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श्रीमद्राल्मीकि-रामायण
[ हिन्दीभाषाछुवाद सह्दित |
युद्डकाश्ड पूवाहुं-७
| अनुवादक
चतुर्वेदी द्वारकाप्साद शर्सा, एम० घयार० पु० एस०
जनन््क-्पव्फिगरी-+-न
प्रकाशक
रामनारायण लाल :
पब्छिशर और बुकसेलर
इलाहाबाद
ह १९२७ '
प्रथम संस्करण २,००० ] [मूल्य २) '
युद्धकाणड-पूव
फी
विषयानुक्रमणिका
प्रथप सगे १-५
सीता का पता क्षभाने में कऊतकाय ह॒शुमान जो की
वाते सुन लेने पर, श्रोरामचन्द्र जी का उनकी प्रशंसा
करना और सर्वेस्वदानरुपरूप दनुमान जी को श्रपनी
छाती से लगाना ।
दूसरा सर्ग ६-११
सीता ज्ञो का पता मिल्लनने पर भी शाकातुर श्रीराम-
चन्द्र जी के प्रति सुत्रीव का सविनय वचन । सुभ्रीव
द्वारा बानरों के पराक्रम का पर्णन। सुद्र पर पुल
वाँधने के लिये श्रीरामचन्द्र जी के छुम्रीव द्वारा प्रोत्साहन
तथा सुप्रीव का भीरामचन्द्र जी से यद भी कहना कि,
शोर्यापकर्षफ - शोक के त्याग कर, रोष का ध्ाध्रम
ल्लीजिये। क्योंकि मेरें जेसे सचिव के साथ रहते आाप-शत्र
के अवश्य जोतेंगे। शुभ शकऊ्ुनों का देख सुप्रीव का हषित
होना ।
तीसरा से १२-१९
छुग्नीव की बातें छुत श्रीरामचन्द्र जी का हचुमान
जी से लड्ढा के विषय में प्रेक्ष | उत्तर में हथुमान-जी का
लड्ढाग का विस्तार से चेणन करना । साथ ही उत्साह बढ़ाने
( ४३ )
के लिये यह भी कहना कि, अड्भदादि वानर लड्ढा के
तदस नहस कर इडालेंगे। प्यतः सेना के युद्धयात्रा के
लिये शीघ्र आज्ञा दो ज्ञाय |
चौथा सगे २०-४७
छुप्नीव के प्रति श्रीरामचन्द्र जी का यद कथन कि,
युद्धयात्रा के लिये अभी झुद्दते शुम है। श्रीरामचन्द्र
ज्ञी का खसैन््य लद्ढ) की शोर प्रस्यान | शुम शकह्षुनों का
देख पड़ना। सपुद्गत८ पर पहुँचना, पहाँ सैन्यशिविर
व्ही स्थापना । सप्द्न के देख इरियूथपों का विस्मित
हीना |
पाँचवाँ सगे ४७-५२
सागर के उत्तर तव्पर सेना का पड़ाव डालना |
सीता की याद् कर, लदसण के सामने क्रीरामचन्द्र का
शोकविहल दे पिज्ञाप करना। छक््मण जी के धीरज्ञ
वधाने पर धोरामचन्द्र जी का सन्व्योपासन फरनो |
छठवाँ सर्ग ३-५७
लड़ा में हच्चमाव जी द्वारा किये हुए उपद्ववों के
देख, रावण की, राक्षसों के प्रति उक्ति.।
सातवाँ सर्ग-
रावण के वल पराक्रम की प्रशंसा करते हुए राक्तसों
का उसके घीरज पेंधान। | इन्द्रजीत का प्रताप वर्णन ।
आठवाँ सर्ग ५७-६७
राचण-के सामने- प्रहस्त, दु्ुंख, वज्धदृप्ट्, निकुस्म,
चन्नदनु का धपने अपले वलदीय की डगे दहांकना ।
( ह३)
नवाँ सगे ६८-७३
वत्त के घहड्भार में अकड़े हुए उन राक्षस सरदारों
के रोफ कर, विभीषण का रावण के यह समक्ताना कि
सीता जी, धीरामचन्द्र जी को ज्ोठा दी जाय | विभीषण
की वात सुन रायण का सरदारों को विदा कर, राजमदज
में ज्ञाना।
दसवाँ सगे । “४. ७३-८०
रावण के राजभवन में विभीषण का प्रवेश | वहां
पर पेदध्वनि का खुन पड़ना | विभीषण का रावण के
समम्ताना बुकाना झभोर वततल्ाना कि, जब से सीता
ल्ड्डा में आयी है; तव से बड़े बड़े ध्रशुभ शकुन देख पड़ते
हैं। इस पर रावण की गर्षोकि पग्रौर राचण का विभीषण
के विदा फरना |
ग्यारहवाँ सगे
राक्तसराज्ञ रावण का समागमन वर्णन । सभा-
चर्णान ।
बारहवाँ सर ९-९८
रावण की शञ्राज्षा से प्रदरुत का लड्ढ। की. रत्ता-के
लिये विशेष रूप से पहरे चोकी का प्रबन्ध करना ।-द्रबार
में रावण का सीता- जी का वर्णन कर, उनके प्रति अपना
घशनुराग प्रकढ करते हुए, द्रवारियों से कहना कि
सीता के तो में दे नहीं सकता; किन्तु राम झोर लंक्मण
किस प्रकार भारे ज्ञा सकते हैं,' इंस पर' संबं दर्रेवोरी
विचार कर पंरामश दूं ।-कामालक रर्चणं की वीते' सुने,
८०-८८
( ४3 )
कुम्भकर्ण [का ।रावण के सीतादरण सम्बन्धी रृत्य के
घन्नुचित वतल्लाना शोर कहना कि, तुम इसे अपना
सोसाग्य समझी जो तुम[श्रीरामचन्द्र ज्ञी के हाथ से जीते
ज्ञागते लोद ध्याये | अन्त में कुम्मकर्ण का यह भी कदना
कि, में तुम्हारे शत्रुओं के नष्ट करूँगा ।
पे ँ (४
तेरहवी से ९९-१ ०३
क्रुद रावण को महापाश्य का बढ़ावा देना ।
मदापाशव से रावण का स्परहस्य कहना | रायण के विषय
में पितामह ब्रह्मा जी का शाप | रावण का अपने बलचीये
की डींगे हाँकना ।
चौदहवाँ सगे १०४-१११
रावण शोर छुम्मकर्ण को बातें छुन चुकने याद
विभीषण का कथन । विभीषण का कथन सुन प्रहस्त की
उक्ति | ध्रीयामचन्द्र जी के चेभव का घखान करते हुए
विभीषण का हितपूर्ण कथन ।
पन्द्रहवाँ स्ग ११२-११६
चिसीषण की वातें सुन इन्द्र जीत का अपने वत्त
पराक्रम का वर्शन करते हुए, विभीषण के कथन का खण्डन
करना । इस पर विभीषण का भरे दरवार में इन्द्रजीत
के डॉयना झोर घमकाना |
सोलहवाँ स्ग ११७-१२३
विभीषण की वातों को न सह कर, राचण का
विभीषण की निन््दा करना ओर घिक्कारना । धधर्मी बड़े
भाई की झनसमंतवातें छुन, धपने चार मंत्री राक्तसों सहित
( * )
, , विभीषण का द्रवार से उठ कर चत्ना जाना श्रौर चलते, .
समय फिर भी रावण को हितापदेश करना ।
सत्र हवाँ स्ग १२३-१३९
अपने चार राक्षस मंत्रियों सहित विभीषण को
थ्ाया हुग्रा देख, सुत्रीव का दछुमान जी से कहना कि, ये
हम लोगों का वध करने भाये हैं ।इस पर वानरयूथपतियों
में आपस में वातचीत | खुप्रीव द्वारा विभीषण के आगमन
की सूचना श्रीरामचरद्र जी को दिया जाना भोर साथ हो
रावण का भाई होने के कारण विभोषण पर विश्वास न
फरने की ध्यपनी सम्पति भी प्रक८ करना। तद्ननन््तर एक
एक फर, अड्डद, शरभ, जास्ववान् ओर मैन्द् का ओरम-
चन्द्र ज्ञी के सामने प्रपना यह मत प्रकट करना कि,
चिभीषण फी परीकत्ता ली जाय | हृसुमान जी का विभीषण
के मिला लेने योग्य वतलाते हुए, विभीषण के विश्वरुत
बतलाना ।
आठारहवाँ सग ' १३९-१४८
, अन्त में श्रीरामचर्द्र जी का प्मपना मत प्रकट करते
हुए यह कददना कि, जब बह मिन्नता करने आया है; तब
में उसे किसी प्रश्ार भी नहीं त्याग सकता | इस पर
सुप्रीव और भीरामचन्द्र जी में कथोपकथन । पंब्त में
श्रीरामचन्द्र जी का सुत्रीच से यदद कहना कि, “ है
, दृश्श्रिष्ठ | मैंने उसे ध्रभय कर दिया, व तुम विभीषण के
आथवा वह ( विमीषण रुपधारी ) रावण ही क्यों न हों,
मेरे सामने लिवालाशो। ” खुत्रीव का श्रीरामचन्द्र जी
की वात मान ल्लेना ; विभीषण का भ्रीरामचन्द्र जी से
समागम | - |
हर
ल्ध
करी
उन्नीसवाँ सर्ग १४८-१५८
'विसीषण का धीरामचन्दर जी के चरण पकड़. रण
दारा अपने अपमानित किये जाने की दात कहना।
विसीषण पर विश्वास फकर श्रीरामचन्द्र झो का उनसे
रात्लों के वल्तावल के सम्बन्ध में प्रश्न करना ओर
विसीदणा कहा इस पघश्च का यधार्थ उत्तर देना । विभीश्ण
के मुख से साय हाल छुन, क्रौरामचन्द्र जी का प्रतिज्ञा
करना ओर राजत्र्सों के वध में श्रीराम के सहायता देने
की प्रतिज्ञा विभीषण द्वारा किया ज्ञादा। विभीषण का
राज्यामिषेक । सपुद्र पार होने के चिपय में खुझोउ का
विभीषण से प्रश्त | उत्तर में विसीषण का यह सह्यह
देता कि, श्रीरामचन्द्र जी समुद्र क्री शरणायति ऋकरें।
छुप्नीव के मुझ से यद दात छुन, अोरामचन्द्र, लकद्मण
झोर सुत्रीच की आझालोचना प्रत्यालोचना । अन्त में ऋश
विद्या, श्रीयमचन्द्र जी का समुद्र के सामसे वैदना
वौसवाँ सगे १७८-१६७
रावण के भेजे शांइल नामझह जादस हा रुमप्नीच के
सैन्यशिविर में आयमन झोर लोट कर रादण से दानर
सैन्य का दर्णच । इस पर रावण का छुक नामक दूसरे
शघचर के। भेजना झुक का पकद्ठा ज्ञाना पर वानरों
द्वारा सताये जाने पर शुक्र का शीरामचन्द्र जी की दुद्ाई
देना । इस पर शअ्लीरामचन्द्र जी का शुक्त को बानरों के
अत्याचार से छुड़चाना । छुम्ीव का शुक्र के द्वारा राचण
के पास संदेस मिजवाना |
( ७)
इककीसवाँ सगे १६७--१७५
समुद्रततद पर तीन दिन तक भ्रीरामचन्द्र जी का दू्भे
बिक्ता कर पड़ा रहना। तिश्न पर भी जब सपुद्र के
श्रधिष्ठाता देवता का प्रत्यक्ष न होना, तब श्रीरामचन्द्र जो
का क्रुद्ध होना भोर समुद्र सोघने के लिये ल्त्मण जी से
घनुषवाण माँगवा ओर घतुष पर वाण चढ़ाना।
ध्राकाशध्यित महषियों का चिल्ला कर " ऐसा मत करो
ऐसा मत करो,” कहना ।
बाइसवाँ सर्ग १७६-१९५
सप्तुद्र के अधिष्ठात देवता का प्रकट होना झौर
ज्ञमां प्राथना करते हुए श्रमोघ बाण को तडवर्ती स्थान
विशेष पर छोड़ने की प्रार्था करना घोर नल्लनील्ल द्वारा
पुत बाँधने के लिये कहना । तद्नुसार पुल्ल का बाँधा
ज्ञाना । पुल तैयार होने पर ससैन्य श्रीरामचन्द्र जी का
सप्तुद्र के पार होना ।
तेइसवाँ सगे - १९६-१९९
श्रीरामजी का शुभ शकुन दोते देख लद्मण जी से
वार्तालाप करके लड्ढा की शोर गमन ।
चौबीसवाँ सगे २१००-२१ ०
लड्ुग में पहुँच चानरों का सिहगर्जन । श्रीराम जी
का लडग को देख सीता ज्ञी का स्मरण करना। श्रीराम
की थ्ाज्ञा से सेना का यथास्थान स्थापन | श्रीरामचन्द्र
जी की श्ाज्ञा से शुक का- छूटना ओर रावण के पास
जाना। रावण झौर शुक की बातचीत | बातचीत में
राचण की गर्वोक्ति ।
पचीसवाँ 'सर्ग २१०-२१८
शओरामद्क्ष का पूरा पूरा वृचान्त जानने के अभिभाय
से रायण द्वारा शुक सारण का भेजा जाना | शुक्र सारण
के। पकड़ कर विसीषण का भ्रीरामचन्द्र जी के सम्मुख
उपष्यित करना | श्रीराम जी का शुक्र सारण द्वारा
रावण के लिये फठोर शब्दों से पूर्ण संदेसा भेजना । झुक
सारण का लड्डा में ज्ञा रावण से अपना चृत्तान्त कहना !
छत्बीसवाँ सर्ग २१८-२२९
सारण के वचन सुन, राचण का ऊव्पर्टांग चकना
शोर घानरी सेना देखने के उसका स्वयं अपने महल की
अटारी की छत्तपर जाना | शुक सारण से वर्दा जा पूँछना
कि, वतलाओ इस वानर सैन्य में नामी शुर घोर फोन कौन
हैं? उत्तर में शुक सारण का चानर वीरों का परिचय
देना ।
सत्ताइसवाँ सर्ग २२९--२४०
सारण द्वारा रावण के वानर सैन्य का परिच्रय ।
अद्ठाइसवाँ सगे २४०-२५०
रावण की शुक्र द्वारा चानरी सेना का परिचय |
उन्तीसवाँ सगे २५०-२५५७
शुक्र सारण द्वारा चानर यूथपतियों के बल पराक्रम
को बड़ाई खुन ओर भरोराम लक््मण दवं विभीषण के देख
कर, रावण का क्रुद्ध देना ओर उस क्रोचावेश में शुक
सारण की भत्संना करना | तद्नन्तर महेंद्र को दूखरे
ग्रुप्तचर भेजने की राषण की थाज्ञा। शुप्तचरों का जाना
झोर विभीपण द्वारा पहिचाने जाऋूर, वानरों द्वारा उनकी
( ६ )
दुर्गति' किया ज्ञाना | तद्ननन््तर किसी प्रकार छूट फर
गुप्तचरों का पुनः लड्। में पहुँचना ।
तीसवाँ सम '.. श५८-१६५
जाघूसों का रावण से श्रीरामचन्द्र जी की सेना का
वर्णन । रावण और शादृल की वातचीत ।
इकतीसवाँ सर्ग २६६--२७६
। श्रीरामचन्द्र जी की सेना का महत्व खुन रावण
का उद्विप्त द्वाना | मंत्रियों के साथ रावण का परामर्श ।
धीरामचन्द्र जी का बनावटी कटा सिर शोर घत्धप
पिद्यज्ञिह्द रात्तस द्वारा बनवा, रावण का सीता जी के
समीप गमन श्रौर कटा सिर घोर धत्ठष सीता जी के
दिखाना ।
वत्तीसवाँ सगे २७६-२८ ६
ठीक भ्रीराभचन्द्र नी जेसा कठा सिर देख भ्रीराम-
चन्द्र ज्ञी के लिये सीता जी का चविल्ञाप करना और मरने
के तैयार दाना । इतने में मंत्रियों का संदेखा पा रावण का
चहाँ से चला ज्ञाना। कटे सिर शयोर धद्ठुष का
' ध्न्तर्धान दिना | रादण की श्ाक्षा से रणभेरी का
वजाया जाना झौर युद्ध के लिये सैनिकों का तैयार
द्वीना ।
तेतीसवाँ स्ग । २८६-२९५
शोकातुर सीता को सरमभा द्वारा धीरज वंधाया
जाना | ।
( १० )
चोंतीसवाँ सगे २९०-३०२
यथा चूचान्त जानने को सीता का सरमा नामक
शैली के! रावण की सभा में भेजना | सरमा का लोट
कर सीता जी से वास्तविक परिस्यिति कहना । इतने में
चानर यीरों का सिहनाद खुन पड़ना ।
पैंतीसवाँ सगे ३०२--३११
माल्यत्रान के छवारा (जे! रावण का नाना था, )
दरवार में सदण के समझाया जाना कि, श्रीरामचन्द्र जी
के साथ सन्धि ऋर ली ज्ञाय ।
छत्तीसवाँ सग ३११--३१६
माल्यशान का कथन खुन, रावण का ध्यपने वत्त
पराक्रम की डॉगे हाँकना | लद्भः की रक्षा के लिये रावण
का सेना का स्थान स्थान पर नियुक्त करना।
सेतीसवाँ सर्ग ३१६-३१श५
श्रीयमचन्द्र के शिविर में सैनिक घीरों की परामशे-
समिति की वैदकू । विभीषण का अपने मंत्रियों से पता
पाकर, क्लड़ुग में रावण की सैनिक्त दैयारी की छूचना
श्रीरामचन्द्र जी के देवा |
विभीषण के मुख से लझ्भा की सैन्य व्यवस्था का
चुचान्त सुन, श्रीयमचच्ध जी का वानससैन्य का घिधान |
अड़तीसवाँ सगे ३२५-३२९
श्रोरामचन्द्र जी का छुवेल पर्वत-शिक्षर पर चढ़,
चानरयूथपतियों सद्दित लड्ढय निरीक्षण ।
( १५१ )
उनतांलीसवाँ सर्ग ३३०-२३६
लड्ढा के वन्त उपवर्नों का वर्णन ।
चालौसवाँ सगे ३३६-३४४
भिकूटशिखर पर बसी लड्ढा को देखते समय लड्ढा
'" के गोपुर पर रावण के खड़ा देख, सुप्रीव का उछल कर
व्दाँ ज्ञाना | सु्रीव भोर रावण को फड़ाकड़ी की बात
, चीत द्वोते, द्वोते दोनों में हाथापाई होना । रावण के कपट
चाल चलते देख, सुश्रीव का कूद कर पुनः ध्पने शिविर
में लौट पाना ।
इकतालीसवाँ सर्ग ३४५-३१६६
श्रीरामचन्द्र और छुम्मीव का संवाद। कक्मण शोर
श्रीरामचन्द्र जी की वातचोत खुफेन्त पर्वत से श्रीरामचन्द्र
जी का नीचे उतरना । श्रीरामचन्द्र ओर लक्ष्मण का लड्ढा
पुरो की ओर गमन | वानरसैन्य द्वारा लड्ढा का चारों भर
से अयरोध। राजधर्मातुसार श्रीरामचन्द्र जी का दुत वना
कर, अडुद के रावण के पास भेजना । रावण शोर अक्ुद
की वातचीत | रावण का भ्रह्द् का पकड़ने को श्राज्ञा
देना । पकड़ने वाज़े रक्तखों सहित अज्भद का झ्राकाश को
थ्रोर उच्तलना, राक्षसों का भूमि पर गिरना | राजमददल, के
शिखर का टूट कर गिरना । अड्भद का भ्रीरामचन्द्र जी के
पास लौद जाना। लड्ढा को पानरसैन्य द्वारा ध्मवस्द्
देख, ल्द्भावाधी राक्तसों का भयभीत दी, कोलाइल
सचाना |
( हैर )
बयालीसदाँ सगे . ३६६-३१७६
बानरों छवारा लड्य का भअवरोध किया गया है, इस
बात की सुचना राक्त्सों द्वरा राचण के मिलना | भ्रीराम-
चन्द्र का -लड़ुग के देख, सीता का स्मरण दा आना
कौर राचसों के वध की धानरों के श्माक्षा देना। चानर
झोर राह्सों की लड़ाई ।
तेतालीसवाँ सर्ग . ३७७-३१८७
चानर ओर राक्तसों का युद्ध ।
चौवालीसवाँ सर्ग ३८७-३९६
छुर्यास्व काल । रात में वानरों और राक्त्सों के युद्ध
का चर्णन। इन्द्रज्ञित्पराजय | कपर् युद्ध कर इन्द्रजीत
द्वारा:अआऔराम लक्ष्मण का शर्रों द्वारा वन््धन ।
पैतालीसवाँ सर्ग ३९६-४०२
इन्द्रजीत का पता लगाने के श्रीराम ज्ञी का
वानरयूथपतियों को भेजना | इन्द्रजीत का वाणों द्वारा
उनके राकता । मर्मघिद्ध होने से श्रीरामचन्द्र शोर लद्मण
का भूमि पर गिर पड़ना | उनके भूमि पर गिरा हुआ देख
चानरों का दुध्खी देना ।
छियालीसवाँ सगे ४०२-४१२
उुम्मीव ओर चिसीषण का वहाँ ज्ञाना || श्रीरामचन्द्र
जी के भूमिशायी देशे पर इन्द्रज्ञीत की गर्वोक्ति। समस्त
चानरयूथपतियों के इन्द्रजीव को घायल कर के लड्डा सें
प्रवेश । विभीषण का सुत्नीय के घीरज़ बँधाना | इन्द-
जीत के सकुशल्न देख झौर उसके घुज से श्रीरामचन्द्रादि
का भूशायी दे।ना खुन, रावण का झानन्द मनाना ।
( ९३ )
सेतालीसवाँ सर्ग ४१३-४१८
चानरश्रेंप्ठों हरा धीरामचन्द्र जी फी रखवाली किया
जाना। सीता को पहरेदारिन शसात्तिततों के रावण फी
पापा । राक्तसियों द्वारा सीता का, घायल पड़े ध्रीरामचन्द्र
झोर लद्मण का दिखाया जाता। दोनों भादयों को भूमि
पर ध्रत्नेत अवस्या में पड़े रेत, सीता का दुःखी हो घेर
, बविलाप करना ।
अहृतालीसवाँ सर्ग ४१८-४२६
सीता विल्लाप । तिज्ञटा द्वारा सीता के सानवना-
प्रदान | सता का प्रशेकचन में पुनः गमन ।
उननचासवा संग ४२७-४३३
श्रीरामचन्द्र जी का सचेत द्वोना | लक्ष्मण के लिये
धीरामचन्द्र ज्ञी का शोकान्चित दाना । श्रीरामचन्द्र ज्ञी का
शोकान्वित देख धानरों का रोना । इतने में विभीषण का
चहाँ ध्याना | ॥
पचासवों सम ४३४-४४८
सुग्रीव ग्रौर प्रददुदू की वातचीत। श्रीरामचन्द्र कोर
.लद्मण फी दशा देख विभीपण का हुःखी होना। खुप्रीय
के विभीषण का प्रोत्सादित करना | खुषेण।के प्रति सुश्ीव
का कथन | खुपेण की उक्ति| इतने;में गरड़ जो का चहाँ
शाना | गरढ़ जी का श्रीराम लक्ष्मण फो स्पर्श करना । गरुड़
जी के छूते दी शरकूपी सर्पो का भाग जाना शोर श्रीराम
लक्ष्मण का पूर्वचत् स्वप्य दी जाना | गरड़ और ओऔराम
जी में।वातचीत । श्रीराम ज्ञी के छाती से लगा, भरुड़
ज्ञी का प्रस्यान | श्रीराम जी तथा लद्मण जी को पूर्वंचत्
देख, घानरों का हर्पनाद |
( ९४ )
इक्यावनंवाँ सगे ४४८-४५६
वानरों का हर्षनाद सुन रावण का शह्लित द्वोना
ध्यौर यथार्थ चृत्तान्त ज्ञानने के लिये कई एक शक्तसों के
लंड के परकाटे पर चढ़ाना। श्रोराम जी फे स्वस्थ हो
ज्ञाने का दचान्त छुन, रावण का धुूम्राज्ञ के एक बड़ी
सेना के साथ वानरों से युद्ध करने के लिये जाने की
घ्याज्ञा देना ।
वावनवाँ सगे ४५६-४६४
वानरों ओर राक्षसों का युद्ध वर्णन | एक गिरिश्टडु'
से हचुमान जी के द्वाथ से धुप्नात्त का चध |
त्रेपनवाँ सगे ४६५-४७१
धूप्राज्ष के मारे जाने का च्त्तान्त सुन, रावण का चज्ञ-
दूंप़ का युद्धयुमि में भेजना | उसके साथ चानरों का युद्ध ।
चौवनवाँ सर्ग ४७२-४८०
वानर घोर राक्तसों का युद्ध । अद्भुद के खद्दप्रहार
से वच्चदंप्र का मारा जाना |
पचपनवाँ सर्ग ४८०-४८७
चज्नदुप्र के मारे जाने का समाचार पाकर, रावण का
प्रदत्त के लड़ने के लिये भेजना । उसके साथ वानरों फा
युद्ध । इस युद्ध में खेल ही खेन्न में वानरों द्वारा रासत्तों
का मारा जाना।
उप्पनवाँ सर्ग ४८७-४९६
अकग्पन के साथ वानरों का युद्ध । ध्यकस्पन
वध । *
( ९१४ )
सत्तावनवाँ सर्ग ४९७-५०७
प्रकम्पन के वध से चक्रित राषण का सचियों के
» साथ अपने शुदुमों का निरीक्षण, सेना के साथ प्रदृस्त का
समरभूमि में प्रवेश ।
अद्मवनवाँ सगे ५०७-५१०
प्रदसत को देख रावण का विभीषण से पूँछना कि,
यह कौन है ? प्रहरुत के वत्तपोरुष का परिचय दे, विभीषण
का कहना कि, यह रावण का सेनापति है | प्रदरुत के साथ
चानरों की लड़ाई | वानरसेनापति नील के हाथ से प्रहरुत
का धराशायो हीना |
उनसठवाँ सगे । ५२१-५६२
प्रहस्त के मारे जञानेईपर रावण का शोकान्वित श्योर
कुपित द्वोना । लड़ने के लिये रावण का स्प्रयं लड्ढग से
निकलना | राक्तसी सेना के विषय में श्रीराम जी का
विंभीषण,से प्रश्न । विभीषण का राक्षस सेनापतियों का.
प्रभाव वर्शंन | समर भूमि में राक्षसेश्वर कों देख धीराम
जी का चिस्मित दाना | रावण के साथ सुश्रीच क युद्ध |
युद्ध में सुत्रीव का बेदाश होना । रावण शोर हनुमान का
युद्ध । दृघुमान की मार से रावण का छुब्ध होना | नील
के साथ, रावण का युद्ध] नील का भूमि पर गिरना ।
लक्ष्मण के साथ रावण की लड़ाई। रावण की फेंकी शक्ति
“ 'का लक्ष्मण की छाती में ज्गनना भौर उससे लक्ष्मण 'जॉं ''
का मूच्छित:द्वौना | फ्रोधः में भर दनुमान जी का /राचण को
छाती में घूसा मारना, जिससे रावण का:मूच्छित' हा धरा:
( ९६ )
शायी दे जाना । श्रीधम और रावण का युद्ध । राचण का
पराजय। / में अ्रमी तुझे जान से न मादूँगा.” कद कर,
प्रीयम जी का रावण के जड्ढ। में जाने की अम्ुमति
देता ।
साठवाँ सगे ७५६२-५८ ६
श्रीराम जी के वाणों की मार से #्रस्त रावण का
लड़ में ज्ञाकर मंत्रियों के वीच बैठ श्रीराम जी के पराक्रम
का वर्णन करना। " मनुष्यों से तुक्के डर है ” ब्रह्मा जी
की इस वात का रावण का स्मरण होना | साथ ही राजा
कनरणय झोर वेदवती के शाप को भी स्मरण दे आना ।
कुम्मकर्ण की जगाने के लिये रावण द्वारा शज्ष्सों के
थ्राज्ञा दिया ज्ञाना । कुम्मकर्ण को महानिद्रा का चर्णन ।
कुम्मकर्ण का आगना । जगाये जाने का कारण खुन कुम्स-
कर्ण की उक्ति। रावण से मित्रने के लिये कुम्मरूणें का
इस भवन में जाता ।
इकसठवाँ सर ७५८७-५९ ६
५ कुम्मकर्ण के देख श्रीराम जी का विसीषण से
पूँछना;कि, यद्द कोन है ? विभीषण द्वारा श्रीरामचन्द्र जो
के सामने कुम्मकर्ण की महिमा का वर्णन । कुम्मकर्ण के
देख बानरों का भागता। सेनापति नील की चानर व्यूह
की रचना के लिये धीरामचन्द्र जी द्वारा घ्राज्ञाप्रदान ।
वासठवाँ संग ५५९६--६०२
कुस्मकर्ण का रावणमवन में प्रवेश। कुस्तकर्ण ओर
शवण की वातचीत |
बी
( १७ )
त्रेसठवाँ सगे “"६०२-६१५
रावण के दोष दिखलाने पर रावण द्वारा कुम्मकर्ण
का फरकारा जाना | तव कुम्भकर्ण का, श्रीयम का वध
करने प्रोर चानरों के! खा जाने का वीड़ा उठाना ।
चोसठवाँ सगे ह ६१६-६२४
कुम्मकर्ण पश्योर मद्दोरर का संवाद । महोद्र द्वारा
श्रोगाम जी का पराक्रम चर्णान | मद्दोदर द्वारा सीता के
वश में करने का उपाय वतलाया जोना |
पेसठ्वाँ स्ग ६२५-६ ३८
कुम्मकर्ण का युद्धोत्साह | राषण के प्रयाम कर
कुम्मकर्ण का समरभूमि की घोर प्रस्थान ।
छियासठवाँ सर्ग ६३८-६४६
' कम्मऋण्ण के देख वानरों का भागना। भागे हुए
वानरों को भ्रड़दर का रोकना ओर लौदाना।
सरसठवाँ सर्ग .. ६४७-६९५
कुम्मकर्ण श्रोर वानरों का युद्ध । सुम्रीव द्वारा
कम्सकर्ण के कर्ण ओर -नासिका का छेदन । लक्ष्मण की
अवज्ञा कर कम्मकर्णा का श्रीयम जी के साथ हड़ने को
थागे बढ़ना | श्रीरामचन्र जी के बाणों से कम्भकण का
मारा जाना और कुम्भकए्ण को मरा देख, पवानरों का
घत्यन्त प्रसन्न हीना |
॥ इति ॥
(०. ही
॥ श्री/
श्रोमद्रामायणपारावैणों केले:
[नोट--सनातन धर्म है अन्तर्गत जिन वैदिकसम्पओों-में श्रीमद्रामायण
का पारायण द्वोवा है, उन्हीं सम्प्रदायों! के अतुसार उपक्रम और सर्मोपत कम
प्रत्येक खण्ड के भादि भौर अन्त में ऋमशः दे दिये गये हैं । |
गैवे
श्रीवष्णवसम्पदाय;
“०.
कूजन्तं राम रामेति मधुर मधुरात्तरम् ।
आरुह्म कविवाशा्ां पन््दे वाद्मीकिकीकि तम् ॥ १ ॥
वाह्मीकिसुनिर्धिहस्थ कवितावनचारिण: |
शरावन्रम रथानादं का न याति पर्स गतिमू ॥ २ ॥
य। पिवन्सततं रामचरिता मृतसागरम् ।
, झतृप्तस्तं मुनि वन््दे प्राचेतसमकब्मषत्त् ॥ हे ॥
गेष्पदीकृतवारोश मशकीकृतराक्त घम् ।
रामायणमहामालत्रारल्न॑ वन्दें*नित्ञाव्मजम् ॥ ४ |
अज्जनानन्दनं वोरं जान क्ीशोकनाशनम् ।
कपीशमत्तहन्तारं बन्दे लड्भगभयडुरम् ॥ ४ ॥
मनेजधं मारुततुल्यवेग्ग
नितेन्द्रियं दुद्धिम्ता वारिष्ठम् ।
चातात्मजं वानरयूथप्ुख्य
श्रीरामदूतं शिरसा नमामि ॥ ६ ॥
( ४)
सिन्धी) सलिलं सलोलं
४» “यः शाकवहि,ज्ञनकात्मजञायाः ।
' श्राद्य तेनेव ददाद लड्डुां
नप्तामि तं प्राज्ललिशाइनेयम् ॥ ७ ॥
प्राश्ननेयमतिपाठलानद॑
काश्चनाद्विकमनीयविश्नहम् ।
पारिक्षाततरुमूलवासिन
भावयाम्रि पदमाननन्दनम् || ८ ॥
यत्न यत्र रघुनाथकीतंन
तन्न तन्न रृतमस्तक खलिम |
वण्पदारिपरिपुर्णत्तेचर्च॑
मारुति नमत याक्तसान्तकम ॥
पेदवेचे परे पुंसि ज्ञाते द्शरथात्मजे |
घेदः प्राचेतसादासीत्साज्ञाद्रामायणाक्रना ॥ १० ॥
तदुपगतसमाससन्धियार्ग
सममछुरोपनता्थंवाक्य बद्धम् ।
ख्युपरचरितं घुनिप्रणीतं
दुशशिरसखश्य घर्ध निशामयघ्वम् ॥ ११ ॥
ध्रीराघव दशरधात्मजममग्रमेय॑
सीतापति रघुकुलान्वयलदोपम ।
धाजानुवाइमरविन्ददत्नायतात्ते
राम निशावचरविनाशकरं नमामि ॥ १२॥
चैदेंद्ीसदित सुरद्रुमतत्े हेमे महामगडपे
मध्येपुष्पफमासने मणिमये चोरासने खुश्यितम् ।
( ३)
घत्ने घांचयति प्रभश्चनझुते. वर्य॑ घुनिभ्यः पर
व्याख्यान्तं भरतादिभिः परिवूत राम॑ भजे श्यामत्षमु ॥१३॥
“8-०
साध्वसम्पदाय;
शुक्ाम्घरधरं विष्णु शशिवर्ण चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नचदनं ध्यायेत्सवंधिष्नोपशान्तये ॥ १ ||
लक्ष्मीनारायणं बन्दे तह्नक्तप्रवरा हि य४।
धोमदानन्द्तोीर्थाख्यो शुरुस्त व नम्राम्यहम' ॥ २॥
घेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा' |
झादावन्ते च मध्ये च विध्णाः सर्वंन्त गीयते ॥ ३ ॥
सर्वविध्यप्रशमनं स्बंसिद्धिकरं परम ।
सर्वेज्ञीवप्रणेतारं बन्दे विज्ञयदं हरिम् ॥ ४ ॥|
सर्वाीश्प्रदूं यम॑ सर्वारिएनिवारकम ।
जानकीजानिमनिशं बन्दे मद्सुरपन्द्तम॥ ५ ॥
घद्भमं भडुरहितमजर् विमले सदा ।
घानन्दवीर्थमतुर्ल मजे वापन्रयापहम् ॥ ६ ॥
भवाति यद्ठुसावादेडसूझा5पि वास्मी
अडभतिरविं जन््तुर्जायते प्राज्षमोलि: ।
सकल्षवचनचेतादेिवता भारती सा '
मम वचसि विधर्ता सब्रिधि मानसे वे ॥ ७ ॥
मिथ्याप्तिद्धान्तदु््धान्तविध्वंसनविचत्तणः ।
जयवीर्धाख्यतरणिभा पर्ता नो दृदसखरे ॥ ५ ॥ी
( 8 )
चिछेः पदैश्च गम्भीरेर्वाक्यैर्मानेरखणिडतेः ।
शुरुभाष॑ व्यज्षयन्ती भाति थ्रीजयतीर्थवाकू॥ ६ ॥
फूजन्तं राम रामेति मधुर मचुरातलम |
झारह्म कविताशाखां बन्द चात्मीकिकाकिलम् ॥ १० ॥
वात्मीफरेस्ुनिसिहस्थ कवितावनचारिणः ।
शयवन्यमकथानाद के न याति परां गतिम ॥ ११
प। पिवन््सतत रामचरितासुतसागरस् |
असृपतर्त घुर्नि बन््दे प्राचेतलमकद्मघम ॥ १२ ॥
गेष्पदीकृतवारीश मशकोकृतराक्षस«
: शमायणमहासालारत्न उन्देंइनित्ात्मज्मम् ॥ १३ 0
घब्जमानन्दनं वीर जानकीशोकनाशनम ।
कपीशमन्नहन्तार पन्दे लद्भाभयछुरस ॥ १४॥
मनेजव॑ माउ्तततुल्यवेगे
जितेन्द्रियं चुद्धिमर्ता चरिएम्
चाताकार्ज वानरथयूथप्तुरूय॑
श्रीरामदूतशरसा नमामि ॥ १४ ॥
उछड्ठय सिन्धोः सलिलं सलीलं॑
यश शोकवहि जनकात्यज्ञाया३ |
थ्ादाय तेनैव द्दाह लड़ा
नमामि तं प्राश्ज्ञराह्ननेयम ॥ १६ ॥
'प्रानेयमतिपावलानन
' काश्चनाद्रिकमनीयविग्नदहप् ।:
(४ )
पारिजाततरुसूलवा सिन॑
भावया सि पवमाननन्द्नम ॥ १७ |
यत्र यञ्न रघुनाथकीतंन॑
तन्न तन्न कृतमस्तकाञ्नलिम् |
वाष्पवारिपरिपूर्ण लाचन
मारुति नमत राक्षसान्तकम्॥ १८ ॥|
वेद्वेधे परे पुंसि ज्ञाते दृशस्थाक्मजे ।
चेद्3 प्राचेतलादासीत्सात्नाद्रामायणात्मना ॥ १६ ॥
ज्रापदामपद्दर्तार दातारं सर्वंसम्पदाम्।
लोकामिरामं श्रीयर भूये। भूयो नमाम्यहम् ॥ २े० ॥
तदुपगतसमाससन्धियेग
सममधुरापनताथवाक्यवद्धम् |
रघुवरचरितं प्ुनिप्रणीतं
दृशशिरसश्च वध निशामयध्वम् ॥ २१ ॥
वेदेद्दीसहित॑ खुरदुमतले हैमे मद्ामण्डपे
मध्ये पुष्पकमा सने मणिमये वीरासने छुस्थितम् ।
धझग्रे वाचयति प्रभमश्नचखुते तत््व॑ मुनिभ्यः पर
व्याख्यान्तं भरतादिभिः परिव्वतं राम॑ भजे श्यामलम ॥२२॥
वन्दे पन््य॑ विधिभवमहेन्द्रादिदृन््दारकेन्द्रे
व्यक॑ व्याप्त खवगुणगणतो देशतः फालतश्च ।
घूतावर्य सुस्रचितिमयेमंडलेयक्तमड़े:
सानांथ्य ने विद्धद्धिक ब्रह्म नाराययाख्यम ॥३३॥
भूषारत्नं भुवधनवलयस्यथाखिलाएचर्यरत्नं
'। ज्ीलांखनं जलधिदुद्ितुदेववामोलिरलम।
( ६ )
उचन्तारत्न॑ जगति भज्नतां सत्सरोजयुरत्न॑
फौसल्याया लसतु मम हन्मण्डल्े पुप्रत्षम् ॥ २७ ॥
महाव्याकरणास्मेधिमन्यमानसमन्द्रम् ।
कचयन्त रामकीर्स्या दसुमन्तम्ुुपास्मदे ॥ २४ ॥
घुख्यप्राणाय भीमाय नम यसप शुज्ञान्तरम् ।
नानावीरखुवर्णानां निकपाश्मायित वे ॥ २६ ॥
स्वान्तस्थानन्तशब्याय पूर्णक्षानमद्दाणसे ।
उत्तुड्रवाकरद्आाय मध्चदुग्धाव्धये चमः ॥ २७ ॥
चास्मीकेंगो: पुनीयाननो मद्दीघरपदाश्रया।
यद्दुग्धपुपजीवन्ति कचयस्तणेका इव ॥ २८ ॥
चूक्ति रलाकरे रस्ये सूततरामायणाणंवे ।
विहरन्ता मद्दीयांसः प्रीयन्तां गुरवों मम ॥ २६ ॥
हयग्रांव दयग्रीव दचत्रीवेति ये। चद्ेद्।
तसय निःसरते चाणो जहुकन्याप्रवाहवत् ॥ ३० ॥
तौर
रण
स्मातसमस्प्रदाय
शह्नाम्बरधरं विष्णु शशिवण चतुर्स जम ।
सन्नवदर्न ध्यायेत्सवंविष्नोपशान्तये ॥ १॥
चागीशाद्या: छुमनसः स्वार्धानात्ुपक्मे ।
ये नत्वा ऋतवझत्या: स्युस्ते नमामि गज्ञाननम ॥ २ ॥
देषिय॑क्ता चतुर्सिः स्फदिकमणिमयोमत्तमालां दूधाना
इस्वेंनेकेन पद्म सितमपि च शुर्क पुस्तक चापरेण ॥
( ७ )
भासा कुन्देग्दुशहुस्फटिकम णिनिमा भासमानांसमाना
सा में वार्इेवतेयं निवसतु बदने स्वेदा छुप्रसन्ना ॥३॥
कूजन्तं राम रामेति मधुर मधुराक्तरम ।
भआारुद्य कविताशाखां वन्दे वाब्मीकिकरेकिलम् ॥ ४ ||
पघाव्मीकेप्तुनिसिंदस्पय कवितवावनचारिणः |
प्रयवन्यमकथानादं का न याति परयां गतिस् ॥ ५ ॥
यः पिवन्सत्त रामचरितासतसागरम् ।
धतृप्तस्तं मुनि बन्दे प्राचेतसमकल्मपम् ॥ ६ ॥
गाप्पदीक्षतवारीशं मशक्लीकृतराक्षसम् ।
रामायणमहामाला रत्न वन्देषतिवात्जम् ॥ ७॥
अश्लनानन्दनं वीर ज्ञानकीशोकनशनम् |
कपीशमच्चहन्तारं वन्दे लड्डपभयड्भरम् ॥ ८॥
उल्लडुच्य सिन्धोः सलिलं सलील॑
यः शाकवर्लि ज्नकात्मज्ञायाः ।
आदाय तेनेव ददाह लड्डां
नमामि त॑ प्राशलिराअनेयम् ॥ ६ ॥|
धाञनेयमतिपाठलाननं
काइ्चनाद्विकमनीयविश्रहम् |
पारिज्नोत्तरुछूलवासिनं
भावयामि परवमाननन््द्नम् ॥ १० ॥
यन्न यत्न रघुनाथकीतन
तंत्र तत्र रृतमस्तकाञ्जलिम् |
( 5 )
वाष्पवारिपरिपूर्णलेचनं
मारुति नमत राक्षसान्तकम ॥ ११ ॥
मनेज्ञवं माउततुल्यवेर्ग
जितेदछ्धियं धुद्धिमतां वरिष्ठम् |
बाताव्मजं वानरयूथमुख्य॑
श्रीरामदूर्त शिर्सा नमामि ॥ १२ ॥
यः कर्णाश्अलिसम्पुरैरहरहः सस्पकूपिवत्याद्राद्
वाल्मीकेवेंद्नारविन्द्यल्तितं रामायणाख्यं मु ।
जन्मव्याधिज्ररातिपत्तिमस्णैरत्यन्तसेपद्ध्य
संसार स विद्याय गच्छृति पुमान्विष्णोः पद शाध्यवप्त ॥१श॥
वहुपगतसमाससन्धियेर
सममघुरोपनतार्थंवाक्थवद्धम् ।
रघुघरचरितं घुनिप्रणीर्त
दशशिरसश्च वर्ध निशामयध्चम ॥ १४ |]
घाल्मीकिगिरिसम्भूता रामसागर्गामिनो |
पुनातु झुवन पुएुया रामायणमहानदी ॥ १४ ॥
श्लोकसारसमाकी् सर्मकलछ्लोत्सड्डुलम ।
काण्डग्राहमद्यामीन चन्दे रामायणाणंव्र् ॥ १६ ॥
चेद्वेचे परे पूँस जाते दृशस्थात्मजे ।
चेदः प्राचेतसादासीत्सात्षाद्रामायणात्मना ॥ १७ ॥
चैदेद्दीलदितं छुर्दुमतले हेमे महामण्डपे
मध्येपुष्पकफमासने मणिमये दीरासने रुस्पितत ।
पे वाचयति प्रभञ्ञनछुते तत्व मतुनिभ्यः पर
व्याख्यान्दे भरतादिभिः परिदुतं राम सजे श्यामलम ॥१८॥
( ६£ )
चामे भूमिझुता पुरश्च हनुमाप्पश्चात्तुमिभ्राछुतः
शनुप्नी भरतश्च पाश्य॑द्लयेर्पाय्वादिफेणेषु थ |
जुप्नोवश्च विधोषणएच सुबराद् ताराखुते ज्ञास्ववान
मध्ये वीलसरोजकेमल्लरुचि राम भजे श्यामलम ॥११॥
नमे$स्तु रामाद सलक्मणाय
च तस्ये जनकाधयजाये ।
नमोस्तु उद्रेन्द्रयमानिद्ेभ्यो
' नमो5स्तु चत्दाकमरुद्गणेभ्यः ॥ २०॥
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श्रुत्वा इसुमतों वाक्य यथावदनुभापितसू ।
रामः प्रीतिसमायुक्तों वाक्यमुत्त रम ब्रवीत् | १ ॥
हनुमान जी द्वारा ययावत् कहे हुए चबन सुन, श्रोरशम चन्ध ज
अत्यन्त प्रसक्ष हुए ओर प्रिय संवाद खुनने के अ्रनन्तर सम्रयोचित
यह बचन बोले ॥ १॥
कृतं हनुमता काय सुमहद्धवि दुष्करस |
मेनसा5पि यदन्येन न शकयें धरणीतके | २॥
देखे, हनुमान जी ने ऐेसा वड़ा काम किया है, जिसे इस
पृथिवीतल पर ते कोई कर नहीं सकता। करना वो' ज्ाँ तहाँ,
ऐसा काम करने की इस संखार में कोई कल्पना भो नहीं कर
सकता ॥ २॥ '
न हि त॑ परिपश्यामि यस्तरेत महोद्धिस्।
अन्यत्र गरुटाद्वायेरन्यत्र च हनूमतः | हे ||
* गरुड़ जी, पवन देव और हसुमान जो को छोड़, मुझे ऐसा घोर
कीाई नहीं देख पड़ता जे| मद्दासागर के पार जा सके ॥ ३ ॥|
३ उत्तरं--प्रियश्ववरणेतत्तर काछयेस्यम् | ( रा० )
२ युद्धकाणडे
देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसामर् ।
अप्रक्ष्याँ. पुरी छड्टां रावणेन सुरक्षिताम् ॥ ४ ॥
देवता, दानव, यत्त, गन्धर्व, उरग ओर रात्तस भी जिस लड्ढा-
घुरी में नहीं पहुँच सकते, रावण द्वारा रक्तित उसी लड्भापूरी में ॥४॥
प्रविष्ठ; सत्वमाश्रित्य श्वसन्कों नाम निष्क्रमेत् ॥ ५ ॥
पहुँच, जीता हुआ चद्ाँ से कोन लोट सकता है ? ॥ £ ॥
को विशेत्सुदुराधपों राक्षसेश्व सुरक्षिताम् ।
यो वीयेबलसम्पन्नो न समः स्पाद्धनूमतः || ६ ॥
हनुमाव के समान वल्नवान और पराक्रमी महुष्य के छोड़ कर,
ऐसा कोन है जे। अकेला, डस इुर्घप नगरी में, घुस भी सके, जे
राक्षसों द्वारा खुरक्षित है ॥ ६ ॥
भृत्यकाय हजुमता सुग्रीवर्य छत महतू।
एवं विधाय खबर सहर्श विक्रमस्य च ॥| ७॥|
निमश्धय ही इस प्रकार झपने विक्रम के योग्य दत्त प्रदू्शन
कर, दनुमान जी ने खुशीव का वड़ा भारी भ्रृत्यका्य ( चाकरी )
किया है ॥ ७॥
यो हि भुत्यो नियुक्तः सन््भत्रां कर्मेणि दुष्करे |
कुयांचदनुरागेण तमाहुः पुरुषोत्तमस ॥ ८ ॥
जे। भृत्य, अपने मालिक द्वारा किसी कठिन काम के करने के
लिये नियुक्त बिये जाने पर, उस क्काम का जी लगा कर, कर डालता
है, वह सर्वोत्तम सेवक कहलाता है॥ ८॥
प्रथमः सं इ
नियुक्तो यः पर कार्य न कुर्यान्द्रपते! प्रियम् ।
0 | »
भुत्यो युक्त: सम्थश्र तमाहुमेध्यमं नरम ॥ ९ ॥
जे भ्रत्य किसी एक कार्य के लिये नियुक्त किये जाने पर, अपने
प्रभु (सजा ) के हितकर अ्रन्य कार्यों के उपस्यित होने पर,
ध्यपनी सामर्थर्यानुसार उन्हें पूरा नहीं करता, वह मध्यमश्रेणी का
सत्य है॥ ६ ॥
नियुक्तो उृपते! काये न क्ुयांचः समाहितः ।
ए!
भुत्यो युक्त; समर्यश्र तमाहुः पुरुषाधमम् ॥| १० ॥
जे भृत्य सामथ्यचान दोकर भी प्रथ्ु (राज्ञा ) द्वारा निर्विषट
"क के यत्रषपूर्षक पूरा नहीं करता, वह शअधम सेवक कहलाता
॥ १० ॥
तन्नियोगे नियुक्तेन कृत कृत्यं हनूमता ।
न,चात्मा लघुतां नीतः सुग्रीवश्चापि तोषितः ॥ ११॥
परन्तु धसुमान जो ने रोज्याक्षा में नियुक्त दाकर अपना कर्तव्य
कार्य यथावत् पूरा किया है | इनका कहीं भी नीचा नहीं देखना
पड़ा और अतः इन्होंने छुप्नीव के भी सन्तुष्ट किया है॥ ११॥
अहं च रघुवंशथ लक्ष्मणथ महावक। | '
वैदेशा दशनेनाथ 'घर्मतः परिरक्षिता; || १२॥
हनुमान जी के ज्ञानकी के देख धाने से में तथा वत्तवान '
्नद्मण तथा ध्यन्य रघुवंशियों का धर्म बच ,गया, ( अथवा दम
सव झात्मघात रूपी मदहश्मधर्म से बच गये ) ॥ १२॥
....................................>न--»न»ममननन-ननक पाना गनणए चितायाणणए।दएणण७ठ७(_कअदतीययायननननननमनमनमन न नमन नमन न न न ननकनननननननननन--«+ल33+33त+-तल-_-न म थ : ७ से े 3:3७] क्तय
१ घर्संतः परिरक्षिताः--धर्मेस्थापिताः । ( ये।० )
है.
४ युद्धकाणडे
इदं तु मम दीनस्थ मनो भूयः प्रकंति* |
है €् »
यदिहास्य प्रियाझूयातुने कुर्मि सह प्रियम् | १३॥
इस घड़ी मुझ दीन का एक वात बहुत सता रही है। वह यह
है कि, में इस प्रिय संवाद देने वाले दतुमान के इस कार्य के अशुरूप
'कुछ भी पारिताोषिक नहीं दे सकता ॥ १३ ॥
एप सर्वंखभूतस्तु परिष्वद्भो हनूमतः ।
मया कालमिम॑ प्राप्य दत्तथ्रास्तु महात्मन; ॥ १४ ॥
जे है, इस समय, मेरा यद सर्वजजदान रुप भ्आालिड्डन दी
महात्मा (महावली) हनुमान जी के कार्य के येण्य पुरस्कार दे! ॥१७॥
इत्युक्त्वा प्रीतिहृष्टाह्ली रामस्तं परिषखजे ।
हनूमन्तं महात्मान कृतकायम्ुपागतस ॥ १५॥
मदत्मा ( मदवली ) ओर काम पूरा कर के श्याये हुए हसुमान
जी से यह कद्द कर प्लोर प्रीति-पुलकित शरीर से, श्रोयमचन्द्र जी
ने हनुमान जी के अपने गत्ते लगा लिया ॥ १५ ॥|
ध्यात्वा पुनर्वाचेदं वचन रघुसत्तमः |
दे
हरीणामीश्वरस्येव सुग्रीवस्योपश्ृण्चतश ॥ १६ ॥
तद्नन्तर रघुवंशियों में श्रेष्ठ श्लरामचन्द्र जी कुछ देर तक सेच
कर, कपिराञ खुप्मीव के सामने फिए यह वचन बोले ॥ १६ ॥
(३ ० परिमाग्ग
सवंधा सुकूतं तावत्सीताया) ण्त।. |
सागर तु समासाद् घुननेष्ठं मनो मम ॥ १७ ॥
६ प्रकर्पति--ज्याकुल्यति, सन्तापयति । ( गे।० )
प्रथमः सर्गः प्र
सीता के हढ़ने का कांये यद्यपि सब प्रकार से पूरा हो चुका
है, तथापि जब में समुद्र के देखता हूँ, तव मेरा मन दतात्लाह हो
जाता है॥ १७॥
कर्थ नाम समुद्रस्य दुष्पारस्य महाम्भसः ।
: हरयो दक्षिणं पारं गमिष्यन्ति समाहिता। ॥ १८ ॥
बड़ी कठिनाई से पार ह्वाने योग्य मद्दासागर के दृक्तिण तट
पर, ये वानरगण क्यों कर जा सकेंगे ॥ १८॥
यद्यप्येप तु हत्तान्तों वेदेश्या गदितों मम |
समुद्रपारगमने हरीणां किमिवोत्तरम् ॥ १९५ ॥
यद्यपि सीता का सन्देस मुझे मिल गया, तथापि धब इसके भागे
चानरों को समुद्र पार पहुँचाने का क्या उपाय किया जाय ॥ १६॥
इत्युक्तवा शोकसंभ्रान्तो रामः शत्रुनिवर्हणः ।
हनुमन्तं महावाहुस्ततों ध्यानप्रुपागमंत् || २० ॥
इति प्रथमः सर्गः ॥
शन्रहन्ता एवं शोकसन्तप्त मद्ावाहु श्रीरामचन्ध जी दृनुमान
ज्ञी से इस प्रकार फह कर, फिर साचने लगे ॥ २०॥ «५
युद्धकाण्ट का प्रथम सर्ग पूरा हुआ |
न
दितीयः सगे;
गा * -
त॑ तु 'शोकपरियूनं राम दशरथात्मजम्र् ।
उबाच. वचन श्रीमान्सुग्रीवः शोकनाशनम् ॥ १॥
शोकसन्तप्त दशरथनन्दन शभ्रीरामचन्द्र जी से, श्रीमान छुत्नीच
ने, शोक के दूर करने वाले ये वचन कहे ॥ १॥
कि त्वं सनन््तप्यसे वीर यथाउ्न्य; प्राकृतस्तथा ।
मैवं भस्त्यन सन्तापं कृतन्न इव सोहदस ॥ २॥
दे चीर | ठुम एक कुद्र जन की तरद्द क्यों सन््तप्त होते हो।
ऐसा मत करो ओर सनन््ताप को वैसे ही छोड़ दा, जेसे कृतश्ज्ञन
मैन्नी त्याग देते हैं ॥ २॥
सन्तापस्य .च ते स्थान न हि पश्यामि राघव |
प्रत्तावुपलूव्धायाँ ज्ञाते च निलये रिपो: ॥| ३ ॥
दे राघव ! तुर्दारे सन््तप्त होते का काई कारण मुझे नहीं देख
पड़ता । क्योंकि सीना का हाल मिल गया ओर वैरी के निवास-
स्थान का सी पता चल गया ॥ ३ ॥
र्मतिमाज्णाखरवित्याज्ञ। पण्डितश्ासि राघव |
त्यजेमांभ्पापिकां बुद्धि *कृतात्मेबात्मद्षणीमर्ई || ४ ॥
१ शेकपरियूनं- शे।कपरितप्त । ( गे० ) २ सतिसान--भागामिगेचर
ज्ञानवानू । ( गे।० ) ३ शाखदित्-नीत्तिशखाज्ञः ( गे० )
४ पापिकॉ---
अनुत्साइकारिणाीम् ( गे० ) ५ छझताव्मा -याोगो | ( ये० ) ६ आत्स-
दूषणीस्--मोक्षरूपपुरुषा्थ निवर्तिका | ( गे।० )
द्वितीयः सगे: . ७
हे रघधुनन्दन ! तुम ते आगे होने वाली घठनाओं के जानने
वाले, नीतिशास्रज्ञ ओर पशिडित हो । श्रतः भाष इस अशुव्साह
कारिणी बुद्धि का वैसे ही त्याग दो, जैसे योगी लोग मेत्त में वाधा
डालने वाली बुद्धि को त्याग देते हैं ॥ ४ ॥
समुद्र लड्यित्वा तु महानक्रसमाकुलम ।
लझ्जामारोहयिष्यामो हनिष्यामश्र ते रिपरम ॥ ५॥
' है राम | हम लोग स्क बड़े मगरों से भरे हुए समुद्र को लाँध
लड्ढ! पर चढ़ जायगे ओर तुम्दारे शत्र को मार डालेंगे ॥ ५]
निरुत्साहस्य दीनस्यं शोकपर्याकुलात्मन! ।
स्वाया व्यवसीदन्ति व्यसनं झापिसच्छति ॥ ६ ॥
: देखिये, उत्साहशुन्य, दोन प्रोर शोाक्र से विक्रल मनुष्य के
समस्त कार्य नए हो जाते हैं योर इसलिये उसे बड़ा दुःख भेगना
पड़ता है ॥ ६॥
इसे शूरा! समथाश्र सर्वे नो हरियूथपाः ।
त्वत्मियार्थ कृतोत्साद्ाः प्रवेंप्दुमपि पावकम ॥ ७ ॥
ये समस्त चीर ओर समर्थ चानर यूथपति तुम्हारी प्रसन्नता के
पलिये भाग में भी कूद पड़ने के भी उत्धाहित हो रहे हैं ॥ ७॥
एपां हर्षेण जानामि तकथ्रास्ति हठो मम |
विक्रमेण समानेष्ये सीतां हत्वा यथा रिपु् ॥ ८॥
मैंने इन कामों के प्रसन्नवदून का भाव वड़ कर, इस प्रकार का
दुढ़ निश्चय किया है। में पराक्रम से शत्रशों को मार कर, सीता
की ले झाऊँगा ॥ ८॥ ह
् युद्धकायडे
+ ० ०. (६
रावण पापकर्माणं तथा त्व॑ कतुमहसि ।
सेतुरत्र यथा वध्येच्यया पश्येम ता पुरीस ॥ ९ |
तुम भी ऐसा करे ज्ञिससे समुद्र पर पुल बाँधा जाय श्रौर
जिससे दम लड्डढा में पहुँच उस पापी रावण को देख लें ॥ ६ ॥
तस्य राक्षसराजस्य तथा त्वं छुरु राधव |
हृष्ठा तां तु परी लड्ढां त्रिकुटशिखरे स्थिताम ॥ १० ॥|
है राधव ! छुम ऐसा करे जिससे विक्ृत्पंत के शिखर पर
बसी हुईं उस राक्षसराज़ की लड्ढा हम देख सके ॥ १० ॥
हत॑ च रावण युद्धे दशनाहुपधारय ।
अवड्धा सागरे सेतुं घोरे तु वरुणालये ॥ ११॥
जहाँ हमने लड़ा देखी धहाँ तुम रावण का मरा ही समस्त.
लेना । उस घोर वरुणालय समुद्र पर पुल वघि बिना तो ॥ ११॥
लट्टा नो मर्दितं शक्या सेन्द्रेरपि सुरासुरे
सेतुवंद्धः समुद्र च यावक्तड्आडासमीपतः ॥ १२॥
इन्द्र सहित देवताश्ों घथवा दैत्यों के लिये मी लड्ढा में पहुँचना
असम्मच है। वस लझुग तक पुल्त वंधने ही की देर है। पुल
चंघते॥ १२॥
सबे तौण च मे सेन्यं जितमित्युपधायताम |
इसे हि समरा शूरा हरय। कामरूपिणः ॥| १३ ॥
ही, मेरी सेना ते तुरन्त ही पार हो जायगी और ज्ञव सेना पार
दोगयी, तव अपनी जीत भी -निस्सन्देंद ही समस्त लेनी चाहिये ॥
द्वितीयः सगेः 8.
ये सब वानर युद्ध में बड़े शुर भौर इच्छानुसार रुप धारण करने
वाले हैं ॥ १३॥
शक्ता लड्ढां समानेतुं समुत्पाट्य सराक्षसाम् ।
तदलं विकुवा बुद्धी राजन्सवाधनाशिनी ॥ १४ ॥
है राजन ! इन वानरों में इतनी सामर्थ्य है कि, ये लोग राक्तसों
सहित लड्ढा के उखाड़ कर यहाँ उठा ला सकते हैं। श्रतए्व तुम
समस्त ध्थों को नाश करने वालों कादर बुद्धि का त्याग दो ॥ १४॥
पुरुषस्य हि लोफेउस्सिब्शोकः शौर्यापकर्षण: ।
यत्तु कार्य मनुष्येण शोण्डीयमवलूम्बता ॥ १५ ॥
क्योंकि शाक मनुष्य के शोय॑ के नष्ट कर डालता है झौर ज्ञे।
काम शूरता का अवलम्वन कर के किया जाता है, वह पूर्ण होता
है॥ १४ ॥ ु
अस्मिन््काले महाप्राज्ञ सत्वमातिष्ठ तेजसा ।
श्राणां हि मनुष्याणां त्वद्विधानां महात्मनास | १६ ॥
विनष्टे वा प्रनष्ठे वा क्षम॑ न छनुशोचितुस ।
० +* «३ रु
त्व॑ं तु चुद्धिमतां श्रेष्ठ: सवशास्राथंकोविद! ॥ १७ ॥
घतः है महाप्राक्ष | शुर न्ोगों के जे। करना याग्य है इस समय
तुम वही करे। । तुम अपने तेज का सद्दारा लो । क्योंकि तुम जैसे
घैय॑चान भोर शुर मनुष्य का तो, अभीष्ठ वस्तु के नष्ट हो जाने
अथवा विध्वंस है| ज्ञाने पर भी कभी चिन्तित अथवा शाकान्वित
नहीं द्वोना चाहिये | तुम घुद्धिमानों में श्रेष्ठ ओर सर्वशास्त्र-
फेविद हा ॥ १६ ॥ १७॥
१० युद्धकायडे
महिये! सचिदे! साधमरिं जेतुमिहाइंसि ।
न हि पश्याम्यहं कश्विश्निषु लोकेषु राघव ॥ १८ |
कि मुझ जैसे मंत्रियों की सद्ायता से तुम बैरी के नाश
कर सकेगे। है राम | मुझे तो विल्लोकी में ऐसा केई देख नहीं
पड़ता ॥ १८॥
भुहीतथनुषों यस्ते तिष्ठेदभिम्रुखों रणे ।
बानरेपु समासक्त न ते काय विपत्स्यते | १९ ॥
जे घुद्धच्चेंत में उस समय तुम्दारा सामना फर सके, मिस
समय तुम हाथ में धन्चुप क्लेकर छड़े हो जाओ | फिर तुम जा काम
चानरों के सोपेगे वह काय कभी न विगड़ने पायेगा ॥ १६ ॥
अचिराहक्ष्यसे सीतां तीत्वा सागरमक्षयम् |
तदर्ल शोकमाल्म्वय क्रोधमालम्व भूपते || २० ॥
इस अनन्त-सागर के पार जा तुम शीत्र ही सीता के देखेगे |
श्तः है राजन | अच तुम शेाक त्याग कर कोघ धारण करो अथवा
यह समय शोक का नहीं वल्कि ोध करने का है ॥ २० ॥
निश्रेष्टा क्षत्रिया मन्दा; सर्वे चण्डस्य विश्यति |
लहनाथ च घोरस्य समुद्रस्य नदीपतेः ॥ २१ ॥
क्योंकि जे! क्षत्रिय दाकर उचद्यमहीन होता है वह कभी सोमापष्य-
चान् नहीं हे! सकता | फिए ले! ऋोधी होता है, उससे सभी डरते
हैं। से तुम इस भसयहुर नदियों के पति समुद्र का पार करने
के लिये ॥ २१॥
सहास्माभिरिहोपेतः सुक्ष्मुद्धिर्विचारय |
सब तीण च् मे सैन्य जितमित्युपधारय || २२ ||
हद्विवीयः सगेः ११
हम लोगों के साथ परामर्श कर दुद्धम बुद्धि से कोई उपाय
सेचना चाहिये। यद्द श्राप निश्चय जान ले हि, ज्यों ही हमारी
समस्त सेना उस पार पहुँची, त्योंद्ी शत्र परास्त हुआ ॥ २२ ॥
इसे हि समरे शूरा! हरय! कामरूपिणः ।
तानरीन्विधमिष्यन्ति शि्ञापादपद्ृष्टिम! ॥ २३ ॥
ये समस्त चानर, इच्छानुसार रुप धारण करने वाल्ले भर
युद्ध में बड़े शूरवीर हैं। ये पत्थरों भोर पेड़ों को वर्ष कर शन्रुझों
का मार डालेंगे ॥ २३ ॥
कथशित्सन्तरिष्यामस्ते वर्य वरुणालयम् |
हतमित्येव तं मन्ये युद्धे समितिनन्दन || २४ ॥
है रणप्रिय ! मेरे मन में तो यह वात झाती है कि, हम लोग
किसी न किसी तरह समुद्र पार हे ही जाँयगे श्रोर समुद्र पार होते
ही शत्र का नाश करते हमें देर भी न लगेगी ॥ २४ ॥
किमुक्त्वा बहुधा चापि सबंथा विजयी भवान् । '
निमित्तानि च पश्यामि मनो मे संप्रहष्यति ॥ २५ ॥
इति ह्वितीयः सर्ग: ॥
है राम | अब में अधिक ओर का कहूँ। झ्राप सव प्रकार से
विजयी होंगे। क्योंकि इस , समय में जे शुभ शकुन देख रहा ८
इससे ज्ञान पड़ता है कि, थ्यागे चत्त कर कोई दर्षोत्पादक काय
होने वाला है प्रथवा इस समय शुभ शक्षन हो रहे हैं ओर मेरा
मन पघत्यन्त हर्षित द्वों रद्दा है ॥ २४ ॥
युद्धकाण्ड का दूसरा सर्ग पूरा हुआ |
-+-+
(5
ततीयः सगे
“मे
सुग्रीवस्य बचः श्रुत्वा हेतुमत्परमार्यवित् ।
प्रतिजग्राह काकुत्स्थों हलुमन्तमथान्नवीत् ॥ १॥
परमार्थ के जानते वाले श्रीयमतनन्ध जो ने सुप्नीच के युक्तियुक
वचन सुन उन सत्र को अआज्लीकार किया शोर हचुमान जीसे
कद्दा ॥ १ ॥
तपसा सेतुवन्धेन सागरोच्छोषणेन वा ।
ए
सवंधा सुसमर्थो्स्मि सागरस्यास्य लइने ॥ २ ॥
दे हठुमन् ! अपने तपेवज्त से, प्रथवा समुद्र पर पुल बाँध कर
अथवा समुद्र के जल के खुला कर, में तो हर प्रकार से समुद्र के
पार जाने में समर्थ हैँ ॥ २॥
कृति हुगाणि 'दुर्गाया छ्भाया बरहि तानि मे ।
ज्ञातुमिच्छामि तत्सवे दशनादिव वानर | ३ ॥
परन्तु अच तुम मुक्के यह वतलाओ कि, लड्डा में दुर्गम दुर्ग
हे हैं। हे घानर | मैं उनका चर्णान ऐसा खुनना चाहता हैं, मानों
में उनको प्रत्यक्ष देख रद्या हैं | अथवा तुम उन दुर्गों का ऐेसा वर्णन
करे जिससे घुसे वे प्रत्यत्त सरीखे देख पड़े || ३ ॥
वलस्य परिमाणं च द्वारदुगेक्रियामपि |
गुप्तिकम च लक्षायां राक्षसां सदनानि च || ४ ॥
१ दुर्याया-्ुष्प्रापाया: ( शे।० )
ठृतीयः सर्गः १३
लड्ढा में सेना कितनो है ? लड्ढ। ह दुर्गद्वार क्रिस प्रकार के
साधनों से सुरत्तित हैं? उनकी झुरत्ता के लिये जे! परकोरे ध्पथवा
खाएयाँ बनी हैं वे कैसी हैं भोर राक्तसों के घर कैसे हैं ? ॥ ४॥
'यथाखु्स॑ यथावच्च लट्डगयामसि हृष्वान् |
(5
सबमाचक्ष्व तत्वेन सवंधा कुशछो ल्सि ॥५॥
तुम देखने और पर्णन फरने में चठुर दा । श्रतपव' लड्ढा में
जे कुछ तुम देख भाये द्वो चद सव विभीक द्ोकर मेरे सामने
यथार्थ फह्दी ॥ ५ ॥
श्रुत्वा रामरय वचन हनृमान्मारुतात्मजः |
वाक्य वाक््यविदां श्रे्ठो राम॑ पुनरथाव्रवीत् ॥ ६ ॥
वाक्यविशारदों में श्रेष्ठ पवनतनय हनुमान जी श्रोरामचन्द्र
जी फे ये वचन छुन, उनसे फिर फहने लगे ॥ ६ ॥
अयतां सर्वमाख्यास्ये दुगकमंविधानतः ।
गुप्ता पुरी यथा लड्ढ् रक्षिता च यथा बले।॥ ७ ॥
है राजन ! घद लड्ुम जिस प्रकार परका्दे, खाइयों तथा राक्षस
सेना से रक्तित है, चह सब में कद्दता हैँ, खुनिये ॥ 9 ॥
राक्षसाश्व यथा *सिनिग्धा रावणस्थ च तेनसा ।
पर्रा समृद्धि लद्ढायाः सागरस्यप च भौमताम् | ८॥
विभाग च वलोघस्य भनिर्देशं वाहनस्थ च |
एवप्नुक््वा हरिश्रेष्ट कथयामास तत्वतः ॥ ९ |
१ यथासुखे--निश्वाई | ( गे० ) २ स्विग्धा-खामिनिभक्ताः । ( गे” )
३ निर्देश:--लंख्या तं। ( गे० )
१७ युद्धकायडे
वहाँ के राक्षस जँसे स्वामि-प्तक्त हैं, रात्तसराज रावण का
जैसा प्रताप है, लड्ढा की जेसी सम्दद्धि है, समुद्र की जेसी भयडुरता
है, सेनाएँ विभक्त द्वोकर, जिस प्रकार थे लड्ढा की रक्ता कर
रही हैं और वहाँ के चादनों की जितनी संख्या है--से। सब में
कहता हैँ | यह कद कर, हछुमान जी ने सब द्वत्तान्त यथार्थरीत्या
कह दिया ॥ ८॥ ६ ॥
3हछ्शा पमुदिता छट्ढा मसहिपसमाकुछा ।
महती रथसम्पूर्णा रक्षोगणसमाकुला ॥| १० ॥
लड्ढा अत्यन्त इषित जनों से भरी पूरी है । उसमें मतवात्ले
हाथी भरे हुए हैं । बड़े वड़े स्थों से भरी पूरी दे शोर यशाक्तसों से
परिपूर्ण है ॥ १० ॥ हे है
वाजिभिश्च सुसम्पूर्णा सा पुरी दुर्गमा परे |
हृ्वद्धकवाटानि महापरिघवन्ति च॥ ११॥
बह घोड़ों से भरी है ओर शत्र के लिये हुगंम है | उसके फाठकों
में बड़े मज़बूत किचाड क्गे हुए हैं ओर फाटक वंद करने के बड़े
बड़े परिघ ( बैड़े ) हैं ॥ ११॥
चत्वारि विपुद्धान्यस्या द्वाराणि सुमहन्ति च।
रतत्रेपूषलयन्त्राणि वलवन्ति महान्ति च || १२ ॥
उस पुर में बहुत बड़े ओर विशाल चार द्वार हैं। उन द्वारों पर
बड़े वलवाव शोर घड़े बड़े इपपल नामक यंत्र लगे हैं॥ १२ ॥
[ इपूपलछ नामक एक प्रकार की तोप थीं । इन तेोपों से गोले के बजाय
शत्रु सैन्य पर तोरों और पत्थरों की वर्षा की जाती थी | ]
222: 22033 कप दम हे न पपन इक अधि मर अपर अपआजपआ 04४६4 2%+गमनशज सलजकशलि कक लिल,
१ छृष्टा प्रमुदिता--भलन्त हए्टजना | (गे।०) २ इपृपलयंत्राणि--शरशिका
क्षेपक यंन्नाणि। ( शो ) का
तृतीयः सर्गः १४
आगतं प्तिसेन्य॑ तैस्तत्र प्रतिनिवायते ।
द्वारेषु संस्कृता भीमा। काछायसभया। शिता। ॥ १३॥
शततशों रचिता वीरे शतध्न्यो रक्षसां गणे। |
सौवर्णश्च महांस्तस्या; प्राकारों दुष्प्रषण! ॥ १४॥
हे इनके द्वारा शत्न की झाक्रमशकारो सेना मार कर भगा दी जाती
है। द्वॉरों पर पैनी और ज्ञो३हे की बनी सैकड़ों शतप्ली शाक्षसों ने
वना कर, सजा रक्खी हैं । उस ल्ड्भाः का परकाटा खुवर्शमय और
बड़ा दुर्धष है॥ १३॥ १४॥
मणिविदृमबैड्यम्ुक्ताविरचितान्तरः ।
ए कप
स्वंतश्च महाभीमा; शीततोयवहा) झुभा। ॥ १५॥
वह भीवर से मणियों, मर गों, पन्नों और मे।तियों से बनी हुई है।
उसके चारों श्रेर बड़ी भयद्डुर भोर ठंढे स्वच्छु जल से युक्त ॥ १४॥
अगाधा ग्राहवत्यश्च परिखा मीनसेविताः ।
द्वारेषु तासां चत्वारः 'संक्रमा! परमायता। ॥ १६॥
झगाध खाई हैं, जिनमें बड़े बड़े मगर भोर मछुलियाँ रहा करती
हैं | उसके चारे द्वारों पर चार बड़े लंबे चौड़े लकड़ी के पुल ॥ १६॥
यन्त्रेर्पेता बहुभिमेहृद्विगहपिस्तमिः ।
आ्रायन्ते संक्रमास्तत्र परसेन्यागमे सति ॥ १७॥
जिनके ऊपर बड़ी बड़ी कल्ले लगी हुई हैं थोर उनके पास ही
उन कल्ों के चल्लाने बाल्ले राज्तस सैनिकों की वारकों की पंक्तियां हैं।
इन्हींसे शत्रु सैन्य के आक्रमण से नगरी की रक्ता की जाती है ॥ १७॥
१ सक्कमाः--दारुदूछक निर्मित सद्चारमार्गां; | ( गे।० )
रद युद्धकाणडे
यन्त्रेस्तेरवकीयन्ते परिखासु समन्ततः ।
एकस्ल्वकम्प्यों बलवान्संक्रम! सुमहान्दद। || १८ ॥
वहाँ ला कलें रखी हैं. उनके घुमाते ही खाई का जल चारों
झोर बढ़ने लगता है झोर इस जल की बाढ़ से शन्न सेवा हृव जाती
है। इन चार पुलों में से एक पुल सब से अधिक मज़बूत है। वद्द
ज़रा सी दिलता इलता नहों ॥ १८ ॥
आनेवहमि ए के ७९३ दिकाभिदच शीभित
काश्वनवेहुमि!ः स्तम्भेवेदि शोमितः ।
खय॑ 'प्रकृतिसम्पन्नो य॒युत्स राम रावण) ॥ १९ ॥
उसके ऊपर वहुत से साने के खंभे ओर चबूदरे बने हुए हैं।
हे राम | राचण आज कल धुतादिव्यसनों से मुद्द मेड कर, युद्ध फे
लिये कमर कले तैयार दे ॥ २६ ॥
डत्यितश्वापयत्तश्च बला नामलुद्शने ।
लड्जा पुनर्निरालम्वा देवदु्गां भयावहा ॥ २० ॥
चह सदा जागरूक रहता है झोर बड़ी सावधानी से सेवा की
देख रेख किया करता है। लड्ला पक ऐसे पहाड़ के ऊपर है
जे। सीधा खड़ा हुआ है, अर्थात् उस पर चढ़ने का रास्ता नहीं है ।
चह देवताओं के दुर्ग की तरह नितान्त दुर्गम है॥ २०॥
नादेयं पावत बान्य॑ कृत्रिम च चतुर्विधम ।
स्थिता पारे समुद्वस्थ दूरपारस्य राघव ॥ २१ ॥
थक
लड्ा में नदीढुगं, गिरिहुगें, चनदुर्ग ओर चौथे कृत्रिप्
दुर्ग दै। है राघव ! समुद्ध के उस पार वहुत दुर तक लड़ा बसी
.धय
हुई है ॥ २१ ॥
१ प्रकृतिस्तस्पन्ष:--थ्त्तादिष्यसनद रुप विचार रहितः । ( शे।० )
छतोयः सर्मः १७
नोपथोजप च नास्त्यत्र निरादेशरच स्वतः |
शैलाग्रे रचिता हुर्गा सा श्रवधरोपा ॥ २२ ॥
वहाँ न ते नाव की गति है भ्रोर न वहाँ का दाल हो किसी
का मिल संकता है। वह पर्वत के शिखर पर दुर्धर्ष बनी हुई है
क्रोर इन्द्रयुरी की तरद शाभायमान है ॥ २२॥
वाजिवारणसम्पूर्णा लड्ढा परमहु्जया ।
परिखाश्च शतप्न्यश्च यन्त्राणि विविधानि व ॥ २३ |
घोड़े हाथियों से भरी पूरी लड्ढा परम दुर्जेय है। क्योंकि उसके
चारो घ्योर खाई है भोर शतप्नी तथा विविध प्रकार के यंत्रों ॥ २३ ॥
शोभयन्ति पुरी लड्लां रावणस्य दुरात्मनः |
अयुत रक्षसामत्र पू्द्वारं समाश्रितम् ॥ २४ ॥
से दुरात्मा रावण की लड्ढा शोमित है। लड्ढा के पूर्चद्वार पर
दूस हज़ार शतक्तस रहते हैं ॥ २४॥
शूलहस्ता दुराधर्षां) सर्वे खड़डाग्रयोधिनः ।
नियुतं रक्षसामत्र दक्षिणद्वारमाश्रितम् || २५ ॥
उन ल्लोगों के हाथ में त्रिशुल रहता है। ये बड़े दु्धष हैं. प्रोर
सव के सव तलवारों से लड़ने वाले हैं। दत्षिणद्वार पर एक लाख
रात्तस सैनिक रहते हैं ॥ २५ ॥
चतुरज्लेण सेन्येन योधास्तत्राप्यनुत्तमाः ।
प्रयुतं रक्षसामत्र पश्चिमद्वारमाभ्रितस् || २६ ॥
इनके साथ चत्रक्लिएी सेना रहती है श्र जे और सैनिक
चहँ हैं, वे भी बड़े प्रवीण लड़ने वात्ते हैं। दूस लाख राक्षस पश्चिम
द्वार पर रहते हैं ॥ २६ ॥
चा० रा० यु०--२
श्ष्र युद्धकायडे
चर्मंखन्भधरा: सर्वे तथा स्वोद्धकाविदा: ।
न्यबुंद॑ रक्षसामत्र उत्तरदारमाश्रितम् ॥ २७॥
ये सव ढाल तलवार धारी हैं और सव घस्नों फे चलाने में
प्रवीण हैं। एक श्ररव राक्षस उत्तर वार पर रहते हैं ॥ २७॥
रथिनशाश्ववाहाश्र 'कुलपुत्रा! सुपूजिता। ।
शतशो5थ सहसख्राणि व्मध्यमं स्कन्धमाशिता। ॥ २े८ ॥
इनमें बहुत से रथी, वहुत से घुड़्सवार और कितने ही विभ्व-
सनीय रावण के कृपापात्न नोकर हैं । नगर के वीच में सैकड़ों सदस्नो
सैनिकों की छावनी है ॥ २८॥
यातुधाना दुरांधषों साग्रकोटिश्व रक्षसाम् ।
ते मया संक्रमा भग्मा; परिखाश्चावपूरिता; ॥ २९ ॥
.... उनमें से एक करोड़ से ऊपर बड़े हुरधर्ष राक्तस सैनिक हैं।
है' राम | मैंने ( खाई पार करने के ) पुल्रों के तोड़ डाला है और
खाई पा दी है ॥ २६ ॥
दग्धा च नगरी लड्ढा पाकाराश्चावसादिता; |
वलेकदेशः क्षपितों राक्षसानां रमहात्मनाम ॥ ३० ॥
मेंने क्ट्टा जला डाली दे और लडु का परकेोटा मिरा दिया
है। मेंने महाकायवाले राक्षलों को एक चाथियायी सेना मार
डाली है ॥ ३०॥
न्२-3७9-)+ककमम+परंमननत-+नाननन+वनीनीमनन-न सी यन++न-नक नमन 533५-43» धन-मपमनमन--+पनमनन+त+ नमक पान +धन न मिनी +नीि यनणननी नमन वन क+-+ 3.4७ ७-+७७७»--..५०७०-६॥०-+५७७७- «७-७७». .>न००५«+७३७५५५मामााक्कान ००४.
