु यूथेषु हरीणां हरियूथपाः ।
वर्भूवुयुथपश्रेष्ठा वीरांथाजनयन्हरीन् ॥ २९ |
इन प्रधान यूथपों से अनेकों दीर यूथपश्चे्ट वानर उत्पन्न
हुए ॥ २६ ॥
अन्ये ऋक्षंवत; प्रस्थानुपतस्थु। सहखशः |
अन्ये नानाविधाज्शैलान्भेजिरे काननानि च ॥३०॥
इनमें से हज़ारों ऋत्तवान् पर्वत के शिखरों पर और शेष चानर
जगह जगह पर्वतों और चनों में वल ने लगे ॥ ३० ||
स्पुत्रं च सुग्रीव॑ शक्रपुत्नं च वालिनम् ।
अआ्रातरावुपतस्थुस्ते सबे एव हरीश्वरा।॥ ३१॥
खूयपुत्र ख॒ुप्नोच और इन्द्रपुचर चालि, इन दोनों भाइयों के पास
ये सव वानर रहने लगे ॥ ३१ ॥
नर नील॑ हनूमन्तमन्यांश्र हरियूथपान् |
ते ताक्ष्यबलूसंपन््नाः सर्वे युद्धविशारदा) || ३२ ||
और वहुतों ने नल, नील, हनुमान तथा अन्य यूथपतियों
का सहारा लिया। वे सव गरड़ के समान बलवान और युद्ध में
कुशल थे ॥ ३३ ॥ । ह
विचरन्तो<द॑यन्दर्पात्सिहव्याघमहोरगान् ।
श्र कर्क, “पक
ताँब् सवान्महावाहुवाली विपुलूविक्रमः ॥ ३३-॥
घणदणः से: १३६
जुगाप शुनवीयेंण ऋक्षगापुच्छवानरान् |
तरियं पृथित्री श्रे! सपर्वतंतनाणवा ।
फीर्णा विविधसंस्थानर्नानाव्यज्ञनलक्षणे! ॥ ३४ ॥
पे सब चानर घूमते हुए सिह व्याश्र और साँपों के भी मर्द
करने लगे | महावली ओर मद्दावादु वालो प्यपने विपुल विक्रम
आर प्पनो स्ुत्ताओं के वल से बंदर रोक झोर लंगूरों का पालन
फरने लगा | उन शुरवोर रूपियों से, जिनके विविध प्रकार के रूप
रंग थे, पर्चत, वन, समुद्र और प्ृथित्री के अनेक ' स्थान परिपूर्ण
है। गये ॥ २३ ॥ २४ ॥
तेमे घवन्दा चलकूटकल्प-
महावलूबानरयूथपाले।
वभूव भूर्भीमशरी रखूपः
समाहता रामसहायदिते। ॥ श५ ॥
इति सप्तदशः सगः ॥
भेषों ओर पर्चतों के सम्तान भीम शरोर वाले महावल्ी जे।
यूयप बंदर श्रीरागचन्द्र जी को सहायता के लिये उत्पन्न हुए थे.
उनसे सारी प्रधिवी भर गयो ॥ ३५ ॥
वाज़काएड का सब्रहर्याँ सगे पूरा हुआ।
>+--पै
अष््टादशः सर्गः
निद्वतते तु क्रो तस्मिन्दयमेथे महात्मनः ।
प्रतिग्रह्न छुरा भागान्यतिजग्सुयधागतम् ॥ १ ॥
१७० वालकायडे
महाराज दशरथ का पअश्वभेघ यज्ञ समाप्त होने पर देवता
अपना अपना भांग लेकर अपने अपने स्थानों के चत्ते गये ॥ १ ॥
समाप्तदीक्षानियमः पत्रीगणसमन्वितः
प्रविवेश पुरी राजा समृत्यवलवाइनः || २॥
महाराज भी यक्षदीज्ञा के निया के समाप्त कर रानियों,
खेवकों, सेना ओर वाहनों सद्दित राजधानो में चल्ले गये ॥ २ ॥
यथाह पूजितास्तेन राज्ञा वे पृथिवीश्वरा। |
मुदिताः प्रययुर्देशान्पणस्य मुनिपुन्ञवम् ।। हे ॥
बाहिर से न्योते में आये हुए राजा भी यथे।चित रीत्या सत्का-
रित है। और वशिष्ठ ज्ञी के प्रणाम कर, सहर्ष ध्मपने अपने देशों
के लौट गये ॥ २ ॥
श्रीमतां गच्छतां तेषां ख्वपुराणि पुरात्ततः ।
बलानि राज्ञां शुश्राणि प्रहष्टानि चकाशिरे ॥ ४ ॥
वहाँ से अपने नगरों के राजाशों के ज्ञाने पर उन राजाओं की
सेनाएँ नाना प्रकार के भूषण वस्रादि पा कर ओऔर प्रसन्न हे,
आअयेषध्या से अपने अपने पुरों के विदा हुईं ॥ ४ ॥
गतेषु पृथिवीशेषु राजा दशरथस्तदा ।
प्रविचेश पुरी श्रीमान्पुरस्कृत्य द्विजात्तमान् ॥ ५॥
सब राजाओं के विदा दा जाने के वाद् महाराज दशरथ ने
श्रेष्ठ ब्राह्मणों का ञआागे कर पुरी में प्रवेश किया ॥ ५ ॥
शान्तया प्रययो साधमृश्यश्ूज्भ सुपूजितः-।
अन्वीयमाने राज्ञाज्य सानुयात्रेण धीमता || ६॥
धशद॒शः समः १४१
ऋष्पड भो अपनो पत्नी शान्ता सदित महाराज से हि बदा दी
अपने स्थान के चल दिये । मद्दांशज्ञ उनके पहुँचाने के लिये
फुछ दूर तक उनके साथ गये ॥ $ ॥
एवं विरुज्य तान्सवॉन्राना सम्पूर्णणानसः ।
उबास सुखितस्तत्र पत्रोत्पत्ति विचिन्तयन् || ७ ||
इस प्रफार उन सव को विदा कर मद्ाराज दशरथ सफल
मनारथध ही, सन्तानेत्यति की प्रतोत्षा करते हुए रहने लगे ॥ ७॥
तता यज्ञ समाप्त तु ऋतूनों पट समय;
ततथ द्वादश मासे चत्र नावगिक्के तिथां ॥ ८ ॥
यक्ष दीने के दिन से जब छः ऋतुएँ बीत चुझों प्योर वारदरवाँ
मीना लगा, तव सेत्र मास की नवप्री तिथि को ॥ ८ ॥
नक्षत्रेथदितिदवत्ये खाच्चसंस्थेप पश्चसु |
प्रहेप ककठे छम्मे वाकपताविन्दुना सह ॥.९ ॥|
पुनर्वछ नक्षत्र में खये, मड़ल, शनि, बृहस्पति और शुक्र के
3
उद्यस्थानों में प्राप्त देने पर अर्थात् क्रशः मेप, मकर, तुला, कक
थ्रोर मीन राशियाँ में आने पर, शोर ज्ञव चन्द्रमा वृदस्पति के
साथ जि गये, तव कक लम्न के उदय दोतें ही ॥ ६ ॥
प्रोद्यमाने जगन्नाथ सर्वकाक्रनमस्कृतस् ।
फ्रैसल्याध्जनयद्वाम दिव्यक्क्षणसंयुतम् ॥१० ॥
स्चंवन्य, जञगत् के स्वामी दिव्य लक्षणों से युक्त श्रीरामचन्द्र
जी का जन्म फाशल्या जी के गर्भ से हुआ ॥ १० ॥
१७२ चाल्कायडे
हु (्
विष्णार् महाभागं पुत्रमेघाकबधनय ।
कैसल्या शुझुभे तेन पुत्रेणमिततेजसा ॥ ११ ॥
यथा बरेण देवानामद्तिवेज्ञपाणिना ।
भरते नाम कैकेय्यां जज्ञे सत्यपराक्रम। ॥ १२ ॥
इच्चाकु वंश को बढ़ाने वाले विष्णु. भगवान, का आधा भाग
कैशल्या के गर्स से पुत्र रुप में उत्पन्न हुआ | इस अमित तेजस्वी
पुत्र के उसपक्ष होने पर कैशल्या जी की बेती ही शोभा हुई, जैसी
कि, देवताओं के बरदान से इन्द्र द्वारा अदिति की हुई थी। सत्य
पराक्रमी' भरत कैकेयो के गंभ से उत्पन्न हुए ॥ ११ ॥ १२॥
साक्षादिष्णोश्रतुर्भाग: सवैं; सम्युदितो गुणेः ।
| कि +
अथ लक्ष्मणशत्रुप्ती छुमित्राजनयत्सुतों ॥ १३ ॥
भरत जी विधठ्ठ भगवान् का चतुर्थाश थे झोरए सब गुर
से युक्त: थे ।.छुमिन्ना 'के गर्भ-से. लक्ष्मण भोर शन्रुघ्न उत्पः
हुए ॥ कै ॥। | ॥॒
: सर्वास्त्रकुंशलो वीरो विष्णे/रधेसमन्वितों ।
पुष्ये जातस्तु भरतों मीनरूम्ने प्रसन्तधी। ॥ १४ | '
ये दोनों विष्णा के श्रएमोश थे शोर सब प्रक्ार के अत शख्र
चलाने की विद्या में: कुशल शुस्वीर थे । पुष्य नक्तत्र और मीन
लक् में, खदा प्रसन्न रहने चाले भरत ज्ी;का जन्म हुआ ॥ १४॥ ७
सा्पे जाता च सोमित्री कुलीरेण्थ्युदिते रवौ ।
राज; पुत्रा महात्मानशत्वारो जज्ञिरे पृथक ॥ १५ ॥| -'
ध्रण्टद्शः सर्गः १७३
... श्केपा नज्ञत्र ओर कर्क लम्न में, सयेद्य के समय लक्ष्मण
शभध्न का जन्म दुप्प्र। महाराज के चारों पुत्र पृथक पृथक गुणों
ताले पेंद्रा हुए॥ १४ ॥
शुणवन्तोअ्जुरूपाथ रुच्या प्रोष्टपदापमा।
जग्मु; कल च गन्धवा ननृतुआाप्सरोगणा! ॥ १६ ॥
देवदुन्दुभये नेदुः पुष्पद्ष्टिथ ख़ाच्च्युता |
उत्सवश्र महानासीदयेध्यायां जनाकुछा। ॥ १७ ॥
चारों पुत्र गुणवान् और पूर्वा व उत्तरा भाद्पद नक्षत्रों के तुल्य
कान्ति युक्त थे । इनके जन्म के समय गन्धवों ने मधुर गान किया,
ध्ष्सराय नाचीं, देवताशों ने वाजे वजाये, और आकाश से पुष्पों
को चर्षा हुई । इस्त प्रकार पध्योध्या में बड़ी धूमधाम से उत्सव
हथ्या और ज्ागों की बड़ो भीड़ द्ई्॥ १६ ॥ १७ ॥
रध्याथ जनसंबाधा नदनतेकझ्ु छा; |
गायनेश्व॒ विराविण्ये। वादकेश् तथाप्परे: ॥ १८॥
धयाध्या में घर घर आनन्द की वधाई बजने लेगी । गली कूचों
में जिधर देखो उधर लोगों की भीड़ लगी हुई थी और वेश्या, चर
नदी आदि गा बजा रहीँ थीं॥ १८॥
प्रदेयांश्व ददों राजा सूतमागधवन्दिनाम् |
व्राह्मणेश्ये। ददो वित्त गेधनानि सहस्रश) ॥ १९ ॥
इस उत्सव में महाराज दशरथ ने छूत, मागश्र शोर बन्दीगण
के परितेोषिक यानी " सिशेया ” और ब्राह्मणों के धन और वहुत
गी गैचें दीं ॥ १६ ॥
अतीत्येकादशाह तु नामकर्म तथाओकरोत् ।
ज्येष्ठ राम॑ महात्मान॑ भरतं कैकयीसुतम् ॥ २० ॥
चा० रा०--१०
१७७ वालकागणडे
बारहवें दिन चारों शिशुक्रों का नाम-करण संस्कार क्रिय
गया । सब से बड़े भ्र्थात् कैशल्यानन्द-चर्न का नाम श्रीरामचर्
घोर कैकैयो के पुत्र का नाम भरत रखा गया ॥ २० ॥
सौमित्रिं लक्ष्मणमिति आन्रुप्तमपर॑ तथा |
वसिष्ठ परमप्रीतो नामानि कृतवांस्तदा ॥ २१ ॥
छुमित्रा जी के पुत्रों का नाम लक्ष्मण और शज्नुप्न रखा गया।
यह नाम-करण-संस्कार बड़े हर्ष के साथ वशिष्ठ जी ने किया ॥११॥
ब्राह्मणान्भेजयामास पेरजानपदानपि |
अद्ददब्राह्मणानां च रत्नोघममितं वहु ॥ २२ ॥
इस दिन पुरवासियों के और वाहिर से श्माये हुए ब्राक्षणों
के मद्दाराज़ ने भाजन कराये और ब्राह्मणों के वहुत से रत
बाँदे ॥ २२॥
तेषां जन्मक्रियादीनि सदकमाण्यकारयत् |
तेषां केतुरिव ज्येष्टी रामे रतिकरः पितुः ॥ २३ ॥
इन सब बालकों के ज्ञातकर्म, भ्रन्नप्राशनादि संस्कार महाराज
से यथासमय फरवाये । इन चारों में कुल की पताका फे समान
शीयमचन्द्र् अपने पिता दशरथ के अत्यस्त प्यारे थे ॥ २३ ॥
बसूव भूयों भूतानां खवयंभूरिष संमतः ।
सर्वे वेदविद) शुरा सर्वे लेोकहिते रता। ॥ २७॥ .
यद्दी नहीं, वलिक्ति थे ब्रह्मा जी की तरह सब ल्ागों फे महक
थे। चारों राजकुमार वेद के जानने वाले, श्र और सब ले!
दितिषो थे ॥ २४ ॥
अरष्टाद्शः सगे १७४
सर्व ज्ञानोपसंपन्ना। सर्वे समुदिता गुणे! ।
तेपामपि महातेजा राम; सत्यपराक्रम/ ॥ २५ ॥
यद्यपि सब राजकुमार परम ज्ञानो और संगुण सम्पन्न थे
तथापि उनमें मद्ातेजल्वी ध्रोए सतध्यपराक्रमी श्रीरामचन्ध ज्ञी ॥२५॥
इृष्ठ; सवस्य ले।कर्य शशाह्ू इप निमेल:
गनस्कन्पेरवपृष्ठे च रथचर्यातु संगत; ॥ २६-॥
निर्मल चन्द्रमा क्री तरद सव के प्यारे थे। उनके द्वाथी के
कंधे पर ओए घोड़े क्नी पीठ पर तथा रथ पर वैठना वहुत पसंद था |
थ्रर्थात् हाथी, घाड़ा प्रीए रथ स्वयं हाँकने का शोक था ॥ २६ ॥
धनुर्वेदे च निरतः पिदशुश्रपणे रत;
वाल्पात्मभृति सुस्निग्धे। लक्ष्णो लक्ष्मियधन। ॥२७॥
रामस्य लाकरामस्य श्रातुर्ज्येप्ठस्य नित्यश:
सर्वप्रियकरस्तस्य रामस्यापि शरीरतः || २८ ॥
दे घनुर्विद्या में नियुण थे झोर सदा पिता की सेवा में लगे
रहते थे | लक्तमी फे वढ़ाने वाले लत््मण जी लड़कपन ही से प्रपने
ज्लाकदितेवी श्रथवा लेकामिराम स्येष्ठ श्नाता भ्रीरामचन्ध जी की
ध्ात्षा में सदा रहते थे शोर श्रीयमचन्द्र जी फो आपने शरीर से
बढ़ कर चाहते थे ॥ ए७ ॥ श्८ ॥
लक्ष्मणो लक्ष्मिसंपन्नो वहि।प्राण इवापरः ।
न च तेन बिना निद्रां लभते पुरुषोत्तम; ॥ २९ ॥
मृष्ठमन्नमुपानीतमश्चाति न हि त॑ विना |
यदा हिं हयमारूढे मुगयां याति राघवः ॥ ३०॥
१७६ वालकायडे
लक्ष्मी से सम्पन्न लक्ष्मण जी का श्रीरामचन्द्र जी अपन
दूसरा प्राण ही मानते थे और इतना चाहते थे कि, विना उनके||
ते से।ते ओर न कोई मिठाई दी खाते थे । जब श्रोरामचन्द्र जी घोड़े
पर सचार दवा कर शिकार खेलने जाते ॥ २६ ॥ ३० ॥
तदेन॑ पृष्ठताउभ्येति सधनुः परिषालयन् |
भरतस्यापि शत्रुध्ने लक्ष्मणावरजाो हि सः ॥ ३१ ॥
प्राणै; प्रियतरो नित्यं तस्य चासीत्तथा प्रिय) ।
पर [थ प्रिगे है
स चतुर्मिमहाभागेः पुत्रेदशरथः प्रियेः || ३२ ||
तब लक्ष्मण जी धह्ठुप हाथ में ले उनके पोछे पीछे है| लिया
करते थे | भरत ज्ञी के सी शन्नष्न उसी प्रकार धाणों के समान
प्रिय थे, ज्ञिस प्रकार श्रीगमचच जी के लक्त्मण | इन चारों
महाभाण्यशाली पुत्रों से महाराज दशरथ ॥ ३१ ॥ ३५॥
वभूव परमप्रीतो वेदेरिव ,पितामह) ।
ते यदा ज्ञानंसंपन््ना; सर्वे सम्ुदिता गुणेः ॥ ३२३ ॥
वेसे ही प्रसक्ष रहते थे जैसे चारों वेदों से ब्रह्मा जो । उन चायें
।नी, सव शुणों से युक्त ॥ ३६ ॥
हीमन्तः कीर््तिमन्तथ सबज्ञा दीघंदर्शिन!
. तेपामेबंप्रभावानां सर्वेषां दीक्रतेजसाम ॥ ३४ ॥
लजाल्ु, कीतिमन्त, सर्वक्ष, दुरदृर्शों पुञ्रों का प्रभाव व तेज
दंख, ॥ २७ 0
पिता दशरथे हषडई्े बह्मा लाकाधिपे यथा |
ते चापि मजुजव्याप्रा वेदिकाध्ययने रता। ॥ ३२५ ॥
छणशदशः सर्गे १४७
उनके पिता महाराज दशरथ बसे दो प्रसन्न द्वोते थे जैसे ब्रह्मा
'जी ज्ञाकपालों से अथवा दिक्पालों से । वे चारों पुरुषसिंह
जंकुमार ददाध्ययपन म नरत रहते थ ॥ ३५ ॥
पिदृशुश्रृूपणरता धर्जतेंद्रे च निष्ठिता:
अथ राजा दशरथस्तेपां दारक्रियां प्रति ॥ ३६ ॥
चिन्तयामास धर्मात्मा सापाध्याय। सवान्धव) ।
तस्य चिन्तयमानस्य मन्त्रिमध्ये महात्मन! ॥ ३७ ॥
अभ्यागच्छन्पहातेजा विश्वामित्रों महाप्रुनि) ।
स राज्ों दशनाकाड़ी द्वाराध्यक्षानुवाच ह॥ ३८ ॥
वे पिता की सेवा किया करते थे और धनुविद्या में निछठा
रखते थे | उनके विवाह के लिये महाराज दशरथ उपाध्यायों ओर
कुटुम्ियों तथा मंत्रियों से ललाह कर रहे थे कि, इसी वीच में
महाप्तुनि महातेजस्थी विश्वामित्र पधारे। थे मद्राराज से प्रि्ने
की प्रमित्ञापा से व्योढोदार से चाके || ३६ ॥ ३७ ॥ १८ ॥
शीघ्रमाख्यात मां प्राप्त काशिक गाधिन। सुतस् |
तच्छु ता वचन त्रासाद्राज्ञो वेश्म परदुद़्व! ॥ ३९ ॥
तुस्त ज्ञाकर मद्दाराज़ के सूचना दे कि, गाधि के पुन्न आये हैं ।
यह सुन और भयभीत दो द्वारपाल् राजग्रह की और दोड़े ॥ ३६ ॥
संश्रान्तमनसः सर्वे तेन वाक्येन चादिताः
ते गत्वा राजभवन विश्वामित्रम्मूषि तदा || ४० ॥
प्राप्तमावेदयामासुरपायक्ष्याकवे तदा ।
तेपां तहचन श्रुत्वा सपुरोाधा। समाहितः ॥ ४१ ॥
१४८ वालकायडे
विश्वामित्र जी के कहने पर उन्दोंने बड़े आदर के साथ राजभवन
में जाकर विश्वामित्र जी के पाने का संचाद, मद्ाराज़ दशरथ
से निवेदन किया | उनका श्रागम्न खुन, महाराज प्रसन्न दी ओर
चशिष्ठ जो का साथ के ॥ ४० ॥ ४१॥
प्रत्युज्जगाम त॑ हुष्टो प्रह्माणमिच वासव३ |
स दृष्ठरा ज्वलित दीप्त्या तापसं संशितत्रतम् || ४२ ॥
विश्वामित्र जी से मिलने उसी प्रकार गये, जिस प्रकार ब्रह्मा
जी से मिलने इन्द्र जाते हैं। तेज से देदोप्यमान, महातपरची, अति
कड़े नियमों का पालन करने वाले शोर प्रसश्नमुख विश्वामित्र जी
के खड़ा देख ॥ ४२ ॥
प्रहष्टवदनो राजा ततोष्ध्य समुपाहरत् ।
स राज्ञः प्रतिगरह्ाघ्य शास्रदष्टेन कमंणा ॥ ४३ ॥
महाराज ने प्रसन्न द्वो शास्त्र-विधि के प्जुसार उनके प्र्ष्य
प्रदान किया । मद्दाराज से अध्य ले ॥ ४३ ॥
कुशल चाव्ययं चेव पर्यपृच्छननराधिपम् |
पुरे कोशे जनपदे वान्धवेषु सुहत्सु च॥ ४४ ॥
विश्वामित्र जी ने महाराज से पुर, काश, राज्य, कुठुम्ब और
इष्टमित्रों की कुशल पू छी ॥ ४४ ॥
कुशल कौशिको राज्ः पर्यपृच्छत्सुधार्मिकः ।
अपि ते सन्नता! सर्चे सामनन्ता रिपवे। जिता। ॥७५ा।
५ क्िश्वामिन्न ने कुशल पूछते हुए अत्यन्त धामिक महाराज से
पू छा--आपके समस्त सामन्त प्यापके अधीन रहते हैं ? श्मापने
! शझपने शलन्ुओं का ते जीत कर धपने वश में कर रखा है? ॥ ४४ ॥
|
झष्टादशः सर्गः १४६
देच॑ च मालुपं चापि कम ते साध्वनुष्टितम ।
- वसिष्ठ व समागम्य कुशल गुनिपुज्ञव) ॥ ४६॥
यह्ादि देवकर्, तथा प्रतिधियों का सत्कार प्रादि कर्म, भल्नी
भाँति होते हैं? फिर विश्वामित्र जी ने मुनिश्रेष्ठ चशिप्ठ ज्ी से
कुशल पू छी ॥ ४६ ॥
ऋषीबान्यान्यथान्याय॑ महाभागानुवाच है ।
ते सर्वे हृष्टमनसस्तस्य राज्ञो निवेशनस् ॥ ४७ ॥
इसके वाद विश्वामित्र जो ने यथाक्रम भश्ात्य ऋषियों
( ज्ञाचालादि ) से कुशल मड़ल पूं क्वा। तव वे सव प्रसन्नमन महा-
राज के समा-भमघन में गये ॥ ४७ [|
विविद्ञु) पूजितास्तत्र निपेदुश्॒ यथाहतः |
अथ हृष्टमना राजा विश्वामित्रं महामुनिम् ॥ ४८ ॥
धहाँ वे लोग यथाचित पूजे जा कर यथेाचित झासनों पर बैठ
एये। तव महासज्ञ दशरथ प्रसन्न, हो मद्यामुनि विश्वामित्र
ज्षी से वाले ॥ ४८५॥
उवाच परमेदारो हृष्टस्तमभिपूजयन् |
यथापम्ृतस्य संप्राप्तियथा वमनूदके ॥ ४९ ॥
यथा सद्शदारेप पृत्रजन्माप्रजस्य च |
प्रनष्टस्य यथा लाभे यथा हें महेदये ॥ ५० ॥
तथंवागमन मन्ये खागतं ते महाप्॒ने ।
क॑ च ते परम काम करोमि किम्रु हर्पितः ॥ ५१॥
परमदाता महाराज श्ादर पूर्वक वेाले-है महरषें | श्ापके
ध्रागमन से मुझे वैसा ही खुख प्राप्त हुआ है जैसा कि, प्म्ृत के
१५० वालकायडे
मिलने से, खूखती हुई खेती के वर्षा होने से, अपुत्रक का पुत्र के
जन्म से ओर टोठा उठाने वाले को लाभ होने से खुख प्राप्त दोत
है।। है प्रहामुने ! में आपका सदर्ष स्वागत करता हैँ; कहिये मे:
लिये क्या भआाज्ञा है ॥ ४६॥ ५० ॥ ४१॥
पात्रभतोडसे मे प्रह्मन्दिष्टया प्राप्तीई्सि धार्मिक |
अद्य मे सफल जन्म जीवित॑ च सुनीवितम् ॥ ५२ ॥
शापकी कृपादष्टि मेरे ऊपर पड़ने से में खुपात् और धार्मिक
बन गया । ध्याज मेरा जन्म सफन्न हुआ झोर मेरा ज्ञोवन खुजीवन
हुआ ॥ ५२॥
पूर्व राजर्पिशब्देन तपसा द्योतितप्रभः ।
व्रह्मर्पित्वमनुमाप्तः पूज्येजसि वहुधा मया ॥ ५३ ॥
श्राप प्रधम जब राजषि थे, तभी ध्राप बड़े तेजस्वी थे, फिर
धव ते धाप ब्रक्कपि पद्वी फे प्राप्त होने से सब प्रकार से मेरे
लिये श्रत्यन्त पूज्य हैं ॥ ५३ ॥
तदद्भुतमिदं त्रह्मन्पवित्रं परम मम |
शभक्षेत्रगतश्राह तव संदशनातद्भा ॥ ५४ ॥
आपका आगमन पघधवति पवित्र योर अदभुत देने से आपके
शुभद्शन कर मेरा शरोर भी पवित्र हे गया अथवा यह स्थान
पवित्र है गया ॥ ५४ ॥
ब्रहि यतद्मारथितं तुम्य॑ कार्यमागमन प्रति |
इच्छाम्यनुग्रहीतेऊह त्वदथपरिदृद्धये ॥ ५५ ॥ हु
४ भाप जिस काम के लिये पधारे हैं। चद वतल्लाधये। में चाहता
हैँ कि भ्रापकी सेवा कर में अनुग्रद्दीव दोऊँ ॥ ५५ ॥
हा
अष्टादूशः सर्मः १४१
कार्यरय न विमश च गन्तुमहंसि काशिक |
कर्ता चाहमशेषेण देवत॑ हि भवान्मम ॥ ५६॥
हे कोशिक | आप किसी वात के लिये सह्गोच त करें ; मैं
आपके सव फार्य करूँगा । क्योंकि आप ते मेरे देवता हैं ॥ ४६
मम चायमजुप्राप्तो महानभ्युदये। द्विज ।
तवागमनजः कृत्स्नो धमंश्रानुत्तमो मम ॥ ५७ ॥
है ब्रह्मपि | आपके पधारने से मेरा मानों भाग्य जागा श्रोर
बड़ा पुए्य हुघ्था ॥ ४७ ॥
इति हृदयसु् निशस्य वाक्य
श्रुतिसुखमात्मवता विनीतमुक्तम् ।
प्रथितगुणयश्ञा मुणर्विशिष्ट।
परमऋषिः परम जगाम हपम् | ५८ ॥
इति धअष्टादश+ सगं।॥ * -.।,
महाराज दशरथ के इन हृदय के छुक्ष देने वाले, शास्रातु-
मेदित और विनप्त वचन खुन कर, बड़े यशस्त्री शऔऔैर सर्वंगुण-
सम्पन्न मद॒पि विश्वामित्र जी परम प्रसन्न हुए ॥ ४८॥
वालकायड का प्रठारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ |
++है+-
एकोनविंशः सर्गः
हल
तच्छु त्वा राजसिंहस्प वाक्यमद्भुतविस्तरम् |
हृष्टरोमा महातेजा विश्वामित्रोड्स्यभापत ॥ १ ॥
राजसिंद महाराज दशरथ के अदभुत और विस्तृत वचन छुन
महातेजस्वी विभ्वामित्र हर्षित है कहने लगे ॥ १॥
सदश राजशादूर तथैतद्भुवि नान्यथा ।
महाव॑शप्रसूतस्य वसिष्ठव्यपदेशिन; ॥ २ ॥
दे राजशादूंज ! ऐसे वचन श्राप जैसे इक्चाकुबंशी और वशिष्ठ
जी के यज्ञमान का छोड़ और कैान कद्देया ॥ २ ॥
यत्त मे हृदगतं वाक्य तस्य कायरय निश्चयम् |
कुरुष्व राजशादूल भव सत्यप्रतिश्रवः ॥ रे ॥
. दे राजशादूंल! शव में अपने मन की वात कहता हैँ। उसके
अनुसार कार्य कर के आप अपनी प्रतिज्ञा के सत्य कीजिये ॥ ९ ॥
_ अहं नियममातिष्ठे सिद्धचर्थ पुरुषर्षभ |
तस्य विप्नकरी दो तु राक्षसौं कामरूपिणों ॥ ४ ॥
हे नरश्रेष्ठ | में जव फल प्राप्ति के लिये यह्षद्वीत्षा अदण करता हैँ
तव दे! कामरूपी राक्षस शआ्राकर विष्न किया करते हैं ॥ ४॥
ब्रते मे बहुशश्रीर्णे समाप्त्यां राक्रसाविमा ।
ते मांसंरुधिगेघेण वेदिं तामभ्यवर्षताम || ५ |
एक्कानविशः सर्गः १४३
।,. जब बहुत दिन तक किया हुप्रा यक्ष पुरा दोने के छ्षिता है, तव
: पै,शत्तस आकर यपवैदो पर माँस मोर रधि: वरसाते हैं ॥ ५ ॥
अवधूते तथाभूते तस्मिन्नियमनिश्रये |
कृतश्रगे। निम्त्साइस्तस्मादेशादपाक्रमे || ६ ॥
इससे मेरा य्त भ्रष्ट हो जाता है और में निरुत्सादित दो कर
घह्ाँ से हुट जाना 9 ॥ 5 ॥
न च में क्रोपस॒त्मप्टं बुद्धिभवति पार्थिव ।
तथायूता हि सा चर्या न शापस्तत्र मुच्यते ॥ ७॥
है राजन ! इस यक्ष में क्रोथ करना बर्शित होने के कारण में
उनके जाए भी नहीं दे सकता ॥ ७ ॥
खपुत्र राजशादल राम सत्यपराक्रमम् |
काकपक्षपर श्र ज्येष्ठ मे दातुमहसि || ८ ॥
प्रतपव है राजशार्टल ! सत्यपराक्रमी और सीम्त पर झुब्फे
रखाये हुए और शूर अपने ज्ये्ठ राजकुमार भ्रीरामचन्द्र का मुकके
दीजिये ॥ ८॥
शक्तों धोप मया गुप्तों दिव्येन सेन तेमसा |
राक्षसा ये विकर्तारस्तेपामपि विनाशने ॥ ९ ॥
थे मेरी तपस्या के तेज् से रक्तित है| मेरे यक्ष की रक्ता करेंगे
प्शर विध्वकारी राक्तसों को भी नष्ट करंगे ॥ ६ ॥
श्रेयआरस्म प्रदास्यामि वहुरूपं न संशय; |
त्रयाणामपि छेकानां येन ख्यातिं गमिष्यति ॥१०॥
१४७ - वालकायणडे
' जैं इनके ऋल्याण के लिये ऐसी ऐसी अनेक विधियां और,
कियाएँ इन्हें बतलाऊँगा; जिससे इनकी ख्याति तीनों लोक हे
होगी ॥ १० ॥ ट
न च ते राममासाद शक्तों स्थातुं कंचन ।
न च ते राधवादन्या हन्तुमुत्सहते पुमान् ॥ ११ ॥
' श्रीराम जी के सामने वे कभी दिक् न सकेंगे और अन्य मनुष्य
के वे कुछ भो न गिनेंगे । श्रर्थात् श्रीयमचन्द्र जी का छोड़ और
कोई भी मनुष्य उन्हें नहीं मार सकता ॥ ११॥
वीयेत्सिक्तों हि ता पापो कालपाशवश गते |
५ रथ
रामस्य राजशादूल न पर्याप्तो महात्मनः ॥ १२ ॥
क्योंकि वे दोनों गर्वीजे पापी बड़े वलवान हैं; किन्तु अब
उनके मरने का समय भरा गया है| है राजशाईल ! वे श्रोरामचन््र
की वरावरो नहीं कर सरूते ॥ १२॥
न च पुत्रकृतं स्नेह कतुमहसि पार्थिव ।
अई ते प्रतिजानामि हते ते! विद्धि राक्षसों ॥१श॥
है राजन | इस समय शाप पुश्नस्नेह के वशत्रत्तों नहाँ। मैं
आपसे प्रतिक्ञापूवक कहता हूँ कि, आप उन राक्षसों के मरा हुआ
ही सममिये ॥ १३ ॥
अहं वेज्नि महात्मानं राम सत्यपराक्रमस् |
वसिष्ठोअपि महातेजा ये चेमे तपसि स्थिता)॥ १४॥"
ेु में, महातेजरदी चशिष्ठ तथां ये तपरुत्ी महात्मा, सत्यपराक्रमी ६
क्रीरामचन्द्र के ज्ञानते हैं॥ १४ ॥
रत ०
यदि ते धर्महा थे यशश्र परम झुत्रि ।
स्थिरमिच्छसि राजेन्द्र राम॑ मे दातुमसि ॥ १५ ॥
हर यदि थ्राप इस संसार में धपने लिये सब से बढ़ कर पुएय
घोर यश के स्यायो बनाना चादते हों, ते मे राजेंद्र ! श्रीसम जी
फे मेरे साथ भेज दोजिये॥ २४ ॥
ययभ्यनुत्ां काऊुत्स्य ददते तव मन्त्रिण। |
वसिप्ठपमुखा: सर्वे ततो राम॑ विसनय ॥ १६ ॥
श्राप चश्रिह्ठ श्रादि अपने मंत्रियों के खाथ परामर्श कर लें
भरि यदि ये भाग आपके अनुकूल परामर्श दें, तो श्राप श्रीराम
के मेरे साथ मेज दीजिये ॥ २६ ॥
अभिमेतमसंसक्तमात्मम हर (
अभिप्रेतमसंसक्तमात्मनं दातुमहसि ।
दशरात्र हि यज्ञस्य राम रानीबछाचनम् || १७ ॥
मेरा यक्ष पूरा कराने के लिये दस दिन के राजीवलोचन
धोरामचन्द्र जी का मु्े तुरन्त दे दीजिये ॥ २७ ॥
नात्येति काछे। यज्ञस्य यथारयं मम्र राधव |
तथा कुरूप्य भद्र॑ ते मा च शेके मनः कृंथा। ॥१८॥
घेसा फौजिय शिससे मेरे यज्ञ का समय न निकलने पावे |
आपका फल्याग हो । आप मन से दुखी न हैं। ॥ १८ ॥
इत्येवसुक्त्वा धर्मात्मा धर्मायसह्ित बच |
व्रिराम महातेजा विश्वामित्रों महाय्॒निः ॥ १९ ॥
१५६ वालकायडे
धर्मात्मा मद्दातेजस्वी महापुनि विश्वाम्रित्र जी धर्मार्थथुक इन
चचनों के। कद कर चुप दे! गये ॥ १६ ॥ ॥
स तन्निशम्य राजेन्द्रो विश्यामित्रवचः शुभम् |
शेककममभ्यागमत्तीत॑ व्यपीदत भयान्वित) ॥ २० ॥
विश्वामित्न को इन शुभ वातों का खुन कर, मदाशाज्ञ दशरथ
बहुत डरे और अत्यन्त हुखी दा उदास हो गये ॥ २० ॥
इति हृदयमनोविदारणं
मुनिवचन तदतीद शुश्रुवान् |
नरपतिरगमद्गभयं महद-
व्यथितमना; प्रचचार चासनाद् ॥ २१॥
इति एकेनविशः सर्गः ॥ .
महाराज्ञ दशरथ हृदय ओर मन के घिदोर्ण करने वाले वचन
छुन ओर प्रत्यन्त भयभीत और विक्रल दो कर सिंहासन से
घूच्छित हे। गिर पड़े ॥ २१ ॥
वाल्काण्ड का उन्नीसर्वा सर्ग समाप्त हुआ |
+-++औ----
दर विश श्
विशः सगे;
- +-+ ४९३७०७-
तच्छ त्वा राजशादूले। विश्वामित्रस्य भाषितस् ।
मुहृतमिद निःसंज्ञ) संज्ञावानिदमब्रवीत् ॥ १॥
विशः सर्गे १५७
, , विश्वाम्रित्र जो का कथन सुन महाराज दशरथ एक मुहत्त तक
असचत रहे । तदनम्तर सचेत दे कर यद्द वेके ॥ २॥
उऊनपोइ्शवर्पी में रामे रानीवराचनः ।
ने युद्धयाग्यतायस्य पश्यामि सह शक्षस; ॥ २ ॥|
मेरे राजीनलीनन धीराम ध्भो क्रेवतत पत्धद वर्ष ही की उम्र
कू। मैं उतहें झिसो भो तरह राक्तर्सा के साथ छड़ने याग्य नहीं
सममता ॥ २॥
इयमक्तीहिणी पूर्णा यस्याई पतिरीश्वरः ।
अनया संहतो गला योद्धाऊं तर्नियाचरः ॥ ३े ॥|
पेश पास जे बढ़ी भारी सेना है, उसके साथ के कर में उन
रात्षसों से जह्ं गा ॥ ३॥
इमे शराश्र विक्रान्ता भृत्या मेज्ल्त्िशारदाः ।
न गोगणयोद्ध ७, दा >ण ५
याग्या रक्षोगणयोद्ध न राम नेतुमहंसि ॥ ४ ॥
ये मेरे शूर, पराक्रमी प्रोर युद्धवियया में दत्त, पेतनमागी येद्धा
रात्तसों से युद्ध करने येन्य हैं। आप राम के न ले जाइये ॥ ४॥
क थतुप्पाणिगांतता | समरमृः एः
अहमेब पंनि।
यावत्माणान्धरिष्यामि तावबोत्स्पे निशाचर। ॥५॥
में स्वयं घनुप वाण लिये हुए सणतेत्र में खड़ा हुआ, जब तक
शरीर में प्राण रहेंगे, राक्तसों से लड़ता रहेगा ॥ ५ ॥
निर्विन्ना व्तचयों सा भविष्यति सुरक्षिता ।
अं तत्र गमिष्यामि न राम॑ भेतुमहसि ॥ ५ ॥|
श्धर८ । वालकाणडे
घापको घवतचर्या निर्विष्न समाप्त दोगी। में स्वयं व्दां जञाऊँगाई
झाप भ्रीराम जी को न ले जाइये ॥ ६ ॥
वाले ह्ृकृतविद्यश्व न च वेत्ति वलावलम |
न चास्रवलसंयुक्तों न च॒ युद्धविशारद। ॥ ७ ॥
क्योंकि श्रीराम श्भी निरे वालक हैं, वे न तो भन्ुभवी हैं,
न शत्रु के वल्लावल के समझ सकते हैं शोर न युद्धचिधा में
कुशल हो हैं ॥ ७ ॥
न चासी रक्षसां येग्यः कूट्युद्धा हि ते भ्रुवम् ।
विप्रयुक्तो हि रामेण मुहृतमपि नेत्सहे ॥ ८ ॥
आप जानते हैं राक्तस युद्ध करते समय ऋूल कप८ करने में
फैसे कुशल दोते हैं। श्रोरामचन्द्र उनका सामना करने योग्य नहीं-+.