१ कुछपुन्ना:--विश्वसत्तीया | ( गा० )
२ मध्यमंस्कन्घम्--नगरमसध्यस-
स्थान १ ( गो० ) हर
हे सहात्मचा--मदहाकायानां । ( गे ०“)
|
तृतीय$ सर्गेः १६
येन केन च मार्गेण तराम वरुणालयम् |
इतेति नगरी लड्ढा बानरेरवधायताम ॥ ३१ ॥
ध्व किसी प्रकार सपुद्र को पार करना चाहिये श्रोर «यों दी
समुद्र के पार पहुँचे कि, समक लोजिये ल्ड्ढा वानरों द्वारा फतद
हुई ॥ ३१॥ ु ह
अक्भदो द्विविदों मेन्दो जाम्ववान्पनसे नलू३ ।
नील; सेनापतिश्रेव वलशेषेण कि तव ॥ ३२२ ॥
ढविविद्, मेन्द, जाम्बवान, पनस, नल और सेनापति
नील हो वहाँ के लिये पर्याप्त हैं ओर सैना का काम हो -क्या है ॥ ३२॥
पुवमाना हि गत्वा तां रावणरय महापुरीस् ।
सपवतवनां भित्ता सखातां सप्रतेरणाम् ।
. सप्राकारां समवनामानयिष्यन्ति राघव ॥ रे३ ॥
ये सव समुद्र का लाँध कर उस पार जा पहुँचेंगे तथा परव॑तों
वनों, खाइयों, तोरणद्वारों, परकाठों भौर भवनों के उज्जाड़ पुजाड़
कर, सीता को के शआावंगे ॥ ३३ ॥
एवमाज्ञापय क्षिम वलानां सवसंग्रहम |, '
: मुहूर्तेन तु युक्तेन प्रस्थानमभिरोचय ॥ ३४ ॥
इति तृतीयः सर्गः ॥
हे राम | शव शाप बढ़े बड़े सेनापतियों के पेसोी झाज्षा दे कर,
' शीघ्र ही शुम पुह्दते में यात्रा कीजिये ॥ २७ ॥ ह
युद्धकाएड का तीसरा सर पूरा हुआ।
“-औ-++
चतुथः सगेः
>> व
भ्रुत्वा हलुमतो वाक्य यथावदलु'पूवेशः ।
ततोज्ब्रतीन्महातेजार राम) श्सत्यपराक्रम: ॥ १ ॥
घमेय-विक्रम-सम्पन्न ओर महावती ध्रीरामचन्द्र जी हसुमान
जी की क्रम-पुर्वक कह्दी हुई वातों के। छुन कर, वोत्ते ॥ १॥
' यां निवेदयसे लड्ढां पुरी भीमस्य रक्षसः ।
प्षिप्रमेनां मथिप्यामि सत्यमेतदब्॒वीमि ते ॥ २ |
दे दनुमन् | तुमने सयद्भुर राक्षस की जिस लड्जा का घूचान्त
कहा है, में तुमसे सत्य सत्य कद्दता हूँ कि, उसको में शीघ्र ही
नष्ट करूँगा ॥ २॥
असिमन्मुहूतें सुग्रीव प्रयाणमभिरोचये ।
युक्तो सुहृर्तों विजयः प्राप्तो मध्य दिवाकरः ॥ ३॥
है सुप्रीव | इसी घुट्दतें में युद्ध यात्रा फरना घुझे अच्छा ज्ञान
पड़ता है । क्योंकि सूर्थ भगवान, भष्य आकाश में आगये हैं।
इसलिये यद अभिजित् नामक विजय का मुहर्त है ॥ ३॥
अस्पमिन्मुहूर्ते विजये प्राप्ते मध्यं दिवाकरे |
सीतां हत्वा तु मे जातु काउसो यास्यति यास्यत) ॥ ४॥
१ भनुपूर्वश:--अनुक्रमेण । ( रा० ) २ महातेजाः--महावछः । ( गशे।० )
३ सत्यपराम्र7:- »सोधघदिनक्सः । ९ गे० )
चतुर्थ सगे; २१
चूय भगवान् के सध्य भाकाशवर्ती होने पर, अमिनित मुद्ठर्त
में यात्रा कर, में उस रात्तस से सीता के क्लीन कर ले धाऊँगा।
वह्द राक्षस अब जा ही कहाँ सकता है ॥ ४ ॥
सीता श्रुत्वाअमियांन मे आश्ञामेष्यति जीविते ।
जीवितान्तेथ्यृतं स्पृष्ठा पीत्वा विषमिवातुर। ॥ ५ ॥ '
हम लोगों को युद्धयात्रा का द्वाल खुन कर, सीता के अपने
- जीवन की चैसी ही श्राशा द्वेगी, जैसी कि, विषपान किये श्रौर
जीवन से निराश, क्िप्ती मरते हुए मनुष्य के, अस्त मिलन जाने
से होती है ॥ ५ ॥
उत्तराफारयुनी हथथ श्वस्तु हस्तेन योक्ष्यते |
* अभिप्रयाम सुग्रीव सर्वानीकूसमाहता। ॥ ६ ॥
ध्ाज़ उत्तरा फाह्पुनी नत्तत्र है, कल दस्त नत्तत्र से इसका
योग होगा | अतः है खुओव | चलो, दम सब सेना के साथ ले
रवाना हो जाँय ॥ ६ ॥
| निमित्तानि च धन्यानि यानि प्रादुर्भवन्ति च |
निहत्य रावणं सीतामानयिष्यामि जानकीस || ७ ||
जो शुभ शक्करुन वतलाये जातें हैं वे भी हो रदे हैं, जिससे प्रकट
होता है कि, हम रावण के मार कर, जानकी को क्ने श्रावेंगे ॥ ७॥
उपरिष्ठाद्धि नयन॑ स्फुरमाणमिदं मम । ह
'विजयं समलुप्राप्तं शंसतीव मनोरथम् || ८ ॥
देखो मेरी दहिनी धाँख के ऊपर का पल्रक वरावर फड़क कर
मानों मुझसे कद्द रहा है कि, तुम्हारा विजय समीप है भोर तुम्दाय
मनोरथ पूर्ण होने वाला है॥ ८॥ ह
हे युदकायडे
ततो वानरराजेन लक्ष्मणेन च पूनित: |
उबाच रामो धर्मात्मा पुनरप्यथकोबिंद। ॥ ९ ॥।
यह सुन कप्राज् सुप्रीव और लक्ष्मण ने श्रोसमवन््र ज्ञी
के इन युक्तियुक्त बचनों की प्रशंसा की | तदुतन््तर नीति-शात्य-निपुण
घर्माममा श्रीरामचन्द्र फिर कहने लगे ॥ ६ ॥
अग्रे यातु वलस्यास्य नीलो मार्गमवेध्षितुम ।
दृतः शतसइस्रेण चानराणां तरखिनाम् ॥ १० ॥
मार्ग देखने के लिये सब से आगे नोल जाय ओर इनके साथ
पक लाख वलचान चानर ऊुँय॥ २०॥
फलमूलव॒ता नील शीतकाननवारिणा |
पथा मधुमता चाशु सेना सेनापते नव ॥ ११ ॥
श्रीयमचन्द्र जी ने नील से कहा--| नील ! तुम ऐसे मार्ग से
सेना ले चलो, जहाँ फन्त मूल मिलें, शीतल जल सय हो आर
जहाँ मधु हो॥ ११॥
दूपयेयुदुरात्मान: पथि मूलफलोदकर्म् !
राक्षस; परिरक्षेथास्तेभ्यस्वं नित्यमुद्यतः ॥ १२ ॥-
( एक वात से सावधान रहना वह यदद कि, ) कहीं दुए रात्स
रास्ते के छू, फल और जल के विष मिला कर दुष्तितन कर
डालें । राक्तसों से सदा साचघाव रहना ॥ १५॥]
निम्नेषु मिरिहुर्गेप् बनेषु च बनौऋसः ।
अभिष्ल॒त्यानिपश्येयु! परेषां निहित वत्तम | १३ ॥
१ पूजितः:--युक्तमिति छावितः । ( गे० )
चहुर्थ: सांः २३
चानर छत्नाँग मार कर टेकरों तथा चृत्तादि फे ऊपर चढ़ कर
भत्री भाँति देखें कि, कहीं गढ़ों में, गिरिदुर्गों में शोर बनों में शत्रु
सेना तो घात लगाये नहीं छिपी बैठी है ॥ १३ ॥
यत्च फत्गु वर किश्वित्तदत्रेवोपयुज्यताम् ।
एतद्धि इृत्यं घोरं नो विक्रमेण प्रयुध्यताम् ॥ १४ ॥
हमारी इस सेना में जे। वान्तक बूढ़े हों, या कमज़ोर दो, उनकी
यहीं छोड़ दो, फ्योंकि मेरी यद्द लडय की चढ़ाई बड़ी विकठ द्ोगी।
धतः वहाँ पेसे सैनिक ज्ञाने चाहिये, जो वल्ञवान और पराक्रमी
हों॥ १४ ॥
सागरौघनिभं भीममग्रानीक॑ महावराः |
कपिसिंहा: प्रकर्षन्तु शतशोध्य सहख्तश ॥ १५ ॥
ये सैकड़ों दज्ञारों महाबलवान् कविखिंद, समुद्र के समान
विशाल प्रोर भयड्ूूर सेना का साथ ले कर चले ॥ १५॥
गजश्व गिरिसडज्ञाशों गवयश्र महावरछूई ।
९
गवाक्षश्चाग्रतो यान्तु वाहिन्या वानरपभा। ॥ १६ ॥|
पर्वत के समान शरीर चाला गज, महांवली गवय भोर गवात्त
सेना के अरे भागे चले ॥ १६ ॥
है
यातु वानरवाहिन्या वानरः इवतांवरः ।
4 पाश्व॑म्ृपभो (
पालयन्दक्षिणं पाश्वम्ृपभों वानरपंभ। | १७॥
कूदने वालों में श्रेष्ठ ओर वानरश्रेष्ठ ऋष्भ घानरी सेना
के दक्तिण भाग की रक्ता करता हुआ, बानरी सेना के साथ
चले ॥ १७॥
२४ युद्धकायडे
गन्धहरुतोव द्धपंस्तरखी गन्धमादनः ।
यातु वानरवाहिनया। सब्य॑ पाइदमधिष्टितः | १८ ॥
मतचाले हाथी को तरद दुर्जेब वेगवान् गन्धमादन सेना के वाएँ
भाग की रक्ा करता हुआ वानरी सेना के साथ चक्ने ॥ १८ ॥|
हा वर्लोघमभिहपयन् चु
यास्यामि वलमध्येड वोघमभिहपंयन् |
अधिरुदय हनुमन्तमेरावतमिवेशवर; ॥ १९ ॥
में हनुमान के कंधे पर सवार दी, पेरावव द्वाथो पर चढ़े हुए
इन्द्र की तरह, सेना के मध्यमाग में रह कर शोर सेना के हरित
अथवा उत्साहित करता हुआ चलू गा ॥ १६ ॥
अद्गदेनेप संयात लक्ष्मणश्चान्तकोपमः ।
सावभोग्रेन भूतेशो द्रविगाधिपतियंथा ॥ २० ॥
ध्यद्भव के कंधे पर सवार हो काल की तरह फाप किये हुए
लक्ष्मण उसी प्रद्चार चलेंगे, जिस प्रकार झपने सार्वमोम दिगज
पर चढ़ कर, कुतर चलते हैं || २० ॥
जाम्ववाँदच सुपेणश्च वेगदर्शी च वानरः !
_ ऋश्षरानों महासच््यः कुक्षि१ रक्षन्तु ते त्रयः ॥ २१॥
महावली ऋत्तराज ज्ञाम्बवान. सुषैणश ओर वेगदर्शी--ये
तीन वानर यूधपति सेना के पिछले भाग को रक्ता करते हुए
चल ॥ २१ ॥
राघवस्थ दच श्रत्वा सुग्रीवो वाहिनीपतिः ।
व्यादिदेश! महारीयोखानराचानरप भ; ॥ २२ ॥|
१ कुक्षिं--पत्चात् सार्ग । ( गौ० )
चतुर्थ: सर्गः । २५
धानरश्रेष्ट मद्ावजवान और वाहिनोपति सुग्रीव ने श्रोरामचन्द्र
जो के ये वचन सुन, मद्ावलवान वानरों को भोरामचन्द्र जो के
आशानुसार कार्य करने की श्ाज्षा दी ॥ २२ ॥
ते वानरगणाः सर्वे समुत्पत्य युयुत्सवः ।
गुहाभ्य। शिखरेभ्यश्च आशु पुप्लुविरे तदा ॥ २३ ॥
तब ते थे सब वत्लवान वानरगण जो लड़ने के लिये उत्छुक
दी रहे थे, गरुफाओं से निकल कर, शिखरों से कूद कूद कर
आ पहुँचे ॥ २३ ॥
तते वानरराजेन लक्ष्मणेन च पूजितः |
जगाम रामो धर्मात्मा ससेन्यो दक्षिणां दिशम् ॥ २४ ॥
ह तदनन्तर वानरराज़ ओर लक्ष्मण द्वारा प्रशंसित धर्मात्या
९ आरामचन्द्र जी सेना के साथ लिये हुए दृत्तिण की भार प्रस्थानित
दे गये ॥ २४ ॥
: शर्ते; शतसहसेश्व कोटीभिरयुतैरपि ।
वारणामैश्च हरिभियंयों परिहृतस्तदा ॥ २५ ॥
उस समय इज़ारों, लाखों शोर करोड़ों वानरों के दज्न के दल
भीरामचन्द्र ज्ञी को घेर कर चल दिये॥ २५॥
त॑ यान्तमनुयाति सम महती हरिवाहिनी |
#ह्ठा; प्रमुदिता: से सुग्रीवेगाभिषालिता। ॥ २६॥
उस समय दर्षित, प्रमुद्दित भौर खुप्रीव द्वारा रक्तित वह बड़ी
भारो वानरी सेना ध्रीरामचन्द्र जी के पीछे दो ली ॥ २६ ॥
# वाठान्तरे-- हृप्ता: ! |
२६ | युद्धकाणडे
आंपवन्त; छवन््तरच गजेन्तरच घुबड़रमा) ।
'क्ष्वेलन्ते। #निनदन्तस्ते ,जखुवें दक्षिणां दिशम् ॥ २७॥
उस सेना के समस्त चानर कूदने फाँदते, गरज़ते, सिदनाद्
करते तथा किलकऋारियाँ मारते दत्तिण की झोर चले जाते थे ॥२७॥
भक्षयन्त) सुगन्धीनि मधूनि च फलांनि च।
उह्ठहन्तो महाह॒क्षान्यञ्लरीपुल्धारिण। ॥ २८ ॥
रास्ते में वे खुगन्धित मधु पीते, फनों के खाते तथा ढेर की
ढेर मश्नरियों से युक्त बड़े बड़े वृत्तों के उखाड़ कर ध्यपने कन्धों पर
रखे हुए चत्ने ज्ञाते थे ॥ २८ ॥
.. अन्योन्य सहसा दप्ता निबहन्ति क्षिपन्ति च |
पततश्रोत्पतन्लन्ये पातयन्त्यपरे परान् ॥ २९ ॥
उनमें से केई कोई गवित हो दूसरों को उठा लेते भौर कुछ
, दूर चल कर गिश देते थे। कोई स्वयं गिर कर दूसरे को गिरा देते
थे झोर केाई कोई दूसरों के चक्का देकर गिरा देते थे ॥ २६ ॥
रावणों नो निहन्तव्य; सर्वे च रजनीचरा;
इति गजन्ति इरयो:राघवस्य समीपत) ॥॥ ३० ॥
श्रीरामचन्द्र जी के सामने पे गर्ज गर्ज कर बारम्वार कह रदे थे
. कि, रावण तथा अन्य समस्त राक्तसों के हम मार डालेंगे ॥ ३० ॥
पुरस्ताव्षभो वीरो नील; कुम्ुंद एव च |
थान॑ शोधयन्ति सम वानरैबेहमिहेता: ॥ ३१ ||
# पाठान्तरे-- “ विनदन्तश्न '! |
नि किकद 6 पाठान्तरे --“ पततश्राक्षिपन्यन्ये | ??
पाठाच्तरे--' सह |
+
चतुर्थ! सगे: २७
मद्ावीर ऋषभ, गन्धमादन और नोल बहुत से वानरों के साथ
लिये दुए, मार्ग को खोजते सेना के धागे थ्रागे चल्ने जाते थे ॥ ३१॥
मध्ये तु राजा सुग्रीवो रामे। लक्ष्मण एवं च।
शरहता निवहे
#वलिभिवे हुमि! शुरेहताः शत्रुनिवणेः ॥ ३२ ॥
वानरी सेना के मध्य भाग में श्रीरामयन्द्र लक्षण ओर कपिराज
सुग्रीव ; शत्रुध्रों के संद्यास्कर्ता, वलवान् श्रोर शूर बहुत से वानरों
के साथ चत्ते ज्ञा रदे थे ॥ ३२॥
हरि; शतवलिवीर। कोटीमिदेशमिहतः ।
सामेके हवष्टभ्य ररक्ष हरिवाहिनीस ॥ ३३ ॥
महावलवान शतवल्लि दस करोड़ सेना के साथ लिये श्रकेला
ही उस समस्त वानरोी सेना की रक्षा कर रहा था ॥ रेर३े ॥
काटीशतपरीवार; केसरी पनसो गज) |
५ मे
ऋष्षएशचातिवल! पाश्वमेक्क तस्याभिरक्षति ॥ ३२४ ॥
केसरी, पनस, गज और ये भ्तिवल वानस्यूथपति, सो करोड़
वानरों तथा रीछों का साथ लिये हुए, उस सेना के पक पाश्व की
रत्ता करते चले ज्ञाते थे ॥ २४॥
तु्षेणों जाम्ववांशरेव ऋश्षश्न वहुमिह॑तों
सुग्रीव॑ पुरतः कृत्वा 'जघन संररक्षतुः ॥ २५ ॥
' छुपेण प्लौर जास्ववान असंख्य रोछों की सेना साथ लिये,
सेना के मध्यभाग में चलते हुए सुप्रीव को भागे कर, सेना के पिछले
भाग की रत्ता करते जाते थे ॥ ३५ ॥
१ जबने -पश्चाक्राय | ( गो० ) # पाठान्तरे--“' बहुमिवंलिमिभमिव ताः
शन्ननिषर्णा: । ” * '
शे८ युद्धकाणडे
तेषां सेनापतिवीरों नीलो वानरणड्रव) ।
७. हू. रे
सम्पतन्पत्तां श्रष्ठस्तद्वल पर्यपालयत् ॥ ३६ ॥।
इन सत्र के सेनापति नील. भार्गशोधन के लिये झागे आगे
जाते हुए सी, सेनापति होने के कार्ण समस्त सेना को देखभाल
करते जाते थे ॥ ३६ ॥
दरीमुखः प्रजहुथ् रम्भोड्य रभसः कपि। ।
स्वतश्र ययुर्वीरास्त्वर्यन्तः पवद्धमान ॥ ३७ ॥
दुरीमुख, प्रज॑ंघ, रम्म, रभस ये सव वीर वानर, सेना के शीत्र
चलने के लिये उत्साहित करते जाते थे ॥ ३७ ॥
एवं ते हरिशादूला गच्छन्तो वलदर्पिताः |
अपरधयंस्ते गिरिश्रेष्ठ सह ठुमलुतायुतम्-॥| 3८ || .
इस प्रकार उन कपिशा्टल एवं वलद॒पित पानस्श्रेष्ठों ने, चलते
चलते, चुत्तों एवं लवाओं से युक्त पवतोत्तम सह्य नामक पर्वत के
देखा ॥ ४८ ॥ ह
सरांसि च सुफुछानि दटाकानि महान्ति च |
रामस्य शासन ज्ञाला भीमकेापस्य भीतवतद | ३९ 9
खिल्ले हुए कमल के फूलों से छुशोमित सरोवर और बढ़े
चड़े तड़ाय भी इस सेना ने देखे । किन्तु मयकु-र काप करने वाले
श्रीरामचनद जी की ध्ाज्षा जान, मारे डर के ॥ ३६ ॥
वर्जयत्नगराभ्याशांस्तथा जनपदानपि | ...
सागरोघनिय भीम तद्ानरवर्लू महतद ॥ ४० ॥
बे चंद सम्द्र की तरह भयावह बड़ी भारी वानरी सेना नगरों
शोर जनपदों क्की सीमा के ॥ ४० ॥ ह
€ ५५ $
चतुर्थ: सगः २६
“तिःससर्प महाधोप॑ भीमघोप इबाणवः ।
तस्य दाशरथेः पाये शरास्ते ऋपिकुख्नरा। ॥ ४१ ॥
£ः स्यागती हुई तथा समुद्र की तरह भयडूर मदाघोष फरती
हुई चली जाती थी | धोरामचन्द्र जो फे भ्रगल वगल वे शूर कपि
' कुंश्चवए ॥ ४१ |
तृर्णमापुप्लुबुं) सर्वे सदश्वा इब चोदिता: |
की को की] पंगे
कपिश्यामृद्यमानों तो शु्यभाते नरषमी ॥ ४२ ॥
कूदते फाँदते ऐसे चल्ले जाते थे, जैसे घुड़सचारों द्वारा चलाये
हुए घेड़े । इस समय दे चानरों की पोठ पर सवार वे दोनों पुरुष-
श्रेष्ठ ऐसे सुशोमित ज्ञान पड़ते थे ॥ ४२ ॥
महद्भयामिव संस्पृष्टों अद्माभ्यां चन्द्रभास््करों ।
ततो वानरराजेन लक्ष्मणेन च पूजितः ॥ ४३ ॥
जैसे राहु भौर केतु नामक दो बड़े बड़े श्रहों से छुए जाकर
चन्द्र और सूर्य शोभा को प्राप्त द्वोते हैं। इस प्रकार सुप्रीव झौर
जच्मण से सस्मानित ॥ ४२ ॥
जगाय रामो पर्मात्मा ससेन््यो दक्षिणां दिशस् |
- तमड्भदगतो राम लक्ष्मणः छुमया गिरा ॥ ४४ ॥।
जउवाच परिपूर्णाथ! 4बचन प्रतिभानवान् |
'.. ह॒तामवाष्य बेदेहीं क्षित्तं हल्ला च रावणम॥ ४१ ॥
७ पाठान्तरे -'“/ उत्ससप |! 7 पाठ्तरै- नरौत्तमौ ।” | पाठास्तरे-
" स्मृतिमाध्प्रतिभाववान् |
३३० युद्धकाणडे
* धर्मामा श्रोरामचन्द्र जी सेना सद्दित दक्षिण दिशा की ओर
गये | तद्नन्तर अद्भव् के कन्धों पर सवार परिपूर्ण मनोरथ एवं
प्रतिसाशाली लकद्मण ने श्रीरामचन्द्र जी से श्लुमवाणी से कहा--
है राम | आप शीघ्र राचण के मार ओर दरी हुई सीता के प्राप्त
कर ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
समद्धाय; समृद्धथामयोध्यां प्रति यास्यसि ।
महान्ति च निमित्तानि दिवि भूमो च राघव ॥ ४६ ॥
तथा पूर्ण मतोरथ हो। घन जन से पूर्ण अयोध्या के लोट
जाँयगे । प्मोकि हे राघव | आ्राकाश ओर पृथिवी पर अनेक प्रकार
के शकुन ॥ ४६ ॥
शुभानि तब पश्यामि सव्वांण्येवार्थसिद्धये ।
अनुवाति शुभेा वायु) सेनां मृदुहितः सुख/ ॥ ४७ ॥
जे। तुम्दारे लिये शुभ हैं, ओर तुम्द्ारो सर्वार्थंसिद्धि के द्योवक
हैं, देख पड़ते हैं । देखिये, शीवल मन्द, सुगन्धित अदश्चकृूल पवन,
सेना के खुख देने के लिये चल रहा है ॥ ४७॥
पू्णवल्गुखराश्रेमे प्रददन्ति मुगद्निजा! ।
प्रसन्नाश्॒ द्शः सर्वा विमलश् दिवाकरः ॥ ४८ ॥
समस्त म्ग ओर पत्ती स्पष्ट ओर मधुर स्वर से बोल रहे हैं।
समस्त दिशार प्रसन्न सी जान पड़ती हैं और छर्य भी विमल
किरणों से प्रकाशित हो रहे हैं ॥ ४८ ॥
उशनाश्च प्रसन्नार्चिरनु त्वां भार्गवों गतः ।
ब्रह्मराशििशुद्धश्च॒ शुद्धाश्व परमषंय! ॥ ४९ ॥
चतुर्थ सर्गः ३१
अर्तिष्मन्तः प्रकाइन्ते भरु ' सर्वे प्रदक्षिणम् ।
त्रिशक्लूर्विमलो भाति राजर्पि; सपुरोहित/१ ॥ ५० ॥
शुभ फिरण वाल्ते सब चेदों के प्रध्ययन किये हुए झोर पाप
ग्रहों से रहित शुक्र भो आपके पीछे हैं। विमल झाकाश में प्रभा
से युक्त सप्तपि उज्ज्यज्ञ ध्रुव की परिक्रमा सी कर रहे हैं। पुरोदित
विश्वामित्र जो के साथ राज विश श्राकाश में केसा निर्मल
प्रकाश कर रहे हैं ॥ ४६ ॥ ५० ॥
पितामहवरोज्स्माकमिक्ष्वाकृणां महात्मनास् ।
विमले च प्रकाशेते विशाखते निरुपद्रवे ॥ ५१ ॥
नक्षत्रवस्मस्माकमिक्ष्वाकूणां महात्मनासू । | *_
नेऋत॑ नेऋतानां च नक्षत्रमभिपीड्यते ॥ ५२ ॥
मूलो मूलवता स्पृष्ठो धृष्यते धूमकेतुना ।
सब चैतद्विनाशाय राक्षसानामुपस्थितम् ॥ ५३ ॥
भिशड्ठ : ज्ञी इच्चाकुचंशियों के मुख्य पितामद हैं ( विशाला
नत्तत्र, जे. इत्त्वाकुवंश का नक्तत्र कहलाता है, उपह्रव रहित
है| कैसा चमक रहा है झोर राक्तसों का यह नेऋत वेबत
मृत्त नामक नक्तन्न, धूमकरेतु द्वारा, जे डंडे की तरह खड़ा है,
धत्यन्त पीड़ित दो रहा है । ये सब इन राक्षासों के विनाश के खूचक
हैं॥ ५१॥ ५२॥ ४३ ॥
काले कालग्द्दीतानां नक्षत्र प्रदपीडितम् |
प्रसन्ना; सुरसाश्चापो वनानि फलवन्ति च ॥ ५४ ॥
१ पुरोहित:--विश्वामिन्नः | ( ये? )
३२ युद्धकायडे
क्योंकि जिसकी सुत्यु निकट 'आती है उसके दी नत्तन्न भौर
ग्रहों की पीड़ा हुआ करतो है। सरोचरों का जल मीठा और साफ
' है रद्दा है, फल्युक्त वृत्तों से वन भरे हुए हैं॥ ५४ ॥
प्रवान्त्यभ्यधिक गन्धान्ययतुकुसुमा हुमा। ।
व्यूढानि कपिसेन्यानि प्रकाशन्तेिक प्रभे ॥ ५५ ॥
“समस्त दुक्तों के अकाल में पुष्पित देने से, उनकी खुगन्धि, ऋतु.
में फूले हुए पुष्पों से अधिक हो रही हे । दे प्रमो! व्यूहाकार
सुसज्िित ये वानरी सेना ऐसी शाभित हे रही है ॥ ५५ ॥
देवानामिव सेन््यानि सड्यामे तारकामये |
एवमाये समीक्ष्येतान्पीतों भवितुमईसि ॥ ५६ ॥
जैसे तारकाझुर वाले संग्राम में देवताओं की सेना शेमित हुई |
थी। हे आय | इत सब शुभ शकुनों के देख ध्याप प्रसन्न हजिये ॥४६॥
इति भ्रातरमाश्वास्य हुए; सोमित्रिरत्रवीत् ।
अथाहत्य महीं रत्सनां जगाम महती चमः ॥ ५७॥
सुमित्रानन्दन लक्ष्मण जी ने इसप्रकार कह श्रीरामचन्द्र जी को
ढॉढ़स वंधाया । समस्त पूृथिवी के ढक कर वह बड़ी वानरी सेना
चली ॥ ४७ ॥
ऋक्षबानर शशादलेनेखदं प्टायुपैठ ता |
कराग्रेश्चरणाग्रेश्च वानररुत्यितं रज; ॥ ५८ ॥
उस महतो धानरी सेना में, नखों ओ्रोर दांतों से लड़ने चात्े
बड़े बड़े रोहु ओर धानर हो देख पड़ते थे । उस समय उनके हाथों
ओर पैरों से उड़ी हुई धूल ने ॥ ५८॥
३ छ्ादू छ शब्द: श्रेएवाची । ( भे।० )
6
चतुथः+ सगरः ३३
भीममन्तदे गेक
मन्तर्दधे लोः निवाय सवितुः प्रभाग ।
सपवंतवनाकाशां दक्षिणां हरिवाहिनी | ५९ ॥
छादयन्ती ययो भीमा द्यामिवाम्बुदसन्ततिः ।
उत्तरन्त्यां च॑ सेनायां सन््ततं वहुयोजनम् ॥ ६० ॥
सम्पुर्ण दिशाओं भोर छूथे के प्रकाश के निविड़ अन्धकार से
ढक दिया। वह भयहुर कविसेना पर्वत, वन भर ध्राक्ाश सददित
दृत्षियाप्रान्त की भूमि का ढक ऐसी चली जाती थी, जैसे आकाश
में मेघ को घटाएँ । इस वानरसेना की पंक्ति वरावर कितने ही
येज़न तक लंबी फैली हुईं थी ॥ ५६ ॥ ६० ॥
' नदीखतोतांसि सवाणि सस्पन्दुर्विपरीतवत् ।
सि भाँरि क्ीणां ः
सरांसि विमलाम्भांसि हुमाक्रीणोँथ पवतान् ॥ ६१॥
» रास्ते में नदियों को घार का पारकर, जब चानरी सेना
चल्तठी, तव इनके थेग से नदियों की घारों उल्डी वदतों सी जान
पड़ती थीं । निर्मल जल से भरी 'कौलों, बुक्षों से सुशोमित
प्चेतों, ॥ ६१॥
समान्भूमिप्रदेशांश्च वनानि फलवन्ति च | ु
मथ्येन च समस्ताच् तियक्यापश्र साथ्विशत् ॥ ९२ ॥|
समाहत्य महीं कृत्स्नां जगाम महती चमु; !.
ते हृए्टपनसः सर्वे जम्मुमास्तरंहसः ॥ 5३ ॥
समतल्ल भूभागों और फल्लों से मरे वनों में हो कर तथा चारों
तरफ, पृथिवी ओर झाकाश को, इस प्रकार समस्त प्थिवों का
ढके हुए वह चानरी सेना. चली थी। वे: समस्त घानर प्रसन्न हो
वायु की तरह वेग से चक्मे ज्ञाते थे ॥ ६२ ॥ वे ॥
चा० श० यु०--३
३8 युद्धकाणे
हरयो राघवस्यथार्थ *समारोपितविक्रमा। |
हर्पवीयवलोद्रेकान्दशयन्त) परस्परम् | ६४ ॥।
श्रीरामचन्द्र जी के काय के पूरा करने के लिये वानरों का
विक्रम बढ़ रहा था भ्र्थातव् वे घानर युद्ध के लिये कमर कसे हुए
थे। वे वानर आपस में हर्प, वीर्य भौर वल की उत्कुएता दिखलाते
थे ॥ ६४ ॥
योवनोत्सेकजान्दपोन्विविषांश्चक्र्रध्वनि ।
तत्र केचिदद्रुत जम्मुरुत्पेतुइुच तथा«्परे ॥ ६५॥
और वे योवन के गर्व से गर्वित हो, तरह तरह की ध्वनि करते
ज्ञात थे । उनमें से काई तो बड़ी नज़ी के साथ चले ज्ञाते थे प्रोर
कोई उछलते क्वदते चले ज्ञाते थे ॥ ६४ ॥
केचित्किलकिलां चक्रुवॉनरा बनगोचरा! ।
प्रास्पोट्यंश्र पुच्छातिं सन्निजघ्नु) पदान््यपि ॥ ६६ ॥।
कोई कोई वानर किलकारियाँ मारते थे, कोई परंछों के फठ-
कारते, काई भूमि पर पैरों के पथकते हुए चले ज्ञाते थे ॥ ६6 ॥
भ्ुजान्विप्षिप्य३ शैलांश्च द्रमानन्ये वभज्ञिरे |
आरोहन्तश्च धृड़ाणि गिरीणां गिरिगोचरा:१ || ६७॥
कोई कोई भुजाओं के फैला पेड़ों और पहाड़ों के उज्ाड़ते
और तोइते जाते थे । पहाड़ों पर विचरने वाले घानर पर्वतशिखरों
पर चढ़ जाते थे ॥ ६७ ॥
मम अब अब कक आम मल आल अल अब जलन सन कल अमल निकमनि लिन ककक लकी
१ पसारोपितविक्रसा:--अभिवृद्धविक्रमाः । ( गे ० ) २ शवेकशब्दोति-
शयवाद्ी | ( गे।० ) ई विक्षिप्य--प्रसाय। (गो० ) ४ गिरियोचरा:--
गिरिचरा: । ( शी० )
चतुर्थ: सर्गः ३५
महानादान्विमुश्वन्ति क्ष्ेल्ामन्ये प्रचक्रिरे ।
ऊस्वेगेश्च ममृदुलताजालान्यनेकशः ॥ ६८ ॥
कोई कोई महानाद करते ओर कोई काई सिंहनाद करते थे । काई
ध्पपनी ज्ञाँधों से कार्मल लताग्रों के कुचल डालते थे ॥ ६८॥
जुम्भमाणाश्च विक्रान्ता विचिक्रीडः शिलाहुमे! |
शते। शतसहस्ेश्व कोटीमिश्च सहस्रश! ॥ ६९ ॥
वे विक्रमशाली वानर जम्ुद्दाते ज्ञाते थे श्रोर शिल्ाशों तथा
चुत्तों से खेलते जाते थे । उस समय लाखों करोड़ों ॥ ६६ ॥
वानराणां सुधोराणां यूयेः परिद्वता मही ।
सां सम याति दिवारात्र महती हरिवाहिनी ॥ ७० ॥
हएश प्रयुदिता सेना सुग्रीवेणाभिरक्षिता ।
वानरास्त्वरितं यान्ति सर्वे युद्धाभिनन्दिन। ॥ ७१ ॥
भयह्ढुर बानरों से पृथिवी पूर्ण हो गयी । वह मद॒ती वानरी
सेना दृषित एवं प्रम्ुदित तथा खुप्नीच से रक्षित दो, रात दिन चली
जाती थी। सब वानर युद्ध करने की इच्छा से वंड़ी शीघ्रता से
चन्ने जाते थे ॥ ७० ॥ ७१ ॥
भुमोक्षयिषत) सीतां मुहृत क्ापि नासत ।
तत; पादपसम्बाधं नानामगसमायुतम्र | ७२ ॥
सहापवंतमासेदु्मछयं च महीधरस् ।
काननानि विचित्राणि नदीप्रस्रवरणानि च ॥ ७३ ॥
पश्यन्नभिययों राम) सहास्य मलयस्य च |
चम्पकांस्तिलकांथूतानशोकान्सिन्धुवारकान् ॥ ७४ ॥
३६ युद्धकायडे
सीता जी के छुड़ाने के लिये वे इतने उतावत्ते हो रहे थे कि,
एक च्ाण के लिये भो वे कहीं विश्राम करने के नहीं ठदरते थे ।
तदूनन्तर थे वानर विविध चुतज्नों मे शोमित तथा विविध स्गों से
युक्त सहा और मलय नामक पर्क्षतों के का पहुँचे । सहा ओर
सलय के चित्र विचित्र बनों, नदियों ओर करनों को देखते हुए
शओरामचन्द्र जी चले जाते थे। चम्पा, तिलक, झाम, अशोक,
सिन्धुवार ॥ #२॥ ७३ ॥ ७४ ॥
करवीरांश्च तिमिशान्भज्जन्ति सम पुचड़मा; ।
अड्ञेलांश्च करज्ञांश्च पृश्षन्यग्रोधतिन्दुकान् ॥ ७५ ॥
करवीर श्रोर तिमिश के पेड़ों का वावर लोग नशट करते हुए चल्ले
जाते थे। इसी प्रकार अड्ोत, करख, पाकर, वद, तेंदू ॥ ७५ ॥
जम्ब॒कामलकान्नीपान्मज्ञन्ति स्तर पुबद्धमा। ।
प्रस्तरेपु च रस्येषु विविधा; काननहुमा। ॥ ७६ ॥
ज्ञामुन, आवता, नागकेसर के पेड़ों को सी वानर उखाड़ उखाड़
कर फक देते थे | वहाँ रमणीय पत्थरों पर अम्रे हुए अनेक प्रकार
के जंगली पेड़ ॥ 5६ ॥
वायुवेगम्चलिता: पुष्पेरवक्रिरन्ति तान# ।
मारुत) सुखसंस्पशों वाति चन्दनशीतलः || ७७ ||
चायु के वेग से चक्ायमान हो, फूलों के प्रथियवी पर वर्खेर
रहे थे | छूने से आनन्द देने वाला और घचन्दव फी तरह खुशीतल
चायु चत्न रद्दा था॥ ७७॥
# पाठान्तरे--' मां। ”
चतुर्थः सगे: े ३७
पटपदेरनुकूजद्विवनेषु मधुगन्धिपु |
अधिक शेलराजस्तु घातुभिः सुविभूषित) ॥ ७८ ॥
वनों में भोरे गूज रहे थे ओर वन में मधु की भनन््ध ध्या रही
थी | वह पवतराज धातुशों के द्वारा विशेष रुप से शासायमाय
दो रहा था | उप ॥
धातुम्यः प्रछतो रेणुवायुवेगविधट्टितः ।
सुमहद्वानरानीक॑ छादयामास स्वतः ॥ ७९ ॥
उस समय घानरी सेना के चलने के चेग से उत्पन्न चायु के
कारण उड़ी हुई उन धातुशों की रज ने महती धानरी सेना के
चारों ओर से हक लिया ॥ ७६ ॥
गिरिप्रस्थेषु रम्येपु स्वतः सम्प्रपुष्पिताः ।
केतक्यः सिन्धुवाराश्य वासन्त्यश्च मनोरमा; ॥ ८० ॥
माधव्यों गन्धपूर्णाश्च कुन्द्सुल्माश्च पुष्पिताः
चिरिविस्वा मधूकाश्व वल्लुला वकुलास्तथा ॥ ८१ ॥
रख़कास्तिलकाश्चैव नागह॒क्षाश्च पुष्पिताः
चूताः पाटलयरचैव कोविदाराश्च पुष्पिता। ॥ ८२॥
मुचुलिन्दाजनाश्चेव शिक्षुपाः कुटनास्तथा |
धवा; शल्मरूयवचेव रक्ता) कुरवकास्तथा ॥ ८३ ॥
हिन्तालास्तिमिशाश्चैव चूणेका नीपकास्तथा ।
नीलशोकाश्च सरला अज्लोला। पत्मकास्तथा ॥ <४॥
उस पंत पर सब ओर से रमणीक और फूज्ी हुईं केतकोी,
सिन्धुवार, मनाहर वासन्ती, खुगन्धित माधवो, फूले हुए कुन्द के
सेथ बुद्धकायडे
गुच्छे, चिरवित्व, मधुक, वज्छुत, वकुल. रखक, तिलक, पुष्यित
नागकैछर, आम- पाटली, फूने हुए काविदार, मुचलिन्द, अज्ञैन,
शिणपा, कुडन, ढाक, लाल शादमली, कुरवक, हिन्ताक्न, तिमिश,
चूर्य॑क, नीपक, नील. अप्ोक, साखू , प्रद्भोन्न, पद्मक ध्राद दुत्तों
को ॥ ८० ॥ ८रे ॥ ८द के ८४ है ८४ ॥
प्रीयमाणेः छबड्लेस्तु सर्वे पर्याकुलीकृता: ।
वाप्यस्तस्मिन्गिरों शीता) पत्वछानि तथेव च || ८५ ||
मारे शआानन्द के वानरों ने उखाड़ कर तथा नोंच नोंच कर फेक
दिया | उल पर्वत पर शोतत्न जल की वाचड़ी तथा छोटे छोटे
जलकुणड थे ॥ ८५ ॥
चक्रवाकानुचरिता) कारण्डवनिषेविता। ।
७ सच ९् द मगसेविता >_
पुवे! ऋ्रोशेथ सज्भीणों वराहमगसेविता। ॥ ८६ ॥
ऋश्षेस्तरप्षुभिः* सिंह! शादूलेश्च भयावह: ।
व्यालश्च वहुभिभीगेः सेन्यमाना; समन्ततः ॥ ८७॥
ज्िनर्म चक्रताक, कारणडव, क्रॉंच ओर पनडुन्चियाँ तैर रही
थों। उस पर्चत पर झुझअर, हिरन, रोछ, छोटे भेड़िये, भयद्भुर
सिंह. शादूत्व तथा बहुत से भयड्भर दुध्ध हाथी चारों झोर घूम रहे
थे ॥ ८६ | रुऊ ॥
पद्म सोगन्धिके! फुर्लेः कुमुदेश्चोत्पलेस्तथा ।
वारिजर्विविभे च्े जे
; पृष्प रम्यास्तत्र जलाशया! ॥ ८८ ॥
न नी: अल न्ओ२?)?०७ओ??)यछनजक_कस
९ तरक्षुमिः--रूुगादनैः ! “ गो० ) [ छोटा भेड़िया। ]._ ३२ ब्याजैः--
दुष्टगजै: । ( शो०)
चतुर्थ: सर्गः ३६
लाल कमल, उुगन्धरा, कुई, सफ़ेद कमल तथा प्न््य जल में
उत्पन्न दोने वाले विधिध प्रकार के फूल जल्लाशयों में फूल्ते हुए
थे ॥ ८८ ॥
तस्य सानुषु कूजन्ति नानादिजंगणास्तथा ।
स््नात्वा पीत्वोदकान्यत्र जले क्रीडन्ति वानर! | ८९ ॥
उस प्चेत के शिखरों पर विविध प्रकार के पत्ती क्ूज रहे थे।
वहाँ ये सब वानर स्नान कर झोर जलपान कर, जल में कीड़ा
करने लगे ॥ ८६ ॥
अन्योन्यं 'प्रावयन्ति सम शेलमारुझ वानरा ।
फलान्यम्नृतगन्धीनि मृल्ानि कुसुमानि च ॥ ९० ॥
वे आपस में एक दूसरे के छिटियाते थे। फिर वे घानर प्चेत
के ऊपर चढ़ कर अम्गत समान मीठे फलों ओर मूल्लों के तथा
फूलों फो, खाते थे ॥ ६० ॥
वभजझ्ुवानरारतत्र पादपानां वलोत्कग ।
द्रोणमात्रपमाणानि लम्बमानानि वानरा। ॥ ९१॥
वल्लोद्धत बानरों ने वहाँ के बृुत्षों के उलाड़ डाला । झअढ़ाई
सेर चज़नो लट्कते हुए ॥ ६१॥
ययु। पिवन्तों हृष्टास्ते मधूनि मधुपिहुलाः
पादपानवभज्जन्तो विकषन्तस्तथा लता; ॥ ९२॥
शहद के छत्तों का तोड़ तोड़ कर तथा उनसे शहद् निकाल, वे
शहद् की रंगत जैसे शरीर बात्ने चानर, पी केते थे | फिर छुक्तों की ,
उखाड़ते ओर लवाश्ों के नोंचते ॥ ६२॥
२ छावयन्ति--सिद्चधन्ति । ( गो० )
४० युद्धकाणडे
विधमन्तो गिरिवराम्मययु) एवगर्षभा! ।
इफ्षेम्योब्न्ये तु कपयो नद॑न्तो मधुदर्पिता! ॥ ९३ ॥
शोर पर्वतों का ढहातें वे. चले जाते थे । बहुतेरे वानर शहद
पीते पीछे अघा कर, चुक्षों पर चढ़े हुए गरज् रहे थे ॥ ६३ ॥
अन्ये दृक्षान्प्रप्॑न्ते प्रपतन्त्यपि चापरे |
वभूव वसुधा तेस्तु सम्पूर्णा हरियूथपे! ॥ ९४ ॥
कोई फाई कूद कूद कर बुत्चों पर चढ़ जाते थे ओर केई कोई
बत्षों से पुधियों पर घर्माधम कूद रहे थे। उस समय वष्ट स्थान
वानस्यूथों से वेसे ही परिपूर्ण दा गया था, ॥ ६४ ॥
यथा कमलकेदारे पक््वैरिव वसुन्धरा | ;
महेन्द्रभय सम्प्राप्य रामो राजीवछोचन! ॥ ९५ ॥॥
जैसे पके हुप जडृहन (शाल्री ) धान से खेत परिपूर्ण दो
जावा है। तदवनन््तर क्रमललोचन भीरामचन्द्र ज्ञी महेनद्राचल पर
पहुँचे ॥ ६५ ॥
अध्यारोहन्महावाहुं! शिखर हुमभूपितस् |
ततः शिखरमारुहय रामी दशरथात्मनः ॥ ९६ ॥
और उस पर्वत के वृत्तों से शासित शिखर पर चढ़े । तद्वन्तर
शिखर पर चढ़ दृशरथनन्द्न श्रीरामचन्द्र जी ने ॥ ६६ ॥
कूमेमीनसमाकीणमपश्यत्सलिलाकरस् ।
ते सह्यं समतिक्रम्य मलय॑ च महागिरिय ॥ ९७॥
वहाँ कछुओं ओर मछलियों से भय एक तातल्ाव देखा। वे
पवृतश्रेष्ठ सह्य भर मलय की पार कर ॥ ६७ |
चतुर्थ: सर्गः ४१
आसेदुरानुपून्येंण समुद्र भीमनिःखनम् | ह
अवरुद्य जगामाशु वेलावनमनुत्तमम् ॥ ९८ ॥
रामो रमयतां श्रेष्ठ; ससुग्रीवः सलक््मण! ।
अथ धोतोपछतलां तोयोधे! सहसोत्यिते! ॥ ९९ ॥
क्रमाचुसार भयड्ुर नाद करने चाले समुद्र के समीप जा
निकल्ने | तव रमण करने वालों में श्रेष्ठ भीरामचन्द्र जी सुत्रीव और
लक्ष्मण फे साथ पहाड़ से उत्तर सप्नुद्रतटवर्ती उत्तम चन में शीघ्रता
पूर्वक पहुँच गये | वहां जाकर भ्रीरामचन्ध जी ने देखा कि, समुद्र
के तथ्वर्ती पद्दोड़ों की उपत्यका सदा सप्लुद्र की लहरों के ज्ञल से
थाई ज्ञातो है ॥ ६८ ॥ ६६॥
वेलामासाद्य विषुलां रामो वचनमत्रवीत् ।
एते वयमनुप्राप्ता) सुग्रीव वरुणारूयम | १००॥
सप्रुद्र के लंचे चाौड़े तठ पर पहुँच श्रीरामचन्ध ज्ञी वोले--
हे खुप्नीव |! हम और ये सव वानरयण घरुणालय अर्थात् समुद्र पर
पहुँच गये ॥ १०० ॥
इह्देदानीं विचिन्ता सा या नः पूर्व समुत्यिता |
अतः परमतीरो5्यं सागर; सरितां पति। ॥ १०१ ॥
यहाँ ध्राने पर हम लोगों के मन में वह्दी चिन्ता फिर उत्पन्न
हो गयी जे! पहले हुई थी । इस विशाल नदीपति सम्लुदर
का दूसरा (शध्र्थात् दूसरी शोर का) तद दिखिलाई ही नहीं
पड़ता ॥ ९१०१ ॥ बंद तिल
न चायमनुपायेन व ।
* तदिहेव निवेशोउ्स्तु मन्त्र! प्रस्तूयतामिह | १०२॥
४२ युद्धकागडे
से बिना किसी श्रेष्ठ उपाय के लिचारे, इस भसुद्र के पार
होना कठिन है। अतः यहीं ठहर कर विचार करना चाहिये ॥१०१॥
यथेद॑ वानरवर्ल पर पारमवाप्लुयात् |
'इतीव स महाबाहु) सीताहरणकशितः) ॥ १०३ ॥
जिससे यह वानरी सेना उस पार जा सके। इस प्रकार मह्दे-
बाहु ओर सीताहरण के शोक से विकत्त ॥ १०३ ॥
राम) सागरमासादध वासमाज्ञापयत्तदा |
सवा; सेना निवेश्यन्तां बेलायां हरिपुक्व ॥ १०४७॥
श्रीयमचन्द्र जी ने समुद्गतठ पर पहुँच सेना के वहाँ टिकने की
घ्राक्षा दी | वे सुत्रीव से वोल्े--है खुप्तीव | इसी तद पर समस्त
सेना के दिक्का दें। ॥ १०४ ॥
सम्प्राप्तो मन्त्रकालो नः सागरस्यास्य ले ।
खां खां सेनां समुत्छज्य मा च कथित्कुतो ब्रजेत् ॥१०५॥
गच्छन्तु वानरा; शूरा ज्ञेयं छन्नं भयं च न |
रामस्य वचन श्रुत्वा सुग्रीवः सहलृक्ष्षण; ॥ १०६ ॥
क्योंकि समुद्र के पार होने के सम्बन्ध में परामर्श करने का
समय झा पहुँचा है | प्रपनी अपनो सेना को छोड़ कर कोई भी
सेनापति कहीं न जाय । बल्कि शूरवीर वानर इधर उधर घूम फिर
कर छिपी हुई राक्तसी सेना का पता लगायें | थ्रीरामचन्द्र जी के
ये धचन खुन, लक्ष्मण सहित मुझ्नीच ने ॥ १०४॥ १०६ ॥
सेनां न््यवेशयत्तीरे सागरस्य दुमायुते ।
विररशाज समीपस्थं सागरस्प च तद॒लम ॥ १०७ ॥
चतुथः सर्गः 8३
चूत्तों से छुशोभित उस समुद्गतद पर वानयें सेना के टिका
द्या । उस समय समुद्गरतट पर ठहरो हुई वह वानरी सेना ॥१०७॥
मधुपाण्डुजलछ) श्रीमान्द्रितीय इंच सागर! ।
वेलावनमुपागम्य ततस्ते हरिपुद्धवा। | १०८ ॥
विनिविष्ठाः पर पारं काइुमाणा महोदपे! ।
तेषां निविशमानानां सेन्यसब्राहनि!ःखन ॥ १०९ ॥
अन्तर्धाय महानादमर्णवस्य प्रशुश्रुवे ।
सा वानराणां ध्वजिनी सुग्रीवेणाभिपालिता ॥ ११० ॥
.मघुपिकछुलवर्ण ( शहद जैसे पीके रंग के ) जल से पूर्ण दूसरे
मंद्रासागर के समान जान पड़ी । तद्ननन््तर वे वानरश्रेष्ठ समुद्रतद
पर पहुँच, समुद्र के दूसरे तठ पर जाने की अभिलाषा करने
लगे | उस समय वानरी सेना की चिहल्लाहट ने समुद्र के गज्ञन के
दवा दिया और ( केवल ) वानरों की चिल्लाहट ही खुन पड़ने लगी ।
चह खुश्रीवपाल्ित वानरी सेना ॥ १०८ ॥ १०६ ॥ ११० ॥
त्रिधा निविष्टा महती रामस्याथपराउ्मवत् ।
सा महार्णवमासाथ हटा वानरवाहिनी ॥ १११ ॥
रीछ, वंद्र ओर लंग्रुर--इस प्रकार तीन भागों में बंद कर
श्रीरामचन्द्र जो का कार्यसिद्ध करने को यत्नवती हुई । दृषित
वानरी सेना ने महासागर के समोपष पहुँच ॥ १११॥
वायुवेगसमाधूत॑ पश्यमाना महार्णवम् ।
दरपारमसम्वाध रक्षोमणनिषेवितस् ॥ ११२॥
वायु के वेग से लद्॒राते हुए समुद्र को देखा। बड़ी कठिनाई
से पार होने योग्य ध्योर राक्तससेवित ॥ ११२ ॥
४७ युद्धकाणडे
पश्यन्तों वरुणावास विपेदुहेरियूथपाः ।
चण्डनक्रग्रह घोरं 'क्षपादों दिवसक्षये ॥ ११३ ॥
वरुण के आवसस्थान भ्र्थात् सप्द्र को देखते हुए, वानर
ति च्ां बैठे हुए थे | समुद्र बड़े बड़े घड़ियालों से पू्ण द्वोने
के कॉरण भयावह हो रहा था ओर सन्ध्या के समय ॥ ११३॥
हसन्तमिव फेनोपेन त्यन्तमिव चोर्मिमि! ।
न्द्रोदयसमुद्धृतं प्तिचन्द्रसमाकुछस् ॥ ११४ ॥
जब उसमें फेन आता था, तब ऐला ज्ञान पडुता था, मानों वह्द
हँस रहा है ओर ज्ञव वह अ्रपनी लहरों से लहराता था, तब पेसा
ज्ञान पड़ता था मानों धद नाच रहा है। समुद्र चन्द्रमा के उदय
होने पर बढ़ता झोर चन्द्रमा के प्रतिविषों से भरा हुआ जान पड़ता
था॥ ११७॥
[ पिन्ठीव तरब्भाग्रेरणब! फेनचन्दनम् |
तदादाय करेरिन्दुर्लिम्पतीव दिगड़ना। ॥ ११५॥ ]
डस समय ऐसा ज्ञान पड़ता था, मानों महासागर, तरड्रोंबपी
हाथों से फेचरूपी चन्दन रगड़ रहा है ओर चन्द्रमा अपने किरण
रूपो हाथों से दिशारूपी झुन्द्रियों के घड़ों में चन्दन का लेप कर
रहा है ॥ ११५॥
चण्डानिल्महाग्राहे! कीणें तिमितिमिद्गभले: ।
रदीप्रभेगैरियाकीण अजद्लैमेजगालूयस् ॥ ११६ ॥
१ दिवसक्षये क्षपादी सम्ध्यायामित्थे+। ( गो० )
कह २ दोछमे।गेरुज्ज्वल
६ १ ( रा०
चतुर्थेः सर्मः 8५
वह समुद्र प्रचणड घांयु, बड़े बड़े घड़ियालों, तिप्ि और तिमि-
ज्ुलों ( एक प्रकार को बड़े श्राकार को मछलियों ) से भरा हुआ
देख पड़ता था। उज्ज्वल देहधारी सर्पों से भरा होने के कारण बह
सर्पो का आलय ध्र्थात् पाताल जैसा जान पड़ता था ॥ ११६ ॥
अबगाढ महासच्चेनोनाशैलसमाकुलम् ।
९ 0७
सुदुग दुगमार्ग तमगाधमसुरालयम् ॥ ११७॥
बड़े वड़े जलचरों ओर पहाड़ों से समुद्र भरा हुआ होते के
कारण, मार्गरहित, सव किसी के जाने के भ्रयेग्य ओर अछ॒रों के
रहने का धअ्गाध स्थान था ॥ ११७॥
, मंकरेनांगभेगिश्व विगाठा वातलोलिता; |
उत्पेतुअ निपेतुश् प्रदृद्धा जलराशय। ॥ ११८ ॥
उसकी लहरें घड़ियाल थोर स्पा के चलने फिरने से तथा
वायु के चेग से ऊपर के उछलतीं ओर बड़े ज्ञोर से शब्द करती
हुई नीचे गिरती थीं ॥ ११८ ॥
अगिचूणमिवाविर्द्ध भास्वराम्यु महोरगम |
सुरारिविषयं१ घोरं रपातालविषमं सदा॥ ११९ ॥
सप्तुद्र में मणिधारों सपो के रहने से, उनके फरणों की मणियों
की किरने ज़ब जल पर छिदकती थीं, तब ऐसा जान पड़ता था
मानों जल के ऊपर भ्रम्मि की चिवगारियाँ विखरी हुई पड़ी हों।
यह भयड्डर समप्रुद्र भछुरों का आवासस्थान शोर पाताल की तरह
गद्दरा है॥ ११६॥
१ विषयं--आवाष्तसूतं ( गे ) २ पात्ताछविषपम्--पातालछवत् गंभीर ।
(गेा० ) ,
छह युद्धकाणडे
सागर चाम्वरप्रस्यमम्वर॑ सागरोपमम् |
सागर चाम्वरं चेति 'निर्विशेषमव्श्यत ॥ १२० ॥
उस समय समुद्र तो आ्राकाश जैसा भर प्राकाश संपरुद्र जेसा
देख पड़ता था । उन दोनों में कोई भी अन्तर नहीं देख पड़ता
था॥ १२० ॥
सम्पृत्त॑ नभसा>प्यम्भ! सम्पृक्त॑ च नभेज्म्मसा ।
ताइग्रपे सर दश्येते तारारत्रसमाकुले ॥ १२१ ॥
उस समय ऐसा जान पड़ता था कि, आकाश से तो समुद्र
का अल मित्रा हुआ और जल से आकाश । देने ही ठुल्य
रूप जान पड़ते थे । नत्तवदीध्ति ( नज्षत्रों के प्रकाश ) ओर
रलज्योति (रत्नों की दमक ) के कारण दोनों एक समान है|
रहे थे ॥ १२१॥
समुत्पतितमेघस्य दीचिमाछाकुरूस्य च |
विशेषो न दयोरासीत्सागरस्याम्वरस्य च् ॥ १२२॥
मेघयुक्त आकाश भोर लहरों से युक्त सप्तुद्र दोनों में कुछ भी
धन्तर नहीं ज्ञान पड़ता था ॥ १२२॥
अन्योन्यमाहता; सक्ता; सखनुर्भीमनिःखना; |
ऊरमयः सिन्धुराजस्थ महाभेय इवाहवे ॥ १२३ ||
दोनों आपस में मित्ते हुए ओर घापस में टकरा कर भदहाघेर
शब्द् कर रददे थे। समुद्र की लहरें ऐसा शब्द कर रही थीं, मानों
लड़ाई के नगाड़े बज रहे हों ॥ १९३॥
१ निर्विशेष--परस्परातिरिक्तप्ततश् रदितं । ( रा० )
रत्ोघजलसन्नादं विपक्तमिव वायुना !
उत्पतन्तमिव क्रुद्ध यादोगणसमाकुलस् ॥ १२४ ॥
रल्ोों से श्रोर विविध प्रकार के जलजन्तुओं से पूर्ण, समुद्र
का जल वायु के कोकों से ऐसा उछल रहा था, मानों क्रोध में भर
उछल रहा है ॥ १२४ ॥
दरशुस्ते महोत्साह्य वाताहतमपाम्पतिम# ।
अनिलोद्धतमाकाशे प्रवरगन्तमिवेमिमिः ॥ १२५ ॥
उस समय उन वानरों ने इस तरह के समुद्र को ऐसा देखा,
भानों वह लदरोरुपो मुख से व्यर्थ की बक वक कर रहा है| ॥१२५॥
ततोविस्मयमापन्ना ददशुहरयस्तदा ।
श्रान्तोर्मिजलसन्नादं प्रछोलमिव सागरस ॥ १२६ ॥
इति चतुर्थ: सगः॥
चक्कर खाती हुई बहुत सी तर्ढों से युक्त भर कल्लोज्लमय सहुद्र
के देव, वे घानरगण परम पिस्पित हुए ॥ १२६ ॥
युद्धकायगड का चतुर्थ सर्ग पूरा हुआ |
“+ैऔै--
पन्नुमः सगे:
मा * “मा
सा तु नीलेन 'विधिवत्खारक्षा सुसमाहिता |
सागरस्योत्तरे तीरे साधु सेना निवेशिता | १ ॥
१ विधिवत्--नीतिशामस्रोक्तरीत्या | ( गे० ) " पाठान्तरे--“ वाताइत-
जछाशयम्!! || पराठान्तरे--“ भनिलादुभूतं ”! ।
छेप युद्धकायडे
सेनापति नील के अधिरार में वामरी सेना सप्तुद्र के उत्तर
तद पर भली भौति दिका दी गयी और सैनिक नियमानुसार पहिरे
ध्यादि का प्रबन्ध किया गया ॥ १॥
मैन्दश्च द्विविदश्चोमी तत्र वानरपुड्ठवों ।
विचेरतुश्च तां सेनां रक्षाथ सबंतोदिशय् ॥ २ ॥
पैन्द और द्विचिद नामक दे यूथपति रखवाली फे लिये, सेना
के चारों और घूम घूम कर पहरा देते त्वगे ॥ २॥
निविष्टायां तु सेनायां तीरे नदनदीपते; ।
पार्वेस्थं लक्ष्मणं दृष्ठा रामो वचनमत्रवीत् ॥ ३ ॥
नदीपति समुद्र के तट पर सेना के टिक जाने पर, वगल में
वेंठे हुए लक्ष्मण से भ्रोरामचन्द्र ज्ञी वोले ॥ ३ ॥
शोकश्च किछू कालेन गच्छता हृपगच्छति ।
मम चापद॒यतः कान्तामहन्यहनि वधते ॥| ४ ॥
है लक्ष्मण | देखा समय जैसे जेसे बीतता ज्ञाता है, चेसे ही
बेसे मनुष्य का शोक भी कम होता है। किन्तु सीता के न देखने से
मेरा दुश्ख दिन दिन बढ़ता जाता है॥ ४ ॥
नमे दुःखं प्रिया दरे न मे दुःखं हतेति वा।
एतदेवाचुशोचामि वयोज्स्या हयतिवतेते ॥ ५ ॥
हे लक्ष्मण ! मुझ्ते अपनी प्यारी सीता के दुर होने का दुःख
नहीं है ओर न उसके हरे जाने ही का दुःख है, मुझे तो धीरे धीरे
उसकी शझआयु के ज्ञीण होते जाने का ( अर्थात गतयोवना द्वोने का )
दुःख है॥ ५॥
पश्चमः सर्गः ४६
वाहि वात यतः कान्ता तां स्पृष्टा मामपि स्पृष्ठ ।
त्वयि मे गात्रसंस्पशइचन्द्रे हप्टिसमागम! ॥| ६ ॥
है चायु | तुम उधर ही के चलो जिधर मेरी प्यारी है भोर
उसके शरीर के छू कर भेरे शरीर को छूशो | मेरे शरीर को, तुम्हारे
छूने से चैसा हो खुख होगा, जेसा गर्मी से विकल मनुष्य, चन्द्रमा
के। देख कर, खुखी होता है ॥ ६ ॥
तन्मे दहति गात्राणि विष॑ पीतमिवाशये ।
हा नाथेति प्रिया सा मां हियमाणा यदबवीत् ॥ ७॥
है लक्ष्मण | धरे जाने के समय मेरी प्रिया ने जे। “ हा नाथ ”
कहा था, वह मेरे शरीर के शरीरस्यित ध्यथवा ( पिये हुए ) विष
की तरद् भस्म कर रद्दा है ॥ ७॥
तहियोगेन्धनवता तबिन्ताविषुलारचिषा |
रात्रिदिवं शरीर मे दह्मते मदनाभिना ॥ < ॥
सीता के वियेग रूपी ईधन से युक्त घोर उसकी चिन्ता रूपी
ज्वाला से दृहकता हुआ यद्द काम रूपी आग रात दिन मुस्ते भस्म
कर रहा है ॥ ८॥
अवगाहयाणवं खप्स्ये सोमित्रे भवता विना |
कथश्वित्मज्वलन्कामः न मां सुप्तं जले दहेत् ॥ ९ ॥
है लद्मण ! तुम यहां रहो। में इस समुद्र में गेता सार कर
' साऊँगा । फ्योंकि यह दृहकता हुष्पा काम छुम्ते जल में तो भस्म न
करेगा ॥ ६ ॥ ,
वह्देतत्कामयानस्य शकक््यमेतेन जीवितुस् |
यदहं सा च वामोरूरेकां धरणिमाशितों ॥ १० ॥
धा० रा० यु०--४५
५० युद्धकाणडे
मुझ विरही के जीवित रखने के लिये इतना ही पर्याप्त है कि,
में ओर वह सीता एक पूथिवी पर ता सेते हैं ॥ १०॥
केदारस्येव केदार; सोदकस्य निरूदकः ।
उपस्नेहेन जीवामि जीवन्ती यच्छणोमि ताम ॥ ११॥
ज्ञिस तरह पानी से पूर्ण क्यारों की समोपवर्तिनी छुखी
'क्यारो, जल्तपूर्ण फ्यारी की ठंढक से अपने पोधों के सॉंचदी
है, 3थो तरह सीता के जोती ज्ञागती छुन कर, में भी ज्ञीता
हूँ॥ ११॥
कदा नु खलु सुश्रोगी शतपत्रायतेक्षणाम् ।
विजित्य झत्रन्दरक्ष्यामि ख्रीतां स्फ्रीतामिव भ्रियम् ॥१२)॥
हे लक्ष्मण | में शत्रु के मार कर, उस झुन्दरी छोर कमलनयनी
सीता के, धनधान्य से भरो पूरो राज्यलद्मी के तुल्य, कव
देखू गा ॥ १२॥
कदा नु चारुविम्वोष्ठं तस्याः पद्ममिवाननम् ।
रेपदुन्नम्य पास्थामि रसायनमिवातुरः ॥ १३ ॥ -
५ में उसके विस्वोष्ठ तथा कमल के तुल्य मुँह के अपने हाथों से
ऊँचा कर, उसका अधरासत पान बैसे ही कब करूँगा, जैसे रोगी
रसायन का पोता है ? ॥ १३॥
तस्यास्तु संहतो पीनो स्तनों तालफलोपमौ ।
कदा नु खलु सोत्कम्पो झिष्यन्त्या मां मजिष्यत) ॥१४॥
उस हँसती हुई सीता के तालफल के समान काँपते हुए स्तन-
युगल, मेरे शरीर का स्पर्श ऋब करंगे॥ १७४॥
पश्चमः सर्गे: ५१
सा नूनमसितापाड्ी रक्षोमध्यगता सती । '
मन्नाथा नाथहीनेव त्रातारं नाधिगच्छति ॥ १५॥
द्वाय | वद्द श्याम नयनवाली जनकक्ुुमारी मेरे जैसे स्वामी के
रहते राज्ञसों के वश में हो, प्रनाधिनी की तरह, अपना रक्तक कोई
' नहीं पाती होगी ॥ १५४ ॥
कथ्थं जनकराभस्य दुहिता सा मम प्रिया ।
राक्षसीमध्यगा शेते स्तुपा दशरथरय च ।। १६॥
हा | जनकराज की पुत्री, मेरो प्यारी झौर दशरथ की वह्द
पुश्रवधू राक्तसियों के बीच कैसे सोती होगी॥ १६ ॥
कदाअविक्षोभ्यरक्षांसि सा विधुयोत्पतिष्यति |
विधूय जलदान्नोलाज्यशिरेखा शरत्खिव ॥ १७॥
इन दुधष राक्तसों का विध्वंस हो कर, उसका उद्धार वैसे कब
दोगा, जेसे शरत्काज्न की चन्द्ररेखा नील मेघों के तितिर बितिर
हो ज्ञाने पर प्रकाशित होती है ॥ १७॥
सखभावतनुका नूनं शोकेनानशनेन च |
भूयस्तलुतरा सीता देशकालविपयेयात् ॥ १८ ॥
हाय | वह तो पहले ही बहुत ली हुई थी ओर शव तो शाक
और कड़ाके करते करते तथा देश और काल के विपर्यास से ( स्थान
झोर समय के परिवर्तन से ) अत्यन्त ही लट गयी दागी ॥ १८॥
कदा जु राक्षसेन्द्रस्थ निधायोरसि सायकान |
सीतां प्रत्याहरिष्यामि शोकसुत्छज्य मानसम् ॥ १५९ ॥
हे लक्मण | रावण की छाती की तीरों से चीर कर, में अपने
मन का शोक दूर कर, सीता का कब फिर पाऊगा १६॥
५२ शुद्धकायडे
कदा नु खलु मां साध्वी सीता सुरझुतोपमा ।
सोत्कण्ठा कण्ठमालम्ध्य मोक्ष्यत्यानन्दर्ज पथ; || २० ॥|
चह देवकन्या के समान पतित्नता सीता, उत्कशण्ठा पूर्वक मेरे
गल्ले में लिपठ, आँखों से आनन्द फे आंसू कब बहाघेगी ? ॥ २० ॥
कदा शोकमिमं घोरं मैयिल्ली विप्रयोगजम |
सहसा विप्रमोक्ष्यामि वासः शुक्केतरं यथा ॥ २१॥
हे लद्मण ! में सीता के विरह से उत्पन्न हुए, इस घेर शोक
के, मलिन वस्य की तरद् कब छा गा ॥ २१॥
एवं विलपतस्तस्य तत्र रामस्य घीमतः ।
दिनक्षयान्मन्द्रुचिभांस्करो5स्तमुपागमत् | २२ ||
बुद्धिमान भ्ोरामचन्ध जी सीता के शोक में अधघीर हो, इस
प्रकार विज्ञाप कर ही रहे थे कि, इतने में शाम हो गयी आर
भगवान् छूय कान्तिहीन हो, अस्तावलगामी हुए ॥ २२ ॥
आधश्वासितो लक्ष्मणेन राप) सन्ध्याम्पासत ।
स्सरन्कमलपत्राक्षीं सीतां शोकाकुलीकृत) | २३ ॥
इति पश्चमः सर्ग:॥
लक्तमण ने श्रीशमचन्द्र जी के समसझाया--तव उन्होंने सन्ध्या-
पासन किया, किन्तु चे अपने मन में सोता का स्मरण करते हुए,
शाक से विकल हो रहे थे ॥ २३ ॥
युद्धकाणड का पाँचर्वा सर्ग पूरा हुप्ना ।
आज 82... मम
षष्ठट; सर्गः
---६६---
ल्षायां तु कृत कर्म घोरं दृष्टा भयावहस् |
राक्षसेन्द्रो हनुमता शक्रेणेव महात्मना ॥ १ ॥
अन्नवीद्राक्षसान्सवॉन्हिया किखिदवाट्मुखः
धर्षिता च प्रविष्टा च लट्ढा दुष्पसह्य पुरी ॥ २॥
तेन 'वानरमात्रेण दृष्ठा सीता च जानकी |
प्रासादो धर्पितश्रैत्य/ प्रवला राक्षसा हता; ॥ ३ ॥
उधर लड्ुा में, राक्षसराज रावण, मदावतल्ी इन्द्र के समान
हसुमान जो का किया हुआ घेर भयद्भर कार्य देख, लज्ञा के
मारे उदास हो, रात्तसों से बोला | देखेा--एक वन्दर ते अज्लेय
जद्भा में आकर लड्ढडापुरो की केसी दु्दंशा की। उस वन्द्र ने
जनकनन्दिनी सीता से बातचीत की, महल्लों के नए्ट भ्रष्ट कर डाला
शोर बड़े बड़े वलचान राक्तसों के मार डाज़ा ॥ १ ॥ २॥ ३॥
' आकुछा च् पुरी लक्ढा सवा इलुमता कृता |
कि करिष्यामि भद्र व कि वा युक्तमनन्तरस ॥ ४ ॥
हनुमान ने तो सारी लड्ढापुरी में हलचल मचा दी । तुम्दारा
भत्रा हो--अब तुम सव यह तो बतलाञ कि, सुझे क्या करना
चाहिये ओर दया करना ठीक दागा ॥ ४ ॥
१ वानरमात्रेण--वानरजातीयैन । ( गे।* )
श्छे युद्धकाणडे ह
उच्यतां न! समर्थ यत्कृतं च सुकृतं भवेत ।
मन्त्रसूलं हि विजय॑ प्राहुरायो मनखिन! ॥ ५॥
तुम लोग केई ऐसा उपाय वतलाओ जिसके करने से प्न्त में
भल्राई हो और जिसे हम लोग कर भी सके। फ़्योंकि परिडत ज्लेग
विज्ञय की कुंजी विचार ही के वतल्लाते हैं ॥ ५ ॥
हि
तस्माड़े रोचये मन्त्र राम प्रति महावरा! |
त्रिविधा) पुरुषा लछोके उत्तमाधममध्यमा) ॥ ६ ॥
हे राज़्खों | इस समय मुझे ध्रीरामचन्द्र के विषय में परामर्श
करना ठीक ज्ञान पड़ता हैं। संसार में उचम, मध्यम भोर अ्धम
तीन अकार के लेाग हुआ करते हैं ॥ ६॥
तेपां तु समवेतानां गुणदोषों बदाम्यहस |
मन्त्रिसिर्दितसंयुक्तेः समयंमेन्त्रनि्णये || ७ ||
से में उन तीनों प्रकार के लागों के गुण दोषों के। कहता हूँ।
जे मनुष्य हितैदी झौर सलाह देने की याग्यता रखने वालों ॥ ७ ||
मित्रेवांपि समानायंवान्धवेरपिवाधिके ।
सहितो मन्त्रयित्वा य॑; कर्मारम्भान्मवर्तयेत् ॥ ८॥
अथवा अपनी तरह दुःख खुख भागने वाले मित्रों अधवा भाई
वंदों ध्रथवा अपने से धधिक योाष्य व्यक्तियों के साथ सलाह कर
कार्य धारस्भ करता है ॥ ८ ॥ ढ
'देवे च कुरुते यर्ं तमाहुः पुरुषोत्तमम् ।
एको<थ विमृशेदेको धर्में प्रकुरुते मनः ॥ ९ |
“पका पाछू_----_--
दैवे-दैवसद्वाये च । ( रा० ) दैवसमाश्रयणे । ( गे।० )
पह: संग! ५५४
एक; कार्यांणि कुरुते तमाहुमुध्यमं नरस्।
गुणदोपावनिश्चित्य त्यक्त्वा धर्मव्यपाश्रयम ॥ १०॥
पर देववल के सहारे पथवा ईश्वर की सद्दायता पाने के लिये
यत्र करता है, पगित लेाग -ऐसे पुरुष के उत्तम पुरुष कहते हैं ।
जे। मनुष्य भ्रकेल्ता ही घ्र्थ का विचार कर और धर्म में मन लगा
स्वयं हो कार्य ग्रार््भ फरता है, चह अघम पुरुष कहलाता है।
जा गुण दोपों के भलो भांति विचारे बिना कोर धर्म का सहारा
त्याग कर ॥ ६॥ १० ॥
करिप्यामीति यश कार्यमुपेक्षेत्स नराधमः ।
यथेमे पुरुषा नित्यमुत्तमाधममध्यमाः || ११ ॥
तथा मे अफेला पश्रथवा स्वयं द्वी इस कार्य के कर छू गा--
ऐसा सोच कर, फिर भो ढीला पड़ जाता है; वद्द मनुष्य अधम है।
जिस प्रकार तीन प्रकार के उत्तम, मध्यम श्र ध्यधम पुरुष होते
हैं॥११॥
' एवं मन्त्रा हिं विज्ञेया उत्तमाधममरध्यमा; ।
ऐकमत्यमुपागम्य शास्रदष्टेन चन्षुपा ॥ १२ ॥
मन्त्रिणो यत्र निरतारतमाहमन्त्रमुत्तमम् ।
वहयोअपि मतयो भूत्वा मन्त्रिणामर्थनिणये ॥ १३ ॥
पुनयत्रेकता प्राप्ता। स मन्त्रो मध्यम: स्पृतः
अन्योन्य मतिमास्थाय यत्र सम्प्रतिभाष्यते ॥ १४ ॥
न चैकमत्ये श्रेयो5स्ति मन्त्र; सेज्धम उच्यते ।
तस्मात्सुमन्त्रितं साधु भवन्तो मतिसततमा: ॥ १५ ॥|
रद युद्धकायडे
इसी प्रकार मंत्र ( सलाह ) भी इतम, मध्यम ओर धअधम तीन
प्रकार के ज्ञानने चाहिये | शाख्राउसार जहाँ एक मत होकर मंत्रि-
गण जे। सलाह करते हैं, वह उत्तम सलाह कही जाती है। जिस
विचार का निर्णय करते के लिये मंत्रो श्नेंक मत होऋरण, फिए
झन्त में एक मत ह्षि जाँय, उस सलाह के! पशिद्ुत मध्यम सलाह
वबतलाते दें ओर जिस मंत्र में सद मंच्दाताओं का मत अलग प्रलग
हो ओर सब पक्क मत नहों ओर एक मत होने पर सी जिसमें
कल्याण होना सम्मद न देंख पड़े, वह मंत्र अघम कहलाता हे)
झतएव हे मंत्रिश्रेणों! झाप लोग भली भाँति विचार करो--
क्योंकि आप लोग बड़े वुद्धिमान हैं॥ १२ ॥ १२॥ १७ ॥ २५ ॥
काय सम्पतिपद्चन्तामेतकृत्यं मतं मम !
वानराणां हि वीराणां सहसे परिचारितः ॥ १६ ॥
जे ऋृतंव्य (ओर श्रेष्ठ) हो. उसे एक मत होकर निश्चित करों--
वर, वहो मेरा फत्तेत्य होगा। देखे हज़ारों घोर वानरों के साथ
ले कर ॥ १६ || .
रामोड्म्येति पुरी छड्डामस्माक्रमुपरोधकः |
तरिष्यति च सुन्यक्त॑ राघव; सागर सुखय ॥ १७॥।
शरसा चुक्तरू्पेण सानुनः सवलानुगः ।
समुद्रम॒च्छोषयति दीयेंणान्यसकरोति वा ॥ १८ ॥
श्रीरामचन्द्र जो लड्भापुरी का श्चरोध करने घआ रहे हैं। यह
भी निश्चित ह कि, श्रीरामचन्द्र जी अपने नये वजन अथवा विव्य
घत्मों के चल से, भन॒ज्ञ लक्ष्मण ओर समस्त दचानरी सेना सहित
समुद्र के इस पार आसानी से शआा जाँबगे | चाहे वे समुद्र के जल
१ तरतपा--बलेन | ( रा० ।
खसत्तम+ सगे; ५७
के सुखा कर श्रार्वे श्रयवा पराक्रम द्वारा कोई अन्य उपाय
कर ॥ १७॥ १८॥
'असिम्नेवं गते कार्ये विरुद्धे वानरे! सह।
हितं पुरे च सेन्ये च से सम्पन्ज्यतां मम | १९ ॥
इति पछः सर्गः ॥
लड़ा पर चढ़ाई होने की और वानरों के साथ विरोध हो जाने
फी वात के ध्यान में रख, सव लोग मित्र कर ऐसी सलाह करो,
जिससे लक्भापुरी और रात्तसी सेना की रक्ता हो ॥ १६॥
युद्धकाण्ड का छुठवाँ सगे पुरा हुआ ।
““+पई-+
सप्तमः स्गः
न-्ध जिलमीबल आओ
इत्यक्ता राक्षसेन्द्रेण राक्षसास्ते महावलल: |
: ऊलज्ु! प्राज्ललयः सर्वे रावणं राक्षसेश्वरस् ॥ १ ॥
जव राक्तसेन्द्र ने यह कहा, तब वे सब महावल्ली राक्षस हाथ
जेड़ कर राक्तसराज्ञ रावण से बाले ॥ १॥
हिपत्पक्षमविज्ञाय नीतिवाह्यास्वबुद्धब/ ॥ २॥
हाराज ज्ञब तक शत्र का बलावल न मालूम ही, तब तक
परामर्श देना नीति विरुद्ध और निर्वद्धियों का काम है॥ २ ॥
राजन्परिघशक्त्युप्रिशूलपट्ससहुलस् |
सुमहन्नो वल॑ कस्माद्विषाद भजते भवान् ॥ ई ||
१ अस्मित्ष--छट्ठानिरोधनरूपे कार्य | ( गा०
न्ैँ
श््द युद्धकायडे
हे राजन ! हम लोगों के पास परिध, शक्ति, थड़ि, श्वूल प्ोर
पठाधारिणी एक मददती सेना है। अतः श्राप विपाद क्यों करते
हैं॥३॥ हे
त्ववा भोगवर्ती गत्वा निजिताः पन्नगा युधि |
कैलासशि बडे
खरादासी यक्षेवेहुमिराहत; || ४ ॥
तुमने भागवतो में जाकर सर्पो के ज्ञीता है। कैलासवासी
बहुत से यक्षों से युक्त, ॥४॥ |
सुमहत्कदनं१ कृत्वा वश्यस्ते घनद कृत; ।
स महेश्वरसख्येन कछाधमानस्त्वया विभेा ॥ ५॥।
कुवेर से घेर युद्ध कर, उसे अपने वश में किया है। महादेव
का मिन्न कह कर, जे छुवेर स्वयं अपनी वड़ाई किया करते हैं ॥ ४ ॥
निर्मितः समरे रोपाल्कोकपालो महावत्तः |
विनिहत्य च यक्षाघान्विक्षोभ्य च विग्रह्न च ॥ ६॥
तुमने रोष में भर रणमभूमि में उस लेकपाल के भी जीत लिया ।
दल के दल यज्ञों के मार और केद कर उनके छुब्ध कर दिया ॥ ६ ॥
त्वया कैछासशिखराह्िमानमिदमाहतस् ।
मयेन दानवेन्द्रेण त्वद्रयात्सज्यमिच्छता ॥ ७ ॥
तुम कैलासपर्चत से यह पुष्पक विमान ले झाये । सय नामकझ
दैत्यराज ने भयभीत ही तुमसे मेन्नी करने के लिये ॥ ७ ॥
दुह्िता तव भायारथें दत्ता राक्षसपुद्धच ।
दानवेन्द्रों मधु्नाम वीरय्योत्सिक्तो दुरासदः ॥ ८ ॥
१ कदनं--थुद्ध ।
कर
सप्तमः सर्गः ५8
विग्ृदथ वशमानीतः कुम्भीनस्या! छुखावह! |
निर्नितास्ते महावाहों नागा गला रसातरूम ॥ ९॥
हे राक्तसपे्ट | श्रपनी फ्रन्या भार्या वनामे के ठुम को दे दी ।
कुम्मीनसो के प्यारे स्वामी, वोय॑वान, प्रजीत भौर दानथों के ख्वामी
मधुदेय के साथ युद्ध कर, तुमने डसफे अपने चशीभूत कर
लिया । फिर है मह्दावादो | तुमने रसावल में ज्ञा मांगों के! परार्त
किया ॥ ५॥ ६ ॥
वामुकिस्तक्षकः शह्ढी जटी च वशमाहुता! ।
अक्षया वल्नवन्तश्र शूरा लब्धवरा। पुरा | १० ॥
ब्राछुक, तत्तक, शहर रोर जदी, इन प्रधान नागों के अपने
वश में कर लिया | कभी न मरने वाले, वलवान, शूर झौर पूर्व में
वर पाये हुए ॥ १० ॥ *
लगा सस्वत्सर युद्धा समरे दानवा विभे |
खबर समुपाश्रित्य नीता वशमरिन्दम ॥ ११ ॥|
दानवों के पक वर्ष तक युद्ध कर, है भरिन््द्म | तुमने अपने
वेल से प्पने काबू में कर लिया ॥ ११ ॥
मायाधाधिगतास्तत्र बहचो राक्षसाधिप ।
निर्मिताः समरे रोपाह्लोकपाछा महावरा) ॥ ११॥
हे रा़्सराज् | बहुत माया जानने वाल्ले महावली ल्ेकपालों
के तुमने युद्ध में जोता ॥ १२॥
देवलोकमितो गत्वा शक्रश्रापि विनिर्णितः |
झूराश्च बलवन्तश्च वरुणस्य सुता रणे ॥ १३ ॥
है ० युद्धकायडे
फिर स्वर्ग तक में जा इन्द्र का परास्त किया । फिर युद्ध में
चरुण के उन पुत्रों को जे। बड़े शुर चजबान ॥ १३ ॥
निर्मितास्ते महावाहो चतुर्विधवरानुगाः ।
मृत्युदण्डमहाग्राह शाल्मलिदुममण्डितस् ॥॥ १४ ॥
कालपाशमहावीचि यमकिज्वरपन्नगस् ।
अवगाहय त्वया राजन्यमस्य वबलसागरस ॥ ९५ ॥
जयइच विपुल्तः प्राप्ती मृत्युशच प्रतिपेषितः ।
सुयुद्धेन च ते सर्वे लोकास्तत्र #सुतोषिताः ॥ १६ ॥
घोर चतुरंगिणी सेना से युक्त थे, तुमने ज्ञीता। हे राजन !
तुमने यत्पुद्यडरूप सहानक्रों से युक्त, यावनारुपी शाब्मलीद्रुम
मणगिडत, कालपाशरूपी महांतरकु से लहराते, यम के किड्धयरूपी
सर्पो' के कारण भयकूर शोर महाज्यर से दुर्घप, यमलोकरूपी
महासागर में डुबकी मार तुमने बड़ी भारो विज्ञय प्राप्त की और
तुमने मोत के भी रोक दिया । चहाँ पर घेर युद्ध कर आपने सब
ल्लाकों के! भली भाँति सन्तुष्ठ कर दिया ।॥ १७॥ १५॥ १६ ॥
क्षत्रियेवहुभिवीरे शक्रतुल्यपराक्रमेः |
आसीद्नसुमती पूर्णा महद्धिरिव पादपे! ॥ १७ ॥
इन्द्र के समान पराक्रमो बहुत से चीर क्षत्रियों से यह पृथिवी,
बड़े बड़े छूत्तों की तरह, पूर्ण थी ॥ १७ ॥
तेषां वीयगुणोत्साहैन समो राघवों रणे ।
प्रसहय ते त्वया राजन्हताः परमदुर्णयाः ॥ १८ ॥
..._ # पाठान्तरे- विलोलिता:। »
सप्तम: से र्गः ६ १
उनके पराक्रम, वल्त, उत्साह और गुण ऐसे थे कि, रामचन््
णम उनका सामना फभी नहीं कर सकते; परन्तु है राजन | तुमने
उन परम दुजय ज्षत्रियों फे भी मार डाला ॥ १८॥
तिष्ट वा कि महाराज श्रमेण तब वानरान् |
अयमेको महावाहुरिन्द्रजितक्षपयिप्यति ॥ १९ ॥
हे महाराज | शाप बैठे भर रहें। आप जरा भी धरम न करे।
यह इन्द्रज्ञीत प्रकेला ही सव वानरों को मार डाक्षेगा ॥ १६॥
अनेन हि महाराज प्राहेश्वरमतुत्तमस् ।
हे रैक ० ५
इप्ठा यज्व बरो लब्धों लोके परमदुलभ। || २० ॥
, क्योंकि हे महाराज ! इसने भुत्कष्ट मा्देश्वर यज्ञ कर, परम
इुजेभ घर प्राप्त किया है ॥ २० ॥
. शक्तितोमरमीनं च विनिक्नी्णान्लशेवलमू |
गजकच्छपसम्बाधमश्वमण्डकसकछुलम् | २१ |
रुद्रादित्यमद्यग्राईं मस्ठसुमहोरगस् |
रथाश्वगजतोयोघ॑ पदातिपुलिन महत् ॥ २२॥
युद्धरुपी महासागर में शक्तिरुपी मत्स्य, विश्वरी हुई अँतड़ी
रूपी सिवार, हाथरूपी कछुवे, धोड़ेरूपी मेंढक, रुद्र घ्ादित्य रूपी
बड़े बड़े घड़ियाल, मस्तवु रूपी बड़े बड़े साँप, रथ अभ्वगज़ रूपी
जल और पैदल सैनिक रूपी बड़े बड़े ठापू थे॥ २१ ॥ ९९ ॥
अनेन हि समासाथ देवानां वलसागरभ् |
गृहीतो दैवतपतिलेड्ञां चापि प्रवेशितः ॥ २३ ||
इसने देवताप्ोों फे सैन्यूूूपी मद्दासामर में घुस कर, वेवराज
के पकड़ कर, लड्ढा में बंदीगद में डाल घुका है॥२३॥ '
६२ युद्धकाणडे ,
पितामइनियेगाच् मुक्त) शम्बरत्तत्रहा ।
गतच्िधिएटप॑ 'जन्सवदेवनमस्कृत
गतत्विविष्टप॑ राजन्सवंदेवनमस्कृतः ॥ २४ ॥।
पितामह ब्रह्म जी के कहने से शंचराखुर ओर छुताखुर का
मारने वाला सर्वदेव नमस्कत इन्द्र छेड़ दिया गया। तव वह
स्वर्ग की राजधानी में गया था ॥ २४
तमेव त्वं महाराज विसुजेन्द्रजितं सुतम् ।
यावद्वानरसेनां तां सरामां नयति पक्षयम् | २५ ॥
है महाराज्ञ | आप उसी अपने पुत्र इन्द्रजोत को प्ाज्षा दीजिये।
'चह समस्त वानरी सेना सहित राम के मार डालेगा ॥ २५ ॥
राजन्नापदयुक्तेयमागता आरकृताज्जनाव |
ह॒दि नेव त्वया कार्यों स॑ वधिष्यसि राघवम् ॥ २६ ॥
इति सप्तमः सभेः ॥ ह
हे राज्ञन् | तुम नर बानर रूप नगण्य लोगों से, जे! विपद की
'शह् कर रहे हैं---लो, तुमकेा अपने मन में इसको चिन्ता तो
'करनी ही नहीं चाहिये | तुम निश्चय ही रामचन्द्र के मारोगे ॥२६॥
युद्धकाण्ड का सप्तम से पूरा हुआ।
अध्टसः सगे;
“मे ;
तते नीलाम्बुदनिभः प्रहस्तो नाम राक्षस: |
अन्नवीत्याज्ञलियांक्यं शूर; सेनापतिस्तदा ॥ १ )।
प्रण्मः सर्गः है
तदनन्तर फाले बादलों नेसी रंगत वाला प्रहर्त नामक शूरवीर
सेनापति रात्तस, हाथ जाडु कर बाला ॥ १॥
देवदानवगन्धर्या) पिशाचपतगोरमाः ।
$ पपयितं ' ०
- न लां पर्षयितुं शक्ताः कि छुनवानरा रणे ॥ २॥
़: दे राजन! दो भनुष्यों ओर बानरों की ते बात ही प्या-हम
लाग तो रणतज्नेन् में देवता, दानव, गन्धर्य, पिणाच, पत्ती और नागों
तक को परास्त कर सकते हैं ॥ २॥
सर्वे प्रमत्ा विश्वस्ता वश्चिता; स्स हनूमता ।
न हि मे जीवते गच्छेज्जीवन्स वनगोचरः ॥ ३ ॥
हम सब ने तो, अलादइधानी शोर विश्वास के कारण
दसुमान से श्रेखा ज्ाया। ( भ्र्थात् हम लोग समझते रहे कि,
यह घानर हमारा फ्या कर सकता है ) यदि हम लोग सावधान
होते ते! फ्या चह घन का जीव पहाँ से जीता ज्ञागता लोठ कर
जा सकता था ॥ ३॥
सर्वों सागरपय्यन्तां सशेलवनकाननास् ।
करोम्यवानरां भूमिमाज्ञापयतु मां भवान् | ४ ॥
भाप मुझे झाक्षा भर दे दीजिये। में सागर, पदाड़, धन, जंगल
सद्दित इस पृथिवों के ध्यमी वानरशुन्य कर दू ॥ ४॥
रक्षां चेव विधास्यामि वानराद्रजनीचर ।
नागमिष्यति ते दुःखं किखिदात्मापराधजस् ॥ ५ ॥
दे राजन | में बानरों से राज्षसों की रक्ता करूँगा। सोतादरण
करने से आपके ऊपर काई विपत्ति न ध्राने पावेगी ॥ ५॥
अव्वीच सुसंक्रद्धो दुसुंखो नाम राक्षस: ।
इढ॑ न क्षमणीयं हि सर्वेषां न! प्रधपंणम् ॥ ६ ॥
इसके बाद हुसुंख नामक राक्तस प्रत्यन्त क्रोध कर के, वेला--
दसुमाव का काम इस योध्य नहीं कि; डसकी उपेत्ता की ज्ञा सके ।
क्योंकि उसने यहाँ आकर हमारा सब का ही प्पमांन किया है ॥६॥
अय॑ परिभवों भूयः पुरस्थान्तःपुरस्प च |
श्रीमते। राक्षसेन्द्रस्य वानरेण प्रधपंणम् ॥ ७ ॥
हम लेग अपना अपमान सह लेते पर नगरी ओर रनवास
के दहन कर इस बन्दर ने राक्सराज का अपमान किया है॥ ७ ॥
अस्मिन्मुहृतें हल्के निवर्तिप्यामि वानरान् |
प्रविष्टान्सागर भीममम्बरं वा रसातहूस | ८ ॥|
अतः में अभी जाऊर वानरों क्री इतिश्री कर हंगा। वे वावर
भले ही समुद्र में, आकाश में, रसातल में या अन्यत्र कहों भी ज्ञा
छिपे, में उनका ताश किये विना न मानू गा ॥ 5८॥|
तताउत्रवीत्सुसंक्रद्दों वज्रदंष्ट्रो महावरू) ।
प्रमृह्य परि् घोर माँसशाणितरूपितस || ९ ||
तद्नन्तर माँस ओर रुधिर से सने हुए सयानक परिध के उठा,
वन्नदंप्र कछ हो कहने लगा--॥ € ॥
कि वो हचुमता कार्य कृपणेन #दरात्मना |
रामे तिष्ठति धर्षे सखुग्रीवे सत्नक्ष्मणे || १० ॥
& पादान्तरे-- चपल्विना * |
ध्ष्टपः सगे ६४
दुर्घर राप लक्तमग ग्रोर पुप्ोप के ज्ञोने रहने, उस दीन और
पुष्ट दनुमान के मार ठालने से एम क्या लाभ होगा ॥ १० ॥
अब राम समुग्रीद॑ परिधेण सलक्ष्मणम् ।
_ आग्मिष्यामि हल्का विश्लोभ्य हरिवाहिनीम | ११ ॥
में थ्राज्न श्रकेता ही उध चानरी सेना के विश कर,
इस परिघ से राम लक्त्मण और सुप्रीव फा नाश कर लौट
आऊंगा॥ ११॥
इंदें मग्रापर वाक्य थ्रृणु राजन्यदीच्छप्ति ।
उपायक्कुशलो शो जयेच्छत्रुनतम्द्रितः ॥ १२॥
है राजन ! यदि आप चाहेँते मेरी एक ओर वात खुन ले |
पद यह कि, जे उपाय करने में कुशल और भआल्लस्य रद्दित होता
है, विजयलदमी उसीकी प्राप्त होती है ॥ १२॥
कामरूपपरा; शरा; सुभीमा भीमदशना। ।
रक्षसा वे सहस्राणि राक्षसाधिप निश्िता। ॥ १३ ॥
काकुत्स्थमुपस्नम्य विश्वतों मालुप॑ वषु। |
सर्वे हयसम्भ्रमा भूत्वा ब्रुवन्तु रघुसत्तमम ॥ १४ ॥
प्रेपिता, भरतेन सम तब श्रात्रा यवीयसा |
[ तवागमनमुदिश्य कृत्यममात्ययिक त्विति |॥ १५॥
धतः इस सम्बन्ध में यह डपाय करना उचित है, कामरूपी, शूर,
भयडूर धाकार वाले और राक्तसराज के अचुभूत एक र हज़ार राक्षस
मनुष्य का रूप घर और एक निश्चय कर रामचन्द्र के पास जाँय
भोर निर्भीक दो सव यह कहें कि, हम लोगों का तुम्दारे छोटे भाई
| चा० रा० यु९--£
६६ युद्धकायडे
भरत ने भेजा है श्रोर हमारे द्वारा यह सन्देंस तुम्हारे लिये भेज्ञा
है कि, ॥ १३॥ १४ ॥ १४॥
स हि सेनां समुत्थाप्य प्षिप्रमेषोपयास्यति ।
ततो वयमितस्तूण शूलशक्तिगदाधराः ॥ १६ ॥
चापवाणासिहस्ताश्र त्वरितास्तत्र यामहे |
: आकाणओे गणश्ः स्थित्वा हत्वा ता हरिवाहिनीस् ॥१७॥
अश्मशख़रमहाहएया प्रापयाम यमक्षयस् ।
एवं चेदुपसर्पेतामनयं रामलक्ष्मणों ॥ १८ |
अवश्यमपनीतेन जहतामेव जीवितम् ।
कौम्पकर्णिस्ततों वीरो निकुम्मो नाम वीयेवान् ॥१९॥
सेना त्तेकर वहुत शीघ्र यहाँ हम घाते हैं। इस वीच में हम
लोग बड़ी फुर्ती से शूल, शक्ति, गदा, कमान, तीर, तलवार हाथों
में ल्षिये हुए वहां पहुँच जाँय ओर श्ाकाश में खड़े हुए पत्थरों
घोर शर्मों फी महाद्रुष्टि कर वानरी सेना के यमलोक भेज दे ।
ऐसा करने पर राम कोर लक्ष्मण निश्चय ही हमारी इस धनीति
भरी चाल में झा जाँगगे । तदनन्तर जब चानरी सेना फा नाश
हे ज्ञायगा, तव यह दोनों ज्ञन स्वयं ही मर जाँयगे । तदनन्तर
कुम्भकर्ण का बेटा निकुम्भ जे बड़ा प्रतापी और वल्नी था॥ १६ ॥
१७॥ १८॥ १६॥
अन्नवीत्परमक्रुद्धो रावणं छेकरावणम् |
सर्वे भवन्तस्तिष्ठन्तु महाराजेन सद्भता; ॥ २० ॥|
अति कऋद्ध हो, लोकों के रुल्ााने वाज्षे रावण से बोला--तुम
सव जाग महाराज के साथः यहों रहो ॥ २० ॥
अष्ठप: सगे है
अहमेके हनिष्यामि राघवं सहलक्ष्मणम्र ।
सुग्रीव॑ च हनूमन्तं सवानेव च वानरान् ॥ २१ ॥
में अकेला ही राम रत्मण, सुप्रीव, हजुमानादि समस्त बानरों
के मार डालू गा ॥ २१ ॥
ततो वज्ञहनुनांम राक्षस! पवतोपमः ।
क्रुद्रः परिलिहन्बक्त्रं जिहया वाक्यमत्रवीत् ॥ २२ ॥
तद्नन्तर पर्वत के समान लंबा तड़ंगा घजञ्जदनु नामक राक्तस
मारे क्रोध के ज्ञीम से अधरों के चादता हुआ बोला कि, ॥ २३ ॥
... रवैरं छुवन्तु कार्याणि भवन्ते विगतज्वराः ।
' एकाऊहं भक्षयिष्यामि तान्सवान्हरियूथपान् ॥ २३ ॥
घाप लोग इस वात की चिन्ता न कर अपने अपने कामों
में ल्गिये। में ध्केला द्वी उन सब वानर यूथपतियों के खा
डालू गा॥ २३॥
खस्थाः क्रीडन्तु निश्चिन्ता) पिवन्तो मधुवारुणीस् ।
अहमेके वर्धिष्यामि सुग्रीव॑ सहलक्ष्मणम् |
साक्षदं च हनूपन्त राम च रणकुद्धरस ॥ २४ ॥
इति ध्ष्टमः सर्गः ॥
शाप सब लोग सावधान भोर निश्चिन्त हो कर लेलिये क्ुद्ये
तथा वारुणी और मधुपान कीजिये। में अकेला ही सुत्रीच, लद््मण,
अडुद, हसुमान सहित उस रणकुञ्जर राम को मांर डालू गा ॥२७॥
युद्धकाणड का शाठवाँ सय पूरा हुआ |
+ “-+जह--5
नवभः सम
हे । । | ० न
ततो निठुम्धो रमसः सूयश्षत्रुमहावलः ।
सुप्नप्नो यज्ञह्या रक्षो महापाश्वो महेदर। ॥ १ ॥
अभ्निक्रेतुश्न दुर्पों रश्पिक्रेतुश्न वीयेबान$ |
इन्द्रजिच महातेना वलववात्रावणात्मनः ॥ २ ॥
प्रदस्तोडथ विरुपाक्षो वज्द॑प्ट्रो महावकू३ ।
जी]
धृम्नाक्षथ्रातिकायश्र दुसुंखश्व राक्षस। ॥ ३॥
दद्नन्तर निकुस्स, ससस, सूथशन्रु, सुप्तन्न, यश्षद्वा, महापाश्व,
महीद्र, दुर्धेष, अप्निकेतु, वलवान रश्मिकेठ, मदातंज्स्वी और
बलवान रावणतनय इन्द्रजोत, प्रहस्द, विरुपाक्त, वलवान वच्चर्दंप्र,
छूम्नाक्त, अतिकाय, ढुर्मुख आदि राक़्सगण ॥ १॥२॥ ३॥
परिघान्पह्शान्पासाज्शक्तिशूलपर श्वधान् ।
चापानि च सवाणानि खड्डांश विपुलाओ्शितान॥ ४॥
परिषद, पद्द, भ्रास, शक्ति, शूल, परशु, वाणों सहित घनुप घोर
बड़ी पैदी पैनी तल्नवारं ॥ ४ ॥
मशहय परमक्रुद्धा, समुत्पत्य व राक्षसाई ।
अन्नुबन्रावर्णा सर्वे प्रदीध्ता इव तेजसा ॥ ५॥
ले ले कर शोर ढठ उठ कर तथा क्रोध में भर श्मौर अभि की
तरह लाल हो, सव रावण से बोले ॥ ४ ॥
# पाठान्तरे-- ' राक्षस्४ ! |
नवमः सर्गः हु
अद्य राम वषिष्यामः छुग्रीव॑ च सलक्ष्मणम् ।
कृपणं च इनूमस्तं लड़ा येन प्रदीषिता# ॥ ६ ॥
हम लोग धझाज्ञ द्वी राम, छुम्रीव, लक्ष्मण तथा उप बापुरे ह3ु-
मान को, जे। यहाँ झ्ाकर लड्ढुम जल्ला गया था--मार डालेंगे ॥ ६ ॥
तान्शहीतायुधान्सवोन्वारयित्वा विभीषण। ।
अन्रवीत्माञ्नलियांक्यं पुन प्रत्युपवेश्य तान् ॥ ७ ॥
उन झायुथ लिये हुए समस्त राक्तसों के वर्ज कर घोर बैठा
कर विधीपण ने रावण से हाथ जेड़ कए विनती की ॥ ७ ॥
अप्युपायेञ्जिभिस्तात योञ्यः प्रापुं न शक्यते ।
तस्य विक्रमकारांस्तान्युक्तानाहुमेनीषिणः ॥ <॥
है तात ! पडितों का फथन है कि, जहाँ तीन उपायों से काम
न चन्ते वहाँ पराक्रम प्रदर्शित करना चाहिये ॥ ८॥
प्रमत्तेष्वभियुक्तेपु देवेन प्हतेषु च।
विक्रमास्तात सिध्यन्ति परीक्ष्य विधिना इंताः ॥ ९ ॥
है तात ! जा प्रमत्त हैं, ना दूसरे दूसरे कारों में लगे हुए दें ओर
जे। रोगादि तथा देवी श्रापत्तियों से प्रस्त हैं, उन्हीं पर बल प्रदर्शित
करने से फाम सिद्ध है| सकता है; से भी तब, जब भली भाँति
सप्रक धुझ कर काम किया जाय ॥ ६ ॥
अप्रमत्त कथ्थ त॑ तु विजिगीषुं बले स्थित |
नितरोप॑ दुराध्प प्रभपयितुमिच्छथ ॥ १० ॥
नीच:
# पाठान्तरें--' प्रधर्षिता |
5५ युद्धकायडे
परन्तु तुम लोग ता उन प्रमादरद्दित, जयेच्छु, देवसहाय्य प्राप्त,
( अथवा सैनिक वक्ष से युक्त ) क्रोध का जोते हुए और श्रज्ञेय
शामउन्द्र के क्रिस प्रकार जीतने की इच्छा करते ही ॥ १०३
सप्रुद्रं ल्अयित्वा तु घोर॑ नदनदीपतिम् |
गति हलुमतो लोके के विद्याचकययेत वा ॥ ११ ॥
जया पदिले किसी ने ज्ञान पाया था या किसी ने कदपना भी
की शो कि. हतुमान नदीपति भयड्भूर समुद्र के लांघ, ( दे घड़ी में )
थहाँ खत आावेगा ॥ ११॥
वलान्यपरिमेयानि वीयाणि व निशाचराः ।
र्षां (्र
परेषां सहसा5वज्ञा न कतंव्या कथश्वन ॥ १२॥
हे निशाचरों ! शत्रु की पराक्रमी अगशणित भयड्भूर सेना है--से
ऐसे शन्ओं की सहसा अवक्षा करना कभी उचित नहीं ॥ १२॥
कि च राक्षसराजस्य रामेणापक्तं पुरा ।
आजहार जनस्थानाथस्य भायों यशखिनीग् ॥ १३॥
गआ्राप लोग यह ते बतलावें कि, राम ने शक्षसराज़ का फ्या
दिगाड़ा था, जो इन्होंने उनकी यशम्विनी भार्या के! जनस्थान से
छश कर, यहाँ रख छिड्ा है ॥ १३ ॥
खरो यचतिदृत्तस्तु रामेण निहतो रणे ।
अवश्य प्राणिनां प्राणा रक्षितव्या यथावलुम् ॥ १४ ॥
थदि राम ने खर के मारा ते क्या अनुचित किया। क्योंकि
घह इनका अपमान करना चाहता था ।_ इसीसे उन्होंने ऐसा
किया । क्योंकि प्रत्येक जीवधारी के अपने बलाटुरूप ध्यपनी प्राण-
रक्ता करनो ही चाहिये॥ १४॥
|
नवम। सर्गः ७१
अयशस्यमनायुष्यं परदाराभिमशनस् |
अर्थक्षयकरं घोर पापस्य च घुनर्भवम् ॥ १५॥
दूसरे की स्री के हर लेना केवल वदनामी का दी कारण नहीं
है, वल्कि भायु के क्षीण करने वाला भी है। ऐसा करने से धन
का नाश द्वोता है ओर फिर बड़ा भारी पाप भी लगता है॥ १५॥
एतज्निमित्त वैदेही भयं न! सुमहद्धवेत् । *
आहता सा परित्याज्या कलहायथें कृतेन किस ॥ १३॥
यह हर कर लायी हुई सीता हम लोगों के ल्िय्रे बड़े भय की
पस्तु है । से। हमें उचित है कि इसका परित्याग करें। व्यर्थ लड़ाई
झगड़ा करने से लाभ ही क्या है॥ १६ ॥ ;
न नः क्षमं वीयेवता तेन धर्मालुवर्तिना ।
बेर निरथक॑ कतू' दीयतामस्य मैथिली ॥ १७ ॥
शीरामचन्द्र जी घड़े पराक्कमी ओर घर्मात्मा हैं, अकारण उनके
साथ पैर बाँधना अनावश्यक है। ध्रतणव पहिल्ते ही उनके सीता
दे देनी चाहिये॥ १७॥
यावज्न सगजां साश्वां वहुरत्समाकुलाम |
' पुरी दारयते वाणेदीयतामस्य मेथिली ।। १८ ॥
घोड़ों, हाथियों तथा वहुत से रलों से भरो पूरी इस लड्ढा के
रामचन्द्र अपने बाणों से न९ भ्रष्ट करें, इसके पूर्च ही, उनका सीता
दे देनी चाहिये ॥ १८॥ '
यावत्सुघोरा महती दुधर्पा हरिवाहिनी ।
नावस्कन्दति नो लड्ढां तावत्सीता प्रदीयताम ॥ १९ ॥
उस महाभयडूर महुती पव॑ दुर्जेय घानरी सेना का. क्षड्भा पर
घराक्रमण दे, इसके पूर्व द्वी उनका सीता दे देनी चाहिये।॥ १६ ॥
छर.. युद्धकायडे
विनश्येद्धि पुरी लड्ढा शरा: सर्वे च राक्षसा।
रामस्य दयिता पत्नी खयं न यदि दीयते || २० ॥
यदि आए राम की प्यारी भार्या सीता की न देंगे, तो यह लड़ा
उजञ ड़ जञायगोी घोर समस्त शरचीर राक्तस भी मारे ज्ञांयगे ॥ २० ॥
प्रसादये त्वां वन्ध तवा[सकुरुष्ष बचने मम |
हित॑ तथ्यमढं ब्रमि दीयतामस्य मेथिली ॥ २१ ॥
है राजन | ध्यप मेरे भाई हैं इसीसे में श्ापको मना रहा हूँ
ओर आपसे हितऋर तथा यथाथ बातें कहता हैं कि, ध्याप सीता
के झवश्य लोगा दे ॥ २१ ॥
पुरा शरत्म॒यंगरीचिसन्रिभा-
ऋवान्सुपुद्नान्सुच्ठानूपात्मजः |
सजत्यमोघान्विशिखान्वधाय ते
प्रदीय्तां दाशरथाय मैथिली ।। २२ ॥
है महाराज्ष ! राजकुमार भीरामचद्ध ज्ञी जब तक घयाप के वध
के लिये, खर्य की डिसणों को तरह चमचमासे पंख लगे हुए बड़े
मज्ञबूत शोर अमेघ वाण नहीं छोड़ते, उसके पूछ ही ध्याप उन्हें
सीता दें 4 ॥ २२ ॥ ।$
त्यजस्व॒ कोर्प सखधर्मनाशन
भजस्व धर्म १रतिकीर्तिवधनंस ।
प्रसीद जीवेम सपुत्रवान्धवा!
प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली [| २३ ॥|
चऔ>-- -+---लजलनतत-क>-++>«-म लत मना पमनमता--0०े >-»क-क००००- रमन,
१ रतिः--सुखं । ( गे।० )
दृशमः सर्गः ७३ '
_ आप उस #ोध के, जे! सुख ओर धर्म को नए करने पाला
३) त्याग दे और खुज तथा कीर्ति के बढ़ाने वाले घर्म का ध्राश्रय
ले । आप प्रसन्नता पूवेक सौता श्रीरामचन्द्र की हे दें, जिससे हम
लोग वाल्न बच्चों भौर भाई बन्धुओं सहित जीते बच जाय ॥ २३॥
विभीषणबचः श्रुता रावणो राक्षसेश्वर! ।
विसजयित्वा तान्सवन्पविवेश खक॑ ग॒हम ॥ २४ ॥
इति नवमः सगेः॥
विभीषण के इन वचनों के खुत, राज्सेश्वर रापण मे उन
सब रात्तसों के विदा किया और वह जय॑ अपने भवन में चला
गया ॥ २७ ॥
युद्धकायड का न्ाँ सर्ग पूरा हुआ |
न-+-हैंन-+ |
दशमः सर्गे:
मम
ततः भत्युपसि पाप्ते पाप्तधर्मारथनिश्चय! ।
रराक्षसाधिपतेवेश्म भीमकर्मा विभीषण! ॥ १ ॥
' अगल्ले दिन सवेरा होते ही, धर्म भोर ध्र्थ का विचार रखने
वाले विभीषण, भीमकर्मा राक्षसराज रावण के भवन में गये ॥ १॥
शैलाग्रचयसझ्ाशं शेलश्रृद्भमिवोच्रतम् ।
सुविभक्तमहाक्ष्यं 'पहाजनपरिग्रहम् ॥ २ ॥
१ महाजने;--विद्व्तिः | ( गे )
8 युद्धकाणडे
वह रावण का सवन. पर्वतशिखर के समृद के समान और
पर्वतशिखर की तरह ऊँचा था । उसकी ब्योढ़ियां वड़ी अच्छी
नरह बनायी गयी थीं | उस भवन में बड़े बड़े विद्यान् रहते -
थे॥२॥ |
मतिमद्विमेदामात्रेरनु रत्तरपिष्ठितस् |
बे $ करे ए परिरक्षितस्
राक्षसश्चाप्तपयापें। संत: प्तम ॥ ३ ||
चह बुद्धिमान, छत्॒रागो, हितेपी ओर क्ार्यसाधन में समर्थ,
मंत्रियों से सेवित कोर सव झोर से रा्तर्ों द्वारा रक्षित था ॥ ३॥
मत्तमातड़निःश्वास व्याकुलीकृतमारुतम् ।
५ ० (्
शब्बधोषमहाघोष॑ तृयनादाजुनादितम् ॥ ४ ॥
वह मतवाले गजेन्रों के श्वास के वायु से पूर्ण रहता था तथा
शहुः छोर नगाड़ों के शब्दों से प्रतिध्वनित हुआ करता था ।] ४ ॥
प्रमदाजनसस्वाध॑ प्रमतिपितमहापथस ।
धर भ्रूषणोत्तमभूषितयस्
तप्तकाशननियु हूं* तय ॥ ५ ॥
उसमें स्वियों के दल के दल रहा करते थे, राजमार्ग में लोगों
की बातचीत से सदा चहन्द पदल रहा करती थी। उसमें खुबर्ण
के द्वार बने हर थे ओर चह उनच्चम उत्तम सज्ञाचदो सामान से सजा
हुआ धा ॥ » ॥
गन्धवॉणामिवाबासमारूय॑ मरु्तामिव |
रसअयसस्वा्ं भवर्न स्भोगमिनामिद ॥ ६॥
न वन न नल अप
| नियूहः गिरे द्वारे इृदि विश्वः । ( रा० ) २ भसोगिनाँ--सपणां !
से० )
दृशमः सगे: 8५
चह गन्धवों तथा देवताओं की तरह उत्तम रलों से पूर्ण था।
ऐसा आन पड़ता था मानों वह सपों का भवन हो ( श्र्थाव् सपो
के भवन में जैसे रल्ों का ढेर लगा रहता है चैसा ही रावण के
भवन में भी था ) ॥ ६ ॥
त॑ महाश्रमिवादित्यस्तेजोविस्तृतरश्मिमान् |
अग्रजस्यालय॑ वीर; प्रविवेश महाद्रुति; ॥ ७॥
इस प्रकार के बड़े भाई के भवन में मद्राद्यतिमान धौर विभीषण
वैसे दी घुसे मैसे बादलों में दूर्य घुसते हैं ॥ ७॥
पुण्यान्पुण्याहघोषांश्च वेदविद्धिरुदाहतान् ।
शुभ्राव सुमहातेजा भ्रातुर्विजयसंभ्रितान् ॥ ८ ॥
भवन के, भोतर पहुँच, विभीषण ने वेदक्ों द्वारा उच्चारित
पुणयाहवाचन के मंत्रों का पथित्र घोष अपने भाई फी विजय सूत्र-
फेता में छुना ॥ ८॥
पूजितान्दधिपात्रैश् सर्पिमि! सुमनोक्षतेः ।
मन्त्रवेदविंदों विभान्ददश छुमहावलः ॥ ९ ॥
विभोषणा ने वहाँ वेद मंत्र जानने वाले ब्राह्मणों की पुष्प, अ्तत,
घो, दद्दी आ्रादि शुभ वस्तुओं से पूजित होते देखा ॥ ६ ॥
स पूज्यमानों रक्षेमिदीप्यमानः खतेजसा | ,
आसनस्थ॑ महावाहुरबबन्दे धनदालुजम् ॥ १० ॥
यक्तसों से आदर पा, विभीषण मे रावण का, जो सिहासन
पर बैठा हुआ था झोर मारे तेज के 'चमचमा रहा थी, जावे ही.
प्रशाम किया ॥ १०॥ द
डई युद्धकायडे
स राजदृष्टिसस्पन्नमासन देमगूपितम् !
जगाम समुदाचारं प्रयुज्याचारकोंविद! ॥ ११॥
शिष्टाचारफण्टु राचण से सी शिष्टाचार छे घनुसार विभोष्ण
के आशोवाद दिया शोर आँख के सहेत से बैठने के ऊहा।
तब लिमीएण “जय हो” कह, खुवर्णभूषित आसन पर बैठ
गये ॥ ११॥
स रावण महात्मानं दिजने मन्त्रिसन्िया ।
उवाच हितमत्यथ वचन हेतुनिश्चितम् ॥ १२॥
डस समय मंत्रियों के छोड वचह्दाँ छोर कोई न था। श्रतः
विभीषण ने रावण से द्वितकर और युक्तियुक्त वचन कहे ॥ १२॥
प्रसाच प्रातर॑ ज्येप्ठं सान्तवेनोपस्थितक्रम) |
देशकालार्यसंबादी दृष्टलोकपरावरः ॥ १३ ॥
बातचीत के ढंग के जानते चाले ओर ऊँच नीच समस्छदे
वाले विसीषण ने स्तुतिवचचन कद्द, प्रथम तो रावण को प्रसन्न
किया; तदनन्तर सान्त्ववापू्वंक समयानुसार ओर देश काल के
अनुरूप चचन कहे ॥ १३॥
यदाप्रभृति वेदेही सम्प्राप्तेमाँ पुर्री तब ।
तदाप्रभुति दृश्वन्ते निमित्तान्यशुभानि न! ॥ १४ ॥
हे भैया |! जब से सीता तुम्हारे इस पुरी में आयी है, तव से
हम सब के नित्य ही झ्पणकुन दिखलाई पड़ रहे हैं॥ १७॥
सस्फूलिज्। सथूृमारिं: सधृमकलुपोदय:
मन्त्रसन्पुष्षिता5प्यप्रिने सम्यगभिवधते || १५ ॥
दशमः सर्गः ७७
मंत्रपूवक ध्याहुति पाकर भो भ्राग भ्रच्दी तरह नहीं जलती ।
जाग जलाते समय शध्याग धुर्थाँ देती है, उसमें से चिनगारियाँ
उड़ती हैं पर ध्याग की शिखा से वरावर धुआं निकल्लता रहता
है॥ १५४॥ ह
अभिष्ठेषप्रिशालासु तथा ब्रह्मस्थलीषु च |
सरीस्तपाणि दृश्यन्ते हृव्येपु च पिपीलिंका। ॥ १६॥
रसेाई घर, अश्लिशालाशञओं ओर वेदाध्ययन शालाओं में नित्य
साँप दिखलाई पढ़ते हैं । होम की द्वव्य में चीटियाँ रंगती हुईं देख
पड़ती हैं ॥ १६ ॥
गयवां पयांसि स्कत्रानि विमदा वीरकुझ्नराः ।
दीनमश्वा; प्रहेपन्ते न च आरसामिनन्दिन। ॥ १७ ॥
गौओं का दूध कम हो गया है, हाथियों का मद वहना बंद हो
गया है । घेड़े दीनता सूचक हिनदिनाहण किया करते हैं थोर अपने
चारे से तृप्त नहीं होते ॥ १७ |
खरोष्ट्राश्वतरा राजन्मिन्नरोमाः ख़बन्ति ना ।
बह नै
न सखभावेज्यतिष्ठन्ते विधानेरपि चिन्तिता। ॥ १८ ॥
हे राजन | गधों, ऊँटों, खबरों के रोंगटे गिर पड़े हैं और थे
आँसू घदायां करते हैं। चिकित्सा करने पर भी वे प्रकृतिस््य नहीं
हेते।॥ १८॥ ु
वायसाः सद्ठशः क्ररा व्याहरन्ति समन्ततः |
समवेताश्च दृश्यन्ते विमानाग्रेष सहुश। ॥ १९ ॥
कौबे एकन्न दो चारों शोर काँव काँव करते हैं और भ्रदारियों
पर झ्ुंड के भुंड एक्न हो बैठे हुए देख पड़ते हैं ॥ १६ ॥
८ युद्धकाणडे
गध्राश 'परिलीयन्ते पुरीमुपरि *पिण्डिता
डउपपन्नाइच सन्ध्ये है व्याहरन्त्यशिवं शिवा) | २० ॥
गीध इकट्ठें हा नगरी के ऊपर मँडराया करते हैं । सन्ध्या
समय देने पर छुखरियाँ अमइुलसूचक चीत्कार किया करती
हैं ॥ २० ॥
क्रन्यादानं मृगाणां च पुरद्वारेपु सक्ष्श) |
श्रयन्ते विपुल्ता घोषा) *सविस्फूर्थुनि!सना। || २१॥
पुरो के द्वार पर च्याप्रादे माँस खाने वाले ज्ञीयों के दह्ाडव
का शब्द वेघा हो खुन पड़ता है. जला क्वि, विज्ली गिरने का शब्द्
खुन पड़ता है ॥ २१ ॥
तदेदं प्रस्तुते कार्ये प्रायश्चित्तमिदं क्षमस् |
रोचते यदि वेदेही राघवाय प्रदीयताम ॥ २२ ॥
इन सब अपशऊकुनों का प्रायश्चित्त अधवा शान्तिविवान मुफ्के
ते यही अच्छा लगता है कि, श्रीरामचन्द्र ज्ञी की सीता दे दी
जाँय ॥ २२॥
इंदं च यदि वा मोहाछोभाद्वा व्याहतं गया |.
क ७ ए्
तत्रापि च॒ महाराज न दोष॑ ऋतुमहसि ॥| २३ |
हे महाराज ! यद्दि मेंने कोई बाव लोभचश, या मेहचश कहो
हो. तो भी शाप मेरा अपराध त्षमा कर दोजियेगा ॥ २३
त्तं
१ परित्वीयन्ते--स्प्यन्ते | ( गे० ) ३ पिग्डिताः--सण्डलीमूता सन््तः
( मा० ) ३ सविस्फूलंथुनिःखनाः--अश्ननिधोष: । ( शे।० )
दृशमः सर्गः ७९
अय॑ च दोपः सबस्य जनस्यास्योपल्ष्यते ।
रक्षसां राक्षसीनां च पुरस्यान्त;पुरस्यष च ॥ २४ ॥
क्योंकि यह दाप ते! इस नगर के समस्त निवासियों रात्तसों
राक्षलियों तथा घअन्तःपुर वालों का है ॥ २४॥
श्रावणे चास्य मन्त्रस्य निहचाः सबमन्त्रिणः ।
अवश्य॑ च मया वाच्य॑ यहुष्टमपि वा श्रृतस् ॥ २५ ॥
* ग्रापके मंत्रियों ने ये समाचार नहीं पहुँचाये। किन्तु मैंने जे।
कुछ सुना और देखा है--सो सब श्रापकी सेवा में ध्यवश्य निवेदन
करना ही चाहिये ॥ २४ ॥
सम्प्रधाय॑ यथान्याय॑ तद्भवान्कृतुमहँति ।
इति सम मन्त्रिणां मध्ये आता आ्रातरसूचिवान् |
रावणं राक्षसश्रेष्ठ पथ्यमेतदिंगीपण! ॥ २६ ॥
श्राप न्यायानुसार समझ बूक्त कर जैसा बचित समसें बैसा
करें | इस प्रकार मंत्रियों के धीच वे हुए राक्तसश्रेष्ठ राचण से
विभीषण ने ये हितकर वचन कहे ॥ ९६ ॥
हिंत॑ महाथ गृदु हेतुसंहित॑
व्यतीतकालायतिसम्धतिक्षमम् |
निशम्य तद्वाक्यमुपस्थितज्वर;'
प्रसड़्बालुचरमेतदअवबीत् ॥ २७ ॥।
विभीषण के हितकर, भर्थयुक्त, उड़, युकिियुक्त शोर वीनों
कालों में लाभप्रद वचन खुन कर. रावण वहुत क्रुद्ध हो, बोला ॥२७॥
१ उपस्थितस्वर:--प्रापक्रोधश | ६ गे।० )
घ० '. *बुद्धकाणडे
भय॑ न पश्यामि कुतश्चिदप्यहें
न राघव; प्राप्स्यति जातु मेथिलीम ।
मुरे; सहेन्द्रेरपि सद्लंतः कर्थ
ममाग्रत) स्थास्यति लक्ष्मणाग्रज; ॥ २८-॥
मुझे ते भय कहीं भो नहीं देख पड़ता, शामचन््द्र के जानकी
फ्रिसी भो तरह नहों मिल सकेगी । क्योंकि लक्ष्मण के बड़े भाई
शमचन्द्र इन्ह्रादि देवताओं के साथ मिल कर भी रणभूमि में मेरे
सामने नहीं ठहर सकते ॥ २े८ ॥
| इतीदुक्त्वा सुरसेन्यनाशनो
महावरू संयति चण्डविक्रम) ।
दशाननो श्रातरमाप्तवादिनं
विसरजयामास तदा विभीषणस् ॥ २९॥
इति दृशमः सगे: ॥
महाबली, देवसेना के नाशक और संग्राम में घेर पराक्रम
करने चाले राचण ने, यह कद कर युक्तियुक्त वचन कहने वात्ते
विभीषण के बिद्दा किया ॥ २६ ॥
युद्धकाण्ड का दसवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
ब््् शऔ+--
एकादशः सर्गः
हक सम
' स' बभूव कृशो राजा मेथिलीकाममोहितः ।
असम्भानांच्च सुंहदां पापः पापेन कमेणा | १ ॥.,
पएकरादशः सर्ग 5१
सीता पंर प्रासक, विभीपणादि सुहदों का निरादर करने वाल्े
श्र भार्यादरण का पापकर्म करने वाले रावण का शरीर हुवला
देने लगा क्योंकि पापी शपने पापकर्मा छ्वारा ऐसी ही दशा के
प्राप्त होता है॥ १॥
अतीतसमये काले तस्मिन्व बुधि राषणः ।
थे
अमात्येश्च सुहृद्विश्व प्राप्क्नाल्ममन्वत | २॥
रावण ने असमय में मंत्ियों ओर मित्रों के साथ परामश कर"
भ्रीरामचन्द्र जी के साथ युद्ध करमा ही ठीक समझता ॥ २॥
स हेमजालवितत॑ मणिविद्रुमभूषितस् |
उपगम्य विनीताश्वमारुरोह महारथम् || रे ॥
तदुपरान्त, खुवर्ण की जालियों से भूषित, सुगों शोर मशणियों
से शे।भित और शिक्तित धोड़ों से युक्त वढ़े रथ पर रावण सवार
हुआ ॥ ३॥ ।
तमास्थाय रथश्रेष्ठं महामेघसमस्व॒नम् !
प्रययो राक्षसश्रेष्टठो दशग्रीव/ सभां प्रति ॥ ४ ॥
उस भ्रेघ के समान शब्द् फरते हुए श्रेष्ठ रथ पर चढ़ कर,
दृशवद्न राक्तसश्रेष्ठ रावण समाभवन की ओर चलना ॥ ४॥
असिचमेधरा योधाः सर्वायुधधरास्तथा ।
.. राक्ष॑सा राक्षसेन्रस्य पुरस्तात्सम्परतस्थिरे ॥ ५ ॥
उस समय कुछ तो ढाल तलवारधारी तथा कुछ सब अस्त
शर्त्रों से खुसल्लित याधा राक्षसराज रावण के ध्यागे चलते ॥ ५ ॥
बा० श० थु०-- ९
यम युद्धकांणडे
नानाविकृतवेषाश्च नानाभूषणभूषिता; |
पाइवतः पृष्ठ॒तश्नेनं परिवाय ययुस्तदा ॥ ६ ॥|
विकठ चेशधारी अनेक भूषण पदने हुए अनेक राक्षस प्रगल
वगल और पीछे रावण के घेर कर चत्ते ॥ ६ ॥
रचैश्चातिरथाः शीर्घ मत्तेरव वरवारणः ।
अनूत्पेतुद
स्पेतुदशग्रीवमाक्रीडद्धिश्व वाजिमि; | ७॥
महारथी राज्ञल शीघ्रता पूर्वक रघों घोर मतवात्ते हाथियों पर
वा खेल कूद करने वाले घोड़ों पर सवार हो राचण के साथ
चत्ते ॥ ७ ॥
गदापरिघहस्ताश्च शक्तितोमरपाणयः |
परश्वधधराश्चान्ये तथाउन्ये शूलूपाणय) ॥ ८ ॥
वे लोग हाथों में गदा, परिध, शक्ति, तोमर, परभ्वध भोर शुलल
शादि हथियार लिये हुए थे ॥ ८५ ॥
'ततस्तूयंसदस्राणां सझ्ज्ञे निस्वनो महान् ।
तुझुल! शट्ठ॒शब्दरश्च सभां गच्छति रावणे ॥ ९ ॥|
उस समय ससाभ्रवंत की शोर तरावणश के जाने पर छकज्ञारों
तुरदियों और मद्ाघोर शट्टों के शप्द हुए ॥ १॥
स नेमिधोषेण अमदहान्महताभिविनादयन |
राजमार्ग श्रिया जुष्टं प्रतिपेदे महारथ। ॥| १० ||
# पाठास्तरे--" महान्सहलाईमिविनादयन् ।! जथवा “ महान्दिश्नोदश-
विलोकयन् | ! *
एकाद्शः सगे: दबे
तदनन्तर रथ के घर घर शब्द से व्याप्त स्मणीय राजमार्ग पर
रावण शीघ्रता पूर्वक जा पहुँचा ॥ १० ॥
चिमलं चातपत्नाणं पगहीतमशोभत ।
पाण्डरं राक्षसेन्द्रस्य पूर्णस्ताराधिषों यथा ॥ ११ ॥
रात्तसराज रावण के मघ्तक पर श्वेतचरण्ण का प्रकाशमान छभ्र,
पिमल पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह शोभायप्रान हा रहा था ॥ ११॥
हेममझ्जरिगर्भे च शुद्धस्फटिकविग्रहे |
चामरव्यजने चास्य रेजतु! सव्यदक्षिणे ॥ १२ ॥
, रावण के अगल वगज्ञ सेने के सूत्रों से भषित शोर उज्वल्
डंडी से बने हुए दो चमर भर पंखे डुलाये जा रहे थे॥ १२ ॥
ते कृताझ्नलूयः सर्वे रथस्थं पृथिवीस्थिता! !
राक्षसा राक्षसश्रेष्ठं शिरोमिस्तं ववन्दिरे ॥ १३ ॥
रास्ते में बहुत से रात्तस हाथ जोड़े खड़े थे कौर जब रथ
सामने थाता तद थे रथ में सवार रावण के कुक झुक कर प्रणाम
करते थे ॥ १३ ॥ ह
राक्षसे; स्तुयमानः सद्भयाशीर्भिररिन्दमः ।
आससाद महातेजा; सभां सुविहितां शुभास् ॥ १४॥
इस प्रकार रात्तसों द्वारा सम्प्रानित ओर विजय के लिये धआाशी-
चोद छुनता हुआ शन्र॒दमनकारी एवं मद्दातेअलो शावण सुन्दर
वने हुए श्रम ससाभचन में पहुँचा ॥ १४ ॥
सुबर्श रजतस्थुणां विशुद्धस्फटिकान्तराम् |.
पिराजमानो वषुषा रुवमपट्टोत्तमच्छदाम ॥ १५ ॥
थ्छ युद्धकायडे ,
तां पिशाचशते! पहभिरणियुप्तां सदा झुभाम् ।
प्रभिवेश महातेजा; सुकृतां विश्वकमणा ॥ १६ ॥
सभ्ासवन के फशं का मध्यसाग स्फाॉव्क पत्थर का बना
हुआ था ओर उसके ऊपर छुनहले रुपहले काम क्ला फर्श विद्धा
इचआ था ! शर्यर के सज्ञाये हुए और छः सो पिशायों द्वारा
रकित चह मदातेजली रावण विश्वकर्मा के बनाये समामचन नें
गया] १५॥ २६ ॥
तस्पां तु वेहयम्य प्रियकानिनसंदरतस |
महत्सोपाश्रयं* भेजे रावण! परमासनस ॥ १७ ॥
समासवन में पहुँच रादण पन्नों के जड़ाऊ सिंहासन पर,
जिसके ऊपर प्रियक ज्ञाति के हिसरन का कोमल उर्म चिछ्ता हुआ था
आर मसचद लगा हुआ था--ज्ञा बैठा ॥ ?२७॥]
तत) शशासेश्वरवदताकुघुपराक्रमान् ।
समानयत मे प्षिप्रमिहेतान्राक्षतानिति | १८ ॥
कुत्यमस्ति महज्जात॑ समथ्यंमिह नो महत् |
राक्षसास्तद्वच। श्रुत्ला लझ्वायां परिचक्रमु) ॥ १९ ||
राजा की हंसिवत से उससे दूतों के बुला कर थाज्ला दी--
ज्ञाओ और शीघ्र दी लड्भावालो रात्तसों के मेरे पास लिया
लाओ । क्योंकि शत्रु के साथ मुझे वढड़ा काम था पड़ा है। राज़्स-
राज रादण की ऐसी शाज्ञा पा, थे दूत लड्भापुरी में घूम घूम
कर, ॥ १८॥ रे६ ॥
१ सेपाश्यं-- लावष्टन्से । ( से० )
एकादश! सर्ः दर
अनुगेहमवर्थाय विह्यरशयनेषु च ।
उद्यानेपु च रक्षांसि चोदयन्तो यमीतवत् ॥ २० ॥
विद्दार में रत, सेते हुए, उद्यानों में खेलते हुए, शात्सरों में
रात्तसेश्वर को प्राज्ञा का प्रचार निर्भोक हो करने लगे॥ २० ॥
ते रथान्खचिरानेके हप्तानेके पृथ्पयान ।
नागानन्येजधिरुरूदुजसुश्रेके पदातयः ॥ २१ ॥
गत्तसेश्वर को थ्ाक्षा पाते द्वी उन रात्षत्तों में से कोई रथों पर,
, कोई घलग घोड़ों पर, काई हाथियों पर आर केई पैदल ही चल
द्यि ॥ २१॥
सा पुरी परमाकीर्णा रथकुञ्नरवाजिभिः |
सम्पतद्धिर्विरुच्चे गरुत्मद्धि रिवाम्बरस् || २२ ॥
उस समय लह्ढुपुरी रथ, द्ाथो ओर घेड़ों से ऐसी शोभा पा
रही थी ; जैसे गरड़ों से आकाश शेभायमान द्ोता है॥ २२ ॥
ते वाहनान्यवस्थाप्य यानानि विविधानि च |
सभा पद्धि; प्रविविशु) सिंह गिरियुहामिव ॥ १३ ॥
चे रात्तल अपनो विविध प्रदशार की सवारियों के सभाभवन
के फाटक पर छे।ड़ पैदल हो समाभवन के अंदर उसी प्रकार गये;
जैसे सिंह पद्दाड़ी गुफा में जाता है ॥ २३ ॥
राज्ः पादों गहीला तु राज्ञा ते प्रतिपूजिता।।.
पीठेष्वस्ये 'छुसीष्वन्ये भूमी केचिदुपाविशन् ॥ २४॥ _
७... रा ७ ऑ आनजणखाफफककल इन अं इि- ४55
१ बृत्तीपु-दर्मभयासनेपु | ( गे )
रू
प्र : थुद्धकायडे
सभाभवन में पहुँच रात्तसों ने शाज्ञसराज के चरणों में सीस
नवाया | सम्मान पा उनमें से कोई कुरसी पर, कोई छुशासन पर
और कोई ज़मीन पर ही बैठ गये ॥ २४ ॥
ते समेत्य सभायां वे राक्षता राजशासनात ।
यथाईमशुपतस्थुस्ते रावणं राक्षसाधिपम् ॥ २५ ॥
इस प्रकार रात्तसराज की श्राक्षा से वे सब वहां एकच हो
यथाक्रम रावण के सम्तोप बैठ गये ॥ २४ ॥
मन्त्रिणएश्च यथा प्रुख्या निश्चितार्थेषु पण्डिता; ।
अमात्याश्च गुणोपेता! सबेज्ञा बुद्धिदशेना! ॥ २६ ॥
अच्छे अच्छे मंत्री सव विषयों में निदुण ओर गुणक्ष, सर्वक्ष और
घत्यन्त बुद्धिमान यथाक्रम उस नभा में बैठे हुए थे ॥ २६ ॥|
समेयुस्तत्र शतशः शुराश्ष वहवस्तदा |
सभायां हेमवर्णायां सर्वार्थस्थ 'सुखाय वे ॥ २७ |
उस सझुवर्णमय सभाभवन में केाई क्षेमकर विचार करने के
लिये वहुत से चीर भी एकत्र हुए थे ॥ २७ ॥
रम्यायां राक्षसेन्द्रस्य समेयुरतत्र सहशः ।
[ राक्षसा राक्षसश्रेष्ठं परिवायोपतस्थिरे |॥ २८ ॥
राज्षसेन्द्र के उस र्मणोक सभाभपन में राज्नसों के दल के
दूल एकत्र हुए। थे राक्तस राक्षसराज रावण के घेर फर बैठ
गये ॥ २८॥
१ सुणायपै--क्षेम्र विचारयितु' ( गे।० )
एकादश: सर्गः / घ्छ
ततो महात्मा विपुलं सुयुग्यं
#बराहजाम्बूनदचित्रिताडस् |
रिथं समास्थाय ययों यशखी
विभीपण; संसदमग्रजमस्य ॥| २९ ॥|
तद्नन्तर यशस्वी मद्दाव्मा विभीषण, छुन्दर घोड़ों से युक्त,
सुवर्गभूषित ओर मद्भलचिन्द्रों से युक्त एक बड़े रथ पर सवार पी,
झपने बड़े भाई के सभामवन में पहुँचे ॥ २९:॥
स पूर्वंजायावरजः शशंस
नामाथ परचाचरणों ववन्दे |
थे
शुकः प्रहस्तश्च तथव तेभ्यो
दो यथाह प्ृथगासनानि ॥ ३० ॥
विभीषण ने समाभवन में झपना नाम ले बड़े भाई के चरणों
में प्रणाम किया | शुक ओर प्रदस्त सभा में समागत समासदों के
यथाक्रम पल्नग प्बलग आलखनों पर विठाते थे ॥ ३० ॥
सुवर्णनानामणिभूषणानां
सुवाससां संसदि राक्ष सानास् |
तेषां पराध्यांगरुचन्दनानां
स्जरच [गन्धा; प्रवतु१ समन्तात् ॥ ३१ ॥
डस समय घह्दाँ सैने के और भ्रनेक प्रकार के मणि भृषयों
को घारण किये हुए जो राक्तस बैठे थे, उनके शरीरों में अगर और
# पाठान्तरै--“ बरं रथ॑ हेमविचित्रताडुम् ।” | पाठान्तरे-- शुभ ।”
ेु 4 पाठान्तरे--“' गनधान्व चब्चुः ।४
चप युद्धकायडे
चन्दन लगे हुए थे | उनसे निकली हुईं तथा ख़ुगन्धित पुष्प माल्नाध्मों
से निकली हुई खुगन्धि, समाभवत में चारो शोर फेल गयी ॥ ३१ ॥
न चुक्कुशनोद्तमाह कश्नि-
..._त्सभासदो नेव जजस्पुरुचे! ।
संसिद्धा्था ९
६ सर्वे एवोग्रवीयां
भतुः सर्वे दर्शुआानन ते ॥ ३२ ॥
वहाँ समा में बैठ संव चुपचाप थे--न ते कोई कुछ कहता था
- छौर न काई वकवाद दी करता था। किसी फे घुख से उच्च स्वर
से कोई वात नहीं निकलती थी । क्योंकि वे सब राक्ततल सफल
मनेरधथ तेजस्वी और पराक्रमी थे। थे ते रावण के मुख के
ताक रहे थे ॥ ३२ ॥
स रांवणः शखभुतां मनखिनां
महावलानाँ समितों मसखी । ,
तस्यां सभायां प्रभया चकाशे- |
मध्ये चसनामिव वजहर्त। ॥ ३३ ॥
इति एकादश सभ्ः ॥
उस सभा में विराजमान शस्रधारी ओर मनस्थी यतक्तसों के
बीच में वैठा इुआ चिन्ताशील रावण, सभा में बैठा दुघ्आ ऐसा
शामायमान हो रहा था, जैसे आठ वदुओं के बीच में वैंठे हुए इन्द्र
को शाभा दोती है ॥ ३३॥
युद्धकाणड का-ध्यारहवां सर्ग पूरा हुआ ।
।
ह्ारशः सगे;
नि भै4>+++
सता परिषद क्ृत्स्नां समीक्ष्य समितिद्धय! |
प्रचोदयामास तदा प्रहस्तं वाहिनीपतिम ॥ १ ॥
रणविजयो रावण ने समस्त सभा के देख कर, सेनापतिं
हस्त के एस प्रकार ध्याप्ता दो ॥ १॥
सेनापते यथा ते स्यु। कृतविद्याश्रतुर्विधा: |
#येपा नगररक्षायां तथा व्यादेष्टुमहसि | २॥
दे सेनापते | सेना में घार तरह के मनुष्य हैं, रधसवार, द्ाथी-
'. सवार, घुड़सवार और पेद्ल | इन चारों तरह के सैनिकों के, नगर
रेज्ा के लिये तुम यथास्थान नियत कर दो ॥ २॥
स प्रहस्त: प्रणीतात्मा चिक्रीपन्राजशासनम ।
विनिश्षिपद्वलं सर्वे वहिरन्तरच मन्दिरे ॥ ३ ॥
ततो विनिश्षिप्य वर्ल॑ पृथब्नगरगुप्तये ।
प्रहस्तः भग्मुख्ते राज्ो निपसाद जगाद च॥ ४ ॥
तब सावधानचित्त प्रदस्त ने रावण फे शाक्षामुसार यथाविधान
को के नियुक्त कर दिया। नगर की रक्ता के लिये प्रत्नग
प्रलग सेना नियत कर, फिर पाकर सभा में राधंण के सामने बैठ
गया झोर यह बोला ॥ ३॥ ४॥ ।
# पाठाष्तरे--' येधानधिकरक्षायां !”
६० युद्धकायणडे
निहितं वहिरन्तरच वल॑ वलवतस्तव |
कुरुष्वाविमनाः कृत्यं यदमिप्रेतमस्ति ते ॥ ५ ॥
मैंने आपके आाश्ाउसार नगर के वाहिर ओर भीतर वलवान
सेना नियत कर दी है | शव आपकी जो इच्छा हो से पध्याप स्वस्य
मन से कर ॥ ५ ॥
प्रहस्तस्थ वचः श्रुत्ा राजा राज्यहिते रतः |
सुखेप्सु) सुहृदां मध्ये व्याजहार स रावण! ॥ ६ ॥
प्रहस्त के ये चचन सुन रावण राज्य के हित में रत. खुट्टदों के
बीच, अपने सुख की चाहना से कहने लगा ॥ ६ ॥
प्रियामिये सुख॑ दुःखं छामालाभों हिताहिते ।
(९ वेदितुम्
धर्मकामार्थकृच्छेषु यूयमहंथ वेद्तुम् ॥ ७ ॥
भाहये | विपत्ति में, प्रिय शप्रिय, खुख दुःख, हानि लास,
द्विताहित तथा धर्माथ काम की सब वातें तुम लोग ज्ञानते हो ॥ ७॥
वकृत्यानि पु
सवकृत्यानि युष्माति; समारव्धानि सबंदा ।
मन्त्रकमैनियुक्तानि न जातु विफलानि मे ॥ ८ ॥
तुम आपस में परामर्श कर ओर एकमत दो जो काम करते.
दा, वह कभी निष्फल नहीं होता । क्योंकि में सी कई काम तुम
लोगों की सम्मत्ति से पूरे कर चुका हैं ॥ ८॥
ससोमग्रहनक्षत्रेमेरुद्धिरिव वासवः । -
भवद्विरहमत्यथ हृतः अियमवाशुयास्र् ॥ ९ ॥
इन्द्र, जिस प्रकार चन्द्रमा, ग्रह, नत्तत्र ओर मरुदुगणों से सेवित
हो कर, स्वर्गंखुख मेगा करते हैं, उसी प्रकार मैं श्राप लोगों के
साथ लड्भापुरी का राज्य करता हूँ॥ ६ ॥
द्वादशः संग: ६१
अहं तु ख़त सवान्वः 'समर्थयितुम्ुच्त) ।
(
कुम्भकर्णस्य तु खम्मान्नेसमयमचोदयम् ॥। १० ॥
अं हि सुप्तः पण्पासान्कुम्भकर्णा महावलः |
सबशस्रभृतां मुख्य स इदानीं सम्नत्यित। ॥ ११ ॥
में सब प्रकार के कार्यो का श्राप लोगों के सूचित कर देना
चाहता था | परन्तु कुम्मकर्ण की निद्रा के कारण में इसे श्राप ,
सव के सामने प्रकट करने का अवसर धाप्त न फर सका । यहे
मदावलो कुम्भकर्ण जो सव शब्रधारियों में श्रेष्ठ है, छः मास वाद
धव से। कर आगा है ॥ १० ॥ ११ ॥
इयें च दण्डकारण्याद्रामरय महिषी प्रिया ।
रप्षेमिश्चरिताहेशादानीता जनकात्मना ॥ १२ |
वह वात जी में श्राप लोगों के सामने प्रकट करना चाहता था,
यह है कि, जनक की पुत्री और राम की प्यारी पट्यनी सीता को
दृश्टकवन में जञनस्थान से ले आया था ॥ १२॥
[ नोट -राबण सब के सामने यह स्पष्ट रूप से नहों छदृवता कि, मैं दण्डक
वन से सीता के वरमोरों दर छाया हूँ । चद्द कद्ता है. '" आनीता ” भर्थात् रे
आया हूँ। ]
सा मे न शब्यामारोहुमिच्छत्यलसगामिनी' ।
'त्रिषु लोकेषु चान्या मे न सीतासहशी मता ॥ १३ ॥
किन्तु वह मन्दगामिनों मेरी सेज पर साना नहीं चाइती । मेरी
समस्त में सीता के समान उुन्दरी स्त्री तीनों लोकों में नहीं है ॥१शा
१ समथैयितु--ज्ञापयित॒ु' । एप उता उप । जान) २ अल्पगामिनरी--सन्दगमिनी । गे।० ) २ अलप्तगामिनी-मन्दगामिनी ।
(गे।० / 9 | ;
8२ । युद्धकाणडे
तनुमध्या पृथुओणी शारदेन्दुनिभानना ।
हेमविम्वनिभा सौम्या मायेव मयनिर्मिता | १४ ॥
क्योंकि उसकी पतली कमर है, मोदी जाँघ हैं, शरदऋतु के
चन्द्रमा जैसा उसका मुख है। खुबयण प्रतिमातुल्य, चद्द मय निर्मित
माया की तरद ( मन का माहने वाला है )॥ १७४ ॥ *
सुलोहिततलों छह्षणों चरणों सुप्रतिष्ठितों ।
इृष्टा तामनखो तस्या दीप्यते मे शरीरजः ॥ १५ ॥
उसके पैरों के तलवे लाल, त्रिकने हैं. और पैर बड़े खुडोल हैं ।
उसके लाल लाल नखों के देख कर मेरा शरयीरूय काम उत्तेजित
हा ज्ञाता है ॥ १४ ॥ ह
हुताभेरचिंसक्ाशामेनां सोरीमिव प्रभागू।
िष्ठा सीतां विशालाक्षीं कामस्य वशमेयिवान् || १६॥
हवन की प्रज्वलित आग श्थवा छुर्य की प्रमा की तरह विशाल
नयनी लीता को देख, में काम के वश में हो गया हैँ ॥ १६ ॥
उन्नसं बदन वल्यमु विपुर्रु चार छोचनम् |
पश्यंस्तदाब्वशस्तस्या। कामस्य वदमेयिवान् ॥ १७ |
सीता की ऊँचो नाक ओर उसके मनेहर - नेन्नों से सुशामित
छुखमण्डल के देख, में काम के वशवर्ती हद, उस ( सीता ) के
ध्रधीन हो गया हैं ॥ १७ ॥
#ओषहर्पसमानेन दुवे्णकरणेन च |
शोकसन्तापनित्येन कामेन कलुषीकृत) || १८ ॥
. # पाठान्तरे-- क्रोपदषसहायेन
द्वादशः सगे: 8३
मेरे लिये कोध और हर्प समान हो रहे हैं, मेरे शरोर का रंग
भव्रंग हो रहा है। सदा शोक सन्तप्त रहने से, काम ने मुस्ते बहुत
विकल रखा है ॥ १८ ॥
सा तु संवत्सरं काल॑ मामयाचत भागमिनी ।
प्रतीक्षमाणा भतारं राममायतलोचना ॥ १९ ॥
. अपने पति श्रीरामचन्द्र त्री की प्रतीज्ञा करने के लिये उस बढ़े
बड़े नेश्रों वाली भामिनी ( सीता ) ने, मुकले एक वर्ष का समय
माँगा है ॥ १६ ॥|
तन््मया चासरुनेत्राया! प्रतिज्ञातं वचः शुभम |
श्रान्तोः्ह॑ सतत कामराद्यातों हय इवाध्वनि ॥ २० ॥
' से उस झुन्द्र नेत्र वाली से में सत्यप्रतिज्ञा कर चुका हूँ।
किन्तु निरन्तर की कामपोड़ा से में चैसे ही शान्त हो गया हैँ
जैसे--वहुत दुर चलना हुआ धाड़ा थक्र जाता है ॥ २० ॥
' कथं सागरमक्षेभ्यं #तरिष्यन्ति वनौकसः ।
, * बहुसच्वसमाकीण तो वा दशरथात्मनों ॥ २१ ॥
मेरी समक्त में यह वात भी नहीं श्याती कि, वे सब वानर और
दृशरथ के दोनों पुत्र वहुत से जअल्लजीवों से पूर्ण एवं श्रत्तोभ्य
सागर को, किस तरह पार क्रंगे॥ २१ ॥ ।
अथवा कपिनैकेन कृत न! कंदनं महत् |
दुज्ेंयाः कार्यगतयो ब्रृूव यस्य यथामति ॥ २३ ॥
साथ ही यह भी विचार उत्पन्न होता हे कि, जब एक ही घानर
ने इतना वंड़ा मेरा अपमान और मेरी- सेना का नाश कर डाला _
# पाठान्तरैे---'' उत्तरन्ति ।'
&8 युद्ध कायडे
चब उनके कार्यक्रम का ज्ञानना ऋठिन है। अच्छा श्रव प्राप लोग
जैसा आपकी समर में भावे, बेसा कहें ॥ २२ ॥
मानुपान्मे भयं नास्ति तथाअपि तु विमृश्यताम ।
तदा देवासुरे युद्धे युष्पामिः सहितोडजयस् ॥ २३ ॥
यद्यपि हम लोगों के मदुष्य से डर नहों है, तथापि विचार
करना उचित है। मेंने पदिले देवाछुरसंप्राम में तुम लोगों की
सद्दायठा से विजय ही पायी थी ॥ २३ ॥
ते मे भवन्तश्च तथा सुग्रीवप्रमुखान्दरीन् ।
परे पारे समुद्रस्य पुरस्कृत्य तृपात्मनों ॥ २४ ॥
झतः झव उपस्यित कार्य में भी तुम लोग सहायता करो ।
यह भी समाचार मिला है कि, सुश्रीव भरादि घानर और के दोनों
वीर राजकुमार समुद्र के उस पार आ पहुँचे हैं॥ २४ ॥
सीतायाः पदवीं प्राप्ती सम्प्राप्ती वरुणालयस् |
अदेया च यथा सीता वध्यों दशरथात्मनों ॥ २५ ॥
घे सीता के यहाँ दाने का समाचार पा कर ही सप्लुद्गतदव पर
आये हैं। सीता ते देना न पड़े शोर वे देवों राजकुमार मारे
जाँय ॥ २५ ॥
भवद्विमन्व्यतां मन्त्र; 'सुनीतिभ्राभिधीयतास् ।
न हि शक्ति प्रपश्यामि जगत्यन्यस्थ कस्यचित् ।
० वानरेस्तीत्वा 5
सागर वानरेस्तीत्वां निश्वयेन जयो मम ॥ २६ |
इस विषय में आ्राप ल्लोग विचार ले शोर भज्नी प्रकार से-
निश्चय फर निश्चित वात वतल्लादें । में ते इस संसार में दुसरे
मा मी
२ चुनीत- सुनिश्चित । ( रा० )
9 छाद्श+ सर्ग | 8५
किसी में ऐसी शक्ति नहीं देखता कि, वानरों के साथ संपुद्र फे इस
पार थ्रा सके । फिर जीत ते मेरी निश्चित ही है॥ २६ ॥
तस्य कामपरीतस्य निशम्य प्रिदेवितम् ।
कुम्भकण!ः प्रचुक्रोध वचन चेदमत्रवीत् ॥ २७॥
फामासक होने के कारण रावण की बुद्धि बिगड़ गयी धी--
से। उसकी ये उढ्दी पुढ्दी वातें सुन कम्मकर्ण को बड़ा क्रोध चढ़
घाया और वह यबैसी ही श्रव्पटी वातें कदने लगा ॥ २७॥
यदा तु रामस्य सलक्ष्मणस्य
, प्रसह्न सीता खत्चु सा इहाहता ।
बडे &
सकृत्समीक्ष्येव सुनिश्चितं तदा ह
भजेत चित्त यम्ुनेव यामुनस् |! २८ ॥
हे राजन ! जब ध्याप राम श्रोर लक्ष्मण के पास से परजोरी
सीता के हर लाये, उसके पूर्व एक वार भो इस विषय में भली
भाँति विचार कर कुछ निश्चय किया था ! जिस प्रकार यमुना
पर्वत के नीवे उतरने के समय अपने कुणडों के भ्राभ्रित रदतो द्वे
वैसे ही तुमका भी काम करने के पूर्व हमारे मत के घाश्रित रहना
था | ( ध्यव जब इस कर्म के विपाक का समय उपस्थित है, तब हम
ल्ोगें। की सम्मति से लाभ ही क्या है ) १ ॥ रे८॥।
सर्वेमेतन्मह्ाराज कृतमप्रतिमं तव ।
| च
विधीयेत सहास्माभिरादापेवास्थ कमेण; ॥ २९ ॥
' हे मद्दाराज्ञ | झापने ये सब काम भ्रजुचित किये हैं ।' फरने के
पूर्व हम से सलाद ले क्षेनी थी ? ॥ २१६ ॥
8६ युद्धकाणडे ५
'न्यायेन राजा कार्याणि य! करोति दशानन |
९
न स सन्तप्यते पश्चान्निश्चितार्थमतिनप३ ॥ ३० ॥
दे दशानन | जे। राजा विचारपूर्वाोक्त काम करता है, उसके
पीछे कभी सन्ताप नहीं द्वाता, क्योंकि शास्राठुसार वह धपनी बुद्धि
से उसका निश्चय कर लेता है ॥ ३० ॥
अनुपायेन कर्माँणि विपरीतानि यानि च ।
क्रियमाणानि दुष्यन्ति हवींप्यप्रयतेष्विवर ॥ ३१ ॥
परन्तु उपाय का अवल्लंवन किये विना जे! काम मनमाने उल्हें
सीधे किये जाते हैं, चे सब उसी प्रकार दृषित होते हैं, जिस प्रकार
धपविन्न हब्य की आहुति ॥ ३१॥
यश परचात्पूवकार्याणि छुरुते बुद्धिमोहितः ।
पूर्व चोच्रकार्याणि न स वेद नयानयौं ॥ ३२ ॥
जे वुद्धि से भेहित राजा प्रथम करने याग्य कार्य के पीछे और
पीछे करने येम्य कार्य के पहिले करता है, चह नीति और श्रनीति ,
का कुछ सी नहीं ज्ञानदा ॥ ३२॥
चपलस्य.तु कृत्येपु प्रसमीक्ष्याधिक्क वलूस |
प्षिप्रमन्ये प्रपचनन्ते क्रोश्वस्य खमिव दविजा।३ ॥ ३३ ॥
जे! चंचल स्वभाव के लेग होते हैं, उनके कामों में उनके शत
हे ही छिद्र हू ढ़ा करते हैं, जैसे क्रोंच पर्वद के छिद्र, हंस हु ढ़ते ,
॥ ३३ ॥
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३ स्यायेत्र-विचारेण | (गै०) २ अप्रमतेएु - भशुचिएु अपन्रेषु । (गे।०।
३ द्विजा:--हंछाः । ( गे० ) '
द्वादएः सर्गः 8७ :
स्वयेदं महदारव्धं का्यमप्रतिचिन्तितम् |
दिप्टथा त्वां नावधीद्रामों पिपमिश्रमिवामिपस ॥ ३४ ॥
तुमने विना साचे विचारे यह बड़ा भारी काम छेड़ दिया है।
यह बड़े सैभाग्य को वात्त है क्रि, राम ने श्रभी तक तुम्हें बैसे ही
मार नहीं डाला, जेसे विप मिला हुआ माँस, खाने वाले का भार
डालता है ॥ ३४ ॥
तस्मात्त्वया समारव्धं कर्म ह्प्रतिमं परे! |
अहं समीकरिष्यामि हत्वा शत्र॑सतवानघ ॥ ३५ ॥
हे अनध ! जव कि, तुमने इस अनुचित कार्य के कर रामचन्द्र
जी के साथ शब्ुता कर ली है, तब में ही तुम्दारे शन्रुओं को मार कर,
हसे ठीक करूंगा ॥ ३४ ॥
यदि शक्रविवख॒न्ती यदि पावकमारुतों ।
तावहं योधयिष्यामि कुवेरवरुणावपि ॥ ३६ ॥
यदि इन्द्र, यम, अभि, पवन, कुबेर, शथवा वरुण ही क्यों न
भरार्चें, में उनके साथ भी लड्टें गा ॥ ३६ ॥
गिरिमात्रशरीरस्प शितशूलधरस्य च |
, नदतस्तीएणदं॑ष्ट्स्य विभियाद्रे परन्दर! ॥ ३७ ॥
मेरा पर्वताकार शरीर है, पैना विशुल्ष भेरा झायुध हे।
पैने पैने मेरे दाँत हैं। में जब रणक्षेत्र में खड़ा हो गर्जेना करेगा;
तब इन्द्र भी भयभीत हो जाँयगे ॥ २७ ॥
“पुनर्मी स छ्वितीयेन शरेण निहनिष्यति ।
ततोउहं तस्य पास्यामि रुघिरं काममाइवस ॥ ३२८ ॥|
वा० रा० यु०--७
श्द युद्धकायडे
यह निश्चित हो हे कि, रामचन्द्र एक वाण छोड़ कर दुसरा
वाण न छोड़ने पावेंगे । दूसरा वाण वे छोड़े ही छोड़ें तव तक में
उनका खुद पी लूँ गा । तुम निश्चिन्त रहो ॥ ३८ ॥
वधेन ते दाशरथेः सुखावहं
जय॑ तवाहतेमह यतिप्ये |
हत्वा च राम सह लक्ष्मणेन
खादामि सबान्दरियूथम्रुख्यान् ॥ ३९५ ॥
जी... आप
दशरथ के चेटे के मार कर, में तुम्हारे लिये सुखदायिनोी जय .