में श्रीयराम का उनके साथ युद्ध करना कभो खहदन नहीं कर
सकता ॥ ८ ॥
जीवितुं मुनिशादूल न राम॑ नेतुम्ईसि ।
यदि वा राघवं ब्रह्मन्नेतुमिच्छसि सुत्रत ॥ ९ ॥
चतुरज्ञसमायुक्त॑ मया.च सह तं नय |
पष्टिवेषसहस्राणि .जातस्य मम कौशिक ॥ १० ॥
' दु!खेनात्पादितश्ायं न राम॑ नेतुमहसि ।
चतुणामात्मजानां हि प्रीति! प्रमिका मम | ११ ।
भधीराम के वियेण में में चण भर भो नहीं जीवित रह सकता।
अतः दे घुनिवर | ध्राप उनके न ले जाइये और यदि उनके
्ऊ
5
विधः सर्गः श्प्र््
पे ही ज्ञाना हे ते घुझ्ते ग्रर मेरी चतुरहिनी सेना के भी उनके
जमीय ही लेते चलिये | हैं विम्वामित्न | देखिये, साठ हजार वर्ष के
| बय में, बड़े कलश से से उत्पल हुए हैं। ध्यतः इनका न के ज्ञाइये । चारों
राज्षकुमारों में मेंस परम स्नेह भ्रीरामचन्द्र हो के ऊपर है॥ ६॥
2० ॥ ११ ॥
ीलिलिन | ०
ज्यप्ठ घमप्रथानं च ने राम नेतुमहसि |
क्रिदीया राक्षमास्ते चे ऋस्य पुत्नाथ के च ते ॥१२॥
बह धर्मप्रधान प्रार ज्येठ्ठ है। श्रतः राजकुमार श्रोरामचन्द् फे
धाप न ले जाइये। घच्छा, यह ते वतलाइये उस राक्षसों में वलल
कितना दे ओर थे फिनके बेटे हैं ॥ १२ ॥
कर्यंपमाणा; के चतानरक्षन्ति मुनिषुद्धन ।
कं प्रतिकर्त तेपां
करथ थे प्रतिकर्तेब्यं तेपां रामेण रक्षसाम् ॥ १३ ॥
वे कितने बड़े हैं श्र उनके सदायक्त कान कौन हैं और उन्हें
आदत क्रिस तरद मार सकेंगे ॥ २३ ॥
मामकेर्वा वरेअश्नन्मया वा छूटयेधिनास ।
सब में शंस मगवन्करथं तेपां मया रणे ॥ १४ ॥
स्थातव्यं दुष्टभावानां वीयेत्तसिक्ता हि राक्षस) ।
तस्य तहचन भ्रुत्रा विश्वामित्रोअभ्यभापत ॥ १५ ॥|
|... हें भगवन् ! यद सब मी वतलाइये कि, हमारे सेना और में उन
!. मायाबियों आर उन दुष्ट भाव वाले बड़े पराक्रमी रात्तसों के साथ
युद्ध में क्यों कर ठदर सकूंगा | मद्ाराज के वचन सुन विश्वामिन
जी घाले ॥ १७ ॥ १५॥
चा० रा०--१ १
१६० 'बालकाणडे
पुलस्त्यवंशप्रभवों रावणों नाम राक्षस; | झ्
स बह्मणा दत्तवरखेलेक्यं वाधते भुशम् ॥ १६ ॥
हे राजन, ! महर्षि पुलस्य के वंश में उत्पन्न रावण नाम का
श्तस, जिसे ब्रह्मा जी ने वरदान दे रखा है, तोनों लोकों के। वहुत
खताता है ॥ १६ ॥
'महावले। महावीये राक्षसैवेहुमिहेत ।
अयते हि.महावीयें रावणों राक्षताषिपः ॥ १७॥
चंह स्वयं वड़ा वल्लवान्, तंथा वड्ठा पराक्रमी है और उसके
श्मेक राक्षस अनुयायी हैं । सुनते हैं कि, वह महावीर रावण राक्तसों
का राजा है ॥ १७॥
साक्षाइअवणमप्राता पुत्रों विश्ववसा झुने! ।
यदा खय॑ न यज्ञस्य विप्नकर्ता महावल) [| १८+।
वह साज्ञात् कुवेर का साई पर विश्ववा मुनि का पुत्र है।
च्ह्द महावत्ती छोड यक्षों में स्वयं ते दिध्य नहीं करता, किन्तु ॥१८॥
तेन संचादितो दो तु राक्षतों सुमहावरो ।
भारीचश्र खुवाहुअ यज्ञविध्न॑ करिष्यतः) ॥ १९ ॥
उसंकी प्रेरणा से वड़े बलवान दो राक्तस जिनके नाम मारोच
और छुवाहु हैं, ऐसे यक्षों में विध्य डालते हैं ॥ १६ ॥
इत्युक्तो गुनिना तेन राजोवाचसुर्नि तदा |
न हि शक्तोज्स्मि संग्राम स्थातुं तस्य दुरात्मन। ॥२०॥
विशः सर्गः १६१
दिश्वामित्र के इन बचनों के सुच महाराज दशरथ उनसे कहने
लगे “कि, में तो उस दुरात्मा का सामना नहीं कर सकता ॥ २० ॥
४ स लू प्रसाद ध्मज्ञ कुरुष्ष मम पुत्रके ।
मम चेवाल्पभाग्यस्य देवत॑ हि भवान्युरे ॥ २१ ॥
है धर्मज्ञ! आप मेरे बच्चे पर और मुझ पर कृपा करें,
फ्योंकि ध्याए तो मुक्त भ्रदपरभाग्य चाले के फेपल देवता की तरह
पृथ्य ही नहों, किन्तु गुरु भो हैं॥ २१॥
देवदानवगन्धवां यक्षा। पतगपन्नगाः । |
न शक्ता रावण सेहुं कि पुनर्मानवा युधि ॥| २२ ॥ ,
जब देव, दानव, गन्वर्च, यक्त, पत्ती, श्रेर साँप भी रावण के
युद्ध में नहीं ज्ञीत सकते, तव फिर वेचारे मनुष्य किस गिनती
हें ॥ २२ ॥
स॒ हि वीयवता वीर्यमादतते युथि राक्षसः ।
तेन चाह न शक्नोमि संयेद्धं तस्थ वा वले। ॥२३॥
रावण युद्ध में बलवानों के वल फे ज्ञय कर देता है, प्यतण्य
मैं उसके प्रथवा उसकी फौज के साथ युद्ध कर पार नहींपा
घकता ॥ २३ | न
सबले वा झुनिश्रेष्ठ सहिता वा ममात्मज! । ,
कथमप्यमरप्रख्य॑ संग्रामाणामकेविदस ॥ २४ ॥ /
वाल मे तनय॑ व्रह्मन्नेव दास्यामि पुत्रकम् |
अथ कालोपमे युद्धे सुते सन्देपसुन्दये। | २५ ॥
१६२ ' वाल्नकायडे
यज्ञविश्नकरी ते ते नेव दास्यामि पृत्रकम् ।
मारीचथ सुवाहुअ वीर्यवन्तों सुशिक्षितो |
तयेरन्यतरेणाहं योद्धा स्यां ससुहृदगणः ॥ २६ ॥
एिर में उन लोगों के साथ लड़ने के लिये, अपने पुत्र फो, जे।
: देवताणों के समान रूप वाला है, युद्धविद्या में अदत्त है, फैसे भेज
सकता हूँ ? है प्रह्मन ! में धपने नन्हे से पुत्र को न दूँगा। छुन्द्
उपछुन्द के पुत्र मारीच और खुवाहु जे युद्ध में काल के समान हैं,
बड़े बलवान हैं. और युद्ध करने में पूर्ण दक्त हैं, ओर यज्ष में विष्न
करने वात्े हैं. उनके साथ लड़ने के लिये में अपने पुत्र को न
भेजूँगा। उनके छेड़ आप श्र जिसे कहें उसके साथ अपने पमिन्न
तथा बाँधवों सहित में लड़ने के तैयार हूँ ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६ ॥
इति नरपतिजस्पनादहिजेन्द -
कुशिकसुतं सुमहान्विवेश मन्यु) ।
सुहुत इब मखेअभिराज्यसिक्तः
समभवदुज्ज्वलिता महर्पिवद्धि ॥ २७ ||
ह इति विशः सर्गः ॥
महाराज दशरथ के इन धअसझ्भत चचनों के सुन, विश्वामित्र जी
अत्यन्त कुपित हुए। जिस प्रकार भत्नी भाँति घो को भ्राहुति पड़ने
से आग धघकती है, डसी प्रकार उनका क्रोधाप्मि ( दशरथ के
वचन रूपी छत की आहुति से ) घघधकने लगा ॥ २७॥
'वालकाण्ड का वीसवाँ सर्य समाप्त हुआ ।
न-ऋऑश्ेंत++
एकविशः सगे;
54
तच्छु त्वा वचन तस्य स्नेहपर्याकुलाक्षरस् ।
समन्यु) काशिके वाक्य प्रत्युवाच महीपतिम ॥ १॥
महाराज दशरथ के पुश्न॒स्तेह से सने वचनों का सुन, सुनिप्रवर
विश्वामित्र ज्ञी ऋच हुए और कहने लगे ॥ १॥
पूरमर्थ प्रतिश्र॒त्य प्रतिज्ञां हातुमिच्छसि ।
राघदाणामयुक्तोज्य॑ कुलस्थास्य विपयेयः ॥ २ ॥
दे राजन ! भाप महाराज रघु के वंश में उत्पन्न ही कर वात
कह कर पुकरते हैं | यह ते पजापक्ी वंशप्रपपरा से उददी
त्ञाव है और ठीक भी नहीं है ॥ २॥
यदीदं ते क्षम राजन्गमिष्याम्रि यथागतस् |
मिथ्याप्रतित्ञ! काकुत्त्य सुखी भष सवान्धव) ॥ ३ ॥
धअच्छा, यदि झापकी यही इच्छा है ते त्ते। में यह चला । आप
पपनी प्रतिक्षा में कर भाई बंदों सहित प्रसन्न रहिये ॥ ३ ॥
तस्य राोपपरीतस्य विश्वामित्रस्य धीमतः ।
चचाल वसुधा कृत्सना विषेश च भय॑ं घुरान् ॥७॥
इस प्रकार वुद्धिमान् विश्वामित्र के कुपित द्वोने . पर समस्त
'प्रथिवी हिल डठी और देवता लोग डर गये ॥ ४॥
त्रस्तरूप॑ तु विज्ञाय जगत्सव महारृपिः ।
नृपतिं छुत्रतों धीरो वसिष्ठो वाक्यमत्रवीत् ॥ ५॥ '
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१६8 बालकायडे
तब साई संसार के घस्त देख, श्रेउन्नतपरायण एवं घैर्यवान,
महर्षि चशिए जी, महाराज दशरथ से वाले ॥ ५ ॥
इक्ष्बाकूणां कुले जातः साक्षाद्धम इवापरः ।
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धृतिमान्सुत्रतः श्रीमात्र धर्म हतुमहेसि ॥ ६ ॥
ध्राप मद्दाराज इच्चाकु के कुल में उत्पन्न मानों सात्तात् धर्म
की दूसरो मूर्ति हैं । झ्राप भ्रोमान, घुतिवान, और खुबतथारी द्वो
कर, धर्म फा त्याग न करें ॥ ६ ॥
त्रिषु छेकेपु विख्याते धर्मात्मा इति राघव ।
धर्म 0 ०
खधम प्रतिपच्चस्र नाधम वेहुमहसि ॥| ७ ॥
तीनों छोकों में श्राप धर्मात्मा कह कर प्रसिद्ध हैं। अतएच
ध्याप अपने धर्म की रक्ता कीजिये, पअधर्म न कीजिये ॥ ७॥
संभ्ुत्येद॑ करिष्यामीत्यकृर्वाणस्य राघव ।
ए ०
इष्टापूतंवधे! भूयात्तस्माद्रामं विसजेय ॥ ८ ॥
' दे राजन ! जे कोई प्रतिज्ञा करके उसे पूरो नहीं करता है, उसे
इए #पूर्त के नाश करने का पाप लगता है । झतः भाप भ्रीरामचन्ध
जो के भेन्न दीजिये | ५॥
कृताखमक्ृतास्त्रं वा नेन॑ शक्ष्यन्ति राक्षसाः ।
गुप्त कुशिकपुत्रेण ज्वलनेनामृत॑ यथा ॥ ९ ॥
# इष्ट--इष्ट अश्वमेधघान्ती।याग$ । पूर्त'--बराष्यादि निर्माण । भाव ते
अभ्वमेघादि यह्ष इष्ट कदछाते हैं और कुभा, बावढ़ी, तालाव आदि घनवानोः
धूल)! कहलाता है |
या >>
एकविशः सर्गे १६४
श्ोरामचन्द्र चाहें अखविदया में कुशल होंया न हों, शत्तस
०8 कुछ भी नहीं कर सकते | फ़िर जब विश्वाप्रित्न उनके रत्तक
ह तव धीरामचन्द्र का कोई क्या कर सकता है। अरे अस्त की
रित्ती जब अगभिचवक्त से देती है % तव फ्या पअमसत को कोई पा
सकता है ॥ ६ ॥
एप विग्रहवान्धर्म एप बीयेबतां बरः ।
एप बुद्धचाधिका छोके तपसश्र परायणमस् || १० ॥
यह सिभ्वामित्र शरीर धारण फिये हुए धर्म हैं, यह वड़े बलवान
हैं, इनसे वढ़ कर बुद्धिमान और तपःपरायण इस संसार में तो -
दूसरा कोई है नहीं ॥ १० ॥
एपोअ्खान्विविधान्वेत्ति त्रछेाक्ये सचराचरे ।
ननमन्य; पुमान्वेत्ति न च वेत्स्यन्ति केचन ॥ ११॥
घनेक अर्त्रों के चलाने की विधियों के जानने वाले तीनों
'लोकों में तथा चर अचर में चह प्रकेले ही हैं।इनके स्वरूप का
क्षान हर किसी के नहीं हैं ओर न हो ही सकता है ॥ ११॥
ने देवा नपयः केचिन्नासुरा न च राक्षसाः ।
| के
गन्धवयक्षप्वरा। सकिनरमहारगा। ॥ १२ ॥
इनकी मद्दिमा को, देवता, ऋषि, पश्यछुर, राक्षस, गन्धर्य, यक्ष,
किन्नर और मदहेरग--कोई भी नहीं जानता ॥ १२॥
सर्वाख्राणि कृशाइवस्य पुत्रा! परमधार्मिकाः ।
केशिकाय पुरा दत्ता यदा राज्य प्रशासति ॥१ रे॥
7: ममर्त में छिषा है कि लत की रक्षा के छिये उसके चारों भोर +# सद्वाभारत में छित्रा है कि भछ्॒त की रक्षा के लिये उसके चारों ओर
चक्राकार श्म्ति जछा करता है ।
१६६ वालकायडे
छृशाश्य प्रजापति के परम धार्मिक पुत्रों ने विश्वामित्र की, जब
वे पहले राज्य करते थे, सव धततत्र दिये थे ॥ १३ ॥
तेअपि पुत्रा ऋशाश्वस्य भ्जापतिसु तासुता; |
नेकरूपा महावीयां दीप्तिमन्तों जयावहा। ॥ १४ ॥
वे कृशाश्व के पुत्र प्रशापति की कन्याओ्ं के पुत्र हैं, वे एक
रूप के महीं हैं, वे बड़े वलवान, दीपतििमाच ओर सब के जीतने में
समर्थ हैं ॥ १४ ॥
जया च सुप्रभा चैव दक्षकन्ये सुमध्यमे ।
ते सुवातेड््चशस्ाणि शत परमभास्वरस || १५ ॥
दक्तप्रजापति की दे कन्यानों जया ओर सुप्रभा ने सैकड़ों
ध्यति चमचमाते हुए अर शस्त्र उत्पन्न किये ॥ १५॥
पश्चाशर्त॑ सुतॉल्लेभे जया नाम परान्पुरा |
वधायासुरसेन्यानाममेयान्करामरूपिण! ।| १६ ॥
जया ने ४०० शस्त्र रूपी पुत्र उत्त्न किये धर्थात् ४०० प्रकार
[कप न गे
के घत्मों का ्राविष्कार किया जे कि, अमित वेज वाले थे और
मायावी प्सुरसेना का संघार करने में समर्थ हुए ॥ १६ ॥
सुम्रभाज्जनयच्ापि पृत्रान्पश्चाशर्त पुन ।
(९
संहाराज्ञाम दु्धपान््दुराक्रामान्वलीयस! | १७ ॥
किर खुप्सा के सी ४०० शस्मात्म रुपी पुत्र उत्पन्न हुए ध्र्थात्
शत्रु का संघार करने के लिये सुप्रभा ने भी ४०० श्रकार के प्यंद्व
शख्त्रों का आविष्कार किया। उनका नाम संघार पड़ा, इनका कक,
कोई भी शत्रु सह नहीं सकता । ये कमी निष्फल नहीं जाते, क्योंकि"
थे बड़े बलवान हैं ॥ १७ | हे
एकविशः सर्गः १६७
तानि चात्नाणि वेत्त्येप ययावत्कुशिकात्मज; |
( पर ९,
अपूदाणां च जनने शक्तो भूयश्व घमवित् ॥ १८ ॥
५ वे सब शर्म शख्रों के यथावत् विश्वामित्र जानते हैं। यही
नहीं, चल्कि इनके ध्तिरिक्त ओर नये नये शस्त्र शस्ष बनाने की
सामथथे भी इस घर्मात्मा में है ॥ १८ ॥
* तेनास्य घुनिम्मुरूयस्थ सर्वज्ञस्थ महात्मन! ।
न किंचिदप्यविदितं भूत्त भव्यं च राघव ॥ १९ ॥
है राधव ! इन प्ुनिप्रवर सर्वज्ञ महात्मा विश्वाम्रित्र को कोई भी
वात, जे हे! चुकी है या होने वाली है, अविदित नहीं है। अर्धात्
इनके त्रिकाल ज्षान प्राप्त है ॥ १६ ॥
एवंबीयें महातेजा विश्वामित्रों महातपा; ।
५, ५ (१८
न रामगयने राजन्संशर्य गन्तुमहसि || २० |
इन महातेजस्वी, महातपरुवी आर पराक्रमो जिश्वामित्र जी के
साथ भीरामचन के भेजने में जय भी व डरियि या किसी प्रकार
का सन्देद्र थ कीजिये ॥ २० ॥
तेपां निग्रदणे शक्त) स्वयं च कुशिकात्मजः ।
तब पुत्रहितार्थाय त्वामुपेत्यामियाचते ॥ २१ ॥
इम विश्वामित्र जी में इतनो सामर्थ है कि, ये उन राक्षसों के
स्वयं मार सकते हैं | यद्द तो ध्यापके पुत्र की भल्लाई के लिये ही
“उन्हें आपसे माँगने आये हैं ॥ २१ ॥
इति ग्रुनिवचनात्यसन्नचित्तो
रघुट्पभश्व मुमेद भाखराज़। ।
१६८ ' वाल्लकायडे
गमनमभिरुरोच राघवस्य
प्रथित्यशा) कुशिकात्मनाय बुद्धथा ॥ २२ ॥
इति एकविंशः सगगः ॥
गुरु चशिष्ठ के इस प्रकार समझाने पर महाराज दशरथ, श्रो-
रामचन्द्र ज्ञी के विश्वचिख्यात विश्वांमित्र के साथ भेज्ञने के
शाज्ञी है गये ॥ २२ ॥ '
बालकाण्ड का इक्कीसववाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
शा: शा
द्वाविशः स्गः
जन मी
तथा वसिष्ठे ब्रुवति राजा दशरथः सुत्तम् ।
प्रहछवदनो राममाजुहाव सलक्ष्मणम्र् | १॥
इस प्रकार वशिष्ठ जी के समझाने पर महाराज्ञ ने श्रीयमचन्द्र
ओर लक्ष्मण जी के बुलवाया ॥ १॥
कृतस्वस्त्ययनं मात्रा पित्रा दशरथेन च |.
पुरोधसा वसिष्ठेन मछुलेरभिमन्त्रितम् || २॥
और उनके भेजते समय कौशल्या, महाराज दशरथ तथा
कुलपुरादित वशिष्ठ जी ने स्वस्तिवाचन ओर मजुलाचार
किया ॥ २॥
स पुत्र मूध्न्युपाप्राय राजा दशरथः भियम् |
द॒दों कछुशिकपुत्राय सुभीतेनान्तरात्मना || ३ ॥
द्वाविशः सगे; १६६
महाराज दशरथ ने प्रसन्न है कर और पुत्रों के माथे सूंघ कर,
पैस्हें विश्वामित्र ज्ञी की सौंपा ॥ ३॥ ह
ततो वायु) सुखस्पश्ञों विरजस्क्रा बदों तदा ।
विश्वामित्रगतं दृष्ठा राम॑ रानीदलाचनम ॥ ४ ॥
पुष्पदृष्टिमंहत्यासीदेवदुन्दुभिनि!ःखनः ।
शह्लूदुन्दु 588 प्रयाते
ग्लंदुल्द॒ुभिनिधाष; प्रयाते तु महात्मनि ॥ ५ ॥
विश्वाप्िषर जी के साथ कमललेचन भ्रीरामचन्द्र ओर लक्ष्मण
जी के जाने के समय शीतक्त, मन्द ओर खुगन्वियुक पचन चलने
लगा, शआाकाश से पुण्पों की वर्षा हुई और देवताशों ने नगाड़े
वजाये। भयेध्या में भी जगद्द ज्ञगद राजकुमारों के ज्ञाने के समय
शद्गुष्वनि की गयी और नगाड़े वज्ञाये गये ॥ ४ ॥ ५ ॥
विश्वामित्रों ययावग्रे तते रामे! महायशा; |
काकपक्षघरे धनन््वी त॑ं च सोमित्रिरन्बगात् ॥ ६॥
सव से आगे विश्वामित्र थे, उनके पीछे महायशरुवी प्रीराम-
चन्द्र और उनके पोछ्े हाथ में धन्रुप लिये श्रौर सिर पर झुब्फो
रखाये सुमिन्नाननद श्रीलक्षण जी चन्ते जाते थे ॥ ६ ॥
कलापिनों धनुप्पाणी शेभयानों दिशे। दश ।
विश्वामित्र॑ महात्मानं त्रिशीपांविव पन्नगों।
अनुजग्मतुरशुद्रों पितामह मिवाश्विनों | ७ ॥
वड़े रूपवान और वलवान कैनों भाई, पीठों पर तरकस शोर
हाथों में घुप लिये तथा दूशों दिशाओं को छुशोमित करते हुए
१७० वालकाणडे
मुनि के पीछे ऐसे चत्ने जाते थे, मानों तीन सिर के सर्प जल्ने जाते हों
अथवा माने त्रह्मा जो के पीछे अश्विनीकुमार चल्ने जाते हों ॥ ७॥ *
तदा कुशिकपुत्र॑ तु धरुष्पाणी स्वलंकृतों |
बद्धगेधाड्युल्तित्राणो खद्बवन्तों महाद्ुती ॥ ८ ॥
कुमारों चास्वपुपों श्रातरों रामलक्ष्मणों ।
कै
अजुयातो शिया जुष्ठों शेमयेतामनिन्दितों ॥| ९ ॥
स्थाणु देवमिवाचिन्त्यं कुमाराविव पावकी ।
अध्यधेयेजनं गत्वा सरस्वा दक्षिणे ते ॥ १० ॥
उस समय घनुष धारण किये हुए, अच्छे प्रच्छे गहने पढिने
हुए, गेह के उमड़े के वने हुए दस्ताने हाथों में पहने हुए, तत्नवार
लिये हुए, महाद्युतिमान् दोनों छुन्दर भाई श्रीसमच्रन्द ज्ञी प्पौर
लक्ष्मण से छुनि उसी प्रकार छुशेमित हुए, जिस धर्ार शिवज्ञी '
स्कन्घ और विशाद्व से शामित द्वोते हैं| ज्रव अयेष्या से छः काश
दूर ससयू के दक्तिणतरट पर पहुँचे ॥ ८॥ ६॥ १०॥
रामेति मधुरां वार्णी विश्वामित्रोज्म्यभापत |
गृहाण वत्स सलिल मा भूत्कालस्य पेयः ॥ ११ ॥
तव वहां विश्वामित्र जी, श्रोरामचन्र से मधुर वाणी में वाले
कि, हे वत्स ! जल्न से शरीर शुद्ध कर डालो, अथदा धाचमन करे
अब विल्लंव मत करे ॥ ११ ॥|
मन्त्रआआर्म शहाण तव॑ बलामतिवर्ं तथा |
न भ्रम्ते न ज्वरे वा ते न रूपस्य विपयंय: ॥ १२॥ -
द्वाविश: सर्ग १७१
शरीर शुद्ध हे जाने पर हम तुम्हें वल्ला और अतिवल्ला विद्याएँ
'पढ़ावेंगे | इनके प्रभाव से न तो तुम्हें थकावट व्यापेगी न कभी
शरोर ज्वराक्रात्त द्वोगा; न तुम्हारे रूप की हानि होगी ( यानी
सूरत न विगढ़ेगी ॥ १२ ॥
न च सुप्र॑ प्रमत्त वा धपयिष्यन्ति नेऋता: |
न वाढ़ो! सदशे वीयें पृथिव्यामस्ति कथन ॥११॥
सेते हुए भी भश्वद्ध दशा में राक्तस लेाग तुम्हारा कुछ भी न
कर सकेगे। संधार भर में कोई भो तुम्दारे वाहुबल की समानता
न कर पादेगा ॥ १३ ॥
त्रिषु छोकेपु थे राम न भवेत्सदशस्तव ।
न साभाग्ये न दाक्षिण्ये न ज्ञाने बुद्धिनिश्रये ॥१७॥
सौभाग्य, दात्तिए्य, ज्ञान और चतुराई में तुम्हें तीनों लेकों में
कई भी न पंवेगा ॥ १५ ॥
नात्तरे प्रतिवक्तव्ये समे। लाके तवानघ |
एतद्वद्राइये लब्धे भविता नास्ति ते सम। ॥ १५॥
है राम ! इन विद्याश्रों के सीख लेने पर तुम्हारे वरावर उत्तर
देने में भी तुम्दारी समानता काई न कर सकेगा ॥ १४ ॥
वला चातिवला चैव सर्वज्ञानस्य मातरों ।
क्षुत्पिपासे न ते राम भविष्येते नरोत्तम ॥ १६॥
पुरुषोत्तम राम | सब विद्याओं की माताएँ इन वला अतिवत्ला
नास्ती विद्याशं के प्रभाव से तुमका भूख और प्यास भी कभी न
सतावेगी ॥ १६ ॥
१७२ वालकायडे
वलामतिवलां चेव पठतस्तव राघव |
विद्याइयमधीयाने यशश्चाप्यतुलं वयि ॥ १७॥ 7
दे राघव ! इन दोनों विद्याप्रों--वला शोर अतिवला के पढ़ जेने है
से तुर्हारा अतुल यश सर्वत्र फैल जायगा ॥ १७ ॥
पिवामहसुते होते विद्ये तेज/:समन्तिते ।
प्रदातुं तव काकुत्स्थ सब्शस्त्व॑ हि धार्मिक ॥ १८॥
ये दोनों तेजस्विनी विद्याएँ पिताम्ह अह्मा की पुष्री हैं। दे
काकुत्स्थ | हम तुम्हें ये त्रिद्याएँ पढ़ावेंगे, क्योंकि तुस्दीं इनक लिये
योग्य पात्र भी दी ॥ १८॥
काम बहुगुणा सर्वे त्व्येते नात्र संशयः |
पे चैतते पु
तपसा संभुते चेते वहुरूपे भविष्यतः ॥ १९ ॥
यद्यपि जो वाले इन विद्याओं के पढ़ने से उत्पन्न होती हैं
उनमें से अनेक निस्सन्देह ध्रव भो तुममें मौजूद हैं, तो भो तुग्हाः,
की तपस्या द्वारा धाप्त इन विद्याश्रों के ग्रहण किये ज्ञाने पर, इनकी
उन्नति होगी अर्थात् ग्ापके उपदेश से इनका प्रचार दोगा ॥ १६॥
ततो रामे जह स्पृष्ठा परहए्वदनः शुचिः !
प्रतिजग्राह ते विद्ये महपें भावितात्मन! ॥| २० ||
पह छुन भीरामचन्र जी जल से आचमन कर पवित्र हुए और
म्रखच्च चित्त हे कर विश्वामित्र से उन दिद्याश्रों के सीखा २०
विद्यासमुद्तो रागः शुशुभे भूरिविक्रमः |
सहसरश्मिभगवाज्यरदीव दिवाकर; || २१ ॥
प्योविशः सर्गः १७३
उन विद्याञ्नों के सीखने पर बड़े पराक्रमी धीरामचन जो की
पी ही शोभा हुई जैसी शरवत्काल के सूर्य की होती है॥ २१॥ '
शुरुकार्याणि सर्वाणि नियुज्य कुशिकात्मने ।
ऊजुस्तां रजनीं तीरे सरस्वाः सुसु्ख त्रय; ॥ २२॥
इसके अनन्तर दोनों भाइयों ने गुर के समान .विश्वामित्र की
चरणसेवा आदि कर सरयू के तीर पर वह शत प्रुनि के साथ
आनन्द पूर्वक विताई ॥ २२॥
दशरथत पसू नुसत्तमा भ्यां हि का
तृणशयनेज्लुचिते सहोपिताम्यामू |,
कुशिकस तवचानुछालिताभ्यां
सुखमिव सा.विवभों विभावरी च् ॥ २३.॥
इति दाविशः सर्गः ॥
राजकुमार दोने के कोरण चटाई पर भूमि में सेना उनके लिये
अनुचित होते एर भी, दशरथनन्दन दोनों बलवान राजकुमार ने
विश्वामित्र ज्ञो के मचुर वचन खुनते हुए, सुखपूवक तृणों फी शब्या
पर वह रात दिताई ॥ २३ ॥
बाल्नकाणड का वाइसववाँ सगे समाप्त हुआ ।
त्रयोविंशः सगेः . .
3 मे,
प्रभातायां तु शवयों विश्वामित्रों महाम्रनिः |.
अभ्यभाषत काकुत्स्थो शयानों पणसंस्तरेः॥ १॥
१७४ वालकायडे
सूखे पत्तों के विद्ञेनों पर लेरे हुए राजकुमारों से खबेरे चार
घड़ी तड़के विश्वामित्र जी वाले ॥ १॥
कौसल्यासप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवतते ।
उत्तिष्ठ नरशादल कतेव्यं दवमाहिकम् ॥ २ ॥
है कौशल्यानन्दन | ( कोशल्या के सुपुत्रतती बनाने वाले )
है राम ! सबेरा दोने के है। अ्रव उठ वैंठो और प्रान:ःछृत्य कर
डालो ॥ २ #
तस्यपें परमेदारं बच श्रुत्वा रृपात्मनों ।
सस््नाला कृतोदकों बीरों जेपतु; परम जपम् ॥ ३ ॥
राजकुमार उन परमेदार ऋषि के ये वचन सुन उठ घैंठे ।
फिर रुनान कर सूर्य को अध्य दिया अथवा देव ओर ऋषि तर्पए
किया । तदुपरान्त वे परम मंत्र गायत्री का जप करने खगे ॥ ३॥
कृताहिको महावीयें! विदवामित्रं तपेधनस् |
अभिवाद्याभिसंहष्टी गमनायेपतस्थतु) || ४ ॥
इन दोनों महाबली णाज़कुमार ने आन्दिक कृत्य पूरा कर बड़।
प्रखन्नवा के साथ तपत्वी विश्वामित्र के प्रणाम किया और आगे
चलने के तैयार हुए ॥ ४॥
ते प्रयाती महावीय दिव्या त्रिपय्गां नदीस् |
दर्शाते ततस्तत्र सरय्वा। संगमे झुभे ॥ ५ ॥
उनके साथ लिये हुए विश्वामित्र उस स्थल पर पहुँचे हि
श्रीगह्मा जी ओर श्रोसरयू जी का शुभ सज्टम है और जिसे के
उन्होंने देखा ॥ ४ ॥
प्रयाविशः समें: १७४
तत्राश्रमपद उण्यमृपाणापग्रतजसाम |
बहतपंसहइसाणि तप्यतां परम तप ॥| ६॥
चद्दों पर उन्होंने उन प्रनेक्त उम्रता ऋषियों के परमपविन्न
घआधम देखे, जे घहां सहम्भों वर्षों से फठार तप कर रहे भे ॥ ६ ॥
ते दृष्ठा परम्रीतों राघवों पुण्यमाश्रमस्।
ऊलतुस्त महात्मानं विश्वामित्रमिद बच! || ७॥
उस परम पत्रिन्त आश्रम के देख श्रोरामचक जी और लक्ष्मण
परम प्रसक्ष शुए शोर मद्दात्मा विश्वामित्र से यह वेले॥ ७ ॥
कमस्यायमाश्रम; पृण्य; का च्योस्मन्नसत पुमान् ।
भगवम्थोतुमिच्छाव) पर कातृहलं हि नो ॥ ८ ॥
है भगवन | यह परम पत्रित्न आश्रम किसका है आर यहाँ अव
फोन पुरुष रहता है| दम दोनों के इसका बृत्तान्त छुनने का बड़ा
कॉतूटस 8 ॥ ८ ॥
तयासरतद्चन भ्रत्रा पहस्य ग्रानिप्ञत:
अन्नवीच्छू यतां राम यस्यायं पूष आश्रय: ॥ ९ ॥
राज़कुपारों की यह बात सुन विश्वामित्र हँस पढ़े श्रोर कहने
लगे है राम ! मुनिय्ये, में बतलाता हूँ कि, यह पहिले किसका
पस्राप्षम॑ था ॥ ६ ॥
कन्दपा मूर्तिमानासीत्काम इत्युच्यते बुध! |
तपस्यन्तमिह स्थाण्ण नियमेन समादितम् | १० ॥
फन्दर्प, मिलके परिटत लोग कामदेव कहते हैं, पहिले शरीर-
धारी था | इस स्थान पर निरन्तर ध्यानावध्यित है शिव ज्ञी तप
करते थे ॥ १० ॥
चा० रा०--१२
१७६ चालकायडे
कृदोद्वाहं तु देवेशं गच्छन्त॑ समरदगणस |
धर्षयामास दुर्मेधा हुंकुतश महात्मना ॥ ११ ॥
ज्ञव विवाह कर भमहादेंव जी देवताप्नों सहित चन्न भाते थे,
तब कामदेव ने उनके मन में विकार उत्पन्न करना चाहा--डइस
समय शिव जी ने छुड्ढारी क्वी ॥ ११॥
दग्धस्थ तस्य रोद्रेण चक्षुपा रघुनन्दन ।
९
व्यशीयन्त शरीरात्स्ात्सवगात्राणि दुमते! ॥ १२॥
फिर क्ुद्ध हा शिव ज्ञी ने अपता तीखरा नेत्र प्लाल्न कर उसके
देखा। देखते ही उस दुए के शरीर के सब श्ंग प्रत्यड शलग प्लग
हो। कर बिखर गये ॥ १२॥
तस्य गात्न ह॒त॑ तत्र नि्ग्धस्य महात्मना । हे
अशरीरः कृत; कामः क्रोधाइवेश्वरेण ह ॥ १३॥ ।
ज्ञव से उसका समस्त शरीर महादेव के फोप से भस्प्र हुश्ना
है, तब से चह विना शरोर का दो गया है ॥ १३ ॥
अनज्ञ इति विख्यातस्तदाप्रभुति राघव |
स चाह्ुविषयः श्रीमान्यत्राडूं स शुमेच ह॥ १४७॥
है राम | तमी से उसका नाम अनर्ड ( विना अंगों वाला )
पड़ा है। कामदेव के भायने पर उससे श्ंग जहाँ पर गिरे थे, वह
देश अड्भ देश के नाम से प्रख्यात हो यया है ॥ १४॥
तस्यायमाश्रमः पृण्यर्तस्येपे मुनयः पुरा ।
किष्या जे नित्यं तेषां के
शेष्या धर्मपरा नित्य॑ तेषां पाएं न विद्यते ॥ १५॥
घयाधिशः सर्मः १७७
, या आध्म महादेव जी का है प्रौर इस ग्राधमवासी समस्त
घूनि, परापरा से शिव जी के भक्त हैं। ये बढ़े 'र्मात्मा हैं झौर
नष्याप है ॥ १४॥
हाग रजनीं राम वसेम शुभदशन |
पृण्यये। सरितेमश्ये श्वस्तरिष्यामदे वयम् ॥ १६ ॥
है शुमदर्णन श्रोराम | ध्राज फ्री रात हम यही ठहरंगे और
फल इन पुण्यतोया नदियों फे पार क्र हम क्षाय पागे
हक
गें॥ १६ ॥
अभिगच्छामहे सर्वे शुच्यः पृण्यमाश्रमसर |
स्नाताश्॒ कृतजप्याश्र छुतहव्या नरोत्तम ॥ १७॥
है राम | प्रथम स्वान कर, एवित्र दी कर तथा जप, दम कर के,
कैम सब इस प्रित्र आश्रम में प्रवेश करेंगे ॥ १७॥
तेपां संबदतां तत्र तपादीर्घेण चक्षुपा ।
र्
चिज्ञाय परमप्रीता पुनये दहृपमागमन् ॥ १८ ॥
ये लाग ते यहाँ यह वातचीत कर रहे थे और उधर तपः
प्रमाव से उस आाश्रमचासी दृस्दर्शो तपस््री मुनि, इन लोगों का
घछागमन जान बहुत प्रसन्न हुए ॥ १८ ॥
«५. ५ निवेद् कुशिकात्मजे
अध्य पाद्य॑ तथा5घतिथ्यं निवेद् कुशि |
.. रामलक्ष्मणये॥ प्मादकुवेन्नतियिक्रियास ॥ १९ ॥
उन ऋषियों ने विभ्यामित्र जी के प्यर्थ्य पाद्य ध्र्पण किया
और पीछे से उनका तथा श्रोगमचन्द्र और धील्द्मण का पतिथि
सत्कार किया ॥ १६ ॥ ,
५
श्क्ष वालकायडे
सत्कार समलुमाप्य कथामिरथिरक्षयन् |
यथाहमजपन्संध्यामृपयस्ते समाहिता। ॥ २० ॥
इस प्रकार उन धआाभ्रमंवासी मुनियों से सत्कार प्राप्त कर और)
नाना कथा वार्ता खुन कर उन सव ने सन्ल्योपासन तथा गायत्री
जप झआादि .आवश्यक कर्म किये। तदुपरान्त आश्रमवासी सब
फ्रषिगण विश्वामित्र जी के पास एकत्र हुए ॥ २० ॥
तत्र वासिमिरानीता झुनिशि; सुत्रते! सह ।
न्यवसन्सुसुखं तत्र कामाश्रमपदे तदा ॥ २१ ॥
कथामिरमिरामामिरभिरामो तृपात्मजों ।
रमयामांस धर्मात्मा काशिके सुनिपुड्धव) (| २२ |
इति अयेविशः सर्गः ॥
ओर अच्छे बत घारण करने वात्ते पुनि इन्हें अपने घआाश्रम हे
लिया ज्ले गये । उस कामाश्नस में श्रीराम लक्ष्मण सहित विश्वामित्र
ने खुलपूर्वक वास किया ओर शजकुमारों के तरह तरह की मने।-
रख़क कथा कहानियाँ खुना उनका मनेारश्नन किया ॥ २१५॥ २२ ॥
बालकाएड का तइसवां सभ समाप्त हतक्ा।
+-+
चतुरविश
शः स्ग
तत; प्रभाते बिमले कृता55हिकमरिंदमा ।
विश्वामित्र॑ पुरस्कृत्य नचास्तीरम॒पागता ॥ १ ॥
चतुविशः सर्मे १७६
4
प्रानःफाल दोते ही प्रातःक्वत्य कर दोनों राजकुमार विश्यामिनर
ही मे श्रागे फर नदी फे तथ पर पहुँचे ॥ १
ते च सर्वे महात्माना मुनय। संशितव॒ता।
उपस्थाप्य शुर्भां चाव॑ विश्वामित्रमथात्रुवद ॥ २ |
उस शाश्रम में रहने चाक्ते ब्रतधारी ऋषिगण भी उनके साथ
(विश्वामिद्र तथा राजमुमारों के साथ) वदी तद तक गये और एक
सुन्दर भाव हा प्रन्न्ध कर, विश्वामित्र जो से वाले ॥ २॥
आराहइतु भवान्नाव राजपृत्रप॒र॒स्कृतः |
अरिप्टं गच्छ पन्धान मा श्रूत्कालस्य पेय ॥ ३ ॥
काव शाप विलम्ब न कर राजपुओं के लेकर नाव पर सवार
गों। मिलसे रास्ते में (सर्वातायादि से ) किसी प्रकार का कष्ट
'तद्ढी॥३॥
विश्वामित्रस्तथेत्युक्वा तातपीनशिएपूज्य च ।
ततार सहितस्ताभ्याँ सरितं सागरंगमाम् ॥ ४ ॥
यह खुन, विम्त्रामिन्न जी ने उन ऋषियों को पूजा की और
सागरमामिनी उस नदी के उम्त पार पहुँचे ॥ ७॥
गब्दमतिस॑ (
तत! गुश्नाव त॑ 5 रम्भवघ नस |
ध्यमागम्य तेयस्य सह राम। कनीयसा ॥ ५ ॥
, जव माब वीच धार में पहुँची तब चहाँ जल को तराज्नों के
' परस्पर इहूराने का शब्द भ्षीयमचद्ध और उनके कोट माई लच्मण
ज्ञी ने झ़ुना ॥ ५ ॥
श्स० वालकायडे
अथ राम; सरित्मध्ये पप्रच्छ घुनिषुद्भधवस् )। ु
वारिणा भिथरमानस्य किमये तुमे! ध्वनि) ॥ ६ ॥
तव, नाव पर सवार भ्रीयमचन्द्र जी ने विश्वामित्र जो से पूं छा
कि--'“ महाराज | रह जे तुघुल शब्द दे रहा है, से वया जअत्त के
टकराने का है, ( अथवा इस शब्द का कुछ और कारण है? ) ॥ 5 ॥
राघवस्य वचः श्रुत्वा कैतूहछसमन्वितस् ।
कथयामास धर्मात्मा तस्य शब्दस्य निश्चयम् ॥ ७ ॥
कोतूहलपूर्ण श्रीरामचन्द्र जी का यह प्रश्न खुन, विश्दामित
जी ने उस शब्द होने का कारण इस प्रकार चर्णन किया ॥ ७ ॥
कैछासपर्वते राम मनसा निर्मितं सरः ।
र्ः तेनेदं ३,
ब्रह्मणा नरशादूल तेनेदं मानस सरः ॥ ८ ॥
दे राम ! कैलास पर्वव पर ब्रह्मा जी ने अपने मन से एक
सरेधर बनायी । है नरशाइंल ) मन से बनाने के कारण उसका
नाम “ मानसखसेचर ” पड़ा ॥ ८ ॥
'तस्मात्सुसाव सरसः साथ्येध्यामुपगूहते ।
सर+प्॒रठत्ता सरयूई पृण्या अलह्तस्तरबश्च्युता ॥ ९ ॥
प्रा के उसो मानसरावर से निऊुतलो हुई पवित्र सरयू नदी
जे अयोध्या होती हुई बहती है ॥ ६ ॥ हु
तस्यायमतुलः शब्दों जाह॒बीममिव्तते ।
वारिसंक्षोभजो राम प्रणाम नियतः कुरु ॥ १०॥
चतुरविशः सगेः १्घ१
यहाँ गड्गा जी से मित्रती है। इच दोनों सरिताजों के जलों के
परस्पर ठकराने से यह शब्द होता है । तुम इनके मनेये।ग पूर्वक '
'अणाम करे ॥ १० ॥
ताभ्यां तु ताबुभों कृत्वा प्रणाममतिधार्मिकों ।
तीरं दक्षिणमासाथ जम्मतुरूघुविक्रमो ॥ ११॥
देनों राजकुमारों ने उन नदियों का प्रशाम किया। इतने में
उनकी नाथ भी दत्तिणश दठ८ पर सदञ में ज्ञा क्षगी । धहाँ से दीदों
नाव से उदर कर आगे उल्ते ॥ ११॥
स बन घारसंकाशं दृष्टा तृपवरात्मज; |
अविप्रदतम्वाकः पप्रच्छ मुनिपुद्धवम् ॥ १२ ॥
दोनों राजकुमारों ने चलते हुए एक बड़ा भयानक्र निर्जन वन
देखा। उस निर्जन वन की देख ध्रीशमजन्द्र जी ने विश्वामित्र जी से
पूछा ॥ १२॥
०, ॥ ५३
अद्ठी वनमिदं दुर्ग करिलिलकागणनादिकम् ।
भैरव श्वापदें! कीण शबुन्तेदोरुणारुतैः ॥ १३ ॥
प्रोहि ! ऋषिधर, यद्द चन तो बड़ा दी भयानक देख पड़ता है ।
इसमें फींगुर संकार कर रहे हैं और बड़े बड़े भयद्भुर जीबों के नाद
से यह परिपूर्ण है ओर वाज़ पत्ती भी चड़ी दारुण वाली बेल रहे
हैं॥्0...“|/|ः अवश्य मैस:समीं
नानाप्रकार। शक्ुनंवाश्यद्धि रे रवे!स्वने! ।-
सिंहव्याप्रवराईश्व वारणैश्ोपशेभितम् ॥ १४ ॥
बाज पक्ती अनेक प्रकार को भयावद वोलियाँ बाल रहे हैं।
इस बन में देलिये सिंह, व्यात्र, चराह और द्वाथी भी बहुत देख
पड़ते हैं ॥ १४ ॥
श्घ्श * वालकाणडे
धवाश्वकर्णककुमैरविल्वतिन्दुकपादले: ।
सद्ीण वदरीमिश्र॒ कि न्वेतद्ारुणं वनम् ॥ १५ ॥
घवा, शअसंगध, प्र्जन, चेल, तेंदु्मा, पाडरी और वेरियों
के दुत्तों से यह वचन कैसा सघन और मयड्भर हो गया हैं ॥ १४ ॥
तशुवाच महातेना विश्वामित्रों महासुनिः ।
श्रयतां वत्स काकुत्त्थ यस्येतद्वारुणं चचम ॥ १६ ||
यह सुन महातेजस्वी विश्वामित्र ने श्रीरामचद्ध जी से कहा--
है बेटा श्रीरामचन्द्र | खुनों, में वतलाता हूँ कि, यह विकट वन
किसका है ॥ १६ ॥
एते। जनपदो स्फीती पूर्वमास्तां नरोत्तम |
पलदाथ करूशाश्र देवनिर्माणनिर्मितों || १७ ॥
पहले यहाँ पर देडलेक के समान धरोर धनधान्य से भरे
पूरे मद ओर करूप नाम के दो देश वसे हुए थे ॥ १७ ॥
पुरा छत्रवधे राम मछेन समभिष्छुतस |
छुपा चव सहस्ाक्ष ब्रह्महत्या समाविशत् ॥ १८ ॥
है राम : इनाझुर के मार कर जब इच्छ अपवित्र अचस्या में
भूखे प्यासे थे, तव उनके शरीर में ब्रह्महत्या ने प्रवेश किया ॥ १८॥
तमिन्द्रं स्नापयन्देवा ऋषयश्र तपाधना। |
कछझशे! स्नाफप्यामासुर्मछ चास्य परमेोचयन् || १९ ॥
तब इन्द्र को देइताओों ओर तपस्ी ऋषियों ने प्रथम गड्ढडाजल
से, फिर घड़ों में भरे मंत्रपूत जल से उनकी झअपविच्ता दर करने के
लिये स्नान करवाये ॥ १६ ॥
-+ज
चतुर्विशः सर्ग: श्चरे
इहृह भूम्यां मल दत्त्ता दत्ता कारूशमेद च |
शरीरजं महेन्द्रस्य ततो हप प्रपेदिरे ॥| २० ॥
इससे इन्द्र की छुधा श्रोर उनका मल यानो अपदिन्नता और
म्रह्महत्या यहाँ कटी, तब इन्द्र अत्यन्त प्रसक्न हुए ॥ २० ॥
निमेले। निप्करूशथ शुचिरिन्द्रो यदाप्भवत ।
ददो देशस्थ सुप्रीतो वर पसुस्नुत्तमम॥ २१ ॥
जव इन्द्र निर्मल, निष्पाप आर पत्िन्न हो गये तव उन्होंने
प्रसन्न हे इस देश का यह उत्तम वरदान दिया ॥ २१॥
इम्ा जनपदों स्फीता ख्यातिं लेके ममिष्यतः ।
मलदाश्र करूशाश्व ममाइ्मरलूपारिणों ॥ २२ ॥
रे शरीर के मल के धारण करने वाले मलद कोर करूप
, 7मों से विख्यात थार घधनधान्य से भरे पूरे दो देश तीनों लेकों में
प्रसिद्ध होंगे ॥ २२ ॥
साधु साधब्विति त॑ देवा; पाकशासनमत्रुवन् ।
देशस्य पूजा तां दृष्टा क्ृतां शक्रेण धीमता ॥ २३ ॥
इच्ध का यह चरदान छुन प्योर उन देशों को इन्द्र द्वारा प्रतिष्ठा
देख स्व देवता “साधु” “साधु “--बहुत अच्छा हुआ, वहुत
प्रच्छा हुशआआ--कह कर इन्द्र की प्रशंसा करने लगे ॥ २३ ॥
एता जनपदों स्फीता दीघकालमरिंदम !
मलदाश्व करूशाश्र झुदिता धनधान्यत। ॥ २४ ॥
हे अ्रिंद्म ! ये दानों मलद भर करूष देश, वदुुत दिनों तक
ध्रन धान्य से भरे पूरे बने रहें ॥ २४ ॥
श्घछ वालकाणडे
कस्यचित्त्वव कालस्य यक्ली वे कामरूपिणी |
बल नागसहस्नस्य धारयन्ती तदा हमभूत् || २५ ॥-
कुछ दिनों बाद् यहाँ एक स्वेच्छाचारिणी यक्तिणी पैदा हुई)
उसके शरीर में हज़ार हाथियों का वल्न है ॥ २५ ॥
ताटका नाब भद्ठं ते भाय्या सुन्दस्य धीमतः ।
मारीचे राक्षसः पूत्रो यस्याः शक्रपराक्रमः ॥ २६ ॥
उसका नाम तादका है. ओर वह ऊुन्द् को स्त्री है। उसके
मारीच नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जे। इन्द्र के समान परराक्रमी
है॥ २६ ॥
हत्तवाहुमेहावीये। विषुलास्यतनुमेहान् ।
राक्षस! भेरवाकारो नित्य तऋसयते प्रजा। ॥ २७॥
वह बड़ी बड़ी वाहें, बड़ा सिर और बड़े मुँद वात्ना तथा न
भयानक शरोर वाला राक्षस यानी मारीच, नित्य ही प्रजा केई
सताया दरवा है ॥ २७ 0
इसी जनपदो नित्य॑ विनाशयति राघव ।
मलदांश्र॒ करूशांश ताटका दुष्टचारिणी ॥ २८ ॥
है राघव ! वह दुश ताठका या ताड़का इन दोनों भरे पूरे
मलद् ओर करूष देशों के नित्य ही उज्ाड़ा करती है ॥ २८ ॥|
सेय॑ पन््थानपाइत्यं वसत्यध्यधयेजने ।
अतएव च गन्तव्यं तादकाया वर्न यत) ॥ २९ ॥
वह यक्षिणी इस मार्ग के रोके हुए यहाँ से शझाघे ये।:...