'सम्पादन करने का प्रयत्न करूंगा । लक्ष्मण सहित रामचन्द्र के मार
कर, में-सव वानर-यूथपतियों के खा डालूं गा ॥ ३६ ॥|
रमस्व काम पिव चाउ््यवारुणीं
,... कुरुष्व कार्यांणि द्वितानि विज्वरः |
'मया तु रामे गमिते यमक्षय॑
चिराय सीता वशगा भविष्यति ॥ ४० ॥
इति द्वादुशः सर्गः ॥
,.माज़ उड़ाओ, मनमानी शराव पीशो ओर निश्चिन्त हो ऐसे
काम करे, जिनके करने से भलाई हो । जब में राम को यमालय
भैज्न दूँ गा, तव सीता सदा के लिये तुम्हारे चश हो जायगी ॥ ४० ॥
युद्धकाणड का वारहवाँ सर्ग पूरा हुआ |
“कै
त्रयोदशः सर्गः
| पाक
रावरं क्रुद्धमाज्ञाय महापाश्वों महावल। ।
मुहृतमनुसखिन्त्य भरा्नलिवाक्यमत्रवीत् ॥ १ ॥
रावण को क्रुद्ध देंख, मदावतो रात्तस मद्यापार्श्श शड़ी देर
कुछ सोच विचार कर, हाथ जोड़े हुए वैजा ॥ १॥
यः खसल्रपि वन॑ प्राप्य मृसव्यालसमाकुलम |
न पिवेन्मधु सम्पराप्तं स नसे वालिशो भवेत् ॥ २ ॥
जिस बन पे व्यात्र सिंदादि तथा बड़े बड़े अ्रक्षगर रहते हैं,
उस धन में जा कर भी जे। मधुपान न करे वह सूर्ख है,॥-२ ॥
इेश्वरस्पेश्वरः कोउस्ति तव शत्रुनिवहंण ।
रमस सह वैदेशा बत्रुनाक्रम्य मूपसु १ ३१
है शत्ननिवहण | तुम सब के स्वयं नियन्ता हो, तुम्हारा 'नियन्ता
कोन हो सकता है। तुम ते अपने वैरी के सीस पर पैर रख कर
चैदेही के संग विद्दार करे। ॥ ३१
वलात्कुक्कुटहत्तेन वर्त् सुमहावल ।
#आक्रम्य सीतां वैदेहीं तथा श्ुडुएवं रख च्न॥॥ ४ ॥
हे मदावली ! यदि ठुमले सीता राज्ञी न हो तो तुम युग की की
तरह वरसजेरी उसके सांध वर्ताव करो ओर मज्ञें में भागविलास
करे। ॥ ४ ॥ पर
% पाठान्तरे--; क्षाक्रम्याक्रम्य सीता मै ।!
१०० युद्धकायडे
लव्पकामस्य ते पश्चादागमिष्यति यद्धयम् |
प्राप्तमप्राप्तकाल वा सब प्रतिसहिष्यसि ॥ ॥ ५॥
जब तुम्हारी मनेकामना पूरी हे। जायगी, तब तुमको डर ही
क्या रह जायगा ओर यदि पीछे सावधानी प्रसावधानी की दशा
में कुछ होगा ही ते उसे भी देख लेंगे ॥ ५॥
|
कुम्भकरण।; सहास्माभिरिन्द्रजिच महावरक) |
प्रतिपेधयितुं शक्तों सवजमपि वज्िणम् ॥ ६ ॥
जव इन्द्रजीत शोर कुम्सकर्ण मेरो सहायता फे कमर कस कर
खड़े ही ज्ाँयगे, तव हम वज्धारी इन्द्र का भों सामना कर सकते
हैं॥६॥
उपप्रदानं सान्त्वं वा भेदं वा कुशलेः ऋंतस |
समतिक्रम्य दण्ध्न सिद्धिमर्थेपु रोचय ॥ ७॥
नीतिकुशलजनीं ने शन्रु के मुट्ठी में करने के लिये साम, दानव,
भेद और दण्ड, ये चार उपाय वतलाये हैं, से मुझे ते पिछुलो
उपाय दण्ड ही पसन्द है ॥ ७॥
इह प्राप्तान्वयं सवाच्शत्र॑स्तव महावरू ।
वशे शस्रप्रपातेन करिप्यामों न संशय! | ८ |
हे महावत्ली | में प्रथम के तीन उपायों के छोड़, केवल द्गड
द्वारा ही. तुम्हारे समस्त शत्रओ्ों के निल्सन्देह वश में कर
लूगा॥८॥।
एवमुक्तस्तदा राजा महापाश्वेन रावण) ।
तस्य सम्पूजयन्धाक्यमिद वचनमैत्रवीत् ॥ ९ ॥
प्रयोदशः सर्ग:... १०१
मदापाएतं के ये वचन खुन फर, रावण ने उस कथन की प्रशंसा
करते हुए, ये चचन कद्दे ॥ ६ ॥ ह
एे ८ न
महापाइव निवोध त्व॑ रहस्य क्रिश्विदात्मनः ।
चिरहत्तं तदांख्यास्ये यदव्राप्तं मया पुरा ॥ १०॥
दे महापाश्व॑ ! में अपना कुछ पुराना रहस्ययुक्त बान्त तुमको
खुनाता हैं। उसे श्रमो तक कोई नहीं जनता । यद्द बहुत पुरानी
घटना है ॥ १० ॥
. पितामहस्य भवन गऋउन्तीं पुश्चिकस्थलाम् ।
चद्बर्यमाणामद्राक्षमाकाशे5मिशिखामिव ॥ ११ ॥
पुडिनिकल्यली नाम की पक श्रप्सरा ब्रह्मलेक में अ्रह्मा जी को
प्रशाम करने जा रही थो। वह भय के मारे आकाश में छिपी हुई
जा रहो थी शोर अ्रम्मेशिजा की तरह दमक रही थी ॥ ११॥
सा प्रसहय मया थ्रुक्ता कृता विवसना ततः ।
स्वयम्भूथवन प्राप्ता छोलिता नलिनी यथा ॥ १२॥
मैंने वलपूर्क उसे नंगी कर उसके साथ भाग के । तद्नन्वर
वह ब्रह्मलेक में क्मलिनी की तरद काँपती हुई पहुँची ॥ १२॥
तस्य तच्च तदा मन्ये ज्ञातमासीन्महात्मनः ।
अथ सहूपितों देवों मामिदं वाक्यमत्रवीत् ॥ १३ ॥
में समभता हैँ कि, ब्रह्मा जी के यह द्वाल मालूम हो गया झोर
उन्होंने प्रत्यन्त क्रुद्ध है मुझको यह शाप दिया ॥ शा. -
- अद्यप्रमृति यामन्यां बलान्नारीं गम्िष्यसि |
तदा ते शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशय; || १४ |!
१०२ युद्धकायडे
यदि आज से तू किसी स्ली के साथ वरजेरी जाय करेगा, तो
तेरे सिर के निस्सन्दरेह सो टुकड़े हे! जाँयगे ॥ १७ ॥
इत्यहं तस्य शापस्य भीतः प्रसममेव ताम्र् ।
नारोपये बलात्सीताँ वेदहीं शयने #स्रके ॥ १५॥
में उसी शाप से डर कर, सीता के अपनी उत्तम सेज पर
वरजेरी चढ़ाने का प्रयत्न नहीं करता ॥ १४॥
सागरस्येव मे वेगो मारुतस्येव मे गतिः ।
नेतंद्गरंथिवेंद ह्यासादयति तेन मास | १६ ॥
भेरा सपुद्र के समान वेग है ओर पवन की तरह गति है।
क्या वह दशरथ का वेटा यह वात नहीं जानता, जे। घुझे पर चढ़ाई
करता हैं ॥१६॥ ।
को हि सिहमिदासीन सुप्तं गिरियुहाशये ।
क्रुद्ध॑ मृत्युमिवासीन प्रवोधयितुमिच्छति ॥ १७ ॥
गिरिशुद्दा में सोते हुए ओर झत्यु के समान क्रुद सिंह के कोन
जंगानां चादतां है | १७ ॥
न॑ मत्तो [निगतान्वाणान्द्रिजिहानिव पन्नगान |
राम! पश्यति संग्रामे तेन मामभिगच्छति ॥ १८ ॥
रॉमचन्द् ने संग्राम में दो जीम वाले सपा के समान मेरे घनुष
से ह हुए वाण नहीं देखे, इसीसे वे मेरे ऊपर चढ़ाई करने प्रा
रहे हे ॥ १८ ॥
# पाठान्तरे--' झुमे ।” १ पाठान्तरे--'' यस्नु ।/. | पाठाल्तरे--
४ निशितानू ।"*
भयोद्शः सर्गः १०३
क्षिप्रं चजोपमैबाणेः शतधा कामुकच्युतैः ।
राममादीपयिष्यामि उर्काभिरिव कुझ्लरमू | १९ ॥
के बच्न के तुल्य ओर धनुष से एक साथ सै सै वाण छाड़ कर,
में राम के वैसे दी भगा दूं गा, जैसे हाथी मशाल दिंखा कर भगा
दिया जाता है ॥ १६॥
तब्चासर्य वलमादास्ये वलेन महता हतः ।
उदयन्सविताकाले नक्षत्राणामिव प्रभाम् || २० ॥
के मैं ग्रपनी महती सेना से उनको सेना का ऐसे दवा दूंगा
जैसे खूय श्रपने प्रकाश से नज्ञत्नों के प्रकाश का दवा देतें है ॥२०॥
न वासवेनापि सहस्तचक्षुपा
युधाउरिसि शक्यो वंरुणेन वा पुनः ।
मया त्वियं बाहुबलेन निर्जिता
पुरी पुरा वैश्ववणेन पालिता ॥ २१ ॥
इति प्रयेद्शः सर्गः ॥
देखे, न ते मुक्के सदख्त नेत्रवाला इन्द्र ही जीत सकता है
भोर न परुण ही मुझे दर सकता है । पूर्वकाल में कुबेर द्वारा
पालित यद्द ल्लड्भुपुरो मैंने अपने वाहुवल से जीती है ॥ २१ ॥
युद्धकाग्ड का तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
नल न
चतुदेशः सर्गः
डे टिक पल
निशाचरेन्द्रस्य निशम्प वाक्य
स कुम्भकर्णस्य च गर्जितानि ।
विभीषणो राक्षसराजमुख्यम््
उवाच वाक्य हितमथयुक्तम् ॥ १ ॥
राक्तसराज की डीॉंगे ओर फुस्सकर्ण की निरथंक वातें सुन,
विभीषण ने राचण से क्तेच्यार्थथाघयुक चचन कहा ॥ १॥
इंतो हि वाहन्तरभेगराशि-
श्रिन्ताविषः सुस्मिततीएरणदं॑ष्ट) |
पश्चाइुलीपश्वशिरोतिकायः
“ स्लीवामहाहिस्तव केन राजन ॥ २॥
हे महायज ! वत्तस्थलरूप फवधारी, चिन्तारूपी विष से युक्त,
दास्यरूपी तीदण दाँतों वाले और पश्चाड्ग्लिरूपी पाँच सिरों वाले
सीतारूपो वड़े भारे सर्प के आप उ््यों यहाँ ले आये हु १॥२॥
यावन्न लड्ढां समभिद्गवन्ति
घलीमुखा; पर्वतकूटमात्रा)। '
दृष्ट्रायुधाश्वेव नखायुधाश्र
प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली ॥ ३ ॥
है राजन ! जब तक पर्वंतशिखर के समान, नखों ओर दांतों
के घायुध वाले वानर, लड्ढापुरो पर घेश नहीं डालते, इसके पूर्व
दही आप श्रीरामचन्ध जी के सीता दे दें ॥ ३ ॥
चतुदृशः सर्गः १०४
यावन्न ग्रहन्ति शिरांसि बाणा
रामेरिता राक्षसपुक्ञवानाम ।
वज्जोपमा वायुसमानवेगाः
प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली ॥ ४ ॥
भव तक धोरामचन्द्र जी के बच्र के समान भयहुर ओर वायु
समान वपेगवान् वाण रात्तसों के सिर नहीं काठते--उसके पु
ही भ्रीरामचन्द्र जी के आप सीता दे दे ॥ ४॥
न कुम्भकर्णेन्द्रजितों न राजा
तथा महापाश्वमहोदरों वा ।
निकुम्भकुम्भो च तथातिकायः
स्थातंं न शक्ता युधि राघवस्य ॥ ५ ॥
, दे राजन ! क्या कुम्भकर्ण, क्या इन्द्रजीत् , क्या महापाएर, फ्या
महोद्र, क्या कुम्स, क्या निकुम्म ओर क्या झतिकाय--इनमें से कोई
भी रणत्तेन्र में श्रीरामचन्द्र जी के सामने नहीं खड़े रद सकते ॥ ५॥
जीव॑स्तु रामस्य न मोह्ष्यसे त्व॑
गुप्तः सवित्राधप्यथ वा मरुद्धि! ।
न वासवस्पाइूगता न #पमृत्यो-
ने खं न पातालमनुप्विष्टः ॥ ६॥
तुम चाहो कि, हम जीते जो राम से बच जाये, सो नहीं होने
का । तुम्हें सूर्य ओर देवता भो यदि वचाना चाहे, तो भी तुम नहीं
पेच सकते | तुम भले ही इन्द्र की श्रथवा स॒त्यु ही की गोद में
# पाठान्तरे --“ सत्योनंमो न पातालमनुप्रचुष्टिः ।”
श् छे हु ' युद्धकाणडे न ऋण'डे
, क्यों न जा बैठी ; अथवा थाकराश या पाताल में कहीं जा छिपा, पर
श्रीरामचन्द्र से तुम्दारा बचना असम्भव है ॥ $ ॥
निशस्य वाक्य तु विभीषणस्य
ततः पहस्तों वचन वभाषे |
ननो भय विद्य न देवतेभ्यो
न दानवेश्यों छथवा कुतश्रित् ॥| ७॥
विभोषण के ये वचन छुन, महस्त कहने लगा, हमें देवताओं
अछुरों अथवा शन्य किसी से कुछ भी भय नहीं है ॥ ७॥
न यक्षगन्धवमहोरगेम्यो
भयं न संख्ये प्तगोचमेभ्य! |
कथ॑ जु रामाद्भविता भयं नो
नरेन्द्रपत्रात्समरे कदाचित्॥ ८ ॥
जव युद्ध में हम लोगों के यज्नों, गन््धवों, सपों ओर गररुड़ादि.
पत्तियों से कुछ भी सय नहीं है, तव एक राजकुमार रामचन्द्र से
हमके सयप्षीत क्यों होना चाहिये . ८५॥
प्रहस्तवाक््य॑ त्वहितं निशम्य
'विभीषणे। राजहितानुकाडश्ली ।
तते "महात्मा वचन वभाषे
धर्माथकामेपु निविष्ठदुद्धि! ॥ ९॥
प्रदस्त के इन श्रद्तिकर बचनों के झुन, रावण के हिलेषी
मंहादुद्धिमान, और धर्मा्थ काम के भलोभाति समझने वाले
भोष्ण ने कंहा ॥ ६ ॥
१ सद्रात्मा-सहाधुद्धि! । ( गे।० )
चतुदंशः सगेः रैण्छ
प्रहस्त राजा च महोदरश्च
्ं कुम्भफर्शश्च कयदर्थनातस् ।
व्रवीय राम प्रति तन्न गक््यँं
यथा गति! ख्वगमधर्मचुछे। ॥ १० ॥
है प्रहस्त ! देखा, रावण ने, मदोद्र ने, तुमने शोर कुम्मकरण ने
रामचन्द्र के विषय में जे समझ रखा है सी ठीक नहीं हे। तुम
लोगों का कथन उसी प्रकार अलोक है; जिस प्रकार किसी पापी
का खग्ग में ज्ञाना ॥ १० ॥
वस्तु रामस्य मया त्वया वा
प्रहस्त स्ैंरपि राक्षेसेवां ।
» प्
कर्थ भवेदरथविशारदस्प"
महाणंव ततुमिवाप्वस्थ ॥ ११ ॥
उन कार्यदक्ष राम को में या तुम अथवा समस्त राचस
मिलकर भी-भला कैसे मार सकते हैं ? तुम्दारा कथन ते ऐसा ही
है, जैसा विना नाव के कोई मल्लुध्य समुद्र पार जाने को' तैयोरी'
करता दो ॥११॥
धरमप्रधानस्य महारथस्य
इक्ष्वाकुवंशमभवस्य राज्ः |
प्रहर्त देवाश्व तथाविधस्य
कृत्येषु शक्तस्य, भवन्ति मूढा;॥ १३ ॥
१अविशारंद्म --फार्यदक्षस्थ | (गे।०) # पाठल्तरै--" यथापनातंम एज्लाउ फा्य फप : एक... बरोशवर।"
श्०्दा युद्धकायडे
है प्रहस्त | विशेष कर यह इच्दवाकुवंशाहुव मद्दारधी
श्रोरामचन्द्र जी बड़े घर्माव्मा हैं। मेरी ते विसाँत दी क्या हे।
ऐसे सव कार्यो' के करने की शक्ति रखने वाले अथवा विराघ
कवन्ध वालि आदि के मारने वाले पुरुष के साथ युद्ध फरतें
समय देवताश्रों को भी वुद्धि चक्राने लगती है ॥ ११॥
[ नोइ--महारथ्री को परिभाषा यह है ३--
८ झ्ात्मानं सारथि चाश्वानरत्तन्युध्येतया नरः ।
स महास्थप्त॑क्षः स्थादित्याहुनीतिकेविदः ॥ ”
छर्थात् अपनी, अपने सारथी की त्तथा अपने रथ के घोड़ों को रक्षा करता हुआ जे
वीर, शत्रु से लड़ रक्कता है ; उपते रणनोतिविद्यारद् '' मठारथी ” कहते हैं । ]
तीक्ष्ण नता यत्तव कड्डूपत्रा
दुरासदा राधवविमपरमुक्ता: |
भित्त्वा शरीर प्रविश्चन्ति वाणा;
प्रहस्त तेनेव विकत्यसे त्वम् ॥ १३ ॥
हे प्रहस्त | श्रीरामचन्द्र जो के पैने सीधे ओर पंखदार अखहा
वाण ज्ञव तक तुम्हारे शरीर के चिदीणे नहीं करते, तव तक तुम
भत्ते ही जे चाहो सो वढ़ वढ़ कर वातें कह ले ॥ १३ ॥
न रावणो नातिवलख़िशीपों
न छुम्भकणस्य छुते निकुम्भः |
न चेन्द्रजिद्दाशरथिं प्रसोहूं
... खां वा रणे शक्रसमं समर्था; | १४ ॥
-. बलघान रावण, त्रिशीषे, मेघनाद, तुम, कुम्मकर्ण, और उसका
पुत्र निकुम्म में से कोई भी रणशत्तेत्र में इन्द्र के समान पराक्रमी
्
सतुदशः लर्गः १०६
शीरामचन्द्र जी का पराक्रम सह नहीं सकता। श्र्थात् उनके सामने
इनमें से कोई भी खड़ा रह नहीं सकता ॥ १४ ॥
देवान्तका वाअपे नरान्तकों वा
तथा5तिकायो5तिरथों "महात्मा |
अकम्पनथाद्रिसमानसारः
स्थातुं न गक्ता युध्रि रापवस्य ॥ १५ ॥
भर देवान्तक, नरान्वक, अतिक्राय, वड़े शरीर बाला अ्रतिरथ,
श्रोर पहाड़ के समान वलवाला अऊस्पन, इनमें से कोई भी राम के
सामने युद्धत्तेत्र में खड़ा नहीं रह सकता ॥११॥
अय॑ हि राजा व्यसनाभिभूतो
मित्र प्रतिगे भवद्वि
त्ररमित्रअमतिमभवद्धिई |
अचास्यते राक्षसनाशनाय
तीक्ष्णः प्रकृत्या ब्ृसमीक्ष्यकारी | १६ ॥
ये राजा ते कामान्च हो रहे हैं ओर आप लेाग इनके साथ पत्र
के रुप में शच्ता कर रहे हें ग्रथवा आप लोग इनके मित्रढ्पी शत है।
थ्राप ही लागों की सक्लाह से यत्तलजाति का नाश होगा। यह शजा
उम्रप्रकृति का है और बिना समझे वूक्के काम कर बैठता है ॥ १६ ॥
अनन्तमोगेन सहस्रमूर्ना
नागेन भीमेन महावलेन |
वल्ात्परिक्षिप्तमिमं भवन्तोा
राजानमुत्तिप्य विभोचयन्तु ॥ १७ ॥|
१ महाध्मा--मद्दाकाय/! |. ( गे।० )
११० युद्धकायडे
में ता-आप सव से यही कहूँगा कि, श्रपरिन्छिन्ष काया पाले,
हज़ार फनों से युक्त भयक्षर बलवाते श्रीरामचन्द्र रूपो सप॑ के मुख
में फंसे हुए, राचए के शाप लोग किसी तरह वचादये ॥१७॥
यावद्धि केशग्रहणं सुहृद्धि।
समेत्य सर्च! परिपृ्णकाम ।
' निमृह्ष राजा परिराक्षतब्यो
यूतैयेथा भीमबर्लेशहीत) ॥ १८ ॥
जिनके समस्त मने।रथ राजा द्वारा पूर्ण हो चुके हैं; पे राजा के
शन्र द्वारा चेटो पकड़ कर खींचे जाने से वेसे ही वचायें ्रोर मान
झपमान का विद्यार न करें, जैसे भयानक भूत लगे हुए पुरुष को,
उसके हितों वाल पकड़' कर या वरजेरी बाँध कर वचाते हैं।
झगर यह डरते हों कि, राज्ञा बलवान है, तो सव लेग मिल कर
पेसा करें ॥ १८ ॥
#पशुवारिणा राघवसागरेण
प्रच्छात्रमानस्तरसार भबद्धि। ।
युक्तरत्वयं तारयितुं समेत्य
दाकुत्य्थपातालयुखे पतन्स!॥ १९॥
सच्चरित्रवूप जल से पूण, श्रीरामजन्द्ररूपी सागर, रावण पर
शआाक्रमण करना चाहता है अथवा श्रीरमचन्द्ररूपी पाताल में यह
राक्तसराज़ गिरने ही चाला है। अतः आ्राप ज्लोगों के चाहिये कि
शाप सव मिलन कर, इसे वचाचें ॥ १६ ॥
न त.3+.333+-मननओ+>तरमनक-+ न +>आमक+ नमन की पनपमन- मम पड» «० न ऊ नमभक क+% ५७७3५ ७-७७ +-+++आ ५ >आ भरना ३४८५४ प/४ ४ भ७3५७3५++3५७++++++3+++- ७-७» ५+ «नम वाा+०रकाहइन+
९ खुवारिणा--सुचरिन्नख्प वारिमता | (शा० ) ३ तरसा--आरम्भकाल
एवं । ( गै० ) #« पाठान्तरे-- संहारिणा
चतुर्दृशः सगे ११
इद॑ पुरस्यास्य स राक्षसस्थ
राज्ञश्न पथ्यं ससुहृ्जनस्य
सम्यग्धि वाक्य #खमतं ब्रवीमि
नरेन्द्रपुत्राय ददाम पत्नीमू ॥ २० ॥
श्स लड्ापुरी के, राक्षसों के, रावण के और उसके दिवैषियों
के हित के लिये, में सलीभाँति सोच विचार कर अपनी यद्द सम्मति
देता हूँ कि, रातक्तसराज, श्रीरामचन्दध्र जी का सीता दे डालें ॥ २० ॥
परस्य वीये स्ववर्ल॑ च बुद्ध्वा
स्थान क्षय चेद तथेव हृद्धिम ।
तथा स्वपक्षेथ्प्युम्ृश्य बुद्धया
, व्देतक्षमं स्वामिहितं च मन्त्री || २१ ॥
इति चतुद॒ंशः सर्गः ॥
यथार्थ मंत्री यही है, जे प्रपने और शत्रु के वत्त, स्थिति,
भवनति शोर उचञ्नति को अच्छी तरह समझा बुक कर, स्वामी के
लिये दितकर सम्मति देता है ॥ २१॥
युद्धकारड का चैद्हर्वाँ सगे पूरा हुआा।
“८
कै -+>-न»नककक.-..>ज-७७...........................................- मकान» »«»»कनन+
# पाठान्तरे--'' सतत्त॑ ।*'
पश्नुदशः सर्गः
आन
बृहस्पतेस्तुस्यमतेव चस्त-
न्रिशम्य यत्नेन विभीषणस्य |
ततो महात्मा वचन वभापे
तत्रेन्द्रजिन्नेकतयोधमुख्य! ॥ १ ॥
बहस्प्ति के समान बुद्धिसम्प्त विभीषण की वातें बड़े
ध्यान से सुन, निशाचर यूधपतियों में मुख्य महावलवान् मेधनाद
बोत्ता॥ १॥
कि नाम ते तात कनिष्ठवाक्य-
मनथथक् चेव छुभीववच्च ।
अस्पमिन्कुले योडपि भवेन्न जात!
सोथीच्शं नेव बदेल्न छुर्यात्॥ २॥
है चाचा ! तुम भीरुजनों जेसी पअ्रनर्थ करने वाली ये बातें क्या
कह रहे हो | जो पुज्स्त्य के कुल में उत्पन्न नहीं हुआ, चह भी ऐसी
बातें न ते कहेगा श्ोर न तदशुसार काम ही करेगा ॥ २॥
सत्तवेन वीर्येग पराक्रमेण
शोर्येण पै्येंण च तेजसा च।
एक; कुलेअस्मिन्पुरुषो विमुक्तो
विभीषणस्तात कनिष्ठ एप) ॥ ३ .॥,
पश्चदण। संग: ११३
देखो महानुभावी ! मेरे पिता के छोटे भाई यद प्रकेको विभीषण
इस दंश में ऐसे ढइपजे जी वतन, प्रधाव, पराफ्म, शो, भय घोर
तेज से होन हैं ॥ ३ ॥
कि नाम तो राक्षस राजपुत्रा-
वस्माकमेकेन हि राक्षसेन ।
सुप्राइंतेनापि ऋरणे निहन्तुं
शक्यो कुतो भीपयसे सम भीरो ॥ ४ ॥
प्ररे डरपोंक विभीषण ! उन दो मनुष्य राजपुत्रों की मजाल ही
क्या है। उन दोनों के ते। हमारे यहाँ का एक मामूली राक्षस युद्ध
में भार डाल सकता है। तुम इतना क्यों डरा रहे दा / ॥ ४॥
तरिलोकनाथों नत्ठु देवराजः
शक्रो मया भूमितल्ले निविष्ठ; |
भयादिताथएि दिश। प्रपन्नाः
सर्वे तथा देवगणाः समग्रा। ॥ ५॥।
ग्रे जो तीनों लोकों फा नाथ इन्द्र है, उसे सो मैं पकड़ कर
पर ले घ्याया था । क्या तुमका याद् नहीं कि, उस समय सारे
के सारे देवता मुझसे भयभीत दो इधर उधर भाग गये थे ॥ ५ ॥ *
ऐराव्तो विखरमुन्नदन्स
निंपातितों भूमितले मया तु |
निकृष्य दुन्तो तु मया प्रसहथ .
वित्रासिता देवंगणा: समा |
# पाठान्तरे--:5 मतों ।- « -
वा० रा० खु०--८
११४ युद्धकायडे
ज़ोर से चिल्लाते हुए ऐराबत के मेंने उठा कर पदक दिया
शोर दाँतों के उल्लाड ऋर, सव देवताशों के भी भयभीत कर
दिया था॥ ६ ॥
सो5हं सुराणामपि दपहन्ता
देत्योत्तमानामपि शेकदाता |
कर्थ नरेन्द्रात्मनयेन शक्तों
मजुष्ययो! प्राकृतयो! छुवीयं। ॥ ७ ॥
से में चद्दी देवताओं का दप दुलनम करने वाला, बड़े बड़े दैत्यों
के शेाकान्वित करने वाला हे। कर भी, क्या उन राज़कुमारों के
साथ, ज्ञो माछूली आदमी €, घुद्ध न कर सकू गा ? ॥ ७॥
अधेन्द्रकल्पस्य दुरासद्स्य
महोजसस्तद्वचनं निशम्य ।
ततों महा वचन वभाषे
विभीपण; जख्रभतां वरिष्ठ) ॥ ८ ॥
इन्द्र के समान अजेय महातेजस्वो इच्दरज्ञीत के ये वचन सुन
कर, धन्तुषधास्यों में श्रेष्ठ विभीषण ने महाभ्थेयुक्त ये वचन
कहे ॥ ८ ॥|
न तात मन्त्रे तव निश्रयोजसिति
वालस्त्वमदाप्यविपकवुद्धि। ।
तस्पास्वया हयात्मविनाशनाय
वचोज्थहीनं वहु विमरूप्म ॥ ९ ॥
पशञ्चद्शः सर्गः ११४
है बेटा | तुम करने प्रनकरने कामों का विचार करने में घत्यन्त
घत्ानी हा; क्योंकि भ्रव तक तुम्द्दारी घालकों जेसी शअपक बुद्धि
है । इसोसे तुम प्रपना सत्यानाश करते के लिये, निष्प्रयान्ञन
घकवाद् कर रहे हो ॥ ६ ॥
पुत्नप्रवादेन तु रावणस्थ
त्मिन्द्रजिन्मित्रमुखो5सि शत्रु! ।
यस्येद्र्ग राघवतों विनाश
निशम्य मोहादलुमन्यसे त्वम् | १० ॥
तुम रावण के पुत्र इच्द्जात प्रचश्य कदलातें हो, परन्तु हो तुम
राक्षसराज के मिश्ररुपी शत्रु । क्योकि राज्षसराज् का घेर विपद्ि
में फंसे हुए देंख ऋर भी, तुम मेोद्रवश उनके नहीं रोकते ॥ १० ॥
त्वमेव वध्यश्व सुदुर्मतिश्र
स चापि वध्यो य इह्ानयत्त्वाम |
वाल ह्॒दं साहसिक न योज्च
प्रावेशयन्मन्त्रकृतां समीपम ॥ ११ ॥
तुम बढ़े कुवुद्धि हो और इसलिये मार डालने के येग्य दो और
वह भी मार डालने के येष्य है, जिसने तुम जैसे वालक झोर
ध्रत्यन्त साहसी का लाकर इस मंत्रणा समा में बैठाया ॥ ११॥
मूह; प्रगल्मोज्वेनयोपपन्न-
स्तीक्ष्णस्वभावो5व्पमतिदुरात्मा ।
मूर्सस्त्वमत्यन्तस॒दुरमतित्
* ल्वमिन्रनिद्धालतया त्रवीषि ॥ १२ ॥|
श्श्द्ध युद्धकाणड
तू बड़ा पध्रविषेकी, ढछीठ, अशित्षित, ऋण्य्साद, कमप्रक्ठ,
दुरात्मा दिना समझे बृक्के काम करने चाला और अन्यन्त छबुद्धि
है। तू लड़कों जैसी वातें करता है ॥ १२ ॥|
को ब्रह्मदण्डप्रतिमप्रकाशा-
नर्चिष्मतः कारूतिकाशरूपान |
सहेत वाणान्यमदण्डकरपान
समक्ष मुक्तान्युधि राघवेण ॥ १३॥
जब श्रीरामचच्ध जी रणभूमि में सप्तोष जड़े हो कर, त्रह्मदयट
अथवा काल्लाशि के समान चमकते हुए तीखे दाण छोड़ेंगे, तब
उनके कोन सध् सकेगा | १३ ॥
धनानि रज्नानि विभूषणानि
वासांसि दिव्यानि मर्णी्र चित्रान |
सीतां च रामाय निवेद्र देवीं
वसेम राजन्निह वीतशाकाः ॥ १४ ॥
इति पश्चदशः सर्गः ॥
है राजन | घन, रल, आभूषण, वढ़िया चस्ध ओर रंग विरंगी
मणियों सहित तुम क्रीसमचचछ जी के सीता दें डालो किससे दम
लोग आनन्द पूर्वक इस पुरी में रह सके ॥ शृछ ॥
युद्धकाराड का पन्द्रहवाँ सर्ग पूरा हुध्मा ।
»०+-+-औ---
पोडशः स्गः
“+०-
। -सनिविर्ष्ट हित॑ वाक्ष्यमुक्तवन्तं विभीषणस ।'
अन्नवीत्परुषं वाक््यं रावण; कालचोद्त! ॥ १ ॥
जव धर्मात्मा विभीषण ने इस प्रकार के प्रर्थयुक्त द्वितकोरी
चचन कहे, तव रावग ने विभीषणश से बड़े कठोर वचन फहे।
क्योंकि उसके सिर पर ते काल प्लेल रहा था॥ १॥
वसेत्सह सपन्नन क्रुद्धंनाशीविषेण वा ।
न तु मित्रप्रवादेन संवरसेच्छत्रुसेविना || २॥
भ्ते ही केई शत्रु के थ्थवा जहरीले साँप के साथ रह ल्ले,
किन्तु शन्रु के पक्षपाती मित्ररूपी शन्नु के साथ कभी न रहे ॥ २॥
' जानामि शी ज्ञातीनां सबंलोफ्रेपु राक्षस ।
हृष्यन्ति व्यसनेप्वेते ज्ञातीनां ज्ञातय! सदा ॥ ३ ॥
« में सब लोकों के जाति वालों का स्वभाव भत्नी भाँति जानता
हैं कि, विराद्री में जब एक पर विपत्ति पड़ती है, तब दूसरे प्रसन्न
होते हैं ॥ ३ ॥ न
प्रधानं साधनं* वेच्न॑र 7 च राक्षस ।
ज्ञातयों हवमन्यन्ते शूर॑ परिभवन्ति च॥ ४ ॥
जाति के मुखिया, कार्यसाधक, विद्वान शोर धर्माव्मा का,
कुटुम्व वात्ते सदा प्पमान द्वो किया फरते हैं शोर इनमें जो शूर-
वीर होता है, उसका थे तिरस्कार करना चाहते हैं ॥ ४॥
! साधनं--कार्यप्लाघक्क ! (ग० ) २ पैश्यं--विद्वांस । ( गे )
श्श८ युद्धकाणडे
नित्यमन्योन्यसंहुष्टा व्यसनेष्वाततायिनः ।
प्रच्छन्नहृदया घोरा ज्ञातयस्तु भयावहा। ॥ ५॥
जञाति वाले बड़े निदेयी देते है । क्योंकि मित्य भत्ते ही वे भ्रापस
में हर्षित हो कर रहें, किन्तु विपत्ति पड़ने पर वे श्ाततायी हो ज्ञाते
हैं। वे अपने मन का भाव मन ही में छिपाये रखते हैं॥ ४॥
श्रूयन्ते हस्तिभिर्गीता; श्लोका; पद्मवने कचित् |
पाशहस्तानरान्द्रट्ठा श्रूणु तान्गदतों मप्र || ६ ॥
सुना ज्ञाता है कि, प्मतन के द्ाथियों ने उस समय एक वार
कुछ वछोक कहे थे, ज्ञिंस समय वहुत से लोग उनके बाँधने के लिये
रस्से लिये हुए चलते झाते थे। में कहता हँ--ठुम छुने। ॥ ६ ॥
नाम्रिनान्यानि शस्राणि न नः पाशा भयावहा। |.
घोराः खार्थपयुक्तास्तु ज्ञातयों नो भयावहा; ॥ ७ ॥
हाथियों ने कद्दा था कि, अप्रि, शस्र ओर फन््दों से हम ज्ञरा
भी नहों डरते, दम ते स्वार्थपरायण एवं भयद्भुर अपने ज्ञाति वालों
से डरते हैं ॥ ७ ॥ ह
उपायमेते वक्ष्यन्ति ग्रहणे नात्र संशय! ।
कृत्स्नाड्याज्ञातिभयं सुकृष्ट विदितं च न! ॥ ८ ॥
क्योंकि पकड़ने का उपाय ये हो वतलाते हैं। मुक्के यह बात
भली भाँति मालूम दे कि, सव भयों से वढ़ कर विराद्री वालों का
भय कश्दायक है॥ ८ ॥
विद्यते गोषु सम्पन्न विद्यते ब्राह्मण दम: |...
विद्यते द्धीपु चापल्य॑ विद्यते ज्ञातितों भयम् ॥ ९ ||
व]
पेडशः सर्गः ११६
जिस प्रकार गोशों में हव्य कन्यादि के लिये दुग्ध, प्राछ्षाणों में
इन्द्िय, निश्रहत्व और स्त्रियों में चपलता विद्यमान रहती है, उसी
प्रकार जातिवालों से भय सदा रहता है ॥ ६ ॥
ततो नेष्ठमिदं सोम्य यद॒हं छोकसरत्कृतः ।
ऐश्वर्येंणामिजातइच रिपूणां मूर्थि च स्थितः ॥ १०.॥
मेंने शन्झों के पराज्ञित कर प्तुलित यश प्राप्त किया है व
तीनों लोक मेरा सम्मान करते हैं, सा हे सैम्य | में जान गया
कि, मेरा यह सैमभाग्य तुमके अच्छा नहीं लगता ॥ १० ॥
यथा पुष्करपर्णेपु पतितारतोयबिन्दवः
, न श्लेपमुपगच्छन्ति तथाःनांयेंपु सौहदस ॥ ११ ॥
जैसे कमल के पत्ते पर जल की वंदेँ नहीं ठहर सकतीं, बेसे
ही क्ररस्वभाव वाले पुरुष कै साथ मेत्री करने से, पह मेन्री उसके
मन में किसी प्रकार भी नहों ठदरती ॥ ११॥ |
[ यथा मधुकरस्तपात्काशएुष्प॑ पिवन्नपि |
रसमत्र न विन्देत तथाञ्नायेंपु सोहदम ]॥| १२ ॥*
जिस प्रकार भौरे फूलों का 'रस भल्तो भाँति पीकर भो हाँ
नहीं रहते-वैसे ही दुर्ननजन फाम निकल जाने पर मेत्री का
ख्याल नहीं रखते ॥ १२ ॥
यथा पूव गज; स्नात्वा गह्य हस्तेन वे रज/
दूषयत्यात्मनो देहँ तथाअनायेंपु सौहदस )।.९३ ॥
जिस तरह हाथी जल में स्वान कर फिर सू ड़ में घूल भर उस
से अपने शरीर के| मलिन कर डालता है, उसी तरद्द दुर्जन के साथ
न जब ० अल्थ लक रे का
की हुई मैत्री का परिणाम द्ोता है ॥ १३ ॥
8१२७ :युंदकार्रदे ट
_. यथा ऋशारदि मेपानां सिश्वतामपि गर्जताम ।
ने भवत्यम्बुसंक्रेद्स्तथाअनायेंपु सोहदम ॥ १४ ॥ '
जिस प्रकार शरदऋतु में वादलों के गरजने शोर वरसने से
पृथिवी का कुछ भो उपकार नहीं द्वोता उसी प्रश्तार दुजन के साथ
मैत्रो करने से कुछ भी लाभ नहीं होता ॥ १७४॥
अन्यस्त्वेबंविधं ब्रयाद्वाक्यमेतन्िशाचर |
अस्मिन्मुहूर्ते न भवेत्त्वां तु धिककुलपांसनम् || १५ ॥
हैं विभोषण ! तुने जैसी वातें ध्यमो कही हैं, यदि वैसी बातें कोई
दूसरा कहता तो तत्काल उसे में मरवा डालता, ( पर तू भाई है,
इंसका विचार है ) विभीषण | ठुक कुलकऋलडू का घिक्कार है श्शा
इत्युक्तः परुष॑ वाक्य न्यायवादी विभीषण: |
उत्पपात गदापाणिश्रतुर्णिं! सह राक्षस! ॥ १६ ॥
अब्वीच् तदा वाक्य जातक्रोधो विभीषणः ।
।, अन्तरिक्षगतः श्रीमान्प्नातरं राक्षसाधिपस् ॥ १७॥
जब न्यायवादी ( ठीक ठीक कहने वाझे ) विभीषण के रावण
ते इस प्रकार घिक्कारा ; तब वह चार राक्तसों के साथ हाथ में गदा
लिये हुए उड़ कर ध्रांकाश में पहुँचा । ध्याकाश में पहुँच शोर छोघ
में सर विमीए्ण ने पध्पने भाई रात्तसराज़ रावण से ये वचन
कहे ॥ १६ ॥ १७॥
स त॑ंं भ्राताउसि में राजन्ब्रहि मां यद्यदिच्छसि |
ज्येष्ठो मान्य; पिठ्समों न च घमेपथे स्थितः ॥ १८ ॥
न रन
# पाठान्तरहै--“ दरदि |!
धाहणशः सगे: :१३ै१
हे राजन | तुम मेरे भाई हो, इससे जो चाहा से कह लो।
बड़े साई होने के कारण तुम पितृतुल्य और पृज्य हो; किन्तु ठुम
धर्मपथारुढ़ नहीं हो ॥ १८॥
इदं तु परुषं वाक्य न क्षमाम्यहितंक तव ।
मुनीतं हितकामेन वाक्यमुक्त दशानन ॥ १९ ॥
धतः में तुम्दारे इन कठोर घोर प्रिय वचनों के न सहँगा।
हे दशानन | मैंने जो कहो था से। तुम्हारी भलाई के लिये ही कद्दा
था घोर वह कट्दा था जे निश्चय ही ध्यागे होने वाला है, किन्तु
तुमने उन वातों पर ध्यान न दिया॥ १६॥
ने ग्रहन्त्यकृतात्मान। कालस्य वशमागता; ।
' घुलभाः पुरुषा राजन्सततं पियवादिन; ॥ २० ॥
तुम ध्यान देते भो क्यों? तुम्दारे सिर पर ता काल खेल रहा है ।
जे धनातक्ष पुरुष होते हैं, वे ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते | हे राजन|
सदैव चिकनी चुपड़ी वातें कहने घाले मदुष्य बहुत मित्नते हैं ॥२०॥
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च हुलेभः ।
बद्धं कालस्य पाणेन सर्वभूतापहारिणा ॥ २१ ॥
ध्प्रिय, किन्तु न््याययुक्त वार्तें ऋहने वाले श्रोर छुनने चाक्ते
मनुष्यों का मिलना कठिन है ५ सब प्राणियों को दरण करने
वाले काल के पाश में तुमका फंसा हुआ ॥ २१ ॥
न नश्यन्तमुपेक्षेयं प्रदीध्त॑ शरणं यथा |
दीप्रपावकसह्ाशेः शितेः काख्वनभूषणे) ॥ २२ ॥
१ सुनीतं-सुनिश्चितागामिफकबोधकंवाक्य । (२० )... पाठान्तरै--
” क्षमाम्यड्त । !! , है जा
हु
१२२ ! युद्धकायडे ।
।।' :झौर न होते देख, सुकसे न रहा मया । भला' घर के जलते
देख फोन चुपचाप बैठा रद सकता है।, प्रज्वल्तित श्रप्मि की तरह
चमकते, पैने झोर सुबर्णभूषित ॥ १९॥ , |: '
त्वाम्रिच्छाम्यहं द्रष्ट रामेण निदत॑ शरे; ।
श्रांश बलवन्तथ कृतासख्ताश्न रणाजिरे.॥ २३ ॥/
' » . कालाभिपत्ना: सीदन्ति यथा वाल्लुकसेतवः
'“ .. तम्मषंयतु यच्चोक्तं गुरुवाद्धितमिच्छता ॥ २४ ॥
वाणों से, राम दारा तेरा मारा ज्ञाना में देखना नहीं चाहता।
बड़े बड़े शुर, बलवान शोर शश्ल चलाने में चतुर लोग भी काल
के चशवर्ती दो, घालू की भीत की तरह,. युद्ध में बहुत शोघ नष्ट
हे जाते: हैं.। है भाई ! जे कुछ भो हो, तुम पूज्य हो। अतः मेंने
तुम्हारे हित की कामना से, जा कुछ.कहां है उसे ज्ञमा करना
॥ २३ ॥.२४॥ |
आत्मानं सवंथा रक्ष पुरी चेमां सराक्षसाम् |
स्वस्ति तेथ्स्तु गमिष्यामि सुखी भव मया विना ॥२५॥
ध्पनी शोर राक्षलों सहित इस लक्षापुरी की रक्ता करना।
तुम्हारा मर्डुल हो. में अव जाऊँगा। अब मेरे न रहने से ठुम छुखी
हो ॥ २४५ ॥
” न्ून्न न|ते #राक्षस कश्रिदस्ति
रक्षोनिकायेपु सुहत्सखा वा |
हितेपदेशस्य न मन्त्रवक्ता
अल यो वारयेक्तां खयमेव पापात् | २६॥
. कपाबन्ते - रावण ७... 7" रावण * ४9७७
5 प्ले
सप्तद्श: सर्गः १५३
दे निशाचर ! मुझे दुःख है कि, इस रात्तसपुरी में निश्चय हो
तुस्ददारा कई ऐसा दितेपी प्रथवा मिन्र नहीं है, जो तुमसे तुम्हारे
को बातें कह तुरईं सदरामर्श देता दुआ, तुमकी दुरे कामों के
करने से रोकता ॥ २६ ॥
निवायमाणस्य गया हिप्ैषिणा
न रोचते ते वचन निशाचर ।
'परीतकाला हि गतायुपों नरा
हित॑ ने ग्ृहन्ति सुहृद्भिरीरितम् ॥ २७ ॥
६" इति पेडश। सर्गः ॥ ह
दे निशाचर ! मैं तो तुर्दें तुम्दारी भल्ताई के लिये हो रोकता था,
किन्तु मेरी बात तुम्हे अच्छी ही नहीं लगी । ठीक है, जिन लोगों
को भायु पूरी होने के होती है और जिनके सिर पर काले खेलता
, वे मित्रों की कही हुई द्वितकर बातों के नहीं मानते ॥ २७ ॥
'. * -युद्धकाणड़ का सालदवां स्ग पूरा हुआ |
>>
संप्तदशः सगे:
- अिकऔऑ--+ .
इत्युक्त्ा परुषं वाक््यं राबणं रावणाजुनः ।
आजगाम मुहूर्तेन यत्र रामः सलक्ष्मणः ॥| ॥-
रावण का छोटा भाई विंभीषण, रावण से इस प्रकार कठोर
पेचन कद्द, एक पमुद्॒तं में चहाँ जा “पहुँचा, जद्दाँ-लत्मण सदित
भीरामचन् जी थे ॥ १॥| आरममचक जी थे ॥ ह॥_> -+ २] :
१ परीतकाक्षा;--परीतः प्रत्यालेश्न: कालोयेपां ते तेथोकाः । ( रा० )"*
३ अुद्धकांडे -
त॑ मेरशिखराकार॑ दीप्तामिव शतहृदाम् ।
गगनस्थं महीस्थास्ते दरशुवॉनराधिपा। ॥ २ ॥
विजली की तरद्द चमचमाते, छुमेरु पर्वत की चाटी को तरद
'आाकाशस्यित विभीषण को, नीचे से वानर यूधपतियों ने देखा ॥२॥
स॒ हि मेघाचलप्रस्यो वज्ञायुधसमप्रभः ।
वरायुधघरो वीरो दिव्याभरणभूषितः ॥ ३ ॥
मेघ अथवा पहद्दाड़ को तरह विशाल्वपुधारी भर इन्द्र के चन्र
की तरद प्रसायुक्त, उत्तम ध्रायुधों के लिये हुए ओर छुन्दर ध्याभू-
षणों से शासित चीर विभीषण की वानरों ने घ्राकाश में देखा ॥ ३॥
ये चाप्यतुचरास्तस्य चत्वारों भीमविक्रमा:
तेडपि वर्मायुधोपेता भूषणेश्च विभूषिता। ॥ ४ ॥
घविभोीषण के ज्ञो भीम पराक्रमी चार अ्नुचर थे, वे भी कवच
'पहिने हुए थे, झर्त्र शत्र से सुसज्ञित थे घोर भूषणों से भूषित
थे ॥ ४॥
तमात्मपश्चम दृष्टा सुग्रीवो वानराधिपः ।
वानरे सह दुर्धेश्रिन्तयामास चुद्धिमान् ॥ ५॥
दुर्धषं, चुद्धिमान एवं वानरराज सुप्रीव इन पाँच व्यक्तियों का
देख, भ्नन््य चानरों सहित सोचने लगे ॥ ५॥
चिस्तयित्वा मुहूर्त तु वानरांस्तानुवाच ह।
हलुमत्ममुखान्सवॉनिदं वचनमुत्तमस ॥ ६॥
तद्नन्तर एक मुद्दते तक कुछ सेच विचार कर, दनुमानादि
चानेरों से छुम्रीव ने ये उत्तम चचन कद्दे ॥ ६ै॥
संघद॒श: सगः १२४
एप सर्वोयुधेपेतश्चतुर्मिः सह राक्षसी!
राक्षसोध्श्येति पश्यध्यमस्मानहन्तुं न संशयः || ७ ॥
देखे, यद्द काई राक्तस है, जे सब प्रायुधों से लैस भ्पने चार
साथियों के साथ, निरघ्तन्देहर हम मं लोगों के मारणे के लिये
झा रहा ह॥ ७]
सुग्रीवस्य बच! श्रुत्वा सर्वे ते वानरोत्तमा! |
सालाजुद्यम्य शलांश् इदं वचनमत्रुवन् ॥ ८ ॥
ज्ञव सुश्रीव ने इस प्रकार फद्दा, तव उन सब्र वानरश्रेष्ठों ने बड़े
बड़े शालपूत्त थ्रोर शिल्ाएँ द्वाथों में ले सुप्रीव से यद कंद्दा ॥ ८॥
शीघ्र' व्यादिश नो राजन्व्रधायपां दुरात्मनाम् ।
निपतन्ति इता यावद्धरण्यामस्पतेजस! ॥ ९ ॥
दे राजन [ इस दुरात्मा के मारने की हम लोगों को शाप शीघ्र
थ्राज्ञा दें । हम इस ध्यव्पवल वाले का मार कर अभी नीचे गिराये
देते हैं ॥ ६॥
तेपां सम्भाषमाणानामन्योन्य स विभीषणः ।
उत्तर तीरमासाद खस्थ एवं व्यतिपछ्ठृत ॥ १० ॥
इधर ते चानर इस प्रकार प्रापस में वातचीत कर रहे थे, उधर
विभीषण सम्रुद्र के उत्तरतद के ऊपर पहुँच आकाश ही में रुक
गया ॥ १० ॥
उदांच च महाप्राज्ञ। खरेण महता महान |
सुग्रीव॑ तार सम्पेक्ष्य सवोन्वानरयूथपान् ॥ ११ ॥)
सुत्रीव तथा अन्य समस्त चानर यूथपतियों की झोर देख बुद्धि"
मान विसीपणा ने बड़े उच्च स्वर से कद्दा ॥११॥
१४६ गुद्धकायडे
रावणो नाम दु्ेत्तो राक्षसों राक्षसेश्वर:।
तस्थाहमनुजों श्राता विभीषण इति श्रुतः ॥ १२ ॥
रात्तसों का राजा रावण नामक एक राक्तस है जो वड़ा दुराचारी
है। में उसीकां छोठा भाई हूँ और मेरा माम विभीषण है ॥ १२॥
तेन सीता जनस्थानाद्धता हत्वा जठायुषस्् ।'
रुद्धा च विवश्ञा दोना राक्षसीमिः सुरक्षिता | १३॥
वही ज्ञदायु के मार कर जनस्थान से सीता के हर लाया था।
बह वैचारी सीता रात्तसियों के वीच विवश और दीन हो कद में
है ॥ १३ ॥
हि भेवांक्येर्विविषे (
तमहं हेतुभिवाक्येर्विविधेश्व स्यदशयस् ।
साधु निर्यालतां सीता रामायेति पुन; पुन/ ॥ १४ ॥
मेंने राचण के कितनी ही युक्तियों से समझाया और कितनी
ही वार कहा कि, अच्छा दो तू सोता रामचन्द्र का दे दे ॥ १७॥
सच न प्रतिजग्राह रावण; कालचोद्ति; ।
उच्यमान हित॑ वाक्य विपरीत इवैषधम् || १५ ||
किन्तु उसने सेरी बाठ न मानी, क्योंकि उसके सिर पर ते
काल खेल रहा है। जिस प्रकार रेगी के दवा बुरी लगती है, उसी
प्रकार रावण के मेरी कही हुई हितकर बातें उल्दी लगीं॥ १५॥
सो5हं परुषितस्तेन दासवच्चावमानितः ।
त्यक्त्वा पुत्राँश दारांश्व राघव॑ं शरणं गतः) ॥ १६॥
उसने मुझसे वड़े कठोर पचन कहे झोर व्हल्लुए की तरह
मेरा अनादर किया | अतः अब में पुत्र कलत्ादि सव के त्याग
श्ीरामचन्ध जी फी शण्ण में श्ाया हूँ॥ १६ ॥
ह
सप्तरश:ः संग: हि १२७
स्लोकशरण्याय राघवाय महात्मने |
निवेदयत मां क्षिप्रं विभीषणसुपस्थितम ॥ १७॥
' सब लोकों के रक्तक महात्मा श्रीरामचन्द्र जी से आप लोग
शीघ्र निवेदन कर दें कि, विभीपण श्राया है॥ १७ ॥
एतत्तू वचन भ्रुत्रा सुग्रीवो लघुविक्रम/१ |
लक्ष्मणस्याग्रतों राम॑ रसंरव्धमिदमत्रवीत् ॥ १८ ॥
विभोषण के ये वचन खुन, सुग्रोव शीघ्रता पूर्वक गये श्रौर
जह्मण के सामने भ्रोरामचन्द्र जो से प्रेम में भर शीघ्रता पूर्वक
4
कहने लगे ॥ १८ ॥
रावणस्यथानुजों श्राता विभीषण इति श्रुतः |
चतुर्मिः सह रक्षोभिभवन्तं शरणं गतः ॥ १९ ॥
रावण का छ्ैटा भाई जिसका नाम विभीपण है, चार राक्तसों
के ज्लेकर थ्रापके शरण में आ्राया है॥ १६ ॥
मन्त्रे व्यूहे नये चारे युक्तो भवितुमहंसि ।
वानराणां च भद्रं ते परेषां च परन्तप || २० ॥
दे शन्रुतापन | जिस प्रकार वानरों की भलाई हो, उस प्रकार
धाप फरने भ्नकरने कामों का विचार करें, व्यूह रचना करवावें
और शबरुसैन्य का चूचान्त जानने को जाघुस नियत कर, सावधान
ही जाँय ॥ २० ॥ कि
8
१ रघुविक्रम:--शीघ्रममनः | (गे० ).. २ संरू्धं- प्रेमसरात्त्वरिता-
दिताक्षर | ( गे।० )
१्श्८ युद्धकायड़े :
१अन्तधानगता होते राक्षस; कामरूपिणः |
शराश्र निकृतिज्ञाअ्र तेषु जातु न विश्वसेत ॥ २१ ॥
. दे राघव | ये राक्तत हैं | ये जब चांहेँ तव इच्छाउुसार रूप
धारण फर सकते हैं, ये अद्वश्यचारों तथा बड़े धीर ओर बड़े, कपठी
हैं॥२१॥ -
रेप्रणधी राक्षसेन्द्ररय रावणस्य भवेदयस् |
अनुप्रविश्य सोथ्स्मासु भेद॑ं कुर्यान्न संशय ॥ २२ ॥
मुझे ता यह राक्षसराज़ रावण का जाधघूस जान पड़ता है ।
निश्चय द्वी यह हम लोगों से हिलमिल कर, हम लोगों ही में परस्पर
भेदभाव उत्पन्न कर देगा ॥ २२ ॥
अथवा खयमेवेष छिद्रमासाथ बुद्धिमान ।
अलुप्रविश्य विश्वस्ते कदाचित्यहरेद्पि ॥ २३ ॥
धधथवा ज्ञव कभी हम इस पर विश्वास ऋर श्सावधान होंगे,
तब यह प्मवप्तर पाते ही हम लोगों वर आक्रमण कर देगा--क्ष्योंकि
यह है बुद्धिमान ॥ २३ ॥
मित्राटवीवर्ल चेव “मोल भुत्यवर्लं तथा |
सर्वमेतद््॒॑ न जेयित्वा
्मेतद्ल॑ ग्राहयं वर्जयित्वा ह्विषद्वकय ॥| २४ ॥
प्रित्रों, वनवासियों, परंपरागत सैनिकों ग्रथवा अपने धमधोनस्य
राजाओं की तथा नोकर रखी हुई सेना-इन सब से काम के ले,
किन्तु शन्रुसैन्ध पर सहायता के लिये कृभी विश्वास न करे ॥ २४ ॥
१ अन्तर्धानगता:--अहर॒यचारिणः । ( गे० ) २ निकृतिक्ञाः--क्पटोपाय -
वेदिन१ | ( गे।० ) “ १ भ्रणिधिः--चार; । (गे।० ) ४ मौकछ॑--परंपरागत॑
सैन्य । ( या।० )
सप्तदशः सर्गः... १२६
भ्रद्नत्या राष्षसों होप॑ं भ्ाताअमित्रस्य वे प्रभो ।
आगतश्र॒ रिपोः पक्षात्तायमस्मिन्हि विश्वसेत ॥ २५॥
दे प्रमा | एक ते यह स्वभाव ही से राक्तस ठहर, दुसरे श्र
का भाई है। तीसरे दाल ही. में शत्रु के पास से चला पा रहा है,।
में इसका फैसे विश्वास करूँ॥ २४ ॥
रावणेन प्रणिहितं तमवेहि विभीपणम |
तस्याहं निम्नहं मन्ये क्षम॑ क्षमव्तां वर ॥ २६ ॥
यह विभीषण, रावण द्वी का भेजा हुआ आया है। दे सवे-
समर्थ राघव ! में ते इसे दृए्ड देना ही ठीक समझता हैं ॥ २६ ॥
राक्षसों जिल्यया बुद्धया सन्दिष्टो्यमुपस्थितः ।
प्रहतु मायया च्छन्नो विश्वस्ते त्वयि राघव ॥ २७॥
है राघव | यद्द फपटी मायावी राक्षस प्रथम श्मापके मन में
धपनी ओर से विश्वास उत्पन्न कर, भ्रवसर हाथ लगने पर, श्राप
के ऊपर प्रहार करने के लिये ही राचण का भेजा हुआ, यहाँ झाया
है॥ २७॥
प्रविष्ठ शत्रुसेन्यं हि प्राज्ञः शत्रुरतर्कितः ।
निहन्यादन्तरं लब्ध्वा उलूक इवं वायसान्॥ २८ ॥
हे प्राक् [ थद्द शचुसैन्य में इसलिये घुसना चाहता है कि, जब
-अवसर द्वाथ लगने पर शत्रु को प्रसावधान पावे, तव उनके उसी
प्रकार मार डाले, जिस प्रकार एक घुध्यू बहुत से कोशों को मार
' डालता है॥ २८॥
वा० रां० यु०--६
१३० युद्धकायडे
वध्यतामेप दण्डेन तीत्रेण सचिव! सह |
रावणस्य उशंसस्य भ्राता होष विभीषणः ॥ २९ ॥
ध्रतएव इसे मय इसके मंत्रियों के कड़ी सज्ञा दे कर मार
डालना चाहिये | क्योंकि यह उस कसाई रावण का भाई है ॥ २६॥
एवसुक््त्वा तु त॑ राम संरूधों वाहिनीपति) ।
वाक््यज्ञों वाक्यकुशलं ततो मोनमुपागतम् || ३० ॥
इस प्रद्वार कुपित हो वाक्यविशाप्द् वावरराज़ सुप्तीव, वाक्य-
कुशल श्रीरामचन्द्र जी से चचन कद, चुप हो गये ॥ ३० ॥
मुग्रीवस्य तु वद्दाक््यं श्रुखा रामो महायश्ञा: |
समीपस्थानुवाचेदं इनुमत्ममुखान्हरीन् ॥ ३१ ॥
खुओव के ये चचन खुन, मद्दायशल्वी श्रीरामचन्ध, पास बेटे
हुए हनुमानादि छुख्य मुख्य वानरों से बोले ॥ ३१॥
यदुक्त कपिराजेन रावणावरजं प्रति।
वाक्य हेतुमदध्य च भवद्विरपि तच्छुतम् || ३२ ॥
रावण के छोटे भाई के सम्बन्ध में कपिराज ने जो युक्तियुक्त
मतलब को बातें कही हैं, चे सब ध्याप लोगों ने सी सुनी ही हैं ॥३श॥।
सुहृदा धर्थक्रच्छेप्* युक्त चुद्धिमता सता ।
समर्थेनापि सन्देप्टं शाश्वती भूतिमिच्छता ॥॥ ३३ ॥
सदेव मडुलामिलाषी बुद्धिमान, समर्थ और दितैषी के यही
चाहिये कि, खुद के, कार्या करने में सन्देद उपस्यित होने पर या
है कर्यककबलइक पान की १ भर्येक्षष्छे पु--सह्ड टे पु ॥ (गे )
सप्तद्शः सर्गः १३१
सह पड़ने पर; इसी तरह सम्मति देनों चादिये। भरत: ध्राप ल्लोग
' सी श्रपती अ्रपनों राय दे ॥ ३३॥
इत्येव॑ परिपृष्ठास्ते स्व॑ं सत्र मतमतन्द्रिता; |
ड कीषव
'सोपचारं तदा राममूजु्दितचिकीषव! || २४ ॥
जब भोरामचन्द्र जी ने इस प्रकार पू छा तब बड़ी मुस्तेदी के
साथ वानरों ने धोरामचद्ध जी की भलाई को कामना से, प्रशंसा
पूर्वक अपनी अपनो सम्मति दी ॥ ३४ ॥
अज्ञंतं नास्ति ते किश्वित्रिषु लोकेषु राघव |
आत्मानं सूचयन्राम पृच्छस्यस्मान्मुहत्तया ॥ र५ ॥
है राधव ! तीनें ल्ञोकों में ऐसी काई वस्तु नहीं, जो शापकेा
मालूम न हो। भ्रापने खुदृद्भाव से जो पूंछा है--यह फेपल दम
ज्ोगों के| आपने अपनाया है ॥ २४ ॥
सं हि सत्यक्नतः शूरो धार्मिको दृहविक्रम; ।
परीक्ष्यकारी स्मृतिमात्रिर॒श्ात्मा सुहृत्छु च॥ २९॥
जाप सत्यक्तघारों, शूर, घामिक, हृढ़विकमी, भजी भाँति
जाँच पड़ताल कर-काम करने वाले, स्घृतिमान्, इष्टमिश्रों के प्रति
विश्वास रखने वाले और हितैषी हैं | १६॥
तस्मादेकेकशस्तावदूब्ुवन्तु सचिवास्तव |
हेतुतों मतिसम्पत्ना। समर्थाश्र पुन; छुना। ॥ रे७॥
इस समय भ्रापके समीप बुद्धिमान थरोर समर्थ मंत्री दैं। वे
पझत्रग प्रत्नग युक्तिप्रदर्शन पूर्वक अपनी अपनी सम्मति प्रकद,
के॥रेछे॥।__ + ंनिण
१ खोपचार - प्रशंतावाक्यमेकाद । ( गो० )
देर युद्धकाणडे
इत्युक्ते राघवायाथ मतिमानड्रदोआ्यतः ।'
विभीषणपरीक्षाथंग्रुवाच वचन हरि! ॥ ३८ ॥
चानरों ने श्रीरामचन्द्र जी से इस प्रकार. कद्दा तब दुद्धिमान
छेगद ने सब से प्रथम चविभीषण की परिस्यिति का विवेचन करते
हुए, ध्पनी सम्मति दी ॥ रे८ ॥ ॥॒
शत्रोः सकांशात्सम्पाप्तः सवंथा शह्नय एवं हि।
है
विश्वासयोग्य! सहसा न कर्तव्यों विभीषण; ॥ ३९ ॥
विभीषण, शन्नु के पास से आ रहद्दा है, ग्रतः इसकी ओर से
शड़ा उत्पन्न होना स्वाभाविक बात है। अतपच यह सहसा विश्वास
करने याध्य नहीं है॥ ३६ ॥
छादयित्वाउण्मभादं हि चरन्ति शठबुद्धयः ।
बाप का ५
प्रहरन्ति च रन्ध्रेपु सोउनथं सुमहान्भवेत् ॥ ४० ॥
क्योंकि क्रूर स्वभाव वाले राक्षस सदा अपने मन का भाव
छिपाये घूमा करते हैं और अवसर हाथ आते ही प्रहार कर बैठते
हैं। ज्ञहाँ ऐसा होता है, वहाँ वड़ा भारी अनथ्थ होता है ॥ ४० ॥
(अर्थानयां विनिश्चित्य व्यवसायंर सजेत ह |
गुणतः संग्रह कुर्याहोषतस्तु ऋविसजयेत् ॥ ४१॥
घतएव गुण झोर दोषों के विचारपूर्वक निश्चित कर त्याग
ध्थवा संग्रहोचित पध्यवसाय में प्रवृत्त होना चाहिये। यदि विसी-
पण में गुण हों ते उसके मिला लेना चाहिये और यदि दोष हों
ते उसका त्याग कर देना ही अच्छा है॥ ४१॥
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१ अर्थान्गें--ग्रुणदाषों | (यो० ) ३ ब्यवसाय॑-तव्यागसंग्रहोंचिता
व्यवसाय | ( गे० ) # पाठान्तरे-- विव्येत् ।!
सप्तद्शः सर्गः १३३
यदि दे।पे। महांस्तरिपस्त्यज्यतामविश्धितम् |
शुणान्वाअंपि वहूज्ज्ात्वा सडगहः क्रियतां तप ॥४श॥
यदि विसीषण में कोई वड़ा दोप देख पड़े, तो बिना सड्लेच के
श्सका त्याग देवा चादिये | हे राजन ! यदि इसमें बहुत से गुण देख
पड़े, तो इसके पपने में प्रिज्ञा केना चाहिये ॥ ४२ ]
[ भोट -क्विल्ती भी मनुप्य में गुण ही ग्रुण या दोष हो देप नहीं हुआ
करते-प्रत्येक में पुण भी होते हैं. और देपष मी | ऐसी दशा में तो विभीषण
का त्याग व संप्रद का विचार दुरूद्ध है । यदह्ट सोच कर ही अंग ने ४२वें छोक
में “ बढ़ा दाप या ' बड़ा गुण ” कद्द कर अपनी पूर्वकृथित बात का स्पष्टी-
करण किया है | ]
शरभस्त्वथ निश्चित्य साथ वचनमत्रवीत् !
छिप्रमस्मिन्नरव्याप्र चारः प्रतिविधीयताम ॥ ४३ ॥
तदनन्तर शरभ ने कुछ सोच कर, यद्द सेपपत्तिक ( ठिकाने
की ) वात कही | दे नरव्याप्न | लड्ढडा में जासूस भेज कर इसका
रहरुप जानना चाहिये ॥ ४३ ॥
प्रणिधाय हि चारेण यथाघत्सूक्ष्मवुद्धिना |
परीक्ष्य च ततः कार्यों यथान्याय्यं परिग्रह। ॥ ४४ ॥
किसी कुशाग्रवुद्धि वाले भेद्या द्वारा इसका ठीक ठीक च्ुत्तान्त
जानना चाहिये। तद्नन्तर भत्ती भाँति जान कर, नोति शाखाहुसार
इसके मिलाना चाहिये॥ ४४ ॥
जाम्वचांस्त्वथ सम्पेक्ष्य शाख्रबुद्धथा विचक्षण। |
वाक्य विज्ञापपामास गुणवद्दोषवर्जितस् || ४५ ॥
श्३्छ युद्धकाणडे
तदनन्तर विचत्नण बुद्धिमान काग्ददान ने यथाशास्ष विचार
कर, युत्ियुक ओर देषचर्ज्ञित यह वात प्रकद की ॥ ४५ ॥
वृद्धवेराच पापाद राक्षसेन्रादिभीषणः |
रे 5५५ ्ः
अदंशकालं सम्प्राप्त, सवेया शइड्यतामयम् | ४ 3]
हमारे कटद्दर छात्र और पापी राबण के पास से विभीषण ऐसे
समय में धझ्याया हैं, जिस समय उसे शआाना उचित न था, फिर यह
स्थान भी इस कार्य के उपयुक्त नहीं है, श्रतएव इससे सचधा
सशहढ्लित रहना ही उचित दे ॥ ४६ ॥
ततो बंन्दस्तु सम्पेक्ष्य नयापनयकेाबिद
वाक्य वचचसम्पत्ना वभाष हंतुमत्तरस ॥ ४७ ॥|
ति धानीति क्षी विवेचता करने में दत्त मेन्द्र ने भमली भाँति
सेाच विचार कर घत्यन्त चुक्तियुक्त वचन कहागी ४७ ॥
बचने नाम तस्पेष रावणस्थ विभीषणः
पृच्छचता मधुरेणायं शननरघरेश्वर-] ४८ ॥
है नसवरेष्वर ! यह दिसीयण सावण का छोठा भाई है, अतः
इससे शिष्टता पूर्वक धोरे धीरे मधुर शब्दों में सब बातें पूछनी
चाहिये॥। ४८५॥|
भावमस्य तु विज्ञाय ततस्वत््यं करिष्यसि |.
का ५ बुद्धिपृव र्
यदि दुष्टो न दुष्टो वा बुद्धिपू्व नरपभ ॥ ४९ ॥
हे नरपस | फिर इसके मन की असली दइत ज्ञान लेने के बाद,
इसके दुष्ट अथवा साधु होने का विचार कर, जैसा ठीक ज्ञान पढ़े
चैंटा श्राप करे ॥ ४६ ॥
सप्तद्शः सगे: १३४५
अथ 'संस्कारसम्पन्ना हनूमान्सचिवेत्तम! |
$ (४ ७
उवाच वचन छष्षणमथवन्मधुरं छघु ॥ ५० ॥
तदनन्तर सर्च-शाज्र-विशारद, मंत्रिधेष्ठ हतुमान जी ने संत्तेप में,
किन्तु स्पणरथत्रीघक मधुर बचनों में कहा ॥ ५० ॥
न भवन्त मतिश्रेष्ठ समर्थ बदतां वरस् ।
अतिशाययितु शक्तो वृहस्पतिरपि ब्रुवन् ॥ ५१ ॥
दे स्वापरिन | शाप बुद्धिमानों में श्रेठ, समर्थ और धोलने वात्ते
में सर्वोत्तम हैं । चृहस्पति भी आपके सामने बहुत नहीं बोल
सकते ॥ ५१॥
न वादाज्ञापि सहृर्पान्नाधिक्यानत्न च कामत।। |,
वक्ष्यामि वचन राजन्यथार्थ रामगौरबात् ॥ ५२ ॥
है राम! में आपसे तककोशल से, सचिवों की स्पर्धा के
वशवर्ती हद, अपने के बड़ा धुद्धिमान वक्ता द्वोने के श्रभिमान से,
भायपण की इृच्छा से श्रथवा विभीषण का पत्तपाती वन कर कुछ
नहीं कहता, किन्तु में जे। कुछ कहूँगा ठीफ ही ठीक और पापके
गोरव का ध्यान रख कर ही कहूँगा ॥ ५२॥
अर्थानथनिमितं हि यदुक्त सचिवैस्तव ।
तत्र दोप॑ प्रपश्यामि क्रिया न ह्युपपथते ॥ ५३॥
देखिये गुणों और दोपों के विषय में प्मापके मंत्रियों ने जे
कुछ कहा है, उसमें मुझे दोष देख पड़ते हैं; क्योंकि उससे कोई
काम द्वोता नहीं ज्ञान पड़ता ॥ ४३ ॥
१ संस्कारसम्पन्नः--शाखाभ्यासदठतरसंस्कास्युक्तः । ( गै० )
१३६ । युद्धकायडे
ऋते नियोगात्सामथ्येमववोद्धुं न शक्यते |
सहसा बिनियोगो हि दोपबान्पतिभाति मा ॥ ५४ ॥
बिना कोई काम सोंपे तो झिसी की हित अनहित भावना का
पता चल नहों सकता। साथ ही सहसा कोई काम सांप देना भी
मैये समझ में ठीक नहीं है ॥ ४४ ॥
चारप्रणिहितं युक्त यदुक्तं सचिवेस्तव ।
. « अथस्यासस्भवातत्र कारण नोपप्चते ॥ ५५ ॥
भेदिया या चर भेजने के सम्बन्ध में आपके मंत्रियों ने जे छेछ
कहा है, से बिना प्रयोजन चर भेजना भी मुझे ठोक नहीं जान
पड़ता ॥ ४#« 0
अदेशफाले सम्प्राप्त इत्ययं यहिमीपण; ।
विवक्षा तत्र मेप्स्तीयं तां निवोध यथामति ॥ ५६ ॥
ज्ञास्यचाव ने कद्दा था कि, विभीपण ठीक समय और ठीक
स्थान पर नहीं झाया | इस विषय में में शअ्रपनी बुद्धि के अचुसार
कुछ कहना चाहता हैं, ( आप लोग ध्यान देकर खुने )॥ ५६॥
स एप देश कालइच भवतीति यथातथा ।
पुरुषात्पुरुषं प्राप्प तथा दोपशुणावि ॥ ५७ ॥
पिभ्ीषण के आने का यही ( उपयुक्त ) स्थान है ओर यही
काल है। एक पुरुष के पास से दूसरे पुरुष के पास थाने में जे
बुराई भत्ताई दे सकती है--उसे में कहता हैं ॥ ५७ ॥
दोरात्म्यं रावणे दृष्टा विक्रमं च तथा त्वयि |
युक्तमागमनं तस्य सहरश तस्थ बुद्धित) ॥ ५८ ॥
सप्तद्शः सर्गः १३७
रावण में दुष्टता और झआापमें पराक्रम देख, इसका यहाँ
झाना सवंधा ठोक है और यह उसकी बुद्धिमानों को प्रकट करता
है॥ ५८॥ | |
अज्ञातरूपेः पुरुषे! स राजन्पृच्छयतामिति |
यदुक्तमत्र मे प्रेज्षा काचिदस्ति समीक्षिता ॥ ५९ ॥
थ्रज्ञात कुलशील दूत के द्वारा विभीषण का हाल जानने
के लिये मैन्द् कु ने जो परामर्श दिया है, से इस धिषय में भी
विचार कर में जिस परिणाम पर पहुँचा हैं, उसे भी शाप लोग
छुनें ॥ ५६ ॥
पृच्छयमानो विश्लेत सहसा चुद्धिमान्वच। ।
तत्र मित्र प्रदुष्येत मिथ्या पृष्ठ सुखागतम् ॥ ६० ॥
विभोषण वड़ा बुद्धिमान है ! धतः भ्रक्षातकुल्शील किसी
पुरुष के सदसा उनसे कुछ पूछने पर, उसके मन में सन्देह उत्पन्न
होगा और उत्तर न देगा। फिर खुखप्राप्ति की लालसा से वह
झापसे मैत्री करने थ्राया है--से| ऐसा करने से उस मैन्नी में भेद
पड़ ज्ञायगा ॥ ६० ॥
अशक्य; सहसा राजन्थावों वेचुं परस्य वे ।
अन्तःखभावैर्ग तिस्तैनैंपुण्य॑ परयता भुशस् ॥ ९९ ॥
है राजन | फिर किसी दूसरे के मन को वात सहसा जानी सी
नहीं ज्ञा. सकती, किन्तु चतुएजन कयठछर के भेद से भोर करठ-
ध्वनि से वोलने वाले का अभिप्राय ताड़ जाते दें ॥ ११ ॥
: न त्वस्य ब्रव॒तों जातु लक्ष्यते हुष्टभावता |
प्रसक्ष॑ बदन चापि तस्मान्मे नास्ति संशय? ॥ ११ ॥
१३८ थुद्धकायडे
दे राम | मुझे तो. इसकी बोली से इसकी बुर भावना नहीं
जान पड़ती | इसको मुखाहकृति भी दर्षित देख पड़ती है| ध्मत
मुझे तो इस पर कुछ भी सन्देह नहों है ॥ ६२॥
अशज्लितिमति। खस्थों न शठ; परिसपेति |
न चास्य दुष्टा वाक््चापि तस्मान्नास्तीह संशय! ॥ ६३ ॥
जे धूर्त देता है वह निर्भीक पक्रौर स्थिर चित्त ह्वकर नहीं
धाता। इसकी वोली में भी मुझे काई दोष नहों ज्ञान पड़ता ।
धरतएव मुझे तो उस पर कुछ भी सन्देह नहीं है॥ ६३ ॥
आकाररछाद्यमानोषपि न शक््यों विनिगृहितम ।
बलाद्धि विदृणेत्येव भावमन्तगंत॑ उणास् ॥ ६४ ॥
घझाकार के कोई भरे ही छिपावे पर वह छिप नहीं सकता,
वल्कि महुष्य के प्रन्तःकरण की दुष्तदता अथवा खाधुता वह बर-
ज्ञारो प्रकट कर देता है॥ ६४ ॥ ह
देशकालोपपन्न॑ च काय कार्यविदां वर ।
खफलं कुरुते क्षित्नं प्रयोगेणामिसंहितम् ॥ ६५ ||
है क्मक्षों में श्रे् ! काज्न और देश का भल्नी भाँति विचार कर,
उचित पुरुष द्वारा जो काये किया जाता है, वद शीघ्र फल्न देता
है॥६५॥ '
उद्योग तब सम्प्रेक्ष्य मिथ्याद्॒त॑ च् रावणम् ।
वालिनश्र वर्ष श्रुत्वा सुग्रीवं चाभिषेचितस ॥ ६६॥
विभोषण आपके उद्योगो कौर रावण के! मिथ्या उद्योग में
ज्ञगा हुआ देख और यह छुन कि, आपने वालो के मार डाला
और सुप्रीच का' राज्य दिला दिया है॥ ६६ ॥
ध्रष्टादशः सरगः १३६
राज्यं प्राथयमानश्र बुद्धिपरवमिह्गतः ।
रतावचु पुरस्क्ृत्य बुज्यते लय संग्रह! ॥ ६७॥
कर 38 कक ४४ के लोभ से, भल्ी भाँति समझ वूस् कर
3 ४९४ हा ध्यान देते हुए विभीषण का मित्रा
ययाशक्ति मयोक्त तु रा्षसस्याजंबं* प्रति |
प्वें अमार तु शेपस्य श्रुत्वा बुद्धियतां बर ॥ ६८ ॥
इति सप्तदशः सगे! ॥
दे वुद्धिमानों में श्रेष्ठ | मेंने नित्र वुद्धानुसार विभीषण के
निर्दोधत्व के बारे में जे। कुछ कहा-उसे आप छखुन ही चुके, प्रथ
विभीषण के ग्रहण करना न करना प्रापकी इच्छा के ऊपर है ॥ईपा।
, चुद्धकाएड का सभदर्वां सर्ग पूरा हुआ ।
“-+-++
अ्रष्टादशः सर्गः
“०
अथ रामः प्रसच्नात्मा भ्रुत्वा वायुसुतस्थ है ।
प्रत्ययापत दुर्धप; *श्रुतवानात्मनि स्थितम ॥ १ ॥
तद्ननतर सर्वशास्रवेत्ता, अजेय भ्रीरामचन्ध जी हसुमान जी
की वारतें सुन प्रसन्न हुए भर सवध्य हो बोले ॥ १॥
२ श्रुतवानू-- सफछणासप्रवणवान् |
१ आजंब --निर्देपित्वं ) ( गे।० )
( श० )
१७४० युद्धकाणडे
ममापि तु विवक्षाजस्त काचित्मति विभीपणस् |
श्रुतमिच्छामि तत्सव भवद्धिः श्रेयसि स्थितैः ॥ २ ॥
हे बानरों | विभोषण के विपय में मुझे भी कुछ वक्तव्य है। आप
सव मेरे दितेषी हैं, ध्वतः में आपकी बातें सुनना चाहता हैँ ॥२॥
मित्रभावेन सम्प्राप् न ल्वजेयं कथश्वन |
दोपो यद्यपि तस्य स्यात्सतामेतदगर्हितम् ॥ ३ ॥
यदि विभीषण मिन्रसाव से आया हो ते में इसे कभी त्यागना
नहीं चाहता | भत्ते हो उसमें काई दोष भो हो | फ़्योंकि शिश्टज्नों
का यही अनिन्दित कर्ंव्य है ॥ ३॥
सुग्रीवस्ततथ तद्दाक्यमाभाष्य च विमृश्य च॒ |
ततः शुभतरं वाक्यम्ु॒वाच हरिपुद्धब। || ७ ॥
तदनन्तर वानरराज्ञ छुम्नीव, श्रीरामचनच्ध जी के बच्चनों की
वित्रत्ति कर और मन में समम्धूक्त कर अपनी पहिंली वात का
अझबुमेादन करते हुए बोले ॥ ४॥
सुदु्टो वाष्प्यदुष्टो वा क्रिमेष रजनीचरः ।
ऐहशं व्यसन प्रात आतरं यः परित्यनेत् ॥ ५ ॥
को नाम स भनेतस्थ यमेष न परिलजेत |
वानराधिपतेवांक्य श्रुत्वा सर्वानुदीक्ष्य च ॥ ६॥
यह दुए हा या साथु; किन्तु है तो राक्तस ही। इसने ऐसी
विपत्ति में पड़े हुए अपने भाई का साथ क्यों छोड़ा ? फिर जब इसने
सकुठ के समय अपने सगे साई को हो छेोइ दिया तब यह किसका
सगा है| सकता है | वानरराज के इन दचनों के छुन, श्रीरामचन्द्र
जी ने सच की ओर देखा ॥ ५॥ ६ ॥
घण्ादशः सा: १४१
रेपदुत्स्मयमानस्तु लक्ष्मण पुण्यलक्षणग्र् |
. इति होवाच काकुत्स्यो वाक्य सत्यपराक्रम! || ७ |
. तदनन्तर म्ुसक्ष्या कर सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्धन्नी ने शुभ
जत्तणों से युक्त लक्मण जी से यह कहा ॥ ७ ॥
अनपीत्य च शास्राणि हृद्धाननुपसेन्य च |
न शक््यमीदशं वक्तुं यदुवाच हरीश्वर। ॥ ८ ॥
वानरराज़ सुग्रीव ने जेसा कहा है बेसा कोई दूसरा विना
शार्घों के पढ़े और बिना घृद्धों की सेवा किये नहीं कह सकता ॥८॥
अस्ति सूक्ष्मतरं किचिद्दत्र प्रतिभाति मे।
प्रत्यक्ष लौकिक वाउपि विधवते सर्वराजसु | ९॥
इसमें एक वड़ी सृक्त्म विचार की वात मुझे जान पड़ती है।
वह प्रधत्त है, लोकसद्ध है भार सब राजाधों में भी पायी जाती
॥६॥
अमित्रास्तत्कुलीनाश् प्रातिदेश्याथ कीर्तितः ।
व्यसनेषु प्रहर्तारस्तस्मादयमिहागतः ॥ १० ॥
शन्रु दो प्रकार के हुआआ करते हैं। एक ते श्रपनी जाति विरा-
द्री वाल्ते, दूसरे आसपास के देशों में रहने चांत्ने । ये दोनों दी
प्रकार के शत्रु विपत्ति के समय भ्राक्रमण करते हैं। अतः सम्भव
है, यह॑ विभीषणा, राचण के सड्डुटापन्न देख उसका संद्ांर करने
का यहाँ झाया हो ॥ १० ॥ है
... _ - . _॒_चचच++5
१ कुछीनाः-- श्ञातयः । ( गे।० )
१४२ युद्धकायडे
अपापास्तत्कुलीनाथ मानयन्ति खकानितान ।
एप प्रायो नरेन्द्राणां शड्डनीयस्तु शोभनः१ ॥ ११॥
जाति वाले लोग कितने द्वी निर्देप और धर्मात्मा हों, किन्तु
समय पड़ने पर वे सदा अपना स्वार्थ साधने के लिये यत्नचान होते
हैं। घ्रतः जाति वाले भले दो गुणवान हों, राजा के उनसे सदा
सशक्लित रहना चाहिये॥ ११॥
यरतु दोपषस्तया प्रोक्तों दादानेजरिवलस्यथ च् |
कीतयि ख़मिद॑
तत्र ते घ्यामि यथाज शरण ॥ १५॥
शत्रुपत्त का मिलाने में आप लोगों ने जे दोष दतलाये हैं,
उनका उच्चर में नीतिशासत्रसस्मत देता हैँ, डसे आप ज्ञोग
झुने ॥ १२॥
न वर्य तत्कुछीनाश्र राज्यकाइी च राक्षस) ।
पण्डिता हि भविष्यन्ति तस्मादग्राह्मे विभीषणः ॥?११॥
हम लोग उसके जाति विराद्री वाले नहीं, जे। चह हमके नाश
कर हमारा राज्य ल्ञेने का आया दो। किन्तु-प्रपने भाई का नाश
करा और उसका राज्य लेने की लाजसा से, हमारे पास विभीषण
का भ्राना सस्भव है | फिर विभीषण पणिदत भी है--अतणव मेरी
समझ में ते उसके मिला लेना चाहिये ॥ १३६॥
अव्यग्राश्च पहुष्टाशवच न भविष्यन्ति सड्भता; |
प्रणाद महानेष ततोज्स्य भयमांगतम् ॥ १४ ॥
यह प्रसिद्ध हे कि, भाई लोग अआपस में मिल कवर घबुकूलता
पूर्वक और प्रसन्नमन से चास करते हैं, परन्तु इस समय ज्ञब धरक और प्रशन्षमन से चास करते हैं, परन्ु इस समय जब युदध
१ शोमनों--ग्रुणशनेप । ( गे।० )
प्रष्टादशः सगः '१७४३
का इंका वज रहा है, तव उनके मन में एक दूसरे की भोर भय
उत्पन्न हुआ दागा।॥ ९४ ॥
इति भेद॑ गमिष्यन्ति तस्मादूग्राहयों विभीषणः | द
न सर्वे भ्रातरस्तात भवन्ति भरतोपमा। ॥ १५ ॥
मंद्विधा वा पितुः पुत्रा! सुहृदों वा भवद्विधा: ।
एयमुक्तस्तु रामेण सुग्रीव/ सहलक्ष्मण;॥ १६ ॥
उत्यायेद॑ महाप्राज। प्रणतो वाक्यमत्रवीत् |
रावणेन प्रणिद्वितं तमवेहि विभीषणस् ॥ १७ ॥
ग्रौर इससे इनके मन में भेद हा जाना भी सम्भव है। अतः
विभोपण के मिला होना ठीक है | है तात | सव भाई, भरत जैसे
और सब पुत्र मेरे समान पिता के ध्राज्ञाकारी शोर सव मित्र आप
लोगों जैसे नहीं हुआ करते। जब श्रौरामचरद्र जी ने इस प्रकार
कहा, तव लत्मण सहित बड़े घुद्धिमान खुप्नीव उठे ओर प्रणाम
कर वोले--है राम | यद विभीषण, रावण की भैज्ञा हुप्मा यहाँ
भाया है॥ १४ ॥ १६ ॥ १७॥
तस्याहं निग्नहं मन्ये क्षम क्षमवर्ता वर |
राक्षतों जिक्षया बुद्धया सन्दिशेष्यमिहागतः ॥ ६८॥
है सर्व सामथ्यवान् | में तो इसे दण्ड देना दी उचित समभता
हैं। यद रावण का सिखलाया हुआ फपटवुद्धि से यहाँ ध्यायां
है | ९८ ॥ दे
प्रदर्त् त्वयि विश्वस्ते प्रच्छन्नो मयि वाउनध |
लक्ष्मणे वा महावाहों स वध्य 'संचिवे! सह ॥ १९ ॥
१४४ युद्धकाणडे
... है झन्रघ | ज्ञव यह हम लोगों का अपने ऊएर विश्वास जमा
लेगा, तब घवसर पा छिपे छिपे आपके, अथवा 'लक्ष्मण के अथवा
मेरे ऊपर प्रहार करेगा | ध्यतः मंत्रियों सहित इसके भरवा डालना
ही उचित है ॥ १६॥
रावणस्य नुशंसस्य आ्राता ह्ेष विभीषणः |
एवसुक््त्वा रघुश्रेष्ठं सुग्रीवाी वाहिनीपतिः ॥ २० ॥
वाक्यज्ञो वाक््यकुशलू ततो मोनमुपागमत्त |
सुग्रीवस्य तु तद्वाक्य॑ श्रु्वा रामो विमृश्य च॥ २१ ॥
यह उस घातक रावश का भाई है । वचन बोलने में चतुर
कपिसेनापति झुप्तीव, इस प्रकार रघुशेए एवं चौफणशविशारद् ध्रीराम-
चन्द्र जी से बचत कह कर, चुप हो गये | खुप्नोद के वचनों के खछुन
झोर उन पर विचार कर श्रीरामचन्द्र जी ने ॥ २० ॥ २१ ॥
ततः शुभतरं वाक्यमुदाच हरिपुद्धवस ।
सुदृष्ठो वाप्यदुष्ठो वा किमेष रमनीचर।।॥ २२ ॥
सूक्ष्ममप्यहित॑ं कत' ममाशक्त:; कथश्वन ।
पिशाचान्दानवान्यक्षान्पूयिच्यां चेव राक्षसान ॥ २३ |
कपिश्रेष्ठ छ॒ुत्नीच से ये शुभ चचन कहे । यह राक्तस दुष्ट हो
या साधु, चह मेरा वाल भी बाँका नहीं कर सकता । प््योंकि
इस पृथिवी पर जितने विशाच, दानव, यक्ष और राक्तस हैं।
२२॥ २३॥
अडग्गुल्यग्रेण तान्हन्यामिच्छन्हरिगणेश्वर ।
. अयते हि कपोतेन शत्रु! शरणमागतः ॥ २४ ॥
ध्रष्टादशः सगे १४५
है कपिराज ! में चाहूँ ते अंगुली के पोषण से मार डाल सकता
हैँ। मेंने सुना हे कि, शरण में थ्राये हुए शन्ष को किसी कबूतर
ने॥ २४॥
अितश्च यथान्यायं स्वेश्च मांसेनिमन्त्रितः ।
स हि त॑ प्रतिजग्राह भार्याहर्तारमागतम् ॥ २५॥
यथाविधि सतककार कर उसे प्रपने शरोर का माँस खिलाया
धा। यह अतिथि एक वद्ेलिया था, मिलने उसकी कबूतरी के
पकष्ठ रखा था ॥ २४ ॥
कपोतों वानरश्रेष्ठ कि एनमट्विपो जनः ।
ऋषे; कण्वस्थ पुत्रेण कण्डुना परमर्पिणा ॥ २६॥
भश्रूणु गाधां पुरा गीवां धर्मिष्ठां सत्यवादिनीम् ।
वद्धाह्नलिपुटट दीन याचन्तं शरणागतम॥ २७॥
न हन्यादानशंस्थायंमपि शत्रुं परन्तप ।
आते वा यदि वा हृप्ः परेषां शरणागत! ॥ २८ ॥
अरिं; प्राणान्परिलन्य रक्षितव्य; कृतात्मना |
स चेद्गयाद्व मोहाद्ा कामाद्वार्षपे न रक्षति ॥ २९ ॥
त्वया शक्त्या अयथान्याय॑ तत्पापं छोकगर्हितम् ।
विनए्ठ! पश्यतस्तस्थारक्षिण! शरणागतः |॥ ३० ॥|
जब कबूतर ने शरण में झाये हुए शन्रु का सत्कार किया,
तब मुक्त जैसा जन शरण में आये हुए विभीषण का परित्याग
# पाठान्तरे--“ यथासरव॑ ।". पाठान्तरे-- पश्यतों यस्यारक्षितु: । डे
वा० रा० यु०---१०
१४६ 'बुद्धकायडे
क्यों कर सकता है? महर्षि कयव के सत्यवादी एवं घर्मिं्ट पुत्र
कणड ऋषि ने प्रायीनकाल में जे! वात कही है, उसे भी छुनेा ।
है परन्तप | हाथ जोड़े, गिद्ग्िड़ाते हुए झोर दोन साव से शरण में
आये हुए शत्र को भो, दयाधरम की रक्ता करने के लिये न मारना
चाहिये | डुखी हो अयवा अथ्रहंकारी, परन्तु अन्य शत्र के भय से
. विकल हो कर, यदि शन्नु सी अपने शरण में आवे, ते उत्तम पुरुष
के उचित है कि, अपने प्राणों के हथेली पर रख कर भी उसकी
सत्ता करे | जे भय से, प्रमाद से अथवा अन्य किसो घाप्तना से
शक्ति रहने पर सी, ऐसे की यथावत् रक्ता नहीं करता, वह पापी
ओर लोकतिन्दित है। यदि रक्षक के सामने शरणागत मनुष्य
मर ज्ञाय॥ रेदे ॥ २७ ॥ २८ ॥ २६ ॥ ३० ॥
आदाय सुकृतं तस्य सब गच्छेदरक्षितः ।
एवं दोषों महानत्र प्रपन्नानामरक्षणे | ३१ ॥
तो चह रक्तक के समस्त पुण॒यों के ले अरत्तित शरणागत व्यक्ति
चत्ना जाता है । घ्रतएव शरण में श्ाये हुए क्षी रक्षा न करने से
वड़ा भारी एप लगता है ॥ ३१ ॥
अखग्य चायगरस्य॑ च वलूवीयविनाशनम् |
करिष्यामिं यथार्थ तु कण्डोबंचनमुत्तमम्र || ३२ ॥
शरणागत को रक्षा न करने से स्वर्गप्राप्ति नहीं होती, बड़ी
वदनामी होती है ओर वल पव॑ वीर्य क्वा नाश होता है। श्रतः में
कणड ऋषि के वचन का ययाथ रीत्यापालन करूँगा ॥ ३२॥
धर्मिष् च यशस्यं च खग्य स्यात्तु फलोदये ।
: सक्ृदेव प्रपनत्नाय तवास्मीति च याचते ॥ 3२३१ ॥
अष्टादशः सगे: १७७
क्योंकि कयड फा वचन, फल देने का समय उपपध्यित होने पर
पुण॒य का, यण का धोर स्वर्ग का देने घाला है। जो एक,वार भी मेरे
शरण में थ्रा जाय भोर वाणी से कद दे कि, में तुम्दारा हैं ॥ ३३ ॥ !
अभयं सबभूतेभ्यों ददाम्येतद्वतं मम |
आनयेन हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया ॥ ३४ ॥
ते तत्काल उसके, वह कोई भी क्यों न हो, निर्भय ऋर देना
मेरा घत है । है कविश्रेष्ट | ठुम विभोषण के के आश्यो। मेंने उसे
घभय कर दिया ॥ ३४ ))
विभीपणे वा सुग्रीव यदि वा रावणः खयम |
रामस्य तु बचः श्रुत्वा सुग्रीवः छवगेश्वर। ॥ २५ ॥
है खुम्नीव ) वह विसीपषण दो चाहे ध्वयं रावण ही क्यों न हो।
श्रीरामचन्द्र जी के ये वचन खुन कपिराज खुश्नीव ॥ ३४५ ॥
प्रत्यभमापत काकुत्स्थं #सौहारदेनामिचोदितः ।
किमत्र चित्र धर्मज्ञ कोकनाथ सुखावह ॥ ३६ ॥
सीद्ादंसाव से प्रेरित हे भ्रीरामचन्द्र जी से धोले--है खुल-
दाता लोकनाथ [ है धर्मक्ष! भापके इस कथन में आश्यय की
कोन सी वात है ॥ ३६ ॥
यत्त्वमाये* प्रभाषेथा) रसत्त्ववान्सत्पये स्थित ।
मम चाप्यन्तरात्माज्यं शुद्ध वेत्ति विभीषणस् ।
अजुमानाच्व भावान्व स्वतः सुपरीक्षितः ७ ३७ ॥
प् आयं- समोचोनं | ( गो० ) २ सत्त्ववाब--प्रशस्त भ्रध्यवप्तायवान् ।
( गे० ) # पाठान्तरै--“ सौदार्देन प्रचोदितः ॥ अथवा " सौहादेंनामि-
यूरितः ।
१छ८ भूद्धकादडे
भाप जैसे प्रशस्त ध्रध्यवसायवान्, घमसंस्थापनाथ भूतल
पर अचतोर्ण होने वाले के छोड़ भोर फोन इस तरह को ठउद्ारता
दिखला सकता है। अनुमान से शोर भाव से तथा सब प्रकार से
भल्तीभाँति परीत्ता लेकर मेरा अन्तःकरण भी विभीषण के झव
शुद्ध ही समझ रहा है ॥ ३७॥
तस्मात्क्षिपं सहास्माभिस्तुल्यों भवतु राघव ।
विभीषणो महाप्राज्ञ। सखित्व॑ चास्युपेतु न। ॥ ३८ ॥
अतएव हे राघव ! महावुद्धिमांच विभीषण शीघ्र ही हमारे
समान हो झौर हम लोगों के साथ उसकी मैत्री हो ॥ ३८ ॥
ततस्तु सुग्रीवतचों निशम्य
तद्धरीरवरेणाभिहितं नरेश्वरः ।
विभीषणेनाशु जगाम सद्भमं
पतत्रिराजेन यथा पुरन्दरः ॥ ३९ ॥
इति अशदशः सर्गः ॥
कपिराज़ के कथनाझुसार श्रीरामचन्द्र जी ने विभीपण के साथ
तुरत्त मेत्री कर ली, जैसे इन्द्र ने गगड़ जी के साथ मेत्री की थी ॥३ श
युद्धकायड का अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
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एकोनविशः सर्ग:
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राघवेणाभये दत्त सन्नतो रावणानुजः |
विभीषणो महाप्राज्ञो भूमि समवलोकयन् ॥ ? ||
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| एक्रानविशः सर्गः १४६
रघुनन्दन भ्रीरामचन्द्र जी ने ज़ब इस तरह विभीषण के
- धभयदान दिया; तव महातुद्धिमान राषण के छोटे भाई विभीषण
प्रथियों की शोर देखते हुए ॥ १॥
खात्पपातावनीं हप्टो भक्तेरनुचरेः सह ।
स तु रामस्य धर्मात्मा निपपात विभीषणः ॥ २॥
ध्याकाश से अपने भक्तिभाव रखने पाक्ते चार मंत्रियों के लिये
हुए, प्यानन्द युक्त हो पृथिवों पर आये शोर धर्मात्मा विभीषण
श्रीशामचन्द्र जी फे चरणों में गिर पड़े ॥ २॥
पादयो; शरणान्वेषी चतुर्मिः सह राक्षसेः |
अव्रवीच तदा राम॑ वाक्य तत्र विभीषण। ॥ रे ॥
चारों रात्तसों सहित शरणान्वेषी विभीषण भ्रौरामचन्द्र जी के
चरणों में गिर, भ्रीरामचन्द्र जी से वाले ॥ ३॥|
धर्मयुक्तं च युक्त च साम्पतं सम्प्हपंणस् ।
अंनुजो रावणस्याहं तेन चास्म्यवमानितः ।| ४ ॥
विभीपषण ने यक्तियुक्त, धर्मसड्भत ध्योर तत्काल मन के अत्यन्त
प्रसन्न करने वाले वचन श्रीरामचन्द्र जी से कहे । वे वोले--मदहाराज
में राषण का छोटा भाई हूँ। उसने सेरा अनादर किया है॥ ४ ॥
भवन्त सबभूतानां शरण्यं #शरणं गतः ।
परित्यक्ता मया लड्ढ मित्रारिण च धनानि वे ॥ ५ ॥
ध्याप धाणीमात्र के रक्षक हैं| ध्यतः में लड्ढा में मित्रों को भोर
समस्त धन सम्पत्ति का त्याग कर, धापके शरण में थाया हैं ॥ ५॥
“7 # पाठान्तरे --'* शरणागतः ।”!
१४० युद्धकायडे
भवदगतं मे राज्यं च जीवितं च सुखानि च |
तस्य तद्चन श्रुत्ता रामो वचनमत्रवीत् ॥ ६ ॥
ध्व ते मेरा राजपाट जीवन ओर सुखादि समरुत ही आपके
ध्धोन है। विभी पण के ये चचन घुन श्रोरामचन्द्र ज्ञी ने कहा ॥ ६ ॥
बचसा सान््लयित्वेनं छोचनाभ्यां पिवन्निव |
आख्याहि मम तत््वेन राक्षतानां वछावलम् ॥ ७ ॥
श्रीरामचन्द्र जी ने वनों द्वारा विभीषण के धीरज वँधा बड़े
झादर के साथ उनके देखा। तदननन््तर वे वोले--हे विभीषण !
ध्यव तुम मुझे लड्डडवासी रात्सों के वलावल का ठीक ठोक चृचान्त
खुनाओ॥ ७ ॥
एयमुक्त॑ं तदा रक्षो रामेणाक्षिप्टकमंणा ।
रावणस्य वर्ल सवमाख्यातुम्॒पचक्रमे ॥| ८ ॥
प्रक्किएकर्मा श्रीरामचन्द्र ज्ञी के इस प्रकार कहने पर, विभीपण
ने रावण के सैनिक वत्न का वर्णन विस्तारपूर्वक करना शआारस्म
किया ॥८॥
अवध्यः सबभूतानां #देवदानवरक्षसाम् ।
राजपुत्र दशग्रीवा वरदानात्खयंथभ्रुवः [| ९ ॥
है राजकुमार | दृशप्रीच रावण ब्रह्मा जी के वरदान से देवता
दावव राक्षसादि समस्त प्राणियों से अचच्य है॥ ६॥
रावणानन्तरों अभ्राता मम ज्येष्ठश्न वीयवान |
कुम्भकणो महातेजाः शक्रप्रतिवछों युधि ॥ १० ॥
2 बल लक अपन बन >> 78 सम: कफ केक कब: ०४ कर 27 747 26: जिविकीदिद
# पाठान्तरें--' यन्धरवाघुररक्षसास् । अथवा “ गन्धर्वेरिगपक्षिणां
'पकोनविशः सगे १४१
रावण से छोठा और मुझसे वड़ा मेरा ममला भाई कुम्मकर्ण
वड़ा वलवान शोर तेजस्वी है घोर युद्ध में इन्द्र का सामना कर
सकता है ॥ १० ॥
राम सेनापतिस्तस्य प्रहस्तो यदि वा श्रुतः ।
कैलछासे येन संग्रामे मणिभद्र! पराजित) ॥ ११ ॥
है राम | कदाचित् आपने रावण के सेनापति प्रहरुत का नाम
छुना हो। इसने फैलास पर्वत पर युद्ध में मणिभद्र का पराजित
किया था॥ ११ ॥
वद्धगोधाहुलित्राणस्त्ववध्यकवचो युधि ।
धनुरादाय .यर्तिप्ठन्नरश्यो भवतीन्धजित् ॥ ११॥
गेद के चमड़े के दस्ताने पहन, कवच धारण कर ओर धनुष
लेकर छंग्राम करते करते भ्रद्वश्य हो जाने वाला इन्द्रजीत मेघनाद
है ॥१२५॥
संग्रामे सुमहृद्व्युद्दे तपयित्वा हुताशनम् ।
अन्तर्धानगतः शन्रूनिन्दरनिद्धन्ति राघव ॥ १३॥
है याघव ! ये बड़ी वड़ी लड़ाइयों में जदाँ बड़े बड़े व्यूहों की
रचना हुआ करती है, धवन द्वारा अश्निदेव के ठृप्त कर, धन्तद्धोन
हो शत्रुओं के मारा करता है ॥ १३ ॥
महोदरमहापारवी रा्षसशाप्यकम्पनः ।
अनीकस्थास्तु वस्येते लोकपालसमा युधि ॥ १४ ॥!
इनके अतिरिक्त रावण के सेनापति महीदर, महापाएव,
ध्कम्पन नामक रक्तस ऐसे हैं, जे। युद्ध में लोकपालों जैसा पराक्रम
प्रदर्शित फिया करते हैं ॥ १४ ॥ ई
१४२ थयुद्धकाग्रडे
दरशकेाटिसहस्राणि रक्षसां कामरूपिणाय ।
मांसशोणितभक्षाणां लक्भाएरनिवासिनाम ॥ १५॥
लड्ढपपुरी में दस हज़ार करोड़ राक्तस वसते हैं। ये कामरुपो
राज्तस माँस खाते आर रक्त पिया करते हैं ॥ १५ ॥
#स ते; परिहतों राजा छोकपालानयोधयत् |
सह देवैस्तु ते भग्रा रावणेन महात्मना ॥ १६ ॥
उन सव के साथ ले घैयवान् रावण ने लेकपालों से युद्ध
किया था ओर देवताशों सहित उनके परास्त किया था ॥ १६ ॥
विभीषणवचः श्रुत्वा रामो दृठपराक्रमः ।
अन्वीक्ष्य मनसा स्वंमिदं बचनमत्रवीत् | १७ ॥
-हृढ़पराक्रमी श्रीरामदन्द्र जी, विभीपण की ये बातें सुन और
मन ही मन इन सव वातों पर विचार कर, कहने लगे ॥ १७ ||
यानि 'कमापदानानि रावणस्थ विभीषण ।
आख्यातानि च॒ दत्त्वेन हावगच्छामि तान्यहम् ॥ १८ ॥
हे विभीषण ! रावण के जिन जिन कर्मी का तुमने वखान
किया, थे सब मुझकी यथाथंरीत्या विद्त हैं ॥ १८ ॥
अहं हत्वा दशग्रीव॑ समहस्त॑ [सहानुजम् |
राजानं त्वां करिष्यामि सत्यमेतदत्रवीमि ते ॥ १९ ॥
१ कर्सापदादानि--" अपदान कर्मदर्त' इत्यमर: । ५ गे।० )
# पाठान्तरे--“ स तैल्तु लहितो ।” | पराठात्तरे--“ सबान्धवम् |!
वा ४ छहात्कञ ।*
एफानविशः सगे! १४३
मैं सत्य सत्य तुमसे कह्दता हैँ कि, में प्रहस्त भर कुम्मकर्ण
सद्दित दशप्रीव राचण के मार कर, तुमको लड्ढा का राजा वना-
ऊँगा ॥ १६॥
रसातलं वा प्रविशेत्पातालं वापि रावण ।
पितामहसकाशं वा न में जीवन्विमोक्ष्यते | २० ॥
रावण प्राण बचाने फे चाहें रसातल में जाय, चाहे पाताल में
घथवा ब्रह्मा जी के पास हो क्यों न भाग कर चला जाय, पर वह
अब जीता नहीं बच सकता | २० ॥
अद्त्वा रावणं संख्ये सपुत्रवलवान्धवम् |
अयोध्यां न प्रवेक्ष्यामि त्रिशिस्तेश्रातृभिः शपे ॥ २१ ॥
में अपने तोनों भादयों की शपथ खाकर कहता हैं कि, युद्ध में
युश्न, सेना और भाई वन्दों सहित रावण को मारे विना, में ध्ययाध्या
में पेर न रकखू गा॥ २१ ॥
श्रुत्वा तु बचन॑ तस्य रामस्याहिष्कमेणः ।
_ शिरसा5ध्वन्ध पर्मात्मा वक्तुमेवापचक्रमे ॥ २२ ॥
अक्लिएकर्मा श्रीरामचन्ध जी के ये वचन छुन भोर सोस झुका
प्रणाम कर, धर्मात्मा विभीषण कहने लगे ॥ २२॥
राक्षसानां वधे साहां लझ्कायाश्र प्रघषणे ।
करिष्यामि 'यथाग्राणं प्रवेक्ष्यामि च वाहिनीम् ॥१३॥
हे राघव ! रावण की श्राक्रमणकारी सेना के आते ही,
मैं उसमें घुस राक्तस सैनिकों का वध करने में तथा लड्ढा के
2 कम नल लटक कम
१ यथाप्राण--यथाबल | ( गे।० )
श्श्छ युद्धकांयदे
उज्ाड़ने में, प्राशपण से अथवा ययाशक्ति श्रापकी सहायता
करूँगा ॥ २३ ॥
इति ब्रुदाणं रामस्तु परिष्वज्य विभीषणमू |
अव्वबीछक्ष्मणं प्रीतः समुद्राजठमानय ॥ २४ ॥
इस प्रकार वचन कदतें हुए विभीषण के भीरामचन् जी ने
अपनी छाती से लगा लिया झोर लक्ष्मण से कहा कि, ज्ञाओो
समुद्र से अल ले आओ में विभीषगा से प्रसन्न हैँ ॥ २४ ॥
तेन चेम महाप्राज्ञमभिषिश्च विभीषणम ।
राजानं रक्षसां क्षिप्रं प्सन्ने मयि 'मानद ॥ २५ |
सप्तुदजल से इन महावुद्धिमान् पिभीषण के शीघ्र ही राक्तसों
के राजसिंदासन पर झमिषिक करने का मेरा विचार है। में इनके
व्यवहार से सन््तुष्ट हैँ शोर इनका वहुमान करूगा ॥ २५ ॥
एयमुक्तस्तु सोमित्रिरभ्यपिश्वद्धिभीषणम् ।
मध्ये वानरमुख्यानां राजानं रामशासनात् ॥ २६ ॥
जअव श्ीरामचन्द् ज्ञी ने इस प्रकार पश्ाज्ञा दी, तव लक्ष्मण जी ने
उस झात्ना के अछुसार मुख्य म्रुख्य वानरों की उपस्थिति में
विभीषण का राज्याभिषेक्र किया ॥ रहें ॥
त॑ प्रसाद तु रामस्य दृष्टा सद्यः पुवद्धमा। ।
प्रचुक्रशुमेहात्मानं साधु साध्विति चात्रवन )। २७ ॥
धीरामचन्द्र जी की पसन्नता का इस प्रकार का तरूत फल
मिला हुआ देख, बाचरों ने हपनाद किया ओर वे “ साधु साधु ”
कहने लगे ॥ २७ ||
१ सानद--बहुमानअद । सझलादे सत्ति फलप्रदस्त्वामिति मावश ) गे० )
प्रकोनविशः सगे १४४
अन्नवीच् हनूमांश्र सुग्रीवश्न विधीषणम् |
कथ सागरमक्षोभ्यं तराम वरुणालयस् || २८ ॥
के अप ५
सेन््ये: परिह्ताः सर्वे वानराणां महोजसाम् |
उपाय॑ नाधिगच्छामो यथा नदनदीपतिम् ॥ २९ ॥
तराम तरसा सर्वे ससेन््या वरुणालयम् |
एयमुक्तस्तु धमंज्ञ) प्रत्युवाच विभीषणः ॥ ३०॥
छुम्रीव ओर हनुमान ने विभीषण से कद्ा-प्रित्न | श्रव यह ते
चतलाओ कि, हम लेग इस श्रत्तेम्य वरुणालय श्रथोंत् समुद्र के
पार बड़े बड़े पराक्रमी वानरों फी समस्त सेना सद्त क्यों कर हों
हमारी समझ में तो ऐसा कोई उपाय नहीं ञआ्रा रहा जिससे
हम समस्त सेना सहित समुद्र पार हा सरकें। जब दोनों घानर-
श्रेष्टों ने इस प्रकार कदा, तव धर्मज्ञ विभीषण ने उत्तर देते हुए
कहा ॥ शेष ॥ २६ | ३० ||
समुद्रं राघवा राजा शरणं गन्तुमहति ।
खानितः सागरेणायमप्रमेयो महोदधि। ॥ ३१ ॥
महाराज श्रीरामचन्द्र, समुद्र के शरण में जाँय--यही उपाय
है। भ्रीरामचन्द्र जी के पूर्वपुरुष महाराज सगर द्वारा खुदवाये जाने
के कारण ही इसका नाम सागर पड़ा है, सो यद अथाद जल
चघाल्ला॥ ११॥
. कतुमर्ति रामस्य आक्षाते! कार्य महोद्धिः |
एवं विभीषणेनोक्तो राक्षसेन विपश्चिता ॥ ३२ (|
# पाठान्तरे--'' ज्ञात्वा कार्य महामतिः |"
५५६ युद्धकायडे
समुद्र, अपने कुदुम्व पाले का काम अवश्य करेगा । जब परणिडित
रात्तटस विभीषण ने इस प्रकार कहा ॥ २२॥
आजगामाथ सुग्रीवों यत्र राम! सलक्ष्मण! |
ततश्चाख्यातुमारेभे विभीषणवचः शुभम् ॥ ३३ ॥
तव खुग्रीव वहाँ गये जहाँ लक्ष्मण सहित श्रोरामचन्द्र ज्ञी थे
ओर उन्होंने विमीपण के कहे हुए खुन्दर वचन कहें ॥ ३३ ॥
सुग्रीवा विपुलग्रीवः सागरस्योपवेशनस |
धर्मशीलस्य
प्रकृत्या ६ राघवस्यथाप्यरोचत ॥ ३४ ॥
मेदी गरद्दंनवाले छुम्रीव ने श्रीरामचन्द्रज़ी से समुद्र को
उपासना करते को कहा | धर्मात्मा श्रीरामचन्द्र जी के भी यह वात
अच्छी जान पड़ी ॥ ३४ ॥
स लक्ष्मणं महातेजाः सुग्रीव॑ं च हरीश्वरस ।
स्मितपूर्व
'सत्करियार्थ रक्रियादक्ष। ऋस्मितपूर्वमभाषत ॥ ३५ ॥
महातेजस्वी श्रीयमचन्द्र जो ने स्वयं वह काय करने की शक्ति
रखते हुए भी, विभोषण का वहुमाव करने के लिये, मुसक्या कर
लक्ष्मण शओर छुश्नीव से कहा ॥ ३४ ॥
विभीषणस्य मन्त्रो्यं मम्र लक्ष्मण रोचते ।
ब्रहि तव॑ सहसुग्रीवस्तवाषि यदि रोचते ॥ ३६ |
सुग्रीवः पण्डितो नित्यं भवान्मन्त्रविचक्षण!
उभास्यां सम्प्रधायोथ रोचते यत्तदुच्यताम् ।| ३७ ॥
सन मसल समर कस पट 4 पिन ननन न
१ सत्कियार्थ --विभीषणमंत्रबहुमानाथ | ( गे ) २ क्रियादक्षः-- .,. -
खयं कायकरणसमर्थोपि | ( गैे० ) & पाठान्तरे--“ स्मितपुवंशुवाच ६ ।!!
पएरकेनविशः सर्गः १५७
है जत्ष्मण ! विभीषण की यद सलाह में भी पसन्द करता हैं।
सुम्रीव पणिढत हैं ही झौर तुम भो सम्मति देने में प्रधोण हों--
धतः यदि सुत्रीव के और तुम्ें भी यह राय पसन्द हो, ते
वतल्ाग्रो । तुम दोनों के जे! अच्छा लगे सो विचार कर
वतलाशो ॥ ३६ ॥ ३७ ॥
ञः न गरावुभी ब्रे
एवमुक्ता तु तो वे सुग्रीवलक्ष्मणा ।
समुदाचारसंयुक्तमिदं वचनमूचतुः ॥| ३८ ॥
जव श्रीरामचद्ध जी ने उन द्वोनों वीर सुप्रीव भर लक्ष्मण से
इस प्रकार पू छा, तव हाथ जोड़ कर वे वचन बोले ॥ रेप ॥
क्रिमथ नो नरव्याप्र न रोचिप्यति राघव |
विभीपणेन यज्चोक्तमस्मिन्काले सुखावहम ॥ ३९ ॥
हे नरख्याप्र | विभीपण ने इस समय जे खुखसाध्य उपाय
वतलाया है वह हम लोगों के फ्यों न प्रच्छा लगेगा ? ॥ ३६ ॥
अबद्धा सागरे सेतुं घोरेधस्मिन्वरुणालये ।
लड्जा नासादितुं शक्या सेन्द्रेरपि सुरासुरे ॥ ४० ॥
क्योंकि इस भयानक सपुद्र पर पुल वध विना इन्द्र सहित
छुर घोर अछुर भी लड्डुध में नहीं पहुँच सकते ॥ ४० ॥
विभीपणस्य 'शूरस्य यथार्थ क्रियतां वचः |
अल कालात्यय॑ कृत्वा समुद्रो5्यं नियुज्यताम् ।
यथा सेन्येन गच्छामः पुरी रावणपालिताम् ॥ ४९ ॥|
१ झरस्य--संभ्रक्नूरस्य | ( गे० )
श्श्द युद्धकायडे है
अब कुछ भो विल्लम्ब न कर शीघ्र मंचरशर विभीषण के कथना-
चुसार श्राप समुद्र के शय्ण में जाइये अथवा समुद्र की प्रार्थना
करने में लग जाइये। जिससे हम सब लोग सेना सहित रावण
द्वारा पात्ित लड्ढा में पहुँच जाँय ॥ ४१ ॥
»एबमुक्तः कुशास्तीर्णे तीरे नदनदीपते; ।
>> संविवेश तदा रामो वेद्यामिव हुताशन। ॥ ४२॥
इति एक्रेनविशः सर्गः ॥
इस प्रकार कहे जाने पर श्रीरामचन्द्र जी बेदी के वीच में
स्थापित अश्नि की तरह सप्तुद्र के तठ पर कृुश विछ्ा कर बैठ
गये ॥ ४३२ ॥
युद्धकाण्ड का उन्नीसवाँ से पूरा हुआ ।
“मै वन
विशः सर्गः
“-- ्
ततो निविष्ठां ध्वजिनीं सुग्रीवेणाभिपालिताम ।
ददश राक्षसोञ्भ्येत्य शादूलो नाम वीय॑वान् ॥ १॥
समुद्र तट पर झिकी हुई छुप्रीव की वानरो सेना के देखने के
लिये या उसका भेद लेने के लिये, एक वलवान् राक्षस, जिसका
नाम शाइंल था, झाया ॥ १॥
चारो राक्षसराजस्य रावणस्य दुरात्मनः |
तां दृष्ठा सबेतो व्यग्रं प्रतिगम्य स राक्षस || २॥
विंणः सर्मे: १५६
यह शादूल दुष्ट रात्तसराज रायगा का जासूस था प्रोर बड़ी
सावधानी से यहाँ का साया च्रृत्तान्त प्रपनी श्राँखों से देख,
लोट गया ॥ २॥
प्रविश्य लद्टां वेगेन रावण वाक्यमत्रवीद ।
एप वानरक्र॒क्षाघों लट्टां समभिवतंते ॥ ३ ॥
लड़ में बड़ी शीघ्नता से पईँच उसने रासग से कहा--है राजन !
यानरों शोर भाल्वुप्ों के दल लट्ञा के समीप था पहुँचे दे ॥२॥
अगाधश्याप्रमेयश्न द्वितीय इव सागर! |
पुत्रा दशरथस्पेमों भ्रातरों रामलक्ष्णणा ॥ ४ ॥
| यद भालुग़्ों शोर वानरों का दल्त, दुष्प्रवेश्य, शोर प्रसंख्य
धआर दूसरे सपुठ जैसा जान पड़ता है। दशरथ के पुत्र दोनों भाई
राम प्रोर लक्ष्मण ॥ ४॥
उत्तमायुधसम्पन्नो सीताया; पदमागता ।
एतो सागरमासाथ सन्निविष्टो महाद्युती ॥ ५ ॥
उत्तम झायुधों से सुसज्ञित सीता का उद्धार करने के लिये
धाये हुए हैं। ये दोनों मद्ायुतिमान् समुद्र के तढ पर ठद्रे हुए
हैं॥+»॥ ु
वलमाकाशमाहत्य ' सबंतो दशयोजनम् |
तत्त्वभूत॑ महाराज क्षिप्र॑ं वेदितुमहसि ॥ ६ ॥
इनको सेना दस येजन के घेरे में ठहरो हुई है । मैंने सयासरी
में जे कुछ देखा से निवेदन किया --आप शव ठीक ठीक तृत्तान्त
मेंगवा लें ॥ ६ ॥
१ आांकाशं-- अवकाश । ( गे।० )
१६० युदका्डे
- तब दूता महाराज क्षिप्रमहेन्त्यवेक्षितुस् |
क्उपप्रदान सान््त्व॑ वा भेदों वात्र प्रयुज्यताम | ७ ॥
है महाराज | झापके दूत तुरूत हो यह ज्ञान शआावे कि,
' शत्र का पराजित करने के लिये, साम, या भेद् प्रथवा जानकी का
' देना, इनमें से कौन सा उपाय करना उचित है ॥ ७॥
शादूलस्य वचः श्रत्वा रावण राक्षसेश्वरः
उवाच सहसा व्यग्रः सम्प्रधायायथिमात्मनः |
श॒ु्क॑ नाम तदा रक्षों वाक्यमथ्थविदां बरस | ८
शाइल के ये वचन खुन, शात्तसेश्वर रावण सद्दसा व्यप्न हो
उठा) फिर सलीभाँति सोच विचार कर, शुक्र नामक कार्यपटु
राक्षस से वोजला॥ ८॥
सुग्रीव॑ ब्रहि गत्वा त्व॑ं राजान॑ वचनान्मम ।
यथा सन्देशमछीवंर शल॒क्ष्णणा परया३ गिरा ॥ ९ ॥
है शुक | तू चानरराज' सुग्रीव के समीप जा म्रेरी ओर से
कठोरता रहित, खुनने येग्यवाणी से किन्तु निर्भीक हो, यह सन्देशा
कहना ॥ 8 ॥
त्वं वे महाराज कुलप्रसतो
महावलश्चक्षेरणःसुतरच ।
न करिचिदर्यस्तव नास्त्यनथ
तथा हि मे भ्राठ्समों हरीश ॥ १० ॥
१ इपप्रदानं--सीतायाः । (रा०) २ भक्तोब--सधाष्टयमित्यर्थ: | ( गे।० )
दे परया--श्राव्यया । (गे।०)
विंशः सर्गः १६१
महाराज ! झाप कुलीन शोर महावलवान् हैं। आप ऋत्तराज
के पुत्र हैं। प्मतः आपके मेरे साथ निष्कारण बैर करना उचित
नहीं । थ्रीरामचन्द्र जो की सहायता करने से आपका कुछ लाभ
नहीं होगा ओर यदि उनकी सहायता न करेगे ते तुम्दारी कुछ
हानि भी नहीं होगी । फिर तुम ऋत्तराज के पुत्र भोर ब्रह्मा के
पोन्न होने के कारण मेरे भाई के तुल्य हो ॥ १० ॥
अहं यद्यहरं भायी राजपुत्रस्य 'धीमतः ।
कि तत्न तव सुग्रीव किप्किन्धां प्रति गम्यताम ॥११॥
हे बुद्धिमान सुप्रीव ! यदि में राजकुमार राम की स््री दर लाया
तो इससे तुमको क्या ? शतः तुम अपनी राजधानी किम्किन्धा
को लव जाओ ॥ ११॥
न हीय॑ हरिमिलक्ञा शक््या प्राप्ुं कथश्वन |
देवेरपि सगन्धवें: कि पुननेरवानरे ॥॥ १२॥
क्योंकि ज्ञग इस लड्ढा के देवता ओर गन्धवे ही नहीं जीत
सकते, तब मनुष्यों गोर वानरों की तो विसाँत ही क्या है ॥ १२॥
स तथा राक्षसेन्द्रेण सन्दिष्ठो रजनीचरः ।
शुके विहृद्गमों भूत्वा तृणमाप्छुत्य चाम्बरस ॥ १३॥
इस प्रकार रावण की शथ्ाज्ञा पा कर, राक्षस शुक, पत्नी का
रूप धारण कर, तुरन्त आकाश में उड़ा ॥ १३ ॥
स गत्वा दृरमध्वानमुपयुपरि सागरम् |
संस्थितो हयम्बरे वाक्य सुग्रीवमिदमत्रवीत् ॥ १४ ॥
१ घीमत*--हति सुम्ीवल्थ विश्येष्ण ( ये।० 2
वा० रा० यु०--११
१६२ युद्धकाणडे
समुद्र केऊपर ऊपर वहुत दूर तक आकाश में उड़ श्रोर
वानरों को सेना के समीप पहुँच आकाश में खड़ें ही खड़े शुक् ने
खुम्नीव से ॥ १० ॥
स्ेमुक्तं यथादिष्टं रावणेन दुरात्मना ।
है ५ ५0 «2 2
ते प्रापयन्त वचन दूरशंमाप्लुत्म वानरा। ॥ १५ ॥
प्रापच्चन्त दिव॑ प्षिप्रं लोप्त॑ हन्तूं च मुष्ठिभि! ।
स ते; छुवहू। प्रसम॑ निमृहीतो निशाचर! ॥ १६ ॥
गगनाद्भतले चाशु परिगृद्य निपातितः
वानरे; पीज्यमानस्तु शुक़्ो वचनमत्रवीत् ॥ १७ ॥
वे सब वातें कहीं, जे। दुयत्मा रावण ने कहलायी थीं। राक्तस
शुक इस प्रकार रावण का सन्देसा खुना रहा था कि, चानरों ने
उछल कर उसे पकड़ लिया भर पे उसे घूं सों से मारने लगे । फिर
वाधऋर वे उसे नीचे त्ते आाये। जब वानरों ने शुक के वहुत मारा,
तव उसने कहा ॥ १५॥ १६ ॥ १७ ॥
न द्तान्म्नन्ति काकुत्स्थ वायन्तां साधु वानराः
यस्तु हिल्वा मतं भतेंः खम्त॑ सम्प्रभाषते ॥ १८ ॥
हे साधु ! दे काइुत्स्थ | दूत नहीं मारे जाते। ऋतः इन वानरों
के राकिये | जे दूत अपने मालिक का सन्देसा न कह कर, ध्यपना
मठ प्रकाशित करता है ॥ १८॥
अनुक्तवादी दृतः सनन््स दूतों वधमदति ।
शुकश्य वचन श्रुत्वा रामस्तु परिदेवितम )। १९ ॥
वह दूत अनुक्तवादी कहलाता है झोर वही मार डालने याग्य है ।
श्रीरामचन्द्र जी ने शुक के ये वचन ओर गिड़गिड़ाना खुन ॥ १६ ॥
विंशः सर्गः * १६३
उबाच मा वधिष्ठेति प्लतः शाखामगपभान् ।
ए
सच पत्रलघुभूत्वा हरिभिदेर्शिते भये ।
अन्तरिक्षस्थितो भूत्वा पुनवंचनमत्रवीत् || २० ॥
उन मार डालने के लिये उच्चयत वानस्यूथपतियों से कहा,
ठुम लोग दूत के प्राण मत त्ञे। । तब राक्तस शुक्र वानरों के भय से
भीत हो आर छोटा रूप धारण कर, श्याकाश में खड़े खड़े पुनः
कहने लगा ॥ २०॥
सुग्रीय सत्त्तसम्पन्न महावलपराक्रम |
कि मया खलु वक्तव्यों रावणो लोकरावण) ॥ २१ ॥
है महावल्षवान्, पराक्रमी एवं. सत्वसस्पन्न सुश्रीव ! लोकों को'
रुल्ानेवाजले रावण के पास जाकर में क्या कहूँ ? ॥ २१ ॥
से एवमुक्तः छवगाधिपस्तदा
परवद्धमानामृप भो महावल्! ।
उधाच वाक्य रजनीचरस्य
चार शुर्क॑ दीनपदीनसक्त्। ॥ २२ ॥
जब शुक ने कपिराज से इस प्रशार कहा, तब महावल्ी एवं
अदीन कषिश्रेष्ठ खुप्रोच ने रावण से कहने के लिये दीनता को प्राप्त
शक्तसदुत शुक्र से यह कहां ॥ २२ ॥
न मेउसि मित्र न तथाजुकम्प्यो
न चोपकर्ताइसि न मे प्रियोडसि ।
अरिश्व रामस्य सहानुवन्ध:
स मेजसि वालीव वधाई वध्यः ॥ २३॥
१६७ | युद्धकाणडे
कि; तुम मेरी और से रावण से यह कह देना कि, न तो तुम
मेरे मित्र हो, न तुम द्यापान्न हो, न तुम मेरे उपकारकर्ता हो
ओर न तुम मेरे प्रिय ही हो। अतः तुम मुझे अपने भाई के तुल्य
क्यों समझते हो ? प्रत्युत तुम ता श्रीरामचन्द्र जी के शत्र होने के
कारण मेरे शत्न हो ओर सपरिवार, वाली की तरह मार डालने
के येग्य हो ॥ २३ ॥
निहन्म्यहं ता ससुतं सवन्ध॑
सज्ञातिवग रजनीचरेश |
लड्ढटां च सी महता वलेन
क्षिप्रं करिप्यामि समेत्य मस्प ॥ २४ ॥
है रजनीचरेश ! में तुमके पुत्र, वन्धु ओर कुदुम्ियों सहित
मारुँगा | में पड़ी भारी सेना साथ ले कर आ रहा हूँ आयौर शीघ्र ही
तुम्हारी समस्त लड्ढा के भस्म कर, छार छार कर डालू गा ॥२७॥
न मोक्ष्ससे रावण राघवस्य
सुरे! सहेन्द्रेरपि मृढ गुप्त! ।
अन्तर्हितः सयप्थ गतो वा
नभो न पातालमनुप्रविष्ठ; ॥ २५.॥
है मृढ़ रावण | तू श्रीरामचन्द्र से वच्च न सरेगा। भत्ते ही
इन्द्र सहित समस्त देवता तेरी रक्ता के लिये कव्विद्ध हो ज्ञाँय,
अथवा तू छिप ज्ञा अथवा तू खूर्ममार्ग में चला जा अथवा
ध्याकाश या पाताल ही में घुस जा ॥ २४ ॥
तस्य ते त्रिषु छोकेपु न पिशाचं न राफ्षसस् |
त्रातारमनुपश्यामि न गन्धवे ने चासुरम ॥ २६ ||
' बिंशः स्गः १६४
मुझे तो तीनों लोकों में ऐसा कोई भो पिशात्र, रात्तस, गन्धव
या देत्य नहीं देख पड़ता, जे। तुमे बचा सके ॥ २ ॥
अवधीयज्जराहडं ग्ृधराजानमक्षममर् |
कि नु ते रामसान्रिध्ये सकाशे लक्ष्मणस्थ वा ॥२७॥
तूते उस बूढ़े जज्न॑र ग्रद्धराज बढायु के मार डाला से अपने
के वल्वान समभ वल के घ्रमाड में मत भूलता। यदि तुक्के
वलवान् द्वोने का दावा था, तो तूजे श्रोपम्रवन्ध या लक्ष्मण के
सामने सांता क्यों न हरीं? ॥ २७॥
हवा सीता विज्ञालाक्षी यां तं ग्रहद्य न वुध्यत्ते |
महावर्ू महाप्राजं दुर्धपममरेरपि || २८ ॥
न चुध्यसे रघुश्रेष्ठं यस्ते पराणान्हरिष्यति ।
ततोअब्रवीद्वालिसुतस्लड्रदो दरिसत्तमः ॥ २९ |॥
तू विशालाक्षी सीता का दरते समय यह न समभा कि, बड़े वल्ली,
धघीरज्नधारी और देवताओं से भी श्रजेय रघुश्ेठ्ठ भ्रोगमचन्द् तेरे प्राण
हर लेंगे । तदनन्तर कपिश्रेष्ठ चालिखुत अड्भद ने कहा ॥ २८॥ २६॥
नाय॑ दूतो महाराज चारिकः प्रतिभाति मे ।
के ९ ०५]
'तुलितं हि वलं सबमनेनात्रेव तिप्ठता || २० ॥
महाराज यद्द दूत नहीं, वल्कि जाघुस ( भेदिया ) हे । इसने यहाँ
इतनी देर ठदर कर, हमारो समस्त सेना झोर व्यूद का रहस्य ताड़
लिया है ॥ ३० ॥
ग्रह्मतां मा गमछझ्भामेतद्धि मम रोचते ।
ततो राज्ञा समादिष्टा! समुत्खुत्य वलीप्रुवा। | ३१ ॥
१६६ युद्धकाणडे
मुझको तो यह ध्च्छा जान पइता है कि, यह पकड़ लिया जाय
ओर लड्ढम न जाने पावे। यद् खुन, कपिराज की भ्राज्ञा से वानरों
ने उछल कर, ॥ ३२१ ॥
जग्रहुस्तं बवन्धुश्च विलपन्तमनाथवत् |
शुकस्तु वानरेश्चण्टेस्तत्र तेः सम्प्रपीडित: ॥ २२ |
उसे पकड़ कर वाँच लिया । तव चह अनाथ की तरह चिलाप
करने लगा | जव राकत्तस शुक के उन प्रचणड पराक्रमी वानरों ने
बहुत सताया ॥ ३२१ ॥
व्याक्रोशत महात्मानं राम दशरथात्मजम् ।
लुप्येते मे वलात्पक्षों भिद्येते च तथाउक्षिणी | ३३ ॥
तव वह दाशरथी श्रीगमचन्द्र जी का नाम लेकर जिछ्लाने लगा
झर कहने लगा, देखिये देखिये ये धानर वस्जेरी मेरे पड उखाड़े
लेते हैं ओर आँखें फोड़े डालते हैं ॥ ३३ ॥
याँ च रात्रि मरिष्यामि जाये रात्रि च यामहम् ।
एतस्मिन्नन्तरे काले यन्मया हज्ु्ष कृतं ।
सर्व तहुपपद्चेथा जह्मां चेद्दि जीवितम् ॥ ३४ ॥ *
जिस दिन से में उत्पन्न हुआ हैं ओर जिस दिन में मरूँगा,
इस वीच में मेंने जे! पाप किये हैं, महाराज | यदि में मर गया ते
वे सब आपके लगेंगे॥ ३४ ॥
'नाधातयत्तदा राम; श्रुत्वा तत्परिदेवनग् ।
वानरानब्रवीद्रामो मुच्यतां दूत आगतः ॥ ३५॥
' इति विश सर्गः ॥
पकप्रिशः सर्गः १६७
उस समय उसका ऐसा विलाप छुन, भ्रीरामचन्द्र जी ने
उसकी रतक्ता को आर धानरों से कहा-यह दत वन कर भाया है।
इसे छोड़ दा, मारो मत ॥ ३४ ॥
युद्धकायढ का वीसवाँ सर्ग पूरा दुआ ।
असल
एकविशः सर्गेः
4 यसक
ततः सागरवेलायां दर्भानास्तीर्य राघव; |
अश्जलिं प्राइग्मुखः छत्वा प्रतिशिश्ये महोदघे। ॥ १ ॥
तदनन्तर भ्रीरामचन्द्र जी समुद्र के तट पर कुश विह्ला कर,
समुद्र से चर की प्रार्थना करने के लिये पूर्वमुख हो और हाथ जोड़
कर लेट गये ॥ १॥
वाहँ 'शुजगभोगाभसुपधायारिसूदन!
जातरूपमयश्रव भूपणेभूषितं पुरा ॥ २ ॥
ध्रिखदन श्रीरामचन्द्र जी ने सर्प के समान अतिकाोमल
अपनी उस वाँह का तकिया लगाया, जे सोने के आाभूषणों से
भूषित इआ करती थी॥ २ ॥
वरकाअनकेयुरसुक्ताभवरभूषणे! ।
भुजे! परमनारीणामभिमृष्ठमनेक था ॥ रे ॥
१ झुजगमागासं- अद्विकायवत अतिझदु् बाडु । ( गे० )
१६८ युद्धकायडे
क्रयाध्या में रहते समय महाराज की जे भुजाएं काञ्चन के
उत्तम विजञायठों झोर मेतियों के श्रेष्ठ भूषणों से भूपित होती थीं,
जिनके धनेक वार परम रूपवती दासियों ने वालकपन में वारंवार
दवाया या सहराया था, ॥ ३॥
चन्दनागरुभिश्वेव पुरस्तादधिवासितस् |
वाल्मूयप्रतीकारैशन्दनैरुपशोंमितम् ॥ ४ ॥
जे चन्दन अगर आदि झुगन्धित लेपों से खुदासित हुआ
करती था. जे। प्रमातक्वालीन एूर्य की तरह लाल लाल चन्दन से
शोमायमान हुआ करनी थीं, ॥ ४॥
शयने चोत्तमाड़ेन सीताया। शोभितं पुरा |
तक्षकस्येव सम्भागं गह्लाजलनिषेवितम् ॥ ५ ॥
जे क्रिपो समय सोता के मस्तक के नोचे रखी हुई शोभा को
प्राप्त होतो थीं, जे। गड्गुजल निषेदित तक्तक के शरीर के समान
लंदो थीं, ॥ ५ ॥
संयुगे "युगसझ्जाश शत्रणां शाकवधनस् |
सुहृदानन्दन दोध 'सागरान्तव्यपाश्रयस््र ॥ ६ ॥
जे युद्ध में गेपुर के अर्गंल को तरह जान पड़ती थीं जो
शत्रओं का शाक वढ़ाने वाली थीं ओर खुहदों के आनन्द देने
वाली और जिसके अवलम्बन कर सूसागरा पृथिवों टिकी हुई
है, ॥ ६ ॥
१ युवसंकाइ--गोयुरागलवत् प्रत्तिमटनिवारक । ( गोा० ) ३ झापरोन्दे-
यत्यात्ों सापरानतः सूमग्ड्ं | (गे०) ३ ध्यवाश्र्यं --आ रूम्बनभूतं । (ग्रे०)
एकत्रिशः सगे; ' १६६
अस्यता च पुनः सब्यं #ज्याघातविगतलचम ।
दक्षिणो दक्षिण बाहूं महापरिघसन्रिभम् ॥ ७॥
घोर जे बाँया हाथ वाण केइने के कारण प्रत्यथ्ा के ग्राधात
चिह से चिहित हो रहा है और जे दहिनी श्ुजा बड़े परिध के
समान है ॥ ७॥
गोसहसप्रदातारमुपधाय महत्गुजम् |
अद्य मे *परणं वाउ्थ तरणं सागरस्य वा ॥| ८ ॥
शोर जिस द्त्तिण भ्रुत्रा के द्वार इज़ारों गोशों का दान दिया
जाचुका है, उसी उत्तम भुजा का अपने सिर के नीचे तकिये की
जगद रख और यह द्वुढ़ सहुद्प कर कि, आज्ञ या ते में समुद्र के
पार हो जऊँगा अथवा समुद्र का मरण ही होगा ॥ ५ ॥
इति रामो मर्ति कृत्वां महावाहुमेहोद्धिस् ।
अधिशिरये च विधिद्मययतों नियतो मुनि; ॥ ९ ॥
यह विचार कर, मद्दावाहु श्रीरामचन्द्र जो समुद्र पार करने का
इृढ़ विश्वास कर श्रोर मोन हो, यथाविधि पे” यथानियम लेट
गये ॥ ६ ॥
तस्य रामस्य सुप्तस्य कुशास्ती्ें महीतले ।
नियमादप्रमच॒स्य निशास्तिस्रो व्यतिक्रमु। ॥ १० ॥
सावधानी से नियमपूर्बक पृथिवी के ऊपर कुशों की चढाई पर
क्वेटे लेटे श्रीरामचन्द्र जी ने तीन दिन ओर तीन रात बिता दीं ॥१०।
१ मरणं--सप्गरस्य मरणं । ( गे० ). + पाठास्तरे--" व्याधाताबिधव-
तलचम् |” था “ ज्याधातविदतत्वचस् |. पाठन्तरे-- निश्वास्ति-
स्ोतिचक्रपु: | ! वा “ निशास्ति खरोउमिजग्मुतु: |
श्छ्० - युद्धकासड
स त्रिराज्रोपितस्तत्र नयज्ञों घमंवत्सलछः ।
उपासत तदा राम! सागर सरितां पतिम || ११ ॥
नीतिकुशल पवं धर्मात्मा श्रोसामचन्द्र जी ने इस प्रकार तीन
यत वास कर, नदीपति समुद्र की आराधना की ॥ ११॥
न च दशशयते मन्दस्तदा रामस्य सागरः |
प्रयतेनापि किक. ए् 4
प्रयतेनापि रामेण यथाहममिपूमितः ॥ १२ ॥
यद्यपि श्रोरामचन्द ज्ञी ने सपुठर का यधाविधि खसत्कार कर
उसके प्रसन्न करने का प्रयल्ल किया, तथापि वह सूखे श्रीरामचन्द्र
जी के सामने प्रकट न हुआ ॥ १९ ॥
समुद्रस्य तत; क्रद्धों रामो रक्तान्तलोचनः ।
समीपस्थमुवाचेद॑ लक्ष्मणं शुमलक्षणम् | १३॥
तव ते श्रीरामचन्ध जी के समुद्र की इस सूर्खता पर बढ़ा
क्रोध उपजा और मारे क्रोध के उनके लेन्न लाल हो गये। उन्होंने
पास वेठे हुए और शुभ लक्षणों से युक्त लक्ष्मण से कद्दा ॥ १३॥
अबलेपः समुद्॒स्य न दशयति यत्खयमस ।
प्रशमथ् क्षमा चेद आजवबं प्रियवादिता ॥ १४॥
देखे समुद्र के इतना अभिमान दे कि, वह स्वयं प्रकट नहीं
होता। इसका कारण सी स्पष्ट ही है। वह यह कि, झक्रोधता.
शान्ति, अपराध-सहिष्छुता, दूसरे के मन के अनुसार वर्ताव,
अथवा सीधासाधा ( कपठ रहित ) वर्चाच, प्यारा वाल, ॥ १४ ॥
असामथ्य फरन्त्येते निगुणेषु सतां गुणा; ।
आत्मप्रशंसिन दुप्ट धृष्टं विपरिधावकम ॥ १५ ॥
एकन्रिशः सगे: १७१
सर्वत्रोत्सप्टदण्डं च लोक: सत्कुरुते नरम् |
न साम्ना शक्यते कीर्तिन साम्ना शक्यते यश ॥१३॥॥
ये सव शिष्ट संजनों के गुण हैं। ये, गुणहीन मनुष्यों के प्रति
प्रयोग करने से, प्रयोगकर्ता की धअसमर्थवा प्रकट करते हैं। जे
धपनी वड़ाई श्राप करता है, जे! वश्चक और निद्यो है, जे! इधर
उधर दोड़ा करता है, जे। शुणो निर्मुणी सब से दण्ड द्वारा काम
लेता है; उसका ध्यक्षतन सम्मान करते हैं। शान्त वने रहने से न
नामचरो होती है भौर न यश हो प्राप्त होता है ॥ १५॥ १६ ॥
प्राप्तुं लक्ष्मण लोकेजस्मिज्ञयो वा रणमूधेनि |
अद्य मद्धाणनिर्मिन्ेमकरिमकरालयस् ॥ १७ ॥
निरुद्धतोथ्यं सौमित्रे छवद्धिः पश्य सबेतः |
महाभेगानि मत्स्यानां करिणां च करानिह ॥ १८ ॥
है लद््मण ! शान्त बने रहने से युद्ध में ज्ञीत भी नहीं होती ।
सो ध्याज् तुम मेरे वाणों से करे हुए मगर मंच्छों के जल के ऊपर
उतराने से समुद्र के जल के सर्वेन्न ढका हुआ देखेागे। बड़े बड़े
साँपों के और मत्स्यों के करे हुए शरीर जल के ऊपर तैरते हुए देख
पड़ेंगे और जलद्वायियों की सूंड़े कटी हुई दीखेगों ॥ १७॥ १८॥
रभेगिनां पश्य नागानां मया छिन्नानि लक्ष्मण |
सशहशुक्तिकानालं समीनमकरं शरे! ॥ १९ ॥
लक्ष्मण ! तुम देखेगे कि, वड़े पड़े सपों के छित्रमिन्न शरीर
भौर शहर, सीप ओर सेतियों के ढेर के ढेर तथा महल्रियों झोर मगरों
के शरीर वाणों से विदीर्ण है, जल के ऊपर उतरा रहे हैं ॥ १६॥
१ छोक:--अशुजन: | (गा०) रे सेगिना-महाकायानाँ । ( थो० )
१७२ युद्धकायडे
अग्य युद्धेन महता समुद्र परिशोषये ।
प्मया हि समायुक्त मामय॑ मकराछय! || २० |
असमर्थ विजानाति भिकक्षमामीह्शे जने |
न दर्शवति साम्रा मे सागरो रूपमात्मनः ॥ २१ ॥
महायुद्ध कर आज़ ही में समुद्र के जल के खुखा डालूगा,
मुझका अपराधसहिप्णु न मान कर, यह समुद्र मुझे असमर्थ
समझ रहा है। से ऐसे के प्रति ज्ञमाप्रदर्शन के व्िक्कार है। मेंने
अमी तक जे। सामनीति से काम लिया है, इसीसे सागर अमभो
तक भेरे सामने प्रकट नहीं हुआ ॥ २० ॥ २१ ॥
चार्पमानय सौमित्रे शरांश्ाशीविषोपमान् |
गर॑ शोपपिष्यामि पद्भयां यान्तु छ्वद्ञमा। ॥ २२॥
हे लक्ष्मण ! तुम ज्ञाकर मेग धनुष ओर सर्प समान विपयवाले
मेरे चाण तो उठा लाओं। में इस समुद्र का जल खुखा डालू गा,
जिससे मेरे वानर पेदल हो सप्रुद्र पार जा सकेंगे॥ २२ ॥
अद्याक्षोभ्यमपि कऋ्द्धः क्षीमय्रिष्यामि सांगरस् ।
देलासु कृतमर्यादं सहसोर्मिसमाकुछम ॥ २३॥
जा समुद्र सदा तदों की सीमा के सीतर वना रहता है ओर
बड़ी वड़ो” लहरों से परिपूर्ण छोर अन्नाभ्य है उसे में भाज कुपित
हो खलवला दू गा | २३ ॥
निर्मेयांद करिष्यामि सायकैदरुणालयम् |
महाणवं क्षोमयिष्ये कमहानक्रसमाकुऊझय || २४ ॥
* पाठान्तरे--' सदहादानवपतहुरूस |
एकविशः सर्गः १७
में अपने वाणों से बड़े वड़े नक्रों से भरे हुए इस वरुणालय
महासागर के निर्मयाद कर चुत्ध कर डालू गा ॥ २४ ॥
एवबपम्रुक््तवा धनुष्पाणि: क्रोधविस्फारितेक्षण) ।
(०७
वभूव रामो दुधपों युगान्ताभ्रिरिव ज्वलन्ू ॥ २५ ॥
इस प्रकार कद रघुनाथ जी ने धनुष हाथ में ज्ञिया । उस समय
क्रोध के मारे उनकी त्योरों बदल गयी । उस समय वे प्रत्मयकालीन
अप्ति की तरह प्रज्वलित हो दुर्धष हो गये ॥ २४ ॥
संपीड्य च धमुघेरें कम्पयित्वा शरेजंगत् ।
मुभोच विशिखानुग्रान्वज्ञानिव शतक्रतुः | २६ ॥
तद्नन्तर श्रीरामचन्द्र जी ने धनुष पर रेादा चढ़ा, उसकी व्ड्डार
से समस्त जगत के कँपा दिया। वे उम्र बाणों के! उसी प्रकार
इने लगे, जिस प्रकार इन्द्र वच्न छोड़ते हैं ॥ २६ ॥
ते ज्वलन्तो महावेगास्तेनसा सायकेत्तमाः ।
- प्रविशन्ति समुद्रस्य सलिलं त्रस्तपन्नगस | २७ ॥
वे तेज्ञ से प्रत्वल्लित तीर बड़े वेग से सप्तुद्र के जल में घुसने
लगे, जिससे समुद्र के जल में रहने चाके सर्प त्र॒स्त हो गये॥ २७॥
तेयवेग! समुद्रस्य सनक्रमकरों महान् ।
सम्बभूव महाघोर। समारुतरवस्तदा ॥ १८ ॥
उस समय मछली मकरादि प्राणियों से युक्त सघुद्र का बड़ा भारी
वेग, प्रचणड पवन के मोंकोों से वड़ा भयद्भर शब्द करने लगा ॥२८५॥
महोर्मिजालविततः शह्वशुक्तिसमाहतः ।
सधूमपरिहचोमि! सहसा5थ्सीन्महोदधिः ॥ २९ ॥
२७७ युद्धकाणडे
समुद्र में चारे। शोर से तरड्रों के बड़े बड़े समूह उठे, व स्थान
स्थान पर शट्ढ और सीपों के ढेर के ढेर छितराने लगे । सव तरफ
से लहरों के साथ घुर्शाँ सा उठता देख पड़ा। देखते ही देखते
समुद्र का रूप विकराल हो गया ॥ २६ ॥
व्यथिताः पतन्नगाश्चासन्दीप्तास्या दीप्रठोचना; ।
दानवाइच महावीय्यां! पातालतलवासिनः || ३० ॥
उसमें रहने वाले परदीक्त मुख वाले तथा प्रदीक्त नेन्न वाले साँप
सथा पातालवासी मदावलवान् दानवगण व्यथित हुए ॥ ३० ॥
ऊमयः सिन्धुराजस्य सनक्रमकरास्तदा |
विन्ध्यमन्दरसड्ाशाः समुत्पेतु। सदखश! || ३१ ॥
मिन्घुराज़् की विन्ध्य ओर मन्द्राचल के समान ऊँची ऊँची
तथा नक्र मकरें से युक्त हज्ञारों लहरें उठने लगीं॥ ३१॥
८८ े
आधूर्णिततरड्भोघः सम्प्नान्तोरगराक्षसः |
उद्दर्तितमहाग्राइः #सघोषोवरुणालयः ॥ ३२॥
उस समय तरखड्भधमाव्ता ते घूमने ल्वगी। नाग और रात्तस
घबड़ा उठे। बड़े बड़े घड़ियाल उलद गये । सप्रुद्र में बड़े बड़े शब्द
खुद पड़ने लगे ॥ २२ ॥
ततस्तु त॑ राघवमुग्रवेगं
प्रकर्पमाणं घनुरभमेयं |
सोमित्ररुत्पत्य समुच्छबसन्तं
मामेति चोक्त्वा पनुराललम्बे || ३३ ॥
* पाठान्तरे-- संवृत्त: सलिछाशयः । ”
पक्षविश: सर्गः १७५
. इस प्रकार धनुष के खींचते, वड़ी शीघ्रता पूषक वाणों को
छोड़ते ओर ज़ोर से स्वास लेते हुए भ्रीरामचन्द्र जी के देख,
लक्ष्मण ज्ञी ने " ऐसा न कीजिये ” कह कर धनुष का पकड़
लिया ॥ ३३ ॥
[ एतद्दिनापि ह्ृदधेस्तवाद्य
सम्पत्स्यते वीरतमस्य कायम ।
भवद्विधा। कोपवर्ण न यान्ति
दीघे भवान्पश्यतु साधुदरत्म् || ३४ ॥
ओर वेले-हे प्रभे ! इस उपाय को काम में लाये त्रिना भी,
दूसरे उपाय से आपका काम हो सकता है। देखिये, आप जैसे
महापुरुष के क्रोध करना उचित नहीं | आराप अपनी सदा की
साधुच्रत्ति की ओर देखिये ॥ ३४ ॥
अन्त्ितिश्वेव तथाउन्तरिक्षे
ब्रह्मर्पिसिश्वेव सुरपिभिश्व ।
गब्द। कंतः कष्टमिति ब्रवद्धिः
मामेति चोक्त्वा महता खरेण ॥ ३५ ॥ ]
इति एकर्विशः सगे ॥
तद्वन्तर आ्राकाशचारी ओर झद्गृश्य ब्रह्मषियों तथा देवियों
से भी दुःख प्रकठ कर चिल्ला कर कहा, ऐसा न कीजिये ॥ ३५ ॥
युद्धकागड का इक्कीसर्वाँ स्ग पूरा हुच्मा |
रन» #2---
दाविशः समेः
५... 3१ :त्व ८
अथोवाच रघुश्रेष्ठ; सागरं दारुणं वचः ।
अद्य लां शोषयिप्यामि सपातालं महाणव ॥ १ ॥
रघुश्रेण्ठ भीरामचन्द्र जी समुद्र को सम्वेधन कर यह दारुण
न वाले कि, हे महाणंव! श्ाज में तेरा पाताल तक का जञत्त
खुखा डालू गा ॥ १ ॥
शरनिदग्धतोयस्य परिशुप्कर्य सागर ।
मया शोपितसच्तस्य पांउुरुतगते महान || २॥
है सागर | भेरे वाणों द्वारा तेरा जल छूख जञायगा | तेरे भीतर
रहने चाते समस्त जअलजन्तु मर जाँयगे। फिर खूब धूल उड़ने
लगेगी ॥ २ ॥
मत्कामुकविसप्टेन झरवर्षेण सागर |
पार तेघष्च गमिष्यन्ति पद्धिरेव छुवद्भमा! ॥ ३ ॥
है सागर ! मेरे धडुप से छूटे हुए तीरों को चर्षा से, चानर उस
पार पैदल ही चले जाँयगे॥ ३॥
विचिन्दज्ञाभिनानासि पोरुष॑* वाउपि विक्रमस |
दानवालय सनन््ताप॑ मत्तो नाधिगमिष्यसि ॥ ४ |
हे दानवालय | तू भेरे वल्ष ओर पराक्रम के नहीं ज्ञानता झौर
मत्त द्वीने के कारण न तुझे आगे होने वाले अपने सनन््ताप ही का
छुछ ज्ञान है ॥ ४ ॥
१ पौरुषे-बरलूं | ( गो० )
है|
द्वाविश। सर्गः १७७
आआह्मणास्धेण संयोज्य 'ब्रह्मदण्डनि्भं शरस् ।
संयोज्य धनुषि श्रेष्ठे विचकर्ष महावलु) ॥ ५ ॥
यह कह महावली श्रीरामचन्द्र जी ने ब्रह्मशाप की तरह अमभेघ
पक वाण ब्रह्मास्र के मंत्र से अभिमंत्रित कर, अपने श्रेष्ठ धपुष पर
चढ़ा कर, वड़े ज्ञोर से खींचा ॥ ५ ॥
तस्मिन्विकृष्टे सहसा राघवेण शरासने ।
|
ररोदसी १सम्पफालेव पर्वताश्व चकम्पिरे ॥१॥
जव श्रीरामचन्द्र जी ने सहसा वह बाण घल्नाने को रोदा खींचा
तब ऐसा जान पड़ा, मानों आकाश और प्ृथिवी;फरटी पड़ती है।
उस समय पहाड़ काँपने लगे ॥ ६ ॥
तमश्च लोकमावत्रे दिशश्च न चकाशिरे ।
प्रिचुक्षुभिरे चाशु सरांसि सरितस्तथा ॥ ७॥
सर्वन्न अन्धचकांर छा गया, दिशाएँ प्रकाशशुन्य हो गयीं ।
सरोवरें शोर नदियाँ खलबला उठीं ॥ ७॥
तियंक्च सह नक्षत्र! सड्गतों चन्रभास्करों ।
भास्करांशुभिरादीप्तं तमसा च समाहतम् ॥ ८ ॥
नत्गष्यों सहित सूर्य चन्द्र की गति तिरक्तली हो गयी । उस समय ,
खूय के रहते भी ध्याकाश में अन्घकार छाया हुआ था ॥ ८॥
प्रचकाशे तदाकाशम्ुल्काशतविदीपितस् ।
अन्तरिक्षात् निर्धाता नि्मम्युरतुछठ्खना; ॥ ९ ॥
१ अहादुण्डः--अह्मश्ापः तढ़दमघोमित्यथः । ( गे ) ३ रोद्सी--धावा-
पूथिन्यों । ( गो० ) ३ सम्पफालेव--भिन्नेडव ।
थवा० रा० यु०--१२
श्ष्द युद्धकाणडे
सैकड़ों प्रदीप्त उदकरा्थों से भ्राकाश प्रद्दीत्त हो गया शोर विजली
की कड़क की तरद्द शब्द से वार वार नादित हो गया ॥ ६ ॥
पुस्फुरश्च घना दिव्या दिवि मारुतपठसक्तय; |
वभञ्ञ च तदा इक्षाक्षलदानुद्रहञ्मपि || १०॥
घ्याकाश में बड़े वेग से पवन चलने लगा, जिसने प्नेक जूत्तों
के उखाड़ डाला ओर वह आकाश में मेघों के इधर उचर उड़ाने
भी लगा॥ १० ॥
अरुजंश्वव गैलाग्राज्शिसराणि प्रभञ्ञनः ।
दिविस्पृश्गों महामेघा! सड्भगता।! समहाखनां! ॥ ११ ॥
£ बड़े बड़े पहाड़ों से दक्रा कर पवन उनके शिखरों के गिराने
लगा | आकाशस्परशों बड़े वड़े वादल आकाश में बड़े ज्ञोर से गर-
जने लगे ॥ ११ |!