अर्थात् दो कोस पर रहती है। ञअतः झयव ताड़का के वन में लदना,
चाहिये ओर ॥ २६ ॥
जज
चतुविंशः सर्गः श्षप
खवाहुबलूमाश्रित्य जहीमां दुष्टचारिणीम् |
मन्नियोगादिमं देश कुर निष्कष्टक पुन। ॥ ३० ॥
मेरे कहने से तुम अपने वाहुबल्न से उस दुश यक्तिणी का
घघ कर, इस स्थान के पुनः निष्कशटक बना दो ॥ ३० ॥
न हि कश्निदियं देश शक्नोत्यागन्तुमीरशम |
यक्षिण्या घारया राम उत्सादितमसह्यया ॥ ३९१ ॥
है राम | इस दुण के डर के मारे, घ्माने की आवश्यकता होते
हुए भी, केई यहाँ चहीं झादा । ऐसा फ्रीजिये जिससे यह भयक्ुुर
यक्तिणी इस पवित्र देश को पव ते उज्ञाड़ पावे ॥ ३१ ॥
एतते सबसमाख्यातं ययैतद्ारुणं दनसू |
यक्ष्या चोत्सादितं सबमद्यापि न निवर्दते ॥| ३२॥
इंति चतुर्दिश सर्गः ॥
जिस प्रकार यह स्थान निर्जन वव वना है तथा जिस प्रकार
ध्यव इस स्थान की रफ्ता की जा सकती है से मेंने तुम्हें
बतला दिया, वह दुश यक्तिणी शव भी अपनी दुश्ता से वाज्ञ
नहीं झाती ॥ ३२ ॥ ४
वालकाण्ड का चावीसर्वाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
-“-#ई--
पश्नुविशः सर्गः
अथ तस्याप्रमेयस्य मुनेव॑चनमुत्तमम् |
श्रुत्वा पुरुषशादूल) पत्युवाच शुभां गिरस् ॥ १॥
प्रपित प्रभावशान्री आषिध्रेष्ठ विश्वामित्र ज्ञी के ये उत्तम चच्रन
खुन, पुरुषशार्ईल श्रीयमचन्द्र यह शुभ वचन वाले ॥ ६ ॥
अत्पवीर्या यदा यक्षाः श्रूयन्ते मुनिपुद्धव ।
कर्थ नागसहसस्य धारयत्यवका वरूम ॥ २ १)
हे पुनिषुद्गधब! झुनते हैं यत्त जाति सो अल्प वल्ष वाली दोती
है। तब इस अवला ( ध्यर्थात् यक्तस्री ) फे शरीर में हज़ार हाथियों॥
का वल् क्यों कर आ गया ॥ २॥
. तस्थे तहचन श्रुत्वा राधवस्य महात्मन; ।
विश्दामित्रोज्जवीद्वाक्य धरुणु येन वलेत्तरा ॥ ३ ॥
श्रीरामचनच्द् जी के इस प्रश्न के सुन महात्मा विश्वामिन्न वेले--
है राघव ! झुनिये, में कहता हैँ, जिस प्रकार यह यत्तिणी इतनी
वलवती हुई है ॥ ३ ॥
वरदानक्ृत वीये धारयत्यवला वलम।
पूवमासीन्महायक्ष! सुकेतुनोम वीयेचान् ॥ ४ ॥
यह अबला वरदान के प्रभव से इतनों वलवती हे गयी ह॑ ।५
छुकैत नाम का एक बड़ा बलवान यत्तष था || ७ ॥
लि 5
पश्चत्रिशः सेः १८७
.._ अनापलाः शुभाचारः स च तेपे महतपः |
५ पिन्तामहस्तुं सुप्रीवस्तस्य यक्षपतेस्तदा ॥ ५ ||
हैँ राम | सदायारों देने एर भा उसके काई सनन््तान न था।
धर से चढ़ा तप किया । तव प्रसक दी उस यक्तपति का ब्रह्मा
गीके॥४॥
कम्यारन्न ददो राम ताटकां नाम नामतः |
बर्ल मागसहसस्थ ददो चास्या। पितामह! ॥ ६ ॥
वाटका नाम की एक उत्तम कन्या प्रद्दाव की। ब्रह्मा जी
इसके शरीर में हज़ार हाथियों का पल भो दिया ॥ ई ॥
न ल्ेब पुत्र यक्षाय ददों ब्रह्मा मद्रायशञा। ।
तां तु जाता विवधन्ती रूपयोबनशालिनीस ॥ ७ |
किन्तु, महायणस्वी ब्रह्मा जी ने उस यक्ष के ऐसा बली घुत्
नहीं दया जब चद लड़की बढ़ती बढ़ती ढूए श्रोर योवनशालिनी
सी हुए ॥ ७॥
जम्भपुप्नाव सुन्दाय ददो भाया यशखिनीस् ।
कस्यचित्तथ कालस्प यश्ली पुत्र व्यजायत्त || ८ ||
तब डसके पिता ने उसका विवाह जस्म के पुत्र सुन्द के साथ
कर दिया। थेड़े दिनों वाद इस यक्तियोँ के एक पुत्र उत्पन्न
जुआ॥८ ॥
मारीच॑ नाग दुपप यः शापाद्राक्षसाइमवत् ।
सुन्दे हु निहते राम सागस्त्य॑ झुनिपुज्ञचम ॥ ५॥
श्र वालकायडे
डस का नाम्र मारीच है और वह वड़ा वलवान है। ४
यत्त दोते पर भी शापवश राक्षस हुआ है। दे राम | जब अग्रू:
जी ने छुन्द के शाप दे कर सार डातज्ञा। ६ ॥
ताटका सह पुत्रेण प्रधषयितुमिच्छति ।
९ (
भक्षाय जातसंरम्भा गजन्ती साअ्म्यधावत ॥ १० ॥
दव तावका अपने एच्च सहित धअभस्य्र जी के खाने के लिये
गरजती हुई दोड़ी ॥ १० ॥
आपतन्तीं तु ता हृष्ठा अगस्तों भगवानृषि) ।
राक्षतल॑ भजरवेति मारीच॑ व्याजहार स! ॥ ११ ॥
उस यक्तिणी के! अपनी ओर शआतो हुई देख, भगवान अमगस्तय
ऋषि ते उसके पुत्र मारीच के वह शाप दिया कि, “तू राक्षस
हो जा” ॥ ११ ॥
अगरल; परमक्ुद्धस्तावकामपि शप्तवान् ।
पुरुषादी महायक्षी विरुपरा विक्ृतानना ॥ १२॥
हि फिर धगसरय जो ने अत्यन्त कुपित दे तावका के भी शाप
दिया कि, तू ममुष्यसत्तिणी हे! जा और तेरी शक्ल बुरी ओर सया-
नक हो ज्ञाय ॥ १२ |
हद रूप विहायाथ दारुणं रुपमस्तु ते।
९
सेषा शापक्षतामर्षा ताठका क्रोपयूछिता ॥ १३॥
तेशा यह रूप न रहे। तू विकरा्न रूप वालो हो ज्ञा। यह शाप ॥
झुन ताढका धत्यन्त कुपित हुई ॥ १६ ॥
220:
पश्षचिणः सर्गः १८६
देशगुत्सादयत्येनमगस्त्यचरित शुभग ।
एर्ना राख दुरुतां यक्षी प्रमदारुणास्॥ १४॥
गात्राह्मणहिताथाय जहि दुष्ट्रपराक्रमास् |
नहोंनां शापसंस्पृष्ठां कश्रिदुत्सहते पुमान् ॥ १५ ॥
से यह शाप फै प्राप्त ताटका इस पविच देश के उज़ाड़ें देतो
है । फ्योंकि प्रगस््य जी इुसो देश में तपस्या फरते थे | अतपच दे
राम | ध्ाप इस दृएा, परम दारुग और दुए पराक्रम वाली
ताठका के मार कर गे ब्राआण का हित साधन कीजिये । फ्योंकि
और फैर मसध्य रख शापणर्ा देते नहीं मार सकता ॥ ४8 ॥ १४॥
निहन्त ब्रिए छाफेपु त्वामृते रघुनन्दन ।
नट्टि ते ब्लीवबकृत घृणा काया नरात्तम ॥ १६ ॥
-. है मातम | तीनों ज्लाकों म॑ तुमका छोड़ ऐसा श्रोर कोई
नहीं है, जा इसे मार सफे | पेसी स्री का वध करने मे तुम्दारे मन
मैं धुगा उत्पल ने दीनी चाहिये ॥ ह६॥
चातुवेण्यद्िताधाय कर्तव्य राजसूनुना |
नशंसमतयंस वा प्रजारक्षणकारणात् ॥ १७॥
घारों वर्गों का दितसाधन फरना राजकुमार शभ्रर्थात् क्षत्रिय
का फर्दश्य है। प्रजा फी रक्ता के लिये चाहे अच्छे काम करने
पढ़ें चार वरे ॥ रे ॥ ।
पातक॑ वा सदाप वा करतेव्यं रक्षता सदा |
ए
राज्यभारनियुक्तानामेष धर: सनातन; ॥ १८ ॥
१६० वालकायडे
प्रजाख्तण के कार्यो के करने में भत्ने दी देशप या पाप ही
क्यों न लगे, किन्तु राज्य को रक्ता करा भार उठाये हुए ज्ज्रिधो
के लिये सब प्रकार प्रज्ञा को रक्ता करना दो, उनका समावेश" |
चर्म है ॥ १८॥
५ ० पे
अधम्या' जहि काकुत्थ पगों हृसया ने बिद्वते ।
अ्यते हि पुरा झक्रो विरोचनछुतां दप ॥ १९ ||
पृथिवीं हन्तुमिच्छन्ती मन्थरामम्यसूदयत् |
विष्णुना च प्रा राम भुगुपत्नी दृथता।
अनिन््द लाइमिच्छन्ती काव्यमाता निपूदिता ॥२०॥
हे राम | इस अभधमिणी ताबका के भारिये, इसमें ता तिल
भर भी धर्म नहीं है। सुना ज्ञाता है कि, पहले विशेचन राजा की
लड़की मन्यरा को, जे! पूधिवी का नाश करना चाहती थो, इन्द्र-मेः
जान से मार डाला था | इसो प्रकार हे राम! भगवान् विधा
सी वूगु की पतिन्रता पल्ली ओर शुक्र की माता का, जे। इन्द्र न
नाश करना चाहती थी, मार डाला था ॥ १६ ॥२० ॥
एतैरन्येश्व बहुभी राजपत्र महात्मभिः |
अधमनिरता नाये हता! प्रुपसत्तमे! ॥ २१ ||
तस्मादेनां घृणां त्यक्त्वा
जहि मच्छासनान्तप | २२ ॥
इंति पश्चचिंश स्ः ॥
इसी भकार अनेक पुरुषोचम राज्ञपुत्रों ने समय समय प्ः
अलेक धधर्माचरण वाली खस्वियों का बच किया है। अतएव
पड़्विशः सर्गः १६१
तुमका भी मेरे थाता से इस दुश यक्तिणी के मारने में किसी
पकार का विचार न करना चाहिये॥ २१॥ २२ ॥
पाजफागल का पश्चीसवो सर्ग समाप्त हश्मा ।
“आप:
पडविशः समेः
धि
अनवचनमछान श्रत्ला नररात्मज। |
रापव। प्राक्ललियूत्वा प्रत्युवाच दृठघ्त। || १॥
हृढमत दृशस्थनन्दून धीरामचन्द्र जी ने ऋपषिप्रवर सिभ्वामिन्न
जी के प्रद्टीच अर्थात् उत्साहव ठेक वचन छुन हाथ जेड़ फर
यह उच्चर दिया ॥ १॥
पितुरबंचननिर्देशात्पितुवंचनगारवात् ।
>> , क ए
बचने कोशिकरस्येति कतव्यमविशज्षया ॥ २ ॥
अपने पिता की प्राप्ता से और उनकी बात रखने के लिये,
ग्रापके कघनाठुसार निःशक्ु द्वे कर फारय करना, मेरा कर्तव्य
६ैं॥२॥
अनुशिष्ठालस्म्ययेध्यायां गुरुमथ्ये महात्मना |
पिच्रा दशरथेनाई नावज्ञेयं हि तद्गच) ॥ ३॥
क्योंकि महाराज ने शुरू चशिछ्ठ जी फे सामने ध्येध्या से
प्रस्यान करते समय मुम्के यद पश्राप्षा दी है। अतः में उस श्राक्षा
की श्रवज्षा नहीं कर सकता ॥ ३॥
बा० रा०--१ै३
श्श्ण वालकायणडे
सा5हं पितुवंचः श्रुत्वा शासनादूवह्मवादिनः ।
करिष्यामि न सन्देहस्ताटकावधमुत्तमम् ॥ ४ ॥
अतः पिता की ध्ाक्षानुसार झापके कहने से ताठका फा ब६
निस्सन्देह ही करूँगा ॥ ४ ॥
गाब्राह्मणहिताथाय देशस्थास्य सखाय च ।
तब चैवाप्रमेयस्य वचन कतमुद्यत। | ५ ॥
में आपके कथनानुसार तादका के मार कर गे ब्राह्मण का
हित साधन करने तथा इस देश के वासियों के झुखी करने को
तैयार हूँ ॥ ५ ॥
एवसुक्त्वा धजुमध्ये वद्धा मुष्टिमरिन्दमः ।
ज्याघेषमकरोत्तीतं दिशः शब्देन नादयन् ॥ ६॥
यह कद और घनुष हाथ में ले, श्रीरामचन्द्र जी ने दश्शों
दिशाओं के प्रतिष्वनित करने वाला, प्रत्यज्षा ( धन्॒ष की डेयरी )
के टंकार कर, घेर शब्द किया ॥ ६ ॥
तेन शब्देन वित्रस्तास्ताटकावनवासिन; ।
ताटका च सुरसंक्रुद्धा तेन शब्देन मेहिता ॥ ७॥
उस शब्द के छुन तादका के बन में रहने वाले जोचधारी
बहुत डरे। ताठका उस शब्द के सुन बहुत कुपिव हुई और उस
समय धपना क्तंत्य निश्चित न कर सकी ॥ ७॥
त॑ शब्दमभिनिध्याय राक्षसी क्रोधयूछिता ।
श्रुत्वा चाभ्यद्रवद्देगा्यतः शब्दों विनिःझतः | ८ ॥
घड्विशः सर्मः -श्श्३
चद धत्यन्त कुपित राक्तसी उसी और जिस छोर शब्द हुआ
था बड़े घेग से फपठी ॥ ८॥
तां हृष्ठा राधवः क्रुद्धां विक्रृतां विकृताननाम ।
प्रमाणेनातिहृद्धां च लक्ष्मणं सेध्भ्यभाषत || ९ ||
उस वड़ो लंबी चौड़ी, घेर विकराल रूप चाली, जलमुह्दी, कुपित
राज्ली के देख श्रीरामचन्द्र ज्ञी ने लत्त्मण जी से कहा ॥ ६ ॥
पर्य लक्ष्मण यक्षिण्या भैरव॑ दारुणं वषु) |
भिश्वेरन्द्शना ५ भीरूणां हे
न्द्शंनादरसया भीरूणां हदयानि च॥ १० ॥
देशो लक्ष्मण! इस यक्तिणो का शरीर कैसा भयद्भर भर विकट
है। इसे देखते हो डरपोंकों के हृदय ते काँप उठते होंगे ॥ १० ॥|
एनां पश्य दुराधर्पा' मायावरुसमन्विताम् ।
विनिहचां करोम्यथ हतकर्णाग्रनासिकाम ॥ ११॥
देखो, इस विकट मायाविनी और दुर्जेया के कान ओर नाक
काठ कर, में अभी भगाये देता हैँ ॥ ११ ॥
न होनासुत्सहे हन्तुं ख्लीखभावेन रप्षिताम् । ु
वीय॑ चास्या गति चापि हनिष्यामीति मे मतिः ॥१२॥
क्योंकि स्ली की जान लेना ठोक नहों, स्त्री की तो रक्ता करनी
चादिये। किन्तु में इसके हाथ पैर तोड़ कर इसे शव झागे हुए कर्म
करने येण्य न रहने दूँगा ॥ १२ ॥ |
एवं ब्रुवाणे रामे तु ताटका क्रोधमूर्छिता ।
उद्यम्य वाहू गर्जेन्ती राममेवाभ्यधावत ॥ १३ ॥
१६७ बालकायडे
श्रीराम जी' ऐसा कद ही रहे थे कि, ध्रत्यन्त कृपित ताठका,
हाथ उठाये ओर गरजती हुई श्रीरामचन्द्र जी की शेर
सूपठी ॥ १३ ॥
विश्वामित्रस्तु ब्रह्मर्पिहुड्डारेणामिमत्स्ये तायू |
खस्ति राघवयेरस्तु जय॑ चेवाभ्यमापत ॥ १४ ॥
यह देख ब्रह्मषि विश्वामित्र ने '' हूँ ” कह कर, उसे डपठा शोर
श्रीरमचच्ध लक्ष्मण के पअआशीर्वाद दे कर कहा कि, तुम्दारी जय
है ॥ १७॥
उद्धन्वाना रजो पार ताटका राघवाबुभों ।
रजोमेहेन महता मुहूते सा व्यमेहयत् ॥ १५ ॥
इतने पर भो ताठका ने इतनी घूल्र उड़ायो कि, कुछ देर तक '
राम घोर लक्ष्मण के। छुछ भी न देख पड़ा ॥ १४ ॥
ततो मायां समास्थाय शिलावर्षेण राधवों ।
अवाकिरत्सुमहता ततबचुक्रोध राधव! ॥ १६॥
वाढका ने ऐसी माया रची कि, चह छिपे छिपे श्रीरामचद्ध
जी और लक्ष्मण जो पर पत्थरों की दर्ष करती रही। यद देख
शीरामचन्द्र जी अत्यन्त ऋद हुए ॥ १६ ॥
शिलावष महत्तस्या; शरवषेण राघवः |
प्रतिहत्योपधावन्ता: करे चिच्छेद पत्रितिः ॥ १७ ॥
और भ्रीरामचन्द्र जी ने उस महती शिलाबृष्टि को वाणों ब /
बंद कर दिया और वाणों ही से उसके दोनों हाथों के भी के
डाला ॥ १७॥
घड्विशः सर्गः १६४५
ततरिछल्नुजां श्रान्तामभ्याशे परिगजतीम ।
सौमित्रिरकरेत्क्रोषादूतकर्णागनासिकाम ॥ १८ ॥
भुज्ञापरों के कट जाने से आन्त, किन्तु तिस पर भी उसे गरजते
हुए अपने समीप भांते देख प्रोर क्रुद हे, लक्ष्मण जो ने उसके
माक फान कांट डाले ॥ १८॥
कामरूपधरा सच्च! कंत्वा रुपाण्यनेकशः ।
अन्तर्धान॑ गता यक्षी मेाहयन्ती च मायया ॥ १९ ॥
वह कामरूपिणी तुरस्त प्रनेक प्रकार के रूप धारण करने लगी
झौर राजकुमारों का धोखा देने के लिये कभी ऋमो छिप भी जाने
लगी ॥ १६ ॥
अश्मवर्ष विम्युश्वन्ती भैरव॑ विचचार ह |
ततस्तावश्मवर्षेण कीर्यमाणों समन्ततः || २० ॥
और छिपे छिपे चद विकट यत्तिणी घूम घूम कर पत्थर वरसाने
लगी । चारों ओर से राजकुमारों पर पत्थर वरसते ॥ २० ॥
दृष्ठा गाधिसुतः श्रीमानिदं वचनमत्रवीत् ।
अल ते घृणया राम पापेपा दुष्तचारिणी ॥ २९१ ॥
देख, श्रीमान् विश्वामित्र जी ने श्रीरामचन्द्र जो से कदा--
है राम | बस, बहुत हुआ | व इस पापिनी दुष्ा पर अधिक
दया दिखलाते की श्रावश्यकता:हीं है ॥ २९ ॥
यज्ञविश्नकरी यक्षी पुरा वर्धेत मायया।
वध्यतां तावदेबैषा छुरा सन्ध्या प्रवतते ॥ २२ ॥
१६६ बालकायडे
यदि इसके छोड़ दोगे, तो यह यज्ञ में विश्च डालने चाली माया
हारा फ़िर प्रबल पड़ ज्ञायगी । सम्ध्या दोने के पहिले ही तुम इसे,
घटपट मार डालता ॥ २२॥
रक्षांसि सन्ध्याकालेबु दुर्धपाणि भवन्ति हि ।
इत्युक्तस्तु तदा यक्षीमश्महृष्य्यासिवषतीस | २३ ॥
दर्षयज्शब्दवेधित्व॑ तां स्शोध स सायकेः ।
सा रुद्धा शरजालेत मायावठसमन्बरिता ॥ २४ ॥
अभिदुद्राव काकुत्स्थं लक्ष्मणं च बिनेदुपी ।
तमापतन्तीं वेगेन विक्रान्तामशनीमिव ॥| २५ ॥
क्योंकि सन्ध्या बेला में राक्सों का वल बढ़ ज्ञाता है। यह
फह विश्वामिद्द ने पत्थर वरसाने वालो यक्तों के श्रोरामचद्ध के .
दिखा दिया। श्रीयामचन्द्र जी ने शब्दवेधी वाणों से उसे चारों ओर
से घेर लिया । वह प्रायाविनों ओर वलवतोी थक्तिणों शरज्ञाल में
घिरी हुई दोनों राजकुमारों पर गर्जती हुई कपदो । उसे विजली की
तरह बड़े वेग से अपनो ओर शादी हुई देख ॥ २६ ॥ २७ ॥ २४६ ॥
शरेणेरसि विव्याघ सा पपात ममार च |
तां ह॒तां भीमसंकाशां दृष्टा सरपतिस्तदा ॥ २६ |॥
श्रीरामचन्द्र जी ने डसकी छाती में एक वाण ऐसा मारा कि,
चह पृथिवी पर गिर पड़ी ओर मर गयी । उस चिकरात्न रूप वाली
यक्षिणी के मरी हुई देख, इन्द्र ॥ २६ ॥ हे
ई
साधु साध्विति काझुत्स्थं सुराभ समपूजयन् |
उबाच प्रमणीतः सहझ्वाक्ष; पुरन्दर। ॥ २७ ॥
पडधिशाः सर्मः १६७
आदि देवता श्रीरामचन्दर जी की स्तुति करने लगे और इन्द्र
परम प्रसन्न हुए ॥ २७॥
४. सुरात्न सर्वे संहृष्ठा विश्वामित्रमधान्रवन् |
पुन काशिक भद्रं ते सेन्द्रा। सर्वे मस्दगणा। ॥ २८ ॥
सथ देत्तागण प्रसन्न दे विश्वामित्र जी से वेल्ते--/ है कौशिक
मुन्रि | श्रापका कल्याण दी, इन्द्र सदित दम सब देवता ॥ २८॥
तापिता! कमंणा तेन स्नेह दशय राघने।
प्रजापते कृद्माश्वस्थ पुत्रान्सत्यपराक्रमान् ॥ २९ ॥
पश्रीरामचन्द्र जी के एस कार्य से परम सन्तुष्ट हुए हैं। अव तुम
शोरामचन्द्र जी पर विशेष स्नेह प्रदृशित कर, कृशाश्व प्रजापति के
सत्यपराक्रमी अख णख्त्र रूपी जा पुत्र हैं, ॥ २६ ॥
तपावलभतान्त्ह्मन्राधवाय निवेद्य |
पात्रभूतत्र ते अह्मंस्तवानुगमने घ्तः ॥ २० ॥
घे सब तपत्नी पं चलचान भ्रीरामचन्द्र जी के दे दो ।
क्योंकि ये इनके येग्यपात्र हैं ग्रोर प्रापक्ो इच्छानुसार काम करने
वाले हैं. ध्श्ववा प्रापको सेवा शुश्रपा मन लगा कर करने वाले
हु॥ ३०॥
कतेग्य थे महत्कमं सराणां राजसनुना ।
एयमुक्ला सराः सर्वे जम्मुह॒ञ् यधागतस्॥ २१ ॥
विश्वामित्र॑ पुरस्कृत्य ततः सन्थ्या प्रवतते |
तते म्रुनिवर; प्रीतस्ताटकावधतोपित: ।
मूर्धि राममुपाप्राय इ्द वचनमत्रवीत् ॥ ३२॥
श्श्द वालकायडे
और ये राजकुमार देवताओं के वड़े वड़े काम करेंगे। यद्द कह
और विश्वामित्त जी फा पूजन कर, सव देवता जहाँ से शाये-ओे
वहाँ प्रसन्नता पूर्वक लौठ कर चले गये | इतने में सन्ध्या है! गया ।
तव घुनिवर विश्वामित्र वाठका के वध से प्रसन्न है। और श्रीराम-
चद्ध जी का माथा दूघ कर यद वाले ॥ ३१ ॥ ३२ ॥
इहाय रजनी राम वसेम शुभदशन ।
श्व/प्रभाते गमिष्यामस्तदाश्रमपद्द मम | रे३ ॥
है शुभद्शन राम ! भ्राज़ की रात यहीं विश्राम कर, प्रातःकाल
होते दी हम अपने आश्रम के चलेंगे || ३३ ॥
विश्वामित्रवचः श्रुला हणे दशरथात्मजः ।
उबास रजनीं तत्र ताठकाया बने सुखम् ॥ ३४ ॥
विश्वामित्र जी के इन बचनों के खुन श्रीरामचन्द जी प्रसन्न
हुए। रात भर झुखपूर्वक ताठका के वन ही में विश्राम किया ॥ ३४॥
मुक्तशाप॑ वन तत्च तस्मिन्नेव तदाहनि |
रमणीय॑ विवश्नाज तथा चैत्ररथं वनस् ॥ ३५ ॥
ताठका जिस दिन मारी गयी उसी दिन से ताथ्का के वन
का शाप छूट गया और चद चैत्ररथ चन की तरह .अत्यन्त रमणीक
द्वे गया || ३४ ||
निहत्य तां यक्षसुतां स राम!
प्रधस्यमानः सुरसिद्धसंघे। ।
उबास तसिमिन्पुनिना सहेच
प्रभातवेलां प्रतिवेध्यमानः ॥| ३६ ॥
इति पड्विशः सर्गः ॥
सप्ताचिशः सर्गः १६६
/ कक ज्ञी ने ताठफा के भार कर और जझुरों तथा सिद्धों
, “से शड्डी प्रशंसा प्राप्त की भर्धात् चढ़ाई पाई और विश्वामित्र के साथ
- च्द्धों संत भर विश्वाम कर, सबेरा होने पर ज्ञागे ॥ २६ ॥
बालफागट का छ्वीसयाँ सर्ग समाप्त हुप्ा ।
जे
सप्तविशः सर्यः
+-+६ ० ६--
अथ ता रजनीमुष्य विश्वामित्रों महायशा; |
प्रदस्य राघव वाक्यमुवाच मधुराक्षरम् ॥ १॥
.. उस रात में वद्दों निवास कर मद्दायशम्वी विश्वाप्िष् ने मुस-
' करा कर मधुरवाणी से श्री रामचन्द्र जी से कहा ॥ १॥
परितुष्टीउस्मि भद्गं ते राजपुत्र महायशः ।
प्रीत्या परमया युक्तों ददाम्यस्धाणि सवंश। ॥ २ ॥
दे मदायशस्त्री राजकुमार ! में तुमसे वहुत सन्तु्ट हैं और
तुमको प्रसन्नता पूर्वक सब धत्त देता हैं ॥ २॥
देवासुरगणान्वापिं सगन्धवेरगानपि ।
येरमित्रान्यसब्याजों वशीकृत्य जयिष्यसि ॥ ३ ॥
इन अस्रों से तुम छुर, घघुर, गन्धर्व और नाग भादि अपने
नर्ओों का अपने चश में कर जीत लागे ॥ ३ ॥
तानि दिव्यानि भद्दं ते ददाम्यस्राणि सवेश।
दण्ठचक्र महद्विष्यं तद दास्यथामि राघव ॥ ४. ।।
२०० वालकायडे ह
है राम | तुम्हें में इन सव अख्नों के देता हैं। ले यह मुह
दिव्य दाडचक्र है ॥ ४॥
धर्मचक्रं ततो वीर कालचक्रं तथेव च ।
विष्णुचक्र तथाउत्पुग्रमेन्द्रमस्त्रं तथव च ॥ ५ ॥
हे वीर ! यह के। धर्मचकऋ, कालचक, विध्युव॒क्र, बड़ा पैना
पेन्द्रात्म ॥ ५ ॥ .
बज़मर्त्र नरश्रेष्ठ शेवं शुलूवरं तथा ।
अस्त्र बह्मशिरश्व ऐपीकमपि राधव ॥ ३ ॥
है नरश्रेष्ठ ) यह के वज्ञालत्म, महादेवास्त्र | हे राघच ! यह है
त्रह्मशिर और ऐपीक ॥ 5 ॥ _
ददामि ते महावाहों त्राह्ममख्रमनुत्तमम |
गदे दे चेदर काकुत्स्थ मेदकी शिखरी उभे ॥ ७॥
हे सम ! में तुमका सव भअद्लों से बढ़ कर यह ब्रह्माख्र देत।
हैं और यह लो मेदकी और शिखरी नाम को दो गदाएँ ॥ ७॥
प्रदीप नरशादेर प्रयच्छामि हृपात्मज |
धमपाशमहं राम कालपाशं तथ्य च || ८ ॥
हे राजकुमार राम ! मै तुमझी अत्यन्त उम्र धर्मपाश और काल-
पाश नामक अख् देता हैं ॥ ८ ॥
पाश वारुणमस्त्र च ददाम्यहमनुत्तमस ।
अजनी दे प्रयच्छामि शुष्का्ँं रघुनन्दन ॥ ९ ॥
यह लो चरुणपाश, शुष्क और धशनी नामक दो वच्ध ॥ ६ ॥
दिएड-
ः
सप्तविशः सर्गः २०१
ददामि चास्त्र पनाकमर्त्र नारायणं तथा ।
+ आग्नेयमस्त्रं दयितं शिखरं नाम नामतः ॥ १० ॥
; यद मी पेताकाख्र, नारायगाख प्र श्ाम्येयाख जिसका नाम
गिसर है ॥ २० ॥
बायव्यं प्रथनं नाम ददामि च तवानध ।
अम्त्रं हयशिश नाम ऋ्रोश्मरस्त्र तथेत च ॥ ११॥
शक्तिदय॑ व काकुत्थ ददामि तब राघव |
फट्टाई मुसझ घारं कपालमथ कहूुणम् ॥ १२ ॥
हराम | बद ला प्रथम नामक वायत्याख, हयशिरास्त्र और
फ्रोश्ासतर। में दो शरक्तियाँ भी तुझे देता है। में तुम्हें भ्रव भयकुर
कट्लाल नामक सुशल, कापाल शआर कडुण देता हैं॥ ११५॥ ११॥
धारवन्लसुरा यानि ददाम्येतानि सवशः ।
बेद्याथर्र मदास्त्र व नन््दर्न नाम नामतः ॥ १३॥
मैं तुम्दें पे सब अख्तर देता हूँ जा रात्तसों के बंध के लिये
डपयोागी हैं। यह चिद्याधरात्र है ओर यद ननन््दन नामक ॥ १३६॥
असिरत्न महावाहो ददामि नृवरात्मज |
गान्पर्बमर्स्त्रं दयिते मानव नाम नामतः ॥ १४ ॥
उत्तम तलवार, दे राजकुमार ! में हुम्मेँ देता हैं । यह ले
पर्खवाख, शोर प्यारा मानवाद्ध ॥ १४ ॥
/ प्रस्थापनप्रशमने दक्षमि सोरं च राघव |
दर्पणं शापणं चेव संतापनविछापने ॥ १५ ॥
२०२ बाल्नकायडे
येहें प्रदाषन और प्रशमन, सोर, दर्पण, शोपण, सन्तापुन
ओर विज्ञापन ॥ १४ ॥
मदन चैव दुर्धध कन्दर्पदयितं तथा ।
पेशाचमस्त्रं दयितं मेहन॑ नाम नामतः ॥ १६ ॥
( येहैं ) कन्दर्प देवता का प्यारा डुर्धप मदनाख्र भौर यह है
पैशाचासत्र, और प्यारा मेहनास्र ॥ १६ ॥
प्रतीच्छ नरशादूल राजपुत्र महायत्ञ) ।
तामस नरशादूल सामनं च महावल ॥ १७॥
दे महायशस्वी राजकुमार ! यह ले तामस कोर महावली
सौमन ॥ १७ ॥
संबर्त चेव दुधष मेसलं च द्रपात्मन ।
सत्यमरस्त्रं महावाहों तथा मायाघरं परस्। १८ ॥
हे राजकुमार ! हे भहावाह्दी | ये हैं संव्त, दुर्धर्ष, मोशले,
सत्याक्ष, ओर परमासत्र मायाधर ॥ १८ ॥ 5
घोर तेज!प्रभ॑ नाम परतेजेपकर्पणम् ।
सैम्यास्त्रं शिशिरं नाम त्वाएमस्त्रं सुदामनम ॥१९
येहें तेज्प्रभ नामक अस्त, जिससे शत्र का तेज्ञ खींचा
जाता है। ( झोर ये हैं ) शिशिर नामक सेमास्य, त्वाप्राख॥ १६ ॥
दारुणं च भगस्यापि शौतेषुमथ मानवम् |
एतान्राम महाबाहों कामरूपान्महावछान् ॥ २०।
( ये हैं) दारुण भगार्र, शीतेषु ओर मानव ( नाम के अख्तर)
दे महावाद्दो राम | तुम इन महावली, कामरूपी ॥ २० ॥|
हि
कप
ज टच
सप्तविशः सर्गः २०३
गृद्यण परमोदारान्ध्रिप्रमेव दृपात्मण |
“स्थितस्तु माइमुखा भूत्वा शुचिमुनिवरस्तदा ॥ २१॥
, वया परस्मेदार अखों के है राजकुमार | शीघ्र श्रदण करे।
तदनन्तर मुनिर्भेष्ठ विभ्वामित्र ने पूर्व की श्रोेर मुख कर, पविछ
क्ष॥ २१ ॥
ददों रामाय सुमीतो यन्त्रग्राममनुत्तमस ।
््ः स्वसंग्रह्ण येषां ब्क देवतरपि ७
वेसंग्रहर्ण येपां दवतरपि दुलूभम ॥ २२ ॥
. और प्रसप्त दो, उन सम्पुर्ण घअख्रों फे मंत्र ( श्र्धात् चलाने
घर रोकने की विधि ) वतलाये, जिन सव श्यस्त्रों का प्राप्त होना
इेबताओं के लिये भो दुर्लभ है ॥ २२ ॥
तान्यस्चाणि तदा विमों राघवाय न्यवेदयत् ।
जपतस्तु मुनेस्तरय विश्वामित्रस्य धीमत) ॥ श३रे ॥
उपततस्तुमंदार्दणि सर्वाण्यद्धाणि राघवस् |
उचब मुदिता। सर्वे राम प्राज्ललयस्तदा ॥ २४ ॥|
वे सत्र प्रक्म विश्वामित्र जी ने ध्रोरामचन्द्र जी के दे दिये।
( ज्योहीं घीमान् विभ्दामित्र जी उन मंत्राओ़ों का उच्चारण करने
लगे स्यार्टी ) थे मंत्र प्रपवा सात्ञात् रूप धारण कर भीराम-
चन्द्र जी के सामने द्ाथ जाड़ कर था खड़े हुए और कहने
लगे ॥ २६ ॥ २४ ॥
इमरे सत्र परमेदारा। किद्वुरास्तव राघव |
प्रतिगृद्य च काकुत्स्थ/ समाऊूभ्य च पाणिना |
मानसा में भविष्यध्वमिति तानम्यचादयत् ॥२५॥
२०७ दालकायडे
दे परमेददार राघव | हम खब आपके दास हैं। जे काम झाप
दमसे लेना चाहेंगे वही हम करेंगे। तव थ्रोरामचन्ध जी ने डाजके
अपने हाथ से छुपा ओर वेले--में जब तुम्हारा स्मरण र्प'
तुम शराकर मेरा काम कर जाना ॥ २४ ॥
ततः प्रीतमना रामे विद्वामित्र॑ महामुनिस् |
अभिवाद्य महातेजा गमनायेचक्रमे || २६ |
इति सप्तविशः सगे ॥
तद्नन््तर धओरीरामचन्द्र जी ने पुनिप्रवर पव॑ महातेजस्वो
विश्वामित्र जी के प्रणाम किया धयोर कहा कि, पश्चारिये ( अर्थात्
घागे चलिये ) ॥ २६ ॥
वालकाणड का सत्ताइस्वाँ सम॑ सम्राप्त हुआ्मा ।
“ा+औ#ई--
अष्टाविशः से:
“5 क :--
प्रतिग्रद्य ततेच्लाणि प्रहष्टवदनः शुचिः ।
गच्छन्नेव च काकुत्सोों विश्वामित्रमथात्रवीत् ॥१॥
उन सव अल्लों के पवित्रता पूर्वक भ्रहण कर ( धर्थात् उन
श्र्धों के ले और उनके चलाने को विधि ज्ञान कर ) मार्ग में चलते
चलते श्रीराम चन्द्र जी प्रसन्न हो विश्वामित्र ज्ञी से वेत्ते ॥ १ ॥
गृहदीताद्बो“रिमि भगवन्दुराधषे! सुरासुरै |
अज्नाणां त्वहमिच्छामि संहारं मुनिषुद्धव |॥ २ ||
पाशविशः सर्गः २०४
दे भगवन् । घझ्ापके भानुग्रह से मुझे ये श्रख् जे सुर पर
पा फैजिये भो दुष्प्राय हैं, मिल्न गये, ( और उनके चलाने
वे लिधि भी मालूम ही गयी, किन्तु ध्यव ) मुझे प्राप इनके संहार
( अर्थात् भरत घला कर उसे यापस लेने की चिधि ) भी वतला
दोजिये ॥ २॥
एवं ब्रुवति काछुत्स्थ विश्वामित्रों महामतिः |
संदर व्याजदाराथ ध्रृत्तिपान्मुव्रत। शुति। ॥ ३ ॥
. श्रीरामचद जो फे बद कहने पर मद्दावुद्धिमान्, घैयवान, खुघत
ओर पव्रित्र कियामसित्र जी ने उन सब मंभाखों का संहार भी वतला
दिया ॥ ३ ॥
सत्ववन्तं सत्नकरीत्ति ध्ृष्ट रमसमेव चे ।
प्रतिहारतरं नाम पराइ्मुखपव्रास्मुखम् ॥ ४ ॥
। छिर आर भी मंत्राख् इतलाये जे प्रथम बतलाने से रह
औ ; थे ) उनके नाम ये हैं--सत्यवन्त, सत्पक्रीति, घरष्ट, रभ प्रति-
दारतर, पराइ्मुख, ध्वादमुख ॥ ४॥
लक्षाक्षत्िपमा चेव दृनाभसुनाभकों |
के दशशीपशतोदरो रे के
दशाक्षशतत्रक्रा च दशशीपशतोदरा ॥ ५ ॥
लक्ष्य, अलक्प, ट्ृटनाभ, सलुनाभ, दशात्त, शतवक्र, ,दशशीषे,
श्तादूर ॥ ५॥ हि
पद्ननाभमहानाभो इृन्दुनाथसुनाभको |
ड्येततिपं कृशषन चेव नराश्यविमलाबुभों ॥ ६ ॥
पत्चनाम, मद्दानाम, दुन्दुनाम, खुनाभ, ज्योतिष, कशन, मैराश्य,
विमल ॥ 5 ॥ ह
हि]
२०६ वालकायडे
येगन्धरहरिद्रों च देत्यप्रभथनं तथा |
शुचिवाहमंहावाहुर्निष्कुलिविस्चिस्तथा ॥ ७ ॥ _
थोगन्धर, हरिद्, देत्यप्रमथन, शुचिर्ताहु, महावाहु, निष्कंपत हे
और विरुचि ॥ ७ ॥
सार्चिमाली धतिमांली हृत्तिमान्रुचिरस्तथा |
फ़िल्यं सामनस चेव विधृतमकरावुभों | ८ ॥
साचिमाली, घृतिमाली, वृत्तिमान, रुचिर, पिथ, सोमनस,
विध्यूत, मकर ॥ ८ ॥
करवीरकरं चेव धनधान्यों च राघव ।
कामरूप॑ कामरुचि मेहमावरण्ण तथा ॥ ९ ॥
करवीरकर, धन, धानन््य, कामरूप, कामरुचि, भोद श्रौर
शावरण ॥ ६ ॥
जुम्भक॑ सर्वनाभं च सन््तानवरणों तथा ।
कृशाश्वतनयान्राम भाखरान्क्रामरूपिण। || १०
जुम्भक, सर्वेनाभ, सन्तान, और वरुण । दिश्वांमित्त त्षी कहने
लगे ) हे राम | ये सव छशाश्व के पुत्र बड़े तेजस्वी और कामरूपी
हैं॥ १० ॥
प्रतीच्छ मम भद्ं ते पात्रभूतेजसि राघव ।
वाढमित्येव काकुत्स्थः प्रहुष्टेनानतरात्मना || १ १॥
इनके तुम ग्रहण करे । तुम्दारा कल्याण है। | ब्योंकि हे राघेवः
तुम इनके भ्रहण करने के योब्य हो। यह खुन शीरामचन्द्र जो
भसन्न दो कहा “बहुत अच्छा ” ॥ ११ ॥|
घष्टादिशः सर्गः २०७
दिव्यभाखरदेद्याश्॒ मूर्तिमन्तः सुखप्रदा!
'. कचिदड्गारसरशाः केचिद्धमेपमास्तथा || १२॥
तब दिव्यरूप, देदीप्यमान, मुत्तिमान, पयोर लुखप्रद ( थे प्र
भोरामचद्ध भी के सामने उपस्यित हुए ) उनमें काई ते ददकते
हुए श्गार ( शाल्ते ) के समान, फाई चुप फे रंग घाक्े, | ११॥
चद्राकसदशा। केचित्रहाज्जललिषुटास्तथा |
राम प्राज़लये भूल्वाव॒वन्मधुरभाषिण! ॥ १३॥
कोई चन्द्र और छूर्य के सलमान थे और केोई द्वाथ जोड़े, हुए थे
थे श्रोरामचतद्त जो से वद़ी नम्नता के साथ वाले ॥ १६ ॥
इमरें सम नरणादूल शाधि कि करवाम ते ।
मानसाः कायकालेपु साहास्यं मे करिप्यय ॥१४॥
है नरशार्टल ! दम उपस्धित हैं, फ्या श्राश्ा है? ( इस पर
धोरामचन्द्र जी ने उनसे कहा ) तुम' मेरें मन में वास फरो और
फाम पड़ने पर मेरी सहायता करना ॥ १४॥
गम्यतामिति तानाइ यथेष्टं रघुनन्दनः ।
अथ ते राममामन्त्य झत्वा चापि प्रदक्षिणम् ॥१५॥
ध्रव तुम जहाँ चादी वहाँजा सकते दे | धीरामचन्द्र जी के
यद चचन छुन तथा उनही प्राक्षा के एवं प्रदक्तिया कर, ॥ १४ ॥|
/. एयमस्ल्ति क्ाकुत्स्थमुक्ला जग्युयेथागतम् |
सच तान्रायवी ज्ात्वा विश्वामित्रं महामुनिम ॥१६॥
धा०ए रा०--१४
श्ण्द वालकाणडे
और “बहुत भच्छा ” कह फर ' जहाँ से आये थे वहां चल्ले
गये। इस प्रकार इन ध्रों का पा कर, भ्रीरामचन्द्र जो ने ऋषि प्रचार
विध्वामित्र जी से ॥ १६ ॥
गच्छन्नेवाथ मधुर श्लक्ष्णं वचनमत्रवीत् ।
किन्वेतन्मेघसंकाश पर्वेतस्याविदूरतः ॥ १७ ॥
चलते चल्नते पूं छा--मद्दाराज ! पहाड़ के समीप जे। काले
मेघ जैसा देख पड़ता है चद फ्या है ॥ १७ ॥
टृक्षपण्डमिते। भाति पर कोतूहलं हि मे ।
दर्शनीय मृगाकीण मने।हरमतीव च ॥ १८ ॥
वह तो वृत्तों का समूह जैसा ज्ञान पड़ता है; उसे देखने से
मुझे वड़ा झुतूहल दे! रद्दा है । वह अनेक वनपश्चुओ्रों से युक्त, देखने
याग्य एवं अत्यन्त मनेहर सा ज्ञान पड़ता है ॥ १८॥
* ्ञानाप्रकारे शकुनेव॑स्युनादेररूडकृतम् ।
निःरूता। सम मुनिश्रेष्ठ कान्ताराद्रीमहपणात् ॥ १९ ॥
चहाँ तो मीठी बे।ली वेलने वाले पत्ती बेल रहे हैं। ज्ञान पड़ता
है, थ्रव दम क्षाग भयद्ठुर रोमाश्चकारी वन के पार हो गये ॥ १६ ॥
अनया त्ववगच्छामि देशस्य सुखबत्तया ।
से मे शंस भगवन्कस्याश्रमपर्द त्विदस् ॥ २० ॥
वहाँ चल्ल कर खुंखी दने की मेरी इच्छा है। भगवन ! कृपया
बतलाइये कि, यह किसका श्ाश्रम है ? ॥ २० ॥ ह
संप्राप्ता यत्र ते पापा बह्मप्ना दुष्टचारिण; ।
«तब यज्ञस्थ विध्वाय दुरात्मानों महाम्नने ॥ २१॥
पएकेोनचिशः सर्गः २०६
ह दे मदामुने | क्या हम लेग आपके उस आश्रम में पहुँच गये,
पद दुराचारो प्रह्मल््यारे रात्तत श्राकर यश्ष में विध्न किया करते
ह६?॥५०१॥
भगव॑स्तस्य का देश) सा यत्र तन याज्िकी |
रफ्षितव्या क्रिया ब्रह्मत्मया वध्याश्र राक्षसा। ।
र्ः कर शोतुमिच्छ के
एतत्सव मुनिश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यहूं प्रभो || २२ ॥
इति अशविशः सर्गः ॥
है भगवन | बतलाइये, ध्रापका वह स्थान, जहाँ प्राप यज्ञ फरवते
ई. कहाँ है ? हे प्रह्मन ! में रातों के मार क( आपके यक्ष को रक्ता
ऋूुँगा। है मुनिपवर | हे प्रमे | ये खइ बातें में जानता चाहता हूँ ॥२२॥
वालकांगढ़ का अट्टाइसवाँ सगे सप्राप्त हुआ |
“+औई--
हक न्रनि |
एकोनत्रिशः सर्गः
--+३०३---
अथ तस्याप्रमेगस्य तद॒न परिपृच्छत; |
विश्वामित्रों महतेज[ व्य|स्य[तुमुपचक्रपे | १ ॥
प्रद्ित्य बैमव बाते श्रीयमचद्ध जो के इस प्रकार उत्त वन के
विषय में पूं द्वने पर, मद्दातेज ज्वो विश्वामित्र जो कहने लगे ॥ १॥
इंह राम महावाहों विष्णुदेववर!) पु! ।
बरषाणि सुत्रहन्येव तथा युगशतानि च ॥ २॥
है राम । यद वह स्थान है; जदाँ देवताओं में श्रेउ भगवान
विष ने वहुत बहुत वर्षो श्र सैकड़ों युगों तक ॥ २॥
३१० चालकायणडे
त पश्ररणयेगार्थशुवास छुमहातपाः ।
एप पूर्वाश्रमो राम वामनस्य महांत्मनः ॥ हे ॥
तपस्था करने के लिये वास किया था। यह पश्ाश्रम पहले |
महात्मा वामन जो का था।| ३ ॥
सिद्धाश्रम इति ख्यातः सिद्धों छन्र महातपाः ।
एतस्मिन्नेव काले तु राजा वेरोचनिवेलिः ॥ ४ ॥
यहाँ पर उन महातपा का तप सिद्ध हुआ था, इसोसे यह
सिद्धा्म के नाम से प्रसिद्ध है। उसी सर्मंय राजा- विशेचन के
पुत्ने वलि ने ॥ ४॥ ' |
: निर्जित्य देवतगणास्सेन्द्रांथ समरुदूगणान् ।
कारयामास हद्वाज्यं त्रिषु लाक्षेषु विशुतः ॥ ५॥
इन्द्र और मरुद्गण सहित सब देवताओं के जीत कर, कक
'ख्यात तीनों लोकों का राज्य किया था ॥ ५॥
वलेस्तु यजमानस्य देवा: साप्रिछुरोगमाः ।
समागम्य खय॑ चेव विष्णुमूचुरिहाश्रये ॥ ६ ॥
वलि ने जब यज्ञ करना आरस्ते किया, तव सब देवता श्रप्नि
फेो आगे कर विष के पास इसी आश्रम में आकर वाले ॥६॥॥
वलिवेंरोचनिर्विष्णो यजते यज्ञमुत्तमम् |
असमाप्ते क्रतों तस्मिन्खकारयमभिपद्ंताम || ७ ||
विरोचनपुत्र राजा वलि पक्र उत्तम
यु से चम यज्ञ कर रहा है। दस ५
यज्ञ की समाप्ति हेने के पूर्व॑ देवताश्ों के दितार्थ जे कुछ करना
हो कोजिये॥ ७॥ | हा
पक्ामब्रिषाः सर्ग २११
ये चेनमभिवतन्ते याचितार इतस्ततः |
की] न
यज्च ग्रत्र यथावच्च सब तेभ्य! प्रयच्छति ॥ ८ ॥
उसके यप्त में प्र देशों से श्राये हुए याचक जे। कुछ माँगते
3
हैं, वह उन्हें चट्टी देता है॥ ८॥
स लव छुरहिता्थाय मायायेगमुपाश्रित: |.
बामनत्व गतो विष्णे कुरु कल्याणभुत्तमस ।। ९ ॥
धछातः ग्राप देखतानों के दित के लिये अपनी माया के येग से
प्रयवा उतर से चामनावतार घारगा %ऋर, हम लोगों का कल्याण
कोजिये॥ ६॥
एनस्मिज्रस्तरे राम कश्यवेउम्रिसमप्रभ! |...
हक
अदित्या सहिता राम दीप्यमान इबोजसा ॥ १०॥।
हैं राप ! इसी बीच में श्रग्मि के समान प्रम्ता चाल्े कश्यप जी
अपनो खस्री अदिति सहित तपःप्रभाव से देदीप्यधांत थे | १० ॥
देवीसदाये। भगवान्दिव्यं वर्षसदर्तकस् ।
अत समाष्य बरद तुशव मधुसदनस ॥ ११॥
' बेची के सहित कश्यप जो, सहत्न वर्षों की तपस्या का मत
समाप्त कर, चरदानों भगवान् मधुूदन की स्तुति करने लगे ॥११॥
तपामयं तपेराशि तपेमूर्ति तपात्मकम | . ,
तपसा ता सुतप्तेन पश्यामि पुरुषोत्तमम् ॥॥ १२ ॥
है पुरुषोतम ! थ्राप तपद्वारा आयकध्य दें, तप का फन्न देने वाले
हैं, श्ञान स्वरूप दें. गए तपर्थमांव हैं । इसलिये में अपने तपः
भ्रभाव से पग्रापका देखता हैं ॥ १२ ॥
२१२ चालकायणडे
शरीरे तब पव्यामि जगत्सबंमिदं प्रभे ।
त्वमनादिर निर्देश्यस्वामह शरणं गतः ॥ १३॥
हे प्रमा | में थ्पके शरीर में यह चेतन अचेतनात्मक सारः
ज्ञगत् देख रहा हैं। आप श्रनादि हैं अर्थात् उत्पत्ति रहित हैं, घ्रनिर्देश्य
हैं, (धर्थात् आपकी महिमा का वर्णन काई कर नहीं सकता अथवा
थाप ध्कथनीय हैं ) मैं घ्रापके शरण में आया हुआ हैं ॥ १३ ॥
तम्ुवाच हरि! मीत! कश्यपं घूतकल्मपंस् |
वर॑ बरय भद्गं ते वराहेंस मतो मम ॥ १४ ॥
( इस स्तुति से प्रसक्ष है कर ) यह खुन भगवान्, विष्छ पाप
रहित कश्यप जी से वेले--कश्यप ! तुम्हारा कल्याण हा, तुम वर
माँगों, में तुम्हें वरदान देने योग्य समझता हूँ ॥ १४ ॥
तच्छू त्वा वचन तस्य मारीचः कश्यपाअब्रवीत् |
अदिला देवतानां च मम चेवानुयाचतः ॥ १५ ॥
यह छुन मरीच के पुत्र कश्यप जी ने कहा--मेरी, मेरी ख्री
घद्ति की तथा देवताशों की प्रार्थना है कि, ॥ १४ ॥
'बर॑ बरद सुप्रीतो दातुमहसि सुब्रत ।
पुत्र॒त्व॑ गच्छ भगवन्नदित्या मम चानघ ॥ १६ ॥|
हे वरद् | आप प्रसन्न हो कर 'मुस्ते यह वर दे कि, आप मेरी
निष्यापा स्री भ्रदिति के गर्स से पुत्र रुप में जन्म लें ॥ १६ ॥
. भ्ाता भव यवीयांस्त्व॑ शक्रस्यासु रसूदन ।
शेकार्तानां तु देवानां साहाय्यं कतुमहसि ॥ १७ ॥
पएकानविशः सर्गः २१३
है धरिसृददन ! इन्द्र के छोटे भाई वन कर धाप शोकात्ते
देवताओं की सहायता फोजिये ॥ १७॥ '
अं सिद्धाश्रमो! नाम प्रसादातते भविष्यति |
सिद्ध क्मणि देवेश उत्तिष्ठ भगवन्नित! ॥ १८ ॥
यह श्राधम आपकी छूपा से सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्ध द्वेगा ।
है दइवेश | जञव काम सिद्ध ही जाय तब शाप यहाँ से उठिये॥ १८॥
अथ बिए्णुमैदातेजा अदित्यां समनायत ।
चामन रूपमास्थाय वरेोचनिमुपागमत् ॥ १८॥
यह सन महातेजल्ली भगवान् विषा पअदिति के गर्भ से वामना-
घतार घारगा कर राजा बलि के पास गये ॥ १६ ॥
प्रीन्क्रमानथ भिक्षिल्रा मतियद्द च मानद) ।
_आक्रम्य राकॉस्लेकात्मा सवलेकहिते रतः ॥२०॥
घर उनसे तीन पग भूमि को याचना को और तीन पग
थूमि पा कर, सव क्षागों के द्वितार्थ, तोन, पग से तीनों क्लाक
नाप ढात्ते ॥ २० ॥
महेन्द्राय पुनः प्रादाल्ियम्य वलिमेजसा |
प्रेंछाक््यं स महातेजाअक्रे शक्रतरश पुन। ॥ २१॥
फिए इन्द्र को तीनों लाकों का राज्य दे, व्ति के अपने बल
प्रभाव से बाँच लिया ( और पाताल के भेजा ) इस प्रकार उन महा
तेन्नस्व्री ने तीनों लाकों का पुनः इन्द्र के ध्रधीव कर दिया ॥ २१॥
तेनेप पूर्वमाक्रान्त आश्रम! अ्रमनाशनः ।
मयापि भवत्या तस्येप वामनस्येपशुज्यते ॥ २२ ॥
२१४ वालकायडे
प्रमंनाशंक यह आश्रम उन्हींकरा है | में भी उन्हीं चामन/
भगवान की भक्ति कर इस श्राश्रम का उपभेाग करता हैं॥ २२ ॥--
एतमाश्रममायान्ति राक्षे्सी विश्नकारिणं;
अत्रेव॒ पुरुषव्याप्रे हन्तंव्या दुष्चारिण: |
द॑गच्छामहे राम सिद्धाश्रममनुत्तम || २३ |
' इसी ध्राश्रम में भरा कर राक्षस उपद्रव म्रचाया करते हैं। हे
पुरुषसिंद | यहीं रह कर उन दुराचारियों का वध कश्ना होगा। हे
राम | शाज उसी उच्तमे सिद्धाश्रम के हम लेग चलते हैं ॥ २३ ॥
तदाश्रमपदं तात तवाप्येत्यथा मस |
प्रविशन्नाश्रमपद व्यरोचत महामुनिः ॥ २४ ॥
हे चत्स ! चह आश्रम जैसा मेरा है वैसा ही तुम्दारा भी है,
यह केह धीरामंचनद्ध लक्ष्मण के साथ लिये हुए, विश्वामित्र ने
अपने सिद्धार्थ में प्रतेश क्रिया ॥ २४ ॥
शशीव गर्तनीहांरः घुनवेसुसमन्बितः ।
त॑ दृष्टा मुनयः सर्वे सिद्धाभ्रमनिवासिन। ॥ २५ ॥|
उस समय ऐसी शासा जान पड़ी मानों पुनवंछु के साथ
शखुकाजीने चर्कँमो शोभा दे रहां हा । विश्वामित्र जी के देख
सब सिद्धाश्रम वासियों ते ॥२४ ॥
उत्पत्योत्पत्य सहसा विश्वामित्रमपूंजयन्ू |
यथाह चक्रिरे पूर्नां विश्वामित्रांय धीमते ॥ २६ ॥।
उठ डठ कर और प्रम प्रसन्न है। विश्वामित्र जो का पूजन
किया। जिस प्रकार धीमाव विश्वामित्र को पूर्नन क्रिया गया, ॥२६॥
एकाननिंशः सगरेः २१४
तथंव राजपुत्राभ्यामकुवन्नतिधिक्रियाम ।
मुहर्तमिव विभान्तों राजपत्रांवरिन्दमा || २७ ॥
उसो प्रशार राजकुमारों का भी अतिथि साकार किया गया ।
कुछ देर विध्ाम कर शबहन्ता दोनों राजकुमारों ने ॥ २७॥
प्राक्नलली मुनिशादूलमूचतू रघुनन्दनों |
अद्येव दीक्षां प्रविश भद्ठ ते मुनिपुद्धब ॥ २८ ॥
हाथ जेड़ कर विश्वामित्र जी से कहा, दे मुनिप्रवर | आप झाज
ही से पता यज्ञ भारम्भ कीजिये आपका मड्ुल होगा ॥ २८ ॥
सिद्धाश्रमे5्यं सिद्ध स्थात्सत्यमस्तु वचस्तव |
एयमुक्तो महातेजा विश्वामित्रों महाम्ननिः ॥ २९ ॥
बह :सिद्धाअम है। प्रतः आपका कार्य सिद्ध हे और आपका
' बचन सत्य दी । यह खुन मंहातेज्स्वी ऋषिप्रवर विश्वामित्र
जी ने ॥ २६ ॥
प्रविवेश तते दीक्षां नियते! नियतेन्द्रिय:
ररावपि ता. रात्रियुपित्ा सुसमाहिता ॥ ३० ॥
नियम पूर्वक, जिंतेद्धियं हें कर यश फेरना आरस्स किया ।
श्रौर दोनों राजकुमार भी डस शत में सावधानता पूर्वक वहीं
रहे॥३०॥ - :-
प्रभावकाले चेत्याय पूववा' सन्ध्याम्ुपास्य चे |
स्पृष्टोदको छुची भप्यं समाप्य नियमेन थे |
हताभिहोत्रमासीन विश्वामित्रमवन्दतास ॥ २९ ॥
इति एक्केनजिंश+ सगे ॥
२१६ बालकायडे
और प्रातःकाल् दोते दी दोनों राजझमारों ने उठ कर सन्व्या:
की । तबनन्तर नियमाठुखार आ्ाचमन पूर्वक पवित्र हो, जप किया
फिर अग्निदात्र करके आसन पर विराजमान विश्वामित्र जी केश
उन्होंने प्रणाम किया ॥ ३१ ॥
' बालकाण्ड का उन्तीसर्वाँ सर्ग समाप्त हुआ।
कुं+
निश ४
त्रेश। सगे;
-+-४#4--
अथ तै देशकालकज्ञों राजपुत्रावरिन्दमा ।
देशे काले च वाक्यज्ञावजतां काशिक वचः ॥ १॥
देश और काल के जानने वाले श्र शत्रु के मारने वाले दोनों
राजकुमार देश काल का विचार कर विश्वामित्र जी से बेल ॥ १॥
: भगवज्श्रोतुमिच्छावे। यस्मिन्काले निशाचरो ।
संरक्षणीयों, ते बह्मन्नातिवर्तेत तत्क्षणस् ॥ २ ॥
है भगवन् | हम जानना चाहते हैं कि, वे दोनों रात्तस यज्ञ
विध्यंस करने किस समय घाते हैं, ज्ञिससे वे हमारो अनजान में
ध्ाक्रमण न कर पाचे ॥ २॥
एवं ब्रुवाणों काकुत्स्थों तवस्माणों युयुत्सया ।
०...
सर्वे ते मुनयः पीता: प्रशशंसुतृपात्मजा ॥ ३ ॥
चिशः सर्गः २१७
जव सिद्धाश्रमदासी मुनियों ने राजकुमारों की यह वात छुनो
और उनके राज्सों से तुरन्त लड़ने के लिये तत्पर देखा, तव ये
लग रामकुमारों दी प्रशंसा कर कहमे लगे ॥ ३ ॥
अद्य प्रभुनि पड़ात्न रक्षत॑ राघदा युवास |
दीक्षां गतो शेप मुनि्मानित्व॑ च गमिष्यति || ४॥
॥
है राजकुमारों ! पध्राज से घ्राप न्ञाग ६ दिन तक यक्ष की रक्ता
घर | विश्वामित्र जी यहदीत्ता ले चुके हैं, प्रतः ध्व वे छः दिन
तक न बोले अर्थात मेन रहेंगे ॥ ४ ॥
ता च वद्चनं श्रुत्वा राजपुत्रो यशखिनों |
अनिद्रा पददोरात्रं तपेवनमरक्षताम ॥ ५ ॥
घुनियों को वन्नन खुन वे दोनों यूशस्यो राजकुमार, छः दिन
प़ात बिना शयन किये विना, निरन्तर उस तपावन की रक्ता करते
है॥५॥
उपासांचक्रतुर्वीरों यत्तों परमधन्विनों |
ररक्तुओुनिवर्र विश्वामित्रमरिन्दरों ॥ ६ ॥
दोनों घोर राजकुमार धनुप वाण धारण किये विश्वामित्र और
उनके यक्ष की रक्ता हढ़ता पूर्वक अर्थात् श्रत्मन्द सावधानवा के
साथ करते रद्दे ॥ ६ ॥
अथ काले गते तस्मिन्पष्ठेज्डनि समागते ।
सोमित्रिमत्रवीठामे! यत्तों भव समाहित; ॥ ७॥|
पाँच दिन तो निन्िष्न बीत गये | छुठवें दिन श्रीरामचन्द्र जी
ने लक्ष्मण जी से कद्दा--सावधान रद्दो भर्थाव्, ख़रदार है ॥ ७9॥
श्श्८ वालकागणडे
रामस्मेब त्रवाणस्थ त्वरितर्य युयुत्सया ।
प्रजज्वाल तते वेदि। सापाध्यायपुराहिता || ८ ॥"
सदभंचमसख॒का ससमित्कृत॒मोच्चया |
विश्वामित्रेण संहिता वेदिजज्वाल सत्विजा ॥ ९॥
जब युद्ध करने को इच्छा से श्रोरामचन्द्र जी ने ऐसा कहा, तब
ध्करुमात् यक्षवेदी भक से जल उठी शओऔर उपाध्याय, पुरोहित
ऋत्विक तथा विश्वामित्र जो के देखते देखते ऊुश, चमस,
ख्ुवा, पुष्प शादि यज्ञीय पदार्थों के सहित बेदी भभक
उठी ॥ 5५॥ ६ ॥
मन्त्रवच्च यथान्याय॑ यंज्ञोंज्से। संप्रव्तते ।
आकाशे च महाब्शब्द) प्रादुरासीद्ययानकः ॥ १०॥
यद्यपि विश्वामित्र जी का यज्ञ विधि विधान ही से दो रह!
था ( और केई विध्न नहीं होना चाहिये था); तथापि इतने में
आकाश में बड़ा भयानंक शब्द हुआ ॥ १५ ॥ |
आवबाय गगन मेघे यथा प्राहषि निगंत। ।
तथा माया विकुवाणों राक्षत्रावश्यधावताम् ॥ ११ .॥
जिस प्रज्नार वर्षा ऋतु में भेघ भ्राक्ाश के ढक लेते हैं, उप्तो
प्रकार राक्तसगण रा्तसी माया करते हुए ( आकाश में ) दोड़ने
सगे ॥ ११॥
मारीचश्र सुबाहुश्॒ तयेरतुचराश्र ये ।
आंगम्प भीमसंकांशा रुधिरोधमबासरुजंन ॥ १२ ॥
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जिशः सगे; २१६
। मारीच, छुवाहु और उनके साथो प्रन््य भयड्भर राक्तसोंने
कर बेदी पर रुघिर की वर्षा को ॥ ११५॥
सा तेन रुघिरोधेण वेदिं तामभ्यवषताम् |
दृष्टा बेदिं तथाभूतां सानुज। ऋ्रोपसंयुत+॥ १३॥
सहसा5भिव्वतों रामस्तानपश्यत्ततों द्वि ।
तावापतन्तों सहसा दृष्ठा राजीवलाचन! ॥ १४॥
चेदी के रुघिर में हृवी हुई देख योर क्रद् दा जत्मण सहित
ज्ञव सहसा भीरामचन्द्र जो दोड़े तब उन्हें आकांश में मारीचादि
राक्षस देख पड़े । उनके शपनी शेर दौड़ कर आते हुए देख
राजोवलोचन श्रीरामचन्द्र जी ने ॥ १२ ॥ १७॥ '
क्ष्मणं त्वथ संप्रेक्ष्य रामे वचनमत्रवीत् | '
पश्य लक्ष्मण दुउत्तात्नाक्षसान्पिशिताशनान् ॥१५॥
लक्ष्मण को देख उनसे कहा--भाई | ज्ञस इन माँसाहारी तथा
' टुराचारी राक्षसों के तो देखे ॥ १५ ॥
मानवाद्रसमाधूताननिलेन यथा पनानु ।
प्रात परमेदारमस्त्रं परमभाखरम् |॥ १६ ॥
चिश्षेप परमक्रद्धों मारीचारसि राघवः
स तेन परमास्त्रेण घानवेन समाहतः ॥| १७॥
मैं इनके मानवास्र से वैसे ही उड़ाये देता हैँ जैसे पचन- बादल
की उड़ा देता है। ( यह कद कर ) परमभेदार भोरामचेद्र जी ने
, भत्यन्त क्रंंड है, चमचमाता मानवास्त्र मारीच की छात्ती में मारा ।
मांरोब उस पय्माक्ष मानवास्र के लगने से घायल हे ॥ १६ |.
॥ ९७॥
२५० वालकायडे
संपूर्ण येजनग॒त क्षिप्तः सागरसंप्वे । है
विचेतन विधूर्णन्तं शीतेपुबछ॒पीडितम् || १८ ॥
मारीच वहाँ से १०० येजन की दूरी पर सप्रुद्र में जा गिरा ।
उस मूच्छित, चक्कर खाते हुए और मानवास्त्र से पीड़ित ॥ १८॥
निरस्त दृश्य मारीचं रामे! छक्ष्मणमत्रवीत् ।
पश्य लक्ष्मणशीतेषुं मानव मनुसंहितस् ॥ १९ |
मारीच की देख भ्रीरामचन्र जी ने लक्मण ज्ञी से कहा--
लक्ष्मण ! शोतेषु नामक मनुनिर्मित ध्सख्र का प्रभाव ते
देखा ॥ १६ ॥ ह
मेहयित्वा नयत्येन॑ न च प्राणर्वियुज्यते ।
इमानपि वधिष्यामि निधृवृणान्दुए्चारिण! ॥ २० ॥
ज ८ हा
राक्षसान्पापकमस्थान्यज्ञप्नान्पिशिताशनान् |
संगृद्यास्त्रं ततो रामे! दिव्यमास्नेयमद्भुतय | २१ ॥
। इसने मारीच के सूच्छित कर दूर ते कर दिया, किन्तु उसका
धध नहीं क्िया। अब में इन दुष्ट, निर्दयी, पापी, यज्ञ में विच्च
डालने वाले, रुधिर के पोने वाले राज़्सों के भी मारता हैँ । यह
कह कर भ्रीरामचन्द्र ज्ञी ने धयास्तेयास्र निकाला ॥ २० ॥ २१ ॥
सुवाह्रसि चिक्षेप स॒ विद्ध: प्रापतद्भवि ।
शेपान्वायव्यमादाय निजधान महायज्ञा; | २२ ||
और खुबाहु की क्राती सें मारा । छुवाहु उसके लगते ही
भ्ृथिवी पर घड़ाम से गिर पड़ा और मर गया। तब धन्य बचे हुए
निशः सगे श्२१
किया के श्रीरामचद्ध ज्ञी ने वायव्याख्र चला कर नष्ट
५ किया ॥ २०२ ॥
राघवः परमोदारो मुनीनां मुदमावहन् ।
स हत्या रक्षसान्सवॉन्यववप्रानरघुनद्दनः ॥ २३ ॥
इस प्रक्तार परमेदार भ्रीरामचन््र जी ने पम्ुनियों को प्रसक्ष ,
किया। उन यप्ष-विष्मकारी समस्त राक्तसों को मारने के पश्चात्'
ध्रीरामचन्द्र जी को ॥ २३ ॥
ऋषिभिः पूजितस्तत्र ययेन्द्रो विजये पुरा |,
अथ यज्ञे समाप्ते तु विश्वामित्रो महाम्निः ।
निरीतिका दिशो दृष्टा काकुत्स्थमिदमत्रवीत् ॥ २४ ॥
उन मुनियों ने इन्द्र की तरह पूजा की। यज्ञ के निर्विध्त
«८ पमाप्त देने पर महपि विश्वाम्ित्र जी, दसों दिशाओं के उपद्रव
/रदित देख, श्रीरामचद्ध जी से यह बेल्ते ॥ २४ ॥
' क्ृताया5स्मि महावाहों कृत सुस्वचस्तया ।
सिद्धाश्नमणिद सत्य कृत राम महायश। | २५ ॥| '
इति आिशः सर्मः ॥
है महावाद्वे ! में थराज छृतार्थ हुआ | तुमने गुर की आक्षा का
खूब पालन किया। है मद्यायशस्त्री राम ! तुमने इस स्थान का नाम
सिद्धाश्रम सत्य कर दिया ॥ २४ ॥
बालकाण्ड का तीसर्वाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
नाई
एकत्रिशः सर्गः
७-३0 ३००
ब्
अथ. तां रजनी तत्र- कृताथी रामलृक्ष्मणों |
ऊपतुमुंदितों वीरों प्रहुष्टेनान्वंरात्मना ॥ ९ ।॥।
चीस्वर और घुद्दित श्रीरामचन्द्र ओर लक्ष्मण ने, विश्वामित्र का
काम पूरा कर और प्रसन्न दे, रात भर उसी आश्रम में शयुनर
किया ॥ १ ॥
प्रभातायां तु शर्व॑र्या: कृतपैर्वाहिकक्रियों ।
विश्वामित्रमृपींधान्यान्सेहितावमिजम्मंतु; ॥ २ ॥
' खबेर दोने पर शौचादि कर्मों से निश्चिन्त द्षे, दोनों भाई
विश्वामित्रादि ऋषियों के प्रणाम करने गये ॥ २ ॥
अभिवाद्य प्रुनिश्रेष्ठ ज्वलन्तमिव पावकंस् | ;
ऊचतुमधुरोदारं वाक््यं मधुरभाषिणों ॥ रे ॥
अप्ि के समान तेजल्वी मुनिर्चेष्ठ विंश्वामित्र को प्रणाम कर
वे दोनों मधुरभाषी, मधुर एवं उदार वाणी से उनसे बाले ॥ ३ ॥
इमो सम मुनिशादूल. किड्नरों सझुपागतों ।
आज्ञापय यथेष्ट वै शासन करवाव किस ॥ ४॥
दे सुनिशादृल् ! हम दोनों झ्रापके दास उपस्थित हैं। यथेष्ट
आज्ञा दोजिये कि, हम केग आपकी कया सेवा कर ॥ ७ ॥
एयमुक्तास्ततस्ताभ्याँ सबे एवं महषयः
विश्वामित्र॑ पुरस्क्ृत्य राम॑ वचनमत्रुबन् ॥ ५॥
हे
पुकन्रिशः सर्गः २२३
उन दोनों राजकुमारों के इस प्रकार बेलते सुन, विश्यामित्र
जौ को अगुआ वना, सव मद्षियों ने श्रीयमचन्द्र जी से कहो ॥ ४॥
५ मेंथिलस्य नरभ्रेप्ठ जनकस्य भविष्यति |
यज्ञ) परमपर्मिप्ठस्तर्य यास्यामहे वयम् ॥ ६ ॥
है नरश्रे्ठ | पपम घमिए मिथिलाधीश महाराज जनक के यहाँ
यक्ष द्वोने वाला है । हम लोग सब चहां जाँयगे ॥ ६ ॥
तल चेव नरशादूल सहास्माभिगमिष्यसि |
हल है रैक एः
अद्भुतं च धन्रवं तत्रेक॑ द्रष्डमहसि ॥ ७॥
है नरशा्टंल ! तुम भी हमारे साथ चलना। वहाँ तुम एक
अदभुत एवं श्रेष्ठ धठुप भी देख सकेंगे ॥ ७ ॥
तद्धि पूत्र नरश्रेष्ठ द् सदसि देवतेः ।
अप्रमेयवर्ल थारं॑ मखे परमभाखरमस् ॥ ८ ॥
पूर्वऋाल में देवताओं ते वह धनुष जनक का दिया था। वह
घनुप बड़ा भारी और वहुत ही चमकदार है ॥ ८॥
नास्य देवा ते गन्धर्वा नासुरा न च राक्षसा) ।
कर्तुमारोपणं शक्ता न कंचन मानुषा। ॥ ९॥
मलुध्यों की तो विसाँत ही क्या है, उस धल्लष पर रोदा
चढ़ाने के लिये पर्याप्त तल न ते गन्धरवों में है, न अछुरों में और न
शात्तसों में ॥ ६ ॥
धनुपस्तस्य वीर्य तु जिज्ञासन्तों महीक्षितः ।
न शेकुरारापयितुं राजपुत्रा महावला; ॥ १० ॥
वा० रा०--१५
र्रछ वालकायडे
डस धद्भप का वल्ल आज़माने के लिये अनेक बड़े बड़े बलवान
राजा आये ; किन्तु कोई सी उस पर रोदा न चढ़ा सकता ॥ १० ् ।॒
तद्धुुनेरशादूछ मैयिलूस्य महात्मनः । पर
तत्न द्रक्यसि काहुत्स् यह्ढे चाजुतदशनगम् ॥ ११॥
हैँ नरशाईंल ! वहां चल कर महात्मा मिथिल्लाधीश फे उस
धहष के और उनके अद्भुत यज्ञ के देखना ॥ ११॥
तद्धि यज्ञफलं तेन मेयिलेनात्तमं पनुः ।
याचितं नरशादूर सुनाभ॑ सर्वदेवतेः ॥ १२ ॥
है रामचन्ध ! एक समव महाराज जनक ने यज्ञ किया और
३
उस यज्ञ का फल सतरूप छुनास सामक उत्तम घट्ठुए उन्होंने सब
देवताश्ं से माँय लिया ॥ १२॥
आयागशूतं जृप्तेस्तस्व वेश्मनि राघव |
[शी विविषैग ब्औै0०+ ए- 25
अर्चित विविषेगन्धैधू पेश्वागरुगन्धिमि: ॥ १३॥
वह घतुप पस्रिथिक्राधीश के घर में पूजा के स्थान पर रखा रहता
है और धूप दोपादि से नित्य उसका पूजन किया ज्ञाता है | श्शा
एवमुक्त्वा मुनिवरः प्रस्थानमकरोत्तदा ।
सर्पिसड्ृ: सकाकुत्त्य आपन्य बनदेवताः || १४ ॥
सस्ति वे'स्तु गमिष्यामि सिद्ध! सिद्धाअमादहस् ।
उत्तर जाहबीतीरे हिमदन्तं शिलेब्यम॥ १७ ॥ ९
..ह कह कर पुनिभ्रवर विश्वामित्र ते वहाँ से प्रस्थान किया।
पड साथ दोनों राजकुमार तथा ऋषिगण मी गये । चलते समय
एकनिशः सर्गः २२६
चिशद्ामित्र जी ते वनदेवताओं की बुला कर उनसे फहा--तठुम्दाण '
पन्त्याण हो मेरी यप्तकिया खुसम्पन्न हुईं । '्मव में सिद्धाश्रम
से धीगड्ढा जी के उत्तर तट पर थोर हिमालय पर्चत की तराई में
सिकर ( ज्नकपुर ) जाऊँगा ॥ १४॥ १६ ॥
प्रदष्षिणं तत; कृत्वा सिद्धाश्रममनुत्तमम् ।
उत्तरां दिश्वम्नुत्श्यि प्रस्थातुमुपचक्रमे || १६ ॥
तदनन्तर उस उचम सिद्धाप्रम की परिक्रमा कर दे उत्तर की
ओर ग्वाना हुए ॥ १६ ॥
ते प्रयान्त गरुनिवरपन्थयादलुसारिणम् ।
शकटीशतमात्र॑ च प्रयाते ब्रह्मगादिनाम ॥ १७ ॥
चिभ्यामित्र जी के चलते ही ब्रह्मचादी ऋषि भी चक्के प्रौर उनके
स्तकड़ों छूकड़े मो चले ॥ १७॥
मगपप्षिगणार्थव सिद्धाश्रमनिवासिनः ।
(7 ५ विश्वामित्र ८
अनुनग्मुमहात्मानं विश महामुनिम् || १८ ॥
उस सिद्धाश्रम के रहने वात्ते हिरन और पत्ती सी महर्षि
भद्मात्मा गिश्वामित्र के पीछे हो लिये ॥ १८॥
नित्रतयामास ततः पक्षिसड्वान्मगानपि ।
ते गला दृरमध्वान॑ लम्बमाने दिवाकरे ॥ १९॥
परन्तु विश्वामित्र जी ने उन सब पशु पत्षियों के लीड दिया |
जब पे लोग वहुत दूर निकल गये ओर थुर्य 'अत्दाचलगामी होने ,
लगे ॥ २६ ॥
२२६ वालकायणडे
वास चक्रुइनिगणाः शेणकूले समागताः । |
तेब्स्तं गते दिनकरे स्नात्वा हुतहुताशनाः || २० गई ु
तब सव लोगों ने शाश नदी के तट पर डेरा डाल्ले। छूर्य के
घझस्त होने पर उन लोगों ने स्वान कर सम्ध्योपासन झोर श्रश्नि-
होन्न किया ॥ २० ॥
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य निपेदुरमिताजसः ।
रामे। हि सहसौमित्रिमुनींस्तानभिपूज्य च ॥ २१ ॥
तद्ननन््तर सव मुनि. विश्वामित्त को झ्ागे कर वैंठे। श्रोरामचन्र
ओर लक्ष्मण ने सव मुनियों का पूजन किया ओर ॥ २१ ॥
अग्रतो निषसादाथ विश्वामित्रस्य धीमतः ।
अथ रामे महातेजा विश्वामित्रं महासुनिम् ॥ २२ ॥|
बुद्धिमान विश्वामित्र जी के सामने जा बैठे । महातेजस्वी श्रीः
रामचन्द्र ने महर्षि विश्वामित्र से ॥ २२ ॥
पप्रच्छ नरशादेलः कैतूहूलूसमन्वितः ।
भगवन्कोन्वयं देश। समृद्धवनशेभित।) |
श्रोतुमिच्छामि भद्गं ते वक्तुमहसि तत्त्वतः ॥ २३ ॥
है कैतूहल पूर्वक पूछा कि दे सगवन् ! यह हरे सरे धन वाला
देश कानसा है ? में यह जानना चाहता हूँ। कृपया मुझ्के इसका
ठीक ठीक दृत्तान्त वततल्वाइये ॥ २३ ॥
चेदितो रामवाक्येन कथयामास सुव्रतः । 3.
तस्य देशस्य निखिलमृषिमध्ये महातपा; || २४ ॥
इति एकन्रिशः स्गः ॥
द्वात्रिशः सर्गः २२७
धोरामनन्द्र जी के इस प्रकार पु छने पर मद्रातपस्वी और सुन्नत
दिशवामित्त जी ने प्रसन्न है, डत सब ऋषियों के बीच बैठ कर,
उस देश का सारा हाल चतलाया ॥ २४ ॥
वालफायह का इकतोसवां संग्र पूरा हुआ ।
“-#४--
द्वात्रिशः सर्गः
व्रह्मयानिर्मदानासीत्कुशी नाम महातपा! ।
ए
अछिएप्रतथमंत्र: सज्ननपतिपूजक! ॥ १ ॥
दे राम | ब्रष्मा जी के पुत्र, बड़े तपस्ची, घल्नणिडित बतघारी,
प्रमंत श्रौर सज्नों का सत्कार करने वाले कुश नाम के एक
गज़ाथे॥ २॥
स् महात्मा कुछीनायां युक्तायां सुगुणोल्रणान् ।
व्दभ्या' जनयागास चतुर। सद्शान्सुतान् ॥ २ ॥
उन्होंने उत्तम कुल में उत्पन्न प्रपने अनुरूप चेदर्मी नामक रानी
के तर्भ से प्पपने समान, थार पुत्र उत्पन्न किये ॥ २॥
कुशाम्व॑ कुशनाभ च आधूर्तरजस वसुस् ।
दीपियुक्तान्महेत्साहानक् ० हैँ धर्मचिकीपया ९!
द्ीप्तियक्तान्मशेत्साहन्क्षत्रभभचिकीपया ॥ हे ॥
उनके नाम कुणाम्ब. कुशनाभ, भ्राधृर्तरतस, और वख्चु थे। ये
चांरों राजकुमार बड़े तेजस्थ्री और उत्सादी हुए | तद्नन्तर ज्ाज-
धर्म के बढ़ाने की इच्छा से ॥ २ ॥
श्श्ष चालकागुडे
तानुवाच कुश पुत्रान्धर्मिप्टान्सलवादिनः ।
क्रियतां पालन पुत्रा धर्म प्राप्यथ पुष्कलम् ॥ ४ |
घम्रि.्ठ और सत्यवादी पुत्रों से राज्मा कुण ने कहा, है पुत्रो भा
प्रजा का पालन करो इससे वड़ा पुएय दीगा ॥ ४ ॥
कुशस्य वचन श्रुत्वा चत्वारो लेकसंगता; ।
निवेश चक्रिरे सर्वे प्राणां दवरास्तदा ॥ ५ ॥
पिता का यह वचन सुन चारों श्रेष्ठ राजकुपारों ने अपने अपने
नाम के चार तगर वसाये ॥ ४ ॥
कुशाम्वस्तु महातेजा। कौशाम्बीमकरेत्पुरीस |
कुशनाभस्तु धर्मात्मा पुरं चक्र महोदयम् | ६॥
महातेजस्वी छुशास्ब्र ने कैशास्वी नाम की पुरी वसाई । धर्माव्म,.
कुशनाभ ने “ महोदय ” नामक नगर वसाया ॥ ६ ॥
आधूर्तरजसे राम धर्मारण्यं महीपतिः ।
चक्रे पुरवरं राजा वसुश्रक्रे गिरित्॒जम् ॥ ७॥
है राम | राजा आधूतंरजस ने धर्मारणय, झोर राजा व्ु ने
गिरित्रज नामक नगर वसाया ॥ ७॥ |
एपा वसुमती राम वसेस्तस्य महात्मन! |
एते शेलपराः पञ्च प्रकाशन्ते समन्ततः ॥ ८ ||
. है राम | ग्रिरिबज्ञ का दूसरा नाम वसुमती हुआ । इसके चारो
ओर प्रकोशमान पाँच बड़े बड़े पर्वत हैं || ८ ॥
द्वाभिशः सर्गः श्एह
समागधी नदो पण्या मगधान्विश्रता यया |
पथ्वानां शलमुख्यानां मशथ्ये मालेव जेभते ॥ ९ ॥
मगघ देश में बदने वाली यह मागधो नदो, जिसे शोण ( सान )
भी फहते हूं, पाँचों पर्वतों के वीच ( पर्चतों की ) माला की तरह
शेभायमान ४ ॥ ६ ॥
सेंपा हि मागधी राम वसेर्तस्य महात्मन; ।
पृव्राभिचरिता राम सुक्षेत्रा सस्यमालिनी ॥ १० ॥
ऐै राम ! वस्ठु की वद्दी मागघी नदी पुर्च दिशा की झोर बहती
है आर इसके दोनों तथ्यों पर ध्यनाज के ध्यच्छे ध्च्छे खेत हैं ॥ १० ॥
कुशनाभस्तु राजर्पि; कन्याशतमनुत्तमम् ।
)3४ है]
जनयामास धमात्ता घृताच्यां रघुनन्दन ॥ ११ ॥
५ है रघुनन्दन | घुतावो नाम की अप्सरा से धर्मात्मा राजपि
४ कंणनाम के सा उुन्दरों कत्याएं उत्पन्न हुई ॥ ११॥
तास्तु येवनशाहिन्येा रूपवल; खलझइकृता; ।
उद्यानभूमिमागम्य प्राहपीव शतहृदा; ॥ १२॥
वे जवानी में पहुँचने पर वड़ी रूपवती हुई' ओर ( एक दिन )
समधज्ञ कर फुलवाड़ी में ज्ञा बसे दी शाोमायुक्त हुई, जेसे धर्षा-
फाल़ में विजली शेमायमान देती हैं ॥ १२ ॥
गायन्त्यों उृत्यपानाथ वादयन्त्यश्व सर्वशः |
पी] , र
आमोद परम जग्युवेराभरणभूपिता; ॥ १३ ॥
थे गहने कपड़ों से सुसज्ित उस वादिका में चारों झोर गाती,
नाचती घोर वाजे वज्ञाती हुई, बड़ा आनन्द मनाने लगीं ॥ १३ ॥
२३० वालकाणडे
अथ ताश्रास्सर्वाज्ञयो रुपेणाप्रतिमा भुवि ।
उद्यानभूमिमागम्य तारा इव घनान्तरे ॥ ॥ १४ ॥ ई |
उनके सव शँग छुन्दर थे, वे पृथिवीवल पर सौन्दर्य की सूत्तियाँ।
थीं। वे उस वाग़ में वैसे हो सुशामित दी रही थीं जेसे प्राकाश
में तारागण खुशाभित द्वोते हैं ॥ १४ ॥
ता; स्वगुणसंपत्ना रूपयोवनसंयुता! ।
हृष्टा सवात्मके वायुरिदं वचनमत्रवीत् | १५ ॥
डन सब गुणवर्तियों और रूपवतियों के देख, सव जगह
रहने दाले वायुदेव ने उन सब से कहा ॥ १४ ॥
अहं व१ कामये सर्वा भायां मम भविष्यथ |
मानुप्स्त्यज्यतां भावे दीघ॑मायुरवाप्स्थथ || १६ ||
में तुमके चाहता हैँ, तुम सव मेरी पत्नी वना। तुम मद॒ष्योंह ः
का अचुराग त्यागा; जिससे तुम दोर्धभीविनी दो सका ॥ १६ ॥ )
चल हि यौवन नित्य॑ मानुषेषु विशेषतः |
अक्षय योवन प्राप्ता अमयेश्र भविष्यथ ॥ १७॥
क्योंकि योवन तो कभी किसी फा रहता नहीं--फिर विशेष
कर मनुष्य जाति का यौचन तो शीघ्र ही चलायमान श्र्थात् नए
हवता है। झतः ( यदि तुम मेरी पत्नी बनेगी तो ) तुम्हारा योवन
घत्तय्य ( कभी त्तय न दोने वाला ) है जायगा भौर तुम अमर
भी हे ज्ञाओगी ॥ १७ ॥
तस्य तद्वचन॑ श्रुत्वा वायेरक्किष्टकर्मणः ।
अपहास्य ततो वाक्य कन्याशतमथात्रवीत् ॥| १८ ॥
द्वानिशः स्ेः २३१
" प्रप्रतिदत कर्म करने वात्ते वायुदेव फी इन बातों के छुन,
सौ राजकन्याण वायुदेव का उपह्ास करती हुई बाली ॥ १८॥
अन्तथ्वरसि भूतानां सर्वेपां त्वं सुरोत्तम |
ञ ४ ्>
प्रभावज्ञार्च ते सवा; क्रिमस्पानवमन्यसे ॥ १९ ॥
दे देव! तुम ती सर के प्यन्तशकरणा की बात जानते ही हो
झौर एम भी प्यापके प्रभाव के धभ्रच्छी तरह जानतो हैं। पेसी
दशा में ( एसा धनुचित प्रस्ताव कर ) ध्राप हमारा प्यपमान क्यों
करते हैं ॥ १६ ॥
कुशनाभमुताः सवा समर्थास्त्वां सुरोत्तम |
स्थानाच्च्यावयितु दंवं रक्षामस्तु तपे! वयम् ॥२०॥
है देवताओं में उत्तम चायुदेव | हम सव महाराज्ष कुशनास की
कन्याएँ हैं । एम खपने नपेवल से तुम्हें तुम्दारे लोक से नीचे
गिरा सकती हैं: पर ऐसा इसलिये नहीं करती कि, ऐसा करने से
हमारा तपराइल घ्रद ज्ञायगा पश्रोर तप घढाना एमके श्रभी९
नहीं है ॥ २० ॥
मा भूत्स काछोा हुर्मेघ: पितरं सत्यवादिनम् |
नावमन्यस्त्र धर्मेण खय॑बरसुपास्महे ॥ २१ ॥
है इर्बद्े | चह समय ( ईश्वर करे ) न आधे कि, दम अपने
स्प्यवादी पिता को भ्रशक्षेता कर, हम स्वयंचर होवे। प्रर्थात् हम
घाय॑ धघपने लिये चरक्त पसन्द कर ॥ २६ ॥
» इससे जान पढ़ता है कि ख़र्यंबर की प्रथा उस ज़माने में अच्छी नहीं
समझी जाती थी |
२३२ वालकागणडे
पिता हि परश्चुरस्माक देवत॑ं परम हि ना |
यस्य ने दास्यति पिता स ना भर्ता भविष्यति | कस
क्योंकि पिता दमारे, हमारे लिये देवता स्वरूप हैं, ओर है .
हमारे माल्रिक हैं--वे हमें जिसे दे दंगे वद्दी हमारा पति होगा ॥२२॥/
तासां तदचनं श्रुत्वा वायु; परमकापनः ।
प्रविश्य सवंगात्राणि व्ज्ञ भगवान्यश्ु) ॥ २३ ॥
इन सव कन्याओों की इन (श्रपमानजनक ) बातों के छुन
पवनदेव अत्यन्त कुपित हुए और उब राजकन्याञओं के शरीर में
घुस कर उनके कुबड़ी वना दिया श्रधवा उनके शरीर के श्रगों का
शेढ़ामेढ़ा कर उनका सोन्द्य न्ठ कर डाला ॥ २३२ ॥
ता; कन्या वायुना भप्मा विविशुर्पतेग्रहस |
पापतन्ध॒वि संभ्रान्ता। सलज्जा; साश्रुलाचना; ॥२४॥ __
जब वायु ने इनके ध्यडः कुरूप कर डाले तव वे लज्ञित हुई ६
और व्याकुल चित है शेती हुई' अपने पिता के घर गयीं ॥ २४ ॥
सच ता दयिता दीना। कन्या; परमशेभना: |
दृष्टा भग्मास्तदा राजा संभ्रान्त इृदमब्रवीत् ॥ २५ ॥
राजा, अपनी प्यारी एवं परम खुन्दरी कन्याओं के दुःखी
और कुरूपा पनी हुई देख, विकल हुए और यह बाले ॥ २४ ॥|
किमिद कथ्यतां पुत्य। के! धर्ममवमन्यते |
कुब्जा; केन कृता; सर्वा वेहन्त्यो नाभिभाषथ |
एवं राजा विनिश्वस्य समाधि संदधे ततः || २६॥
इति द्वात्रिंशः सर्गः ॥
|
पय्खिशः सर्गः..' २३३
बतलाओं ते यह कया हुआ ? किसने धर्म का शअनादर कर
द्मका फुबड़ी ऋर दिया ? तुम जान बूक कर भी क्यों नहीं
>जैलातों इस घदना से राजा बड़े व्यकित और चिन्तित
हुए ॥ २६ ॥
वालकागढ का पत्तोसवाँ सम समाप्त हुआ ।
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त्यक्िशः सगे
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तस्य वद़चन श्रुत्रा कुशनाभस्य पीमतः ।
विरोभिभ्रणों स्पृष्टा कन्याशतमभाषत || १ ॥
बुद्धिमान राजा कुशनाभ के पूछने पर सौग्रे। राजकुमारियों
पिता के चरणों में सीस नवाया श्र कहा ॥ १॥
वायु; सर्वात्मके राजन्मधर्पय्रितुमिच्छति ।
के ९
अशुभ मार्गमास्थाय न धर्म पत्यवेक्षते ॥ २॥
यथपि प्रनदेव सव के श्रात्मात्रों में विरजते हैं, ( ध्रतः उन्हें
हरेक फाम सेल विचार कर करना चाहिये) तथापि वे झधर्म
में प्रवृत दा दमारा धर्म विगाड़ना चाहते थे ॥ २॥
पिवमत्य! समर भद्व ते खच्छन्दे न बय॑ स्थिता |
पितरं ने हणीप्व त्व॑ यदि ना दास्यते तव ॥ हें ॥
हमने उनसे कद्दा कि, हमके मनमाना काम करने की स्वतंत्रता'
नहीं है; धर्थाव् दम स्वैच्छाचारिणी नहीं हैं। हमारे पिता विद्यमान
२३७४ वालकायडे
हैं, यदि उनसे हमें श्राप माँग लें, तो हम पझापकी दे सकती
हैं॥३॥
तेन पापानुवन्धेन वचन नप्रतीच्छता ।
एवं ब्रुवन्त्यः सर्वाः स्प वायुना निहता भुशम् ॥४॥
हमारे इस वात के न मान कर, उस पापों ने हमारी सच की
यह दशा कर दी ॥ ४॥
तासां तद॒चन श्रुत्वा राजा परमधार्मिकः ।
प्रत्युवाच महातेजा; कन्याशतमनुत्तमम् || ५ ॥
राजकुमारियों की इन वातों के खुन परम-धार्मिक राजा
कुशनाभ उन शत सुन्दरी राजकुमारियों से घाले ॥ ४ ॥
क्षान्त क्षमावतां पुष्य: कर्तेव्यं सुमहत्कृतस् |
ऐकमल्यमुपागम्य कुल चायेक्षिप्त मम ॥ ६॥
तुमने पवनदेद के प्रति ज्ञमा प्रदशित कर, वहुत ही प्रच्चा
काम किया है, दे राजकुमारियों ! क्माणीलों, के ऐसा ही फरना
चाहिये | तुमने ( पचनद्देव के त्षमा करके ) हमारे कुल को सी
रक्ता की है ॥ ६ ॥
अलछड्जारो हि नारीणां क्षमा तु पुरुपस्य वा ।
दुष्कर तच यतरक्षान्तं त्रिदशेषु दिशेषतः ॥ ७ ॥
ख््रियों अथवा पुरुषों के लिये तो ज्ञमा ही आमूषण है। तुमने
पवनदेव के ज्षमा कर श्वति दुष्कर काम किया है। रूप और ९
ऐश्वर्य सम्पन्न लोगों के लिये ते अपराध-पघहिणयुता विशेष करके "
दुष्कर है | ७ ॥ ह
प्रयर्थिशः सर्गः श्प्् प्र
थाइशी व क्षमा पृत्यः सर्वासामविशेषतः ।
क्षमा दान क्षमा सत्यं क्षमा यज्ञश्व पुत्रिका) ॥ ८ ॥
जैसी तुमने त्तमा दिखलाई विशेष कर बैसी त्षमा सव में नहीं
दीती । दे कन्पाश्ो | त्ञमा ही दान है, ज्षमा ही सत्य है और त्षमा
दी यक्ष हैं| प्रर्थात् जे पुएय दान देने, सत्य घालने और यश करने
सेद्दीता हैं, वही ज्ञम्ा से भाप होता है ॥ ५ ॥
क्षमा यज्ञ: क्षमा पम; क्षमया विष्टितं जगत् ।
विसज्य कन्या काकुत्स्य राजा त्रिदशविक्रमः ॥९॥
इसी प्रक्वार क्षमा दी यण है, त्मा ही धर्म है शोर ज्ञमता ही
संसार का आधार हैँ। हे राप | इस प्रकार राजकुमारियों के
समझा फर और उनके ददा कर, देव समान पराक्रमी राजा
कुशनाभ ने ॥ ६ ॥
मन्त्रज्ञों मन्त्रयामास पदानं सह मन्ध्रिमिः ।
देशे काले पदानश्य सह प्रतिपादनम ॥| १० ॥
अपने सब मंत्रियों के बुला कर उनसे यह सलाद की कि, कम
राज्षकन्शाओं का वियाद् अच्छे देशकाल व घर में किया
जाय | २० ॥
एतस्मिन्नेव काले तु चूली नाम महामुनिः |
ऊध्वरेताः झुभाचारों ब्राह्म॑ तप उपागमत् ॥ ११॥
उसी समय चूत्वी नाम के एक बड़े तेजस्वी, ऊव्वेरेता, एवं
सदाचारी महपि ने प्रह्म की भाप्ति के लिये तप धारस्म
किया ॥ ११॥
श्३ई वालंकायंडे
तप्यन्त तमृषिं तत्र गन्धर्वी पयुपासते ।
सेमदा नाम भद्दं ते ऊर्मिछावतनया तदा ॥ १२ ॥
इस समय चह्दाँ तपस्या करते हुए उन मुनि की सेवा, ऊर्मिला'
नाम की गन्धर्वी की कन्या जिसका नाम सेमदा था, करने
लगी ॥ १२ ॥
सा च त॑ प्रणता भूल्वा श॒ुअ्रृपणप्रायणा |
उवास काले पर्मिष्ठा तस्यास्तुण्रो्मवद्गुरु। ॥ १३ ॥
जब सेमदा ने वहुत दिनों तक उन महषि की वड़ी भ्रद्धामक्ति
के साथ सेवा श॒श्रुषा की तव वे महर्षि उस पर प्रसन्न हुए ॥ १३ ॥|
सच ता कालयेगेन प्रोवाच रघुनन्दन !