मुमुचुवेद्रुतानभ्रीस्ते महाशनयस्तदा ।
यानि भूतानि दृश्यानि चक्रुशुशआाशने! समय ॥ १२॥
धाकाश से अप्निमय चञ्भनपातव होने लगा। उस समय जितने
जीवधारी दिखलाई पड़ते थे, चे सव के सब बच्ध के समान महा-
सयडुर शब्द कर रहे थे ॥ १२ !|
अद्श्यानि च भृतानि मुम्नुतुभेरवखनम् |
शिश्यरे चापि भदानि संन्रस्तान्युद्विजन्ति च ॥ १३ ॥|
जो ज्ीवधारी अद्दश्य थे; वे खव भी बड़ा भयद्डुर शब्द करने
लगे। वहुत से मारे डर के विकल हो, लेट गये ॥ १३ ॥|
द्वाविशः सर्गः १७६
सम्प्रविष्यथिरे चापि न च पस्पन्दिरे भयाव ।
सह भूते। सतेये।रमिं। सनाग! सहराक्षस; ॥ १४ ॥
अनेक चिकल हो गये भर वहुत से दुःखी हुए । वहुत से मारे
डर के हिल भो न सके; जहां के तहाँ निज्नींव से पड़े रहे।
जल्चर जन््तुओं , तसडुगें, नागों और राक्तसों से युक्त सम्रुद्र में पड़ी
खलवली मच गयी ॥ १४ ॥
सहसाअ्भृत्ततो बेगाद्वीमबेगो महोदधिः ।
योजनं व्यतिचक्राम वेछामन्यत्र सम्पुवात् | १५ ॥
उस समय सहसा सप्ुद्र का बड़ा भयह्ुुर वेग वढ़ गया।
जिससे उसका जल उसके तद के नाँघ, एक याज्नन आगे चढ़ गया ।
ऐसा विना जलप्रलय के कभी नहीं होता॥ १५॥
त॑ तदा समतिक्रान्तं नातिचक्राम राघव! ।
समुद्धतममित्रध्नो रामो नदनदीपतिम् ॥ १६॥
शन्नहन्ता श्रोरामचन्ध जी ने समुद्र के इस प्रकार पीछे हृठते
देख, उस पर शस्प्रयागरूपी श्राक्मण न किया श्र्थात् वाण न
चलाया अथवा भ्रोरामचन्द्र जी समुद्र को चल्लायमान होते देख
कर भी, स्वयं चिचलित न हुए शोर न भ्रपना वाण ही रोदे से
उतारा ॥ १६ ॥
तते मध्यात्ससु द्स्य सागर! खयमुत्यितः ।
उदयन्हि महाशैलान्मेरोरिंव दिवाकरः | १७ ॥॥
तव समुद्र के जल में से स्वयं समूत्तिमान समुद्र ऐसे निकला,
जैसे कि, मेरु नाम के वड़े पर्वत पर सुर्य निकलता है ॥ १७ ॥
श्८० युद्धकायडे
पन्नगे! सह दीप्तास्यें समुद्र! प्रसच्श्यत ।
स्निग्धवेडयेसड्ाशों जाम्वूनद्विभूषितः ॥ १८ ॥
, उसके साथ बड़े बड़े प्रदीघ्त मुँह वाले साँप देख पड़े । सप्रुद्र
के शेर का रंग पन्ने की तरह हरा और चमक्नीला था। वह सेने
के झ्राभूण्णों से भूषित था ॥ १८ ॥
रक्तमात्याम्वरघरः पत्मपत्रनिभेक्षण: ।
(३ ५० क के
स्वपुष्परयी दिव्यां शिरसा धारयन्सजम् | १९ ॥
उसके कमलसद्गश नेत्र थे ओर वह लाल फूलों की माला तथा
जाल ही रंग फे चस्ध पहिने हुए था| उश्के सिर पर सब प्रकार के
पुष्पों की गुथो हुई दिव्य-पुष्प-माला लपढी हुई थी ॥ १६॥
जातरूपमर्येश्रेव तपनीयविभूषित) |
आत्मजानां च रक्ानां भूषितों भूषणोत्तमे! ॥ २० ॥
उसके समस्त भूषण उत्तम खुदश के चने हुए थे, उन भृषणों
में वे ही रत्न जड़े हुए थे, जे। सप्रुद्र ही में उत्पन्न होते हैं ॥ २० ॥
कई; #5ह
घातुभिमेण्डितः शैलो विविभेष्टिमबानिव |
एकावलीमध्यगत॑ तरल कषपाटलप्रभम ॥ २१॥
वद खुचण के आभूषणों के धारण किये हुए ऐसा ज्ञान पड़ता
था, मानों झनेक धाठुओं से भूपित दिमाचल है। । वह मोतियों का '
ऐसा द्वार पहने हुए था, जिसके वीच में गुलावी रंग का रत जड़ा
इुछा था।॥ २१५ ॥
+* पाठान्तरे--“ पाण्डरमसमस् ।
दाधिशः समेः १८१
विपुलेनोरसा विश्वत्कोस्तुभस्य सहोद्रम् ।
आघूर्णिततरड्ञीघ! कालिकानिलसहूछ! ॥ २२ ॥
उसके प्रशस्त चत्त:प्यल पर वद्द रल कोस्तुभमणि के सहोद्र
भाई की तरद् शोभायमान थी । उस समय वद्द उठती हुईं तरंगों,
मेधों भोर तेज़ दवा से पूर्ण था॥ २२॥
गड़ासिन्धुप्रधानाभिरापगामि; समाहतः ।
सागरः समुपक्रम्य 'पूवरमामरू्य वीयवान् || २३॥
गड्ुध सिन्धु भ्रादि पुख्य पुख्य नदियाँ श्रोर नद् उसके साथ थे ।
सम्लुद्र ने भीरामचन्द्र जी के "हे राम |” कह कर प्रथम सम्बोधन
किया ॥ २३॥ ,
अव्रवीत्माञझ्नलिवोक्यं राघवं शरपाणिनम् ।
पृथिवी वायुराकाशमापे! ज्योतिश्व राघव ॥ २४ ॥
तदनन्तर हाथ जाड़ कर, हाथ में ध्रनुष वाण लिये हुए भ्रीराम-
चन्द्र जी से वोला । वे राधत्र ! पृथिवी, जल, तेज, धायु घोर
झ्राकाश ॥ २४ ॥ ््ि
खभावे सैम्य तिप्ठन्ति शाइवतं भागमाश्रिताः ।
तत्खभाषों ममाप्येप यदगाधा5हमछुव) ॥ २५ ॥
घ्रनादिकाल से प्रपने स्वभाव के वश द्वो वर्तते हैं, ध्मथवा ध्पनी
अपनी मर्यादा के भीतर रहते हैं। मेरा भी यददी स्वभाव है कि, में
ध्रगाध हूँ भर इसलिये पार जाने के ध्योग्य हैँ ॥ २४ ॥
विकारस्तु भवेद्गाध एततते वेदयाम्यहम् ।
न कामान्न च लेभाद्दा न भयात्पायिवात्मण ॥ २६ ॥ ..
4 पूवेमामन्त्य-- है रामेति प्रथमं सम्पोध्य | (२०)
शैपर कायडे
है राजकुमार | यदि में उधला दी ज्ञाऊ ते मेरा अन्यथा भाव
है। जाय पर्थात् में पनी स्वाभाविकी सीमा से विचलित हो जाऊं!
यह जा में श्यापसे कह रहा हैँ से पअपने किसी लाभ लोभ या
भय के वश दो नहीं कहता ॥ २६ ॥
ग्राइनक्राइुलगल्ं स्तम्भयेयं कथश्वन |
विधास्ये राम येनापि विपहिष्ये हाई तथा ॥ २७ ॥-
में कमी भी नक्त और मत्स्यों से युक्त अपनी जलराशि के नहीं
रोक सकता। है राम | आपकी इच्छानुसार कार्य करने को में
उच्यत हूँ और आप जे करेंगे, उसे सहूँगा। ध्रथवा श्राप जिस मार्ग
से ज्ञांयगे उसे वतल्ाऊँगा भोर उसका वोस स्वयं सद्द लूं गा ॥२७॥
ग्राह् न प्रहरिष्यन्ति यावत्सेना तरिष्यति।
हरीणां तरणे राम करिष्यामि यथा स्थरूम१ ॥ २८ ||
है राम | जब तक झापकी सेना पार न हो ज्ञायगी कोई भी
, मगर आदि जलजन्तु मार्ग में कुछ भी उपद्रव न करेंगे। में बामरों
के उतरने के लिये पुल की येज्ना कर दूँगा ॥ २८ ॥|
तमव्रवीत्तदा राम उद्यते हि नदीपते ।
अमेघोज्यं महावाणः करिमन्देशे निपात्यताम् ॥ २९ ॥
रास्ता देने के लिये उ्चत सप्तुद्द से श्रीरामचन्द्र जी वोत्ले--
प्रच्छी वात हैं, पर मेरा यह महाबाण अमोध है ( धर्थात् एक वार
लव धन्तुप पर चढ़ा दिया तव उतारा नहीं ज्ञा सकता )-प्रतएव
वतलाओ इसे में किस ओर चलाऊँ ॥ २६ ॥
१ यथास्थरूं भवति-यथासेंदुमागों मवति । (गे।० )
द्वाविश | सर्गः श्ष्३
रामस्य वचन थ्रुत्ला तं च दृष्ठा महाशरम ।
( हि
महेद्धिमेहातेजा राघव॑ वाक्यमत्रवीत् || ३० ॥
उस बड़े शर का देख और श्रीगमचन्द्र जी के बचन खुन,
समुद्र मद्दातेजम्वी श्रोरामच्रन्द्र जी से बोला | ३० ॥
उत्तरेणावक्ाशोअस्ति कश्चित्पुण्यतमों मम ।
हुमकुल्य इति झुयातों लेके ख्याते यथा भवान् ॥३१॥
हे राम | यहां से उत्तर को शोर प्रति पवित्र मेश पक देश है।
चद्द ट्रुमकुल्य नाम से संसार में उसी प्रकार प्रसिद्ध है, जिस प्रकार
शाप प्रख्यात हैं ॥ ३१ ॥
उग्रदशनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः ।
आभीरप्रश्ुखाः पापा पिवन्ति सलिल मम || ३२ ||
पद्दाँ पर भयड्भुर रूप चाले तथा भयडुःर कार्य करने वाले पापी
श्रहीर आदि दाकू रदते हैं, जे मेरा जल पिया# करते हैं ॥ ३२॥
क्र संस्पशन ए बे श
तेस्तु संस्पशन प्राप्रेन सेहे पापकर्ममि! |
अमोघः क्रियतां राम तत्र तेपु शरोत्तम। ॥ ३१३ ॥
हे राम ! मुझे उन पापियों का स्पर्श भी सह्य नहीं है। अतः
घाप प्पने इस उत्तम वाण के वहीं गिरा कर सफल्न कीजिये ॥३श॥
' तस्य तद्र्चनं श्रुत्वा सागरस्य स राघव३ ।
न ४ ए
मुमोच त॑ शरं दीप वीरः 'सागरदशनात् ॥ ३४ ॥
१ सागरदर्शनात्ू- सागरसतैन । (.गे०) . # इससे जान पढ़ता है उस
समुद्र का जक् खारी नहीं था ।
१८४ युद्धकायणडे
श्रीरामचन्द्र जी मे समुद्र के ये चचन सुन, उस प्रदीध्त वाण के
समुद्र के वतलाये हुए स्थान पर गिरा दिया ॥ १४ ॥
तेन तन्मरुकान्तार॑ पूथिच्यां खलु विशुतम् |
निपातितः शरो यत्रः दीक्ताशनिसमप्रभ: ॥ ३५॥
चह वच्च' फे समान प्रदोध्त वाण जहाँ पर गिरा, चद्द स्थान उसी
दिन से मरुकान्तार ( मारवाड़ ) के ताप से पसिद्ध दे गया ॥१५॥
ननाद च तदा तत्र बसुधा शल्यपीडिता |
तस्मादन्रणम्मुखात्तोयमुत्पपात रसातछात् ॥ ३६ ॥
जहाँ पर वह बाण गिरा, वहाँ की भूमि से बड़ा भयकुर शब्द
हुआ प्योर वहाँ एक बड़ा गहरा गढ़ा हे गया। उस गढ़े से रसातत्ल
का जल निकल आया ॥ ३१६ ॥
स वभूव तदा कूपो व्रण इत्यभिविश्रुत) ।
सतत चोत्वितं तेय समुद्रस्येव दृश्यते || २७ ॥
घोर वद् एक कुझ्ाँ वन गया जिसका ब्रण नाम प्रसिद्ध है।
इसमें जे जल रहता है, वह सदेव सप्तुद्र के जल को तरह उच्ुलता
हुआ देख पड़ता है ॥ ३७ ॥
अवदारणशब्द्श्च दारुण; समपच्चत ।
तस्माचद्धाणपातेन त्वप: कुश्षिष्शेोषयत् ॥ ३८ ॥
वाण के गिरते समय पृथिवी फटने का भथद्लुर शब्द हुआ था
ओर बाण जहाँ गिरा चहाँ की भोत्नों और तालाबों का ज्ल'खूख
गया॥ रे८ ॥
विख्यातं त्रिषर लेकेपु मरुकान्तारमेव तत् ।
शोषयित्वा ततः कुक्षि रामो दशरथात्मज: ॥ ३९ ॥
द्वाविशः सगे: था
वर॑ तस्मे ददो विद्वान्मरवेअ्मरविक्रमः ।
पशव्यथ्राल्परोगश्न फलमूल*रसायुतः || ४० ॥
चह स्थान तीनों लोकों में मदकान्तार के नाम से प्रसिद्ध हुश्रा,
उस सप्रुद्रमध्यगत स्थान का जल्न खुखा, श्रमर-विक्रमी दृशरथ-
ननन््दन भ्रीरामचन्द्र जी ने उसे यह घर दिया कि, यह देश पशुझओं
के लिये हितकारक, रोगरहित, फल्नों, मूल्ों और शहद से युक्त
होगा ॥ ३९ ॥ ४० ॥
वहुस्नेहोः वहुक्षीरसुगन्धिर्विविधोषधः ।
एवमेतैगुणैयुक्तो वहुनिः सतत मर ॥ ४१॥
इस देश में घो, दूध की वहुतायत होगी और विविध प्रकार
की खझुगन्धित प्रोषधियाँ होगी | इस प्रकार बहुत से भाग्य पदार्थों
से सदा युक्त वह मरुद्रेश हो गया ॥ ४१॥
रामस्य वरदानान् शिवः एन््थार बभूव है|
तस्मिन्दग्धे तदा कुक्षों समुद्र सरितां पति! ॥ ४२ ॥
श्रीरामचन्द्र जी के वरदान से वह शाभन प्रदेश हो गया।
सप्तुद्र के मध्यगत उस स्थान का जल दुग्ध, हो जाने पर नद्ीपति
समुद्र ने ॥ ४२ ॥
राघवं सवशास्ज्ञमिदं वचनमत्रतीतू ।
अय॑ सौम्य नले। नाम तनुजों विश्वक्रमणखः ॥ ४३ ॥
१ रसश--मधुः। (गे०) २ स्नेद्रः धुत: । ( गे।० ) ३ शिवः पन््था--
शोभनप्रदेश इत्यथः | (गे।०)
१८६ युद्धकारदे
सर्वशासत्रज्ञ श्रीरामचन्द्र जी से यह वचन कहा। हे सॉम्य ! ,
यह नल नामक चानर विश्वकर्मा का पुत्र है ॥ ४६॥
पिच्रा दत्तवरः थ्रीमान्मतिमों विश्वकर्मणा |
एप सेतुं महोत्साइः करोति मयि वानरः ॥ ४४ ॥
इसके पिता विश्वकर्मा ने इसके गद्द चर दिया हैं कि, तुम मेरे
समान हो | से, मेरे जल के ऊपर नल हो वड़े उत्साह के लाथ पुल
बाँत्े ॥ ४४॥
तमहं धारयिष्यामि तथा होप यथा पिता ।
५
एवमुक्त्दोदधिनष्ट: समुत्याय नलस्तदा ॥ ४५॥
में इसके बनाये पुल के धारण करूँगा क्योंकि जेला इसका
पिता है वैसा हो यह भी है । यह कद्द कर समुद्र झन्तर्द्धान है| गया |
तव नल नामक वानर उठा ॥ ४४ ॥
अव्वीद्वानर श्रष्टो वाक्य राम महावरूः |
अहं सेतुं करिष्यामि विस्ती्ं वरुणालये ॥| ४६ ॥
'पृतुः सामथ्यमास्थाय रत्त्तमाह महोदधि |
दण्ड एवं वरो लोक पुरुषस्येति मे मति। ॥ ४७ ॥
०]
शोर उस चानरथ्रे्ट महाचलों चानर ने श्रीसमचन्द्र जी से
कहा। है महाराज | समुद्र ने जो कुछ कहा सत्य हैं। में पिता के
वरदान के प्रभाव से इस विस्तृत चरुणालय मदहासागर पर पुल
दाँधू गा | इस सम्बन्ध में में यह अचश्य कहूँगा कि, संसार में दण्ड
“ही सब से वढ़ कर काम वनाने चाल्ा है ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ न्
१ पितु: सामथ्यं--पिन्नादत्त' सामथ्य |; गे।० )
द्वाविश: सर्गः १८७
धिकेक्षमामकृतज्पू सानत्य॑ दानमथापि वा |
अय॑ हि सागरो भीमः सेतुकमदिदृक्षया | ४८ ॥
ददा दण्डभयादगाध॑ राधवाय महाोंदधि;
० मप
मम मातुवरों दत्तों मन्दरे विश्वकर्मणा॥ ४९ ॥
उपकार न भानने वालों के प्रति क्षमा प्रदर्शित करना या
उनके समझाना श्रथवरा दान भ्ादि से सन्तु्ट करने का यत्न करना
व्यर्थ है। यह भयक्लर सागर दण्ड के भय दी से पुल वंधवाना
स्वीकार कर, उथल्ला हो गया है। इस समुद्र की बात सुन, मुफ्के
याद ध्या गया कि, विश्वकर्मा ने मन्द्राचल पर मेरी माता के यह
चर दिया था ॥ ४८ ॥ ४६ ॥
औरसस्तस्य पुत्रोःईं सदशो विश्वकर्मणा ।
[पित्रो! प्रासादात्काकुत्स्थ ततः सेतुं करोम्यहम् ] ॥५०॥
कि--० भेरे समान तेरे पुत्र होगा ।” से! में उसका प्रौरस पुत्र
हेने.से उसीके समान हूँ । दे रधुनन्दन ! पिता जी के वरदान से
में सेतु की रचना करता हूँ ॥ ५० ॥
न चाप्यहमतुक्तो वे प्रत्रयामात्मनो गुणान् ॥ ५१॥
धापके पूछे बिना मेंने ्रपने मुख से अपने गुणों का वल्ान
करना उचित नहीं समझता ॥ ५१ ॥
समथश्राप्यहं सेतुं कतु वे वरुणालये |
काममथ्ेव व्नन्तु सेत॑ वानरपुज्ञवा। ॥ ५२ ॥|
में निस्सन्देह समुद्र पर पुल वाध सकू गा से! झ्व' इसी समय
से चानरश्रेष्ठ पुल वाँधने में लगे ॥ ५४२ ॥
श्धद युद्धकायडे
'ततेतिसष्ठा रामेण सवेतों हरियूथपाः ।
अभिपेतुमेहारण्य॑ हटा) ग़तसदख्तज्ञ) ॥॥ ५३ ॥
यह झुनते हो श्रोरामचन्द्र जी ने वानरों के इस काम के
लिये नियुक्त किया | तव ता लाखों वाचर प्रसन्न हो वनों में घुस
गये॥ ४३॥ ह
ते नमगानगसड्डाशा। शाखामृगगणपमभा; |
वभज्जुवांनरास्तत्र वप्रचक्रपेंथ सागरम ॥ ५४ ॥|
फिर वे पर्वताक्वार वानर यूथपति पर्वतशिखरों ओर जूत्तों के
डखाड़ उखाइ कर सप्तुद्गरतठ पर ला ला कर ढेर लगाने लगे ॥५४॥
ते सालैशाइव कर्णोंश्व धवेबेशेश्व वानराः ।
कुटजरजुनेस्तालैस्तिलकैस्तिमिशरपि ॥ ५५ ॥
उन लोगों ने साखू , अभ्वकर्ण, धव, वाँस, कोरेया, अजुन,
ताल, तिलक, तिमिश ॥ ५४ ॥
विल्वैश्व॒ सप्तपरोश्व कर्णिकारेश्व पुप्पितेः |
चतैश्वाशोकद॒क्षे सागर समपूरयन् ॥ ५६ ॥
बेल, सप्तवर्ण, फूले हुए कनेर, आम शोर अशोक के पेड़ों से
समुद्र के पाद दिया ॥ ५६ ॥
समूलांश् विमूलांश्र पादपान्हरिसत्तमाः
इन्द्रकेतूनिवोच्रम्प प्रजहुहरयस्तरून || ५७ ॥
वे वानरश्रेठठ, मूल सहित ओर बिना खूत्नों के चृत्तों के, इन्द्र
की ध्यज्ञा की तरह उठा उठा कर लाने लगे ॥ ४७ ॥
लक कप: कद कक कक की जम क लत सिए 70372 24 :/ 70 मनन सर
९ अतिसष्टा:--वियुक्ताः । ( गे।० ) २ प्रचकर्ष :--आनयन्ति स्त। ( गे।० )
द्वाविशः सगे १८६
तालान्दाडिमगुरमांश्व नारिकेलान्विभीतकान् |
वकुलान्खदिरान्िम्वान्समाजहु! समन््ततः ॥ ५८ ॥
वे ताड़, ध्नार, बारियल, कत्था, वहेंड़ा, मोलसिरी, खद्र
घोर नीम के पेड़ों को इधर उधर से लाकर चहाँ डालने लगे ॥४८॥
दस्तिमात्रान्महाकाया: पापाणांश् महावला; ।
पवतांथ समुत्पात्य यन्त्रे:१ परिवहन्ति च॥ ५९ ॥
हाथी के समान वड़े वड़े शरीर पाले ओर मद्ावलवान चानर
बड़े बड़े पत्थरों फो उखाड़ उखाड़ कर शोर गाड़ियों पर होकर वहाँ
पहुँचाने लगे ॥ ५६ ॥
प्रक्षिप्पमाणेरचले। सहसा जलझुद्धतस् ।
समुत्पतितमाकाशसुपासपत्ततस्ततः ॥ ६० ॥
उन पत्थरों के बड़े टुकड़ों के जल में डालने से समुद्र का जल
इतना उछतलता कि, ध्याकाश के चला जाता धर फिर नीचे गिर
जाता था ॥ ६० ॥
समुद्र क्षोमयामासुवानराश्च समन्ततः |
सत्राण्यन्ये प्रयहृन्ति व्यायतं शतयोजनस् ॥ ६१ ॥
इस प्रकार चारों ओर पेड़ों ओर पत्थरों के गिरा कर, चानरों
ने समुद्र का जल खलवला दिया। कितने ही बानर सो येज्ञन
लंबे खूत के थाम पुल फी सिधाई ठीक करते थे ॥ ६१॥'
नलदचक्रे महासेतुं मध्ये नदनदीपतेः |
स तथा क्रियते सेतुर्वानरेधोंरकमंमिः.॥ ९२ ॥
१ यन्व्रेः--शझृठादिभिः | ( गो० ) एपजह्ाउप्लह्क। ( के) छुद्ाहरणलाधने | (रा०).... | ( शा० )
१६० युद्धकायडे
इस प्रकार नल ने घोरकर्मा वानरों की सहायता से नदीपति
सप्तुद्र के ऊपर पुल वाँधा ॥ ६२ ॥
१दण्डानन्ये प्रगुहृन्ति विचिन्चन्ति तथा परे ।
वानरा। शतशस्तत्र रामस्याज्ञापुर। सरा) ॥ ६३ ॥
कोई कोई वानर द्वाथों में इंडे ले कर वानरों से काम अल्दी
पूरा कराने के लिये खड़े थे, कोई इधर उधर घूम फिर कर बड़े
बढ़े पेड़ों को हढ़ रहे थे | इस प्रकार श्रीरामचन्द्र जी की ध्राक्षा से
सैकड़ों वानर ॥ ६३ ॥
मेघाम पव॑ताग्रेश्य दणे! काप्ठेवेवन्धिरे |
पुष्पिताग्रेश्च तरुभिः सेतुं वध्नन्ति वानरा। ॥ ६४ ॥
ज्ञिनका शरीर पर्वत भोर मेघ को तरह विशाल था ; तण,
काठ, पुष्पित दृत्तों तथा पत्थरों से पुल वाँघने का काम कर रहे
थे॥ ६७॥ ।
पापाणांश्च गिरिप्रख्यान्गिरीणां शिखराणि च् |
दश्यन्ते परिधावन्ते गृह्य वारणसन्निमा! ॥ ६५॥ ,
हाथी के समावच विशाल शरीर वाले वहुत से वानर, पर्वत के
समान बड़े बड़े पत्थरों के छुकड़ों ओर पर्वतशिखरों को लिये हुए,
हाथियों की तरह दोड़ते हुए जान पड़ते थे॥ ६५ ॥
विलानां क्षिप्यमाणानां शैलानां च निपात्यताम |
वरभूव तुमुलः शब्दस्तदा तस्मिन्महोदया ।। ६६ ॥
उस समुद्र में शिलाओं के डालने और पर्वतों के पठकने से
वड़ा शब्द होता था।॥ ६६ ॥
१ दुण्डान्ू-चानरत्वराकरणदुण्डान्ू ) ( गे।० )
दाविशः सर्गः १६ 4"
: झैतानि पथमेनाद्वा योजनानि चतुदश ।
महुष्टगजसड्जाशेस्वर॒माणेः छवड़मेः ॥ ६७ ॥
इस प्रकार गज्न के समान शरीर वाले शोर फुर्तील्ले वानरों ने
बड़ी प्रसन्नता के साथ धथम दिन चोद येज्न लंबा पुल्न बना
डाला ॥ ६७॥
ट्वितीयेन तथा चाह्य योजनानि तु विंशतिः ।
कृतानि पुबगैरतृ्ण भीमकारयमहावले) || ६८ ॥
फिर भयड्ुर शरीर वाले मदावली वानरों ने फुर्तों से दूसरे दिन
वीस येजन लंवा पुल बाँध कर तैयार किया ॥ ६८॥
अद्दा तृतीयेन तथा योजनानि क्ृतानि तु।
त्व॒रमाणमेहाकार्यरेकविंशतिरेव च ॥ ६९ ॥
उन महाकाय शोर शोध्र कर्मकारी बानरों ने तीसरे दिन २१
येज्ञन लंचा ओर पुल बाँधा ॥ ६६ ॥
चतुर्थेन तथा चाहा 'द्वाविंशतिरथापि च।
योजनानि महावेगेः कृतानि त्वरितिस्तु ते! ॥ ७० ॥
उन बढ़े फुर्तोत्ने बानरों ने चोथे द्विस बड़ी फुर्ती से २२ येजन
लंबा पुल भोर वाँधा ॥ ७० ॥
पञ्चमेन तथा चाहा घ्ुवगेः प्षिप्कारिमिः ।
योजनानि त्रयेविंशत्सुवेलमधिकृत्य वे ॥ ७१ ॥
उन शोघ्र कर्मकारी चानरों ने पाँचवें दिन २३ येजन- लंबा झोर
पुल्न वाँध वे लद्भगस्थित खुबेल पर्वत पर पहुँच गये । ध्यर्थात् पुल्त का
फाम नल ने पाँच दिन में पूरा कर डाला ॥ ७१॥ «
१६२ युद्धकाणडे
स वानरवर) श्रीमान्विश्वकर्मात्मजों वी ।
ववन्ध सागरे सेतुं यथा चारय पिता तथा || ७२ ॥
इस प्रकार विश्वकर्मा के बलवान और कपिश्रेष्ठ नल ने अपने
पिता के समान पराक्रम दिखा, समुद्व के ऊपर सेतु बाँधा ॥ ७२॥
स नलेन कृतः सेतुः सागरे मकरालये ।
शुशुभे सुभग; श्रीमान्खातीपएथ इवाम्बरे ॥ ७३ |
नल द्वारा वना हुआ वह पुल ऐसी शोभा दे रहा था; जैसी
शासा झाकाश में छायापथ की होती है ॥ ७३ ॥
ततो देवा; सगनन््धवां; सिद्धाथ परमपय; |
आगम्य गयगने तस्थुद्रेष्डुकामास्तदद्भुतम् ॥ ७७ ॥
तव ते। देवता, गन्धवे, सिद्ध और महर्षि लोग उस अदुभ्भुत पुल
की रचना देखने के, आकाश में थ्रा खड़े हुए ॥ ७४॥
दशयोजनविस्तीण् शतयोजनमायतम् |
दहशुर्देवगन्धवां नलसेतुं सुदुप्करम् ॥ ७५॥
देवतापों श्र पनन््धवों ने नल का वनाया हुआ, शत्यन्त दुष्कर
सो येजन लंवा और दस येजन चोड़ा पुल देखा ॥ ७४ ॥|
आएवन्त: उबन्तश्व गजन्तथ छवड्गमाः ।
तदचिन्त्यमसक्यं च अद्भुतं रोमहपणम् ॥ ७६ ॥
कार्य पूरा होने के प्मावन्द में भर वानर लोग कूदने फाँदने आर
गर्जने लगे । उस अचिन्तनीय, धदृरुत एवं रोमाश्चकारी ॥ ७ई ॥
दरशुः सवभृतानि सागरे सेतुवन्धनस् ।
तानिकेटिसहस्ताणि वानराणां महौजसास् || ७७ |
द्वाचिशः सर्ग३ १६३
सेतु की रचना के सब प्राणियों ने देखा । मद्यावलवान, लाखों
करोड़ों घानर ॥ ७७ ॥
वश्नन्तः सागरे सेतुं जम्मुः पारं महोद्धे! ।
विशाल: सुकृतः २श्रीमान्सुभुमि)१ सुसमाहित" ॥७८॥
सेतु वाँध कर सप्ुद्र के पार हा गये । नल ने जो पुल्न वाँधा था,
चद्द बड़ा लवा चोड़ा था, बढ़ा मज़बूत था, सीधा था, नीचा ऊंचा
न हो कर समान चौरस था और उसमें गड़ढे भी न थे ॥ ऊप ॥
अश्वोभत महासेतुः सीमन्त इव सागरे।
ततः पारे समुद्रस्य गदापाणितविंभीपण! ॥ ७९ ॥
परेपाममिघाताथमतिप्ठत्सचिवें! सह । ।
मुग्रीवस्तु ततः प्राह राम सत्यपराक्रमंस् || ८० ॥
चह सेतु सप्रुद्र के बीच ऐसा शेोभायमान द्वो रद्या था, जैसे
स्त्रियों के सिर की माँग | तदुनन्तर हाथ में गदा क्षे पविभीपण अपने
मंत्रियों सदित सपुद्र के उस पार शन्रुओ्रों को मारने के लिये
जा खड़े हुए। तव सुश्रोव ने सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्र जी से
कहा ॥ ७४६ ॥ ८० ॥
हनुमन्तं त्वमारोह अज्भद॑ चापि लक्ष्मण: |
अय॑ हि बिपुला वीर सागरो मकरालयः ॥ ८१ ॥
वैहायसों युवामेतों वानरों तारयिष्यतः ।
अग्रतस्तस्य सेन्यस्य भ्रीमान्राम/ सलक्ष्मण/ || ८२॥ ,
१ सुकृत्तः:--दढतयाक्ृतः । ( गे।० ) २ श्रीमान्--ऋणुत्वेन कान्तिमान ।
(गो० ) ३ सुभूमिः--निम्नोन्नतत्वरद्धित:।. (गे० ) सुधमाहितः--
निर्विवर; | ( गे० ) ह
चवा० रा० यु०--१३
१६४ युद्धकाणडे
जगाम धन््दी धर्मात्मा सुग्रीचेण समन्वित! ।
अन्ये मध्येन गच्छन्ति पाश्वतेउन्ये उबद्भममाः ॥ ८३२॥
हे चीर | श्राप हछुमान जी पर ओर लक्ष्मण जी पअड़द पर
सवार हो लें ' क्योंकि यह समुद्र मगर मच्छों का घर है और ये दोनों
आकाशचारी पानर हैं, अतः आप दोनों के भलीभाँति समुद्र पार
पहुँचा देंगे। तव उस यानरी सेना के आगे आगे दोनों साई श्रीराम
झोर लक्ष्मण द्वाथ में घछुप वाण ले धर्मात्मा सुप्रीव को अपने
साथ लिये हुए चक्ने। कोई कोई कपियूथपति वीच में और कोई
अगल वगल ओर कोई पीछे हो लिये ॥ ८१ ॥ ८२ ॥ 5३ ॥
सलिले प्रपतन्लन्ये मागमन्ये न लेभिरे |
केचिदेहायसगदा) सुपर्णा इव पुप्लुचु) ॥ ८४॥
बानरों को संख्या अत्यधिक भोर रास्ता सद्ल्ण होने के कारण
वहुत से वानर पानी में गिर पड़े ओर बहुत से रास्ता न मिलने के
कांण्ण सम्ुद्वतट पर इस पार ठहरे रहे | वहुत से गरुड़ की तरह
उड़ कर आकाशमार्ग से गये ॥ ८७ ॥|
घोषेण पहता तस्य सिन्धोर्धोष सममुच्छितम् ।
भीमप्रन्तद्धे सीमा तरन््ती हरिवाहिनी ॥ ८५॥
” झमुढ पार होते समय वानरी सेना के तुप्तुत शब्द के नीचे
समुद्र का सिहनाद दूव गया ॥ ८५ ॥
वानराणां हि सा तीणों वाहिनी नलसेतुना |
तीरे निविविशे राज्ञो वहुमूलफलेदके || ८६ ॥
इस प्रकार नल के वनाये हुए पुत्त से चह सेना सप्तुद्र के पार
हो गयी । उस पार पहुँच, खुप्रीव ने उनके श्रधिक फलमूलपूर्ण
सप्लुद्वृतद पर ठहरा दिया ॥ ८६ ॥
दर
द्वाविणः सर्गः ,. १६४
तद्वुतं राघवकम दुष्करं
समीक्ष्य देवा; सह सिद्धचारणे; |
उपेत्य राम सहसा महर्पिमिः
समभ्यपिश्वन्पुशभेजलछ१ पृथक ॥ ८७॥
श्रीरामचन्द्र जी के इस अदभुत पश्रोर दुष्कर कार्य के देख,
देवता, सिद्ध, चारण घोर महषि सहसा चहाँ प्रकद्ट हुए प्योर सप्रुद्र
जल से अलग प्मलग धोरामच्रन्दध्र जी का प्रमिषेक करते
लगे॥ ८७॥
जयख शत्र॒नरदेव मेदिनी
ससागरां पालय शाश्वतीः समा; ।
इतीव राम ?नरदेवसत्कृतं
शमवेचोभिर्षिवियरपूजयन् ॥ ८८ ॥
इति द्वाविशः सर्गः ॥
घोर स्तति कर कहने लगे--है नरदेव | श्राप ब्राह्मणों द्वारा
सकारित हो और शन्रओं के! पराजित कर दीघकाल तक इस
ससागरा समस्त पृथिवी का पालन करे ॥ ८८ ॥
युद्धकाण्ड का वाईसर्चाँ सर्ग पूरा हुआ ।
“-6---
१ शुमैज॑लेः-घागरनीरे: । ( शि० ) २ नरदेवाः--ब्राह्मणा: । ( रा० )
त्रयोविशः सभे
निमिचानि निमित्तज्ञो दष्ठा लक्ष्मणपूवज:॥
सौमित्रिं सम्परिष्वज्य इदं बचनमत्नवीत् ॥ १॥
शक्कनों और अपशकुनों का जानने वाले लक्ष्मण के वड़े भाई
श्रीयमचनक्त जी उस समय के अपशणहुनों के देख आर लक्ष्मण जी
के गले से लगा यह चात्ते ॥ १ ॥
परिग्द्योदर्क जीत॑ वनानि फलवन्ति च |
बल्ाघं संदिभज्येमं व्यूहय तिप्ठेम लक्ष्मण ॥
है लक्ष्मण ! जिस जगह शोतल जल समीप दो और फल वात्ते
वृत्त हों, व्दीं पर सेना का विभाजित कर ओर गझुड़ाकार व्यूह
रथ कर ठहरना उचित हे ॥ र॥
छाकक्षयकरं भीम॑ भय पश्याम्युपस्थितम |
निवहेणं प्रवीराणामक्षवानररक्षसाम् || रे
क्योंकि मुस्े लोकततयकारी सबडर भयप्रद अपशकन देख पहले
हैं । इससे जान पड़ता हे कि, रीहू, वन्द्र और राक्षसों का बड़ा
सारो नाश होगा ॥ २ ॥
बाताइव कलुपा" वान्ति कम्पते च बसुन्धरा ।
पव॑ताग्राणि चेपन्ते पतन्ति च महीरुद्या) ॥ ४ |
३ च्यूद्ू-गठइरूपेण सन्निवेश्य । (गे० ) दे कलुपा-रकोण्याप्त !
६ २० )
त्रयोविंशः सगे; १६७
देखे, अन्धड़ चन्न रहा है, पृथिवी काँप रहो है, पर्वतशिश्वर
दिल रहे हैं ओर दुत्त हृड हृ्ड कर गिर रहे हैं ॥ ४॥
मेघाः क्रव्यादसझ्लाशा! परुषा। परुपखना: |
हि (5 मद
' क्ररा; क्रूर प्रवषन्ति म्रिश्वैं शेणितविन्दुभिः ॥ ५॥
गीध, श्टगाल, श्येनादि के समान घूसर वर्ण, बुरे रुपवात्ते
भेघ, शुतकठार शब्द कर रहे हैं शोर क्रुर रूप धारण ऋर, रुचिर
की बुदों से मिश्रित जल को वर्षा कर रहे हैं ॥ ५ ॥
रक्तेचन्द्नसड्डाशा सन्ध्या परमदारुणा |
ज्वलतः प्रपतत्येतदादित्यादगभिमण्डछम ।। ६ ॥
लाल चन्दन की तरह इस सम्ध्यों का रूप कैसा दारुण देख
पड़ता है। सूर्यमण्डल से दृहकते हुए बहका समूह गिर रहे हैं ॥8॥
दीना दीनखराः क्रूराः सबंते शृगपक्षिणः |
ले ॥९
प्रद्यादित्यं विनदेन्ति जनयन्तो' महद्भयम् ॥ ७ ॥
सूर्य की आर मुख कर क्र खभाष वाले पशु पत्ती दोचभाष से
करुणा भरे स्वर से वार वार चिल्ला रहे हैं। ये आने वाले बड़े भारी
भय की छूचना दे रहे हैं॥ ७॥
रजन्यामप्रकाशस्तु सनन््तापयति चन्द्रमा! | '
९ प्यन्ते
कृष्णरक्तांशपयन्ता लोकक्षय इधोदित; || ८ ॥ ,
रात में प्रकाशशुन्य चन्द्रमा काले शोर लाल मण्डलत्न के वीच'
उदय हो सनन््तापित कर रहा है। ऐसा ज्ञान पड़ता है, मार्मों लोक
का नाश फरने के उदय हुघ्या हो ॥ ८॥
१ जनयन्तः--घूचयन्तः ।”( गे।० )
१६८. युद्धकाणडे
हो रुक्षेध्प्रशस्तश्च परिवेष: सुलाहितः ।
आहित्ये विपले नील लक्ष्म लक्ष्मण दृश्यते ॥ ९ ॥
ह लक्ष्मण | निर्मल घूर्थ के चारों ओर केंसा दोठा किन्तु चौड़ा
घोर ऋइत्त लाल लाल मण्डल छाया छुआ । उसके विम्व में
काला चिह देंगे पड़ता है ॥ ६॥
- रजसा मह्ता चापि नक्षत्राणि हतानि च |
सुगान्तमिव लेकानां पश्य शंसन्ति लक्ष्मण ॥१०॥
है लक्ष्मण | देखे श्राकाश में वहुव धूल छायी रहने के कारण
दक्ष ठके हुए हैं और दिखलाई नहीं पड़ते । इनको देखने से जान
पड़ता है क्लि, सुगान्न्त का समय डपत्थित इुआ हैँ ॥ १०॥
काका; श्येनास्तथा श॒प्रा नीचे: परिपतन्ति च |
शिवास्चाप्यशिवान्नादान्नदन्ति सुमहाययान् ॥ ११ ॥
काक, श्येव (वाज) और गीध सदसा ऊपर से नोचे पिरते हैं।
गीदुड़ियाँ अशुभ और महाभयहुर वेलियाँ वाल रही हैं॥ ११॥
शैले! शूलेश्व खदगेश्च विसृष्टे! कपिराक्षसे
अविष्यत्याहता भूमिमासशोणितकदमा || १२ ॥
इस झपशक्ुनों के देख ज्ञान पड़ता है कि, पन्धरों, शूत्नों और
दलवारों के आघात से वानरों और रात्तसों के माँस और रक्त क्री
फीचड़ से पूथिवी पूर्ण हो जायगी ॥ १२ |
प्लिप्रमचव दुधषा पुरी रावणपालितास |
० सबते हरिमिदंत
अभियाम जवेनेद सर्वते हरिमिहंता। ॥ १३ ॥
प्रयाविण; सर्गः १६६
सो हम लोग श्रसी यवण द्वारा रक्तित डुर्धंब लड्ढभापुरी पर
चारों ओर से, बड़े वेग से वानरों के साथ ले चढ़ाई करें ॥ १३॥
इत्येवमुक्त्वा धर्मात्मा पन््धी संग्रामधर्षण ।
प्रतस्थे पुरता रामे लझ्लाममिम्रुखों विद्यु) ॥ १४ ॥
युद्ध में शनुझों का तिरस्कार करने वाले धर्मात्मा और घन्॒ष-
धारो, बलवान् भ्रीरामचन्द्र जी, यह कद्द कर सव के झागे लड्ढा की
घोर चलने ॥ १४ ॥
. सविभीषणसुग्रीवास्ततस्ते वानरपभाः |
' प्रतस्थिरे विनद॑न्ते। निश्चिता द्विषतां बे ॥ १५ ॥
विभीषण, सुप्रीव शोर दूसरे बानर भी सिहनाद करते हुए
श्रीरामचन्द्र जी के पीछे शन्रुकुल निमृंल करने का निश्चय कर
हो लिये ॥ १४ ॥
राघवस्य प्रिया तु इतानां वीयंशालिनाम् |
हरीणां कर्मचेष्टाभिस्तुताष रघुनन्दनः ॥-१६ ॥
इृति भयेविंशः से: ॥
भ्रीरामचन्द्र जो की प्रसन्नता के लिये जैय॑वान, शोर बलवान,
वानरों के थुद्ध के लिये कर्म और चेष्टा द्वार तत्पर देख, ( धर्थात्
उन वानरों में युद्ध की उमड़ था चाव देख ) रघुनन्दन धीयमचन््र
जी सन््तुए हुए ॥ १६ ॥
युद्धकागड फा तेईसर्वाँ सर पूरा हुमा ।
“मैं
त
चतु्विशः सर्ग:
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सा 'वीरसमिती राज्ञा विरराज व्यवस्थिता ।
शशिना शुभनक्षत्रा पोर्णमासीव शारदी ॥ १ ॥
समस्त चीर वानरों के दल, महाराज श्रीरामचन्ध जी द्वारा
गरुड़ाकार व्यूद में स्थापित हो) वेसे ही शामित हुई जैसे नत्तन्न-
राज विराज्ञित शारदीय पूर्णिमा की रात शोसित होती है ॥ १॥
प्रचचाल च॒ वेगेन त्रस्ता चेव बसुन्धरा |
पीड्यमाना वलौधेन तेन सागरवचसा ॥ २ |
सप्तुद्ध के समान विशाल वानर-वाहिनोी के वेग से वहाँ की
भूमि पीड़ित हुई ओर डर कर काँप उठी ॥ २॥
तत। जुश्रुव॒राक्रुष्ट लड्भायां काननोकेसः |
: भेसीमुदहसंघुष्टं तुम रोमहपणम्॥ ३ ॥
लट्ढ में भेरी और खद॒कु के शब्द से मिश्रित भयक्ुर ओर
शेमाअकारी शब्द वानरों ने सुना ॥ ३ ॥
व्थूवुस्तेन घोषेण संहुए्ठा हरियुथपाः ।
अम्ृष्यमाणास्तं घोष॑ विनेदुर्घोंपचत्तरम || ७ |
उस घेष के छुनने से कपियूथपति वहुत प्रसन्न हुए और
डस शब्द के सहन न क्र, ये वानर भी बढ़े ज्ञोर से चिह्लाने
लगे ॥ 8 ॥
१ वीरसमिति:--ण्ोरखबूुर । (गे।० )
चतुविणः सर्ग २०१
राक्षसास्तु पृपड्भानां जुश्रुवुश्चापि गर्जितम् |
नर्दतामिव दप्तानां मेघानामम्थरे खनग || ५ ॥
लड़गवासो राक्षसों ने उन यत्रोंत शोर सिहनाद करते हुए
बानरों का ऐसा शब्द झुता जैसा कि, आकाश में मेधों के गरजने
से हुध्पा करता है॥ ५ ॥
दृष्ठा दाशरयिलड्त चित्रध्वजपताकिनीम |
जगाम मनसा सीता दूयमानेन चेतसा ॥ ३॥
श्रीरामचन्ध जी रंगविरंगी, ध्यजा पताकाश्ों से शेमित लड्ढा
के देख, सीता का स्मरण कर, श्रत्यन्त दुःखित हुए ॥ ६ ॥
अन्न सा मुगशावाक्षी रावणेनोपरुध्यते ।
अभिमभूता ग्रहेणेव लोहिताड़ेन रोहिणी ॥ ७ ॥
शोर सोचने लगे कि, इस समय वह मसुगलोचनी जानकी
रावण के घर में छेद है! सो इस समय उसकी वही शोच्य दशा
होगी; जे! मड़लग्रह से ग्रसी हुई रोहिणी की होती है ॥ ७॥
दीर्घमुष्णं च निःश्वस्थ समुद्धीक्ष्य च लक्ष्पणम् ।
उवाच वचन वीरस्तक्ालछहितमात्मन! ॥ ४ ॥
लंबी और गर्भ साँस ने तथा लक्ष्मण जी की थोर भलीर्भाँति
निहार, महावीर भ्रीरामचन्ध युद्धयात्रा के संमयातुरूप दितप्रद
एवं शेक भुज्ञाने वाले ( तथा नगर का शोभावशनरूपी ) वचन
: वक्ष | ८5॥
आलिखन्तीमिवाकाशप॒त्थितां पर्ये लक्ष्मण |
मनसेव कृर्ता लड्ढां नगाग्रे विश्वकमणा ॥ ९ ॥
२०२ युद्धकआयडे
है लक्ष्मण | देखे यह लड्ढय मानों आकाश के छूना चाहतो
है। इसके विश्वकर्मा ने पर्वतशिखर के ऊपर बड़े मन से वनाया
है॥६8॥
विमानेवहुमिलेड्ा सड्लीर्णा श्रुवि राजते |
विष्णा। स्पदमियाकाशं छादित॑ पाण्डरैयने! ॥ १० ॥|
पृथिवी के ऊपर भनेक तलों के घरों से युक्त लड़ ऐसी शोभाय-
मान हो रही है; जेसे सफेद वादलों से ढकका हुआ श्ाकाश ॥ १० ॥
पुष्पितः शोभिता लड्ढा वनेश्चेत्ररथोपमें! |
नानापतडुसंघुष्टः फलपुप्पोपगेः शुभेः ॥ ११॥
इसमें पुष्पित दुक्षें से युक्त अनेक चन. चित्ररधवन के ठुल्य
जान पड़ते हैं। इनमें तरह तरह के पत्ती वाल रहें हैं. ओर विविध
प्रकार के फल्नों ओर पुष्पों से दत्त लद्दे हुए हैं ॥ ११ ॥
पशय मत्तविहृद्मानि प्रलीनभ्रमराणि च् |
फेोकिलाकुलूखण्डानि दोधवीति३ शिवोअनिल! || १२ ॥
देखे, मतवाले पत्ती चच्ों पर चैंठे हैं, मधुपान के भूखे भोरे
घंंजते हुए फूलों में घुसे बैठे हैं। केाकिल्दाओं के सुंड' के भंड बैठे
हैं। देखे, कैसी खुखावद् दवा वह रही है, जो वार वार चुत्तों के
हिला रही हैं ॥ १२॥
इति दाशरथी रामे। लक्ष्मणं समभाषत |
दल च तह “विभजज्बास्दृण्टडन कमंणा | १३ ॥
१ विप्णा।:-- भादिद्त्य | ( घा० 2 २ पढुं-स्थाव । आकाशमध्यमिति
भाव । ( शे।०) ३ देधवीति--पुनः पुनः कम्पयति | ( गे० ) ४ विभजनू--+
च्यूडयन । » गो )
चतुविशः सर्मः २०३
इस भकार दशरथनन्दन श्रीरामचन्ध जी लक्ष्यण से कह कर,
' नीतिशाख्राशुसार सेना से व्यूद रचना करवाने लगे ॥ १३ ॥
शशास कपिसेनाया वलमादाय वीयेवान् |
अन्भद! सह नीलेन तिप्ठेदुर॒सि दुनंय! ॥ १४ ॥
फिर वोयंवान श्रीरामचन्द्र जी ने समस्त कपिसेना के व्यूह
रचने की इस प्रकार घ्राक्षा दी। उन्होंने दुर्नेथ नील सहित अड्भद
के गरुड़ व्यूह के वत्तःस्थल पर रहने की धाज्ञा दी ॥ १४ ॥
तिप्ठेद्दानरवाहिन्या वानरोघसमाहतः ।
आश्रित्य दक्षिण पाव्व॑मुपभे वानरपभ! ॥ १५॥
( भ्रोरामबन्द्र जी ने कहा ) इस वानरसेना की दहिनों ओर
कपिश्रेष्ठ तप धपनी प्रधोनस्थ सेना के साथ रहें ॥ १५ ॥
गन्धहस्तीय दुर्धपस्तरखी गन्धमादनः। ,
तिष्ठेद्ाानस्वाहिन्या; सव्यं पाश्वे समाभ्रितः ॥ १६॥
मतवाले हाथो की तरह प्रञ्लेय श्रोर वेगवान गन्धमाद्न
पानरीसेना की वाई शोर रहें ॥ १६ ॥
मूध्नि स्थास्याम्यहं युक्तो लक्ष्मणेन समन्वितः |
जास्वचांश् सुपेणश्र 'वेगदर्शी च बानर; ॥ १७॥
ऋश्षमुरूया महात्मानाः कुक्षि रक्षन्तु ते त्रयः |
जघन॑ कपिसेनाया। कपिरानो5मिरक्षतु ॥ १८ ॥
॥। वेगदर्शी-विश्ेषणं ॥( गो० ). ३ सद्दात्मन;--मदावुद्धव: । | गेण० )
२०७ युद्धकाणडे
सेता के शिशेमाग में लत्मण सहित में रहूँगा | रीछों की सेना
के अध्यक्ष शोर महावुद्धिमान जाम्बचाव, ओर वेगवान वानर
खजुषेण सेवा के कुत्तिस्थान की रक्ता करें। कपिसेना के ज्लघाभाग
की रक्षा कपिसाञज सुओ्ीव ( वेसे हो ) करें ॥ १७ ॥ १८ ॥
'पश्चाथमिद लछेकस्य प्रचेतास्तेमसा हृतः |
सुवियक्तमहाव्यूहा महावानररक्षिता ॥ १९ ॥
जैसे चरण पश्चिम दिशा की रक्ता अपने तेज से करते हैं।
इस प्रकार सलीभाँति ग्रुड़ाकार व्यूह की रचना से युक्त शोर
वानरसेनापदियों द्वारा रक्तित ॥ १६ ॥
अनीकिनी सा विवभा यथा दोः साम्रसम्पुवा । _
प्रगह्ष गिरिध्ृद्भाणि महतथ्र महीरुहान् || २० ॥
उस समय वह वानरी सेना ऐसो शोमित हुई. जेसे आकाश
मथों से शोमित हीता है। वानरगण गिरिश्टड्रों ओर बड़े बड़े चृत्तों
के ले ॥ २०॥
आसेदुर्वानरा छट्ठां विमदेयिषय रणे |
शिखरेबिंकिरामेनां लड़ा मुष्टिभिरेव वा ॥ २१ ॥
ति सम दधिरे सर्दे मनांसि हरिसत्तमाः |
तते रामो महातेजः सुग्रीवमिदमबबीत ॥ २२ ||
लडुप के ध्वस्त करने के लिये चढ़ाई करने की श्राज्षा की
पतीक्षा करने लगे | वे सव झपदे अपने मों में सोचने लगे कि,
पर्वंतशिखरों अथवा घूंसों से इस लड्ुप को पीस डालेंगे। तब
ओरामचन्द्र ने खुप्ीव से कहा ॥ २१ ॥ २२ ॥ |
१ पश्चाप् -पंश्चिमांदिशसित्यथ३ । ( यो० )
चतुर्विशः सर्गः २०४
सुविभक्तानि सेन्यानि शुक एप पिश्ृच्यतास् ।
रामस्य वचन श्रुत्वा वानरेन्द्रो महावछ। ॥ २३ ॥
मित्र | सेना ते यथास्थान टिक गयी | शव झुक का छोड़ देना
चाहिये। श्रीरामचन्ध जी का यह चचन सुन, महावत्नी कपिराज
'छुप्नीच ने ॥ २२॥ ह
मोचयामास त॑ दूत॑ झुक रामस्प शासनात् |
पेचिते रामवाक्येन वानरेश्चामिपीडितः ॥ २४ ॥
श्रीरामचन्द्र जी की श्ाज्ञा से रावण के उस दूत शुक के छोड़
'दिया। भरीराम को भाज्षा से छूटा हुआ ओर चानरों द्वारा सताया
हुआ ॥ २४ ॥
, शुकः परमसंत्रस्तो रक्षोईधिपसुपागमत् ।
रावण! प्रहसन्नेष शुर्क वाक्यमभाषत ॥ २५ ||
शुक, अत्यन्त डरा हुआ रावण के पास पहुँचा | रावण ने शुक
: की देख, मुसकुराते हुए पू छा ॥ २५ ॥
_ फिमिमो, ते सितो पक्षों लूनपक्षश्च हृश्यसे |
कचित्रानेकचि्ानां* तेषां त्वं वशमागतः ॥ २६॥
है शुक ! तुम्हारे ये सफेद पंख नोंचे खसारें क्यों देख पड़ते हैं ।
ः तुम कहीं उन चश्चलमना वानरों के फंदे में ते नहीं फेस गये ॥९6॥
ततः स मयसंविभस्तथा राज्ञाभिचोदितः ।
वचन प्रत्युवाचेद राक्षसाधिपप्ठु त्मम् ॥ २७॥
१ अनेकचित्ताना--चंघछित्तानास । | गो)
२०६ युद्ध कायडे
वह भयभोत शुक्र, राक्षसरात्र द्वारा पूछा जाकर, रावण के
इस प्रकार उत्तर देता हुपध्ला ॥ २७ ॥
सागरस्येत्तरे #तीरेज्च्रवं ते वचन तथा !
यथा सन्देशमह्तिष्टं सान्वयञ्इलक्ष्मणया गिरा ॥२८॥
है राजन | समुद्र के उत्तरतठ पर जा कर, मेंने आपका संदेशा
जैसा कि, आपने कहाथा, सुप्रोव के समझाने के लिये मधुर
चाणी से कहना आरम्भ किया॥ रे८ ||
क्रुद्धेस्तेरहमुत्प्खुत्य दृ्टमात्रे; छबड़मे। ।
गृहदीतेस्म्यपि चारव्पा हन्त॑ लोप्तूं च मष्टिभि! ॥२९॥
कि, इतने में मुस्छे देखते हो क्रुद्ध द्वो वानरों ने कूद कर मलुस्के
पकड़ लिया झोर वे मुझे घू सों की मार से मार डालने के उच्चत
हो गये ॥ २६ ॥
लेव सम्भाषितुं शक्या; सम्पश्नोउत्र न लभ्यते।
प्रकृत्या कोपनास्तीक्ष्णा वानरा राक्षसाधिप ॥ ३०॥
उन वानरों ले त तो मुझसे कोई वात कही ओर न मुझे ही
कई प्रश्न पूं छूने दिया | हे राक्षसराज | वे सव वानर ते स्वभाव
ही से वड़े उम्र और क्रोधी हैं ॥ ३० ॥
सच हनता दराधस्य कवन्धरय खररय च |
सुग्रीवसहिता राम; सीतायाः पद्मागतः ॥ ३१ ॥
तत्पश्चात् मेंने विराध, ऋबन्न्ध झओर खर के मारने वाले
श्रीरामचन्द्र जी का देखा, जे! खुप्रीव के साथ सीता के रहने के
स्थान का पता पा कर, यहाँ झाये हैं॥३१॥
# पाठान्तरे --“ चीरें ब्र द॑स्ते ।!
ः
चतुविशः सर्गः * २०७
स कृत्वा सागरे सेतुं तीत्वोा च लवणोद्पिय ।
एप रक्षांसि 'नि्भूय धन््वी तिष्ठति राघवः ॥ १ ॥|
सपुद्र का पुत्त बाँध, लवणसागर के पार कर श्ोर गात्तसों
की तिनके के समान जान, हाथ में घत्ुष लिये हुए श्रीरामचन्ध जी
आ पहुँचे हैं ॥ ३२ ॥
ऋ्षवानरमुख्यानामनीकानि सहस्तश |
गिरमेघनिकाशानां छादयबन्ति वसुन्धराम ॥ ३३ ॥
उनके साथ में बड़े बड़े रीछ्ों ओर वानरों की हजारों सेनाएँ हैं।
वे रीह और वानर पर्वत झ्थवा भेघध की तरह चिशाल्काय हैं
शैर उनकी संख्या इतनी थ्रधिक है कि, वे पृथिवी का ढाँपे हुए
हैं ॥ ३३॥
राक्षसानां बलौधस्य वानरेन्द्रवलस्य च |
नैतयेर्वियते सन्धिदेवदानवयेरिव || ३४ ॥
राक्तसों की सेना और कपिराज की पांनरी सेना के बीच मेल
होना उसी प्रकार धसम्भव है, जिस प्रकार देवता और दानवों में
मेल होना सम्भव नहीं ॥ २७॥
पुरा प्रकारामायान्ति क्षिप्मेकतर्र कुरु |
सीतां वाप्स्मै प्रयच्छाशु सुयुर््ध वा प्रदीयवास ॥ ३५ ॥
वे भव छड्ढा पर धढ़ाई करना ही चादते हैं, प्रतण्व आप झति
शीघ्र इन दे में से एक काम करे | था तो आप तुर्त सीता के
दे देँ या भलीभाँति कमर कस उनसे लड़े ॥ ३* ॥
५ निधय “-तृणीकृ । ( गे /
र्०्८ द्धकायडे
शुकरुय वचन भ्रुत्वा रावणे वाक्यमत्रवीतू ।
रोपसंरक्तनयनों निदइन्निव चक्षुपा,॥ ३६ ॥
शुक की इन बातों के खुन, रावण कहने लगा । उस समय मारे
क्रोध के उसकी अआँखें लाल हो रही थीं शोर ऐेसा जान पड़ता था
कि, मानों पद्द नेन्नाम्ति से शुक्र के भस्म कर डाज्लेगा ॥ ३६ ॥
यदि मां प्रति युद्धयेरन्देवगन्धवंदानवा: |
नैव सीतां प्रयच्छामि स्वक्लेकभयादपि ॥ ३७ ॥
यदि श्रीयामचन्द्र जो के साथ मुझसे देवता, गन्धर्व शोर दानव
भी लड़ने आवे अथवा समस्त प्राणी मित्र कर मुझे भयभीत करे;
तो भी में सीता के न दूँगा ॥ २७ ॥
कदा नामाभिधावन्ति राव मामका; शराः ।
वसन्ते पुष्पितं मत्ता भ्रमरा इव पादप ।। ३८ ॥
चह समय कव आवेगा जब मेरे बाण श्रीराम की ओर चैसे ही
दैड़ेंगे जैसे मतवाले भोंरे वसन्ततऋतु में पुष्पित बक्तों की ओर
दोड़ते हैं॥ ३८॥
कदा तृणीशरयेर्दीप्रेगणशः कामुकच्युतेः |
शरेरादीपयास्येनमुस्कामिरिव कुल्लरम ॥ ३९ ॥
जिस प्रकार जलता हुआ उत्का दिखाने से हाथी सागता है,
डसी प्रकार में झपने तरकस से निकलने हुए चमचमाते बाणों के समूह
की मार से, रक्त में इबरे हुए श्रीराम के कव भगाऊंगा ॥ ३६ ॥
तन्चास्य वलमादास्ये बसेन महता हतः |
ज्योतिषामिव सर्वेषां प्रभामचन्दिवाकर! ॥ ४० ॥
चतुरचिण+ सर्मः २०६
हे शुक ! जिस प्रकार घूर्य उदय हो कर छोर छोटे तारों का तेज
नए कर डालता है, उसो प्रकार में श्रपनी महती सेना के साथ
श्रीराम को सेना के दवा लू गा ॥ ४० ॥
सागरस्पेव मे पेगे। मारुतस्येव मे गति |
न हि दाशरबिवेंद तेन मां येद्धुमिच्छति ॥ ४१ ॥
सागर की तरह भेरा वेग है शोर पवन की तरह मेरी गति है।
यह वात श्रीराम नहीं जानता, इसीसे ते वह मुझसे लड़ना चाहता
॥ ४१ ॥
न में तृणीश्षयान्वाणान्सविपानिव पद्मगान् ।
राम) पश्यति संग्रामे तेन मां येद्धुमिच्छति ॥ ४२ ॥
तरकस में, विषधर साँपों की तरह पढ़े हुए भेरे विपेक्षे वाण,
धीराम के नहीं देख पड़ते, इसीसे वद्द मेरे साथ लड़ना चाद्वता
हैं ॥४२॥
न जानाति पुरा वीये मम युद्ध स राघवः |
मम चापमयी दीणां शरकीणेः' प्रवादिताम् | ४३ ॥
ज्याशब्दतुमुरां घोरामा्तभीतमहाखनाम् ।
नाराचतलसन्नादां तां ममाहितवाहिनीसू |
अंवगाहय महारद्ग वादयिष्याम्यहं रणे ॥ ४४ ॥
श्रोरामचन्द्र ने मेरे साथ पहिले कभी थुद्ध हा किया।
इसीसे यह मेरा वल् पराक्रम नहीं जानता । जिस समय मैं शत्रु की
सेनारूपी नदी में डुबकी लगा, अपनी चापमयी वीणा, तीण्डूपी
१ केोणैर--वीणावादनदण्डैः । ( गो० )
ड़ सां० रा०0 शु०--१४
२१० युद्धकायडे
ग़ज़ से वज्ाऊंगा ओर ज्ञव रोदे की ठड्लार होगी तथा घायलों
घोर भयभीत हुए सैनिकों का हाह्मकार छुन पड़ेगा पश्मोर तोर्रों की
सनसनाहठ खुन पड़ेगी ॥ ४३ ॥ ४४ ॥
न वासवेनापि सहस्तचन्न॒पा
यथा5स्मि शक्यों वरुणेन वा खयस |
(९ चित
यमेन वा धपयित शरात्रिना
पहाहवे वेश्रवणेन वा पुन। ॥ ४५ ॥
इति चतुविशः सर्गः ॥
उस समय न ते सहलझ्ात्ष इच्ध की अथवा स्वयं वरुण की
अथवा यम की अथवा छझुबेर को यह मज्ञाल है कि, इनमें से कोई
भी मेरे साथ महायद्ध में, मेरे वाणामि का सामना कर सके ॥७५॥
युद्धकागड का चैवीसवाँ सर्य पूरा हुप्रा !
पन्नविशः सर्ग:
..0.---
सबले सागर तीणें रामे दशरवात्मने !
अमात्यों रावण; *श्रीमानब्रवीच्छुक सारणो ॥ १॥
ज्व श्रीरामचन् जी वानरोी सेना सहित सप्ुद्र के इस पार
झा गये ; तद प्रमत्त राचण ने झुक ओर सारण नामक श्रपते मंत्रियों
से कहा ॥ १॥
£ क्षीमान् इति--मदातिशयेाक्ति: । ( गो० )
पतञ्मविशः सर्गः २११
समग्र॑ सागरं तीण दुस्तरं वानरं वलरूप्।
अभूतपूर्व रामेण सागरे सेतुवन्धनम् ॥ २॥
देखे, दुस्तर समस्त सागर के वांनरी सेना पार कर आयी ।
भीराम का सपुद्र के ऊपर पुल वाँधना भी एक ऐसा काम है, जे
इसके पहित्ते कभी किसी ने नहीं कर पाया था ॥ २ ॥
सागरे सेतुवन्ध॑ तु न श्रदृष्यां कथश्वन ।
अवश्यं चापि संख्येयं तन्मया वानर॑ वलम्। ३ |
यद्यपि सागर के ऊपर पुल वांध केने से मुझे श्रोरामचन्द्र के
ऊपर किसो प्रकार श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती, वधापि मुझे यह शान
केना प्रावश्यक है कि, श्रीरामचन्र के साथ क्रितनी सेना है ॥ ३ ॥
भवन्तो वानरं सेन्यं प्रविश्यानुपलक्षितों ।
परिमाणं च वीये च ये च मुख्या। एबद्धमा। ॥ ४ ॥
से। तुम छिप कर पानरी सेना में जाओ और चहाँ जा कर देश्त
शझाओ कि, चानरी सेना कितनी है, उसकी कैसा शक्ति हैं। उनमें
पुख्य मुख्य चानर कोन कान हैं? ॥ ४॥
मन्त्रिणो ये च रामस्य सुग्रीवस्य च सम्मतः ।
ये पूर्वपभिवतन्ते ये च शूराः एवज्जमा। ॥ ५ ॥
भोरामचन्द्र ओर खुप्रोष के कौन कोन मंन्नी हैं, जिनकी वातें
वे दोनों मानते हैं या जिनका पे दे।नों आदर करते हैं। पे कोन शूर
हैं, जे सेना के ध्मागे रदते हैं ओर उनमें जे| वास्तव में शूर वानर दें
उन सब का पता लगा लाओ ॥ ४ ॥
१ नश्नदृष्या-स्ये न रोचते ) (शि० )
२२ युद्धकायडे
स च सेतुयथा वद्ध सागरे #सलिलाशये |
निवेश च यथा तेपां वानराणां महात्मनाम॥ ६॥।
उन लोगों ने सागर पर पुल कैसे वाँधा ओर पे थैयंदान
घचानर किस प्रकार दिके हुए हैं। ये वातें भरी ज्ञान लेना ॥ $ ॥
रामस्य व्यवसायं* च बीय प्रहरणानि च |
रत छः
लक्ष्मणस्थ च वीरस्य तच्तो ज्ञातुमईंथ। ॥| ७ ॥
तुम लाग इसका सी ठीक ठीक पता लगाना कि, राम और
लक्ष्मण क्या करना चाहते हैं, उनमें वल कितना है, वे किन
आदयुर्धों से कड़त हैं ॥ ७ ॥
कश्च सेनापतिस्तेषां वानराणां महोजसाम |
एतज्वाला ययातत् शीघ्रमागन्तुमहथ! ॥ ८ ॥
उस वर्दी बलवती वानरो सेना का कोन सेनापति है। इन सव
वातों का पता लगा तुम शीघत्र भरा ज्ञाओ॥ ८॥
इति परतिसमादिष्टो राध्षसों शुकसारणों |
हरिख्पघरों वीरो प्रविष्टों बानरं वलम् ॥ ९ ॥
जब रावण ते इस प्रकार झात्ञा दी, तव वे क्षेनों वीर शक
सारण राक्षस, चबानर का रूप धर, वानरी सेना के शिविर में
घुस ॥ ६॥
ततस्तद्वानरं सेन्यमचिन्त्यं रोमहरषणस् ।
संख्यातुं नाध्यगच्छेतां तदा तो शुकसारणों ॥ १० ॥
२ व्यवप्तायं--करत्तन्यविषयतिश्वयं । ( गेर० ) # पाठान्तरे--“ घलिका-
०. ९
फौज
पश्चविशः सगे! २१३
किन्तु वे शुक सारण उस प्रसंख्य श्लोर भयावह होने के कारण
रामाथ्चकारी कपिसेना की संख्या न ज्ञान पाये ॥ १०॥
संस्थितं पवेताग्रेप ऋनिर्ेरेपु गुहासु च।
समुद्रस्थ च तीरेपु वनेपृूपवनेषु च॥ ११॥
क्योंकि पह सेना ( एक स्थाव पर वहीं वदिक ) पर्वत शिषरों
पर, भरनों के समीप, गिरिगुद्दाश्रों में, सप्तुद्र के तट पर, वनों ओर
उपवनों में फैली हुई पड़ी थी ॥११॥
तरमाणं च तीण च ततुकाम च सबेशः ।
निविष्टं निविशेश्वेव भीमनाद महावरूम ॥ १२॥
से। भी वहुत सी ते पार हा चुकी थी झोर वहुत सी धभी पार
हो रही थी श्रोर वहुत सी पार होने की तेयारी कर रही थी।
नेक वानससैनिक उस समय छेरे डाल चुके थे पशयोर बहुत डेरे
डालने के उद्योग में लगे हुए थे। वे सव के सब सिंह की तरह
दद्ाड़ रहे थे भोर बड़े चलवान थे ॥ १२ ॥
तद्वलार्णवमक्षो म्यं ददशाते निशाचरों ।
तो ददर्श महातेजा। प्रच्छन्नों च विभीषण। ॥ १३ ॥
पे दोनों यत्तस झपना असली रुप छिपाये, उस सेनाझूपी
घ्त्तेभ्य सागर को देख ही रहे थे कि, इतने में मदातेन्नस्यी विभीषण
ने उनके पहिचान लिया ॥ १३ ॥
आचचक्षेज्य रामाय ग्रहीत्वा शुकसारणी ।
तस्येमी रा्षसेन्द्रस्य मन्त्रिणो शुकसारणों | १४ ॥
अनिल ली काका,
# पाठान्तरे-- निर्देरेपु |
२१४ युद्धफायडे
लड्जाया; सममुप्राप्तो चारों परपुरक्षय ।
वो दृष्टा व्यथितों राम॑ निराशों जीविते तदा ॥ १५ ॥
ओर उन दोनों शुक सारण को पकड़ कर, पे श्रीरामचन्द्र जी के
एस के गये ओर कहा--है शत्रु को जीतने वाले ! ये दोनों राक्षस
राजा रावण के मंत्री हैं। इनके वाम शुक प्रोर सारण हैं। ये लड्ढा
से यहाँ गुपचर वन कर आये हैं। वे श्रोरामचन्द्र जी के देख वहुत
व्यथित हुए ओर जीवन की आशा से भी हाथ तो वैठे ॥ १७॥ १४॥
कृताझ्लिपुटो भीतों वचन चेदमूचतुः ।
आंवामिहागतो सौम्य रावणप्रहिताबुभो ॥ १६॥
उन्होंते मारे डर के हाथ जोड़ कर यह कहा-ह सैम्य !
€म दोनों राचण के भेजे हुए यहाँ आये हैं ॥ १६ ॥
परित्ञातुं वर्क कृत्स्नं तवेदं रघुनन्दन ।
तयोस्तद्वचन॑ श्रुत्वा रामो दशरथात्मणः ॥ १७ ॥
हे रघुनन्दन।! हम इसलिये भेजे गये हैं कि, हम तुम्हारी
समस्त सेना की संख्या ज्ञान लें। दाशरथी भ्रीरामचन्द्र जी ने
उनके ये चचन सुने ॥ १७ ॥
अव्नवीत्मइसन्वाक्य॑ सर्वंभूतहिते रतः ।
यदि दृष्टं वर्ल॑ कृत्सनं बय॑ वा सुपरीक्षिता। | १८ ॥
यथोक्त वा कृत॑ का छन्दतः प्रतिगम्यतास ।
अथ किशिदर॒ष्टं वा भूयस्तदद्ृष्टुमहथ! ॥ १९ ॥
विभीपणो वा कार्स्न्येंन भूय। संदश्शयिष्यति ।
न चेद॑ं ग्रहण प्राप्य भेतव्यं जीवितं प्रति || २० ॥
पश्चविशः सर्गः २१५
झोर मुसक््या कर सर्वप्राणिहितेयों श्रीसमचद्ध जो ने उनसे
यह कहा--ठीक दूँ, अगर तुम हमारी समस्त सेना को संख्या
जान चुके हो आर हम लेगों के वलचीय आदि की भज्नीभाँति
परीत्षा ले चुके हो और राक्षसराज की थाज्ञा के अनुसार समस्त
काय पूरा कर चुके हूं तो, अ्रव जहाँ तुम चाही वहाँ चले जाओ |
ओर यदि अभी कद देखना रह गया हो ता पुनः तुम देख सकते हो
पअथवा यदि तुम चाहोगे तो विभीषणा ही तुमको भलीभाँति दिखा
देंगे। यद्यपि तुम इस समय गिरफ़ार कर लिये गये हो; तथापि
तुम्हें अपने जीवन के लिये डरना न चाहिये। श्रर्थात् ठुम मारे न
ज्ञा्योंगे ॥ १८॥ १६ ॥ २० ॥
न्यस्तश््रों ग्रहीतो वा न दूतो वधमहंथः ।
प्रच्छनो च विमुश्चेतों चारा रात्रिचराबुर्भो ॥ २१॥
अत्रुपक्षस्य सतत विभीषण विकर्षणों ।
प्रविश्य नगरीं छड्ठां भवद्धयां पनदाजुज! ॥ २२ ॥
वक्तन्यों रक्षसां राजा यथोक्त वचन मम्र !
यद्धल॑ च समाभित्य सीता में हृतवानसि ॥ २३ ॥
क्योंकि शख्ररहित पकड़े गये हो शध्गोर इत वन कर शआये हो
अतः तुम मार डालने योग्य नहीं हो। है विभीषण ! यद्यपि ये रूप
बदल कर थाये हें, शन्न के भेदिये हैं शोर खुम्नीवादि का भेद क्षेने
झाये हैं; तथापि इन दोनों राज्तसचरों के छोड़ दो | ( घिभीपण से
यह कह शभ्रीरामचन्द्र पुनः उन गुप्तचरों से कहने लगे। ) हे राक्षस-
चरे ! लड्ढा में ज्ञा कर शाप लाग कुबेर के भाई रात्तसराज राचण
से, भें जो कहता हैं सा ज्यों का त्यें। कह देना | डससे कहना कि
जिस वलबूते पर तूने मेरी सीता दरी है ॥ २१॥ २२५॥ २३ ॥
२१६ युद्धकायडे
तदशय यथाकार्म ससेन््य! सहवान्धव) ।
शव! काटये नगरीं छड्ढां सप्रकारां सतारणाम् ॥ २४ ||
रक्षसां च वर्ल पद्य शरेविध्य॑ंसितं मया |
क्रोध भीममहं मोक्ष्ये ससेन्ये लयि रावण || २५ ॥
शव) कासये बज्ञवान्वज दानवेष्विद वासव: ।
इति प्रतिसमादिष्ठो राक्षतों शुकसारणों ॥ २६ ॥
उस अपने बल का अपनी सेना और भाईवन्दों के सहित मुस्े
दिखला | तू कल सवेरे परक्ोरें ओर तारण द्वारों सहित
लड्जापुरी के तथा समस्त राज्ञसी सेना के मेरे वाणों से ध्वस्त
हुआ देखेया |! हे रावण | कल सवेरे में सेना सहित तेरे ऊपर
झपना भयडुर क्रोध बेसे ही प्रकट करूँगा जैसे वज्नधारी इन्द्र दानवों
के ऊपर वजच्नर छोड कर, अपना ऋोध प्रकदढ करते हैं। इस प्रकार
जब श्रीरामचन्द जी ने उन दोनों शुक्र सारण राक्तसों को पाता
दी॥ २०७ ॥ २५ ॥ २६ ॥
जयेति प्रतिनन्धेतों राघव॑ धर्मवत्सलस ।
आगम्य नगरीं लड्झामत्॒तां राक्षााधिपम् ॥ २७ ॥
तब वे घर्मवन््सल श्रीयामचन्ध जी की जयजयकार करते हुए
लड्ढा में जा, रात्सराज़ राचग से बोले ॥ २७॥
विभीषणग्रद्दीता तु॒ बधाई राक्षसेइवर |
च जे मितते
दृष्टा धमात्मना मुक्तो रामेगामिततेजसा ॥ २८ |
है राज्नसेश्वर | हमें मार डालने के लिये चविसीपण ने हमें पकड़
लिया था; किन्तु असीम चेजम्ती धर्मात्मा श्रीरमचच्ध जी ने हमके
देखते ही छोड़ दिया ॥ र८ ॥
पञ्चचिश: सर्गः ५ १ पड
एकरथानगता यत्र चत्वारः पुरुषषभा! ।
ल्ोकपालेपमाः शूराः कृताज़ा दृहविक्रमा! ॥ २९ ॥
रामो दाशरथिः श्रीमाँह_््मणश्च विभीषणः |
सुग्रीवश्च महातेजा महेद्रसमविक्रम! ॥ ३० ॥
दाशरथी भ्रीरामघद्क, शाभासम्पन्न लक्ष्मण, विभीषण ओर
मदातेजस्वी एवं इत्र के समान पराक्रमी खुप्नीव, ये चारों श्रेटनन'
एक द्वी खान पर टिके हृए हैं। ये लोकपालों की तरह शूर हैं,
शब्रविद्या में निपुण हैं ओर बड़े पराक्रमी हैं ॥ २६ ॥ ३० ॥
एते शक्ताः पुरी लड्ढां सप्राकारां सतारणास ।
उत्पाठय 'संक्रामयितुं सर्वे तिष्ठन्तु वानरा। ॥ ३१ ॥
ये चार अश्ेक्ते ही परकोठों श्रोर तोरणद्ारों सहित लड़ा के
उस्ाड़ कर फेंक सकतें हें। श्रन्य समस्त वानर भत्ते ही बैठे
रहें ॥ ३१॥ ।
याहर्श तस्य रामस्य रूप॑ पहरणात्रि व |
वृधिष्यति पुरी लड्ढडामेकस्ति्॒ठन्तु ते त्रय! ॥ ३२ ॥
' जिस प्रकार का श्रीराम आदि का रूप है शोर जेसे उनके
हथियार हैं; उनकी देखते हुए कहा जा सकता दे कि, भीराम
प्रकेले ही लडुध का नाग कर सकते हैं। लक्मण सुप्रीव भोर
विभीषण, इन तीनों क्री सहायता की भी उनकी झावश्यक्रवा नहीं
है ॥३२॥ हि
रामलक्ष्मणगुप्ता सा ण च वाहिनी |
वर्भूव दुधपतरा सेन्द्रेरपि सुरासरे ॥ २३ ॥
३ संक्रामयितु--अन्यत्ष क्षेप्त । ( गो" )
श्श्८ युद्धकाणडे
श्रीराम लक्ष्मण शोर सुम्रीव से रक्तित वानरी सेना, इन्द्र
सहित देवताओं ओर दानवों से भी ग्राति अजेय हो गयी है॥३६ |
प्रहष्टरूपा ध्वजिनी वनोकर्सां
महात्मनां सम्पति योद्धुमिच्छताम |
'अलं विरोधेन शमो विधीयतां
प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली [| ३४॥ '
इति पश्चचिशा संग: ॥
है राजन ! वानरी सेना में प्रसक्षता छायी हुई है और थे सब .