परितुष्टोःस्मि भद्वं ते कि करोमि तव प्रियस ॥१४॥
हे राम | समय पा कर महर्षि ने उससे कहा--में तु पर
असन्न हूँ, जे! काम तू कहे से में तेरे लिये करूँ॥ १७॥
प्रितुष्द॑ मुनि ज्ञात्वा गन्धर्वी मधुरखरा |
उवाच परमप्रीता वाक्यज्ञा वाक्यकेविदस् १५ ॥
घुनि के अपने ऊपर प्रसन्न जान बातचीत करने में परम
प्रवीण गन्धर्वी मधुर स्वर में बड़ी प्रसन्नता के साथ वाक्यक्रेविद्
चूली ऋषि से वेली ॥ १४ ॥
लक्ष्म्या समुदितो ब्राह्मथा अह्मभूतों महातपा: । -
ब्राह्मण तपसा युक्त पुत्रमिच्छामि धार्मिकम् ॥ १६ ॥
है महाराज ) ब्रह्मतेज्ञ से युक्त, ब्रह्म में निष्ठा रखने चाला, और
| धामिकश्रेष्ठ एक पुत्र में चाहती हूँ ॥ १६ ॥
प्रयश्थिशः सर्गः २४७
अपतिथासिमि भद्ठं ते भाया चास्मि न कस्यचित् ।
न् जी (्ः
ब्राह्मणोपगतायाश्र दातुमहंसि मे सुतम् ॥। १७ ॥
पर न तो मेरा काई पति है और न में किसी की ख्री द्वोना
चादती हूँ। क्योंकि में अश्ाचारिगो हैं; इससे पुक्े थश्रपने तपेावत्ल
से ऐसा मानस पुत्र दोजिये जे घामिक दो ॥ १७ ॥
| नाद-ीसे सनक, सनन््दन भादि प्रद्मा के मानप्तपुत्र थे, वैसा ही
एक सानप्॒पुच्र ]
तस्याः प्रसन्नो ब्रह्मर्पिदंदों पुत्र तथाविधम् |
ब्रद्मदत्त इति झयातं मानस चूलिन! सुतय॥ १८॥
यह छुन ग्रह्मपि चूली ने प्रसन्न दे प्रह्मदत्त नामक एक मानस-
पुत्र उसकी दिया ॥ ५८ ॥
स राजा सोमदेयस्तु पुरीमध्यवसत्तदा |
काम्पिल्यां परया लक्ष्म्या देवराजो यथा दिवस ॥१९॥
वह बद्वाद्त कम्पिला का यजा हुआ। और वहाँ की राज-
लक्ष्मी से ऐसा विभूषित हुआ, जेसे इच्ध खुखुर में विभूषित
दीते हैं॥ १६ ॥
स बुद्धि कृतवान्राजा कुशनाभः सुधार्मिकः ।
ब्रह्मदत्ताय काकुत्स्थ दातुं कन्याजत्तं तदा ॥ २० ॥
कुशनाम ने इन्हीं प्र्नद्स के अपनी सो राजकुमारियों के
देने का विचार किया ॥ २० ॥
तमाहय महातेजा प्रह्मदत्तं महीपतिः ।
ददी कन्याशर्त राजा सुप्रीतेनान्तरात्मना | २१ ॥
पृ
श्३८ वालकायडे
यज्ञा कुशनाभ ने राजा ब्रह्मइठ के बुला कर, उन्हें प्रसन्नता
पूर्वक भपनी सो राजकुमारियां दे दीं ॥ २१ ॥
यथाक्रम॑ ततः पाणीज्ञग्राह रघुनन्दन |
० कु
ब्रह्मदत्तो महीपाल्स्तासां देवपतियंथा ॥ २२ ॥
है राम ! वैभव में इन्द्र के समान राज्ञा ब्रह्मद्त्त ने यथाक्रम
उन १०० राजहुमारियों का पाणिग्रहण किया । ( विवाह के समय
ज्ञे वर दता है चद उस कन्या का, जिसके साथ उसका विवाह
होता है, हाथ पकड़ता है )॥ २२॥
स्पृष्ठमात्रे ततः पाणों विकुब्ना विगतज्व॒राः ।
युक्ता) परमया लक्ष्म्या व कन्या; शर्त तदा ॥२३॥
ब्रह्मदत्त के द्वारा पाणिस्पर्ण होते हो; उन सब का कुवड्ापन
ज्ञाता रहा और थे परम झुन्द्री दे गयीं ॥ २३ ॥
स दृष्ठा वायुना मुक्ता। कुशनाभा महीपतिः |
व्ूव परमप्रीते हप छेसे पुन! पुनः ॥ २४ ॥
राजा कुशनास राजकुमारियों के शरीर से वायु का विकार
दुर हुआ देख, घत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ २४ ॥|
कतोह्वहं तु राजान॑ ,ब्रह्मदर्त महोपति) ।
सदारं प्रेपयामास सेपाध्यायगणं तदा ॥ २५ ॥
इस भ्रकार ब्रह्मद््त के साध उनका विवाह कर कुशनाम ने५
राजकुमारियों के विदा कर, उनके साथ शपने डपाष्यायों के भी ,
भेजा ॥ २५॥
चतुस्रिशः सर्गः २३६
से।मदापि सुसंहुष्ठा पुत्रस्य॒ सही क्रियास् ।
यथान्यायं च गन्धर्वी स्तुपास्ता; प्रत्यनन्दतः |
दृष्ठा सपृष्ठा च ता; कन्या; कुशना् प्रशस्य च ॥२९॥
इति त्रयस्त्रिश) सर्गः ॥
सेामदा जिस प्रकार अपने पुन्न को पद्मर्यादा के धनुरूप
सम्बन्ध हुआ देख प्रसन्न हुई, उसी प्रकार छुन्दर बहुओं के देख
कर भी चह आनन्दित हुई और उनका सत्कार किया, और उन
राजकुपारियों के देख और वर्त कर उसने राजा कुशनाभ की
सराहना की ॥ २६ ॥
वालकागड का तैतीसर्वाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
“है
चतुल्षिशः सगे;
कृतोद्गाहे गते तस्मिन्त्रह्मदस्ते च राघव ।
अपुत्र; पत्रढाभाय पात्रीमिष्ठटिषकल्पयत् ॥ १ ॥
है राम !. ब्रह्मद्स के व़्याह कर के चले जाने के पश्चात् राजा
कुशनाभ पुत्रवान् न होने के कारण पुप्रप्राप्ति के लिये पुप्नेश्यक्ष
करने छगे ॥ १ ॥
इग्यां तु बतमानायां कुशनाभं महीपतिस् |
उंवाच परमोदारः कुशो बक्नसुतस्तदां ॥ २.॥
ज्ञव यज्ञ दोने लगा, तब ब्रह्मा ज्ञी के पुत्र और परमेदार राजा
कुशनाम के पिता, राजा कुश अपने पुत्र से बात्ते ॥ २॥., :
चवा० रा०--१६
२छु० वालकायडे
पुत्र ते सदश; पुत्रों भविष्यति सुधार्मिकः ।
गाधि प्राप्स्यसि तेन त्व॑ं कीर्ति लेके च शाइवतीम् । |
' दचत्स | तेरे, तेरे ही समान धर्मात्मा पुत्र देगा 2
नाम गाधथि द्वोगा और उसके होने से संसार में तेरी कीर्ति
अमर दागी ॥ ३ ॥
एयमुक्त्वा कुशे! राम कुशनाभं महीपतिस ।
* जगामाकाशमाविश्य ब्रह्मलेक॑ संनातनम | ४ ॥
दे राम | कुश अपने पुत्र राजा कुशनास से यद्द. कद कर,
आकाश मार्ग से.सनातन ब्रह्मत्तेक के चल्ले गये ॥ ४ ॥
कस्यचित्त्थ कालस्य कुशनाभस्य धीमतः |
जज्ञे परमधर्मिष्ठो गाधिरित्येव नामतः ॥ ५ ॥
कुछ समय वीतने पर बुद्धिमान् कुशनाभ के परम धर्मि्ठ गॉि
नामक एक पुत्र उत्पक्त हुए ॥ ५॥
सर पिता मम्र काकुत्सथ्थ गाधि) परमधार्मिकः ।
कुशवंशपसूता5स्मि कौशिको रघुनन्दन ॥ ६ ||
है राम ! वे ही परम धर्मि्ठ मेरे पिता हैं। कुशवंशोज्ञव होने के
कारण मैं कोशिक कहलाता हैँ ॥ ६ ॥
पूरनना भगिनी, चापि ममर राघव सुत्रता |
नाज्ना सलबती नाम ऋचीके प्रतिपादिता || ७॥
6 दे राघव | मेरी बड़ी वहिन का नाम सत्यवतो था, जे पतित्रता
. थी। उसका विवाह ऋचीक के साथ हुग्माथा॥ ७]
चतुर्खिशः सर्मः २७४१
सशरीरा गता खर्ग भर्तारम॒जुवर्तिनी ।
काशिको परमेदारा सा परहत्ता महानदी ॥ ८ ॥
वि के मरने के वाद, चह सत्यवतों पति के साथ सशरीर
सगे के गयी। फ़िर वही परम उद्धार- कोशिकी नदी दे बहने
लगी ॥ ८५॥)
दिव्या पुण्येदका रम्या हिमवन्तमुपाशिता ।
लाकस्य हितकामाय॑ प्रहत्ता भगिनी मम || ९ ॥|
इसका रछाध्य फ्रौर अति पत्रित्ष जल है और यह पड़ी रमणीक
ह। यह द्विमाजय से निकल कर वहतों है। लेगों के हित के लिये
मेसे वदिन ने नदी का रूप धारण किया है॥ £ ॥
तता#ईं हिमवत्पाश्य बसामरि निरतः सुखस् ।
भगिन्यां स्नेहसंयुक्त! काशिक्यां रघुनन्दन | १० ॥
है राम ! श्रपती विन के स्नेदयश में हिमालय के सप्तीप
फोशिकी के तट पर ही रहता था ॥ १० ॥
सा तु सत्यवती पण्या सत्ये धर्मे प्रतिष्ठिता ।
पतित्रता महाभागा केशिकी सरितांवरा ॥ ११ ॥
सत्यधम में घिथित, बड़ी पतित्रवा वही सदवतो, नदियों में
श्रेष्ठ, मद्याभागा कोशिकी नदी है ॥ ११॥
अहं हि नियमाद्राम हिला तां समपागतः |
सिद्धाश्रममनुमराष्य सिद्धोउरिपि तव तेजसा ॥ १२॥
२४२ * बालकांण्ड
है राम | यह यक्ष पूसा करने के लिये में उसके दाइ सिद्धाश्रम
में चला आया था। वहाँ तुम्हारे प्रताप से मेरा काम सिद्ध
हुआ ॥ १२ ॥
एप राम ममेत्पत्ति; खस्य वंशस्य कीर्तिता ।
देशस्य च महावाहो यन्यां त्व॑ परिपृच्छसि ॥ १३ ॥
है राप्त | है महावाहदी ! मेंने तुम्दारे प्रश्न के उत्तर में इस देश
का तथा अपनी उत्पत्ति और अपने बंश का चूत्तान्त कद
सुनाया ॥ ११॥
गतेपरात्र। काकुत्स्थ कथा। कथयतों मम ।
निद्रामभ्येहि भद्रं ते मा भूहिप्रोअ्वनीह ना ॥१४७॥
है राम ! यह घृत्तान्त खुनाते छुनाते आधी रात चींत चुकी ।
तुस्दारा मड्डल हो, अब जा कर शयन करे।, जिससे कल बलने में
विन्न व दी ॥ १४ ॥
निष्पन्दास्तरव) सर्वे निलीना मेगपक्षिण) ।
नेशेन तमसा व्याप्ता दिशश्व रघुनन्दन ॥ १५॥
है रघुनन्द्न ! शव किसी दत्त का पत्ता तक नहीं हिजता,
पशु पत्ती तक चुपचाप हैं। निशा का घार थन्धकार सब दविशाघ्रों
में छोया हुआ है.॥ १५ ॥
शनेर्वियुज्यते सन्ध्या नभे। नेत्रेरिवाहतस ।
नक्षत्रतारागहनं ज्येतिर्भिरवभासते ॥ १६ ॥
घोरे घीरे .सन्ध्या का .समय वोत गया। धाकाश तारों से
देदीप्यमान हो, शेमित हो रहा है-। ऐसा ज्ञान पड़ता है, मानों
आकाश सहत्तों नेन्ों से देख रहा हो ॥ १६ ॥
चतुझ्खिशः सर्गः २४३
उत्तिए्ठति.च शीतांगु) शणी छेकतमेनुद। ।
छादयन्माणिनां छेोके मनांसि प्रभया विभे ॥ १७॥
/ समस्त संमार फे अन्धकार के नए करने चाला और शीतल
शिरणों वाज़ा घ्रम्द्रमा, प्राणियों के मन के दर्पित करता छुपा
ऊपर के उठता चजापाता है ॥ १७॥
नशानि सबंभूतानि प्रचरन्ति ततस्ततः ।
यक्षराक्षससंघाश राद्राश्व पिशिताशना; ॥ १८ ॥
रात में घूमने वाले और मांसमत्ती मदर यत्षों श्रौर राज्लों
के दल, इधर उधर घूम फिर रदे हैं ॥ १८॥
एबप्रुक्ला मदहातेजा विरराम महामुनि) ।
साधु साध्विति त॑ सर्वे मुनये ब्मभ्यपूजयन् | १९ ॥|
५८ इतना कद कर म्रदतेज्स्वी विभ्वाप्तित्र जी चुप दो गये। तव
प्लुनियों ने वाद वाह ऋठ ऋर विश्वामित्र को प्रशंसा की ॥ १६ ॥
कुशिकानामर्य बंशा महान्धमंपर। सदा ।
क्रह्मोपमा मदात्मान। कुशवंश्या नरात्तमा! ॥ २० ॥
( आर कहा ) यह कुठा का वंश स्रदा से धर्म में तत्पर रद्दा है
और इस तंग ओे सब राजा तह्मपि तुत्य दवते चन्ते आते हैं ॥ २० ॥
विशेष॑ंण भवानव विश्वामित्रों महायश्ञा |
फोशिकी च सरिच्छे छा कुकेइयोतकरी तव ॥२ह॥
है विश्वाम्ित्र जी | विश्ेप कर आप ते इस वंश में मद्दायशस्तरी
हैं तथा नदियों में शठ कोशिकी नदी से तो इस वंश के उजागर
कर दिया है ॥ २१ ॥
२४७ वालकाण्डे
इति तैर्मनिशादलैः प्रवसतः छुशिकात्मण/ |,
निद्राज॒पागमच्छीमानस्तं गत इवांशुमान् ॥ २२ | $ .. «
' उन मुनिश्नेष्ठों ने इस प्रकार से विश्वामित्र की प्रशंसा की।
तदनन्तर भ्रीमान् विश्वामित्र जी से गये, मानों सूर्य अस्ताचलगामी
ही गये द्वों ॥ २२ ॥
रामेजपि सहसौमित्रिः किश्विदागतविस्मय: |
प्रशस्य मुनिश्ादूल निद्रां समुपसेवते ॥| २३ ॥
इति चतुस्चिशः सगे; ॥
श्रीयमवन्ध जी भी लक्ष्मण जी सहित कुछ कुछ चिस्मित हो
शऔर विश्वामित्र की प्रशंसा करते हुए से गये ॥ २२ ॥
वालकाण्ड का चोंतीसर्वाँ सर्ग पूरा हुआ ॥
-+#६--
पद्नुत्रिशः सगेः
--+६०४--
उपास्य रात्रिशेष॑ तु शोणकूले महर्पिमिः |
निशायां सुप्रभातायां विश्वामित्रोज्म्यभापत ॥ १ ॥
विश्वामित्र ज्ञी ने उन सव ऋषियों सहित शेष राजत्ि शाण नदी
के तद पर विताई । जब प्रातःकाल हुआ, तव विश्वामित्र जी
रामचन्द्र ज्ञी से बेले ॥ १॥ ;
, सुप्रभाता निशा राप पूर्वा सन्ध्या प्रव्तते ।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्वं ते गमनायाभिरोचय ॥ २॥
पश्चविंशः सर्ग २७४५
है राम | उठिये, ग्रावःक्षाल हो चुका । तुर्हारा मडुल दे, शव
सोथोपासन कर चलने की तेयारों कीजिये ॥ २॥
तच्छु ता बचने तस्य कृत्वा पावाहिकीं क्रियाम् ।
गमने रोचयागमास वाक्य चेदमुवाच ह॥ ३ ॥
धोरामचन्द जी, मुनिपर के यह वचन छुन प्रातःक्रिया से
निवूध एए श्र चलने के तैशर हो येले ॥ ३ ॥
अय॑ शोणः झुभजछागावः पुलिनमण्डितः ।
कतरेण पथा ब्रह्मन्सन्तरिप्यामहें वयस् ॥ ४ ॥
दे प्रश्न | इस शेण मद में जल तो कम दै, वालू विशेष है। से।
बतलाइये किस रास्ते से हम लोग उस पार च्ने' ॥ ४॥
एव भुक्तस्तु रामेण विश्वामित्रो्नवीदिदम् | -
एप पन््या मयेदिष्टों बेन यान्ति महपँयः ॥ ५ ॥।
बह खुन विभ्वामिन्न जी चाले जिस रास्ते से स्व महूर्पिं ज्ञाते
है बदी गघ्ता में बतलाता हैं। चह यह है ॥ ५ ॥
]
एयमुक्ता महपये। विश्वामित्रेण धीमता ।
पश्यन्तस्ते प्रयाता वे बनानि विविधानि च | ६ |
धुद्धिमाद मदर्पि विश्वामिन्न जी के यह कहने पर थे रास्ते
. विधिध घरों को देखते दुए चलने लगे ॥ ५ ॥
ते गल्वा दरमध्चान॑ गतेब्य॑जदिवसे तदा ।
जाइनीं सरितां श्रेष्ठ दद्शुमुनिसेविताम् ॥ ७॥
२४६ बालकाणडे
- बे जब दहुत दूर निकल गये तब दो पहर -के उनके पुनियों
द्वार सेवित भ्रीगड्ठा जो देख पड़ीं ॥ ७ ॥
तां हृष्टा पण्यसलिलां हंससारससेविताम्: |
वर्भूवुमुनयः सर्वे झुदिता। सहराघवा; ॥ ८ ॥
श्रीरामचन्द्र जी और लक्षमण सददित सब मुनि, हंस सारखों
से छुशामित पुएय्सक्षिला जाहवी के दर्शन कर वहुत दृषित
हुए ॥ ८५॥
तस्यास्वीरे ततअक्रुरत आवासपरिग्रहम् |
« ; वतः स्नात्वा यथान्याय॑ सन्तप्य पितदेवता: ॥ ९ ॥
वे सब भ्रीगड्ठा जी के तद पर ठहर गये प्लौर यधात्रिधि स्नान
कर, पिठृदेवतर्पणादि कर्म सम्पन्न किये ॥ ६ ॥
हुत्वा चेवामिहेत्राणि प्राश्य चाजुत्तमं हविः |
, विविशुर्नाइबीतीरे शुची मुदितमानसा। ॥ १० ॥
फिर अशिद्वोेत्त कर और बचे हुए पवित्र हृविध्याज्ञ के खाने
के पश्चात्, वे लेग प्रसन्नचित्त हो और आलनों पर गड्ा जी के
पवित्र तद पर बैठे ॥ १०॥
विश्वामित्रं महात्मानं परिवायें संमन््ततः |
संपहृष्टमना रामे! विश्वामित्रमथात्रवीत् ॥ ११ ॥
सब मुनियों के वीच में विश्वामित्र जी (और उनके सामने
दोनों राजकुमार ) बैठे | उस समय प्रसन्नचित्त श्रीराम जो ने
विश्वामित्र ज्ञो से कहा ॥ ११ ॥
फरड
५
पञ्चत्रिशः सर्गः २४७
भगवज्शोतुमिच्छामि गड्ढों त्रिपथगां नदीस् |
| अ्रल्लेक्यं कथमाक्रम्य गता नद्नदीपतिम ॥| १२॥
. है सगवन् | में चरिपथगा गड़ग जी का बृत्तान्त खुनना चाहता
£ैं। थे किस प्रकार तोनों लोकों के नाँध कर समुद्र से जा
प्िली ॥ १२ ॥
चादितो रामवाक्येन विश्वामित्रों महामुनि! ।
वृद्धि जन्म च गड़ाया बकक््तुमेवेपचक्रमे ॥ १३ ॥
इस प्रकार धीरामचन्द्र जी के पूं छुने पर महपि विश्वामित्न जो
ने धीगड़ा जी की पृद्धि व जन्म की कथा कहना भ्रारस्स की ॥१३॥
शलेन्द्रा हिमवान्राम धावनामाकरो महान |
../ तस्य कन्याहय॑ जात॑ रूपणाप्रतिम श्रुवि ॥ १४ ॥
/ धातुर्थों की खान हिमालय नामक प्च॑त के दो क्यापं हुई,
ने पृथिवी पर सांच्य में वेजाइ; थीं अर्थात् अ्रत्यन्त उुन्दूरो
था॥ १४ ॥
या मेरुठ॒हिता राम तयेमाता सुमध्यमा ।
नाम्ना मेना मनाज्ञा वे पत्नी हिम्बतः प्रिया ॥१५॥
छन कन्याओं की माता का नाम भेना है जे मेरे पर्कत की
खुन्दरी लड़की और हिमाचल की पल्ो है ॥ १४ ॥
तस्यां गल्लेयमभवज्ज्येष्टां हिमवतः छुता ।
उमा नाम हवितीयाभूत्कन्या तस्पेब राघव ॥.१६ ॥
२५४८ “» बालकाणडे
हिमाचल की वड़ी.बैटी का नाम गड्ा और छोटी का हाश
पड़ा ॥ १६ ॥
अथ ज्येष्ठां सुरा; सर्वे देवताथचिकीपया |
शैलेन्द्रं चरयामासुगज्ठां त्रिपथर्गां नदीसू ॥ १७॥
हिमाचल की वड़ी बेटी जिपथगानदी गड्ला को सब देवता
मिल कर निज कार्यसिद्धि के लिये माँग कर के गये ॥ १७॥
ददो धर्मेण हिमवांस्तनयां लेकपावनीम् |
खच्छन्दपथर्गां गड्ढां त्रेलाक्यहितकास्यया || १८ ॥
हिमाचल ने भी तीतों लोकों के पव्िनत्न करने वाली, स्तेच्छा-
चारिणी गड्ढा के तीनों लेककों की भलाई के लिये, माँगने वाले को
देना चाहिये, अपना यह धर्म समर, देवताप्ों के दे दिया ॥ १८॥
प्रतिग्॒ह्य ततो देवाखिलोकहितकारिणः |
गद्जामादाय तेजच्छन्कृतार्थेनान्तरात्मना ॥ १९ ॥
तीनों लोकों का दित चाहने वाले, देवतागण गड़ा के ले कर
और क्तार्थ हो चल्ले गये ॥ १६ |
या चान्या शैलदुहिता कन्या>सीद्रघुनन्दन ।
उग्न॑.सा त्रतमास्थाय तपस्तेपे तपोधना || २० ॥
है रघुनन्द्न ) हिमाचल की जे दूसरी बेटी उमा थी, उसका
तप ही घन था अतः उससे धंति उच्च नप किया ॥ २० ||
उग्मेण तपसा युक्तां ददो शैलूवरः सुताम्।
रुद्रायाप्रतिरुपाय उमां छेकनमस्कृताम ॥| २९ ॥
पञ्चश्रिणः सर्गः २७६
+ ऊठोर तप करने चाली तथा लोकवन्दिता श्रपनी बेटी उमा,
मेमैधर न
'प्तीवर दिमाचल ने, मद्दादेव के, उसके ( उमा ) लिये डउपयुक्तवर
समस्त, उन्हें च्याह दो ॥ २१ ॥
एते ते शेलराजस्य सुते छोकनमस्कृते ।
गड्डा च सरितां श्रेष्ठा उमा देवी च राघद ॥ २२॥
है राम | ये दोनों लोकनमस्कता गड़ा नदी पर उम्रादेवी
प्रसिद्ध दिमाचल की बेटियाँ हैं ॥ २२ ॥
एतत्ते सवमाख्यातं यथा त्रिपथगा नदी ।
ख॑ गता प्रथम॑ तात गड्ा गतिमतांवर ॥ २३ ॥
दे त्ात ! हे चलने बालों में श्रेष्ठ ! मेने ठुमसे त्रिपयगा श्रीभद्जा
नी के प्रथम स्थर्ग ज्ञाने का वृत्तान्त कद्दा ॥ २९ ॥
सेपा धुरनदी रम्या शेलेन्द्रस्य खुता तदा |
धुरछाक समारूदा पिपापा जलवाहिनी | २४ |
इति पश्चत्रिशः सगे: ॥
हिमाचल की बेदी, रमगीकू और पाप नाश करने वाले जल से
बद्दने वाली और सुरलेक की जाने चाली यही छुरनदी गड्जा नदी
है॥ २७ ॥
वालकाण्ड का पैतोसवाँ सर्य समाप्त हुआ ।
पटतिशः सर्गे:
“कक
जाय) *
उक्तवाक््ये मु्ों तस्मिन्तुमों रापवलक्ष्मणो ।
+ ४९ पर
अभिनन्थ क॒थां वीरावूचतुसुनिपज्चधवम् ॥ १ ॥
मुत्रि विश्वामित्र जी के इस प्रकार कहने पर दोनों यजकुमार
विश्वामित्र जी ( की जानकारों और स्मरणशक्ति और कथा कहने
की रोति ) की वड़ाई करते हुए वाले ॥ १ ॥
धर्मयुक्तमिदं त्रह्मन्कथितं परम त्वया ।
दुहितुः शैलराजस्य ज्येप्ठाया वक्तुमहसि ॥ २॥
हे ब्रह्मषें ! आ्रापने पुएय देने वाली उत्तम कही अब हिमालय
की जेटी बेटी गड़ा जी की कथा मुझसे कहिये ॥२॥
विस्तरं विस्तरज्ञोअसि दिव्यमानुपसम्भवस् ।
त्रीन्पथा हेतुना केन छ्ावयेल्लोकपावनी ॥ ३ ॥
आप सब जानते हैं, से। भव आप विस्तार पूर्वक यह कह्दिये कि
लोकपावनो गड्जा खगे से मनुष्यतल्लेक में क्यों ग्रायीं और तोनों
त्ञाकों में क्यों कर वहीं ॥ ३ ॥
कथ॑ गछ्जा त्रिपयगा विश्वुता सरिदुत्तमा |
त्रिषु लेकेयु धर्मज्ञ क्मभि! के; समन्विता ॥ ४ ॥
हे धमेज्ञ | नद्यों में उत्तम गड़ा का वाम तोनों लेकों में
जिपथगा क्विन किन कर्मो के कारण हुआ ॥ ४ ॥
तथा ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रस्तपोधनः ।
निखिलेन कथां सर्वाशषिमध्ये न््यवेदयत् | ५ ॥
पदुनिशः सर्गः धर
प्ोरामचन्द्र के पूछने पर तपोाधन विश्वाम्रित्नजो ने सास
पृतान्त ऋषियों के दीच वेद कर ( इस प्रकार ) कहा ॥ ४ ॥
पुरा राम कइृतोद्वाहों नीलकण्ठों महातपा: ।
रृष्ठा च स्पृहया देवीं मथुनायेषचक्रमे || ६ ॥
है राम ! पूर्वकाल में मद्यातरम्बी महादेव जी का विवाद पार्वती
औओी के साथ हुप्मा और वे उनके देख, कामचशचर्ती हो, उनके साथ
विहार करने लगे ॥ ६ ॥
जप डे मन
शितिकण्ठस्य देवस्य दिव्यं बपशतं गतस् |
तस्य संक्रीडमानस्य मददिवस्य धीमतः ॥। ७ ||
देवद्ाधों फे मान से सो वर्ष तक धीमान नोलकय॒ठ महादेव जी
के देवी के साथ चिद्यार करते पर भी ॥ ७ ॥
न चापि तनये। राम तस्यामासीस्परन्तप |
तते। देवा; समुद्दिभ्ना! पितामहप॒रोगमाः ॥| ८ ॥
है राम ! काई सन्तान न हुआ | तव सथ देवता व्याकुल हो
प्रक्षा जी सहित विचारने लगे ॥ ८ ॥
यदिद्ोत्द्यते भूत॑ कस्तत्मतिसहिष्यते ।
अभिगस्य सुराः सर्वे श्रणिपत्येदमत्रुवन् | ९ ॥
कि इन दोनों के संभेग से जे। ज्ञीव उत्पन्न देगा उसका भार
फैन सम्हाल सक्रेमा । तव सब देवता महादेव जी के शरण में
ज्ञा कर और उनके प्रणाम कर वेक्ते ॥ ६॥
देवदेव महादेव छाकस्पास्य हिते रत |
सराणां प्रणिपातेन पसाद॑ कतंमहसि ॥ १० ॥
२४२ बालकायडे
है देवदेव महादेव | देवताओं के प्रणाम से प्रसन्न हजिये और
इस क्लाक की रक्ता फीज्षिये ॥ १० ॥| -॑
न लोका धारयिष्यन्ति तव तेज! शुरोत्तम । से
ब्राह्मेण तपसा युक्तों देव्या सह तपथर ॥ ११ ॥
है सुरात्तम ! शझापका तेज कोई भी लेक 'भारण नहीं
कर सकेगा । अतः आप देवी सहित चैदिक विधि से तप
कीजिये ॥ ११॥
त्रेलौक्यहितकामार्थ तेजस्तेजसि घारय ।
सर्वानिमाँस्ले। रे का ९
रन दलेकान्ालेक कतुमहसि ॥ १२ ॥
तीनों ल्ञाक्ों के हित के लिये अपना तेंज अपने शरीर ही
में रखिये, जिससे तीनों लेककों की रक्ता दे, उनका नाश न
फीजिये॥ १२॥
देवतानां बचः श्रुत्वा सवाकमहेश्वरः ।
वाहमित्यत्रवीत्सवान्पुनश्रेदयुवाच ६ ॥ १३ ॥
सर्वक्षाकों के परम नियन्ता महादेव जी; देवताओं के वचन
खुन वाले, बहुत अच्छा । तद्नन्तर कहने लगे ॥ १३ ॥
धारयिष्याम्यहं तेमस्तेजस्येव सहोमया । ..
त्रिदशाः पृथिवी चेद निर्वाणमधिगच्छतु ॥ १४ ॥
हे देवतागण ! में उम्रा के साथ अपना तेज शरीर ही में ६27%|
किये रहूँगा । देवतागण एवं पृथिव्यादि समस्त लोक खुल
रहें | १७॥
पट्निशः सगेः २५३
यदि क्षुभितं स्थानान्मम तेजो हनुत्तमस् ।
धारयिप्यति कस्तन्मे ब्रवन्तु सुरसत्तमा। | १५ ॥
परन्तु हे देवताओं | यद्द तो वतल्लाप्नों कि, जे मेरा तेज
( दीय॑ ) स्थानच्युत ही गया है, उसे कान धारण करेगा ?॥ १४ ॥
एवमुक्तास्ततो देवा; पत्युचुदंपमध्वजम् |
यत्तेज; श्षुभितं झोतत्तद्धरा घारयिष्यति ॥ १६॥
इस पर देवतामों ने मद्गादेव जो के यह उत्तर दिया कि,
आपका जे तेंज्ञ स्थानच्युत हुश्ा भ्र्थात् गिरा, तो उसे पूथिवी
धारण करेगी ॥ १६ ॥
एवमुक्त। सुरपति; प्रमुमेचच महीतले ।
तेजसा पृथिवी येन व्याप्ता समिरिकानना ॥ १७॥
यद्द खुन महादेव ज्ञो ने अपना तेज्ञ पृथिवी पर छोड़ा, जिससे
एन पर्वत सहित प्रथिदी पूर्ण हो गयी ॥ १७॥
ततो देवाः पुनरिदमूचुभाथ हुताशनस् ।
प्रविश् त्व॑ महातेजे रोद्ं वायुसमन्वित) | १८ ॥
( जब देवताग्रों के यद्द मालूम हुआ कि, उछ तेज के धारण
करने में पृथिवो असम है वव ) वे भ्रम्मि से वाक्षे कि, तुम चायु
के साथ इस रुद्र फे तेज में प्रवेश करे ॥ १८ ॥
तदमिना पनव्याप्तं सज्ञातः श्वेतपवेतः
दिव्य॑ं झरवण्ण चेव पावकादित्यसन्निमम्र ॥ १९
२५७४ : बालकायडे
तब अग्नि के उसमें प्रवेश करने से. वह तेज एक स्थान पर
( समि कर ) श्वेत पर्वताकार द्वी गया | फिर अभि आए [दिये
की तरह. चमकीला प्रति दिव्य सरपत का बन है| गया ॥
यत्र जातो महातेजा; कार्त्तिकेये'म्रिसंभव:
अथेमां च शिव चैव देवाः सर्पिगणास्तदा ॥| २० ॥
उसीसे स्थ्राप्रिकातिक अप्नि के समान तेजस्वी ,उत्पन्न हुए ।
तदनन्तर सब देवताओं और ऋषियों ने उमा ओर शिव की पूजा
'की | २० ॥
पूजयामा[सुरल्थ सुप्रीतर्मंगसस्तत) । ह
अथ शेलसुता राम त्रिदशानिदमत्रवीत् ॥ २१ ॥
है राम | जब प्रसन्न मन से देवताओं ने पूजन किया, तव उम्रा
( ऋद्ध होकर ) देवताओं से यह बोलीं ॥ २१ ॥
.. अग्रियस्य कृतस्याय फल प्राप्स्यथ में सुरा। ।
हल ए
इत्युक्वा सलिलं गृह् पावती भास्करप्रभा ॥ २२॥
छरे देवताओं, तुमने जे मेरे लिये.प्प्रिय कार्य किया है उसका
फल तुम पांचागे | सूथ के समान दीप्तिमान् उम्रा ने यह कह कर
हाथ में जज लिया ओर ॥ २२ ॥
“' ' समन्युरणपत्सपान्क्रोधसंरक्तलाचना |
४ चै
यस्मान्निवारितां चेव सद्भ॒तिः पुत्रकाम्यया ॥२१।
कोध के मारे लांल नेत्र कंरं उन सव देवताश्ों के यह शाप *
दिया 'कि, तुमने. मेरे पुत्र उत्पन्न-होने में वाघा डाली है।॥ २३ ॥
व
पदुनिश। सर्गः २५४
अपत्य॑ स्वेष॒ दारेए नात्पादयितुमहथ । “
अथ्रप्रभुति युप्माकृममजा; सन्तु पत्रय; || २४ ॥
_ से। काई भी देवता अपनो स्री से पुत्र उत्पन्न न कर समझे; आज
से तुर्दारी लिया सन्तानरदिन होंगी॥ २४ ॥
एवम्ुकत्ा सुगन्सवाच्शशाप पूथिवीमपि ।
अबने नकरूपा त्व॑ वहुभायां भविष्यसि ॥ २५॥
देवताओं का इस प्रकार शाप दें कर, उम्ता ( शान्त न हुई )
ने पृथित्री के भी शाप दिया कि, है प्ृृथियों | तू एक सी नहीं
रहंगो ओर तेरे प्यनेक पति होंगे | शर्थाव् समस्त भूमएडल का एक
शाज्ञा न दवेमा--अनेक राजा दंगे ॥ २४ ॥
न च पुत्रकृतां प्रीति परक्रीपफलपीकृता ।
प्राप्स्यसि स्व सुद्र्भधें मम पत्रमनिच्छती || २६ ॥
है लुदुनरे ! मेरे क्राथ से ठुके पुपसखुख न होगा, फ्योंकि तूने
मेरे पुत्र का नहीं चाहा ॥ २5 ॥
तान्सबन्त्रीडितान्दट्टा सुरान्युरपतिस्तदा ।
गमनाये[पचक्राम दिख बरुणपालिताम् | २७ ॥
मद्दादेव जी ने इन्द्र तथा सव देवताशों का लरज्ञित देख, चरुण-
दिशा ( उत्तर ) फी आर जाने की इच्छा की ॥ २७ ॥
' स गत्या तप आतिष्ठत्पार्श्दे तस्पेत्तरे गिरे! ।
हिमवत्मभव्रे श्रद्धें सह देव्या महेश्वरः ॥ २८ ॥
वां० रा०--२७
२४६ वालकायडे
चहाँ जा कर हिमलाय के उत्तर साग में दिमवल्नमव नामक
पर्वतश्टड़ु पर उम्रा सहित वे तप करने लगे ॥ २८॥
एष ते विस्तरो राम शैलूपुत्या निवेद्ति) ।
गद्भायाः प्रभव॑ं चेव श्रुणु मे सहलृक्ष्मण: ॥ २९ ॥
इति पदूनिशः सर्गः ॥
है राम ! हिमालय की एक बेटी की यह कथा मैंने विस्तार
' पूर्वेंक कही । श्रव हिमालय की दूसरी बेठी गड्ा की ( विस्तृत )
कथा लक्ष्मण सहित तुम खुना ॥ २६ ॥ ह
चालकाणड का छत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥।
न-+
सप्तत्रिश (5
सगे:
“-४8 # ३---
तप्यमाने तपे। देवे देवा; सर्पिगणाः छुरा |
सेनापतिमभी प्सन्तः पितामहमुपागमन् ॥ १ ॥
जव मद्दादेव तप करने लगे, तव इन्द्रादि देवता अप्नि के आगे
कर, सेनापति ( अपनी देवसेना के लिये पक सेनापति ) प्राप्त
फरने की इच्छा से न्रह्मा ज्ञी के पास गये। १॥
ततोअजुवन्सुराः सर्वे भगवन्त पितामहम् |
प्रणिपत्य शुभ वाक्य सेन्द्राः साम्रिपुरोगमा। ॥ २॥ (
और प्रणाम ऋर, इन्ध और अश्नि के आगे कर ब्रह्मा जी से.
सव देवता प्रणाम पूर्वक बराले ॥ २ ॥| हे
६ सप्तत्रिशः सर्गः २५७
ये नः सेनापतिदेव दत्तो भगवता पुरा ।
. + तप परममास्थाय तप्यते सम सहोामया | ३ ॥
४ कर कब
है है भगवन ! ध्यादि काल में जिन (रूद्र ) के आपने हमारा सेना-
हा न
प्रति बनाया था, थे ते उम्रा के साथ हिमालय पर जा कर तप
कर रहे हैं ॥ ३ ॥
[ ने८--किसी किसी फ्यी में! » येन " की जगद्य / येन ० भी
पाठ मिछता है। जहाँ पर “ सेन ' पाठ है बहाँ उक्त छोड का अधथे यह
होगा कि, भिन मद्ठादेव भी ने हम छोपों से पदुले फट्ठा था कि, हम मुम्हें एक
सेनापति देंगे, ये मद्दादेव शमा सद्दित दिमालय पर तय कर रहे हैं । ]
यदत्रानन्तरं कार्य कछेकानां द्वितकाम्यया ।
संविधत्ख विधानत् त्व॑ हि न। परमा गति; ॥ ४ ॥
गतपतव इसके वाद लोकों के द्वितार्थ जे करना डचित ज्ञान
) वह शोजिये, क्योंकि इमारी दौड़ ते भाप ही तक है ॥ ४॥
देवतानां बचः श्रुत्ला स्वेक्तेकपितामहः ।
सान्त्वयन्मधुरवाक्य खिदशानिदमत्रवीत् ॥ ५ ॥
देवताओं के इन बचनों को छुन श्रह्माजी मधुर घचनों से
देचताश्रों के सान्वना प्रदान ऋर, श्र्धात् ढॉढ्स बेधा, कर, यह
बेत्ते ॥ £ ॥ 5
शैंलरपुन्या यदुक्त तन्न प्रगा; सन््तु पत्निय॒.।
तस्या वचनमक्िप्ट सत्यमेव न संशय ॥ ५ ॥
दे देवगण ! उमा देवी ने तुम लोगों के जे शाप दिया है कि,
तुर्दारी स्तियों के सत्ताव न होगा, चद तो अ्न्यतरा दोगा नहीं॥ ६ ॥
श्श््८ वालकायडे
इयमाकाशगा गर्भ यसयां पुत्र हुताशनः ।
जनयिष्यति देवानां सेनापतिमरिन्दमम् ॥ ७॥ “+
हां, अश्विदेव इस आकाशगड़ा से जिस पुत्र के उत्पन्न करेगे
चद देवताशों के शन्रुझ्रों का नाश करने वाला होगा ॥ ७ ॥
ज्येष्ठा शैलेन्द्रदुहिता मानयिप्यति त॑ सुतम्।
उमायास्तदूवहुमत॑ भविष्यति न संशय; | ८ ॥
दिमाचल्ष को ज्येठ्ठा पुत्री गड़ा, अपनी छोटी वहिन का पुणे
देने के कारण, उसे निञ्ञ पुच॒व॒त् समभेगी श्रोर उम्रा तो उसे
निश्चय ही वहुत॑ ही मानेगी धर्थात् उसे बहुद प्यार करेगी ॥ ८॥
' तच्छु तथा वचन तस्य कृतार्था रघुनन्दन |
प्रणिपत्य सुरा! सर्वे पितामहमपूजयन् ॥ ९ ॥
है राम | ब्रह्मा के ये वचन सुन, देवताओं ने अपने के छतार्थ'
समझा ओर प्रणामादि कर ब्रह्मा ज्ञी का पूजन किया ॥ ६॥
: ते गत्वा पवेत॑ राम कैलास घातुमण्डितस् |
अग्नि नियेजयामासु) पुत्रार्थ सवंदेदता। ॥ १० ॥
तद्नन्तर सव देवता अनेक धातुओं से परिपूर्ण कैज्लास पर्वत
पर गये और पुश्नोत्पत्ति के लिये अपन के प्रेरणा करने ज्ञगे ॥ २० ॥
देवकायमिदं देव संविधत्ख हुताशन |
, शैलपुत्यां महातेने गड्भायां तेज उत्सज || ११॥
कि
सप्रत्रिशः सर्गः २४५६
( देवतागण, '्रश्मि से कहने लगे ) यद्द देवताश्ों का फार्य है।
“से,करे। दे मद्ातेजस्दी अप्रिरेव | शाप प्रपता ( वोर्य ) गड्ा
में छूड़ो ॥ ११ ॥
देवतानां प्रतिज्ञाय गड्डामम्येत्य पावकः ।
गर्भ धारय वे देवि देवतानामिदं प्रियम | १२ ॥
अगप्िरेय ने देवताओं से ( यह कार्य करने को ) प्रतिक्षा की
झौर गद्टा ज्ञी से क देधि ! तुम हमसे गर्भ धारण करे।
क्योंकि यह काय देखतागों के अमिलदित प्रर्थात् उनके पसन्द
हं॥ १२॥
अम्नस्तु बचन श्रुथा दिव्य रूपमपारयत् ।
हृष्ठा तन्पहियान स समन्तादबकीयत ॥ १३ ॥
अन्विदेव का यह वचन सुन गदड्ा देवी ने द्विव्य स्री का रूप
/परिण किया | अधि तेगड्ुा जो का साद्य देख, अपने सब अँगों
से बोर्य छड़ी ॥ १३ ॥
सम्रन्ततस्तदा देवीमस्यपिश्वत पावक! ।
सर्स्रोतांसि पूर्णानि गड़गया रघुनन्दन ॥ १४ ॥
है राम ! गड्ा को प्रत्येक नाड़ो अप्नि के तेंन्र ( बोये ) से
परिपुर्ण है! गयो--काई शैग ख़ालोी न. रहा ॥ १४॥
तमु॒ताच ततो गड्ा सर्ववेवएुरो|गमस ।
अशक्ता घारणे देव तब तेन; सम्ुद्धतम ॥ १५ ॥
तब गद्ठा ने अति से कद्दा कि हे देव ! में तुम्दारे बढ़ते हुए
तेज् को धारण नहीं कर सकती ॥ १६ ॥
श्है० वालकायडे
दह्ममानाउंग्रिना तेन संप्रव्यथितचेतना ।
ब्रदीदिद॑ ल्]] सवदेवहताशन कप!
: अथाव्रदीदिदं गड्ां सवदेवहुताशन। ॥ १६॥
क्योंकि तुम्दारे तेज से में जली जाती हैँ। औौर में बहुत दुखी
हैं। यह खुन प्रश्न ने कहा ॥ १६ ॥
इह हैमबंते पादे गर्भाज्य॑ सब्निवेश्यताम ।
श्रुत्वा ल्वशरिवचे। गद्ा त॑ गर्भभतिभाखरस् ॥ १७॥
' इस हिमालय के पास इस गर्भ के रख दो। यह सुन गड्ढा
जी ने वह परम तेजस्वी गर्भ ॥ १७॥
उत्ससर्ज महातेजाः स्लोतोभ्ये। हि तदाउनव |
यदस्या निर्गंत॑ तस्मात्तप्तजाम्बूनदप्रभयू ॥ १८ ॥
अपने अंगों से निकाल दिया जब बह गर्भ भूमि पर हे
तब वह झत्यन्त चमरूदार जासखूनद खुब॒र्ण है| गया ॥ १८॥ गे
काअनं घरणीं प्राप्त हिरण्यममर्ल शुभम् |
ताम्र॑ं का्प्णायसं चेव तैक्षण्यदेवाम्यनायत | १९ ॥|
वही विशुद्ध और सुन्दर सब सेना है, जे पृथिवी पर है। उसके
पास वहाँ जितने पदार्थ थे वे चाँदी हो गये। जहाँ जहाँ उसकी
तीह्णता पहुँचो वहाँ तांवा और लेहा दो गया ॥ १६ ॥
मल तस्याभवत्तत्र त्रपु सीसकमेव च।
तदेतद्धरणीं प्राप्य नानाधातुरवधत ॥ २०॥ ५
और उसके मैल का जघ्टा और सीसा हो गया। इस प्रकार
वह तेज भूमि पर धनेक धातुश्रों के रूप में फैल गया ॥ २० ॥
सप्तनरिणः सर्गः
न्जँ
नही
ह्च्छ
निश्षिप्तमात्रे गर्भे तु तेमोमिरभिरश्षितम् |
सब पत्रत्तसनद्ध सोवर्णममबद्धनम ॥ २१ ॥
गभ के छोड़ते हो सम्पूर्ण पर्चंत और वहाँ का घन तेज से
परिपूर्ण दे खुबर्ण रूप हे गया ॥ २१॥
जातरूपमिति झयात॑ तदाप्रभुति राघव |
सुबर्ण पुरुषव्याप्र हुताशनसमप्रभम् । २२ ॥
राम ! रूप से उत्पन्न गैने के कारणा तव से यह सेना ज्ञात-
रूप कहलाता है आऔर दे पुरुषव्याथ ! छुवर्ण की, भ्रप्मि जैसो कान्ति
हो गयी है ॥ २२॥
ठणहक्षकुतागुल्म सर्वे भवति काशवनस् ।
त॑ कुमार ततों जात॑ सेन्द्रा; सहमरुदगणा; ॥ १३ ॥
वहाँ ज्ञा तगा, गुल्म, जत्ताएँ थीं, वे भी खुबर्ण हो गयीं।
तदनन्तर उस तेज से कुमार का जन्म छुआ | तब इन्द्रादि देव-
ताञ्ों ने ॥। २६ ॥|
क्षीरसंभावनाथाय कृत्तिका। समयेजयन् |
ता; क्षीरं जांतमात्रस्य कृत्वा समयमुत्तमम्् ॥ २४ ॥
उस्र वालक के दूध पिलाने के लिये छृत्तिकाशं फे नियुक्त
किया । निजञ्ष पुत्र कहलाने का करार कर, सव ने दूध
, विल्ाब्रां ॥ २७ ॥
ददु) परत्नोध्यमस्पार्क सर्वांसामिति निश्चिता। ।
ततस्तु देवता; सवा; कार्चिकेय इति ब्रुवन् ॥ २५॥
२६२ बालकाणडे
तव सब देवताशों ने कहा कि, यह वालक तुख्द्वास पुत्र भी
कहलावेगा और उसका कार्तिकेय नांम रख कर कद्दा ॥ २५ ३ .,
पुन्रस्त्रेलैक्यविस्यातो भविष्यति न संशय/ |.
तेषां ० हि ५
तेषां तहचन श्रुत्वा स्कर्त गर्भपरिस्रत्रे || २६ ||
9७७ औडके
यह वाल्क निस्सन्देंह् तीनों लोकों में प्रसिद्ध होगा। यद्द सुन
कत्तिकाओं ने गिरे हुए गर्स से दत्पन्न उस कुमार के ॥ २६ ॥
* सनापयन्परया लक्ष्म्या दीप्यमानं यथाउनलग्र |
० < 0
स्कन्द इत्यत्रुवन्देवाः स्कल्न॑ गर्भपरिस्त्रात् ॥ २७ ॥
घच्छी तरद से स्वान कराये जिससे उस वाजक फा शरीर
अधि के समान दमकने लगा। यह वालक गर्भश्राव से उत्पन्न
था, भ्रतः देवतापों ने उसका स्कन्द् भी नाम रखा ॥ २७ ॥ हु
कार्त्तिकेयं महाभागं काकुत्स्य ज्वलनापमस् )
प्रादुयूत ततः क्षीरं कृतिकानामजुत्तमम् ॥ २८ ॥
हे रामचन्द्र | भ्रप्नि के मद्रश मद्राभाग कार्तिकेय के लिये
कृतिकाशों के दूध उत्पन्न दो गया ।। २८ ॥
घण्णां पढानने भूत्वा जग्राह स्तनजं पय! |
गदीत्वा क्षीरमेकाहा सुकुमारवषुस्तदा ॥ २९ ॥
वह वालक छ मुखों से छःथ्ों कृतिकाशों के स्तनों क्वा सर
पान करने लगा और एक ही दिन दूध पी कर, उस सुकुमार
शरीर वाले वालक ने ॥ २६ ॥ |
सप्तत्रिशः सर्गः २६
५ अजयत्खेन वीर्येण देल्वसैन्यगणान्विश्ु) ।
* सुरसेनागणपतिं ततस्तममलद्युतिम् | ३० ॥
इपने पराक्रम से देत्यों की सेना का जीता | तव उस विमल
धुति वाले छुमार के, देवताओं फी सेना फे सेनापति पद्
पर ॥ ३२० ।॥
अभ्यपिश्वन्सुरगणा! समेत्याम्रिपुरागमा। ।
एप ते राम गद्भाया विस्तरोइमिहितों मया ।
कुमारसंभवश्चेव धन्य! पृण्यस्तयेव च ॥ ३१ ॥
ब्रग्नि आदि देवताओं ने अभिषिक्त किया | है राम | यह गड्स्ा
ज्ञी का तथा कात्तिक्रेय के जन्म का वृतान्त विस्तार पूर्वक
फह्दा । यद कया वहुत भ्रच्छी ओर पुण्यदायिनी है ॥ ३१॥
भक्तश्व ये कार्चिकरेये काकुत्स्थ श्रुति मानव। ।
आसुप्मास्युत्रपात्रेश स्कन्द्सालेक्यतां अजेत् ॥ रे२॥
इति समरत्रिशः सर्गः ॥
हे राम ! इस पृथिद्रीतत पर जो लोग इसे भक्तिपुर्दक पढ़ते
हैं, वे आयुप्मान् और पुत्र पोत्र वाले हो कर; श्रन्त में स्कच्लाक
में जञाकर वास करते हैं ॥ ३२॥
वालकागड का सैतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
-+ई--
अध्टन्रिशः सगे:
५. लनकन+.. .
तां कथां काशिके रामे निवेध मधुराक्षराम् ।
पुनरेवापरं वाक्य काकुत्स्थमिदमत्रवीत् ॥ १ ॥
मधुरवाणी से उपशक्त कथा भ्रीरामचन्द्र ज्ञी को सुना कर,
फिर विश्वामित्र जी श्रीरामचन्द्र जी से बेल्ते ॥ १ ॥
अयेध्याधिपतिः शूरः पूर्वमासीननराधिपः ।
सगरो. नाम धर्मात्मा प्रजाकाम। स चाप्रजा। ॥-२॥
: है चीर | पहले ध्ययेष्यापुरी में एक सगर भाम के राजा थे।
उनके पुत्र नहीं था, अतः उन्हें पुत्रप्राप्ति की इच्छा थी ॥ २॥।
वेदभदुहिता राम केशिनी नाम नामतः ।
ज्येष्ठा सगरपत्नी सा धर्मिष्ठा सत्यवादिनी ॥ ३॥
सगर की पटरानी का नाम केशिनी था। वह विद देश क
राज्ञा की बेढी और बड़ी धर्मिष्ठा और सत्यवादिनी थी ॥ ३ |
अरि्टनेमिदुहिता रूपेणाप्रतिमा झआुवि । ह
ह्वितीया सगरस्यासीत्पन्ों सुमतिर्सज्ञिता ॥ ४ ॥
इनको दूसरी रानो का नाम सुमति था और वह प्ररिश्नेमि
की बेटी थी और पत्यन्त रूपचती अर्थात् छुन्द्री थी ॥ ४ ॥ हा
ताभ्यां सह तदा राजा पत्नीभ्यां तप्तवांस्तपः | *
हिमवन्त॑ समासाथ भुमुप्रख्वणे गिरौ ॥ ५ ॥
न
अणनिशः सर्गे २६४
उन दोनों रानियों सद्दित महाराज सगर हिमालय फे भुगुप्र्न-
चगे) )। नामक प्रदेश में ज्ञा कर तप करने लगे ॥| ४॥।
| [नोट--भृगुप्णबण उम्त प्रदेश का नाम इस्रछिये पढ़ा था कि, वहाँ
भुपु जी महाराज ख्यं तप करते थे । )
अथ पर्पश्षते पूर्ण तपसा&राधितों गुनिः ।
सगराय वर प्रादादभगुः सत्यवतांवरः ॥ ६ ॥
'तपस्या करते हुए मद्दाराज सगर को ज्ञव सो वर्ष पूरे द्वो गये
तथ सत्ययादी महपि भुझु ने सगर की तपस्या से प्रसन्न हो उन्हें
यद घर द्विएा ॥ 5 ॥
अपत्यलाभ! सुमहान्भविष्यति तवानघ |
कीर्सि चाप्रतिमां छोके प्राप्स्यसे पुरुषपभ ॥ ७॥
हे पुरुषशे्ठ ! दे ध्रनघ्र | तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी और
(अतुल कीर्ति सी मिल्ेगो ॥ ७॥।
एका जनयिता वात पूत्र॑ वंशकर तव ।
पष्टिं पश्नस॒हस्लाणि अपरा जनयिष्यति ॥ ८ ॥
(इस दे दानियों में से ) एक के तो वंश बढ़ाने वाला केवल
एक ही पुत्र दोगा और दूसरी के साठ धज़ार पुत्र फैदा होंगे ॥ ८॥
भाषमाणं मदात्मानं राजपुत्यों मसाद्य तम् |
ऊततुः परमप्रीते कृता्ललिपुटे तदा ॥ ९॥
जब मुनि ने ऐसा कहा तव दोनों रानियों ने दाथ जाड़ कर
कहद्दां | ६ ||
२६६ वालकायडे
एक; कस्याः सतों व्ह्मन्का वहुन्जनयिष्यति |
श्रोतुमिच्छावहे व्रह्मन्सल्यमस्तु बचस्तव । १० ||
है ब्रह्म! आपका वरदान सत्य हो, किन्तु यह ते बतलाइये
कि, एक किसके औए साठ हज्ञार पुत्र किसके द्वोंगे ॥ १० ॥
तयेस्तद्नचनं श्रल्ला भगु। परमधामिक; ।
उवाच परमां वाणी खच्छन्दोज्त विधीयताय ॥९ १॥
उन रानियों के इस प्रश्न के उत्तर में भगु ज्ञी मद्दाराज ने
फहा--यह तुम दोनों क्री इच्छा पर निर्भर हैं। अर्थात् जे जेसा
चाहेंगी उसके बैसा होगा ॥ ११ ॥
एका वंशकरे वास्तु वहवे वा महावरूा; | ल्
कीर््तिमन्तों महेत्साहा; का वा क॑ वरमिच्छति ॥१२॥ ६.
तुम दोनों अलग श्रल्लग दतलाओ कि, ठुममे से कोन बंश की
चृद्धि करने वाला पक पुत्र और कैन बड़े वक्ृतान कोचिशाली ओर
श्रमित उत्साही साठ हज्ञार पुञ्रपाति का चर चाहती है ॥ १२ |
मुनेस्तु बचन श्रुत्वा केशिनी रघुनन्दन |
पुत्र वंशकर राम जग्राह दृपसलिया ॥ १३॥
है रघुनन्दन | भृगु जी के इस प्रश्न के सुन फेशिनो ने बेश-
कर एक पुत्रप्राप्ति का चर प्राप्त किय्रा ॥ १३ ॥
पष्टि पुत्रस॒हस्ताणि सुपणभगिनी तदा |
महेत्साहान्कीतिमतो जग्राइ सुमति! सुतान्॥ १४ ॥
अएनतरिशः सर्ग: २६७
धझोर गरुत की बदिन सुमति के यजवान कीर्त्तिमान साठ
एक्षार पु्र दोने का चस्दान मिला ॥ १४ ॥।
अदक्षिणमृपि कृत्ा शिरसाउभिप्रणमस्थ च ।
जगाम खपुरं राजा सभायी रघुनन्द्रन ॥ १५ ॥
दे राम | महर्ऐि भसु की परिक्रमा फर शोर उनके प्रणाम
कर रानियों सहित महाराज सगर प्पनी राजधानों फे लौट
गये ॥ £9५ ॥
अथ काले गने तस्मिर्ज्येप्ठा पुत्र व्यनायत ।
अमपम्ज्ञ इति ख्यान॑ केशिनी सगरात्मजम ॥ १६ ॥
कुछ समय बोसने पर सगर की परत्रानी फ्रैशिदी के गर्भ से
छसमसस नाम का एक राजकुमार उत्पन्न गुफा ॥ १६॥
(ः .
सुमतिस्नतु नरच्यान्न गतुम्धं व्यजायत ।
, पष्टि। पन्ना: सहस्राणि तुम्वभदाद्विनिस्सता। ॥१७॥
दि पुरप्श्षेण् ! रानों सुमति के गर्भ से एक तूंचा निकला।
उस तू बे का फोाइसे पंय उसमें से साथ दज्ञार वानक निवालते ॥१७॥
घृतपूणपु दुम्भपु वान्वस्तान्समदधयन_ |
कान महता सर्दे योवन अतिपेद्िर ॥ १८ ॥
उन सदर का दाइयों ने घी से भरे हुए घढ़ों में रख, पाला पेसा
झोर इस प्रकार बहुत समय वीनसे पर वे सव जवान हुए ॥ श१८॥
अथ दीर्घेण काठेन रूपयोवनशालिनः
पष्ठि! प्रन््सहस्राणि समरस्याभर्व॑स्तदा ॥ १९ ॥
२ई८ वालकाणडे
बहुत दिनों में सगर के ये खाठ हज़ार पुत्र जवान हुए ॥ १६॥
सच ज्येष्ठो नरश्रेष्ठ सगरस्पात्मसंभवः | ०
वालान्यूहीत्वा तु जले सरय्वा रघुनन्दन ॥ २० ॥ ५
है शाम | सगर का ज्येष्ठ राजकुमार अ्रलमञ्स अवोध्यात्ांसियों
के वाल्षकों कै पकड़ ऋर सरयूनदी में फेक दिया कण्ता॥ २० ॥
प्रक्षिप्प महसन्नित्यं मज्जतस्तान्निरीक्ष्य वे ।
एवं पापसमाचार) सज्जनप्रतिवाधकः | २१ ॥
ओर जब वे इवने लगते तव यह उन्हें टूवते हुए देख प्रसन्न
द्वाता था। चंद वड़ा दुराचायी हो गया और वह सजनों को
सताने गा धर्थात् उसके आचरण सज्ञनों के थआचरणों से वहुत
दूर थे॥ २१॥
पैराणामहिते युक्तः पुत्रो निर्वासितः पुरात् । ह
तस्य पुत्रोशुभान्नाम असमज्ञस्य बीयेबान ॥ २२ ॥
इस प्रकार महाराज सगर ने पुरवासियों को सताने वाले
असमजस के देशनिकाले का दुग्ड दिया। असमझस के अशुमान
नामक एक पराक्रम्ी पुत्र था॥ २२ ॥
संभतः स्लाकस्प सर्वस्यापि प्रियंवद) |
ततः कालेन प्रहता मति! समभिजायत |
सगरस्य नरश्रेष्ठ यजेयमिति निश्चिता || २३ ॥
जे। सब की सम्मति से चलता था, सव से प्रिय वचन बोलता
था। वहुत दिनों वाद महारात्र सगर की इच्छा हुई कि, यज्ञ '
करें | २३ ॥
एकोनचत्वारिशः सर्मः २६६
स कृत्वा निश्रयं राम सेपाध्यायगणस्तदा |
यज्ञकमेणि वेदज्ञो यष्टुं समुपचक्रमे ॥ २४ ॥
इति अप्टलिशः सगे ॥
हूँ राम [ ऐसा निश्चय कर, वे ऋत्विजों के वुल्ला कर, यज्ञ करने
सगे ॥ २४ ॥
वालकाण्ड का शड़तीसर्चा सगे समाप्त हुआ |
“औई--
एकोनचत्वारिशः सर्गे
विश्वामित्रवचः श्रुत्ा कथान्ते रघुनन्दनः ।
._ छवाच परमप्रीतो मुनि दीप्रमिवानलम् । १ ॥.
उक्त कथा सर्माप्त होने पर भ्रोरम्चन््ध जी परम प्रीति के साथ
भ्रश्निवत् देदीप्यमान् विश्वामिन्न पुनि से बेले ॥ १॥
श्रोतुमिच्छामि भद्गं ते विस्तरेण कथामिमास् |
पूवके मे कय्य॑ ब्रह्मन्यज्ञ वे समपाहरत् ॥ २॥
है ब्रह्मन ! आपका मड्गभल दो; मैं विस्तार, पूर्वक यद छुनना
चाहता हूँ कि, मेरे पूंचण महाराज खगर ने किस प्रकार यक्ष
किया ॥ २ ॥
तस्य तहचनं श्रृुत्वा केतृहलूसमन्वितः
विश्वामित्रस्तु काकुत्स्थम्ु॒वाच प्रहसन्निव ॥ ३ ॥
२७० वालकाणंडे
यह खुन विश्वामित्र जी हर्षित दो भ्रीरामचन्द्र जी से कहने
लगे॥३॥ फ
श्रूयतां विस्तरो राम सगरस्य महात्मनः ।
शझूरश्वशुरा नाम हिमवानचलेतमः ॥ ४ ॥
है राम ! मद्दाराज सगर का चरित्र विस्तार पूर्वक छुनिये।
श्र के सझुर पर्वतोचम हिमाचल ॥ ४॥
विन्ध्यपर्वतमासाथ निरीक्षेते परस्परम् ।
तयेमध्ये प्रहत्तोड्भूग्ज्ञ। स पुरुषोत्तम || ५॥
और विन्ध्याचल एक दूसरे के देखते हैं, ( धर्थात् द्विमालय
प्र विन्ध्याचल्ल पर्वत के बीच मेदान है,) हे पुरुषोत्तम ! इन्हीं
दोनों पवेतों के वीच की भूमि पर महाराज सगर का यकज्ष हुआ
धा॥४॥' के की
स हि देशे! नरव्याप्र प्रशस्तो यज्ञकर्मणि ।
तस्याश्वचर्या' काकुत्स्थ दृदधन्वा महारथ; || ६ ॥
हे नरच्याप्र | हिमालय और विश्ध्य पव॑त के वीच की भूमि
यक्षकर्म के लिये उत्तम है । है काकुत्ख्य ! उस यज्ञ में छोड़े हुए घोड़े
की रत्ता के लिये दृढ़ धनुष्घारी, महार्थी ॥ ६ ॥
अंशुमानकरेचात सगरस्य मते स्थित) ।
तस्य प॑णि संयुक्त यजमानस्प बासवः || ७ ॥
अंशुमान महाराज सगर के आदेश से नियुक्त हुए । हक
उस यज़मान के.पर्च, दिन इन्द्र ॥ ७॥ * -
एकानचत्वारिश; सर्गः २७१
राक्षसीं तनुमास्थाय यज्ञीयाश्वमपाहरत् ।
” हीयमाणे तु काकृत्स्थ तस्मिननरवे महात्मन) ॥ ८ ॥
फत्तस का रूप घर कर यह्षीय ध्यश्व हर ले गये। जब यशीय
ध्भ्य ले फर इन्द्र चले, तब दे राम [॥ ८५॥
उपाध्यायगणा; सर्वे यजमानमथान्रवन् |
अय॑ पर्व॑णि बेगेन यज्ञीयाश्वेज्पनीयते | ९ ॥
सव ऋत्विग्गण ने राजा से कद्दा कि, यज्ञ का घोड़ा कई बड़ी
तेंज्ञी से चुरा कर लिये जाता है॥ ६ ॥
इतार जहि काकुत्स्थ हयश्वेवापनीयतामू ।
उपाध्यायवचः श्रुत्वा तस्मिन्सदसि पार्थिव: ॥ १०॥
, प्रतः है काकुत्स्य | घोड़ा घुरा कर भागने वाक्षे के मार कर
पड़ा जाइये | उस यप्ष में ऋत्विजों के ये वचन सुन कर, राजा ॥ १०] '
पष्ठि पत्रसहस्नाणि वाक्यमेतद॒वाच ह |
गति पुत्रा न पश्यामि रक्षसां परुपपभा। ॥ ११ ॥
अपने साठ हज़ार पुत्रों से यह बोले कि, हे पुत्री | यक्षीय अध्य
के हरने वाल्ते दु रात्तस नहीं दिखलाई पड़ते कि, थे किस.मार्ग
से घोड़ा छुरा कर त्ते गये ॥ ११॥
मन्त्रपूतिमहाभागेरास्थितो हि महाक्रतु। ।
तदगच्छत विचिन्चध्द॑ पृत्रका भद्रमस्तु व! | १२॥।
यक्ष बड़े वड़े मंत्रवेचा मदात्माप्मों द्वारा कराया जाता है, जिससे
किसो प्रकार फा विप्न उपस्वित न ही । भ्रव घुम लोगों फे चादिये
कि, तुरन्त जा कर घोड़े का पता लगाश्रा, तुर्द्ारा मड्ल दो ॥ १२॥
चा० रा००-१८
२७२ , वालकायडे -
समुद्रपालिनीं सर्वा' पृथिवीमनुगच्छत । |
एकेक येजन पुत्रा विस्तारमभिगच्छत ॥ १३ ॥ . -
.« समुद्र से घिरी हुई जितनी एथिवों है सव हाँद़ना | एक पर
याजन हुँ ढ़ कर थ्रागे बढ़ना ॥ १३ ॥
यावत्तुरगसंदशस्तावत्ख नत मेदिनीम् | ह
ह र्तारं ए है
त॑ चैव हयहतारं मार्गमाणा ममाजया ॥ १४ ॥
मेरी भ्राज्ञा से घ्रश्वदर्ता को हाँ ढ़ते हुए तव तक पृथिवों खेदते
जाना जब तक॑ घेड़ा न दिखाई दे ॥ १७ ॥
दीक्षित; पैन्रसहितः से।पाध्यायगणे छहम् ।
... हह स्थास्यामि भद्व वे यावत्तुरगद्शनस ॥ १५ ॥
ह मैं ते यज्ञीय दीक्ता लिये हुए हैँ । से जब तक में घेड़े के देख
न छू, तव तक अंशुमान और उपाष्यायों सहित यहीं रहूँगा। जाओ,
तुम्दारा मदुल हो ॥ १४५ ॥ ह
इत्युक्ता हृष्टमनसे राजपुत्रा अहावा) ।
जम्मुमेहीत्॑ राम पितुबंचनयन्त्रिता। ॥ १६॥
” है राम! वे महावल्ी राजकुमार प्रसन्न हे और पिता की शाज्ा
पा कर, ( घोड़े और घोड़े के चुराने वात्ते के ) प्रृथ्वी भर में
हैं ढ़ने लगे ॥ १६ ॥ ४ हक अल.
येजनायामविस्तारमेकैके धरणीतलूम् |
विभिदुः पुरुषव्याप्र वजस्पशंसमैनंखे! || १७ ॥
' : है नरशादईंल ! सारी प्ृथियी लाज चुकने के पीछे धपने बे
के समान नख््रों से प्रत्येक राजकुमार एक पक ये ४
'लादने लगे १७॥- - | | जन प्ृथिवो
पएकानचत्वारिशः सर्गः श्छ३े्
शूलेरशनिकल्पैथ हलेश्रापि सुदारुणे! । प
भिद्यमाना वसमती ननाद रघुनन्दन ॥ १८ ॥|
है रघुनन्द्न ! उस समय बड़े बड़े ज्िशुज्ञों और मज्जवूत हल्नों
थियो खोदते समय पृथियी पर हाह्यकार मच्र गया॥ १८ ॥
नागानां व्रध्यमानानामसुराणां च राधव ।
+ ५७७ ५
राक्षसानां च दुधप) सत्तानां निनदे'ध्मवत् ॥१९॥
पृथिवी खोदने में प्रनेक नाग, देत्य, और बड़े घड़े दुर्घ्ष
शत्ञस मारे गये और प्रनेक घायल, हुए ॥ १६ ॥
याजनानां सहख्राणि पट तु रघुनन्दन |
विभिदु्धरणी वीरा रसातलभतुत्तमम् ॥ २० ॥
: दे रघुनन्दन ! उन बोर राजकुमारों ने साठ हज़ार ये।जंन भूमि
" छ,द् डाली ओर जोदते खोदते वे पाताल तंक पहुँच गये ॥ २० ॥
... एवं पव॑तसंवाध॑ जस्बूद्वीपं दृपात्मणा। ।
खनन्तो तृपशादूल सबंतः परिचक्रमु:॥ २१ ॥
हे नृपशादंल | इस प्रकार वे राजकुमार पव॑तों सदित इस
जम्बूद्वीप के पलादते ओर चारों ओर हू ढ़ते फिस्ते थे ॥ २१ ॥
तते। देवा; सगन्धवां! साछुरा! सहपन्नगा; ।
संश्रान्तमनसः सर्वे पितामहम्ुपागमन् ॥ २२ ॥|
धब तो सब देवता, गन्धर्व, अछुर और पन्नण विकल दो ब्रह्मा
जी के पास गये ॥ २२ ॥ है
२७४ ' चालकायढे
ते प्रसाद्य महात्मा विपण्णवदनास्तदा ।
ऊलुः परमसंत्रस्ता! पितामहमिद बच! ॥ २३ ॥ ८.
ब्रह्मा जी की प्रसक्ष कर वे उदास मन प्रत्यन्त भयभीत हा,
ब्रह्मा जी से यह वाले ॥ २३ ॥
भगवन्पृथिवी सवा खन््यते सगरात्मजे; |
बहवश् महात्मानों हन्यन्ते जलवासिनः ॥ २७ ॥|
है भगवन | महाराज सगर के पुत्र सारो प्रथिवी खोदे डाक्षते
हैं और उन क्षोगों ने श्रनेक सिद्दों, तथा जलवासियों को भार
डाला है ॥ २७ ॥
अय॑ यन्वहरो5स्माकमनेनाश्वोध्पनीयते ।
इति ते सबभूतानि हिंसन्ति सगरात्मजा।॥ २५॥
इति पकेनचत्वारिंशः सर्गः ॥
सगर के पुत्रों के सामने जे। पड़ जाता है, उसे वे यह कद्द क
मार डालते हैं कि, हमारे यक्षीय भभ्य का चेर यही है, यही हमारा
घोड़ा चुरा ले गया है ॥ २४ ॥
वालकाण्ड का उनताल्लीसर्वाँ सर्ग समाप्त हुआ |
और
' चत्वारिशः सर्गः
ि +++ ० ३---
देवतानां वंचः श्रुत्वा भगवान्वे पितामह! ।
प्रत्युवाच सुसंत्रस्तान्क्ृतान्तवलूमेहितान्॥ १ ॥
चत्वारिशः सर्गर २७४६
देवताशों के इन वचनों के खुन, अह्मा जी सगर क्षे पुत्रों से,
जिनके सिर पर काल जेल रद्या था तथा भग्न्रस्त देवताधों से
ज॥श॥
टि यस्पेयं बसुधा क्ृत्सना वासुदेवस्प धीमतः ।
कापिलं रूपमास्थाय धारयत्यनिश्व धराम् ॥ २॥
है देवगण ! यह समस्त भूमि जिन घोमान् भगवान् वासुदेव की
है, पे हो कपिल के रूप में निरन्तर इस पृथियों को धारण करते
हं॥२॥
तस्य केापापिना दग्धा भविष्यन्ति उपात्मजा; ।
पृथिव्याश्वापि निर्भेदि हुए एवं सनातन; ॥ ३ ॥
ये समस्त राजकुमार उन्हीं कपिल के क्रोधानल से दग्ध हो
जाँयगे | यद् पृथिदी दो सनातन है। निम्वय ही इसका नाश नहीं
अब सद्नता ॥ ३ ॥
/ सगरस्य च् पुत्राणां विनाशा5दीघजीविनाम ।
पितामहबचः श्रुत्वा अयस्रिंशदरिन्दम ॥ ४॥
शीद्र नाशवान् सगर के पुत्रों का नाश ही होगा; अतः तुम
चिन्ता मत करो | ब्रह्मा जी के ये वचन खुन तेतीसे# ॥ ७ ॥
देवा; परमसंहु्टाः पुन्जग्मुयंथागतम् ।
सगरस्य च पुत्राणां प्रादुरासीन्महात्मनाम् | ५ ॥
पूथिव्यां भिद्यमानायां निर्धाससमनिःखनः! |. ,
तते भित्त्वा महीं कृत्स्नां कला चामिप्रदक्षिणम्॥ ६॥
#आठ बसु, ग्यारद रुद्र, वारद जादित और दे! अश्विनीकृमार ।
२७३६ * बालकाणडे
देवता परम प्रसन्न दो जहाँ से आये थे वहीं लै।ड कर चले
गये। इधर पृथ्वी खोदने चाले सगर के पुत्रों का पृथिवी खादने (मर
क्षेालाहल वच्भपात के समान हुआा। पे सारी पृथिवी के खेद ४. ए
उसकी परिक्रमा कर || ५ ॥ 6 ॥
सहिताः सागरा; सर्वे पितरं वाक्यमत्रुवन् |
प्रिक्रान्ता मही सर्वा सत्तवन्तश् सदिता। ॥ ७ ॥
देवदानवरक्षांसि पिशाचेरगकिन्रा; |
न च पव्यामहेः्श्व॑ तमइवहतारमेव च ॥ ८ ॥
झपने पिता से जा कर वाले कि, हमने ससागरा समस्त पृथिवी
हो ढ़ डाली और देव, राक्स, पिशाच, उरग प्र पन्नग जे हमें मिले
उन्हें हमने मार डाला; किन्तु हमें न तो यज्ञीय अ्श्व का और
उसके चुराने चाले का पता चला ॥ ७॥ ८॥
किं करिष्याम भ्दं ते बुद्धिरत् विचायताम् । (
तेषां तहचन श्रुत्वा घुत्राणां राजसत्तमः ॥ ९॥
ध्रापका मड्जल हो, पआपही सोच कर वतलाइये कि, अव हम
बया करे । राजकुमारों की यह वात खुन नृपश्रेष्ठ ॥ ६ ॥
समन््युरत्रवीद्वाक्य॑ सगरो रघुनन्दन ।
भूय; खनत भद्ग वे। निर्मिय वसुघातलम् ॥ १० ॥
'सगर, है राम ! कुषित हो, उनसे चेले--जाग ओर पुनः प्रथिदो
खाद ॥ १०॥ ु
'* अश्वृह्तारमासाथ कृतार्थाश् निवर्तथ ।
पितुबंचनमास्थाय सगरस्य महात्मन। ॥ ११ ॥
चलारिशः सर्गः २७७
पर धेड़ा चुराने वाले के पकड़ प्रौर सफल द्वो कर ही
लेट) । महाराज समर की इस झा के अनुसार ॥ ११ ॥
” पष्टि! पुत्नसदस्नाणि रसातलमभिद्रवन ।
खन््यमाने ततस्तस्मिन्दर्शुः पवतेपमम् ॥। १२॥
दिशागर्म विर्पाप्त घारयन्तं महीतलूम् |
सपवंतवनां दझृत्सनां पृथिवीं रघुनन्द्रन ॥ १३२ ॥
वे साट दज़ार राजकुमार रसातत् की प्रोर दोड़े श्रोर खोदते
बोद्स उन्दींने उस पवताकार विरूपाक्ष द्ग्गज्ञ के देखा, जे। पूथिवी:
मंगल की घाप्ण किये हुए हं। दे रघुनन्दन | पर्वत सदित उस
दिशा फी समस्त प्रथिवी के ॥ १२॥ ३
शिरसा धारयामास विख्पाक्षों महागज) ।
९ अर
यदा पव्रणि काकुत्स्य विश्रामार्थ महागज) ॥| १४ ॥
मद्वागज्ञ विंश्पात्त प्पने सिर पर धारण किये रहता है।जब
कभी बद मद्ागलज थक जाने पर दम जेने के लिये ॥ १७॥
ं
खेदाच्चालयते शीप भूमिकम्पस्तदा भवेत् | -
त॑ ते प्रदक्षिणं कृल्ा दिशापार् महागजम् ॥ १५॥
धापना सिर दिलाता है तभी प्रथिवी डढेलती भर भूडेल
> द्षैता है। राजकुमार दिग्पाल गजेन्द्र की परिक्रमा करं॥ १५ ॥
मानयन्तो हि ते राम जम्मुर्मित्रा ससातरूम |
ततः पूर्वा' दिश्व॑ भित््वा दक्षिणां विभिदु। एन! ॥१९॥
२8८ बालकायडे
तथा पूजन फर के है राम ! वे रसातल खोदते हुए झागे बढ़े ।
धर पूर्व दिशा का खोद कर, थे दत्तिण दिशा के पुनः जोहरे ।
लगे ॥ १६ ॥ ्शज
दक्षिणस्थामपि दिशि ददशुस्ते महागजम् |
महापत्म॑ महात्मानं सुमहत्पवतोपमम् ॥ १७ ॥
दक्तिण दिशा में भो उन्होंने वड़े विशाल पर्वतेपम डील-
डैल के द्गाज महापत्र का देखा ॥ १७ ॥
शिरसा धारयन्तं ते विस्पयं जम्मुरुत्तमम् ।
तत; प्रदृक्षिणं कृत्वा सगरस्य महात्मन/ ॥ १८ ॥।
उसे भ्रपने सिर पर उस दिशा की प्रथिवी रखे हुए देख, ये
लोग प्रत्यन्त विस्मित हुए। महाराज्ञ सगर के पुश्रों ने उसकी भी
परिक्रमा को ॥ १८ ॥
पष्ि पृत्रसहर्ताणि पश्चिमां विभिदुर्दिशस् ।
पश्चियायामपि द्शि महान्तमचलेपमम् ॥ १९ ॥
और साठो हज़ार ( डस दिशा के छोड़ ) पश्चिम दिशा की
भूमि खोइने लगे । पश्चिम दिशा में भी एक वड़े पहाड़ के
समान ॥ १६॥
.. दिशाग् सामनर्स दहशुस्ते महावला; |
त॑ ते प्रदक्षिणं इंत्वा' पृष्ठा. चापि निरामयम् ॥ २० |]
सेमनस नामक द्गिज के। उन महावल्नो राजकुमारों ने देखा | ।
उन लोगों ने उसकी भी प्रदुत्षिणा की और उससे भी कुशल प्रश्ष
पूंछावर० | / 7
चत्वारिंशः सर्गः २७६
खननन्तः समुपक्रान्ता दिल्ल॑ हेमवर्ती ततः ।
४ उत्तरस्यां रघुश्रेष्ठ ददशु्दिमपाण्डरम् ॥ २१॥
. / है रघुनन्दून | तद्नन्तर उन लोगों ने उत्तर दिशा की भूमि
खोदने पर व के समान समेर रंग का॥ २१॥
भद्गं भद्रेण वपुपा धारयन्तं मद्दीमियाम |
समालभ्य ततः सर्वे कृत्वा चेन प्रदक्षिणम् ॥ २२॥
भद्र नामक बड़े डीलडाल का दिग्गज देखा, जे! उस
दिशा को भूमि धारण किये हुए था । उसकी सी प्रदक्तिणा
कर ॥ नर ॥
पष्टि! प्रसइस्चाणि विभिदुवसुधातलम ।
ततः पामुत्तरां गला सागराः प्रथितां दिशम् || २३ ॥
साठो धज्ञार राजकुमार प्रपिवी खोदते हुए आगे बढ़े और
प्रसिद्ध दिशा ईशान में ज्ञा ॥ २३ ॥
रेपादम्यखनन्स्ें पृथिवीं सगरात्मनाः ।
ते तु सर्ने महात्माने भीमवेगा महावका। ॥ २४ ॥
बड़े क्रोध से पृथियी खोदने लगे। उन सव भोमवेग वाले
महात्मा क्रौर महावली सगर पुश्नों ने ॥ २४ ॥
दत्शु। कपिल तत्न बासुदेव॑ सनातनम् ।
हये च तस्य देवस्थ चरन्तमविदृरतः ॥ २५ ॥
सनातन वाखुदेच फपिलदेव के देखा और उनके समीप ही
चरते हुए अपने यक्षीय प्यश्व को भी देखा ॥ २५ ॥
श्प० वबालकाणडे
प्रहपमतुल प्राप्ताः सर्वे ते रघुनन्दन । हि
ते त॑ हयहरं ज्ञाला क्रोधपयोकुलेक्षणा। | २६ ॥ 3
दे राम | वे सब घोड़े के देख थंथन्त प्रछुदित हुए और
कपित्न देव के! उस पोड़े का चुराने चाला समझ और अत्यन्त
क्रूद्ध दो ॥ २६ ॥ ॥
' खनिन्नकाडुलूधरा नानाहक्षशिलाघरा। ।
'अभ्यधावन्त संक्रुद्धास्तिष्ठ तिप्ठेति चात्रुवन् ॥ २७ ॥
' उन्हें मारने के लिये हल, कुदाल, छुत्त और पत्थर ज़ेकर उनकी
श्रार दौड़े और ऋद् है। कहने लगे, उहर रहर ( अर्थात् उहरो हम
तुम्हें घोड़ा चुराने का फल चखाते हैं) ॥ २७॥
अस्पांक॑ स्व हि तुरगं यज्ञीयं हृतवानसि ।
दुर्ेघस्तव॑ हि संभाप्रान्विद्धि न! सगरात्मजान् ॥१८।।
तूने हो हमारे यज्ञ का घोड़ा छुराया है । तू वड़ा डुर्वद्धि है। देर
हम सब महाराज खगर के पुत्र झा पहुँचे ॥ २८ ॥
श्रुत्वा तु बचन॑ तेषां कपिले! रघुनन्दन ।
रोषेण महताविष्टो हुंकारमकरोत्तदा ॥ २९ ॥
है रघुनन्दून ! सगर के पुत्रों की ये वा्तें खुन, कपिल देव
अत्यन्त क्रुछ हुए और “ हुँकार ” शब्द किया || २६ ॥
ततस्तेनाप्रमेयेण कपिलेन महात्मना-|.. - की]
मस्मराशीक्ृताः सर्वे काकुत्स्य सगरात्मजा) || ३० ॥॥
इति चत्वारिशः सर्गः ॥
एकचत्वारिंशः सर्गः रेप
है राम | अप्रमेय वल्शाली महात्मा कपिल ने सगर के सब
पुह्ठों को भस्म कर, भस्प का ढेर लगा दिया ॥ ३० ॥
| वालकाण्ड का चालीसर्वा सर्ग पूरा हुआ ॥
९3६९
कथा
एकचत्वारिशः सर्मः
पुत्रांथिरगताब्जञालखा सगरो रघुनन्दन ।
नप्तारमत्रवीद्राना दीप्यमानं खतेजसा ॥ १ ॥
है रामचन्द्र ! जब महाराज सगर ने देखा कि. उन राजकुमारों
के गये वहुत दिन है! छुझे (और वे न कटे ) तव अपने तेजस्वी
दीप्तमान पोन्न अंशुमान से कहा ॥ १॥
शरथ कृतिविद्यश्व पूर्वस्तुल्ये/सि तेजसा ।
पितृणां गतिमन्विच्छ येन चाश्वोपहारित) | २॥
है घत्स ! तुम शुरवीर दा, विद्दान् हा शेर अपने पूर्वजों क्के
समान तेजस्वी भी है । जाकर पपने पित॒ष्यों ( चाचाझों ) का
और घोड़ा चुराने चाले का पता लगाझो ॥ २॥
अन्तर्मीमानि सत्वानि वीयेबन्ति महान्ति च |
तेपां ० गरह्ीष्व हे (
तेपां त्व॑ प्रतिधाता्थ सासि ग्रह्ीष्ष काम्रकम ॥ ३ ॥
इस पृथिवी के भीतर बिलों में बड़े वड़े पराक्ममी जीवधारी हैं।
ध्यतः उनका हराने के लिये खड़ व धतुप बाण लिये रहे ॥ रे ॥
श्ष२ वालकायडे
अभिवाद्याभिवादांस्त॑ हत्वा विश्नकरानपि |
सिद्धार्थ: सन्निवर्तस्व मम यजस्य पारगः ॥ ४ ॥ _$
जे। वन््दना करसे योग्य पुरुष मिलें, उनके प्रणाम करना और
ज्ञे विष्मकारक हों उनका वध फरना। (इस प्रकार कार्यसिद
कर लाठना, जिससे ( धधूरा ) यज्ञ पूरा दा ॥ ४॥
एयसुक्तोंशुमान्सम्यक्सगरेण महात्मना |
धनुरादाय खड़ँ च जगाम लघुविक्रम! ॥ ५॥
अपने वावा के इस प्रकार समझाने पर और घनुष वाण एवं
सल्नवार के, झंशुमान तुरन्त चल दिया ॥ ५४ ॥
स खात॑ पिवभिमांगमन्तमेम महात्मभिः ।
प्राप्त नरश्रेष्ठस्तेन राह्मभिचादितः ॥ ६ ॥ न
महाराज की ध्ाज्षा के अनुसार वह उस मार्ग पर ज्ञा पहुँचा
जिसे उसके पितृत्यों ने खोदू कर वनाया था और डस मार्ग से
पाताल में पहुँच गया ॥ ६ ॥
देल्यदानवरक्षेभिः पिशाचपतगेरगः ।
पृज्यमा् महातेजा दिशागजमश्यत ॥ ७ |
_. देव, दानव, यज्ञ, रात्तस, पिशाच कोर नाग-मार्ग में जे जे
मिलता चही इसका आदर सत्कार करता। जाते जाते महातेजसी
आओशुमान ने एक दिग्गज के देखा ॥ ७ ॥
सतं प्रदक्षिणं कृत्वा दृष्ठा चेव निरामयम् ।
पितृन्स परिपप्रच्छ वाजिहर्तारमेव च ॥| ८ ॥
पकचत्वारिशः समेः श्घरे
उस दिग्गज की परिक्रमा कर तथा ड्ससे शिष्टाचार को बातें
् घअर्धात् कुशल प्रक्षादि कर, ओअशुमान ने उस दिग्गज से अपने
'ओं का भर घोड़े के दरने वाले का पता पूछा ॥ ८॥
दिशागजस्तु तच्छु त्वा प्रत्याह॑ंशुमते बच; |.
( ह
आसमजञ्ञ ऊंतायरत्व सहाश्वः शीघ्रमेष्यसि ॥ ९ ॥
दिग्गज ने उत्तर में कहा कि, हे प्ससमञ्ञस के पुत्र अशुमान तुम
पपना कार्य सिद्ध कर घोड़ा ले कर शीघ्र औौटोगे ॥ ६-॥
तस्य तद्गचन॑ श्रुत्वा सर्वानेष दिशागजान् ।
यथाक्रम यथान्यायं प्रष्टुं समुपचक्रमे | १० ॥
, डस दिग्गज के यह वचन छुन, अशुमान आगे बढ़ा झोर यथा-
ऋम शेप दिग्गजों से भी वही पूछा ॥ १०॥
तैश्व सर्वेर्दिशापालेवाक्यज्ैवाक्यकाविदेः |
पूजितः सहयश्रेव गन्तासीलयभिचादितः ॥ ११ ॥
. उन खब दिगाजों ने चात फरने में चतुर अशुमान द्वारा पूजित'
होक, चंही वात कही अर्थात् श्यागे बढ़े चल्ते जाध्मो ॥ ११॥
तेषां तद्बचनं श्रत्ला जगाम लघुविक्रम;
भेस्पराशीकृता यत्र पितरस्तस्य सागरा; ॥ १२ ॥
उनके इस प्रकार के वचन सुन, अशुमान शीघ्र वहाँ पहुँच गया,
ज्ञहाँ सगर के पुत्रों शोर उसके चाचाश्ों के भस्म किये हुए शरीर
की राख का ढेर पड़ा था ॥ १२ ॥
स दु।खबशमापञ्रस्त्वसमञ्ञसुतस्तदा ।
चुक्रोश परमातस्तु पधात्तेषां सुदुखितः ॥ १३ ॥
श्प8 वालकाणडे
आशुमान उसे देख वहुत ढुःखी हुश्रा श्रौर उनको झत्यु पर
शेकास्वित हो रेने लगा ॥ १३ ॥ है] का
यज्ञीय॑ च हय॑ तत्र चरन्तमविद्रतः । एज
ददश पुरुषव्याप्रों दुःखशेकसमन्बितः ॥ १४ ॥
हुंःख शेकातुर अशुमान ने समीप दी यक्ञीय अश्व के भी
चरते हुए देखा ॥ १४ ॥
स तेषां राजपुत्राणां कतुकामे जलक्रियाम् ।
सलिलार्थी महातेजा न चापश्यज्जलाशयम् | १५॥
अश्युमान ने मरे हुए राजकुमारों का तपंण करना चाहा,
किन्तु तलाश करने पर भी उसे वहाँ कोई जलाशय न मिला ॥१४॥
विसाये निषुणां दृष्टि ततेव्पश्यर्खगाधिपम् ।
५ पर्णमनिले| ३
पिंतर्णां मातुल॑ राम सुपणमनिल्ेपमम् ॥ १६ ॥
दृष्टि फेलाकर देखने पर उसे अपने चाचाओं के मामा वाणु
के समान चेग वात्ने गरइ जी देख पड़े ॥ १६ ॥
स चेनमत्रवीद्वाक्यं वैनतेये महावरू३ )
मा शुचः पुरुषव्याप्र वधे७्यं छेकसम्मत३ ॥ १७॥
, गरुड़ जी ने अंशुमान से कह्दा, हे पुरुपसिदद ! तुम ठुली मत
हो।। क्योंकि इन सब का घध लोकसम्मत हो हुआ है॥ १७ ॥
कपिलेनाप्रमेयेन दृग्घा हीमे महावला। ।
सलिल नाइंसि भाज्ञ दातुमेषां हि लेकिकम् ॥| १८ ॥
एकचत्वारिंशः सगे: शप४
ये सब झचिस्त्य प्रभाव दाले महात्मा कपिल द्वारा भस्म किये
गये हैं। हे प्राज्ष | इनके। लेाकिक ( साधारण ) जलदान मत करे ।
हि तड़ाग के साधारण जल से इनका तपंण मत्त
7॥ १८ ॥
गड्जा हिमवंतों ज्ये्ठा दुहिता पुरुषपेभ ।
तस्यां कुछ महावाहा पितणां तु जरूक्रियाम् ॥ १९॥
है पुरुषर्षभ ! द्विमालय की ज्येष्ठा पुत्री गड्मा नदी के जल से
तुम अपने पितरों का तपंण करे ॥ १६ ॥
भस्मराशीकृतानेतान्ड्ावयेल्लेकपावनी |
'तया छिन्नमिदं मस्प गज्नया लेककान्तया ॥ २० ॥
जव लेकपावनी गद्ठा जी के जल से इनकी भस्म तर होगी
अर्थात् केवल तपंण से ही काम न चल्लेगा )॥ २० ॥
पष्टि पत्रसहस्तनाणि खगलेक नयिष्यति |
गच्छ चाददं महाभाग संगह्य पुरुषपभ ॥ २१॥
तब साठ हज्ञार राजकुमार सवर्गवासी होंगे। हैं महाभाग |
दे पुस्ुषेततम ! तुम घेड़ा ले कर लीड जाओ ॥ २१ ॥
यह पेतामहं वीर संवर्तयितुमहंसि ।
सुपर्णवचर्न श्रृत्वा सोंशुमानतिवीयंवान् ॥ २२ ॥
और अपने वावा का यज्ञ पूरा करवाओ । भति पराक्रपी
धर्व यशस्तरी अशुमान गरड़ जी की ये वाते खुन ॥ २२॥
त्वरितं हयमादांय पुनरायान्महायशा; ।
ततो राजानमासायथ दीक्षित रघुनन्दन ॥ २३ ॥
श्८ई बालकायणडे
तुस्व घेड़ा ले कर लौढ श्राया । यक्षदीत्षा से दीक्षित और
महाराज सगर के पास जा कर ॥ २२ ॥ कि.