हुढ़ मनस्क्र हैं और तुरन्त युद्ध करना चाहते हैं। श्रतएव शाप
छपना क्रोध शान्त क्रीजिये और दृशरथनन्दन भ्रीरामचन्ध के
जानकी दे कर, उनके साथ शन्नुता की इंति श्री कर डालिये ॥ ३४ ॥
युद्धकाण्ड का पतश्चीसवां सर्ग पूरा हुआ ।
कलम
घड़्विशः सर्गः
--#--
तद्चः पथ्यमकछीवं सारणेनाभिभाषितम |
निशम्य रावणो राजा प्रत्यमापत सारणम् | १ ॥
सारणा के हितकर ओर धझकातर वचन खुन, राज्तसराज रावण
ने सारण के उच्दर देते हुए कद्दा ॥ १ ॥
यदि भामभियुश्धीरन्देवगन्धवेदानव: |
नैव सीतां प्रदास्यामि स्बंाकभयादपिं | २॥
घड्विशः सर्मः २१६
यदि देवता, गन्धरव॑ और दानच भेरे ऊपर चढ़ाई फरें, धथवा
समस्त त्लोक हो मेरे विरुद्ध हो जाय, तो भी मैं भवभीत ही की
सीता, ध्रीरामचर्र के न ढूँगा ॥ २ ॥
त्व॑ तु सोम्य परित्रस्तो हरिभिर्निर्मिता भृशम |
कट)
प्तिप्रदानमथ्ेव सीताया! साधु मन्यसे ॥ ३ ॥
है सैस्य ! तुम ते बानरों से कए पा कर डर गये हो। इसीसे
ते तुम थ्राज् ही सीता के लैदा देना धच्छा समझते हो ॥३॥
के हि नाम 'सपत्नों मां समरे जेतुमह॑ति |
र्युकत्वा परुषं वाक्य रावणो राक्षसाधिप) ॥ ४॥
पसा कौन शत्र है, जे मुझे युद्ध में जीत सके। राक्षसराज
रावण, इस प्रकार के कठोर वचन कह ॥ ४ ॥
आरुरोह ततः श्रीमान्पसाद हिमपाण्डरम ।
' बहुतालसमुत्सेध॑ रावणोज्य दिहृक्षया ॥ ५ ॥
बर्फ की तरह सफेद रंग की धदारी पर सेना देखने की इच्छा
से चढ़ गया। बह अठारी कई तालबूत्तों के तर ऊपर रखने की
ऊंचाई से भी कहीं वढ़ कर ऊँची थी ॥ ५ ॥
ताभ्यां चराभ्यां सहिता रावण; क्रोधमूर्छितः ।
पश्यमानः समुद्र च पवतांथ वनानि च ॥ ६ ॥
९ देश ५,
ददश पृथिवीदेश सुसभ्पू्ण प्रवद्धमेः ।
तदपारमसह्डय य॑ वानराणां महदवलूम् ॥ ७ ॥
१ सकल: -शत्र/ । ( गे।० ). २ शथ्वीदेशं--व्रिकूशाध: प्रदेश । (गे।०)
२२० युद्धकायडे
उस समय रावण बड़ा कुपित था और उसके साथ पे दोनों
राक्षसहरत शुक श्र सारण भी थे। उस अटारी से उसने समुद्र
चन. बत्िकूटाचल पर्चत को तराई ध मोर पहाड़ों पर वंद्र ही वंद्र
देखे । उसने उस अपार असंख्य ओर बड़े बलवान वानरों की
सेना के देखा ॥ ६ ॥ ७ ॥
आलेक्य रावणो राजा परिपप्रच्छ सारणम् |
एपां वानरमुरूयानां के श्राः के महावक) || ८ ॥
डस सेना का अवल्तेक्न ऋर, रावण सारण से पू छुने लगा ।
इन बानरों में कोन कौन मुख्य, कान कान वीर ओर बड़े बड़े
बलवान हैं ? ॥ ८ ॥
के पूवेमभिवतन्ते महोत्साहा! समन्ततः ।
केषां शृणोति सुग्रीवः के वा यूथपयूथपा: ॥ ९ ॥|
झोर फोन कौन वानर अत्यन्त उत्सादित है! चारों ओर से
घानरी सेना की रक्ता करते हैं ? सुप्रीव किसकी सुनते हैं, अर्थात्
किसे अधिक मानते हैं ? यूधपतियों के यूयपति कोन हैं॥ & ॥
सारणाचह्ष्य तत्वेन के प्रधाना; छुवद्भमा |
सारणो राफ्षसेन्द्ररय वचन परिपृच्छत; ॥ १० ॥
है सारण ! तुम ठोक ठीक वतलाओं कि, इस वानरी सेना में
प्रधान वानर कोन कोन हैं? राज्षसराज़ रावण के इन प्रश्नों को
खुन ॥ १० ॥
आचचफ्षेष्य मुख्यज्ञो #मुख्योस्तत्र वनौकसः |
एप योभिम्नुखों ल्ढां नदेस्तिष्ठति वानर!'॥ ११ |
# पाठान्तरं--“ मुख्यात्ताल्तु |
पडूत्रिश ! सभः २२१
मुख्य अ्रपुख्य चानर चीरों के आनने धाला सारण, मुख्य
वानरों के नाम, धाम, वल, विक्रम का निरुपण करके कहने लगा।
चह् पोजा-है रावण | यद्द बानर जे लड़ा की शोर मुख कर गरज
रहा है ॥ ११ ॥
यूयपानां सहस्राणां शतेन परिवारितः |
यस्य घोषेण महता सम्राकारा सतेरणा ॥ १२॥
सो इसके साथ एक लाख चानर यूथपति हैं। इसके सिंहनाद
सेपरकार, तेरण द्वारों ॥ १२ ॥
लड्डू प्रवेपते सवा सशेलवनकानना ।
श
सवृंशाखामृगेन्द्रस्य सुग्रीवरय महात्मन। ॥ १३ ॥
पहाड़ों, धर्तों, और उपचनों सद्वित सम्रस्त लड्ढाड काँप रही है
झोर जे समस्त वानरों के राजा महावुद्धिमान सुभव ॥ १३ ॥
वलाग्रे तिप्ठते वीरों नीछो नामेप यूथपः |
] #९% ॥चं
वाह प्रमृ्न यम पदूश्यां महीं गच्छति वीयेवान् ॥ १४ ॥
की सेना के आ्रागे खड़ा है, इसका नाम नील है शोर यह बड़ा
चीर झोर यूथपति है। जे! वलवान वाबर वाँहों का उठाए, पृथिची
पर उहल रहा है ॥ १४ ॥
लड्जामभिमुखः क्रोपादभीक्षणं च विजृम्भते ।
मिरिधद्मतीकाश! प्चकिक्लकसब्िभः ॥ १५ ॥
और जो लड्टा! की ओर मुख कर घोर क्रोध में भर तिरही
दृष्टि से देखता'हुआ जँसुद्ाई के रद्द है, शोर जो पवतशिखर के
, समान विशाल शरीरधारी है तथा जिसके शरीरका रण फेस-
जरज्ञ को तरह पीला है ॥ १५ ॥
श्रेरे युद्धकागडे
स्फोट्यल्यभिसंरब्षे। छाइग्गूलं च पुनः पुन |
यस्य लाहग्गूलशब्देन खनन्ति श्रदिशों दश ॥ १६ ॥
शोर जे क्रोध में भर अपनो पूंछ बारबार पृथिवी पर पढक
रहा है और शिसकी पूंछ की फटकार के शब्द से दसों दिशाएं
प्रतिष्वनित हो रही हैं ॥ १६ ॥ '
एप वानराजेन सुग्रीवेणाभिषेचितः |
योवराज्येड्ड़दो नाम त्वामाहयति संयुगे ॥ १७॥
से यह झड़ुद् नाम का वानर है। इसे कपिराज सुम्रीय ने
यैवराज्यपद् पर अ्रसिषिक्त किया है शोर यह तुमको युद्ध के लिये
ललकार रहा है ॥ १७॥
वालिन; सहश; पुत्र; सुग्रीवर॒ण सदा प्रिय) ।
राघवार्थें पराक्रान्त) शक्रार्थे बरणे यथा ॥ १८ ॥
यह बालह्नि का पुत्र कूद अपने पिता के समान वलवान प्योर
पराक्रमी है ओर सुप्रीव का सदा प्रियपात्र है। ज्ञिस प्रकार चरुण
जी इन्द्र के क्षिये पराक्रम प्रदर्शित करने के उच्चत रहते हैं; डसी
अकार यह भी भ्रीरामचन्द्र जी के लिये पराक्रम दिखाने के तत्पर
रहता है॥ १८॥
एतरुय सा मतिः सवा यद्दष्ठा जनकात्मजा |
हनूप्तता वेगवता राघवस्य हितैषिणा ॥ १९ ॥
श्रीरामचन्द्र के दितेषी पेगवान हनुमान जी, जो लड्डुम में प्रा
जानकी की देख गये थे, से उन्होंने ये समस्त कार्य इन्हों धडुद
की सम्मति से किये थे॥ १६॥ ै
पडविशः सर्गः २२३
वहूनि बानरेन्द्राणामेप यूथानि बीयवान्।
परिग्द्याभियाति तां स्वेनानीकेन दुर्जय! || २० ॥
वलवान प्जद्गभद असंख्य वानरयूथपतियों के साथ तुम्दारा मदन
करने के आगे बढ़ा ध्याता है | यह दु्जेय है ॥ २० ॥
अजु वालिस्ततस्यापि वलेन महताहतः ।
चीरस्तिए्ठति संग्रामे 'सेतुद्देतुरयं नल। | २१ ॥
जिस पीर ने समुद्र के ऊपर पुन्न बाँधा है, बह नल नामक
चीर घानर लड़ने की प्रमिलापा करता हुआ बड़ी भारी सेना के
साथ वालिखुत अडुद के पीले खड़ा हुआ है ॥ २१॥
ये तु विष्टश्य गात्राणि एवरेलयन्ति नदन्ति च ।
उत्थाय च विजुस्मस्ते क्रोपेन हरिपुज्धवा। ॥ २२ ॥
ये ज्ञो कपिश्रेष्ठ अपने श्रज्गों के मल मल कर, सिंदनाद् करते
हुए गरज रहे हैं तथा उचफ उचक कर कौध में भर जंमुद्दाई जे
रहे हैं ॥ २२ ॥
एते दुष्पसहा धोरश्चण्डाश्चण्डपराक्रमा। |
अष्ठी शतसहस्लाणि दशकोटिशतानि च॥ २३१॥
ये सव शज्रुघ्रों के लिये पध्यसह्य शयौर प्रचण्ड पराक्रमी हैं।
इनकी संख्या एक ख़ब श्याठ लाख है ॥ २३ ॥
य एनमनुगच्छन्ति वीराश्चन्दनवासिन! ।
एपेवाशंसते३ लड्ढां स्वेनानीकेन मर्दितुम ॥ २४ ॥
१ सेतुद्दतुः--लेतुकर्ता। (गे।० ) २ विष्टम्य -उम्नस्य । (गे।० )
३ आशंघतै--प्रार्थथते | ( गे।० )
२२५७ युद्धकाणडे
उनके पीछे जे। वीर चानर हैं, वे सब चन्द्नवन निवासी हैं
ये अपनी सेना द्वारा लड़ा के ध्वस्त करने की थाज्षा पाने के लिये
प्रार्थना करते हैं ॥ २७ ॥
श्वेते रमतसझ्ाशश्चपले भीमविक्रमः ।
बुद्धिमान्वानरों वीरखिएु लेकेबु विश्वुतत ॥ २५ ॥
एदेत नामक वानर, जिसका रंग चाँदी की तरह सफेद है
शोर जे। वड़ा पराक्रमी बुद्धिमान कोर तीनों लोकों में एक प्रसिद्ध
वीर समझा जाता है ॥ २५ ॥
तूण सुग्रीवमागम्य पुन्गच्छति सत्वरः ।
विभजन्वानरीं सेनामनीकानि प्रहपयन ॥ २६ ॥
देखिये, फैसी शीघ्रवा से छुप्मीव के पास जाता ओर लोग पाता
है। जे वानरी सेना के विभाजित कर रहा है, जे। अपनी सेना
के प्रसक्ष कर रहा है॥ २६ ॥
यः घुरा गोमतीतीरे रम्यं पर्येति' पवतम् ।
नाज्नां सल्लोचनो नाम नानानगथुते गिरि! || २७ ॥
तत्र राज्य प्रशास्त्येष कुमरुदे। नाम यूथपः
योज्सों शतसहख्राणां सहरूं परिकर्षतिर ॥ २८ ॥
जे। पहिले गोमती तथ्व्ती रमणीक पर्वत के चारों ओर घूमा
करता था, तथा श्रव अनेक पर्वतों से घिरे हुए सद्भोचन नामक
पर्वत पर राज्य करता है। इसका नाम कुमद् है ओर यह भी एक
यूथपति है। यह एक लाख वानर लेकर आया हुआ है ॥२»२८॥
३ पर्येति--परित्तः सद्बरति | (गो०) २ परिकर्पति--आनयत्ति । (गे?
।
पमपिशा सर्ग। ५५५
यरय बाला पहुम्याभा दीपों छाएगृूएगाशिया।
ताग्रा। पीता: सितता; सबेता! अकीर्णाथीरकर्गीण। ॥२९॥
शिसकी परद्ी भारी पूए के इधर उपर बहुत दाग हाथ भाषा
जथ्का शोर टिगई हु दो, ॥हुढी पी, मुढ। थोशों, हुई
सपंध ॥ शोर हड़ भयागक शाभ पड़ी है ॥ २० ॥
दोनो रोपणइलएट; संग्रागमगिकाशरति |
एपोध्प्याशंसत छड्ढी स्वैनानीकन पर्दितुमू ॥ १० ॥
श णदीन है योर पड़ा औपी | इसका मोम सगे है । यह पद
संग्राम प्रिय ।। । था भी शवती सभा का साथ हे छाए का शास्पे
फरने दी शत पाभे थे शिये सम्रीग से आधेसा वार्ता ।॥ ॥०॥
यसतेष सिहसकाश। कपिला #ऋदीम॑परेंसर! ।
निश्चता? मैक्षत लड्॑ दिवक्षलित अक्षुपा ॥ ६१ ॥
या लिए हे समा पीछि रुग को शाभर, तिरापी गंध पर
एंव बंधे घोल है, जी साहा की घोर पैसे धूर शद्ा है, गार्गों हरि
ही से वगुत का शस्ता पा० दालेगा ॥ 5१॥
विन्द्य॑ फ्रष्णगिरि राह पर्येत गे शुदशनम |
क कर. क्र ३ ५
राजन्सततमध्यारते रस्म सागेष यूथप। ॥ ३५॥
भौर जिसका गिरय, कष्णमिरि। शाद्ि गधा संदशम माभक
चीन पर्तगों पर शाने को श्थाम 2। ॥# शाम, | था। एस मांग का
धूथपति है ॥ १९ ॥
कर, १+३०:%-4०>उीकती' ९५०७० ७-.५४+ ०92० २० थाई वो, इुधानी प्रभोपोष्यप्माकक 42३० 0:च०७/फ३ 6 4.
॥ निशा! "एकांत | ( शा० ).. # परादाशार-»। भी।कीयत।
धा० शा० भु००--१४
का] हििब न फलन खा है ४ 7 ७४के ७ दुए कम 5 ज 9
२२६ युद काणडे
शर्त शतसहस्राणां त्रिंशन्र हरिपुद्धवा; ।
यमेते वानरा। शूराश्चण्हाश्चण्डपराक्रमा। ॥. ३३ ॥
परिवार्यानुगच्छन्ति ल्गां मर्दितुमोनसा ।
यस्तु कर्णा विहृशुते जुम्भते च पुनः पुन। ॥ २४ ॥
इसके एक करेड़ तीस प्रचणड शुरवीर झोर पराक्रमी वानर
घेर कर चलते हैं। यद भी अपने पराक्रम से लड्ढा के ध्वस्त करना
चाद्दता है। देखे, यह जे अपने कानों के सकाड़ता और बार वार
जभाई लेता है ॥ ३६३॥ २४ ॥
नच संविजते मृत्योन च युद्धादिधाव॑ति ।
॥
प्रकम्पते च रोपेण तियक्च पुनरीक्षते ॥ ३५॥
पश्येक्वाउम्गूलमपि च क्ष्वेखते च महावकूः ।
महाजवे बीतभयों रम्यं सास्वेयपवतम || ३६ ॥|
यह न ते मरने से डरवा है और न युद्ध से मुँह मोड़ता है ।
यह मारे क्रोध के थर थर काँप रहा है भोर तिरही दृष्टि से देख
रहा है। देखिये, पू छू फटकार कर कैसा सिहनाद कर रहा है तथा
झपने वलविक्रम पर निर्भर रह कर, निर्भव हे! साब्वेष वामक
र्मणीय पहाड़ पर रहता है॥ ३४॥ ३६ ॥
राजन्सततमध्यास्ते शरभे। नाम यूथपः ।
एतस्य वलिनः सर्वे विहारा नाम यूयपा। ॥ ३७ ॥
दे राजन! यद शरभ नामक यृूथपति है । इसके पअधीनस्य
यूथप, विद्वार वाम से पुकारे जाते हैं ॥ ३७॥
पड्विशः सर्ग: २२७
राजन्शतसहत्नाणि चल्ारिंशत्तयेव च |
यस्तु मेघ इवाकाशं महानाहत्य तिप्ठति ॥ ३८ ॥
हे रातन् | इनकी संख्या एक लाख चालीस हज़ार है। यह
जा झाकाश के बड़े मेघ की तरह ढके हुए ॥ २८ ॥
' ग्ध्ये वानरवीराणां सुराणामिव वासवः |
भेरीणामिव सन्नादों यस््येष श्रूयते महान् ॥ ३९ ॥
घोषः शाखामगेन्द्राणां संग्राममभिकाइुतामस ।
एप पबतमध्यास्ते पारियात्रभतुत्तमम्् | ४० ॥
बानरों के वीच वैसे द्वी बैठा है, मेसे देवताधों के धीच इन्ध
झौर जिसकी सेना के युद्धक्ाँत्ती वानरों का मद्दागजन नंगाड़ों के
शब्द की तरद्द सुनाई पड़ता दे, उत्तम पारियाश्र पर्वत पर रहता
है॥ ३६ ॥ ४० ॥
युद्धे दृष्प्रसहों नित्यं पनसो नाम यूथपः ।
एन शतसहस्ताणां शताध् पयुपासते ॥ ४१ ॥
युद्ध में इसका धार सदना कठिन है । यदद यूथपति है शोर इसका
नाम पनस है। इसके प्रधीनस्थ डेढ़ लाज घानरचीर हैं॥ ४१॥
यूथपा यूयपश्नेप्ठ येपां यूथानि भागश। ।
यस्तु भीमां प्रव्मन्ती चमूँ तिष्ठति शोभयन् | ४२॥
स्थितां तीरे समुद्र॒स्प द्वितीय इंच सागरः ।
एप दद्रसझ्लाशो विनतो नाम यूथपः ॥ ४३ ॥
.... इन घानर यूथपतियों के यूथ पृथक् प्रथक् हैं। जे भयद्भर रूप-
से खलवलाती प्रोर सप्ुद्वृतठ पर स्थित तथा दूसरे समुद्र की तरद '
श्शे८ युद्धकाणडे
शेासायमान सेना के शामित कर रहा है ओर जे दवेयचल की तरह
वड़ा द्िखलाई पड़ता है, यद्द विनत नामक यूथपति है ॥ ४१॥ ४३॥
पिवंश्वरति पर्णासां नदीनामुत्तमां नदीम |
पष्ठटि: शतसहस्लाणि वलमस्य प्रुवक्भमा।ः || ४४ ॥
यह घूमता फिरता रहता है और सदा नदियों में श्रेष्ठ पर्यासा
( पतासा ) नदी का पानी पिया करता है। इसक्की सेना में साठ
लाख चानर हैं ॥ ४४॥
त्वामाहयति युद्धाय क्रोधनों नाम यूथपः ।
विक्रान्ता वल्नवन्तश्च यथा यूधानि भागश। ॥ ४५ ॥
यद्द देखिये कोधन नामक यूथपति ठुमके युद्ध करने के लिये
ललकार रहा है। इसके अधीनस्थ सैनिक बड़े बलवान ओर परा-
कमी हैं ओर वे सैनिक यूथों में विसक हैं ॥ ४५ ॥
यस्तु गेरिकवर्णाभं वषु) पुष्यति वानरः |
अवमत्य सदा सर्वान्चानरान्वलद्पितान् ॥ ४६ ||
मिसके शरीर का रंग गेरू जैसा है ओर जे युद्ध करने की
श्राशा से आानन्दित हो अपने शरोर के फुला रहा है भोौर जे
अपने वल के दप से दर्पित है।, अन्य वानरों के सदा तुच्छ समक्ता
करता है; ॥ ४६ ॥
गवयो नाम तेजख्री तवां क्रोपादमिव्तते ।
एन शतसहस्ताणि सप्ततिः प्युपासते ।
एपवाशंसते ल्ढां स्वेनानीकेन मर्दितुम || ४७ ॥
१ पुण्यति--युद्धहर्षादसिवर्धयति ( गे।० )
सप्तविशः सगे: २२५६
तेजल्ली गवय नामझ यूथपति है। यह कोध में भरा हुप्रा
श्रापका सामना ऋरने की वाठ जोह रहा है। इसके पश्धिकार में
सत्तर लाख वीर वानर हैं | यह भ्रफेल्ा हो ध्यपनी सेना के साथ
लद्ढुग के ध्वस्त करना चाहता है ॥ ४७ ॥
एते दुष्पसह् घोरा वक्तिन) कामरूपिणः ।
यूथपा यूथपश्रेष्टा एपां यूथानि भागश) ॥ ४८ ॥
इति पडुविशः सर्गः ॥
दे महाराज | ये सव के सब दुस्सह, भयद्ुुए, बलवान एवं
काम्रूपी वानरयूथ ओर यूयपश्रेष्ठ हें। इनके झधोनत्य यूथ, पृथक्
पृथक हैं ॥ ४८॥ ह
युद्धकायड का कृब्वीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
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सप्तविशः सर्गः
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तांस्तु तेऊं प्रवक्ष्यामि प्रेश्षमाणस्य युथपान् ।
राघवायें पराक्रान्ता ये न रक्षन्ति जीवितम ॥ १ ॥
सारन चोला--दै राजन | आप ज्ञिन पराक्रमी यूथपों के देख
रहे हैं, वे ध्रपनों ज्ञान का दथेली पर रखे हुए, भ्रोरामनन््द्र जी के
लिये वलविक्रम प्रकट करने के तत्पर हैं। में श्रव इन्हीं यूधपतियों
का शोर भी वर्णन करता हैं॥ १॥
स्निग्धा यस्य वहुव्यामा अवाला लाइुलमाशरिताः ।
ताम्रा; पीता) सिंता। श्वेताः प्रकीर्ण घोरकमंणः ॥ २॥
* पाठान्तरै--/ दीघे छावगूछमाश्रिताः ।!
२३० युद्धकायडे
जिसकी पूंछ के वाल चिकने लंबे और बड़े सघन हैं तथा
जिनकी रंगत, लाल, पीली, घुमेली, सफेद है और जो पूछ के
इधर उधर छिलके हुए वड़े भण्डुर जान पहते हैं ॥ २॥
प्रमहीता! प्रकाशन्ते मूयस्येव मरीचयः ।
पृथिव्यां चाजुकृष्यन्ते हरो तामेष यूथप) ॥ ३ ॥
भौर जो लय की किरनचों की तरह चमक रहे हैं और जो पूंछ
रटकारने से खड़े दा जाते और जो चलते समय भूमि पर लथधिरते
जाते हैं, से वहो हर नाम का यूथपति है ॥ ३ ॥ ५
य॑ पृष्ठतोज्तुगच्छन्ति शतशोथ सह्सशा) ।
हुमालुथम्य सहसा लक्भारोहणतत्परा। ॥ ४ ॥
इसके ही पीछे सैकड़ों, दज़ारों चानरच्ीर चलते हैं, जो दृत्तों
फे लिये हुए, सहसा लड्ढा पर चढ़ाई करने के वैयार हैं ॥ ४ ॥
एप कोटिसहस्रेण वानराणां महोनसाम् |
आकाइसप्नते ता संग्रामे जेतुं परपुरक्षय ॥ ५ ||
हैं परपुरञज्षय | ये सहस्न केाडि वड़े वलवान् वानर तुमकी युद्ध
में जीतने की भ्राकांत्ता रखते हैं ॥ £ ॥
यूथपा हरिराजस्यथ क्िह्नरा। समुपस्थिता। ।
नीलानिंद महामेधांस्तिए्ठतो यांस्तु पश्यसि ॥ ६॥
असिताझनसड्ञज्ान्युद्ध सत्यपराक्रमान |
असंख्येयाननिर्दे श्यान्परं पारमिवोदधे! ॥ ७ ॥
कपिराज के ये सब किद्भर यूथपति हैं. ( वेतनभागी थूथपति ) _
ओर युद्ध करने के लिये उपस्थित, हुए हैं। हे रावण ! नोल मेघ
सप्तविशः सर्गः २३१
की तरह आप जिनके जड़ देखते हैं. प्लोर काले प्रश्नन की तरह
जिनके शरीर का रंग है और जो युद्ध में यथार्थ पराक्रम प्रदर्शित
किया करते हैं, ध्रसंख्य हैं, समुद्र के प्रपर पार की तरह इनकी
संख्या नहीं चतलायी ज्ञा सकती ॥ $ ॥ ७॥
पत्रतेषु च ये केचिट्विपमेपु नदीपु च।
एते त्वामभिवत्तन्ते राजनुक्षा) सुदारुणा। ॥ ८ ॥
३॥ राजन ! इनमें से बहुत से तो पहाड़ों पर, बहुत से धअठपठ
( ऊँची नीचो ) जगहों मे श्योर बहुत से नदियों के तटों पर रहा
करते हैं। दे राजन | ये सब ध्त्यन्त दारुण रीछ आपका सामना
फरनते दं। तैयार हैं ॥ ८॥
एपां मध्ये स्थितो राजन्भीमाक्षो भीमदशनः ।
रे |]
पजन्य इच जीमूते। समन््तात्परिवारितः ॥ ९ ॥
ऋश्षवन्तं गिरिश्रेष्ठमध्यास्ते नमेंदां पिवन् ।
| ' ध्हे
सर्वेक्षाणामधरिपतिधृम्रों नामैप यूथप! ॥ १० ॥
है राजन | इनके बीच में श्राप जिसे खड़ा देख रहे हैं, जिसके
भयदूर नेत्र ग्रौर भयहुर रूप है और ज्ञो मेघों से घिया हुआ
मद्मेघ की तरद रीछों से घिरा हुआ है, वद सव रीछों का राजा
घुम्नात्त नामक सेनापति है। यह ऋत्तवान पर्वत पर रहा करता है
ध्योर नर्मदा नदी का पानी पिया करता है॥ ६ ॥ १० ॥
2, » पवतोपस्
यवीयानस्य तु श्राता पश्यन॑ पवतोपस् |
३ ्रै
श्रात्रा समानो रुपेण विशिष्ठस्तु पराक्रम; ॥ ११॥
इसके देखिये, यह इसका छ्षिटा भाई, पर्चेत की तरद विशात्न
शरीरधारी है श्रौर अपने बड़े भाई जैसा द्वी रूप वाज्ना है। किन््तु
पराक्रम में अपने भाई से वढ़ कर है॥ ११॥
२३२ युद्धरायडे
स एप जाम्बबान्नाम महायूथपयूथपः का
#प्क्रान्तो गुरुवर्ती च सम्परहारेष्वमपंण; ॥ १२ ॥
उसीका नाम जास्ववान है आर वह यूथपतियों का सी यूथ-
पति भर्थाव् लखदार है। वड़ा पराक्रमों है, वड़ों का सम्मान करने
वाला है और बड़े क्रोध में भर श्राकृमण करता है॥ १२॥
एतेन साहा सुमहत्कृतं शक्रर्य धीमता ।
देवासुरे जाम्बवता लब्धाश वहयो बरा। || १३॥
अब देवासुर-संग्राम हुआ था, नव उस बुद्धिमान ने देवराज़ की
वड़ी सहायता की थी क्रोर उस सहायता के उपयक्ञक्त्य में उसने
चहुत से वरदान भी पाये थे॥ १३॥
६ रे
आरुह्य पव॑ताग्रेभ्यों महाश्रविधुला; शिछाः |
सुखन्ति विषुछाकारा न यृत्योरुद्विनन्ति च ॥ १४ ॥
उसकी सेना के बड़े बड़े आकार के रीकू पर्वतशिखरों पर चढ़
कर, वहाँ से बड़ी भारी भारी शिल्ाायों फँकते हैं ओर मोत से भी
नहीं डरते ॥ १४ ॥
राक्षसानां च सदशा; पिशाचानां च छोमशाः |
एतस्य सेन््या वहवो विचरन्त्यप्रितेनसः || १५ ॥
उनके शरीर में बड़े बड़े बात्न हैं, दे राक़्स शोर पिशाचों की
तरह क्रूर स्वभाव हैं। ज़ाग्ववान की श्रप्ति के समान तेज्सम्पन्न
घड़ी सैना है, जो इधर उधर विचरा ऋरती है ॥ १४ ॥
य॑ ल्वेनमभिसंरव्धं छुवमानमित्र स्थितस
पेक्षस्ते वानरा; सर्वे स्थिता यूथपयूथपम् || १६ ॥
-“ पाठन्तरे--" प्रश्मान्तोी |
सप्तविंशः सर्गः २३३
सव वानरगण जिसके कूदने का तप्ताशा देख रहे हैं, वद भी
घनेक यूथपतियों के यूथों का नायक है ॥ १६ ॥
एप राजन्सइसाप्तं पयुपास्ते हरीश्वरः ।
वलेन वलसम्पन्नो दम्भो नामेष यूथप! ॥ १७॥
है राजन] यह वानरराज इन्द्र के पास रहने वाला है।
देखिये वड़ी भारी सेना के। साथ लिये हुए यद्द दृस्भ नामक यूथप
है ॥ १७॥
य। स्थितं योजने शैल गच्छन्पाश्वेन सेवते ।
ऊर्ध्व तथैव कायेन गतः प्रामोति योजनस् ॥ १८ ॥
यह एक याजन के ध्यन्तर पर स्थिन पर्वत की बगल से कूद
जाता है तथा उछल कर शभ्राकाशमा्ग से एक येज्ञन तक चला
जाता है। ध्रथवा जिसके गमनकाल में एक एक कदम में एक एक
येजन के पर्वन पार््यस्थ ध्र्थात् भ्रत्यन्त निकथ्वर्ती दवा जाते
हैं थ्रोर जो शरीर से डछलने पर एक कुलाँच में एक येजन
कूद जाता है | अर्थात् इसके शरोर की ऊँचाई एक येजन की
है॥ १८॥
यस्मान्न परम॑ रूप चतुष्पादेषु विद्यते |
श्रुतः सन्नादनो नाम बानराणां पितामहः ॥ १५ ॥
अ्रतए्व चौपायों में इसके समान शरीर धाला और कीई जन्तु
नहीं है। से यह सम्मादन नामक यूथपति वानरों का पितामह
है॥ १६॥
येन युद्ध पुरा दर रणे शक्रस्य धीमता ।
प्राजयश्च न प्राप्तः सोध्य यूयपयूथपः ॥ २० ||
२२४ युद्धकागडे
इससे दुद्धिमान इन्द्र के साथ युद्ध किया, परन्तु हारा नद्ीं--से
यह भी यूथपतियों का सरदार है॥ २० ॥
यस्य विक्रममाणर्य शक्रस्येव पराक्रम! |
एप गन्धरवकन्यायामुत्पन्नः कृष्णव्मन। ॥ २१ ॥
यह पराक्रम में इन्ध के समान है। यह गन्धर्थकन्या के गर्भ, से
भ्रश्मि द्वारा उत्पन्न हुआ है ॥ २२ ॥
तदा देवामुरे युद्धे साह्याथ त्रिदिवोकसाम् |
क्र
यस्य वेश्रवणों राजा जम्बूमुपनिपेवते || २२ ॥
यो राजा परतेम्द्राणां बहुकिल्नरसेविनास् ।
विह्यरसुखदो नित्य॑ श्रातुस्ते राक्षताधिप || २३ ॥
तत्रेब वसति श्रीमान्चलवास्वानरपंभ! ।
युद्धावकत्थनो नित्य क्रथनो नाम यूथप! ॥ २४ ॥
देवाझुर संग्राम में देवताशों की सहायता करने फे लिये यह
उत्पन्न किया गया था | यह बलवान वानरश्रेट्ट उस पर्वत पर रहता
है, जे। प्॑तों का राजा है, जिसके ऊपर अनेक किन्नर रद्या करते
हैं और जिस पर तुम्दारे भाई राजा कुबैर के विद्दार करने में सदा
आनन्द भाप्त होता है, तथा जहाँ पर कुबेर ज्ञी जामुन के चुत्त के
नीचे वैठा करते हैं। इसका नाम ऋधन है ओर युद्ध में क्रियात्मक
रुप से पराक्रम प्रदर्शन करता है, (चाणी-ले अपने पराऋम की डगे
नहों हाँकता | ) यह भी एक यूथपति है ॥ २५॥ २३॥ २७४ ॥
हृतः काटिसहस्तेण हरीणां समुपस्थितः |.
एपेवाशंसते छट्ढां स्वेनानीकेन मर्दितुम || २५ ॥।
4
सप्तविशः सर्गः २३४
सदस्त कोटि वानरों के साथ ले यद धझाया है। यह वीर भी
केपल अपनी सेना ही से लड्डू) के ध्वस्त करने की इच्छा रखता
है॥रश॥ '
. थो गल्जामतु पर्येति च्रासयन्हस्तियूथपान्# ।
हस्तिनां वानराणां च पूर्ववेरमलुस्मरन् ॥ २६ ॥
जो हाथियों श्रोर वानरों के पूर्वकालोन पारस्परिक चैर का
स्मरण कर, गजेन्द्रों के यूथपतियों का गड्भा के निकट डराता
है ॥ २६॥
एप यूथपतिनेता गच्छन्गिरिगुहाशयः ।
गजान्येधयते वन्यानिगरींश्रेव महीरुहान् || २७ ॥
५ सी यह यूथपतियों का सरदार है शोर घूमफिर कर अर्थात् ह ढ़
है ढ़ कर भिरिशुद्दाश्रों में रहने वाले गजों, जंगली तुत्षों और पहाड़ों
से लड़ाता है| ध्र्थात् गज्नों का उठा कर बृत्तों पर दे मारता है
शोर वृत्तों के उखाड़ कर गज्ों पर पटक देता है। इसी प्रकार
पवतों पर हाथियों के पटक देता है भौर पर्वत हाथियों पर ॥ २७॥
हरीणां वाहिनीमुख्यो नदीं हेमबतीमनु ।
। उश्ीरवीजमाशित्य पर्वत मिन्दरोतमस् || २८ ॥
रमते वानरश्रेष्टी दिवि शक्र शव खयसू ।
एन॑ शतसहस्राणां सहस्नमचुव्तते ॥ २९ ॥
यह वानरों की सेना का मुखिया समझता जाता हैः यह पतो-
त्तम मन्दरयाचल के उशीरवीज नामक पर्वत पर, ख्वग में इन्द्र की
तरह रहता है | इसके अधीन कई लाख धानर हैं ॥ श८॥ २६ ॥
# पाठान्तरे--' न्गजबूथपान् ।” | पाठान्तरे--' सन्द्रोपसस् । -
२३६ युद्धकायटे
वीयविक्रमह्म्ानां नदेतां वलशालिनाम् । '
स एप नेता चेतेपां वानराणां महात्मनाम् ॥ २३० ॥
इसकी सेना के वीर अपने चलपराक्रम के अभिमान में चूर
हो, गरजा करते हैं। यह वानर उन सब वत्नवान् वानरों का नायक
है॥ २० ॥
९
स एप दुधरो राजन्ममाथी नाम यूथपः |
वातेनेबोद्धतं मेघं यमेनमनुपश्यसि ॥ ३१ |॥
दे राजन ! इधर देखिये, वायु से प्रेरित भेघ की तरद जो
दिखिलाई दे रहा है, से यह बड़ा दुर्घप वानर है। इसका नाम
प्रमाथी है लोर यह सी यूथपति है ॥ ३१॥
अनीकमपि संरब्धं वानराणां तरखिनाम् |
उद्धुतमरुणाभासं पवनेन समन्ततः ॥ ३२ ॥| ह
इसकी सेना के वानर कोधों ओर बड़े फुर्मीक्षे हैं। वहीं पर
हवा से चारों शोर लाल रंग की ॥ ३२ ॥ ह
विवततमान बहुधा यत्रेतद््हुलं रजः |
एतेब्सित्मुखा घोरा गोलाह्ूछा महावकाः ॥ ३३ ॥
वहुत सी धूल का वंवडर वद रहा हैं। ये काले मुख के भयड्भर
मद्याव्नी ग्रेत्नाइुल ॥ ३३ ॥
शत शतसहस्राणि दृष्ठा वे सेतुवन्धनम् ।
गोलछाइू्ल महावेगं गवाक्षं नाम यूथपम् ॥ ३४॥
लाखों की संख्या में सेतु के ऊपर देख पड़ते हैं, उनका यूथपति .
यवात्त है, जो वड़ा बेगवान है ॥ २४॥
सप्तवतगिः सगे २३७
परिवायांभिवतन्ते लड्ढां मर्दितुमोजसा |
भ्रमराचरिता यत्र #सर्वकालफलदुमाः ॥ ३५ ॥
इसी गवाक्त यूयपति को घेरे हुए समस्त गेलाकुल, लड़
के धपने बल से ध्वस्त करना याहते हैं। जहाँ पर भोरे सदा मंड-
राया करते हैं प्रोर जहाँ कुत्तों में सदा फल लगे रहते हैं ॥ ३५४ ॥
य॑ं धर्यस्तुल्यवर्णाभमनु पर्येति पर्वतम।
यस्य भासा सदा भान्ति तद्॒र्णा मृगपत्चिण! ॥ ३६ ॥
छुपे प्रपना वर्ण वात्ता समझ, जिस पवेत की सदा परिक्रमा
किया करते हैं श्रोर जहाँ की प्यरुण कान्ति से उस स्थानवासी
समस्त सग श्रोर पत्ती उसी रंग जैसे देख पड़ते हैं ॥ ३६ ॥
यस्य प्रस्थं महात्मानों न त्यनन्ति महपय! ।
सर्वकामफला हक्षाः सदा फलसमन्विता। ॥ ३७ ॥
जिसके शिखर के महात्मा महपि कभी परित्याग नहीं करते,
जहाँ पर सर्वकामना पूरी करने वाले घृत्त सदा फला करते हैं ॥३७॥
मधूनि च मह्महांणि यस्मिन्पवेतसत्तमे ।
तत्रेप रमते राजन्रम्ये काश्चनपव ते ॥| २८ ॥|
मुख्यो वानरमुख्यानां केसरी नाम यूथपः |
च
पष्टिगिरिसदस्ता्ां रम्या। काश्वनपव ता। ॥ ३९ ॥
तेपां मध्ये गिरिवरस्त्वमिवानघ रक्षसाम् |
तत्रेते ऋपिला! श्वेतास्ताम्रास्या मधुपिज्लला। ॥ ४० ॥
वन नन-सजन मनन नमन नी,
# धाहान्तरे--' सर्वकासफलतुसाः
रशर८ युद्धकायडे
ओर तिम्त पर्वतश्रेण्ठ पर बढ़िया मधु आदि मोठे पदार्थ उत्पन्न
द्वोते हैं, है राजन! डसी रमणीय काञवमय पर्वत पर, चानस्श्रेष्ठों
में मुख्य, केसरी नामक यूयपति रमता हैं। साठ हज्ञार रमणीक
काश्चनमय पर्वतों के बीच, सैचर्णि नामक पर्वत है। यह पर्वत खब
प्चतों में चैसा ही श्रे० हे जैसे कि, राक्षसों में आप पापरद्िित हैं।
पीले, सफेद, मघुपिज्ुल ( शहद् की तरह पीले ) रंग के लाल
मुख वाले वानर ॥ रे८ ॥ रे६ ॥ ४० ॥
निवसन्त्युत्तमगिरों तीहणदंप्टरा नखायुधाः ।
छः
सिंह इब चत्दंष्ट्रा ब्याप्रा इब दुरासदा; ॥ ४१ ॥
उस पर्वतोत्म पर रहते हैं | उनके शस्त्र हैं उनके पेने पेने दाँत
भोर् नज | सिंद्द की तरह इनके चाधड़े है और ज्याप्र की तरह ये
हुधपष हैं ॥ ४२॥
सर्दे वेश्वानरसमा #ज्वलिताशीविषोपमाः ।
सुदी्षाशितलाडुला मत्तमातइ्नसन्निभाः ॥ ४२ ॥
' यह सत्र के सब अप्नि की तरह उम्र हैं और कुपित सर्पे फ
विष की तरद महाभयुर हैं। इनकी बड़ी लंबी ओर उम््वाँ पूंछ
है ओर मतवाले द्ाथी क्ञी ठरह ये चलते हैं ॥ ४२॥
महापवंतसड्भाणा महानीमूतनिःखनाः ।
इत्तपिड्नलरक्ताक्षा भीमभीमगतिखरा! ॥ ४३ ॥
बड़े पर्चेत की तरद्द लंबे तड़ंगे हैं झोर महामेघ की वरद्द गरजा
करते हैं। उनकी गाल गेल पीली पीली शांखे हैं। वे बड़ी दी
भयद्गुर गति वाले ओर डरावनो बोलो वोलने दाले हैं ॥ ४३॥
3० ४ न 3 के ++न+नमन ५333-33 43-त33.3.387-+- 2 बाससतत- ढक की सनक तसतन-तननता-+-3नन3नननन-म-ीनननीयीीयीवनीनन ५3» बिननयननततन-यननीनानी -ननीननकऊ-3+: नाना
# घाठान्तरे--“ ज्वलदाशीविषोपना: ।
सप्तविंशः स्गः २३६
.' मरदेयन्तीब ते सर्वे तस्थुलड्ां समीक्ष्य ते ।
... एप चेपामधिपतिम्मध्ये तिष्ठति वीयबान ॥ ४४ ॥
पे सब लड्डू का ध्वस्त करने की अमिलापा से लड्ढा की शोर
नियाद गड्ाये हुए हैं । इनके वोच में यद्द वजवान इनका अधिपति
वानर खड़ा है॥ ४४॥ डे
जयायी नित्यमादित्यमुपतिष्ठति बुद्धिमान |
नाज्ना पृथिव्यां विख्यातो राजब्शतवल्ीति य। ॥४५॥
यद धुद्धिमान चानर विज्ञय प्राप्त की इच्छा से नित्य छूर्य की
धाराधना क्रिया करता है शोर ६ राजब | इस संसार में यह्द
शतचली के नाम से प्रसिद्ध है ॥ ४५ ॥
एपेवाशंसते लड्ढां स्पेनानीकेन मर्दितुस् ।
विक्रान्तों बलवाज्शूरः पौरुषे सवे व्यवस्थित! ॥ ४६ ॥
, यद्द भी श्रपनो सेना के साथ ले लडुग की ध्वस्त करना
चाहता है। यह वड़ा पराक्रमी घोर बलवान और शूर है। इसे
घपने पुरुषार्थ पर विश्वास दे ॥ ४६ ॥
रामप्रियाथ प्राणानां दयां न कुरुते हरि! |
गजो गवाक्षो गवयो नलो नीलश्व वानर) ॥ ४७ ॥
यद्द धीरामचन्द जी की प्रसन्नता सम्पादन करने फे लिये प्मपने
धाणों के तुच्छ समभता है। दे राजन ! गज, गवात्ष, गवय, चल
झोर नील नाम्रक जो वानर हैं ॥ ४७॥
. एकैक एवं यूथानां कोटिमिदेशमिहेतः ।
. तथाड्न्ये वानरश्रेष्ठा विन्ध्यपवंतवासिन/ । +
न शक्यन्ते वहुत्वाचु संख्यातुं छघुविक्रमा: ॥ ४८ ॥
रे
२४० युद्धकायडे
' इनमें से प्रत्येक दस दस ऋरोड़ चानरों के यूथपति हैं। इस
वानरी सेना के वहत से वानरश्रेष.्ठ विन्ध्याचलवासी हैं शोर ये
फुर्तात्ते चानर संख्या में इतने श्रधिक हैं क्लि, इनके गिनना असम्भव
है ॥ ४८ ॥
सर्वे महाराज महाप्रभावा
सर्वे महाशेलनिकाशकाया! |
ब्् रे [न
- सर्वे समया; पृथिवीं क्षणेन
वेकीणश
क॒तु प्रविध्वस्तविकीणणरछाम )| ४९ ॥
इति सप्तविशः सर्गः ॥ े
है महाराज | इन सब चीर वानरघ्रेष्टों को देह बड़े पर्वतों की
तरह विशाल है। सभी बड़े अमावशाली ओर सच ही शिलाएँ
वर्षा ऋर त्षण भर में सारो प्रथिवी के विध्चस्त कर सकते हैं ।
अथवा है राक्षसयज् ! समस्त कपिश्रेष्ठ पर्वताकार शरीरधारी शोर
प्रभाव बालन हैं। वे मन पर घरें तो पलक मारते पूथिवी के समस्त
प्बतों ४ बटर ५ हे
पर्वतों के उखाड़ कर फेक सकते हैं॥ ४६ ॥
युद्धकाएड का सत्ताइलवाँ सर्ग पूरा छुआ ।
अष्टाविशः सर्गः
“--+ न
सारणस्य बच; श्रुत्वा रावर्ण राक्षसाधिपम |
वलमादिश्य तत्सव शुके वाक्यमथात्रवीत ॥ १ ॥
सारण के ये चचन सुन, समस्त वानरी सेना के! पहिचनवाता
हुआ शुक, राज्षतराज़ रावण से कहने लगा ॥ १॥ .
धष्टाविशः सर्गः २४१
स्थितान्पश्यसि यानेतान्मत्तानिव महाद्िपान् ।
न्यप्रोधानित्र गाड्लेयान्सालान्हैमवतानिव ॥| २ ॥|
है राजन् | आप जिन वानरों के मतचाले गजराजों, गड़गतदवर्ती
वठचूत्तों, हिमालयस्थित शालचृत्तों की तरह खड़े हुए देख रहे
दीं ॥ २॥
एते दुष्प्रसहा राजन्वलिनः कामरूपिणः |
देल्यदानवसड्लाशा युद्धे देवपराक्रमाः ॥ ३ ॥
ये सव के सव दुर्धषे, बलवान, श्योर इच्छा-रूपधारी हैं शोर
देत्यदानवों की तरह वल्लसम्पन्न तथा युद्ध में देवताओों की तरह
पराक्रमी हैं ॥ ३ ॥
एपां कोटिसहस्लाणि नव पश्च च सप्त च |
तथा शह्ृसहस्राणि तथा वुन्द्शतानि च ॥ ४॥
ये संख्या में २१ हजार करेड़ तथा सदस्त श्र एवं सै बन्द
॥४॥
एते सुग्रीवसचिवाः' किष्किन्धानिलया; सदा |
हरयो देवगन्धर्वैसत्पन्ना; कामरूपिण! ॥ ५ ॥
ये सब्र सुश्रोव के सदायह हैं श्योर किक्किन्धा में रद्दा करते हैं।
इन बानरों की उत्पत्ति, देवताओं ओर गन्धर्वों से है भोर ये इच्छा-
चुसार रुपधा रण करने वाले हैं ॥ ५ ॥
यो तौ पश्यसि तिष्ठन्तों *कुमारों देवरूपिणों ।
पैन्द्श्च द्विविदश्चोभी ताभ्यां नास्ति समो युधि ॥६॥
१ सुप्रीयसचिवा:---सुमीवसद्ायाः । ( गे० ) २ कुमारो--थुवानो |
' (शे०)
वा० रा० यु०--१६
श७२ युद्धकायडे
भाप जिन देवताशों के समान रुपवान् दो युवकों का वैठा हुआ
देख रहे हैं, वे दोनों मैन्द धोर छ्विविद् हैं। थुद्ध में उन दोनों का
सामना करने चाला कोई नहीं है ॥ ६॥
च्रह्मणा समनुज्ञातावमृतप्राशिनावुभा |
आशंसेते युधा लड्ढामेतों मर्दितुमोनसा ॥ ७ ||
क्योंकि ब्रह्मा की प्राज्षा से इन दोनों ने अस्गतपान किया है।
ये दोनों अपने पराक्रम से लड्भ के ध्वस्त करना चादते हैं ॥ ७ ॥
+« पद" ॥०-भ] रे रे कट
यावेतावेतयों पाश्वें स्थितों पवेतसबन्निषों |
सुमुखोसुमुखश्रव अृत्युपुत्नो पितुःसमों ॥ ८ ॥
जे दे घानर इन दोनों के पास पद्दा की तरह खड़े हैं, वे दोनों
सत्यु के पुत्र अपने पिता के समान भयदुुर हैं आर इनके नाम
सुमुख ओर अछुमुख है ॥ ८५॥
प्रेक्नन्तों नगरीं लड्ठां कोटिभिदेशभिह्ततों |
य॑ तु पश्यसि तिप्ठन्तं प्रभिन्नमिव कुछ्ररमू || ९ ॥
यो वलासक्षोगयेत्कुडः समुद्रमपि वानरः ।
एपोमिगस्ता लड्भाया वेदेहयास्तव च प्रभो ॥ १० ॥
ये अपने अधीनस्थ दस करेड़ वानरों सहित ल्ड्ुप की ओर
ताक रहे हैं। मत्त गज की तरह जिस वानर को तुम खड़े देख रहे
हो, ओर जे क्रुद्ध होने पर समुद्र के सी खलवला सकता है;
हे प्रमा ! यहो सीता ओर तुम्हारी लड्ढडा) का पता लगाने श्राया
था॥ ६ ॥ १०॥
एन पश्य पुरा दृष्ट बानरं पुनरागतम |
ज्येष्ः केसरिणः पुत्रो बातात्मज इति श्रुतः ॥ ११॥
अशविशः सर्गः २७३
से इसे आप पदिल्े देख दी चुके हैं, वही फिर श्याया है।
यह केसरी का श्रेष्ठ पुत्र है. और वातात्मज्ञ प्र्थात् वायुपुत्र के नाम
से प्रसिद्ध है ॥ ११॥
हनुमानिति विख्यातों लद्ठितो येन सागर! |
कामरूपी हरिश्रेष्ठो 'वलरूपसमन्वितः ॥| १२ ॥
इसका हनुमान भी नाम है ओर इसोने सप्रुद्र लाँधा था।
यह इच्छानुसार रूप धारण कर लेता है, बानरों में थ्रेठ्ठ है ओर
बड़ा बलवान है ॥ १२॥ *
अनिवायंगतिश्चैव यथा *सततग प्रश्चु) |
उद्यन्तं भास्कर दृष्ठटा वाल) कि अचुश्युफ्षित+ ॥११॥
चायु की तरह इसकी गति कहीं भी नहीं रुकती, लड़कपन में
एक दिन इसे भूख लगी । उस समय खूय उदय हो रहा था॥ १३६॥
त्रियोजनसहस्ं तु अध्वानमवतीर्य हि।
आदित्यमाहरिष्यामि न मे क्षुअतियास्यति ॥ १४ ॥
इति सश्विन्त्य मनसा पुरेष वलदपितः |
अनाधृष्यतमं देवमपि देवर्पिदानबे; ॥ १५॥
उस समय इसने यह सेाचा कि, ज़व तक में छू के न खाऊँगा
तव तक मेरी भूल न मिश्रेगी -से यह विचार कर, यह बल से
दूर्पित सूर्य के पकड़ने के लिये तीन हज्ञार याजन ऊपर उछल गया ।
किन्तु छूर्यदेव ते देवियों भौर राक्तसों द्वारा तिरश्कार करने यान्य
नहीं हैं॥ १४॥ १४॥ , नहीं दं॥.॥१५॥ ,._.|. |
१ बलरूप समन्वितः--प्रशस्तपलसमन्वितः । (गे ) हे सतत॥ई--
चायु: | ( यो० ) # पाठान्तरे--“ पिपाधितः | ”
२७४ युद्धकाणडे
अनासातेव पतितों भास्करोदयने गिरों।
पतितस्य कपेरस्थ हनुरेका शिलातले ॥ १६ |
से यह सूर्य को न पकड़ सका झोर उद्याचल पर गिर पड़ा ।
इतनी दूर से शिला के ऊपर गिरने के फारण, इसकी एक झोर की
छोड़ी ॥ १६ ॥ हे
किश्विद्धिन्ना दृठहनोहचुमानेष तेन वे ।
सत्यमागमयोगेन ममेष विदितों हरि! ॥ १७ ॥
थेड़ी सी हुड गयो । क्योंकि ठोड़ी इसको बड़ी मज़बूत थी,
इसीसे इसका नाम हनुपान हुआ। वानरों के सहवास से यद्यपि
मैंने इस चानर का यद हाल जान लिया है ॥ १७ ॥
नास्य शक्य वर्ल रूप प्रभावों वापि भापितुस् ।
एप आशंसते लक्षामेको मर्दितुमोनसा )॥ १८ ॥
तथापि में इसका वल, रूप ओर प्रभाव वर्णत नहीं कर सकता ।
वह अफ्रेला, अपने वल ही से लड्ढा को ध्वस्त करना चाहता
है ॥ १८ ॥
[यिन #नाज्वल्यते सौम्य 'धूमक्रेतस्तवाद्य वे ।
लड्जायां निहितश्चापि कर्थ न स्मरसे कपिस ॥ १९ ॥|
हे सैस्प | जिस वानर ने तुम्दारी ल्ड्ढग के फू का ओर इतने
राक्तस मारे, उसे आप कैपे भूत्त गये ॥ १६ ॥
यश्रेषो्नन्तर; श्रः श्याम) पद्मनिभेक्षण: ।
इक्ष्याकृणामतिरथों छोके विर्यातपोरुष) || २० ॥
) धूमकेतुररिति) ) ( रा० ) # पाठान्तरै--“ ज्ञाजल्यतेष्सी थे |!
परएशविशः सर्ग २४५
हनुमान के पास ही जे! श्र श्यामच्ण, कम॒लनयन, इक्तवाकु
कुल में ग्रज्ञेय योद्धा शोर संघार में विख्यात पराक्रमी हैं ॥ २० ॥
यस्मिन्न चलते मे यो #पर्मान्नातिवतते ।
यो व्राह्ममस्रं वेदांश्व वेद वेदविदां वर। ॥ २१ ॥
जे धर्म से न ते कभी डिगते हैं और न धर्म की मर्यादा की
उल्लबुन ही करते हैं, जे। ब्रह्मास्र का चलाना जानते दें, जे वेदों
के केवल जानते हो नहीं, वलढ्कि पेदवेत्ताप्ों में श्ेष्ट माने जाते
हैं, ॥ २१ ॥
५ णें रः
यो शिन्धादगगनं बाणें! पवतानपि दारयेत् ।
यस्य मत्योरिव क्रोध: शक्रस्येव पराक्रम४ ॥ २२ ॥
जे। अपने वाणों से श्राकाश को छेर सकते हैं श्योर पव॑तों के
विदोर्ण कर सकते हैं, जिनका क्लीध, सत्सु के समान और पराक्रम
इन्द्र की तरह है॥ *२॥
यस्य भागा जनस्थानात्सीता चापहता त्वया |
स॒ एप रामस्तां योद्धं राजन्समभिवतेते ॥ २३ ॥
शोर जिनको स््री सोता के तुम ज्ञनस्थान से हर लाये हो,
है राजन | वे द्वी श्रीरामचन्द्र तुमसे लड़ने के लिये यहाँ झाये
हैं ॥ २३ ॥
यस्येप दक्षिणे पाश्वे शुद्धजाम्बूनदप्रभः
विद्ालवक्षास्ताम्राक्षी नीलकुश्वितमूधन/ ॥ २४ ॥
उनको दहिनी झोर विशुद्ध सुबर्ण वर्ण जैसे, चाड़ी छाती वाल्ते
झरुणनयन तथा नीले रंग के ओर घुँघराले वालों से भूपित ॥२७॥
# पाठन्तरे - “ धर्म नातिचतते।
२४६ युद्धकायडे
एपाज्स्य लक्ष्मणों नाम श्राता प्राणसमः प्रिय; ।
नये युद्धे च कुशल) सवशख्भुतां वर! ॥ २५ ॥
जिस पुरुष के तुम देख रहे हो, वह श्रोरामचन्द्र के प्राणसम
प्यारे भाई लक्ष्मण हैं। कत्रा चीति, क्या युद्ध ये सव विषयों में
निपुण हैं ओर श्र बारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं ॥ ९५ ॥
दुनेयो कप का [५]
अमर्षी दुजयों जेता विक्रान्तो वुद्धिमान्बी ।
रामस्य दक्षिणों वाहुर्नित्य 'प्राणा वहिश्चर। ॥ २६॥
श्रीयमचन्द्र ज्ञी का अपचयार इनसे नहीं सहा जाता, इनके
रण में कोई जीत नहीं सकता | ये सब के जीतने वाले हैं, ये बड़े
पराक्रपी, वुद्धिमान् ओर वलवान् हैं। ये श्रीरामचन्द्र जी की दद्दिनी
वाह भर उनके प्राणों के संसत्तक हैं ॥ २६ ॥
न होप राघवस्थार्थें जीवित परिरक्षति |
एपेबाशंसते युद्धे निहन्तुं सवेराक्षसान् ॥| २७॥
ये श्रीरामचच्ध जी की रक्ता के लिये झपने प्राणों के हथेली पर
रखे हुए, सदा तैयार रहते हैं। युद्ध में ये अकेले ही समस्त राक्तसों
के मार डालने का उत्साह रखते हैं॥ २७ ॥
यस्तु सबच्यमसों पक्ष रामस्याश्रित्य तिष्ठति ।
रक्षागणपरिक्षिप्ती राजा हथेष विभीषणः || १८ |
जे| अपने चार मंत्री राक्तसों के वोच श्रीरामचन्द्र जी की दाई
शोर बैठे हैं--ये राजा विभीषण हैं॥ २८॥
श्रीमता राजराजेन लड्टायामभिषेचितः ।
त्वामेव प्रतिसंरव्धे युद्धायेपोजभिवर्तते ॥| २९५ ॥
१ प्राणाबद्दिश्षर: इल्नेन प्राणलंरक्षकत्वमुच्यते | ( ये।० )
अष्टापिशः सर्गः २७७
भीमान् राजाधिराज मद्दाराज श्रीरामचस्त जी ने लड्ढाके
राजसिंदासन पर इनकी भ्रमिपिक कर दिया है। यह तुम्दारे साथ
युद्ध करने के क्रोध में भरा पैठा है॥ २९ ॥
य॑ तु पश्यसि तिप्ठन्त मध्ये गिरिमिवाचलम् |
संबवेशाखामुगेन्द्राणां पर्तारमपराजितम् ॥ २० ॥
निनकोा श्राप एक अचल पव॑ंत को तरह धीरमचन्र प्रोर
विभीषण के वीच में बैठा दशा देखते हैं, वे ही समस्त वानरों के राजा
हैं, इनका पराज्षित करना सहज नहीं है ॥ ३० ॥
तेजसा यश्ञसा बुद्ध्या ज्ञानेनाधिजनेन च |
यः कपीनतिवश्नान हिमवानिव परबंतान॥ ३१ ॥
तेजल्विता, यश, ऊद्यपेहरूपो छान, शास्रजन्य-क्ञान, तथा कुल
की विशिए्टता के ऋारण, पर्वतों में हिमाचज पर्षत की तरह, समस्त
धघानरों से यह प्रधिक शोभा पा रहा है ॥ ३१ ॥
किप्किन्धां यः समध्यास्ते ग्रह्ें सगहनदुमास् ।
् $
दुगी पव॑तदुर्गस्थां प्रधाने! सह यूयप! ॥ ३२ ॥
है राजन | यद वानरराज, चानर यूधपतियों के साथ किष्किन्धा
में एक ऐेसी गिरिगुद्दा में रहने हैं, जे सपन चुत्तों से ग्राच्कादित है
थ्रोर जहां पहुँचना बड़ा कठिन है॥ ३२॥
यस्येपा काश्वनी माला शोभते शतपुष्करा ।
कान््ता देवमनुण्याणां यस््यां रक्ष्मीः प्रतिष्ठिता ॥३ ३॥
देवताशओों और मनुष्यों की घान्छुनीय लच्मी जिसमें सदा वास
करती है, वह शतपथ्मा सोने की माला कपियज के गले में केसी
शामित दो रही है॥ २३ ॥
२४८ युद्धकायडे
एतां च मारां तारां च कपिराज्यं॑ च शाश्वतम्।
सुग्रीवो वालिनं हत्वा रामेण प्रतिपादितः ॥ ३४ ॥
श्रीरामचन्द्र जी ने यह माला, तारा ओर वानरों का सनातन
( प्राचीन ) राज्य वाली के मार कर इस सुग्रीव का दिलाया
है ॥३४॥
शर्त शतसहस्राणां कोटिमाहुमेनीषिण: ।
शर्त केटिसहस्राणां शह्ृ इत्यभिधीयते ॥ ३२५ ॥
है राजन ! से से युणा करने पर सो सहस्त्र को पण्डित लोग
४ क्वोटि ” कहते हैं शोर सै हजार कादि का एक शह्ूः होता
है ॥२५॥ ह
शत शद्बसहस्रा्णां महाशह्व इति स्मृतः ।
महाशहुसहस्ताणां शत बृन्दमिति स्मृतस | ३६॥
सै। हजार शद्भु का एक महाशडु होता है। सै हजार मद्दाशह्ु
का एक बन्द होता है ॥ ३६ ॥
शर्त वुन्द्सहस्राणां महाबुन्दमिति स्मृतम्।
महावुन्द्सहस्राणां शर्त पद्ममिति स्मृतम ॥ २७ ॥
से हज्ञार बन्द का पक्र महावृन्द होता है। से। हजार महावृन्द
का पक पद्म होता है॥ ३७॥ ।
शर्त प॑द्नसहस्ताणां महापद्ममिति स्मृतस् ।
महापद्मसइस्राणां शर्त खबमिहेच्यते ॥ ३८ ॥
से हजार पद्म का ए% महापद्म और सै दज़ार महापत्म का
हे
एक खब होता है॥ ३८ ॥
अष्टादिण: सगे: २४६
शर्ते खबसइज्राणां महाखबंभिति सपृतम्् |
पमहाखबंसहज्ाणां समुद्रमभिपीयते ॥ ३९ ॥
से हजार खर्व का एक महाखर् झौर सै। हजार महाखर्व फा
एक सप्रुद्र होता है ॥ ४६ ॥
शर्त समुद्रसाहस्माध इत्यभिधीयते |
शतमोघसहस्राणां महोघ इति विश्वत्त ॥ ४० ॥
से हजार सम्रद्र का पक्र माध् भौर से हजार मेष का पक
महाघ होता है ॥ ४० ॥
एवं केटिसहर्सेण शहानां च शतेन च |
महाशहसइसेण तथा बृन्दशतेन च॥ ४१॥
है राजन! इस हिसाव से काव्सिहल्न, उसका से! शहद उसका
दजार महाशड्र उसका सी बून्द ॥ ४१॥
महावृन्दसद्सेण तथा पत्नशतेन च |
परहापग्र तदस्रेण तथा खबशतेन च् ॥ ४२ ||
उसका हजार महादृन्द, उसझा सी पद्म, ऊसका धजार महा
पद, उसका से खब ॥ ४२ ॥
समुद्रेण शतेनेव महोधेन तथेव च |
एप केटिमहैपेन समुद्रसहशेन च॥ ४३ ॥।
एक से! समुद्र ओर एक से कोटि महोध संख्यक चानरी
सेना है, जे समुद्र की तरद देख पड़ती है ॥ ४३ ॥
विभीपणेन सचिव राक्षसे! परिवारित!
सुग्रीबों वानरेन्द्रस्त्वां युद्धारथममिवतते ।
महावल्ूहतो नित्यं महावलूपराक्रम! ॥ ४४७ ॥
२४० युद्धकाणडे
इतनी वड़ी वानरी सेना तथा सचिवों सहित विभीषण के
साथ लिये हुए कपिराज्ञ सुप्रीय, आपसे लड़ने के उपस्थित हुए
हैं। बानरेद्ध के साथ बड़ो भारो सेना दे; जे वड़ी वलतवान् झोर
पराक्रमी है ॥ ४४ ॥
इममा महाराज समीक्ष्य वाहिनीय
उपस्थितां प्रज्वलितग्रहेपमाम् ।
तत! प्रयत्ञ; परमी विधीयतां
यया जय; स्यान्न परे! पराजय। ॥ ४५॥|
इति अफाविशः सगः ॥
हे महाराज | जाज्व्थमान त्रह की तरह इस उपस्थित चानरी
सेना के देख कर, आप ऐसा प्रयत्न करें, जिससे आपकी जीत दे
आर शत्रु से हार खानी न पड़े ॥॥ ४५ ॥
युद्धकाणड का ध्रट्टाइसर्वा सर्ग पुरा हुआ्रा ।
-+--$६-....-
एकोनत्रिशः सगे:
>++त+
श॒ुकेन तु समाख्यातांस्तान्हष्टा हरियूथपान् |
समीपस्थं व रामस्य आतरं रवं विंभीषणम | १ ॥
इस प्रकार झुक के वततातने पर रावण ने वानस्यूथपतियों
के तथा अपने भाई विभीपण के भ्रोरामचन्द्र जी के समीप बैठा
हुआ देखा || १॥
एकेनत्रिशः सम: २४१
लक्ष्मणं च महावीये ध्रुज॑ रामस्य दक्षिणम् |
स्वंवानरराज॑ च सुग्रीब॑ भीमविक्रमम ॥ २ ॥
( इनके ही नहीं वहिक ) उसने महादीयवान क्रोर श्रीरामचन्द्र
की दृत्तिण भुजा रूपी लक्ष्मण के, समस्त वानरयूथपतियों फो,
. भीम पराक्रमी सुग्रीव के ॥ २॥
| गज गवाक्ष गवय्य मेन्दं द्विविदमेव च |
अड्गदं चेच बलिनं वजहस्तात्ममात्मजम् ॥ ३ ॥
गज, गवाक्ष, गवय, मेन्द, दवित्रिव, फा; इस्द्रपुन चालि के
प्रात्मज प्ाड्नद के । ३॥।
हजुमन्तं च चिक्रान्तं जाम्ववन्त च॑ दुर्नयस् |
९ छ ७ न (ः
सुपेणं कुम्रुद॑ नील नलं च प्रवगपभम्् || 9 ॥ ]
विक्रमी हनुमान की, दुर्जेय जाग्ववान की शोर कपिश्रेष्ठ खुषेण,
कुमुद, नील, नल के भी देखा ॥ ४॥
किश्विदाविभ्रहदयो' जातक्रोपश्च रावण; |
भत्सयामास तो बीरों कथान्ते शुकसारणा ॥ ५ ॥
इनके देख कर रावण मन ही मन कुछ कुछ उद्विम्त हुआ और
ज्ञव शुक्र सारण ने अपना कथन समाप्त क्रिया, तव उसने क्रोध में
भर, उन दोनों. चीर शुक सारण की भत्सन की ध्र्थात् डाँठा
डपटा ॥ ४ ॥
-अधेमुखों तो प्रशतावन्नवीच्छुकसारणा |
रोपषगद्गदया वाचा संरब्ध! परुषं वचः || है |!
न लीनजीयीत- अल लज जज किन क जज
१ आविम्मद्दथ: - भीतद्वदय + ६ गे।० )
२४५२ युद्धकायडे
शुक्र ओर सारण अत्यन्त नम्नतापर्वक सिर झ्ुकाये खड़े थे। ,
'परन्तु रावण क्रोध में भर उनसे बड़े कठार वचन कहने लगा ॥ $ ॥
न तावत्सदशं नाम सचिवेरुपनीविभिः ।
ढ तेवेक्त॑ न
विप्रियं नपतेवक्तु निग्रहमग्रहे भभां। ॥ ७॥
तुम लेगों ने मुझसे जेसे वचन कह हैं, वेसे चचन क्या किसी
घेतनभागी सवित को अपने उस स्वामी क्रे सामने, जे निम्रह
अन्नुग्नह करने में सम्थ है, कहना उचित है ? ॥ ७ ॥
रिपूर्णां प्रतिकूलानां युद्धार्यमशिवतंताम ।
उधाभ्याँ सहर्श नाम वक्तुमप्रस्तवे स्तवम् ॥ ८ ॥
युद्ध के निये प्रस्तुत एवं अपने विशेधो शत्रुओं की इस प्रकार
अनवसर प्रशंसा करना ; क्या तुप्र दोनों की उचित था ? ॥ ८॥
आचार्या गुरवो हृद्धा हथा वां पर्युपासिताः ।_
सार यद्रानशास्राणामनुजीव्य॑ न गृह्मयते || ९ ॥
छिः | श्राज् तक आाचाये, गुरु प्रोर दृद्धजनों के पास रह कर
तुमने भाड़ हो कोंका । एक वेतनभेगी के जे| समस्त राज्ननीति की
मुख्य पुख्य वार्तें सीखनी उचित हैं -वे भी तुमने न सोखीं ॥ ६ ॥
ग़हीतो वा न विज्ञातो भारो ज्ञानस्य बोहनते ।
इहशे! सचिवैयुक्तों मूर्खेर्दिष्ठया धराम्यहम् ॥ १० ॥
यदि सोखीं भी तो उनका मर्म तुमने न जाना | तुम तो कैवल
झक्षान का बोस ढे। रदे हो | श्र्थात् तुम पढ्तेसिरे के अज्लानी हो ।
इसे में अपना सैभाग्य हो समभता हूँ छ्ि, तुम जैसे मू््त मंत्रियों _
के, अपने पास रख कर भो, में श्राज्ञ तक राज्य कर रहा हैं ॥१०॥
एकोनबिणः सर्ग; २४३
+ बह पी $ + न
फ्रिनु मृत्योभयं नास्ति वक्तुं मां परुप बच! |
यस्य में शासतां जिद्दा प्रयच्छति शुभाशुभग ॥ ११ ॥
शरे | क्या तुमका अपनी जान जाने का उस भी भय नहीं, ज्ो
तुमने मुझसे ऐसे कठोर चचन कहे | क्या तुम नहीं ज्ञानते कि,
लोगों का मरना जौना मेरी जिहा के हिलने डुलने पर श्र्थात्
मेरी शझ्राक्षा पर निभर है ?॥ ११॥
अप्येव दहन स्पृष्ठा बने तिप्ठन्ति पादपा: |
राजदापपरामृष्टास्तिप्ठन्ते नापराधिन! ॥ १२ ॥
यह तुम लेाग भल्ोर्भाति ज्ञान रफ्षे कि, वन में श्ाग लगने
पर, उस वन के चृत्त भत्ते ही भस्म होने से वच जाँय, किन्तु राज-
द्रीह के अपराधी कभी नहीं वच सकते ॥ १२१ ॥
हन्यामहं त्विमों पापों झत्रुपक्षम्शंसकों ।
यदि पूर्वोपकारेस्तु न क्रोधो मुदुर्ता तजेत् ॥ १३ ॥
शप्रुपत्त की प्रशंसा करने वाले तुम वोनों के में श्रवश्य
प्राशद्रड देता, पर क्या करूँ, तुम्हारे पदिले के उपकारों का स्मरण
थग्राने से मेरा क्रोध नम्न हो जाता है अर १३॥
अपध्य॑ंसत गच्छथ्य॑ सबन्निकपोदितों मम ।
नहिंवांहन्तुमिच्छामि स्मराम्युपक्षतानि वाम् |१४॥
थ्रव तुम मेरी आँखें के सामने से हट जाझो, ख़ररदार | फिर
मेरे सामने मत थाना | में तुम्हें मास्ना नहों चाहता। क्योंकि
मुमे तुम्हारे उपकारों का स्मरण बना हुआ है ॥ १४ ॥
हतावेब कृतध्नो तो मयि स्नेहपराडसुखों।
एयपुक्तों तु सब्रीडों ताबुभो शुकसारणा ॥ १५॥
२५४ युद्धकायडे
तम लेग जैसे कृतन्न ओर मेरे प्रति स्नेहशुन्य हो रहे हो,
इससे तो तम निश्चय ही मार डालने याग्य ह।। जव सवण ने
उन दोनों श्ञुक सारण से इस प्रकार कहा, तव वे बहुत जजित
हुए ॥ १५ ॥
रावणं जयशब्देन प्तिनन्धागिनि।रुतों।
अन्नवीत्त दशग्रीवः समीपस्थ महेदरस || १६ ॥
आर वे “ क्षय जब ” ऋहूह रादण के प्रणाम कर वहाँ से चक्ते
गये। तदनन्तर पास वे हुए महीदर से रावण ने कहा ॥ १६ ॥
उपस्थापय मे शीघ्र चारात्रीतिविशारदान् ।
महादरस्तथेक्तस्तु शीघ्रमानज्ञापयच्चरान्ू || १७ ॥
ठुम वीतिविशारूद चरों के तुरन्त हाजिर करोी। इस पर
मदहीदर ने “/ जे हुकुम ” कह कर, तुग्न्त चरों के उपस्थित होने की
घधाज्षा दी ॥ १७॥
ततथाराः सन्त्वरिता; प्राप्त। पार्थिवशासनाव ।
उपस्थिता; प्राक्लकयों व्धयित्वा जयाशिपा || १८ ॥
रावण की आह्ला झुनतें ही चर लेग तुरन्त ही उसके पांस
जा पहुँचे ओर “ अय हो ” ऐसा आशीर्वाद दे, हाथ जोड़े हुए खड़े
हो गये ॥ १८ ॥
तानब्रवीत्ततों वाक्य राबणे राक्षसाधिपः |
चाराग्यत्यायिताब्शूरान्भक्तान्विगतसाध्वसान१ ॥१९॥
तव रात्षसेश्वर रावण ने उनके विश्वस्त, श्र, अपने में
भकतमान् ओर शन्रुभय से निर्मय ज्ञान कर कहा ॥१॥
९ विगतसाध्यलानु--विगतमत्र॒सयान् । ( ग्रे
एकानभिशः सर्गः २४५४
इतो गच्छत रामस्य "व्यवसाय परीक्षय |
मन्त्रिषभ्यन्तरा येज्स्य पीत्या तेन समागताः ॥२०॥
तुम लेग यदां से श्रोरामचन्द्र फे पास जागो श्ौर पता लगाफप़ो
कि, उनका हरादा किस किस समय क्या क्या करने का है। उनके
घ्न्तरंगमंत्री जी भीतियश उनके साथ श्ाये हैं, उनके कामों की भी
टाह लगाना ॥ २० ॥
कथं खपिति जागर्ति क्रिमन्यच्च करिप्यति |
विज्ञाय निपुणं) सवमागन्तव्यमशेपत। ॥ २१ ॥
राम फ्या ध्रकेके सेन हैं ध्थवा वे सात हैं ओर प्रन्य केग
सेाने के समय जाग कर उनकी रखवाली करते हैं? प्यागे थे फ्या
करने घाल ६--इन सब बातो फा चुपके चुपके पता लगा कर, चक्ते
थाना ॥ २१ ॥ |
चारेण विदितः शत्रु; पण्डितवंसुधाधिप: ।
युद्ध खल्पेन यत्रनेन समासाद निरस्यते ॥ २२ |
क्योंकि जो राजा चतुर द्ोते हैं, वे दुतों द्वी के द्वारा अपने बैरी
का सब हाल जान कर, रण में अरव्पप्रयास ही से, शत्रु के भगा
देते हैं ॥ २९ ॥
चारास्तु ते तयेत्युकत्वा पहुष्ठा राक्षसेश्वरम् ।
बादूलमग्रतः कृत्ा ततश्चक्रः प्रदक्षिणम् ॥ २३ ॥|
चरों ने “ जो श्राज्षा ” कद कर झोर शादूंल नामक चर के
धपना प्रगुझा वना कर तथा प्रसन्न ही कर राक्षसेश्वर की प्रदत्तिणा
की ॥ २३॥ _
१--ज्यवसायं -फर्तत्यनिश्वयं । २ निपुर्ण -प्रष्ठन्नमिति । ( गे
१६६ युद्धकायडे
ततस्ते त॑ महात्मा चारा राक्षससत्तमस | .
कूल प्रदक्षिणं जम्मुयंत्र राम! स्क्ष्मणय || २४ ॥
तब वे चर लोग राज्नसातम रावण की परिक्रमा कर वहाँ गये
जहाँ लक्बमण सहित श्रीरामचन्द्र जी ठहरे हुए थे ॥ २४ ॥
- हे सुवेलस्य शेलस्य समीपे रामकक्ष्मणा ।
प्रच्छन्ना दरशुगला समुग्रीवविभीषणा ॥ २५ ॥
वे खुवेल पर्वत के निकट पहुँच और अपना भेष बदल कर
ध्रीरामचन्द्र जी, लक्ष्मण, सुप्रीव ओर विभीपण के देखने
लगे ॥ २४ ॥
प्रेक्षमाणाश्चरूं तां च'वरभूवु्यविक्तवा! |
ते तु धर्मात्मना दृण्ा रा्षप्तेत्द्रेण राफ़सा! ॥ २६ |]
विभीषणेन तत्रस्था निम्ृहीता' यहच्छया३ |
शादल ग्राहितस्त्वेकः पापे5यमिति राक्षत्त: | २७ ॥|
उस वानरी सेवा का देख ये क्ाग मारे भय के घत्रड़ा गये।
इतले में श्रीरामचन्ध जी शोर उस समय वहाँ पर उपस्थित रात्षसेद्ध
विभीषण ले उन शक्तसचरों के पहिचान लिया पर मवमाना
उनकी डाँढा डपठा । उनमें से उनके सरदार शाल के पकड़वा
लिया ; क्योंकि वह वड़ा भारी ढुप्र था ॥ २६ ॥ २७॥
0 की मम कक शक की ओह 20774 मद 2 ऋमिट १87 मिलन शक
१ निमृद्दीता;--तर्जिताइब्यघंर । (घो० ) ३ यहच्छया--शाइूँला-
तिरिक्ताराक्षत्राविभीपगेनदषश्ट अप्यरच्छया विभोषणाज्ञोविनेवयदीताम्शादूलस्तु
अयमत्यन्तपापद्तिकपिपिय्राद्वितः ! (रा०)
प्रकामभिणः सर्गेः * २४७
मोचित) सो5पि रामेण वध्यमानः पुवद्भमे! ।
आजश॑स्पेन रामस्य मोचिता राक्षसाः परे ॥ २८ ॥
चानर ते उसके मार डालना चाहते थे, किन्तु श्रीरामचन्द्र
जी ने उसे छुड़वा दिया। इसी प्रकार धन्य राक्तसचरों का भी
भ्रीरामचन्द्र जी की दया ने छुड़वा दिया ॥ २८॥
वानरेरर्दितास्ते तु विक्रान्तेलेघुविक्रमे! |
५
पुनलझूामनुप्राप्ता: श्वसन्तो नएचेतस। || २९ ॥
उन पराक्रमी भौर फुर्तीले वानरों से पिठ कुछ कर वे रात्तसचर
लंवी लंबी सांसे लेते और अधमरे से हो, क्रिसो तरह लड्ढम में मैट
कर पहुँचे ॥ २६ ॥
ततो दशग्रीवमुपर्थितास्तु ते
चारा 'वहिनित्यचरा निशाचराः ।
गिरे! सुवेलरय समीपवासिन
न्यवेदयन्भीमवर्ल महावका। ॥ ३० ॥
इति एक्रानत्रिशः स्गः ॥
तद्नन्तर, परराष्ट्रों का बृत्तान्त जानने के लिये सदा घूमने
फिरने वाले उन शत्तसचरों ने, दृशानन रावण के पास जा,
सु्वेल पर्चत के समीप छावनी डाले हुए पड़ी हुई भयहुर वानर
भादिनी का दूत्तान्त कद्दा ॥ २० ॥
युद्धकायड का उन्तीसर्वाँसर्ग पूरा हुआ।
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१ वहिनिल्यचरा:--परराष्ट पु पृत्तान्तज्ञानाय सदा संचारशीछा: । ( गो )
घा० रा० यु०--१७
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त्रिशः से;
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ततस्तमक्षोस्यवर्ल लल्»ाधिपतये चरा!