न्यवेदययथाहच सुपर्णवचन तथा | रा
तच्छु त्वा घारसंकाश वावयमंशुमतो दुपए ॥ २४ ॥
उनके गरुड़ जी की कहाँ सव वारतें झुनायीं। अंशुमान की
उन दारुण वातों के छुन; महाराज सगर बहुत दुखी हुए ॥ २७ ॥
यज्ञ निर्वतयामास यथाकल्प॑ यथाविधि।
ख़पुरं चागमच्छीमानिष्टयज्ञों महीपतिः ।
' गद्गायाश्रागमे राजा निश्रयं नाध्यगच्छत ॥ २५ ||
तदनन्तर उन्होंने यथाविधि यज्ञ पूरा किया और श्रपनी
राजधानी फे लौट गये और वहुत सोचने पर भी मदाराज सगर
के गछ्ठा जी के लाने का कोई उपाय न सूक्त पड़ा ॥ २४ ॥ र्
अगत्वा निश्चय राजा कालेन महता महान | '
' त्रिशदरपंसहस्राणि राज्य कृत्वा दिव॑ गतः ॥ २६ ॥
इति एकचत्वारिशः सर्गः ॥
वहुत काल तक सेाचने पर भी उस सम्बन्ध में महाराज सगर
कुछ भी निश्चय न कर सके, अन्त में तेतीस दज़ार वर्षों तक राज्य
कर से स्वर्गंवासी हुए ॥ २६ ॥
वाल्काण्ड का इकताल्नोसवाँ सगे समाप्त हुआ |
“---
दिचत्वारिशः सर्गः
“४ :--
कालूधम गते राम सगरे प्रकृतीजनाः ।
राजानं रोचयामासुरंशुमन्तं सुधार्मिकम् ॥ १ ॥
महाराज सगर के स्वरगंवासी होने पर, मंत्रियों ने बड़े धर्मात्मा
महाराज अंशुमान के राजसिद्दासन पर वेठाया ॥ १॥
स राजा सुमहानासीदंशुमान्रघनन्दन |
तस्य पत्रों महानासीदिलीप इति विश्वत)॥ २ ॥
है रघुनन्दन | महाराज अंशुमान बड़े प्रतापी राजा हुए ।
उनके पुत्र जगतप्रसिद्ध महाराज दिल्लीप हुए ॥ २॥
तस्मित्राज्यं समावेश्य दिलीप रघुनन्दन |
हिमवच्छिखरे पुण्ये तपरतेपे सुदारुणम् ॥ ३ ॥
महाराज पंशुमान ने अपने पुश्न दिल्लीप के! राजसिंहासन पर
विठा कर, स्वयं हिमालय के शिखर पर जा कठोर तप किया ॥ ३ ॥
द्वात्रिंश्नच्च सहस्ताणि वर्षाणि सुमहायशाः
तपावनं गते। राम स्व लेभे महायज्ञा; ॥ ४ ॥
ध्रन्त में वत्तीस दज्ञार वर्ष तप करने के बाद थे महायश्वी
महाराज अँद्युमान भी स्वर्गंचासी हुए (किन्तु गड्ढा नहीं
धाष्पों )॥ ४ ॥ |
दिलीपस्तु महातेजा; श्रुत्वा पतामहं वधस् ।
दुःखेपहतया बुद्धया निश्रयं नाधिगच्छति ॥ ५ ॥
घा० रा०--१६
कहे वालकायडे
मद्याराज़ दिलीप अपने पितामहों के वध का वृत्तान्त ज्ञान
कर भर्माहत हुए, किन्तु ( श्रीगड्ठा जी के लाने का ) काई उपर
पे भी निश्चय न कर सके ॥ ५ ॥ -
क्थ॑ गृड्जावतरणं कर्थ तेपां जलक्रिया ।
तारयेय॑ कर्थ चैनानिति चिन्तापरेज्मवत् ॥ ६ ॥
थे नित्य ही सोचा करते कि, श्रीगड़ग ज्ञी किस प्रकार प्यारे,
पितामहों को (उनके जल से ) जञलक्रिया फैसे की जाय और
दम उनके किस प्रकार तारे ॥ ६ ॥
तस्य चिन्तयतों नित्य धर्मेण विदितात्मनः।
पुत्रो भगीरये। नाम जज्ञे परमधार्मिक! ॥ ७॥
धर्मात्मा सुप्रसिद्ध महाराज दिलीप नित्य ऐसा साचा करते किः
इतने में उतके परमधामिक भगीरथ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ७[४*
दिलीपस्तु महातेजा य्वैव॑हुमिरि्टवान् ।
जिशदपसहस्राणि राजा राज्यमकारयत् ॥ < ॥
महाराज दिलीप ने वहुत यज्ञ किये और तीस इज़ार घर्ष
राज्य सी किया ॥ ८॥ ह॒
अग॒त्वा निश्रय॑ राजा तेपामुद्धरणं प्रति |
व्याधिना नरशादंर कालथमंमुपेयिवान | ९ ॥ हि
तने
महाराज ( भी ) पितरों के उद्धार के लिये चिन्तित थे कि; इ
में नरशादूल द्लोप बीमार हुए घोर खझत्यु के प्राप्त हुए ॥ ६ ॥
हे
द्विचल्वारिशः सर्गः श्८६
इन्दरछाक॑ गते। राजा खार्जितेनेव कर्मणा |
८ राज्ये भगीरथ॑ पुन्रममिषिच्य नरपंभ। | १० ॥
झपने पुणयक्रमों के फल से दिलीप सुवर्ग गये श्रौर अपने
सामने द्वी नरक्षे)् मद्ाराज़ अपने पुत्र भगीरथ के राजसिदासन
पर बिठा गये ॥ ६० ॥
भगीरथस्तु राजर्पिधार्मिका रघुनन्दन |
अनपत्यों महातेजा: प्रजाकामः स चाप्रजा। ॥ ११॥
है रघुनन्दन |! मद्ाराज भगोरय परमधामिक राज्ि थे, श्रोर
निस्सन्तान दीने से थे सन््तान द्वोने की इच्छा करते थे ॥ ११॥
मन्त्रिप्वाधाय तद्राज्यं गद्भावतरणे रतः ।
..स तपो दी्मातिष्ठद्गेकर्णे रघुनन्दन ॥ १२१॥
है रघुनन्दन ! जब उनके पुत्र न हुआ, तब राज्यभार पपने
भंत्रियों के सोप, पे स्वयं गेाकण नामक तीर्थ पर जा, गडुगवतरण
के लिये वहुत दिनों तक तपस्या करते रद्दे ॥ १२॥
ऊर्ध्यवाहुः पश्चतपा मासाहारो जितेन्द्रियः ।
तस्य वषसहस्राणि पारे तपसि तिष्ठतः ॥ १३ ॥
ऊपर के! हाथ उठाये रखते, पश्चाद्र तापते, मद्दीनों बाद
किसी पक दिन भेजन करते प्रोर इच्धियों को वश में रखते । इस
प्रकार एक हज्ञार वर्य तक वे कठोर तप करते रहे ॥ १३ ॥
अतीतानि महावाहेो तस्य राज्ञों महात्मन/ | ..
सुप्रीतों भगवान्त्रह्मा प्रजानां पतिरीश्वर। ॥ .१४॥
२६० वालकायड़े
हे महावाही । पक हजार वर्ष दीतने पर काकों के स्थामो और
प्रभु ब्रह्मा जी सगीरध पर सुप्सन्न हुए ॥ १४ ॥ सा |
तत$ सुरगणे! साधमुपागम्य पितामह! रा
भगीरथं महात्मानं तप्यमानमथाव्रवीत् ॥ १५ ॥
और देवताओं के साथ ले तर तपस्या में लगे हुए, महात्मा
भगीरथ के पास ज्ञा कर वाले ॥ १६४ ॥
. भगीरथ महाभाग पीतस्ते5ुई जनेश्वर
तपसा च सुतप्तेन वरं वरय सुत्रत ॥ १६ ॥
है महाराज भगीरथ ! तुमने वड़ी कठिन तपस्या की, अतः हम
ठुम पर प्रसन्न हैं, हे सुनत ! वर माँगा ॥ १६ ॥
तमुवाच महातेजा। सवस्शेकपितामहम् | कु
भगीरथो महाभागः कृताझ्ललिव्पस्थितः ॥ १७॥ ६
यंह छुन, महातेज्नस्वी भगोरथ ने हाथ जाइ कर ब्रह्मा जो
कहा ॥ १७॥
यदि मे भगवन्पीतों यद्यस्ति तपस) फलम् |
सगरस्यात्मजा; सर्वे मत्तः सलिलमाप्तुयु! | १८ ॥
है भगवन ! यदि शाप मुझ पर प्रसन हैं और मेरे तपका
फल देंचा चाहते हैं, तो यह बर दोजिये कि सगर के पुत्रों के मेरे
हार गज्ाजल्न प्राप्त हो ॥ १८॥
गज्जाया; सलिलहिन्ने मस्मन््येषां महात्मनाम ।
खरगे गच्छेयुरलन्तं सर्दे मे प्रपितामहा। || १९ ||
हद्विचत्वारिशः सर्ग३ २६९१
क्योंकि हमारे महात्मा परदादे तस्ती स्वर्गवालो होंगे, भव उनकी
राख, गड्ला जल से सींगेगी अर्थात् उनको राख गडुव जो में
+ञ ॥॥ १६ ॥
देया च सन्ततिर्देव नावसीदेत्कुलं च न! ।
इक्ष्वाकृणां कुले देव एप मेज्स्तु वर! पर! ॥ २० ॥
है देव ! दूसरा बर में यह मांगता हैं कि, मेशा ईद्धाकुबंश नष्ट
न हो । इसलिये मुझे सन््तान सो दीजिये। यह मैं दूसरा बर चाहता
हूँ । ॥ २० ॥
उक्तवाक््य तु राजान॑ सबंछेकपितामहः |
प्रत्युवाच शु्भां वाणी मधुरां मधुराक्षराम् ॥ २१ ॥
महाराज सगीरथ के ये वाक्य खुन, सर्वल्ेक्रपितामह ब्रह्मा
यह मधुर एवं शुभ बाणी बाले ॥ २१ ॥
““, मनारथों महानेष भगीरथ महारथ ।
५ * 2 (
एवं भवतु भद्गं ते इक्ष्वाकुकुठबधन ।| २२॥
है महारथो भगीरथ ! तेरा मनारथ है ते। वंडा, किन्तु चद पूर्ण
दीगा अर्थात् तुझ्के पुत्र की प्राप्ति होगो । दे इच्चाकुकुलवध न | तुस्दारा
मड़ल हो ॥ २२ ॥
इये हमवती गद्जा ज्येष्ठा हिमबतः सुता ।
गड़गया; पतन राजन्पूथिवी न सहिष्यति ।
तां वे धारयितं वीर नानन््य पश्यामि शूलिन। ॥ २३ ॥
छिप्तालय को ज्येष्ठा पुत्री यह गज्ला जी जब (बंड़े वेग से )
पूथिवी पर गिरेंगो, तब इनका वेग प्रथिदी न सम्दालः सकेगी।
श्६२ वालकारणडे
उनके बैग की सम्दाल सकने की सामथ्य शिव जी की दाड़ भर
किसी में नहीं हे ॥ २३ ॥ |
तमेबमुक्त्वा राजान॑ गद्नां चाभाष्य छेककृत् | _
जगाम त्रिदिवं देवः सह देवेमेरुट्गणः ।। २४ ॥
इति छ्विचस्वारिशः सर्गः ॥
इस प्रकार ब्रह्मा जी महाराज भगीरथ और गड्ा जी से कह
कर, देवताओं सहित स्वर्गलेक की गये ॥ २४ ॥
वात्षकाणड का च्यालीसर्वाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
“--+
त्रिचत्वारिशः सगेः
देवदेवे गते तस्मिन्से।5डग्शुष्ठाग्रनिषीडितास् ।
कृत्वा वसुमती राम संवत्सरमुपासत ॥ १ ॥
ब्रह्मा जी के चत्ते ज्ञाने के वाद महाराज भगीरथ ने पैर के .
झगूठे के सहारे खड़े है कर एक चर्ष तक शिव जी की उपासना
की॥१॥
५ हहुर्निरालूम्वो कप
ऊध्वंब वायुभक्षो निराश्रय) ।
अचल; स्थाणुवत्स्थित्वा रातज्रिदिवमरिन्दम ॥ २॥
है भ्रम | भगीरथ जी ऊपर के वाहु किये निरालम्ब, वाह
का विना प्ाश्नय, खंभे की तरह अचल हो, रात दिन खड़े
॥२॥
घिचत्वारिशः सर्गः २६३
अथ संवत्सरे पूर्ण सबंछाकनमस्कृतः ।
उमापतिः पशुपती रानानमिदमत्रवीत | ३
ज्ञव पक्न वर्ष पुरा हुआ तब सर्व-त्ताकनमस्कत उमापति
महांदिव जी ने भगीरध से ०ह कद्ठा ॥ २॥
प्रीतस्ते5्ज नरभ्रष्ठ करिप्यामि तव भियम् |
सिरसा धारयिष्यामि शलूराजसुतामहम् ॥ ४ ॥
है नरश्रेठ्ठ ! दम तेरे ऊपर भम्नन्न हैं और जे तू चादेगा से हम
तेरे लिये करेंगे। हम ध्रीगज्गा जी के अपने सिर पर धारण
फरेंगे॥ ४॥
ततो ईमबती ज्येप्ठा सर्व छकनमस्क्ृता ।
तदा सरिन्महठ्रप॑ कृत्ता बेगे च दु!सहम ॥ ५ ॥।
तब सब लोकों के नमस्कार करने योष्य गड्ा जी, महद्रप धारण
कर ध्योर दःसह पेग के साथ ॥ ५ ॥
आकाशादपतद्राम शित्रे शिवशिरस्युत्त
टेची है €्ः
अचिस्तयन सा देवी गद्गां परमदुधरा ॥ ६ ॥
थ्राकाश से शिव जो के मस्तक पर गिरीं। ( प्रोर गिरते
समय ) परम दु्ंरा गड्ढा देवी ने सोचा कि, ॥ $ ॥
विशााम्पहं हि पाताल स्लोतसा ग्रद्म श्रम |
तस्यावल्ेपन ज्ञाला क्रुद्धस्तु भगवान्हरः ॥ ७ ||
में झपनी घार के साथ महादेव ज्ञी के वद्ा कर पाताज क्षे
जाऊँगी। गड् देवी के इस प्मभिमान भरे विचार को जान कर,
भगवान श्रीमद्वादेच जी अत्यन्त कुद्ध हुए ॥ ७॥
२६४ वालकायडे
तिरोभावयितं बुद्धि चक्रे त्रिणयनस्तदा |
सा तस्मिन्पतिता पुण्या एण्ये रुद्स्थ मृथनि ॥ ८ ||
हिमवतल्मतिमे राम जठामण्डलगहरे |
सा कर्थ॑चिन्महीं गन्तुं नाशक्रोब्रवमास्थिता ॥ ९ |
झोर उनके अपने जदाजूद ही में छिपा रफ़ना चाहा।
दिमाचल के समान भर जदामगडल रुपी ग्रुफा चाक्षे शिव जी
के पविन्न मस्तक पर श्रीगड़ा ज्ञी गिरी ओर अनेक उपाय करने
पर भी जठाजूठ से निकल्न पृथित्री पर न ज्ञा सकी || ८॥ ६8 ॥
नैव निगमन॑ लेमे जटामण्डलमेहिता | ,
तत्रेवाब॑भ्रमद्देवी संवत्सरगणान्व॒हून || १० ॥
वे शिव ज्ञी के जदाजूदों में कितने हो वर्षों तक घूमा |
झोर वाहिर न निकल्ल सकी ॥ १० ॥
तामपश्यन्पुनस्तत्र तप४ परममास्थित) ।
अनेन तोषितथाशूदत्यर्थ रघुनन्दन ॥ ११॥
हे रघुनन्दुन | गड़ा जी के न देख, महारा तर भगीरथ ने फिर कठोर
तप किया ओर तप द्वारा भगवान् शिव को प्रसन्न किया | ११॥
विससज़े ततो गड्ढां हरो विन्दुसरः प्रति।
तस्यां विसज्यमानायां सप्त स्लोतांसि जज्िरे ॥ १२॥
ओर श्रोंगज़ग जी के दिमालय पर्वत पर स्थित विन्दर॒सर में
छोड़ा । छोड़ते ही गड्ढः जी की खात घाराएँ हो गयीं ॥] १५॥
जिचत्वारिशः सर्मः २६५
हादिनी पावनी चेब नलिनी च तथाज्परा ।
. तित्नः प्राचीं दिशं जम्मुगेद्गा; शिवजला। शुभा। ॥११॥
८ द्वादिनो- पावनी झ्ोर न्ननी गज जी को ये त्तोन कल्याण-
फारिणी घाराएँ उस सर से पूर्व की ओर वहीँ ॥ १३६ ॥
सुचक्षुअ्व सीता च सिन्धुश्चव महानदी ।
तिस्रस्वेता दिशव जस्मुः प्रतीचीं तु शुभादकाः ॥१७॥
श्रोगड्ा जी के घुम जल की छुचचु, सीता ओर सिन्धु नाम
की तोन घाराएँ पश्चिम की ओर वहीं ॥ १४ ॥
सप्तमी चान्यगात्तासां भगीरथमथों दृपम ।
भगीरथोणंपि राजर्पिदिव्यं स्पन्दनमास्थित। ॥१५॥
सातवीं घार महाराज भगीरथ के रथ के पोछे पोछे चली।
शआाजर्पि भगीरथ एक छुन्द्र रथ में वेठे हुए ॥ १५ ॥
प्रायादग्रे महातेजा गद्भा त॑ चाप्यनुत्रजत् |
गगनाच्छड्रशिरस्ततों धरणियागता ॥ १६।॥
थागे छामे चत्मे जाते थे और उनके पोछे पीछे भ्रोगड्ा जी
चली जाती थीं। पश्राक्राश से श्रीमद्ादेव जी के मस्तक पर शोर
उनके मस्तक से श्रीगढ़ा जो धरगोतल पर शआयों ॥ २६ ॥
व्यसपंत जल तत्र तीतव्रशब्दपुरस्कृतम् ।
पत्स्यक्रच्छपसंघथ शिशुमारगणेस्तथा ॥ १७ ॥
पतद्ठि। पतितिथान्येब्यरोचत वसुन्धरा
' ततों देवर्पिगन्धर्वा यक्ष) सिद्धगणास्तथा ॥ १८ ॥
शहद वालकायणडे
उनके पूर्थिवी पर गिरते ही वड़ा शब्द हुआ और मछलियों,
कहुए, सूँस आदि जलबजन्तुओं के कुंड के कुंड गज्जा जी 9]
के साथ गिरते पड़वे चल्ने जाते थे। जिधर श्रीगद्भा जी जातीए॥. 7
उधर की भूमि खुशामित हा जाती थी | देंच, ऋषि, गन्धवे, यक्ष'
और सिद्धनण ॥ १७॥ १८॥
व्यलेकयन्त ते तत्र गगनादगां गतां तदा |
विमानैनंगराकारेहयेगेजवरैस्तदा ॥ १९ ॥!
धाकाश से प्रृथिवी पर श्राई हुई श्रीगढ़ा जी को देखने के
लिये उत्तम मगराकार विमानों, हाथियों और घोड़ों पर सवार दो कर
आये हुए थे ॥ १६ ॥
पारिष्वगतैश्वापि देवतारुतत्र विष्टिता) ।
तदद्भुततमं छोके गल्नापतनमुत्तमस् ॥| २० ॥
श्रीगड़ा ज्ञी के प्रथिवीतल पर अत्यन्त अदभुत अवतरणा:
के देखने के लिये देवता लोग परिघछ्तत् नामक विमानों पर पैठे
हुए थे ॥ २० ॥
दिरक्षवे! देवगणा। समीयुरमिताजसः ।
क्र स्तेषां
संपतद्धि! सुरगणेस्तेषां चाभरणौजसा ॥ २१ ॥
देखने के लिये भाये हुए प्रधान देवता जिस समय श्ाकाश
से उतरते थे, उस समय उनके आभूषणों को प्रभा से ॥ २१॥ ...
शतादित्यमिवाभाति गगन गततोयद्म ।
शिशुमारोरगगणमीनिरपि च चश्चछे;॥ २२॥
विचत्वारिशः से: २६७
निर्मल मेथशून्य ग्राकाश ऐसा खुशोमित ज्ञान पड़ता था
मारना झराकाश में सेक्ड़ों खूब निकल रहे ऐहों। बीच दीच में खूसों
र चचल मर्द नया के फूड जो ॥ २९॥
विद्युद्धिरिद विभिष्तगाकाशममबत्तदा ।
पाएडरः सलिलात्यीड! कीयमाणे! सहसथा | २३ ॥
( जी जल फे बेग से ऊपर के ) उद्धाले जाते थे, वे पेसे जान
पड़ते थे, सानों छ्यकाश में विज्यनों श्रमकनी दो श्रौर अल्ल में
उठे हुए सफेद सम द् फेन जे इधर उघर जगह जगह छितरा गये
थे॥ २३ ॥
शारदाभ्र रिवाकीण गगन इंससंप्र्व! ।
कचिद्दुततरं याति कुटिलं कचिदायतम् ॥ २४ ॥
ऐसी शोभा दे रहे थे मानों हंसों के कुँडों से युक्त ओर इधर
'डघर दिखरे हुए शरत्कालीन मेघ्र श्राक्षण के खुशाोमित कर
रहे हों ॥ २४ ॥
विनत॑ कचिदुद्धत कचित्राति शनः झरने; |
सलिलनव सलिल कचिदम्याहतं पुन। ॥ २५ ॥
मुहुरूध्य पं गत्वा पपात वसुधातलस |
व्यराचत तदा तोय॑ निमेद गतकत्मपम् ॥ २६ ॥
धागड्ा जी की धार का जल कहीं ऊँचा, कहीं टेंढ्रा, कहीं
फैता इश्रा आर कहीं ठोकर खाकर उछलता हुआ धीरे धीरे बहता
था और कहीं कहीं तो! अल, जल द्वी से बकरा कर बार वार ऊपर
के उद्चलता घोर फिर जमीन पर गिर पड़ता था। इस प्रकार
धह निर्मत्त और पापहारो जल खुशेमित द्वो रहा था ॥२४॥ २६ ॥
श्ध्ण वालकायडे
तत्र देवर्पिगन्धवां बसुधातलवासिनः ।
भवाह्भपतितं तोय॑ पवित्रमिति परपृषु। || २७ ॥ _ कु
चहाँ पर देव ऋषि, गन्धर्व और वलुधातलवासी लोगों नेड
शिव जी की जद्य से गिरे हुए पवित्र जल के छुपा ॥ २७ ॥
शापात्पपतिता ये च गगनाइसुधातलूम् ।
कृत्वा तत्रामिषेक ते वभूवुगतकर्मपा) ॥ २८ ॥
जे! लोग शापवश ऊपर के ज्ोकों से भूलोऋ में श्ाये हुए
थे, वे इस जल में स्वान कर पापों से छूट गये ॥ २८॥
धृतपापाः पुनस््तेन तोयेनाथ सुभाखता ।
पुनराकाशमाविश्य खाँरलेकान्मतिपेद्रि | २९ ॥
और पापों से छूठ और तेज युक्त दो श्लाकाशमार्ग से पुन!
अपने शपने त्लोकों के चले गये ॥ २६ ॥
मुझुदे मुदितों लेकस्तेन तोयेन भाखता ।
कृतामिषेके गल्लार्यां वभूव विगतक्लमः ॥ ३२० ॥
जहाँ गड़ा जी जातों चहां वहँ के मलुष्य भ्रोगड़ा जी में स्वान
कर के निष्पाप दो ज्ञाते थे ॥ ३० ॥
भगीरथेजंप राजपिर्दिव्य॑ स्पन्दंनमास्थितः ।
प्रायादग्रे महातेजास्तं गज्ञा पृष्ठतोष््बगात्॥ ३१॥
राज़षि भगीरथ भी एक दिव्य रथ में वेंठे हुए आगे आगे
चले ज्ञाते थे और श्रोगड्भा जी उनके पीछे पीछे वही चली ज्ञाती
थीं॥३१॥ ः
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प्रियत्यारिएः सगः २६६
देवा: सर्पिंगणा! सर्वे देत्वदानवराक्षसा। ।
5४ क हि]
गन्धवयक्षपतरा! सक्तिन्रमहोरगाः ॥ शे२॥
सवाशाप्सरसा राम भगीरवरथानुगामू् |
गड्डामखगमन्ीता: सर्वे जलचरात् ये ॥ ३३ ॥
है राम ! सब देवता, ऋषिगण, देतय, दानव, राक्तस, गन्धवें,
यत्त, फिप्तर, बड़े ये सर्प तथा प्रप्सराएँ मद्वाराण भगीरय फे
पीदि पीड़ि जा रही थों शरर समस्त जलचर जीव प्रसन्न दो श्रीगड़ा
ज्ञी के पीछे घक्ते जाते थे ॥ २९ ॥ ३३ ॥
यतो भगीरये राजा ततो गढ़ा यशख्विनी ।
रि के कया ५] पाप ..
जयाम सरितां श्रेष्टा संपापतिनाशिनी ॥ ३४ ॥
... जिघर मद्दाराज भगीरथ ज्ञाते थे उधर दी यशस्विती, सब
, पाप नांझ करने घालों तथा नदियों में श्रेष्ठ श्रीगज्ा जी भी जा
रही थीं ॥ ५४ ॥
ततो हि यजमानस्य जहोरद्रुतकरमंणः ।
गडह्ा संडावयामास यज्ञवार्ट मदात्मन। ॥ २५ ॥|
चलते चलते श्रीयद्ञा जी वहाँ पहुँचीं, जहाँ अदुसुत कर्म करने
धाके जन््टहु नामक मदपि यक्ष कर रहे थे। चहाँ श्रीमड़ा जी ने सव'
सामान सद्दित उनकी यप्तशाह्वा वहा दी ॥ ३५ ॥
तस्यावरूँपर्न ज्ञात्वा क्रुद्धों जन्हुश्व राघत ।
अपिबच्च जर्ल सब गज्गायाः परमादुतम् ॥ २५६॥
३०० वालकायडे
है राम | तब तो श्रीगड़ा जो का ऐसा गर्व देख, जन्हुऋषि
कुपित हुए और ऐसा चमत्कार दिखलाया कि; पे गद्ढा के खा
जल के पी गये ॥ ४६ ॥ जा “जज
ततो देवा) सगन््धवां ऋषयश्र सुविस्मिता। ।
पूजयन्ति महात्मानं जह पुरुपसत्तमम् || र२े७ ॥
महात्मा जन्ु का यह प्रभाव देख देवता, गन्धर्य, ऋषि गण
आदि बड़े विस्मित हुए और पुरुषों में श्रेठ्ठ महात्मा जन्हु की स्तुति
करने लगे ॥ ३७ ॥
गह्लां चापि नयन्ति सम दुहितुत्वे महात्मनः |
ततस्तुष्टो महातेजाः श्रोत्राभ्यामसजत्युन। ॥ रे८ ॥
और बाले, आज से श्रीगढ ध्यापक्नी बेटी कहलायेगी ।
( भाप उसे छोड़ दीजिये ) इस पर प्रसन्न हो मदयतेजल्वी जन्हु ने:
दोनों कानों की राह से नल के निकाल दिया ॥ १८ |
तस्माज्जहू सुता गद्जा प्रोच्यते जाहबीति च् ।
|
जगाम च पुनगंज्ञा भगीरथरथानुगा ॥ ३९ ॥
तब से ही जन्हुछुता श्रीगड़ा जाहवी कहलातो हैं। उसी प्रकार
ओऔयजु फिर भगीरथ के रथ के पीछे होलीं ॥ २६ ॥
सागर चांपि संप्राप्ता सा सरित्मवरा तदा |
रसातलुमुपागच्छत्सिद्धयर्थ तर्य कमेण! ॥ ४० ||
ओर चलते चलते नदियों में श्रेष्ठ भीगड़ा सप्त॒द्र में जञा पहुँचीं
और फिर पे भगीरथ की कार्यंसिद्धि के लिये रसातत्न गयीं ॥ ४० ॥
चतुश्त्वारिशः सर्व: ३०१
भगीरथोजंपि राजर्पिगड्ाममादाय यत्नतः) |
पितायदान्भस्मकृतानपश्यद्दीनचेतनः ॥ ४१ ॥
शाजपि भर्गोस्च बढ़े यल के साथ श्रोगद्ा जी के साथ ले गये
और दुःख़ी मन से शपने पुरखों फे भस्म हुए शरीर की राख का
ढेर देवा ॥ ४१ ॥
अथ तद्द्गवस्पनां राशि गद्गासलिलमुत्तमम् ।
शावयऊ्धतपाप्यान; स्तग प्राप्ता रघृत्तम ॥ 9७२॥
इति चिचत्वारिंणः सर्गः ॥
है रघुनन्दन ! श्रीगढ्ा जी का पवित्र जल ज्योंदी सगीरथ के
पुरुषों फी भस्म के ढेर पर पड़ा, त्योंदी थे सब निष्पाप दो स्वर्ग में
पाँच गये ॥ ४२ ॥
वालफागढ का तेतालिसवां सग पूरा छुघ्मा ।
"-++ ७४
चतुश्चत्वारिशः सर्गः
[ नाठ--तेताछोपयें सर्ग में सगर के पुम्रों को सदगति का बृत्तास्त
संक्षेप में कट्ठा घा, एस सर्म में उपका विस्तार पूर्वक मिख्पण किया गया है। ]
से गला सागर राजा गह्नयाब्जुगतस्तदा |
प्रविवेश तल भूमेयेत्र ते भस्मसात्कृता। ॥ १ ॥
' मददाराज धीगड्ा जी फे साथ समुद्गरतद पर पहुँचे और वहाँ
से थे पाताल में वद्दीं गये, जहां पर ( महाराज सगर के पुत्र ) भस्म
किये गये थे ॥ १॥
३०२ - चालकायडे
भस्मन्यथाप्छुते राम गज्ञाया; सलिलेन वे ।
सर्वक्षेकप्शुब्नह्मा राजानमिदमत्रवीत् ॥ २ ||
हे राम | उस भस्म पर गद्भाजल के पड़ने 'से सद लेकों
स्वामी ब्रह्मा जी ने भगीरथ से यह कहा ॥ २॥
तारिता नरशादूंल दिव॑ याताश्र देववत् ।
पष्टिः पुत्रसहस्लाणि सगरस्य महात्मन। ॥ ३ ॥
हे नरशादूल | महात्मा सगर के साठ हक्षार पुत्रों के प्रापने
वार दिया । थे देववत् स्वर्ग के गये ॥ १ ॥
सागरस्य जंल लेके यावत्स्थास्यति पार्थिव ।
सगरस्यात्मणास्तावत्खगें स्थास्यन्ति देववत् । ४ ॥
दे राजन | जब तक सागर में एक दूँद भी जत्न रहेगा, तव तक,
महाराज सगर के पुत्र देवताओं की तरह स्वर्ग में चास करेंगे॥ ७ |.
श्यं हि दुह्ठिता ज्येष्ठा. तत्र गल्लो भविष्यति |
खत्कतेन च नाम्नाथ छोक़े स्थास्यति विश्रुता ॥५॥
यह श्रीगज्ञा तुस्हारी ज्येषठा कन्या दोगी शऔर तुम्हारे ही माम से
प्रसिद्ध दे कर भूलेक में रहैगी ॥ ५४ ॥
गड्जा त्रिपथगा नाम दिव्याभगीरथीति च।
पितामहानां सं्वेषां त्वमेव मुजाधिप | ६॥
जुरुष्व सलिल राजन्यतिज्ञामपरर्जय | '
पूवकेण हि ते राज॑स्तेनातियशसा तदा || ७ ॥
चतुखत्वारिश् सर्गः . ३०
धर्मिणां प्रवरेणापि नंप भाप्तो मनारथा ।
तम्बांशुमता तात लेकिअतिमतेजसा | ८ ॥
ग्ढ भार्थयता नेतुं भतिज्ञा नापवर्जिता ।
राजर्पिणा गुणवता महर्पिसमतेजसा ॥ ९ ॥
इसके तीन नाम दंगे, श्रीगठ़ा, त्रिपयणा और भागोरथी । तोन
पथ पर चलने चाली द्ने के फारण यद भिपथगा फहलायी है। है
राजन ! पध्रय तुम अपने सव पितरों का तर्पण करे शोर अपनी
प्रतित्षा पुरी करे। प्रत्यन्त यशस्री मद्दाराज सगर ने यह मनेारथ
पूरा न कर पाया प्रार पध्यममित तेज वाले पैद्यमान ने भी भौगड़ा के
जाने की प्रार्थना की, पर उनकी प्रतिज्ञा भी पूरी नहीं दो सकी।
राजपियों में गुणवान् कौर मद्रपियों के समान ॥ ६ ॥ ७॥ ८५॥ ६॥
मचुल्यतपसा चेंव क्षत्रधर्मे स्थितेन च |
दिलीपेन मदहाभाग तब पिन्नातितेजसा ॥ १०॥
तपस्या में दमारे तुल्य प्रोर ज्षत्ीधम प्रतिपालक प्रति तेजस्वी
तुग्दारे पिता मद्ामाग दिलीप ने ॥ १० ॥
: घुनन शक्किता नेतुं गड्ढां प्रार्थयताउनघ ।
छ ९
सा तलया समतिक्रान्ता प्रतिज्ञा पुरुषपंभ ॥ ११॥
श्षीगड़ा की प्रार्थना की, पर थे भी ज्ञा न सके ; किन्तु हे पुरुषो-
सम | तुमने अपनी प्रतिक्षा पूर्ण की ॥ ११॥
प्राप्तोईसि परम छोके यश परमसंमतस् |
यत्च गड्ववतरणं त्ूया कृतमरिन्दम ॥ १२॥
चा० रा०--२०
३०४ वाल्ञकायडे
है शन्र॒दवन्ता ! तुम्हें बड़ा यश मिल्ना, करयोंकि तुम श्रीगड्ढा :
लाये ॥ १२॥ ह
अनेन च॒ भवान्पराप्तों धर्मस्यायतर्न महत् ।
,. ड्ाबयस्व त्वमात्मान॑ नरोत्तम सदाचिते ॥ १३॥
ह “इस कार्य से शाप धर्म के परमस्यान में पहुँच गये।ह हे '
... नरोत्तम | शव तुम भी सदा स्नान करने येग्य इन श्रोगड़ा जी में
. स्त्रान करे ॥ १३॥
सलिले पुरुषव्याप्र शुच्िः पुण्यफले भव |
पितामहानां सर्वेषां कुरुष सलिलक्रियाम् ॥ १४ ॥
धर दे पुरुषसिंद ! पविन्न दे कर पुएयफल प्राप्त करो । तथा
अपने समस्त पुरक्षों का तर्पण करो ॥ १४ ॥
सस्ति तेथ्स्तु गमिष्यामि स्व॑ लोक गम्यतां नृप | ५
इत्येवमुक्त्वा देवेश़/ सबंले।कपितामहः ॥ १५ ॥
यथा5आतं तथागच्छद्देवलाक॑ महायशाः |
भगीरथोथंपि राजर्षि: झृत्वा सलिल्सुत्तमम् || १६ ॥
है राजन | तुम्हारा कल्याण द्वो। शव हंस अपने तलाक के
जाते हैं, तुम सी अ्रपनो राजधानो के जाओ। यह कह कर देपेश
महायशल्त्री प्रह्माजी अपने लोक के! चल्ते गये। राजपि सगीरथ
ने भी श्रीगड़ा जल से ॥ १४ ॥ १६ ॥
यथाक्रम यथान्यायं सागराणां महायज्ञा; |
कृतोदकः शुची राजा सपुरं प्रविवेश ह॥ १७॥
अल
चतुश्चत्वारिंशः सर्मः ३०४
पथाविधि महायशप्वो सगरपुत्रों का तपंण कर और पचित्र दो,
अपनी राजधानी में प्रवेश किया ॥ १७ ॥
: समृद्धाथों नरश्रेष्ठ खराज्य प्रशशास ह।
प्रमुमेद च ले।कस्तं दृपमासाद राघव ॥ १८ ॥
और सब प्रकार के खुखों का उपभेग करते हुए राजी संगीरथ
राज्य करने लगे। है राघव ! भगीरध फे पुनः राज्यशासन की
वागडार अपने द्वाथ में लेने से प्रजा अत्यन्त प्रसन्न हुई ॥ १८॥
नए्शाकः समृद्धाथों वभूव विगतज्वरः
एप ते राम गड्जायया विस्तराजभिहितों मया ॥ १९ ॥॥
सब लोगों का दुःख दूर हो गया, सब की चिन्ता मिट गयी
और सब धन धान्य से भरे पुरे हो गये। द्वे राम ! यह मैंने तुमसे
श्रीगड्रावतरण को फथा विस्तार पूर्वक कही ॥ १६ ॥
स्वस्ति पाप्तुहि भद्गं ते सन्ध्याकाले।तिवतंते |
न््य॑ यशस्यमासुष्यं पृत्य खवस्येमतीव च || २० ॥
तुम्हारा मड़ुल दे | ध्यव सत्प्योपासन का समय दो खुका है,
सन्ध्योपासन फीजिये। धन, धान्य, यश, झायु, पुत्र और स्व का
देने वाला यह चरित्र ॥ २० ॥
य; श्रावयति विप्रेषु क्षत्रियेष्वितरेषु च्।
प्रीयन्ते पितरस्तस्य प्रीयन्ते देवतानि च ॥ २१॥
ज्षे| कोई श्राक्मण दात्रिय आदि को खुनाता, है उस पर पितर
और देवता प्रसन्न द्वोते हैं ॥ २१॥
३०६ वालकायडे
इदमाख्यानमव्यग्रो गज्भावतरणं शुभम्।
यः श्रूणोति च काकुत्स्थ सर्वान्क्रामानवाम्ु॒यात् । ४.
सर्वे पापा; प्रणश्यन्ति आयु कीर्चिय बधते ॥ शशि
इति चतुश्चत्वारिंशः सर्गः ॥
है रामचन्द्र | इस श्रीगड्भावतरण की शुभ कथा के जे केई
स्थिर चित्त हो सुनता है, उसकी सव मनेकामनाएँ पूरी होती हैं,
उसके सब पाप नए दवा जाते हैं और उसकी आयु और फीत्ति की
बृद्धि हैतो है ॥ २२॥
वालकाणए्ड का चौधालीसयाँ सर्य समाप्त हुआ ।
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पश्नुचत्वारिशः सर्गः
ज>१0३००
विश्वामित्रवच; श्रुत्वा रापव। सहलक्ष्मणः ।
विस्मयं परम गत्वा विश्वामित्रमथात्रवीत् ॥ १ ॥
'विश्वामिध्र ज्ञी की वातें खुन, श्रीरामचन्र झोर लच्मण जी
के बड़ा आश्चर्य हुआ और थे विश्वामित्र जी से कहने लगे ॥ १॥
अलझछ्भुतमिदं प्रह्मन्कयितं परम त्वया |
गह्जावत्तरण्ण पुण्यं सागरस्यापि पूरणम्॥ २॥।
हे ब्रह्मन ! आपने भीगज्ला जी का भ्रवतरण और श्रोगड्राजल '
. से समुद्र के पूर्ण होने का आरखयान ते वहा अदभुत छुनाया॥ २॥
पश्चचत्वारिशः सर्ग: ३०७
तस्य सा शर्बरी सर्वा सह सै।मित्रिगा तदा ।
._. जगाम चिन्तयानस्य विश्वामित्रकथां शुभाम ॥ ३ ॥
इस कथा के छुनते खुनते वह रात वात को वात में बीत
श्र्धाव् मालूम दी न पड़ी कि, कब वीती, श्रीरामचन्ध ने लक्ष्मण
सहित वह सारे रात उक्त उपाख्यान के चिन्तमन करने ही में
व्यतीत को ॥ ४ ॥
तत! प्रभाते विमले विश्वामित्रं महाम्ुुनिस् ।
उवाच राघवी वाक्य कृताहिकमरिन्दम! (| ४ ॥
झव विमल पातःकाल दो गया, तव श्रीरामचन्द्र जी श्रानिक
कर्म फ़र चुकने पर, विश्वामित्र जी से वाले ॥ ४ ॥
गता भगवती रात्रि! श्रोतव्यं परम श्रुतस् |
क्षणभूतेव नो रात्रि! संहत्तेयं महातप: ॥ ५ ॥
है महर्षि | रात तो शुभ कथा के छुनने में व्यतीत हुईं। दम
जीगों के राजि क्षण के समान ज्ञान पड़ी ॥ ५ ॥
इमां चिन्तयतः सर्वा निखिलेन कथां तव ।
तराम सरितां श्रेष्टां पृण्यां त्रिपथ्गां नदीश ॥ ६ ॥
झव आइये आप की कथित समस्त कथा का चिस्तमन करते'
हुए नदियों में श्र और पुण्य देने वालो जिपथगा श्रोग हुए जो के
थार करे ॥ ६ ॥ | ु
मैरेपा हि सुखास्तीर्णा ऋषीणां पुण्यकर्मणाम् ।
भगवन्तमिह प्राप्त ज्ञात्वा त्वस्तिमाग ता | ७ ॥
३०८ वालकायणडे
भापकोा थ्ाया हुआ जान सुख से पार करने वाली ऋषियों
की यद सभी सज्ञाई ( धर्थात् जिसमें अच्छा विछोना आदि विछ| .
हुआ था ) नाव भी वहुत जरूद आ गयी है ॥ ७ ॥ प'
तस्य तद्चर्न श्रुत्ता रापवस्य महात्मन; |
सन््तारं कारयामास सर्पिसड्; सराघव ॥| ८ ॥
महात्मा श्रीराम के ये वचन खुन, विश्वामित्र जी ने मदल्ाहों
के बुलाया और ऋषिगण एवं राजकुमारों के साथ वे सब श्रोगड़ा
के पार हुण ॥ ८॥
उत्तर तीरमासाद संपृज्यर्पिंगणं तदा |
गड्लाकूले निविष्ठास्ते विशालां ददुशु) पुरीस ॥ ९॥
श्रीगड़ा जी के दूसरे तठ पर पहुँच कर, ऋषियों का सत्कार
कर पे सव श्रीगड़ा के तट पर बैठ कर खुस्ताने लगे ओर उन लोगों
ने वहाँ से विशात्ता नास्ती एक नगरी के देखा ॥ ६ ॥
ततो मुनिवरस्तूण जगाम सहराघवः ।
विशाछां नगरीं रम्यां दिव्यां खगेपमां तदा ॥१०॥
तद्नन्तर विश्वामिन्न,जी चहाँ से तुरन्त दोनों राजकुमारों सहित,
इन्द्रपुरी के समान अति झुन्द्र विशाला नगरी में गये ॥ १० ॥
अथ रामे भहामाज्े विश्वामित्र॑ महामुनिस् |
प्रपच्छ प्राक्नलिभूत्वा विशालामुत्तमां पुरीम ॥११॥
तब उस समय महाप्राज्ष ध्रीरामचन्ध जी ने हाथ जेड़ कर
विश्वाभ्रित्न जी से चिशाला पुरी का इतिहास पूछा ॥ ११॥
पञ्चचत्यारिणः सर्भः ३०६
कतरो राजबंशेज्यं विश्ालायां महामुने ।
-... श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते परं कैातृहलं हिं मे ॥ १२ ॥
दे मद ! आावका मजुज़ दे । ध्यव वतलाइये कि इस पुरी में
फिस्र बेश का गजा राज्य करता है। यद जानने के लिये मुम्के बड़ी
उन्छुऊता के रही है ॥ २२ ॥
तस्य तद्नचन भ्रुत्वा रामस्य मुनिपुद्धचः ।
आख्यातु तत्समारेमे विशारूस्य पुरांतनम् ॥ १३ ॥
मुनियों में घेप्ठ धिम्वामित्र जो, धीरामचन्द्र जी का यद वचन
छुन, विशात्रा पुरों हा पुरातन इतिहास फदने लगे ॥ १३ ॥
श्रुयतां राम शक्रस्प कथां कथयतः शुभाम् |
अस्मिन्देश तु यदहत्त तदपि श्रुणु राघव ॥ १४ ॥
दे राम ! इस देश फे सम्बन्ध में इन्द्र से मेने जे। छत्तान्त खुना
है उसे में कदता हैं, तुम खुनों ॥ १४ ॥
पूर्व झृतयुगे राम दितेः पुत्रा महावलाः ।
अदितेश्व मद्यभाग वीयबन्तः सुधार्मिका। ॥ १५ ॥|
पहले सतयुग में दिति के महावल्री पुत्र ( दैत्य ) भोर भ्रद्ति
के भाग्यवान् ओर अत्यन्त घर्मात्मा पुञ्न ( देवता ) हुए॥ १५॥
ततस्तेषां नरव्याप्र वुद्धिरासीन्महात्मनाम ।
अमरा अजराश्व कर्थ स्थाम निरामया। ॥ १६॥
उन महात्मा बुद्धिमानों की यद इच्छा हुई कि, कोई ऐसा उपाय
है, जिससे हम लोग अजर, ध्रमर ओर निरामय हो जायें, ध्र्थात्
६१० बालकायडे
शेग, झत्यु और बुढ़ापे के कष्ठों से हम सद्ग के लिये छुट्टी पा
जाब ॥ १६ ॥ ढ् |]
तेषां चिन्तयतां राम चुद्धिरासीस्महात्मनामू | (हक
प्तीरादमथन रृत्वा रस मराप्स्याम तत्र वे ॥ १७॥
सेचते से।चते उन लोगों ने यह उपाय (हूँ ढ़कर ) निकाला
कि, हम लोग क्षीस्सप्ुद्द की मर्थें जिससे हमझे प्रस्गत मिले॥ १७॥
ततो निश्वित्य मथन येक्त्रं कृत्वा च वासुकिस |
मन्थानं मन्दरं कृत्वा ममनन््थुरमिताजसः ॥ १८ ॥
ऐसा निश्चय कर वाखुक्कि नाग के मन्थन की डारी ओर
मन्द्राचल के मन्यनद्णड ( रई ) वना, थे महापराक्रमी देवता
सघुद्र के मथने लगे ॥ १८ ॥
अथ बष सहस्रेण येकत्रसपंशिरांसि च्। हर
वमस्त्यति विष॑ तत्र द्दंशुदंशने! शिका। ॥ १९॥ ५
हज़ार चर्ष तक्क भथने पर चाखुकि विष उंगलने लगे ओर
( मन्द्राचल की ) शिक्षाशं के दाँतों से ऋादने लगे ॥ १६ ॥
उत्पपाताभिसंकाशं हलाहलमहाविपम् |
तेन दग्ध॑ जगत्सवे सदेवासुर्मानुषम् ॥ २० ॥
उससे अप्रि के समान हल्ाहल वाम का महाविष उत्पन्न हुआ
देव अछुर तथा मनुष्यों सहित सारे संसार को जलाने
लगा [ २० ॥
अथ देवा महादेव॑ शहूुरं शरणार्थिन!
जम्मु। पशुपति रूद्रं त्रादित्राहीति तुष्टवु। ॥ २१॥
बा
पश्चचत्वारिशः सर्मः ३११
तव सद देवता मद्यादव अर्थात् धीशकुर जो के शरण में गये
ओर, “पश्राहि चादि” ( अर्थात् वचाइये वचाइये ) कद कर उनकी
रदक रने लगे ॥ २१ ॥
एव मुक्तस्ततों देवदेवदेवेश्वर) प्रभु!
प्रादुरासीत्ततोज्त्रव शज्नचऋषरो दरि। | २२ |
इंचताप्रों के इस प्रात्तताद के छुन देगदेव महादेव जो तथा
शट्टयक्रधारी भोदरि ब्रा प्रकढ हुए ॥ २२॥
उबाचन स्मितं कृत्वा रुद्रं शुूल्ूमतं हरि! ।
देवतमथ्यमान तु यत्यूत्र समुपस्थितस् ॥ २३॥
जिशूल घारण किये हुए श्रीमदादेव जी से भगवान् विधा ने
ईँस फर कद्दा कि, ईवताग्रों के ( समुद्र ) मथने पर जे वस्तु सर्च
_फश्रम निकली है ॥ २३॥
तत्त्वदीय॑ मुरश्रेष्ठ सुराणामग्रजासि यत् ।
अग्रपूजामियां मल्ता गद्याणेदं विष प्भे ॥ २४ ॥
उसे दे सुरश्रेष्ट ! श्राप अद्ग क्रीजिये ; क्योंकि आप देवताओं
के अगुआ्ा हैं, घतः आप इसे अपनी प््रपूजा जान कर, इस विष
के ग्रहण कीजिये ॥ २४ ॥
इत्युक्ला च सुरक्रेष्टस्तत्रेवान्तरधीयत |
देवतानां भय॑ दष्टा श्रत्वा वाक्य तु शाह्िंग। ॥२५॥॥
यह फह कर सुरश्रेठ भगवान् विभष्ठ वहीं अ्न्तर्चान है। गये । तब
देवताओं का ऋष्ट देख ओर भगवान विभ के वचन छुने ॥ २४५ ॥
३१२ वालकफ्ाणदे
हालाहलूविपं घेर स जग्राहममृतोपमम् ।
देवान्विरुज्य देवेशा जगाम भगवान्हरः ॥ २६ ॥
भगवाव शिव उस महाविष को भअम्तत की तरह प्रीर. . .
तदनन््तर देवताओं के छाइ महादेव जी कैनास को लौट
गये ॥ २६ ॥
तता दवा सुरा! सर्व ममन्धू रघुनन्दन |
प्रविवेशाथ पाताल मन्धानः पवतानथ || २७ ||
हे रघुनन्दून ! देवता ओर दैेत्य पुनः समुद्र मथने लगे। किन्तु
मन्धनद्र॒द मन्द्राचल धीरे धीरे पाताल की ओर श्रर्थात् ( नीचे
की झोर जाने (खसकने ) लगा ॥ २७ ॥
ततो देवा; सगन्धवास्तुष्ठुचुमंघुसदनस् ।
त्वंगति! सबभूतानास् विशेष॑ेण दिवाकसाम | २८ ॥
तब देवता ओर गन्धर्व मिल कर भगवान् विष की स्तुति)
कर कहने लगे, पे वेलि--है भगवन् | आप सब प्राणियों के स्वाफक्ी
हैं श्रोर विशेष कर देवताश्रों. के ते आप सर्वस्व हो है ॥ २८॥
पालयास्मान्महावाह्े गिरिसुद्धतुमईसि ।
इति श्रुत्वा हृपीकेशः कांमर्ठ रुपमारिथितः || २९ ॥
अतः है महावाहो | श्राप हम सब की रक्ता कीजिये योर नीचे
जाते हुए मन्दराचल के उठोइये | यह खुन कर भगवान् विभा ने
कच्छुप का रूप धारण किया ॥ २६ ॥
पव॑त॑ पृष्ठतः कृत्वा शिश्ये तन्नोदधों हरिः।
पवताग्र॑ तु लोकात्मा हस्तेनाक्रम्य केशव ॥ ३० ॥
ही
पश्चचत्वारिणः सर्यः ३१३:
। _ . सगवान ने जल में जा मन्द्रायल के ड्पनोी पीठ पर घारण
: डिफ्ने प्यौर उसके धागे दे. सिरे के ऋपने हाथ से थाम, ॥ ३० ॥
देवानां मध्यतः स्थिल्ा ममन्थ परुषोत्तम ।
ज क्त कक जे
अथ वपंसदंश्ण आयुवदयय; पुन ॥ ३१ ॥
देवताओं के बीच खई दे फर भगवान् पुरुषोत्तम समुद्र मथने
लगे। एच दज्ञार वर्ष दस प्रकार समुद्र का मंथन करने के वाद
ध्यायुर्वेद के ध्याचार्य ॥ २२ ॥
उदतिए्ठत्स धर्मात्मा सदण्ड सकमण्डलुः ।
पृव धन्वन्तरिनाम अप्सराध सुबचंसः ॥ ३२॥
धर्मात्मा घन्वन्तर जी दह्वाथों में दगढ कमगड्ल्ल लिये हुए
निकले ) है राम | तदनन्तर सुन्दर प्रप्सराएँ निकली ॥ ३२ ॥
अप्सु निर्मबनादेव रसस्तस्माइरखिय: ।
. ्् हल हम
उत्पतुमनुजभ्रप्ठ तस्मादप्सरसाउभवन् ॥ २३३ ॥
है नरश्रठ्ठ | उनका नाम प्रप्सरा इसलिये पड़ा कि, भ्यप प्र्थात्
क्षत्त श्रोर सर धर्थात् निकली | धर्थात् जे! जल से निकली हों । है'
राम ! जल से निकलने के कारण वे सुन्दर स्तियाँ प्प्सरा
फहलायीं ॥ १६ ॥
कि ०० ५. 4, ४6
पष्ठि! काय्योध्मव॑स्तासामप्सराणां सुवचसाम् |
. असंख्येवास्तु काकुत्स्थ यारतासां परिचारिका। ॥३श
|. है राम | ये सुन्दर भ्र्सराओं को संख्या साठ हज़ार थी और
इनकी द्ासियों फी संख्या ते इतनी अधिक थी कि, उसकी गणना
नहीं ही सकती प्र्थात् वे प्मलंख्य थीं ॥ ३४ ॥
३१७ वालकायणडे
न ता; सम प्रतिग्रहृन्ति सर्वे ते देवदानवाः ।
अप्रतिग्रहणात्ताथ सवा! साधारणाः स्मृता। ॥३५॥|
उनके, न ते देवताओं ने पश्रोर न देत्यों ने ही लेना पसंद
किया । धततः जद उन्हें किसी ने क्लेना स्वीकार न क्रिया तब वे
साधारण ख््रियाँ ( अर्थात् सर्वसाधारण को सम्पत्ति ( ?00॥0०
जञणा0णा ) कहलायीं ॥ १५ ॥
वरुणस्य ततः कन्या वारुणी रघुनन्दन ।
उत्पपात महाभागा मार्गमाणा परिग्रहस् ॥ ३६ ॥
हे रघुनन्दन ! तद्नन्तर वरुणदेव की कन्या वारुणी उत्पन्न
' हुई ओर अपने ग्रहण करने वाले श्रर्थात् ग्राहक के खोजने
लगी ॥ २६ ॥
दितेः पृत्रा न तां राम जग्रहुव॑रुणात्म नाम । छः ॒
अदितेस्तु सुता वीर जग्रहुस्तामनिन्दिताम् ॥ २७ |
है राम | द्ति के पुत्रों ने तो वरुण की बेटी को अहण न
किया, किन्तु अद्ति के पुत्रों ने उस #अनिन्दित वारुणी यानी खुरा
को अ्रहण क्रिया ॥ २७ ॥ :
असुरास्तेन' देतेया! सुरास्तेनादिते! सुताः ।
हृष्टा: प्रमुदिताथासन्वारुणीग्रहणात्सुरा। ॥ ३८ ॥
मे सह ल /ब 7 की लत आग कक पद 35% +2/ 447 ४४४८ नह
- # रामाभिरासी टोकाकार ने “ अनिन्दिताम् ” के ऊपर यद्द टिप्पणी चढ़ाई,
हैः-- ““भदितिसुताड्लीकारेद्रुतुरनिदितामिति, निर्षषशासंतुमानुष विषय, घाखे
देवतानाममधिक्कारात्” ॥
पश्चयत्वारिंणः सर्गः ३१४
छुरा धर्थात् मद्रा के न भ्रदण करने वाल्ले श्र और प्रहण
है <ीलचित च्राल छुर कदलाये। छुर प्र्थात् देवता, सुरा के अ्हण कर
«>शैनन्दित हुए ॥ ८ ॥
उच्चःश्रवा हयश्रष्टी मणिरत्न॑ च कास्तुमम।
उदतिप्ठन्नरश्रेष्ठ तयवामृतमुत्तमम् ।। ॥ ३९ ॥
है राम | फिर उच्चेश्नवा ( जंबे कानों घाला प्रथवा ऊँचा
सुनने बाला या बहरा ) नाम का घोड़ा, फिर फोस्तुममणि और
तदूनन्तर उत्तम प्रम्गत निकला ॥ ३६ ॥
अथ ततस्य कऊते राम महानासीत्कुलुक्षय) ।
अदितेस्तु ततः पुत्रा दितेः पत्नानसृदयन् ॥ ४० ॥
दै राम | जिसके ( प्रसृत के ) कारण दोनों कुल पालों की
(सुर प्रछुरां फी ) वड़ी वरवादी हुई। क्योंकि अदिति के पुत्र
नति के पुत्रों के साथ ( अम्त फे लिये ) लड़ पड़े ॥ ४० ॥
एकतोअ्म्यागमन्सर्वे शस॒रा राक्षस सह ।
बुद्धमासीन्मदाप्रार वीर त्राक्यमेइनम् || ४१ ॥
सब अपर राक्तसों से मिल गये। हे राम ! तीनों ल्लाकों की.
भादने बाला छुरों अछुरों का घोर युद्ध हुआ ॥ ४१॥
यदा क्षय गत॑ सर्व तदा विप्णुमंहावर: ।
अमृतं सा5रत्तण मायामास्थाय मेहिनीम | ४२ ॥
जब दानों पत्त के वहत से याद्धा मारे गये, सव भगवान् विधा,
ने मेदिनी माया के फैला कर उनसे अम्छत छीन लिया ॥ ४२ ॥
३१६ वालकायडे
ये गताउभिमुखं विष्णुमक्षयं पुरुषोत्तमस् |
संपिष्ठास्ते तदा युद्धे विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ ४३
शविनाशी भगवान् विष का जिपने सामना किया उन शत
के भगवान् विधए ने मार डाला ॥ ४३ ॥ !
अदितेरात्मजा वीरा दिते; पत्रान्निज्निरे ]
तस्मिन्युद्धे महाघारे देतेयादित्ययेभृशम् ॥ ४४ ॥
इस देवता और दैत्यों के घोर संग्राम में अद्त के पुद्रों ने
अर्थात् देवताओं ने दिति के पुत्रों को अर्थात् पछुरों के छिन्न भिन्न
कर दिया । अर्थात् इस युद्ध में देत्य वहुत से मारे गये ॥ ४४ ॥
निहत्य दितिपुत्रांश राज्यं प्राप्य पुरन्दरः
शशास मुदितो छोकान्सर्पिसद्वन्सचारणान् ॥ ४५॥
इति पशञ्चन्रत्वारिशः सगः ॥
दिति के पुत्रों अर्थात् भछुरों के मार कर इन्द्र ने राज्य पाया
और वे ऋषियों और चारणों सहित प्रसन्न हे शासन करने
लगे ॥ ४५॥
वालकाणड का पैताल्लीसर्वा सर्ग समाप्त हुआ |
+औ--,
पट्चत्वारिशः सर्गेः
हतेषु तेषु पुत्रेषु दितिः परमदु!खिता ।
मारीच॑ कश्यपं राम भर्तारमिदमत्रवीत्॥ १ ॥
पट्चत्वारिशः सम ३१७
शक
है राम ! दिति धपने पुत्रों के मारे जाने पर अत्यन्त दुःखी हो
मरीच के पुत्र ओर झपने पति कश्यप से बेल्ली ॥ १ ॥
' हंतपुन्नाजस्मि भगवंस्तव पुत्रेमहावले। ।
७ ध॑तपार्जितस् प
शक्रहन्तारमिच्छामि पुत्र दी ॥२॥
है भगवन् ! तुम्दारे वलवान् पुश्रों ने मेरे पुत्रों को मार डाला है ।
ध्यतः में इन्द्र का मारने चात्ना पुत्र चाहती हैं, भत्ते दी वह बड़ी
तपस्या फरने पर ही फ्यों न प्राप्त है ॥ २॥
साई तपश्नरिप्यामि गर्भ मे दातुमहंसि ।
बलवन्तं महेप्वासं स्थितिन्नं समदर्शिनम ॥ ३ ॥
में तपस्या ऋरूँगी श्राप छुझे ऐसा गर्भ दोजिये जिसमें वलवान,
महाविज्ञयी, इृढ़ बुद्धि बाला, समदर्शी ॥ ३ ॥
इश्वरं शक्रहन्तारं त्वमनुज्ञातुमहसि । ।
तस्यास्तदचनं श्रुता मारीच; काश्यपस्तदा ॥ ४ ॥ ,
तोनों ज्ञाकों का स्वामी और इन्द्र के मारने वाला पुत्र जन्मे ।
तब दिति के यह चचन छुन, मरीचछुेत कश्यप जी, ॥ ४ ॥
प्रत्युवाच महात्तेना दिति परमदु!खिताम् ।
एवं भवतु भद्ठं ते शुचिभव तपाधने ॥ ५ ॥
जे बड़े तेंजस्री थे, ध्त्वन्त दुखी दिति से बाले। तेरा
कल्याण हो और जैसा तू चाहती है, चेसा ही दे । हे तपाधने ! तू
पदचित्र हा ॥ ४ ॥ |
३८ वालकायणडे
जनयिष्यसि पत्र त्व॑ शक्रहन्तारमाहवे ।
पूर्णे बर्षसहस्रे तु शचियंदि भविष्यसि | ६ ॥ _ ४
तू ऐसा ही पुत्र जनेगी जे युद्ध में इन्द का मारने वाला होगए।.
किन्तु यद् तभी द्वागा जब तू पूरे एक हज़ार चर्ष पवित्रता से
रहेगी ॥ ६ ॥
पुत्र॑ प्रेलेक्यमर्तारं मत्तस्त्व॑' जनियिष्यसि ।
एबमुक््त्वा महातेजा। पाणिना स ममाज'* ताम् ॥७॥
मेरे अनुश्रह से तीनों लेकों का स्वामी पुत्र तेरे उत्पन्न होगा।
इस प्रकार कद और दिति के शआश्वासन दे ॥ ७ ॥
समारूभ्य ततः खस्तीत्युक्वा स तपसे ययो |
गते तस्मिन्नरश्रेष्टठ दिति; परमहर्पिता ॥ ८ ॥
और उसका पेट हाथ से खुदरा कर तथा उसे आशीवादि डे.
कश्यप जी तपस्या करने चले गये । दे पुरुषोत्तम | उनके जाने
बाद् दिति वहुत प्रसन्न हुई' ॥ ८॥ *
कुशछवनमासाथ तपस्तेपे सुदारुणम् |
तपस्तस्थां हि कुव॒न्तां परिचया चकार ह॥ ९॥
सहसराक्षो नरश्रेष्ठ परया गुणसम्पदा ।
अग्नि कृशान्काष्टमप) फर्लं मूल तथैव च || १० ॥
न्यवेदयत्सहस्राक्षो यच्चान्यदपि काछचितस् ।
गाजसंवहनैश्रेद श्रमापनयनेस्तथा ॥ ११ ॥ कै.
2 आर पक मिट प बल 22 सर सकी 3 ++ पतन
१ मक्तः सदनुप्रदादित्यर्थं: (यो० ) ३ मसाजेत्माश्वासनप्रसारः (गे )
पद्वत्वारिंणः सर्गः ३१६
प्र कुशपुव नामक बन में जा घेर तप करने लगो । है राम !
उसके तप फरते देर, इन्द्र वही भक्ति फे साथ उसकी सेवा फरमे
छोड भम्ति, कुश, लकदी, फल, सूल ध्यादि जिन जिन वस्तुओं की
दिति को ध्यायश्यकता पड़ती, इन्द्र उन्हें वड़ी विनय फे साथ ला देते
घे घोर अब तप फरने के कारण दिति फा शरीर धान्त हि जञाता,
तद उसका शेर भी दवाया फरते ॥ ६ ॥ १० ॥ १६१ ॥
शक्रः सर्वेषु झालेपु दिति परिचचार ह ।
हे ५ जप
अथ वर्पसद्स तु दाने रघुनखद्नन ॥ १२ ॥
इन्ट सदा ही दिति फी परिचर्या में लगे रहते थे। है राम !
इस प्ररार फरतें फरतें ज़ब एफ एज़ार वर्ष पूरे दोने में केवल दूस
घर दाकी रद गये ॥ १२ ॥|
दितिः परमसंभीता सदस्राक्षमथात्रवीत् |
याचितेन सुरथ्रेष्ट तब पित्रा महात्मना ॥ १३॥
बरे वरपसदस्नान्ते मम दत्त सुत्त प्रति |
तपथरन्ला वर्षाणि दश दीयेवतां वर ॥ १४ ॥
अवशिष्टानि भ्ध ते श्राततरं द्रक्ष्यस ततः ।
तमहं लवत्कृते पुत्न॑ समाधास्पे जयोत्सुकम् ॥ १५॥
तब दिति ने इन्द्र से परम दर्पित दा फए कद्दा--दे इन्द्र ! तुम्हारे
पिता ने मुझे माँगने पर एक दक्षार चप वीतने पर पुञ्र हेने का धर
दिया है । सा तप करते फरते प्रव केवल द्वप्त वर्ष और शेष रह
शंय हैं । सा इसके वाद तुम ( ध्यपने ) भाई के देखोगे। यद्यपि
में उसे तुम्दें जीतने फे लिये उत्पन्न करना चाहती हूँ॥१३ ॥
॥ १४७ ॥) २५ थी
चां० रसा०--+२१
३२० वालकायडे
त्रेछेक्यविजय॑ पुत्र सह भेक्ष्यसि विज्वरः | ु
उब्सुक््ता दितिः जरक्क पराम्ते मध्यं दिवाकरे ॥१६॥ ९ ,
तथापि उसके साथ ठुम तीनों लेकों के। विज्ञय कर राज
खुल भेागागे | तुम किसी वात की चिन्ता मत करे | दिति ने इस
प्रकार इच्ध से कहा ओर इतने में दो पदर दी गया ॥ १६ ॥
निद्ययाप्पहृता देवी पादों इंत्वाउ्य शीर्प॑तः ।
ए
दृष्टा तामशु्चि शक्रः पादतः कृतमूधजामू ॥ १७॥
शिरःस्थाने कृता पादों जहास च मुमेद च |
तस्याः शरीरविवरं विषेश च पुरन्दरः॥ १८ ॥
दिति को नींद थ्रा गयो झोर वह पैताने की शोर सिर कर
डढ्ढी से गयी। उसके सिराहने की श्लोर पैर और पैताने की
शोर सिर किये से।ती हुई ्रपवित्र दशा में देख. इन्द्र वहुत पजष्ठ
हुए ओर हँसे | फिर पे उसके शरोर में घुस गये ॥ १७॥ श१८॥ ”-
गर्भ च सप्तथा राम विभेद परमात्मवान ।
भिच्यमानस्ततो गभे। वद्धेण शतपचंणा ॥| १९ ॥
, है राम | चैयंबान इन्द्र ने अपने प्संख्य धारों दाले वज्न से
यभस्थ वालक के शरीर के सात टुकड़े कर डाले ॥ २६ ॥
रुरेद सुखरं राम ततो दितिरवुध्यत ।
भा रुदे। भा रुदश्षेति गर्भ शक्रोड्स्थभाषत ॥ २० ॥- .
इस पर गर्सस्थ चालक जब रेते ज्ञगा तव दिति को नोंद-
|...
उचकी | इन्द्र ने गर्सस्थ चालक से कहा, मत रे, मत से ॥ २० ॥|
सप्तचत्वारिशः सर्गः ३२१
विभेद् च महातेजा रुदन््तमपि बासवः ।
न इन्तव्यों न हन्तव्य इत्येव॑ द्तिरत्रवीत् ॥ २१ ॥
न्द्व रोते हुए चालक के सी पुनः काठने लगे। तव दिति इन्द्र
से कहने लगी--भरे मत मारे | मत सारे | ! ॥ २१ |
निष्पपात ततः शक्रो मातुबंचनगारवात् ।
प्राक्ललिविज्रसहितो दिंति शक्रोड्म्यभापत || २२ ॥
इन्द्र माता का कहना मान उदर के वाहिए निकल आये झौर
चच्ध सहित हाथ जाड़ कर, थे दिति से कहने लगे ॥ २२॥ ,
अशुचिददेवि सुप्तासि पादये। कृतमृर्धना ।
तदन्तरमहं लव्ध्वा शक्रहन्तारमाहवे |
अभिदं सप्तथा देवि तने त्वं क्षन्तुमहेसि ॥ २३ ॥
४ इति षट्चत्वारिंशः सर्गः ॥ |
हे देवी ! तू पैसों को शोर सिर कर सेई हुई थी। इससे तू
धश्ुत्ति है गयो | इस पवसर के पा मेंने अपने मारने वात्ते के
सात टुकड़े कर डाले । इसके लिये तू मुझे त्तमा कर दे ॥ २३ ॥
वालकाण्ड का छिपालीसवाँ सगे पूरा हुआ।
रच
: सघतचत्वारिशः सगे:
+-+४ # $--- *
सप्तथा तु कृते गर्भे दितिः परमदु!खिता | .
सहसाक्ष॑ं दुराधष वाक्य साबुनयाअ्त्रवीत् ॥ १॥
इश२ बालकाणडे
जब गर्भ के सात टुकड़े ही गये तव दिति वड़ी विकल हुई
पर दुराधर्ष इन्द्र से वड़ी विनय के साथ वोली ॥ १॥
ममापराधादगर्भोज्यं सप्तता विफलीकृतः ।
नापराधे5रित देवेश तवात्र वछसूदन ॥ २ ॥|
हे इन्द्र | है वललूदन | मेरो भूल से मेरे गर्स के सात टुकड़े
हुए। इसमें तुम्दारा छुछ भी अपराध नहीं है ॥ २॥
प्रियं तु कतृमिच्छामि मम गर्भविषय्यये ।
मरुतां सप्त सप्तानां स्थानपाला भवन्त्िमे || ३ ॥
यह गर्भ ता ठिगंड़ ही छुका, किन्तु इस पर भी में तुम्हारा.
कौर ध्रपना हित चाहती हैँ । ध्तः ये सात--उनचास पवनों के
स्थानपाल हों ॥ ३॥
वातस्कन्धा इमे सप्त चरन्तु दिवि पुत्रक ।
मारुता इति विख्याता दिव्यरूपा ममात्मणा।॥ ४ ॥र्ट
दिव्य रुप वाले मेरे ये सातों पुत्र वालस्कन्ध मारुत के नाम से
विख्यात दा कर, आकाश में चिचरण करे ॥ ४ ॥
ब्रह्मलेक चरत्वेक इन्द्रढाक॑ तथाउपर) ।
दिवि वायुरिति ख्यातस्वृतीयेषि महायज्ञा। ॥ ५॥
इनमें से एक बह्मलेक में, दुसरा इन्द्रत्नेक में ओर भद्दायशस्त्री
तीसरा वायु के नाम से आकाश में विचरे ॥ ५॥
चत्वारस्तु सुरभ्रेष्ठ दिशे वे तव शासनात् ।
संचरिष्यन्ति भ' ते देवभूता ममात्मजा। ॥ ६ ॥|
सप्तचत्वारिशः से ३५३
है इन्द्र शेष मेरे चारों पुत्र तुम्दारी थाज्षा के अनुसार देवता
बने कर दिशाओं में घूमा करे ॥ ६ ॥
लत्कतेनेव नाम्ना च मारुता इति विश्रुताः ।
तस्यास्तद्नचन श्रुता सहस्राक्ष; पुरन्दर। ॥ ७ ॥
और ये सब फे सब तुम्हारे रखे हुए मारुत नाप से प्रसिद्ध हों ।
दिति के ये वचन खुन सदस्नात्त इन्द्र ॥ ७॥
उचाच प्राक्नलिवांक्यं दितिं वलनिषृदनः ।
. सवमेतयथेतक्त ते भविष्यति न संशय! ॥ ८ ॥
दिति से द्वाथ जड़ कर वाले, तुमने जैसा कहा निश्चय चैसा
ही देगा--इसमें कुछ भी सन्देद नहीं ॥ ८ ॥
विचरिष्यन्ति भद्ग ते देवभूतास्तवात्मनाः ।
एवं तै। निश्रयं कृत्वा मातापुत्रों तपोवने ॥ ९ ॥
' तुस्दारे पुश्न देव रूप हो कर बिचरेंगे उस तपावन में इस्र
प्रकार समझ्ोता फर माता और पुत्र-दोनों ॥ ६ ॥
जम्मुतुद्धिदिवं राम कृता्थाविति नः भ्रुतम् ।
एप देश! से काकुत्स्थ महेन्द्राध्युषितः पुरा ॥ १० ॥
दिति यत्र तप|सिद्धामेदं परिचचार सः |
इक्ष्याकेस्तु नरव्याप्र पुत्रः परमधार्मिकः ॥-११ ॥
है राम ! छृतार्थ हे सूबर्ग गये। मैंने यददी खुनां है। हे राम-
चन्द्र ! यह चह्ी देश है, जहाँ इद्ध ने तपशसिद्धा माता दिति को
३२७ बालकायटे
सेवा की थी । दें पुरुपसिह ! इच्चाकु के परम धार्मिक
पुत्र ॥ १० ॥ ११॥ ह
अलम्बुसायामुत्पन्नों विशाल इति विश्रुतः । |
तेन चासीदिद स्थाने विशाकेति परी कता ॥ १९॥
विशाल ने, जे। अलम्युसा के गर्भ से उद्धन्न हुआ था, यहाँ
पर यह विशाला नगरी वसाई ॥ १९॥
विशार्स्य छुतो राम हेमचन्द्रो महावरू।।
सुचन्द्र इति विख्यातों देमचन्द्रादनन्तरः ॥ १३ ॥
दे राम | विशाल का महावलवान हेमचछ नामक पुत्र हुआ।
फिर देमचन्द्र के सुचक नामक पुत्र हुआ ॥ *३॥|
सुचन्द्रतनये! राम प्रूम्राश्व इति विश्रुतः ।
धूम्राश्वतनयथ्रापि सुझ़्यः समपद्रत ॥ १४॥ '
है राम ! खुचन्द्र के छुप्नाश्व हुआ ओर श्रृज्राश्व के सत्य
नाम का पुत्र हुआ ॥ १४ ॥
सज्लयस्य सुतः श्रीमान्सहदेवः प्रतापवान् ।
कुशाश्वः सहदेवर्य पुत्र। परमधार्मिक: ॥ १५ ॥
फिर सूझ्नय के बड़ा प्रतापी श्रीमान् सहदेव नाम का पुत्र
हुआ | सहदेव का पुत्र कुशाश्व हुआ जे वड़ा घर्मातशा था ॥ १४ ॥..
कुशाश्वस्य महातेजा! सेमदत्त) प्रतापवान् |
सेमदत्तस्य पुत्रस्तु काकुत्स्थ इति विश्ुत। ॥ १६॥
सप्तयत्वारिणः सर्गः ३४४
कुशाम्व के महातेज्प्वी और प्रतापो सेामदत्त हुआ । फिर
सासदत के काऊुन्सख्य नाम का पुन्न झुप्मा॥ १६ ॥
/ तस्य पुत्रो मद्दातेजाः संप्रत्येप पुरीमिमाम ।
आंवसत्परमप्रख्यः सुमतिर्नाम दुजयः ॥ १७ ॥
उम्नोके मदातेजल्वी, परम प्रसिद्ध श्रार दुजेय पुत्र राजा खुमति
ध्याजकल इस विशाला पुरी में राज्य करते हैं ॥ २७॥
इक्ष्वाकेस्तु प्रसादेन सर्वे वेशालिका दपा!
दीर्घायुपों महात्मानों वीयेबन्तः सुधार्मिका! ॥ १८ ॥
महाराज इच्चाकु की ऊूप| से विशाला पुरी के समस्त राजा
दीर्घायु, महात्मा, पराक्रमी तथा बड़े घ्रमिए दोते रहे हैं ॥ १८ ॥
इहाद्य रजनी राम सुख वत्स्योमहे वयम् |
इबः प्रभाते नरश्रेष्ठ जनक दष्टुमहसि ॥ १९ ॥
है राम! धआ्राज़ की रात हम यहाँ पर खुख पूर्वक 5हरेंगे।
कल प्रातःकाल पुरुषों में श्ेंउ मद्दाशज्ष जनक जी से भेंढ
फरंगे ॥ १६ ॥
सुमतिस्तु महातेजा विश्वामित्रयुपागतम् |
श्रुल्ा नरवरश्रेष्ठः पित्युद्गच्छन्महायज्ञा। ॥ २० ॥
इस वीच में राजाओं में श्रेष्ठ मद्दातेजस्परी और मद्दायशस्वी राजा
खुमति ने विश्वामित्र जी के आने का समाचार खुना श्रार वे उनको
, अगमानी के गये ॥ २० ॥
पूजा च परमा कला सापाध्याय; सवान्धव३ |
प्राख्ललि) कुशल पृष्ठा विश्वामित्रमथात्रवीत् ॥ २१ ॥.
३२६ चालकायटडे
उपाध्याय तथा वच्चु वान्धवों के साथ उनका भल्ली भांति पुअन
कर तथा हाथ जड़ कर कुशलादि पू छठी । तदनन्तर ये दिश्वारि
ज्ञी से बेले ॥ २१ ॥ जा
धन्योथ्स्म्यजुगृहीतोजस्मि यस्य से विपय॑ मुनि ।
संग्राप्तो दशनं चैव नास्ति धन्यतरो मया || २२ ॥
इति सप्तचत्वारिशः सर्गः ॥
है मुनि ! श्ाज में धन्य हूँ जे आपने भेरे राज्य में पधार कर
मुझे दर्शन दिये। मुझसे बढ़ कर धन्य आज घर काई नहीं है ॥ २२॥
वालकाण्ड का सैंतालीसवां सर्य पूरा हुआ ।
जा |
अष्टचत्वारिशः सर्गः..'
"+-+६०६--
पृष्ठा तु कुशल तत्र परस्परसमागमे |
कथान्ते सुमतिवाक्यं व्याजहार महामुनिम ॥ १ |)
मेंड के अवसर पर परस्पर कुशलप्रश्न के श्रनन््तर राजा
सुप्रति ने महर्षि विश्वामित्न जी से कहा ॥ १॥
इमो कुमारों भर! ते देवतुस्यपराक्रमौ ।
गजसिंहगती वीरो शादेलूहृपभेपमी ॥ २ ॥,
पद्मपत्रविश्ञालाक्षों खड्अतृणीधनुर्धरों ।
अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनों ॥ ३ ॥
| , । ऋ्िषमायूदेबाई परवव पु. “77-८7 इंिंदे।पामाभूदिद्याइ--भह्वं तइ॒ति (यो० )
घष्चत्वारिश: सगे: ३२७
यहच्छयेव गां प्राप्ती देवलेकादिवामरों |
कं पद्मभथामिह प्राप्ती क्रिमथ कस्य वा मुने ॥ ४ ॥
दे मुने | ( भगवान् फरे ) इन्हें नज़र न लगे, यह तो यत-
लजागये कि, ये दोनों कुमार, जा देवताधों के समान पराक्रम वाले
हैं, जा गजसिद शांल प्र ध्ृपम फे समान चाक्ष चलने वाले
हैं, जे फप्नल जैसे नेत्न चाले हैं, जे। खड़ तरकस और घत्ुप धारण
हिये हुए हैं, जे पश्विती कुमारों जैसे सुस्वरूप हैं, जे जवानी की
सीमा पर पहुँचे हुए हैँ, जे देवताओं की तरह निज इच्छानुसार
पूथिवीतल पर प्राये हुए दें, पाँव प्यादे प्र्थात् पेदल कैसे और
किस लिये यहां घ्याये हैं और किस फे पुत ५ ॥ २॥ ३॥ ४ ॥
[ नाद--झपर राजा सुमति ने राजकुसारों के गज, लिट्ठ द्ादूछ तथा
चृषन लैती चाल चढ़ने थाढा बतलाया दे जथपा राजकुमारों की चाल की
शक्त चार प्रसिद पराक्रमी ज्ञीयों छे उपसा दी है। इसका पअमिप्राय यहाँ
४ उना आवदइयक आस पढ़ना है। श्रोगाविन्द्राज भी छिखते है ( १ )
«५ गास्मीयंगसने सजतुस्यो “-गास्मोयंग तन में गज के समान गति वाले |
(३) परामिमबनाएंगमनेसिंदतुल्यो “--दूसरे का परासव करने के जाते
समय सिंद्र के प्मान गमन करने वाले ( ६३ ) * भयशएुरगमने शादू लछ तुल्यो
मयहर चाल चलने में गश्ादछ के पमान। (४) _ सगवंगसने वृषभ
व्शाविद्यर्थ गयव॑ स्दित चलने में साड़ फे समान | )
भूपयन्ताविमं देश चन्द्रमूयाविवाम्वर्स् |
परस्प्रस्य सद्शो प्रमाणेड्रितचेप्टितें: | ५ || ग
ँ
इन दोनों ले दस देश के वैसे ही खुशेमित किया है जैसे
घर्थ और चच्धमा घाकाश को छुशेमित करते हैं। डीज्डोल, वाव-
चीत और चेश से ये दोनों समान अर्थात् भाई ज्ञान पढ़ते हैं ॥ ५ ॥
छ्श्८ बालकाणडे
छः कर थक, . करे र्ः पि
किम च नरश्रेष्ठों संग्राप्ती हुगंगे पथि । ु
के -*
वरायुधधरों वीरो श्रोतुमिच्छामि तत््ततः ॥ ६ ॥_.! _
ये दोनों नरभ्रेष्ठ चोर, श्रेष्ठ ग्रायुत्रों के धारण किये दुण, इस
दर्गम मार्ग में किस लिये थ्ाये हैं ? में इनका पूरा पूरा हाल छुनना
चाहता हू॥ ६ ॥
तस्य तह॒चन श्रुत्ता यथाहतं न्यवेदयत् ।
सिद्धाश्मनिवासं च राक्षसानां वध तथा ॥ ७ ॥॥)
सुमति के प्रश्न के छुन, विश्वामित्र ने उनके ( गाज़कुमारों के )
सिद्दाश्रम में रहने और राक्तसों के मारने का जे वृत्तान्त था से
सव कहा ॥ ७॥
विश्वामित्रवच! श्र॒ुत्वा राजा परमदरर्षित)
अतिथी परम प्राप्तों पुत्री दशरथस्य तो ॥ ८ ॥
राजा खुमति विश्वामित्र ज़ी के चचन खुन अत्यन्त हर्पित हुए
और उन दोनों दशरथनन्दुनों के परमपत्रित्न अतिथि मान ॥ ८ |
पूजयामास विधिवत्सत्काराहों महात्रल्लों |
ततः परमसत्कारं सुमते! प्राप्य राघवों ॥ ९ ॥
उनका विधिचत् पूजन किया और सत्कार करने योग्य दोनों
महावलवानों का अच्छी तरह सत्कार किया | श्रीयमचन्द्र छोर
जक्मण, राजा उमते से खत्कार प्राप्त कर | ६ ॥
उध्य तत्र निशामेकां जंग्मतुर्मिथिछां ततः ।
तान्हश्श झुनयः सर्दे जनकस्य पुरी शुभाम ॥ १० ।.
अश्नत्वारिणः सर्गः ३२६
एक रात वर्दा हहरे) दूसरे दिन मिथिलापुरी के प्रस्थानित
+ हुए शोर मदाराज अ्मक की खुन्दरपुरो के देख सब
हाफ के भर २७ |
साधु साझ्िनि शंसन्तों मिथिरां समपूजयन् |
मिथिलापवने तत्र आश्रम दृश्य राघब! ॥ ११ ॥
पुराण निजन॑ रम्यं पम्रच्छ झुनिपुज्नचस् |
श्रीमदाश्रयसंकाश कि न्विंदं मुनिवर्जितम ॥ १२ ॥
“वाद वाह ” कह उसकी प्रणंघा करने लगे | श्रोरामचन्द्र जी
ने मिथिनापुरों फे पक्र उपचन में एक पुराना, निर्जन किन्तु रमणीक
आश्रम देख कर विश्वामित्र जी से पूछा कि, हे मुने ! यह आश्रम
ते परम शेमायमान हैं, परूतु इसमें कोई ऋषि रहता हुआ नहीं
द्रोत्र पता, से। बद बात क्या है ? 6 १२॥ १२ ॥
श्रोतुमिच्छामि भगवन्कस्यायं पूव आश्रम | *
तच्छू त्वा रामवेणोक्त॑ वाक्य वाक््यविशारदः ॥१३॥
है भगवन ! में घुनना चाहता हैं कि, पहले यह किसका श्राश्रम
था ? प्रीरामबन्द्र जी ' का कथन खुन, चाफ्यविशारद ( वातचीत
करने में परम निपुगा ) ॥ १३ ॥
प्रत्युवाच महातेजा विश्वामित्रों पहामुनिः ।
४ इन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्त्वेन राघव ॥ १४ ॥
* पहातेजम्वी महर्षि विश्वामित्र जो ने 'कहां-हे राघव | मैं
तुमसे यथार्थ दुच्तान्त कहँगा उसे तुम छुने कि, ॥ १४ ॥
३३० बालकायड़े
यस्येतदाश्रमपदं शर्त कोपान्महात्मना | ्
गैतमस्य नरश्रेष्ठ पूवमासीन्महात्मन; ॥ १५। हक
जिसका यह भ्राथ्रम है भर जैसे एक महात्मा ने क्रोध से इसे
शाप दिया था। हे राम! पूर्वकाल में यह भ्राश्रम गैतम का
था॥ १५४ ॥
आश्रम दिव्यसंकाशः सुरेरपि सुपूजितः ।
स चेह तप आतिष्ठदहल्यासहितः पुरा ॥ १६ ॥
वर्षपूगाननेकांश्व राजपुत्र महायज्ञ |
कदाचिहिवसे राम ततो दूर॑ गते मुनो | १७ ॥
यह देवताओं जैसा श्राश्रमम था भर देवता इसकी वन्दूना
करते थे। इस ध्राश्रम में प्रहल्या के साथ उन मुनि ने बहुत वर्षो
तक तप किया । दे महायशपस्त्री ओयम ! किसी दिन गै।तमकईटरे ४
कहीं दूर चल्ते गये ॥ १६ ॥ १७ ॥
तस्यान्तरं विदित्वा तु सहस्ाक्ष! शचीपतिः ।
मुनिवेषधरो5हल्यामिंद वचनमत्रवीत् ॥ १८ ॥
ध्राश्रम में मुनि का श्रज्ुपत्यित देख कर सहस्नाक्ष शचीपति इन्द्र
ने गैतम का रूप घारण कर शहलया से कद्दा ॥ १८ ||
' ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिन; सुसमाहिते ।
संगम त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे | १९ |
कि कामी पुरुष ऋतुकाल को प्रतीक्षा नहीं फरते। है खुन्द्री !
अतः आज हम तेरे साथ मैथुन करना चांहते हैं ॥ १६॥
अणचत्वारिंशः सर्गः ३२११
घुनिचेष॑ सहस्ताक्ष॑ विज्ञाय रघुनन्दन ।
) म्॒ति चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहछात् ॥ २० ॥
हे रघुनन्दन ! मुनिवेष धारण किये हुए इन्द्र को पद्दिचान कर
भी दुश श्रहल्या ने प्रसन्नता पूर्वक इच्ध के साथ भेग किया ॥ २० ॥
अथात्रवीत्सुरश्रेष्ठं क्ृतार्थेनानतरात्मना ।
कृतार्थास्मि सुरभरेष्ट गच्छ शीघ्रमितः प्रभे ॥ २१ ॥
तदनन्तर वह ( अहल्या ) इन्द्र से वालो, हे इन्द्र ! मेरा मनेरथ
पूरा द्वी गया, घतः दे देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र ! यहाँ से अब तुम
शीघ्र चन्ने आगे ॥ २१ ॥
आत्मान मां च देवेश स्वदा रक्ष मानद ।
इन्द्रस्तु भहसन्वाक्यमहल्यामिदमत्रवीत् || २२॥
$ “हे मानद् ! ( अर्थात् इज्जत बढ़ाने वाले ) अपनो श्र मेरी
सदा रक्ता ( गौतम से ) करते रहिये। इसके उत्तर में इच्ध ने भी
हँस कर यह कहा ॥ २२ ॥
सुश्रोणि परितुष्टोडस्मि गमिष्यामि यथागतम् |
एवं संगम्य तु तया निश्रक्रामेटजाचत; ॥ २३ ॥
सुश्रोणि ( सुन्दर कदि वाली ) में तेरे साथ भाग करने से
तेरे ऊपर वहुत प्रसन्न हूँ। में ध्रव आनन्द पूर्वक अपने स्थान को
जञाऊँगा। यह कद इन्द्र अहृ्या की कुटो के वाहिर निकले ॥ २३ ॥
.. स संग्रामाच्चरन्शम शक्डितों गातम॑ प्रति ।
गैतम स ददशशाथ प्रविशन्तं महामुनिम् ॥ २४ ॥
३३२ बालकायडे
है राम | गौतम के भय से इक उस सम्रय विकल भर
सश्ित थे कि, उन्होंने क्दो में गेतम की प्रवेश करते देखा ् है
देवदानवदुधप तपेावलूसमन्वितस् | हज
तीथेदिकपरिकछिन्न दीप्यमानमिवानलस ॥ रे५ ॥
वे ऋ्ूपि, देवों ओर दानवों से न जीते जाने वाके, तपेवल से
युक्त, तीर्थ के जल से भागे हुए, भ्रप्मि के तुद्य प्रकाशमान॥ २५ ॥
गृहीतसमिधं तत्र सकुश मुनिपुद्चचम् ।
नि ४ कप +मिनीद.. बेवर्णवदने[5
, दृष्ठा सुरपतिस्नस्तों विवणवदनाउमबत् | २६ ॥ .
तथा हवन के लिये लकड़ियाँ और कुश हाथों में लिये हुए
थे | उनके देखते ही इन्द्र वहुत डरे ओर उनका चेहरा फीका पड़
गया ॥ २६ ॥
अथ दृष्टा सहस्राक्ष॑ं मुनिवेषधरं मुनि ।
दुरंत इत्तसंपन्नो रोषाइचनमत्रवीत् ॥| २७ ॥
गेतम जो ने, इन्द्र के अपना रूप धारण किये हुए देख और
( उनके चेहरे से ) यह जान कर कि, वे पसत्कर्म कर के जा रहे
+ कोध में भर यह शाप दिया ॥ २७ ॥
परम रूप॑ समास्थाय इतवानसि दुर्सते ।
अकतंव्यमिर्द तस्माहिफलस्त्व॑! भविष्यसि ॥ २८ ॥
अरे दुए | मेरा रूप बना कर तूने इस धतकरने याग्य काम
के किया है अतः तू अण्डकेोश रहित पर्थात् नपुंसक कै *
जा॥ श्८ है
# विफल:--विंगतव षणः ( गे।" ) अण्डक्षेप रहित ।
ा
अपचलवारिणः सगे: झ३३
गातमेनेबसुक्तस्थ सरोपेण महात्मना ।
५ पततुह्टपणा भूमो सहस्नाक्षस्य तत्क्षणात् ॥ २९ ॥
पु मदात्मा गॉंतम के ुवित दी कर यद्द शाप देते ही उसी त्रण
« ईन्द्र के दोनों छुपण ( प्ययृडकाश ) ज़मीन पर पिर पड़े ॥ २६ ॥
तथा शप्त्तरा स वे शक्रमहएयामपि शप्तवान् |
( ०
इृह बपसइस्राणि वहूनि लव निवत्स्यसि | ३० ॥
इस प्रकार इन्द्र के शाप दे, गोतम जी ने प्महल्या के भी
शाप दिया कि, तू इसी स्थान पर हज़ारों घर्ष तक वास
करेगी ॥ ३० ॥ |
बायुभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी |
(् .
अहया स्भूतानामाश्रमेजस्मिन्रिवत््यसि ॥ ३१॥
' और तेरा भाजन केवल पवन दोगा और कुछ भीन खा
सकेगी, ( मेरे शाप से ) श्रपनी करनी का फ्न भेगती हुई भस्म
में ज्लादा करेंगी । तू इसी स्थान पर प्रद्मय दे कर रहेगी ध्र्यात्
हुक कोई भी धराणी नहीं देख सकेगा ॥ ३१ ॥ '
यदा चेतदन पार रामे। दशरथात्मजः ।
आगमिष्पति दुर्धपस्तदा पूत्ता भविष्यसि ॥ ३२ ॥
जब इस घेर घन# में मद्दायल दशरथ के पुूत्र अजेय शीराम-
चह्द पधारेंगे तब तू पवित्र द्वोगी धर्थात् मेरे इस शाप से पुक्त
पिओ
,... ७ अमी तक ते बढ स्पान सुरस्य मुनिभाश्रम था; किन्तु तब से वह मुति
के शाप से मिर्मन बच है। यया | के हि
दल नल न न लत नओ नल न् तय घघघ/77क्__777_ ___
३३७ वालकायणडे
होगी ध्यधवा जे। तूने यह गहित काप्र झिया है, उम्तके पाप से
छुटेगी ॥ ३९ ॥
तस्यातिथ्येन दुह ते लेभमेहविवर्मिता |.“ _..
मत्सकाशे सुदा युक्ता स्तर वप॒धारसिष्यसि ॥ ३३ ॥।
हे दुप्दे! लाभ और मेह से रहित उनका साकार ध्र्पात्
'आतिथ्य करने पर, तू अपने पहले णरोर के धारण कर शनि
प्रसन्न दो मेरे समीप आवेगी ॥ ६३ ॥
एयमुक््त्वा महातेजा गातमे दुष्धचारियीस् ।
इममाश्रममुत्सज्य सिद्धचारणसेवित |
हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे महातप्रा ॥ ३४ ॥
इति श्रष्चचत्वारिणः सर्गः ॥
इस प्रकार मद्दातेजस्दी गोतमक्रषि ध्यभिचारिणी प्रहल्या
के शाप दे और इस पाश्रम के त्याग कर पस्िद्धों तथा चारणों
से सेवित हिमालय फे शिक्षर पर ज्ञा तप करने लगे ॥ २४ ॥
वालकाण्ड का अड़तालोसवो सर्ग समाप्त हुआ ।
| नेद--मदपिं वाल्मीकि जी के इस वर्णन से पाठकों के! अवगत
है|गा कि, आदिकाज्य के अनुसार गौतम के शाप से जहह्या का शिल्ता दाना
और इन्द्र के शरीर में सइल्नमग हैना। जैप्ता कि, छाक मेँ प्रसिद्ध है।
समर्थित नहीं हाता | भद्दत्या के जिला चनने की कथा पत्मपुराण में लायी
है । व्दों इस घटना के समथंन में यद् एक ख्होक अवश्य पाया जञाता है । -
शापद्ग्धापुराभर्न्रा राम शक्रापराधतः |
अददल्याख्याशिल्ाजज्ञे शतलिडु: कृतस्स्व॒राट ॥
लिज्ञशब्देन भगाकारं चिन्ह । स्वराहिस्द्र: ] दर
नाई ---
एकोनपशञ्माशः स्गः
अफलस्तु ततः शक्रो देवानपिपुराधसः ।
अन्नवीघ्रस्तवदनः सर्पिसह्ृवन्सचारणान् ॥ १॥
मौतमऋपि के शाप से नपुंसकत्व के प्राप्त हुए एवं उदास मन
इन्द्र, प्र्मि धादि देवताओं, लिखों, गन्धवों और चारणों से
वाले ॥ १ ॥
कुवेता तपसे विध्न॑ गोतमस्य महात्मन! ।
क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकारयमिदं ऋृतम् ॥ २॥
महात्मा गौतम की तपस्या में विन्न डालने फे लिये मेंने उन्हें
आद्ध कर, देवताओं का यह फाम बताया ॥ शही टेट ४
[ नेाट--इल््द्र के इस श्यन के मिथ्या म' समझना चाहिये | क्योंकि
घत्तमुच बात यदी थी | योतस ने सर्वदेवताओं फा स्थान लेते के लिये तप
डिया था | क्रोधादि दुव॒ त्तियों के प्रादुर्भाव होने से तपस्ती की तपस्या न४' है|
जाती है । भतः इन्द्र ने मद॒पिं गोौतस - की. तपस्या नश््न्ट. करने: फे छिये
ही उन फुद ढरने छे अमिप्राय पे अदल्या के साथ भोग -किया था। नहीं
ते हवा में मद्वल्या से कही अधिक सुन्दरी स्लियों का अभांव नहीं था।
खत्युलोफबासियों के सदनुष्ठानों में - देवता अपने स्वार्थ के किये 'सदा से
विप्त करते चले आये हैं । ] जि,
अफलोउस्मि कृतस्तेन क्रोधात्सा च निराकृता ।
शापमेंधषिण महत