जे थे. 4
सुवेले राघवं शेले निविष्टं प्रत्यवेदयन् ॥ १ ॥
रावण के उन चरों ने, सुवेल पवत के समीप जा, श्रीरामचन्द्र
जी की अक्ुव्ध सेवा का जे कुछ दाल देखा था, चद्द सब रावण
से कहा ॥ १ ॥
चाराणां रावण; श्रुत्वा भाप्ठ राम महावकस् |
जातोद्देगे।उभवत्किश्विच्छादूल वाक्यमत्रवीत् ॥ २॥
रात्तसराज़ राषण, चरों के मुख से महावली श्रीयमचन्द्र जी का
लड्ढा में आना छुन, कुछ कुछ धवड़ाया ओर शाईल से कहने
लगा ॥ २॥
अयथावच्च ते वे! दीनश्वासि निशाचर |
नासि कच्चिदमित्राणां क्रद्धानां वशमागत) ॥ हे ॥
है राक्षस | तेरे मुख का वद्ला हुशा सा रंग हो रहा है, तू दीन
की तरह देख पड़ता दे, कहीं तू क्रद्ध वैसियों के हाथों में तो नहीं पड़
गया? ॥ ३ ॥
इति तेनानुशिएस्तु वा मन्दघुदीरयत ।
तदा राक्षसशादलं शादूढे! भयविदलः ॥ 9 ॥
जञव रावण ने इस प्रकार पंछा, तव भय से विहल शादल,
रात्तसश्रेष्ठ ( रावण ) से धीरे धीरे कहने लगा ) ४ ॥
निशः सर्गः २४५६
, न ते चारयितुं शक्या राजन्वानरपुद्भवा! |
विक्रान्ता वल़बन्तथ राघवेण च रक्षिता) ॥ ५ ॥
दे राजन] उस धानरी सेना में जासूसी नहीं दो सकती।
क्योंकि उसमें बड़े पड़े पराकमो और वल्लवान वानर हैं शोर
श्रोरामचन्ध सदा उनकी रक्ता किया करते हैं ॥ ४ ॥
नापि सम्भापितुं शक््याः सम्प्श्नोज् न छ्यते |
सर्वतो रक्ष्यते पन्था वानरे! परतोपमै! ॥ ६ ॥
_ उनसे न ते वातचीत ही हो सकती है भर न कुछ पूं छर्पांठ
ही की ज्ञा सकती है | पव॑तों की तरद्द श्राकार वाले पानर, शिविर
के यरतों को चारों शोर रक्ता क्रिया करते हैं। भ्रर्थात् शिविर के
मार्गों पर बड़े बड़े घानरों का विकट पदरा है ॥ ६ ॥
प्रविष्टमात्रे ज्ञातोह बले तस्मिन्नचारिते ।
वलादग्॒हीतो रक्षोमिवेहुधापरिम विचालित) ॥ ७ ॥
में ज्योंही सैन्य शिविर में घुसा, त्योंहीं पहचान लिया गया ।
विभीपषण के साथी यज्तसों ने मुम्ते वरजोरी पकड़ लिया ओर पकड़
कर मुझे वहाँ खूब घुमाया फिराया ॥ ७॥
जानुभियुष्टिमिदन्तैस्तलेश्चाभिहतों भृशस् ।
परिणीतो5स्मि हरिमिबंल्वद्धिरमर्पणै! ॥ ८ ॥
बाँध कर ले ज्ञाने व घुमाने के समय क्रोधी पानरों ने मुझे
घुटनों, मं कों, दाँतों, थप्पड़ों से खूब माय काठा ॥ ८ ॥ *
परिणीय च सत्र नीतोूं रामसंसदस ।
रुधिरादिग्धसपा जो विदलश्चलितेखिय! ॥ ९ ॥
२६० युद्धकायडे
इस प्रकार सैन्य शिविर में घुमा कर में श्रीरामनन्द्र जी की
सभा भें लाया गया । उस समय मेरे सारे शरोर से रुधिर वद्द रहा
. था झोर घवड़ाहट के कारण में बिकल था ॥ ६ ॥
हरिभिवेध्यमानश्व याचमान! कृताझ्ञलिः ।
राघवेण परित्रातो जीवामीति यहच्छया ॥ १० ॥
जव वानर मुझे मार डालने के तैयार हुए. तब मैंने हाथ जोड़
कर प्राणों की मित्ता माँगी | तब श्रीरामचन्द्र जी ने अपनी इच्छा से
(किसी के अनुरोध से नहीं ) मेरे प्राण वचायरे ॥ १० ॥
एप शेर: शित्नाभिश्च पूरयित्वा महाणंवस् ।
दवारमाशित्य लझ्काया रामस्तिष्ठति सायध) ॥ ११॥
है महाराज | श्रीरामचन्द्र प्तों ओर शिलाशों से महासागर
पर पुल वाँध कर, लड्ढ के द्वार पर दृथियारों से खुसज्ञित ध्या पहुँचे
हैं॥ ११॥
गारुवव्यूहमास्थाय सती हरिभिद्वेतः
मां विसुज्य महातेजा लड़ामेबाभिवतंते || १२॥
उन्होंने झपनी सेवा का गरुड़व्यूह वना कर वानरों के चारों
शोर फेल फुट कर ठहराया है। मुझे तो उन महातेजस्त्री ने दौड़
दिया, पर वे लड़ा की शोर निगाह गड़ाये हुए हैं ॥ १२ ॥ हे
पुरा प्राकारमायाति प्षिप्रयेकतरं छुर ।
सीता वाज्स्म प्रयच्छाशु सुयुद्ध वा प्रदीयताम ॥ १३ ॥
वे आपको राजधानी के परकेटे पर चढ़ाई करने ही वाक्ते हें,
ध्रतः ध्याप शीघ्र द्वी दो में से एक ऋाम कीजिये। श्र्थात् या ते
उनका सीता दे डालिये शथवा उचसे खूब डढ कर युद्ध
कफीजिये॥ १३ ॥
भिशः सर्मेः २६१
रु । कक] है
मनसा त॑ तदा प्रेक्ष्य तच्छूत्वा राक्षमाधिपः |
(७
आशादूल सुमहद्वाक्यमथोबाच स रावण! ॥ १४ ॥
रात्तसाधिप रावण ने शादुल की इन बातों के खुन प्र
उन पर मन ही मन कुछ विचार कर. उससे कद्दा ॥ १४ ॥
यदि मां पति युध्येरन्देवगन्धवंदानवा: ।
नेव सीतां प्रदास्थामि सबलेकभयादपि ॥ १५ ॥
यदि देवता, गन्धव और दानव भी मुझसे लड़ें अर्थात् भिन्षेकी
भी मेरे मु दिसद्ध ही जाय, ता भो में डर कर सीता, श्रौरामचन्द्र
के न दूंगा ॥ १४ ॥
एबमुक्ता महातेजा रावण; पुनरब्रवीत |
चारिता भवता सेना केउत्र शूराः प्रपक्षमा! ॥ १६॥
यह कह कर महातज ली रावण फिर कहने ल्गा--आप लोग
ते चानरी सेना में धूम फिर भ्ाये हैं, से। यद्द ते बतल्ाइये कि,
वानरों में शूर कोन कौन दै ॥ < ॥
कीह्शा किंप्रभाःः सोम्या बानरा ये दुरासदाः ।
कस्य पुत्राश्र पोत्राश् तत्तमाख्याहि राक्षस ॥ १७॥
है यत्तस ! जो वानर दुर्धप हैं, उनके आकार कैसे हैं, उनका
प्रभाव कैसा है; वे किसके पुत्र शोर पौन्न हैं? से आप प्तुकसे
ठीक ठीक कहिये ॥१७॥ ॥॒
तथाज्च्र प्रतिपत्स्वामि ज्ञात्वा तेंपां बलावलम |
अवश्य वलसंख्यानं कर्तव्यं युद्धमिच्छताम् ॥ १८ ॥
१ मनसाम्रेक्ष्य --आएच्य । (यो०) ; विचाय । ( क्षि० ) २ किंप्रभा--
किंप्रभावा; | | भो० )
२२... युद्धकायडे
जिससे में उनके वलावल के ज्ञान कर तदनुसार प्रवन्ध करूँ।
क्योंकि जे युद्ध करना चाहे, उसे पहिले शत्रु के वलावल का विचार
भोर उसकी सेना के सैनिकों की गिनती श्रवश्य कर क्ेनी
चाहिये ॥ १८॥
ब्डै, शादले[ ५ रावणेनोत्तम
#अथवमुक्तः शादुले रावणेनोत्तमथर! ।
इदं वचनमारेथे वक्तु रावणसन्नियों || १९॥
ज्ञव रावण ने दूतश्रेष.्ठ शा्ूल से इस प्रक्नार पू छा, तव उसने
राषण से यह कहना आरम्स किया ॥ १६ ॥
अयक्षेरजस; पुत्रो युधि राजा सुदुर्जयः ।
गदगदस्याथ पुत्रोश्य जास्ववानिति विश्रुत। ॥ २० ॥
महाराज | ऋत्तराज का एुध्च (लुन्नीच ) ते युद्ध में वड़ी
कठिनाई से जीता ज्ञा सकता है भोर यही हाल गद्गद् के पाण्यपुत्
का है, जो जञास्रवान के नाम से प्रख्यात है ॥२०॥
[नोट -जास्ववान की उत्पत्ति इसश्े पूर्व ब्रह्मा की जंभुआई से ऋह्टी था
चुकी है, यदाँ वह गदुगद का पुत्र बताया गया है । इस विरोध की
सीमांखा में टीकाकारों मे जाम्तरवान के गदगद छा पोष्यपुत्त बततकाया है। ]
गदगदस्येव पुत्रोज्न्यो' शुरुषुत्र। शतकतों! ।
कंदन यस्य पुत्रेण कृतमेकेन रक्षसाम ॥ २१ ॥
गदगद का दूसरा पुत्र धू्र भी यहां हे। इन्द्र के शुरू बृहस्पति
का पुत्र केपरी भी शआाया है। उसोके पुत्र हतुमान ने अकेले ही
(लड्डू में ) वहुत से याक्षखों का नाश किया था॥ २१ ॥
3 बओ + कम अिक कप के मन कक कल 44692 कक: 5५ 4: कपल
३ अन्य:पुन्नो घूत्र:। (रा० ) & पाठात्तरें--" तयैवमुक्तः | !!
निणः से: २६३
सुपेणथापि धमोत्मा पुत्रों धर्मस्य वीयबान ।
सोम्यः सेमात्मजथात्र राजन्दधिम्नुत। कपि! ॥ २२ ॥
धर्मपुत्र सुपेण बड़ा धर्मात्मा और पराक्रमी है। है राजन !
चद्ध का पुत्र दधिमुत्ञ वानर वड़ा सीम्य भर्थात् सरल स्वभाव का
॥ २२ ॥
सुम्मखों दुर्शखथात्र वेगदर्शी च वानरः |
मृत्युवानररूपेण नून॑ छा खयंभुवा ॥ २३ ॥
सुमुख, दुर्मुल और वेगदर्शी वानर ते सात्नात् सत्यु के
अवतार ही हैं। मानों ब्रह्मा ने वानररूप में सत्यु के रचा दे ॥ २३ ॥
पुत्रों हुतवहस्पाथ नील: सेनापति! खयम् |
अनिलस्य च पुत्रोत्र हतुमानिति विश्रुत्र) ॥ २४ ॥
ध्रप्नमिपुत्न नील घानरी सेवा का सेनापति है। पचनपुत्र, जो
हनुमान के नाम से प्रसिद्ध है, सेना में है ॥ २४ ॥
नप्ता शक्रस्य दुधपों वलवानड्भदो युवा |
मेन्द्श्च द्विविदश्चोभो वलिनावश्विसम्भवी ॥ १५ ॥
इन्द्र का पौत्र प्रड्भद भी, जे वड़ा बलवान, युवा ओर दुर्धष है,
सेना में है। वलवान मैन्द भोर दविविद प्मश्विनीकुमार के पुत्र
है॥२५॥
पुत्रा वेबखतस्यात्र पश्च कॉलान्तकापमः |
गजों गवाक्षो गदय। शरभों गन्धमादन। ॥ २६ ॥
गज, गधा, गवय, शरभ शोर गन्धमादन ; ये पाँच यमराज के
पुत्र हैं, और ये उन्हींके तुल्य हैं। ये भी यहाँ घाये हुए हैं ॥ २६ ॥
२६४ युद्धकायडे
दश वानरकोट्यश्च श्राणां युद्धकाडिसक्षणाम् |
श्रीमतां देवपुत्राणां शेष॑ नाख्यातुमुत्सहे ॥ २७ ॥
है राजन ! इसे सेना में दस करेइ वानर ते देवताश्ों के
सन्तान हैं | ये सब के सव वड़े शुरवीर, वलशाल्ीी एवं युद्धासिलाषी
हैं। प्रवशि्ट वानरों के वर्णन क्री शक्ति मुझूमें नहीं है ॥ २७॥
पुत्रों दशरथस्पेप सिहसंहननों युवा ।
दूषणो निहते येन खरश्र त्रिशिरास्तथा ॥ २८ ॥|
ये दशस्थनन्दन श्रीरामचन्द्र हैं, जिनको सिंह की सी चाल है,
जे क्रमी जवान हैं और जिन्होंने खर, दूपण और बिणशिरा की
अकेले ही मारा था ॥ २८॥ रे
नास्ति रामस्य सह्शो विक्रमे श्रुत्रि कथन ।
विराधो निहते येन कवन्धश्वान्तकेपम! ॥ २९ ॥
' इस पृथिवी पर ते राम के समान पराक्रमी कोई दूसरा है नहीं,
क्योंकि ये वे ही हैं, जिन्होंते यमराज के समान विराध शोर कवन्ध
का मारा था ॥ २६ ॥ '
वक्तूं न शक्तो रामस्थ नर! कथिरिदयुणान्धितों ।
जनस्थानमता येन यावन्तो राक्षसा हता। || ३०-॥
इस प्रथिवी तल पर ऐसा कोई नर नहीं है जो भीराम के गुणों
का वखान कर सके। क्योंकि इन्होंने शअकेले ही जनस्थानवासी
समस्त ( १४ हजार ) राक्षसों को मार डाला था ॥ २० ॥
लक्ष्मणश्नात्र धर्मात्मा 'मातद्भानामिवर्षश! ।
यस्य वाणपथ॑ प्राप्य न जीवेदपि वासव) ॥ ३१ ॥
१ मातन्नानामिठ पेस: - एजश्रेष्ठ इक स्थित: । ( गे।० )
बिशः सर्मः २६४
धर्मात्मा लक्ष्मगा भी एक श्रेण्गाज के समान वलवान हैं। इनके
वाणों की मार फे भीतर प्रा जाने पर इन्द्र भी ज्ञीता ज्ञागता नहीं
बच सकता ॥ ३१॥
| दर
श्वेते ज्योतिमु वशथ्ात्र भारकरस्यात्मसम्भवा ।
वरुणस्य च पृत्रोज्य्यों हेमकूट! प्रवद्धम/ ॥ ३२ ॥
श्वेत और ज्योतिपुंम नामक दोतों वानर, छू के पुत्र हैं।
चण्ण का पुत्र हमकूट नाम का चानर है ॥ ३२ ॥
विश्वकमसुते! बीरों नल! पवगसत्तमः |
विक्रान्तो बलबानत्र वसुपुत्र। सुदुधर।॥ ३३॥
विश्वकर्मा का पुत्र चानरभरेष्ठ एवं बीर नल है। बस का पुष्र
सुदुर्धर है, ज्ञो वा विक्रमो है ओर वलवान है ॥ ३३ ॥
राक्षसानां वरिष्ठश्न तब भ्राता विधीपण; ।
परिग्द्य पुरी लड्टां राघवस्य हिते रत१ ॥ ३४ ॥
र्त्सों में थेष्ठ ओर तुम्हारा भाई विभीषण, राप्र से लडुप का
राज्य पा कर, श्रीरामचन्द्र जी का दितेपी वन गया है ॥ ३४ ॥
इति सर समाखझ्यात॑ं तबेदं बानरं बलूम |
सुवेलेड्धिप्ठितं शैले शेपकार्ये भवान्गति। || १५ ॥
न इति तिणः सर्ग: ॥
मैंने सुवेलशेल पर ठहरी हुई वानरमेना का जो कुछ हाल जान
पाया, चह आपके वतला दिया; शव शागे जो कुछ करना हो,
भाप करे ॥ ३१ ॥
युद्धकायड़ फा तीसवाँ सर्ग पुरा हुप्या ।
+-+ ०८
एकन्निशः सर्गः
-+४६----
ततस्तमप्षाश्यवर्ल लद्गाधिपतये चराः ।
सुबेले राघवं शैले निविष्द॑ प्रत्यवेदयन् ॥ १॥
लड्ढा में खुवेल्ल पर्वत पर दिफ्े हुए श्रीरामचन्ध जी ओर उनकी
अक्तेस्यलेना का दुत्तान्त इस प्रज्चार रावण के चरों ने रावश के
बतलाया ॥ १॥
चाराणां रावण: श्रुत्वा प्राप्तं राम महावरूस् |
जातेदिगो5यवल्किखित्सचिवानिदमत्रवीत् ॥ २ ॥
चरों द्वारा महावल्लवान श्रीयमचन्् का लड्ढी में आगा छुन
कर, रावण ऊझुछ घवड़ाया शोर अपने मंत्रियों से यह बोला ॥ २ ॥
मन्त्रिणखः शीत्रमायान्तु सर्वे वे 'सुसमाहिता) ।
अय॑ नो मन्त्रकाले हि सस्प्राप्त इति राक्षसाः ॥ हे ॥!
है राक्षसों ! भेरे समस्त नीतिकुशल दर्वारो या सलाहकार
परे सामने तुर्त डपरिधित हॉं--क़्योंकि अब मंत्रणा करने का
समय आा पहुँचा है ॥ ३ ॥
तरय तच्छासन श्रुत्वा मन्त्रिणाध्म्यागमन्हृतस् ।
तत; स मल्रयामास सचिये राक्षस! सह ॥ ४ ॥
रावण की यह शाज्ञा पा. सब मंत्री तुसतत आ कर उपस्थित
हो गये। ठव राचण उन राक्षस मंत्रियों के साथ परामर्श करते
लगा ॥ ४ ॥
छ्
१ सुसमाद्विता: -नीतिफुशला इत्ये; । ( गै।० )
एकत्रिश। सर्गः २६७
मन्त्रयित्वा स दुधप; क्षम यत्समनन्तरस् |
(
विसजयित्वा सचिवान्मविवेश खमालयम | ५ ॥
श्रीरामबन्द जी के लड्ढा के समीप झाने के अचन्तर, रावण के
जो करना उचित था, उसके सम्बन्ध में परामर्श कर छुकने के बाद,
दर्घप रावण मंत्रियों के! विदा कर, स्वयं भी अपने अन््तःपुर में
चला गया ॥ ४ ॥
ततो राक्षसमाहूय विद्युज्जिद महावलस् |
मायाविदं 'महामायः प्राविशत्र मैथिली ॥ ६ ॥
> अन्तापुर में पहुँच कर, रावण ने महाबलो विद्युज्ञिल्न राक्षस के
बुलवाया शोर उस मायावी वाज्ीगर का अपने साथ के वहाँ,
जहाँ सीता रहती थीं, ज्ञाने की इच्छा प्रकट की ॥ ६ ॥
विद्युज्जिहं च मायाज्षमब्रवीद्राक्षसाधिपः |
मोहयिष्यावहे सीतां मायया जनकात्मजाम ॥ ७॥।
जाने के समय रावण भमलीमाँति माया के जानने वाले विद्युज्निह्न
राक्तस से कहने लगा कि, हे निशाचर ! आशो दम दोनों माया की
सहायता से ध्रर्थात् वाजीगरी द्वारा सीता के धोखा दें ॥ ७ ॥
शिरों मांयासयं ग्रह्ष राधवस्य निश्ाचर ।
त्वं मां समुपतिष्ठस्ख महत्च सशर्र पनुः ॥ ८ ॥
अतः तुम श्रीयमचन्द्र जी का वनाचठी सिर झोर बाण सद्दित
एक वड़ा धनुष, उस समय क्लेकर मेरे पास घना ( जिस समय
में सीता के पास होऊ ) ॥ ८ ॥
१ महामाय:--ताइशमाया प्रयोग कर्तार । ( रा० )
शेधद युद्धकायडे
0.
एबमुक्तस्तथेत्याइ विद्य॒ुज्निद्ों निशाचरः |
तस्य तुप्लो<भबद्राजा प्रददों च विभूषणम || ९ ॥
तब मायाची विद्यज्ञिल्द ने रावण की आज्ञा मान कर कहा
बहुत अच्छा इस पर उसने ( रावण ने ) पारितापिक्त में विद्ुज्षिह
के आमूषण दिया।॥ ६ ॥
अशोकवनिकायां तु सीतादशनलाहूसः |
नऋतानामधिपतिः संविवेश महावरू; ॥ १० ॥|
ददनन्तर मद्दावती राज़्सराज़् रावण सीता से मिलने की
ज्ालग्ग से अशाक्रवाबिक्षा में गया ॥ १०॥
तते। दीनामदेन्याहा ददश धनदानुज) |
अधोमु्खी शोकपरामुपतिष्ठां महीतले ॥ ११ ॥
वहाँ कुबेर के छोटे भाई रावण ने उदास मन होने के श्रयाग्य
होने पर भी, सीता के उदास मन हो, गर्दन कुकाये, शोक से
विकल, जमीन पर बैठा हुआ देखा॥ ११ ॥
भतारमेब ध्यायन्तीमशोकवनिकां गताम ।
उपास्यमानां घोशभी राक्षत्रीमिरितस्ततः || १२ ॥
सीता अशेकवाबिक्ता म॑ अपने पति श्रीरामचन्द्र ज्ञी के ध्यान
में डवी हुई थो ओर सयद्भर राक्षपतियाँ उनके समोप इधर उधर
वेठी हुई थीं॥ १२ ॥
उपसुत्य तत; सीतां प्रहष नाम कीतेयन् ।
इंद थे बचत धप्मुवाच जनक्रात्मजाय ॥ १३ ॥
एकर्नि!॥: सर्गः २६६
रावण सीता के निकृद् गया शोर प्रसन्न ही अपना नाम
छुना कर छिठाई से जानकी ज्ञी से कहने त्वगा ॥ १३॥
सान्त्माना मया भद्ेे ययपाणित्य वलास |
खरहन्ता स॑ ते भता राघव! समरे हतः ॥ १४ ॥
है भद्रे | मेले तुझे बहुत समझाया, पर तु (श्राज्ञ तक )
जिसके भरेसे मेरे वद्रनों का श्रनादर करती रही, गबर का वध
करने चाला तेरा वह पति राघव युद्ध में मारा गया ॥ १४॥
+ श न (ः हक
छिम्न॑ ते संतों मूल दपरते विहते मया |
धव्यसनेनात्मनः सीते मम भाया भविष्यसि ॥ १५॥
ख्रब ते मैंने तेरे सहारे को जड़ सव प्रकार से काट डाली
शोर तेरा भ्रभिमान चूर चूर कर डाला । अतएच श्र तो तू अपने
श्राप ही भेरो भार्या बनेहीगी अथवा श्रव ते तुझे मेरी पत्नी बनना
ही पड़ेगा ॥ १५ ॥
विसुजेमां म्ति मूढ़े कि शतेन करिप्यसि ।
भवख भद्दे भायाणां सवासामीश्वरी मम ॥| १६ ॥
घाव वू इन विचारों के त्याग दे। घरे सूर्वा ! श्रव तु इस मरे
हुए. शरीर के ले कर क्या करेगी ? हे भद्दे ! अब तू मेरे साथ चल
कर मेरे समस्त स्त्रियों की स्वामिनी वन ॥ १६ ॥
अश्पपुण्ये निहत्तायें मूढ़े पण्डितमानिनि |
घृण भर्तवर्ध सीते घोर हृत्रवर्ध यथा ॥ १७ ॥
हे अ्व्पपुण्यवाली, दे नछायें | हे मूढ़े ! दे परिडतमानिनि | तू
झव दारुण वृत्नाखुर के वध की तरह अपने स्वामी के घेर घध का
चृत्तान््त सुन ॥ १७ ॥
१ व्यसनेन--निमिच्तेंत | ( गो )
२७० युद्धकफायदे
समायातः समुद्रान्त मां हन्तुं कि राघव |
वानरेन्द्रपणीतेन' वलेन महता हतः ॥ १८ ॥
सुम्रीच की एक बड़ी भारी घानरी सेना के साथ ज्ञे राम, मुझे
मारने के लिये समुद्र के इस पार अवश्य झाया था ॥ १८॥
सनिविष्ट; समुद्रस्य पीड्य तीरमथोत्त रम ।
वलेन महता रामो त्रजत्यस्तं दिवाकरे।॥ १९॥
जिस समय यूथ अस्ताचलगामो हुए, उसी समय उसमे स्त॒द्र
के उत्तरतद पर सेना के ला दिक्ाया पोर स्वयं भी वद्दी टिक्का हुप्मा
था।॥श्शा (
अधाध्वनि परिथ्रान्तमधरात्रे स्थितं वलम |
सुखशुप्तं समासाथ चारितं प्रथम चरे; ॥ २० ॥
तत्महस्तप्रणीतेन वलेन महता मम |
वलमस्य हतं रात्रो यत्र राम। सलक्ष्मण; | २१ ॥
मार्ग चलने की थकावठ से शआराधीरात के सेना बेखुवर पड़ी
से रही थी। प्रथम से नियुक्त किये हुए जञासूसों से ज्ञव यह हाल
जाना गया, तव रात के बड़ी भारी सेना ज्लेकर प्रहस्त ने वहाँ
चढ़ाई क्री, जहाँ राम तथा लक्ष्मण थे झोर उनकी सेना के मार
डाला ॥ २० ॥ ११ ॥
पश्टशान्परिषांभअक्रान्दण्डान्खड्रान्महायसान् ।
वाणजालानि शूछानि भाखरान्कूट्युररान् ॥ २२ ॥
यप्टीश्च तामराज्वक्तीश्चक्राणि मुसछानि च् ।
उद्यम्योध्म्य रक्षोमिवानरेपु निपातिता। ॥ २३ ॥|
१ प्रणीतीत--आनीतैन । ( थो० )
एकत्रिश! सगेः २७१
पठ, परिध, चक्र' श्रोर इसपात के वने डंडे, खड्ू, तीर, शूल,
काँटेदार चमचमाते मुख्दर, लाठी, तोमर, शक्ति चन्द्राकार पुशलादि
शत्मों को ले ले फर, गात़सों ने वानरों के उनके पधात से भार
गिराया ॥रशारशा॥
अथ सुप्तस्य रामस्य पहस्तेन प्रमाथिना ।
असक्तं कृतहस्तेन शिरश्छिन्नं महासिना ॥ २४ ॥
तद्नन्तर शन्रुसैन््य के मथन करते वाले प्रहस्त ने अपने हाथ
की फुर्ती दिखला कर, पक्र वड़ी तलवार से भाद श्रीराम चन्द्र का
सिर काट डाला ॥ २७ ॥
विभीपण; सम्ुपत्य निमृद्दीती यदच्छया ।
दिशः प्रत्रानितः सर्वैलक्ष्मणं! छवगे! सह ॥ २५॥
विभीपण के जितना दुश्ड देना चाहिये था, उतना दण्ड देने में
फसर नहीं को गयी । तव लक्ष्मण कचे हुए, सव चामरों के साथ ले
भाग गया॥२श॥।
सुग्ीबो ग्रीवया शेते भग्नया पचगाधिपः ।
शेते ्
निरस्तहनुकः शेते हलुमान्राक्षसेहतः ॥ २६॥.
घानरराज्ञ छुप्नीव गर्दन हूठ जाने से रणभूमि में मरा पड़ा है।
रात्तसों ने हनुमान की ,ठोड़ी ताड़ डाली श्रोर बंद भी रणत्तेत्र में
मरा पड़ा है ॥ २६ ॥
जाम्बवानथ जानुभ्यामुत्पतन्निहता युधि ।
पहिशिवहुमिश्छिन्नो निकृत्तः पादपे यथा ॥ २७॥
ज्ञास्ववान कूद कर भागना चाहता था, किन्तु राक्तसों ने पटों
की मार से उसकी जाँघे तोड़ दीं। वह भी करे हुए पेढ़ की
तरद्द पद्दाँ पर मरा पड़ा है ॥ २७ ॥
श्७९् ' मुद्धदायडे
मेन्द्श्व दिविदश्चोना निहतो दानरंपभी ।
निश्चसन्ता रूदन्तों थे रुविरेण परिप्लुतों ॥ २८ ||
बानरश्रेए्ट मेन्दर शोर छविविद लंबी लंबी साँस लेते ओर शत हुए
वथा रक से ( न्वाथे हुए ) लथपथ हो; मारे गये ॥ <८॥
असिना '्व्यायनों छिल्नो मध्येर इयरिनिपृदनों ।
अलुतिष्ठति मेदिन्यां पनस! पनसो यथा ॥ २९ |
इन वड़े डीलडाल वाते शन्रुहन्ता दोनों चानरों की कमरे
तलवार से काट डाली ययों थीं। पत्रस नामक दानर पनस
कव्दर के) पेड़ को तरह जमीन पर का हा पड़ा है ॥ २६ ॥
भाराचबद्राभारछन्त गत दया दराफ्तत |
छुमुदस्तु महातेजा निष्क्ृत: सावके। कृतः || ३० ||
द्रामुख झत्ेक वाणों के प्रहार -से मरा इआ, कन्दरा में पढ़ा
से रहा है । महानेन्नस्थी कुपुद सी वाणों की मार से सदा के लिये
निःशब्द् ( सुक-गंथा ) दना दिया गया हैं॥ ३० |
अह्नदा वहुमिश्छिन्ाः शररासाद्र राक्षस! |
पतिता रुघिरादगारी क्षितों निपतिताडुद! ॥ ३१॥
अज्ुद भी राज़सों द्वारा चत्ताये 7० अनेक वाणों से क्षत वित्षत
हो, मारा गया | उसका वाज़ू सहित बाहु भूमि पर पड़ा है ओर
डसके सव अज्ञों से माँ: दावर वह रहा ह। अथवा रक्त की वम्न
करता इुआ बह मरा है ॥ ३१ ॥
हरया मथिता नागे रथजातेस्तथाउपरे ।
शायिता मुदिताइचार्वेबरायुवेगेरिवास्टदा। ॥ ३२ !
१ च्यायती-डीव घरीर। (गो० ) ३ मध्ये--कटिथाने ।
धन
एकभिशः सर्गः २७३
प्रनेक पानर तो हाथियों के पैरों के नीचे कुचल कर मर गये।
' बहुत से रथों की चपेदों में झा कर मारे गये। बहुत से सेते हुए
कुचल गये। जिस प्रकार हवा के वेग से वादल् अद्वश्य हो जाते हैं,
उसी प्रकार राक्षसी सेना के पश्ाक्रमण से सब वानर श्रद्वश्य हो
गये हैं ॥ १२ ॥
प्रहताश्चापरे त्रस्ता हन्यमाना 'जघन्यतः ।
अभिद्वुतास्तु रक्षोमि: सिंहेरिव महादिपा। ॥ ३३ ॥
वहुत से चानर तो मारकाठ के समय डर कर भागते समय
पीछे से मारे गये । वहुत से राक्तसों से पिक्तियाये जा कर ऐसे भागे
जैसे सिंद के ऋषठने पर बड़े बड़े हाथी भागते हैं ॥ ३३ ॥
सागरे पतित॥ फ्रेचित्केचिदृगगनपाशिता) ।
ऋश्षा हृक्षातुपारूढा अवानरेव्यतिमिश्रिताः ॥ ३४ ॥
कोई काई वा समुद्र में कूद पड़े शोर कोई कोई भाकाश में उड़
गये | रोक वानरों के साथ छूत्तों पर चढ़ गये ॥ ३४॥
सागरस्य च तीरेषु शैलेपु च वनेषु च ।
चर पु
*पिड्जलास्ते *विखुपाक्षेबहुमिबहवों हताः ॥ ३५ ॥
समुद्र फे तठ पर, पर्चतों ओर बनों में जिन बानरों ने आश्रय
लिया था उनमें से बहुत से राक्षासों द्वारा मार डाले गये ॥ ३५ ॥
एवं तव हतो भर्ता ससेन्यो मम्र सेनया ।
क्षतजाद रमोध्वस्तमिदं चास्याहतं शिरः ॥ ३६ ॥
१ जधन्यत: शरछतर । (गो० ).. हे पिल्लक्षा:--वानराः | (गे।० )
३ विश्पाक्षेः--वानरैः । ( गे।० ) # पाठन्तरे--/ वानरीं बृत्तिमाश्रिताः ।!
घा० रा० यु०--शै८
२७४ युद्धकाएडे
इस प्रकार तेय भर्ता सलैभ्ध मरी सेचा द्वास मास गया।
उसका यह कठा इुचआ सिर तुझे देखलाने का जाया गया है। देख
यह रक्त ओर घृल से सना दे ॥ ३६ ॥
ततः परमदुषर्षों रावणों राक्षसाधिपः |
सीतायासुफश प्वन्त्यां राक्षतीमिद्मब्रवीत् ॥ २७ ॥
तदनन्तर परम दुर्धध रात्तसयज्ञ रादण सीता के छुता कर
पएक्क राक्षस से यह वाला ॥ ३२७ ॥
राक्षस ऋरकमाणं विद्यक्जिहं वमानय |
येन तद्गाधवश्षिरः संग्रामात्सयमाहतम् ॥ रे८ ॥|
दू ज्ञाकर इस क्ूरकर्मा विद्युक्षिद्द सक्षख के घुला ला, जो स्वर्य
रणक्तेत्र से उस राम का सिर लाया है ॥ ३८१!
विद्युन्निहस्ततों गद्य शिरस्तत्सशरासनम् |
प्रणाय॑ शिरसा कछत्वा रावणस्थाग्रत! स्थित! ॥ ३९ ॥|
( रा्सी हारा चुलाये जाने पर ) विच्चुज्लिह डस सिर के दया
घनुएष के लिये हुए, रावण के सामने आा खड़ा द्वो गया ओर
सिर नवा कर उसके प्रणाम किया ॥ ३६ ॥
तमबबीचतो राजा रावणो शक्षसं स्थितम |
विद्युन्निह महाजिहं समीपपरिवर्तिनम | ४० ॥
वड़ी जीम दाले विद्ुुज्लिद् के अपने निकट खड़ा देख, राजा
रादणय ने उससे कहा ॥ ४० ॥
अग्रतः छुठ सीताया। ज्ञीप्र॑ दाशरवे) शिरः ।
'अवस्थां परिचमां भतुः कृपणा साधु पश्यतु ॥ ४१ ॥
१ पश्चिमासवस्थां--सरणलिलयध | ( गे।० )
पकन्निश । सगे: २७५
राम का कट हुआआ सिर तू सोता के सामने रख दे, जिससे
यह बापुरी श्रपने मरे हुए राम के अच्छी तरद्द देख ले ॥ ४१॥
एयमुक्तं तु तद्क्ष। शिरस्तत्मियद्शनस ।
उप निश्चिप्य सीतायाः क्षिप्रमन््तरधीयत ॥ ४२ ॥
ज्योंदी रावण ने विद्युज्लिह से यह कहा, त्योंदी धह प्रियद्र्शन
यम का कटा हुग्मा सिर सीता के पास रख, स्वयं तुरन्त धन्तर्धान
दो गया ॥ ७२॥
रावणश्रापि चिक्षेप भाखर॑ कारक महत् |
त्रिषु लोकेषु विर्यातं सीतामिदम॒वाच च ॥ ४३ ॥
तब राचण से भी उस चमचमाते झोर जिलोकी में प्रसिद्ध
विशाल धनुष के सीता के सामने फेंक कर, यह कहा ॥ ४३ ॥
इद॑ तत्तव रामस्य कामुक ज्यासमायुतम् |
इह प्रहस्तेनानीतं हत्वा द॑ निशि मानुपस् || ४४७ ॥
यह तेरे राम का रोदा सहित धद्धप है। रात में उस मनुष्य को
मार, प्रदस्त इसे के झाया है॥ ४४॥
स विद्युज्जिहेन सहैष तच्छिरो
धनुश्न भूमी विनिकीयें रावणः |
विदेहराजस्य सुतां यशख्नीं
ततेन्नवीत्तां भव मे वशाजुगा | ४५ |
इति एकतिशः सगेः ॥
२७६ सुस्काणडे
तदनन्तर रावण विद्युज्ञिह का लाया हुआ घह कटा हुश॥्मा
रमचद्ध का मस्तक धयोर धहुप प्ृथिवों पर सोता के शागे छितरा
कर,,यशसघ्विनी विदेहतनया सीता से वोला--भ्व ते। तू मेरी पश-
चतिनी हो जा। अर्थात मेरी पत्नी चन जा ॥ ४५ ॥
युद्धकाण्ड का इकतीसवां सर्ग पूरा हुआ ।
न ैरिनाकझनन
दात्रिश:' से:
“+-
सा सीता तच्छिरो धृष्टा तब्च का्मुकमुत्तमम |
सुग्रीवप्रतिसंसगंमाझर्यातं च इनूमता ॥| १ ॥
सीता के उस करे सिर शोर उस श्रेष्ठ कामुक के देख, हसु-
मान जी की वतल्लायो हुई सुश्नीव के साथ श्रीरामचर्ध जी की मेत्री
का स्मरण हो शझाया ॥ १ ॥
नयने मुखबरण च भतृस्तत्सहरशश मुखस् |
केशान्क्रेशान्तदेश॑' च त॑ च चूडामणि शुभम् ॥ २ ॥|
सीता ने देखा कि, उस करे हुए मस्तक के दोनों नेज़, चेहरे
की रंगत ओर मुख हबह उनके पति धीरामचन्द्र जी जैसा है । उस
करे हुए सिर के वाल शोर लत्लाट भी ज्यों के त्यों वैसे ही हैं भरोर
चह श्रेष्ठ घूड़ामणि भी वही है ॥ २॥
एते; सर्वेरभिज्ञानेरमिज्ञाय सुदु/खिता ।
विजगर्हे त्र केकेयीं क्रोशन्ती कुररी यथा ॥ हे ॥
१ क्षेषान्तदेशं--छलादं | ( गै।० )
द्वाश्िणः सगे २७७
घीता जी घोर भो अनेक प्रकार की वातों से अपने पति का
मारा ज्ञाना निश्चित जान, प्रत्यन्त दुखी हुई और करे की तरह
शेक से विकल दे, कैकेर के उपालंभ देती हुई अथवा उसकी
निन्दा कर विज्ञाप करने लगी ॥ ३ ॥
सकामा भव केकेयि, हते5यं कुलनन्दन! ।
'कुल्मुत्सादितं सब त्वया कलहशीलया ॥ ४ ॥
दे कैकेयो ! अच ते तेरी साथ पूरी हुईं। देख, यह इच्तवाकु-
कुलनन्दन मारे गये। तु कल्नदप्रिया ने इस कुल की जड़ ही
रखाड़ फकी ॥ ४॥
आर्येण कि ते केकेयि कृत रामेण विपियम्् |
तदग्रहाचीरवसन दत्त्ता प्रत्राजितो वनस् ॥ ५ ||
री फैकेयी | झा राम ने तेरा क्या विगाड़ा था, जे तुने
उनके चोरवबस्र पदिना कर, घर से वन में निकाला दिया. था॥ ५४ ॥
एवुक्त्वा तु वैदेही वेपमाना तपस्विनी ॥ ६ ॥
दुखियारी ज्ञानकी यह कह कर थरथर काँपने जगी ॥ ६ ॥
जगाम जगतीं बाला छिन्ना तु ऋदली यथा । ु
सा मुहृर्तात्समाश्वास्य प्रतिल्भ्य च चेतनाम् ॥ ७ ॥
शोर कटे हुए फैले के पेड़ की तरह ज्ञमीन पर ग्रिर पड़ीं |
फिर थोड़ी देर वाद वे सावधान हो सचेत हुई ॥ ७ ॥
: तच्छिरः सम्ुपाधाय विललापायतेक्षणा ।
हा हताअस्मि महावाहो वीरत्रतमनुन्नत ॥ ८ ॥
|
२७८ युद्धकायडे '
' झौर उस सिर के भलो भाँति छूघ कर विशालनेत्र वाली
सीता विल्ञाप कर के कद्दने लगी--है महादाहों | हे वीखजतधारी |
हाय में मर गयो ॥ ८ ॥
इम्ां ते पश्चिमावस्थां गताउंस्मि विधवा कृता |
प्रथम मरण नायों भतुवेगुण्यमुच्यते || ९ ॥
ठुगदारे मरते से में तो विधवा हो गयी। ख््री के रहते उसके
पति का मरना द्ती के दोष ही से होता है ॥ ६ ॥
...' सुदृंच साधुहत्तायाः संहत्तस्त्व॑ ममाग्रतः |
दु/खाइ!खं प्रपन्नाया मग्नाया शोकसागरे ॥ १० ॥
सा दे साधुबत्त | सा धयप मुझ धर्मचारिणों से पहिले ही
परलोक के सिधार गये | में ते शत्यन्द दुछ्ली हो, पहिले ही शेक-
सागर में इृवी हुई थी ॥ १० ॥
यो हि मामुद्ततद्धातुं सेडपि त्व॑ं निनिपातितः |
सा इबश्रुमेम कौसल्या लया पुत्रेण राघव ॥ ११॥
श्राप मेरा उद्धार करने का उद्यत हुए थे, से प्राप भी मारे
गये । हे राघव | झ्राप सरीखा पुत्र पा, मेसे सास कोशल्या पुत्र-
चत्सला कदलाती थी ॥ ११॥
वत्सेनेव यथा धेनुर्विवत्सा वत्सला कृता |
आदविष्टं दीघमायुस्ते येरचिन्त्य
घ्ट दीधमायुरते यरचिन्त्यपराक्रम )| १९॥. ...
से वद सो विना वछ्ड़े की गे! क्री तरह निर्वत्सला हो गयी।
ज्योतिषी ने तुम्दारा प्रचिन्य पराक्रम देख, तुमके दीर्घायु वबतलाया
था॥ १२॥ ;
द्वात्रिणश: सर्भः २७६
अनृतं वचन तेपामत्पायुरति राघव |
अथवा नश्यति प्रज्ञा प्राज्नास्यापि सतस्तव ॥ १३ ॥
है राधव | ( से मेरें दुर्भाग्य से ) तुम भ्रद्पायु हुए भौर उनके
वचन प्रसत्य ठहरे | ध्थवा उनका वचन मिथ्या नहीं है प्र्धाव्
वे भसत्यवादी नहीं है, किन्तु ठुम्दारे भाग्यतरिपर्यय से उनकी बुद्धि
भी मारी गयो ॥ १३ ॥
पचत्येन॑ यथा कालो भूतानां प्रभवों हयम् |
अद्ृष्ट मृत्युभापन्नः कस्मात्वं नयशास्रवित् ॥ १४ ॥
व्यसनानासुपायज्ञ। कुशलो हसि वर्जने |
तथा स्वं सम्परिष्वज्य रोद्रयातिदृशंसया | १५ ॥
कालरात्या मयाच्छिय हुत। कमछलोचन ।
उपशेपे महावाहों मां विहय तपस्थिनीस ॥| १६ ॥
प्रियामिव समाझ्िष्य पृथिवीं पुरुषपेभ ।
अर्चितं सततं यत्तदृगन्धमार्येमेया तद ॥ १७॥
काल की करतूत ही पेसी है | क्योंकि प्राशियों का फारणभूत
वह्दी है । है राम | तुम ता नीतिशास्रषिशारद थे, उपाय करने में
निषुण थे, विपदों के निवारण में समर्थ हो कर भी, तुम्हारी इस
प्रकार अचानक म्त्यु कैसे हुई । हाय | सयद्ठुर निष्ठुर काल-
राजि ने तुम कमललोचन के प्ुुकसे बरज्ञोरी छीन लिया ।
है महावाहो | मुक्त ठुखियारी को त्याग कर, प्यारी झ्ली की नाई
पृथिवी से लिपट कर तुम कहां पड़े हो ! में तुम्हारे साथ छुगन्धित
द्रव्य भर पुष्पमालाधं से सदा जिसका पूजन किया करती
थी ॥ १४॥ १४ ॥ १६ ॥ १७ ॥
हां
शेद० जुद्धकायडे
इंदं ते पत्मियं घीर धनु) काश्वनभूषणम् |
पित्रा दशरथेन त्वं श्वशुरेण ममानघ ॥ १८ ॥
घोर जो मुझे घ्रत्यन्त प्यारा था; दे बीर | उसी तुम्दारे इस
खुवणभूषित धनुष को यह दया दशा है? दे पापरदित | तुम
अपने पिता ओर मेरे पापरदित सत्र महाराज दशरथ ॥ १८॥
संर्वेश्व पितृभि! साथ नून॑ खर्गें समागतः |
'दिवि नक्षत्रभूतरत्व॑ महत्कमेकृतां प्रियय ॥ १९ ॥
एुण्य॑ राज्पिवंशं त्वमात्मनः समवेक्षसे ।
कि मां न प्रेक्षसे राजन्कि मां न प्रतिभापसे ॥ २० ॥
तथा धन्य सब पितरों से स्वर्ग में निश्चय ही मिले होगे। बड़े बड़े
यज्ञाचुष्ठान करने वाले झोर विमानों में घ्थित, श्यपने पवित्न इच्धवा-
कादिराजर्पियों के तुम देखते होगे । है राजन | तुम मुझे फ्यों नहीं
देखते ओर मुक्से क्यों नहीं बोलते ? ॥ १६ ॥ २० ॥
वालां वाल्येन सम्प्राप्तां भायो मां सहचारिणीस ।
संभुत्ं गरहता पार्णि चरिष्यामीति यक्तया ॥ २१ ॥
है राजन | तुमने लड़कपने में ही मुझ वाला के भ्रपनी सम-
दुःख-सुख भाग ऋरने वाली स्लो कह कर शद्गीकार किया था
भर पाशिप्रहण के समय तुमने प्रतिन्ञा की थी कि, में तेरे साथ
रहूँगा ॥ २१ ॥
स्पर तन्मम काकुत्स्थ नय मामपि दु।खिताम् ।
कस्मान्मामपहाय त्वं गते गतिमतां वर ॥ २२ ॥
१ दिवि नक्षप्रमूत:-- विमानस्थःसत्र् गे।० )
द्वातिणः सर्गः श्प१्
से है काकुत्स्थ | उसे याद करे श्रोर घुछ दुखिया के भी
घपने साथ क्षेते चलो । है भली गति को प्राप्त | तुम मुझे क्यों
छोड़ कर चल्ले गये ? ॥ २२ ॥
अस्पाह्लोकादरसं लोक॑ त्यक्तवा मामपि दुःखिताय ।
' कल्याणेरुचितं यत्तत्परिष्वक्त॑ मयेव तु ॥ २३ ॥
छुक्त दुखिया को भी त्याग कर, तुम इस लोक से परतलोक में
क्यों चन्ने गये ? तुम्हारे ग्राभूएणों से भूषित होने योग्य जिस शरीर
का में झाल्लिडुन किया फरती थी ॥ २३ ॥
क्रष्यादेस्तच्छरीरं ते नून॑ विपरिहृष्यते ।
अभिश्टेमादिभियश्ञेरिप्ठवानाप्तदृक्षिण: ॥ २४ ॥
अगिदयोत्रेण संस्कार केन त्वं तु न रूप्स्यसे |
प्रत्रज्यामुपपन्नानां त्रयाणामेकमागतस ॥| २५ ॥
उसकी मांसभत्ती गिद्ध आदि निश्चय ही नॉचते खसेदते होंगे ।
वनवास की ध्वधि समाप्त होने पर तुमकी तो पर्याप्त दक्षिणा प्रदान
पूर्वक ( प्रायश्धितात्मक ) भग्न्याधान ग्रहश करना उचित था प्रोर
जब तुर्हारी ध्रायु शेष द्योती तब उसी पश्रम््याधान के भ्रप्मि से
तुग्हारे शरीर का ध्प्निसंस्कार होना चाहिये था, परन्तु यह बीच
ही में क्या का क्या हो गया। तुम्दारें मुतशरीर का भ्पि संस्कार
क्यों नहीं दुप्रा। (गे।० ) हम तीन बनवासियों में से जब एक
( लक्मण ) लोट कर ध्योध्या में जायगा ॥ २४॥ २५ ॥
प्रिप्रक्ष्यत्ति कोसल्या लक्ष्मणं शोकछालसा |
स तस्या; परिपृच्छन्ता वर्ध मित्रवलस्य ते ॥ २६॥
परे । युद्धकायडे
ठव शेाकविहला कोशल्या लक्ष्मण से पृ छेगी। तव लक्ष्मण
उसके पु छुते पर तुम्हारा ओर तुम्हारे मित्र क्षी सैन्य के मारे जाने
का चृत्तान्त कहेंगे ॥ २६ ॥
तव चाखुयास्पते चूत निशायां राक्षसेवंधम ।
सा ता सुप्त दृत श्रत्धा मां व् रक्ताशह गताम ॥ २७।॥|
उस समय लक्ष्मण निश्चय द्वी कहेंगे कि, रात में सादे हुए
पुम रात्नसों द्वारा मार डाले गये । ठव कीाशल्या सोते में तुम्हारा
मारा ज्ञाना ओर मेरा राक्षस के घर में रुद् होना छुनेगी॥ २७॥
हृदयेनावदीणेन न भविष्यति राघव ।
मम हेतोरनायाया बनहं; पार्थिवात्यम: ॥ २८ ॥
है राघव | तब अचश्य ही उसका हृदय फल जायगा पझोर चह
मर जायगी | दे राजकुमार | पुर प्रमांगनी के कारण हुम्दारा
इस प्रकार का सोप्तिकृवध (साते में दथ) सर्वथा अयेन््य है ॥ २८॥
रामः सागरयुत्तीय सक्तवान्गोप्पदे इतः |
अइं दाशरवथेनोदा मोहात्खकुलूपांसनी ॥ २९ ॥
हा ऐसे चलवान राम, सागर तो पार कर श्याये. किन्तु गे
के खुर भर पायी में व कर मर गय्रे अरधात् खर दुूबण विशिरा
कदन्चाद उदान्त राजसा # प्ारत दाल राम हे एक ज्ठ् प्रहस्त
ते भार डाला | हा ! मुझ कुलऋलड्डिनी के साथ रामचन्द्र जी ने
विवाह कर बड़ी भूल की ॥ २६॥
आयपुत्रस्य रामस्य भाएयां झत्युरजायत ।
नूनमन्यां मया जाति वारितं 'दानमुत्तमम | ३० ॥|
१ दानमुत्तमच--कन्यादाद | ( थे।०
द्वानिशः सर्गः श्परे
प्योकि में दि राजकुमार की भार्या है कर उसकी सृत्यु का
कारण हुई। मेंने पूर्वजन्म में किसी के क्न्यादान में प्रवश्य ही
वाघा डाली होगी ॥ ३० ॥
याहमथेह शोचापि भागा 'सर्वातियेरपि ।
साधु पातय मां प्षिप्रं रामस्योपरि रावण ॥ ३१ ॥
इसीसे ते इस जन्म में सव की रतक्ता करने वाले अथवा सब
का आतिथ्य करने वाले शीरामचन्द्र की भार्या हो कर भी और
सुखभे।ग का सम्रय उपस्यित होने पर भी, मैं ऐसी दुर्दृशा में पड़ी
हुई हैं। हे रावण ! तू बड़ा प्रच्छा काम करे, ज्ञो मुस्ते भी शीघ्र
मार कर, राम के ऊपर डाल दे ॥ ३१॥
समानय पति पत्या कुरु ऋल्ल्याणमुचमम् !
शिरसा मे शिरथास्य कार्य कायेन योजय ॥ ३२ ॥
है रावण ! पति के पत्नी से मिल्ला कर यह पक वड़ी भलाई
का काम कर और राम के सिर से मेरा सिर झोर राम के शरीर से
मेरा सिर मिला दे ॥ ३२ ॥
रावणालुगमिष्यामि गति भतुमेहात्मनः ।
[ मुहृतमपि नेच्छामि जीवितुं पापजीविता ॥ ३३ ॥ ]
है राचण ! में प्रपने महात्मा पति की अन्नुभामिनी होऊँगी। में
इस प्रकार का ( पति बिना ) पापमय ज्ञीवन एक क्षण भी धारण
करना नहीं चाहती ॥ ३२३ ॥
इति सा दु।खसन्तप्ता विललापायतेक्षणा |
भर्तं) शिरों धलुस्तन्न समीक्ष्य च पुन! पुनः ॥ २४ ॥
_; पब्बोतियेरपि--सपपरक्षितुरित्यर्थ: । सर्वातिधिपूजकस्येतियाइध । ( गे ० )
श्प्ड युद्धकायडे
एवं लालप्यमानायां सीतार्या तत्र राक्ष)]।
अपिचक्राम भरतांरमनीकस्थः कइराह्ललि! ॥ श५ ॥
बड़े बड़े नेज्रवाली दुलहिया ज्ञावकी पति के करें सौस और
घनुष के चार दार देव कर चिलाप कर रही थी कि, इतसे मे
रादण की सेना का एक राक्षस धाया झौर रावत के सामने दाथ
ज्ञाड कर खड़ा दो गया ॥ ३४ ॥ ३४॥
रे विजयसखायपुत्रेति कर हक
जयखायपृत्रति सोडमिवाद्य प्रसाध च |
न्ववेदयदलुप्राप्त पहस्त॑ वाहिदीपतिम ॥ ३६ ॥
अमात्ये; सहित: सर्च: पहस्तः समुपस्थिवः ।
जप रु , & के आर
तेन दशनकामंन दच प्रस्थापितां; प्रभे ! ३७ ॥
४ आ्ायपुत्र को जय हों” कह कर उसने रावण के प्रथाम
क्षिया ओर रादण के प्रसन्न कर उससे यह समाचार दिया
कि, सच मंत्रियों सह्दित सेनापति प्रदस्त उपसख्यित हैं। है प्रसा'
आपसे मिलते को इच्छा से उन्होंने छुक्के आपके पास मेद्धा
ट्टे || 5 श्र्ड | रे
नूसमस्ति महाराज राजभावात्क्षपालितस !
किखविदालयिक का् तेषां त्व॑ दर्शन कुछ ॥ हे८॥
दे महाराज | कोइ पेसा महत्वपूर्ण ऋार्य उपस्यित है. जो डिना
आपका अन्ना नहा किया ज्ञा स्रकता, अतरव आझाए इनके दर्शन
दीजिये ॥
एहच्छुल्ा दच्षग्नीवों राप्षसमतिवेदितस ।
अशोक्षवनिक्लां लक्त्वा मन्त्रिणां दश्ञन ययौं ॥ ३९ ॥
द्वाविशः सर्गः २८
उस राक्षस के इस प्रक्नार के वचन छुन, दशानत राचण श्शाक-
वाटिका त्यांग, मंत्रियों से मिलने के लिये चल दिया ॥ ३६ ॥
स तु सब समर्थ्येव मन्त्रिमिः कृत्यमात्मनः ।
सभा भ्रविश्य विदधे विदित्वा रामविक्रमम | ४० ॥
मंत्रियों के परामर्श से सव कार्यो का निश्चय कर, वह सभा में
गया थ्रोर वहाँ श्रीरामचन्द्र जी के वल्ल विकम के भत्री भाँति
समक वृक्त कर, दसने धावश्यक्र प्रन्न्ध करवाया ॥ ४० ॥
अन्तर्पानं तु तच्छीप तब कार्म॑कमुत्तमम ।
जगाप रावणस्येव निर्याणसमनन्तरम ॥ ४१॥
ज्ञिस समय रावण पशेाकवारटिका से प्रस्थानित हुआ था; उसी
समय भीरमचन्द्र जी का कटा हुआ वह वनावटी सिर और धनुष
भी न ज्ञाने कहाँ ग़ायव दो गया था ॥ ४१ ॥
राफ्षसेन्रस्तु ते! साथ मन्त्रिभिभीमविक्रमे! ।
५
समर्थयामास तदा 'रामकायविनिश्रयम् ॥ ४२ ॥
राषण ने उन भीम पिक्रमी मंत्ियों के साथ श्रीरामचन््र जी के
सम्बन्ध में ध्यपना कर्तव्य निश्चय किया ॥ ४२ ॥
अविद्रस्थितान्सवोन्चलाध्यक्षान्दितिपिण! ।
अव्रवीकालसहशं रावणों राक्षसाधिपः ॥ ४३ ॥
फिर निकट दो खड़े हुए शपने दितेषी सेनापतियों से रात्तस-
शज्ञ रावण ने समयानुकूल वचन कहे ॥ ४३ ॥|
शीघ्र भेरीनिनादेन स्फुटकोणाहतेन मे |
समानयध्व॑ सेन्यानि वक्तव्यं च न कारणय् ॥ ४४ ॥
श्पई युद्धकायडे
तुम अति शोध्र नगाड़े एर चाव पड़वा कर मेरी सेना को बुला
ज्ञाग्नो, किन्तु उनके घुलाने का कारण मत वतलाना ॥ ४७॥
ततस्तथेति प्रतिशह्य तद्बचो
वलाधिपास्ते महदात्मनों वलसू |
समानयंश्रेव समागमं च ते
न्यवेदयन्भतरि युद्धकादिणि ॥ ४५ ||
इति द्वात्विशः सर्गः ॥
रावण की श्राज्षा मान और वहुत श्च्छा कह, वे सेनापति
अपनी महती एवं युद्धकाडनुत्तिणी सेना के लिया लाये और सेना
के घाने की छूचना अपने स्वामी--रादण के दी ॥ ४५ ॥
युद्धकायड का वचीलवाँ सर्ग पूरा हुआ |
स्का
' अयक्िशः सर्गः
“है
सीतां तु मोहितां दृष्टा सरमा नाम राक्षसी |
आससादाथ वेदेहीं प्रियां पणयिनी सखीम ॥ १॥
ओरामचन्द्र जी के विषय में सीता की विपरीत धारणा देख,
अथवा सीता को घोल्ले में पड़ो देख, सीता जी की हितैपिणी प्यारी
सरमा नाम को राक्तसी ( विभीषण की पत्नी") जानकी जी के
पास धरा कर चैठ गयी ॥ १॥
धयज्िशः सर्गः श्८9
मोहितां राक्षसेन्द्रेण सीतां परमदुःखित्ताम् |
आश्वासयामास तदा सरमा मृदुभाषिणी ॥ २ ॥
राक्तसराज रावण द्वारा सीता के छली हुई झौर उसे झत्यन्त
दुश्खी देख, मधुरभाषिणी सरमा ने सीता के धीरज वँधाया ॥ २॥
सा हि तत्र कृता मित्र सीतया रक्ष्यमाणया |
रक्षन्ती रावणादिष्टा साजुक्रोशा रढ्तता | ३ ॥
रावण ने एस सरमा के दयावती ओर द्वढ़मतिक्ष देख, सीता
की रखवालो के लिये रख दिया था! एक साथ रद्दते रहते इन
दोनों में परस्पर भेत्री हो गयी थो ॥ ३॥
सा ददश ततः सीतां सरमा नष्टचेतनाम् ।
उपाहत्योत्यितां ध्वस्तां वडवामिव पांसुलाम् ॥ ४ ॥!
सरमा ने देखा कि, सीता अत्यन्त व्याकुल हो शोर शोकाकुल
ही! भूमि पर घूल में लोटी हुई घेड़ी की तरद्द लोट रही है, उसके
समस्त झंगों में घूल लगी हुई है और वह अपने शआपेमें नहीं
है॥४॥
तां समाश्वासयामास सखीसनेहैन सुत्रता ।
समाश्वसिहि वैदेहि माभूत्ते मगसों व्यया ॥ ५ ॥
सबीस्नेद के वशवदर्ती दो पतित्रवा सरमा ने सीता जी के
धीरज वैधाया शोर फहा-वू ध्पने मन की दुखी मत कर ॥ ५ ॥
उक्ता यद्रावणेन तव॑ 'प्रत्युक्तं च स्वयं त्वया।
सखीस्नेहेन तद्भीरु मया सब प्रतिश्रुतत्् ॥ ६ ॥
१ प्रत्युक्त प्रद्मापरूप | ( गा? )
श्ेष८ ४ द्धकाणडे
हे भीर | रावण ने जो कुछ तुझ से कहा शऔर उसे छुन तूने जे।
प्र्ञाप रूप से उत्तर दिया से सब मैंने सखी भाव से छुना दे ॥६॥ .,
लीनया गगने शून्ये मयमुत्तज्य रावणात् ।
तब हेतोर्निशालाक्षि न हि मे जीवितं. प्रियम् || ७॥|
में रावण के भय से तुकका छोड़, शव तक अन्तरित्त में ( श्राड़
में ) छिपी हुई थी; किन्तु हे पिशालात्ी ! मुझे तेरे सामने अपने
प्राण भी प्रिय नहीं हैं ॥ ७॥
[ नोट--जव रावण ने सरमा को स्वयं सीता जी के निकट रखा था; तत
उसके छिपने की भावश्यकता ही फ्या थी? भावश्यकता यद्द थीं कि सरभा
पतिवता थी--भ्षतः वह अपने जे5 के सामने नहों भा सक्ष्ती थी | ]
स सम्प्रान्तश्न निष्क्रान्तों यत्कृते राफ़साधिप) ।
तच्च मे विदितं सवेमभिनिष्क्रम्य मेथिलि ॥ ८ ॥
दे मेथित्नी ! राक्तसराज राषण जिस कारण घवड़ा कर यहां से
गया था-वह समस्त कारण में वाहिर जा कर ज्ञान झायी हूँ॥ या
न शकय सौप्तिक॑ कु रामस्य विदितात्मनः ।
वधश्र पुरुषव्याप्रे तस्मिचरेवोपपच्चते ॥ ९ ॥
उन प्रात्मक्ष भोरामचन्द्र जी का घध सेहे में कोई नहीं कर
सकता। वह पुरुपव्यात्र किसी प्रकार मारा ही नहीं ज्ञा सकता ॥६॥
न त्वेव वानरा हन्तुं शक्या। पादपयोधिन!
सुरा देवषभेणेव रामेण हि सुरक्षिता) || १० ॥
जिस प्रकार नारायण द्वारा सुरक्तिव देवताओं के केई नहीं
मार सकता, उसी प्रक्नार श्रीरामच॑ंन्द्र हारा रक्तित ओर त्ुत्तों से
लड़ने वाले वानरों के भी कोई मार नहीं सकता ॥ १० ॥
प्रयद्धिणः सर्म श्ष३
दीषहत्तभुणः श्रीमान्महोरस्कः प्रतापवान् ।
धन््वी 'संहननोपेतों ध्मोत्मा झुचि पिश्रुत/ ॥ ११ ॥
धोरामचन्द जी की वड़ी बड़ी और गेल गराज्न भुजाएँ हैं, वे
कान्तिमाद हैं, उनकी छाती चौड़ी है, थे बड़े तेजस्वी है, वे धतुष
चलाने में बड़े नियुण हैं हे शोर सुन्दर शारीरिक्न प्रवयवों से सम्पक्ष
हैं। दे बड़े धर्मात्मा हैं श्रौर पृथियोतल पर प्रसिद्ध हैं॥ ११॥
विक्रान्तो रक्षिता नित्यमात्मनश्व परस्य च |
लक्ष्मणेन सह श्रात्रा कुशछी नयशाद्रवित् ॥ १२॥
वे बड़े विक्रमी हैं भर श्रपनी तथा दूसरों की सदा रक्ता करने
वाले हैं। पे नोतिशाख्त्र के क्ञाता हें और पध्पने भाई लक््मण सहित
युद्धकल्ा में बड़े निपुण हैं ॥ १२ ॥
ह्न्ता परवलीधानामचिन्त्यवलपीरुपः ।
ने हतो राघवः श्रीमान्सीते शत्रुनिवरेण। ॥ १३ ॥
वे शब्रुसैन्य के मारने पाले हैं । उनका वल तथा पोरुप प्रचित्य
है। है सोते | शब्र॒हन्ता श्रीमान् रामचदन्ध जी मारे नहीं गये ॥ १३ ॥ ,
२अंगुक्ततुद्धिकृत्येन सवंभूतविरोधिना ।
इयं प्रयुक्ता रोद्रेण माया मायाविदा तगि ॥ १४ ॥
रावण की घुद्धि ओर उसके कृत्य, दोनों ही ठीक नहीं हैं; बह
पराणीमात्र का विरोधी है। से उस क्रूर खभाव रावण ने तु्े छुला
था॥ १४॥
१ संइननोपेतः--प्ोभनावयवसंस्थानः । ( गे।० ) भरयुक्तुदि।--
भनुचिता हुद्धिः कं 'व यत्य | ( रा० )
दा० रा० यु०--र६
२६० युद्धकाणडे
शोकस्ते विगतः सबेः कस्याणं ल्वासुपस्थितम् ।
ध्रुव त्वां मजते लक्ष्मी: प्रियं प्रीतिकर शरण ॥ १५॥
दे सीते | तेरा शोक नए हुआ | अव ते हफे का समय डपत्यित
हुआ है। श्रव अवश्य दी विजयलक्मी तुझे प्राप्त होगी । तू
प्रीतिकर प्रियववचन के झव उन ॥ १४ ॥
उत्तीय सागर राम! सह वानरसेनया ।
सन्निविष्ठ; समुद्रस्य तीरमासाथ दक्षिणम् || १६ |
चानसे सेना सहित श्रीराभचन्द्र जी समुद्र के पार कर, समुद्र
के दक्षिण तठ पर उहरे हुए हैं ॥ १६ ॥
हो मे परिपूर्णाय! काकुत्स्यः सहरूए्मणः ।
स॒ हि.तेः सागरान्तस्थवलेस्तिष्ठति रक्षितः ॥ १७॥
मेंने स्वयं देखा हे कि, परिपूर्ण मनारथ श्रीरामचन्द्र जी लक्ष्मण
सहित सपुद्गतद पर ठहरे हुए हैं ओर उनकी सेना उन्हें घेरे हुए
उनको रक्ता कर रही है ॥ १७॥
अनेन प्रेषिता ये च राक्षसा लघुविक्रमा) ।
घवस्तीण तेरि
रा इत्येव प्रहत्तिस्तेरिहाहता ॥ १८ ॥
रावण ने जिन फुर्ताले जादूसों के! उनका भेद क्ेने के लिये
भैजा था, उन्होंने लोट कर पएतावन्मात्र कहा कि, श्रीरामचन्द्र सप्ुद्र
के इस पार था गये हैं ॥ १८॥
सतां श्रुत्रा विशालाक्षि प्रदधत्ति राक्लाधिपः |
एप मन्त्रयते सर्वे: सचिवे! सह रावणः ॥ १९ ॥
.. श्रयल्लिंशः सर्गः २६१
के हे विशात्ञात्ती | यद समाचार पा कर, श्यव रावण छपने सत्र
मंत्रियों से परामशे कर रहा है ॥ १६ ॥
इति ब्रवाणा सरमा राक्षती सीतया सह ।
सर्वोचोगेन सैन्यानां शब्द झुआाव भैरवस् ॥| २० ॥
सरमा जानकी से यह सब कह ही रही थी कि, इतने में सेना
की तैयारी का वड़ा भारी केल्लादइल सुन पड़ा ॥ २० ॥
दण्डनिर्धातवादिन्याः भ्रुल्रा भेया महाखनम् |
, उवाच सरमा सीतामिदं मधुरभाषिणी ॥ २१ ॥
नगाड़ों पर चाब के पड़ने शोर रणसिंदों के वजने का घेर शब्द
सुन, मधुरमापिणी सरमा सीता से यह वोली ॥ २१ ॥
सन्नाहंजननी होषा भेरवा भीरु भेरिका |
भेरीनादं च गम्भीरं श्रणु तोयदनि!ःखनम् ॥ २२ ॥
है भीर | खुन, युद्ध के लिये उत्साहित करने के, यह नयाड़े
( मारू वाज़े ) का भयडुर शब्द हो रहा है, जे! ठीक मेघगर्जन के
तुल्य है ॥ २२ ॥
कर्प्यन्ते मत्तमातद्भर युज्यन्ते रथवाजिन! ।
हृष्यन्ते तुरगारूढाः प्रासहस्ताः सहस्नश। ॥ २३ ॥|
लड़ाई के लिये मतवाल्ले द्ाथी तैयार किये जा रहे हैं, रथों में
घेड़े जाते जा रहे हैं ओर हाथों में भाले लिये हुए, हज़ारों घुड़-
सवार हर्षनाद कर रहे हैं ॥ २३॥
तत्न तत्र च सन्नद्धा। शसम्पतन्ति पदातयः ।
(0 सेन्येरज्र
आपूर्यन्ते राजमागाः सैन्येरद्रुतदशने! ॥ २४ ॥
१ सम्पतन्ति--सद्बीभमवन्ति | ( गो )
, शहर युद्धकाणडे
जहाँ तहाँ पेदल सिपाही जिरहनखरों के पहिन कर इकट्ठे हो
रहे हैं | उन ध्ट्भुत लूरत शकल वाले सैनिकों से राजमार्ग, खचा-
खच चैेसे ही भरे हुए हैं; ॥ २४ ॥
वेगवद्धिनेदद्धिथ तेयोधेरिव सागर: ।
बस्ताणां च पसन्नानां चमणां वर्मणां तथा ॥ २५ ॥
जैंसे कलकतल करती हुई शोर बड़े वेग से बहती हुई जल की
धार से समुद्र भर जाता है | देखा चमचमाते शत्र शत्हों, कबचों
तथा ढालों से ॥ २५ ॥
रथवाजिगजानां च भूपितानां च रक्षसामर् |
प्रभां विऱजतां पश्य नानावर्णों समुत्यिताम् ॥ २६ ॥
तथा रथों, घाड़ों, हाथियों और रावण के छुसज्ित राज्षस
येद्धाओों की सजावठ से, रंग बिरंगी उ्मक या प्रभा बेसी ही
निकल रहो है, ॥ २६ ॥
बन निदंहते घर्में यथा रूप विभावसे। ।
घण्टानां श्रूणु निर्धोष॑ रथानां शृणु निःखनस् ॥ २७॥
जैसी श्रीष्पकाल में वन जल्नाने वाल्ते श्रम्नि की रंग विरंगी
चमक या प्रभा निकलती है। घंटों के वज्ञने का शब्द और रथों के
चल्नने को घरघराहटठ ते सुन | २७॥
हयानां हेषमाणानां श्रृणु तृयध्वरनिं तथा ।
उद्यतायुधहस्तानां राक्षसेन्द्रानुयायिनाम् | २८ ॥
० कल+ नकल लनपनने “न _य-+ सन >कपनन मनन न > 5 ++-++ब पल -+ नम >> ८८52
१ प्रसन्नानां--निर्मलानाँ | / गा० )
प्रयख्रिशः सगे २६३
घाड़ों क्री हिनहिनाहट और तुरही के वजञने का शब्द ते जरा
छुन | झायुश्रों को ऊपर उठाये हुए रावण के सैनिक ॥ २८ ॥
संश्रमो रक्षसामेष तुमुझो रोमहपंणः ।
श्रीसल्ां भजति श्योकप्नी रक्षसां मयमागतस ॥ २९ ॥
राम! कमलपत्राक्षोष्दैत्यानामिव वासवः |
विनिर्जित्य जितक्रोधस्त्वामचिन्त्यपराक्रम! || ३० ॥
रावणं समरे हत्वा भतां ल्वाधिगमिष्यति ।
विक्रमिष्यति रक्ष/सु थर्ता ते सहलक्ष्मण: ॥ ३१॥
शत्तसों का जो घबड़ाये हुए हैं यद तुपुल एवं रोमाश्रकारी
रव ( शोर ) है। है देचि ! तुकके थ्रव शाक्त नाश करने काली
विज्यश्री प्राप्त होने चाली है। कमलनयन भीरामचन्द्र से रात्तस
उसी प्रकार डर रहे हैं; जिस प्रकार इन्द्र से देत्य डरते हैं। जितक्रोध
और ध्थाद्द पराक्रमी तेरे पति श्रीरामचन्दधर जो, युद्ध में रावण
के मार कर, तुझका श्राप्त परेंगे । तेरे पति श्रीरमचन्द्र जी
अपने छोटे भाई लक्ष्मण सहित रात्तसों पर वैसे ही विक्रम प्रकट
' करेंगे ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥
यथा शन्रुषु शत्रुध्नो विष्णुना सह वासवः |
आगतस्य हि रामस्य प्षिप्रमछगतां सतीयम ॥ २२॥
अहं द्रक्ष्यामि सिद्धार्थी त्वां शत्रों विनिपातिते |
अश्रण्यानन्दजानि त्वं वतयिष्यसि शोभने ॥ ३१३ ॥
जैसे शन्र॒हन्ता इन्द्र ने भगवान विभा की सहायता प्राप्त कर,
अपने श्र देत्यों पर प्रकट किया था | जब शत्र का नाश हो ज्ञायगा
२६४ सुद्धकायडे
तव तेरा मनेारथ भी पूर होगा और में तुझ पतित्रता को
यहाँ झाये हुए श्रीरामचन्द्र जी की गोद में शीघ्र ही वेठों हुई
देख गी । हे शोसने | उस समय तेरे नेन्न आनन्दाध््ों से शामित
होंगे ॥ ३२॥ २३२३ ॥
समागम्य परिष्वज्य तस्योरसि महोरस। ।
अचिरान्पोक्ष्यते सीते देवि ते जघनं गताम् ॥| २४ ॥
धतामेतां वहूपासान्वेणी रामों महाबरू३ ।
तस्य दृष्ठा झुखं देवि पूर्णचन्द्रमिवोदितस || २५ ॥
तू मिल कर चोड़ी छाती घाले श्रीशमचन्द्र जी की छाती से
लिपरेगी | हे सीते | दीघकाल से सम्दात्ने न जाने के फारण
तेरे वालों के उललके हुए जूड़े के महावली श्रीरामचन्द्र जी अति
शीघ्र अपने हाथों से सुल्काेंगे। दे देवि ! डद्ति हुए पूर्णमासी
के चन्द्रमा की तरह उनके मुखमण्डल के देख, ॥ २४ ॥ ३५ ॥
मोक्ष्यसे शोक वारि निर्मोकम्रिव पन्नगी |
रावणं समरे इत्ता न चिरादेव मेथिलि ।
त्वया समग्र; प्रियया सुखाहों लप्स्यते छुखम्॥ ३६॥!
तू शाकाश्र बहाना वैसे ही छोड़ देगी, जेसे नागिन केचुली
छोड़ देती है। हे मेथिली ! समर में राचण का मार कर, सदा छुछी
रहने याष्य श्रीरामचन्द्र जी शीघ्र ही तुकको प्राप्त कर, सुखी
होंगे ॥ ३६ ॥
समागता त्व॑ वीयेंण मोदिष्यसि महात्मना ।
सुरर्षण समायुक्ता यथा सस्येन मेदिनी ॥ ३७ ॥
चतुख्रिशः सर्गः २६५
जिस प्रकार सुवृष्टि से धान्ययुक्त एथियी की शेसा होती है,
उसी प्रकार भीरामचन्द्र जी से समागम होने पर तू उनके प्रेम
ध्यवद्ार से हर्षित होगी ॥ ३७ ॥
गिरिवरमभितेज्तुवतमानो
हय इव मण्डलमाशु यः करोति | '
तम्रिह शरणमस्युपेहि देवं॑
दिवसकरं प्रभवो धय॑ं प्रजानाम् || ३८ ॥
इति त्रयश्िणः सर्गः ॥
दे सीते | जे पर्वतश्रेष्ठ खुमेद के चारों शोर घेड़े फी तरद्द
शीघ्र शीघ्र मगह॒लाकार घूमा करते हैं, तू प्मव उन्हीं देव, तियंक् ,
मनुष्य तथा स्थावर जड़मादि की उत्पत्ति के कारणभूत पव्निकर
सर्यभगवान् की शरणागति कर प्रर्थात् उनसे प्रार्थना कर ॥ रे८ ॥
थुद्धकागढ का लेंतीसवाँ सर्म पूरा हुआ |
व
' चतुखिशः सगे:
3६
अथ ता जातसन्तापां तेन वाक्येन मोहितास ।
सरमा हादयामास पृथिवीं चोरिवाम्भसा ॥ १ ॥
प्रीप्मआ्तु के ताप से तप्त. पृथिवी, ज्ञिस प्रकार वर्षा के जल
से शान्त होती है; उसी प्रकार रावण के वचनों से सन्तप्त सौता
के मन के सरमा ने इन मधुर चचनों से हर्षित ( शान्त ) कर _
देया। ६ ॥
न् शत
2
$7)%
।७० न]
चुद्धकागुड
हित सख्याश्चिकीपन्ती न '
ततस्तस्या दितँ सख्याश्चिकीपेन्ती सखोचचः |
कक स्मितपृववाि 9 प्रापिणी
उवाच काले कालज्ञ आपषिणी ॥ २॥ .
तदनन्तर समय का पहचानने चाली सरमा ने शअपनी प्यारी ,
सखी जानकी की दितकामना से मुसक्ष्या कर, उस समय के अलु-
रूप वचन ऊंहे ॥ २ ॥
उत्सहेयमद्द गला त्वद्वाक्यमसितेश्षणे ।
निवेध कुशर्क रामे प्रतिच्छन्ना निवर्तितुस || हे ॥
हैं सित लोचने ! भें चाहती हैँ कि, में छिप कर ओीरामचन्द
के पास जाऊँ और तम्हारा कुशल चल्ेम उनसे कहूँ ओर उनका
कुशल पृ कु ऋर यहाँ चली आऊं॥ २ ॥
न हिं मे क्रमाणाया निरालम्ब विद्ययस्ि |
समयथों गतिमन्वेतुं पदनों गरुडोंडपि दा ॥ ४ ॥
मेरे निराचलस्व धाकाणशमार्ग से चलने पर, पट या वादु
में मी ऐसी सामथ्ये नहीं, जे मुफ्के पकड़ लेया मेरा पीछा कर
सके ॥ ४ ॥
एवं त्रवाणां तां सीता सरमां पुनरत्रवीद |
मधुर छष्षणया वाचा पूर्व शशोकामिपन्नया ॥ ५ ॥
इस धकार कहती हुई सरमा से सीता ज्ञी ने अब प्रसन्न दे
छक्ामल वाणी से फिर ऋद्दा--) ४ ॥
समया गयन॑ गन्तुमपि वा त्व॑ रसातरूम |
अवसच्छास्यकतेन्यं ऋतंच्यं ते मदन्तरे || 5 ॥|
१ झोकामिपच्चया लब्भति हष्ट्येश्रर्थ: | ( शा० )
चत॒लिशः सगेः २६७
है प्यारी | यह में जानती हैं कि, प्राकाश ही नहीं; किन्तु तू
रखातल में भी वड़ी भासानी से ज्ञा सकती है और ऐसा कोई
कार्य भो नहों, ज्ञो तू मेरे लिये न कर सके ॥ ६ ॥
मत्पियं यदि कर्तज्यं यदि बुद्धि! स्थिरा तब ।
जशञातुमिच्छामि त॑ गत्वा हि करोतीति रावण; || ७॥
के किन्तु; यदि तू भेरा फेाई काम करना ही चाहती है श्र यदि
तेरी दुद्धि स्थिर है; तो तू जा कर यह पता लगा ला कि, इस समय
रावण क्या कर रहा है ? क्योंकि इस समय गेरी इच्छा यही जानने
की है ॥ ७॥
स॒ हि मायावलः ऋरो रावण शत्रुरावण; ।
मां मेहयति दुष्टात्मा 'पीतमात्रेव वारुणी ॥ ८ ॥
शत्रुओं के रुलाने घाला रावण निष्ठुर है श्रोर माया का बड़ा
वल रखता है! वह इए सद्य पीता वारुणी की तरह मुक्तका पेसुध
]
ध्ज्न
किया करता हल ]5॥
तर्जापयति मां नित्य भत्सापयति चासकृत् ।
राक्षसीमिः सुघोराभियों मां रक्षन्ति नित्यशः ॥ ९ ॥
चह इन भयदूर राक्षसियों द्वारा मुझे नित्य ही धार वार
धमकाया करता है श्र मेरी विदत कराया करता है। इन्हों
. जअन्लमुद्दो रात्तसियों के उसने मेरी रक्ता के लिये भी नियत कर
रखा है ॥ ६ ॥|
उद्ठिय्ा शह्लिता चास्मि न स्वस्थ च मनो मम |
तद्घयात्ाहमु॒द्धिमा अशोकवनिकां गता ॥ १० ॥__.
) पीतमान्ना--सद्यापीता | ( गे? /
श्ध्८ युद्धकायडे
इसीसे में सदा उछ्धिम्त ओर सशइ्वित रहा करती हूँ। में रावण
के भय ही से अशेाकवन में रहती हूँ, किन्तु एक घड़ी भर के
लिये भी मेरे मन की विकलता दूर नहीं द्वती ॥ १० ॥
यदि नाम कथा तस्या निश्चितं वाउपि यद्भवेत् ।
निवेदयेथाः सवे तत्परो मे स्थादलुग्रह। ॥ ११ ॥
रावण की सभा भें भेरे छोड़ देने के सम्बन्ध में अथवा अन्य
केई परामश द्वो; उसे यदि तू मुझे वतला द्वे तो में अपने ऊपर
तेरी बड़ी दया समझ ॥ ११॥
सा स्वेदं त्र॒वर्ती सीतां सरमा वल्गुभाषिणी ।
उदाच बदन तस्या; 'स्पृशन्ती वाप्पविकृ्ृदस | १२ ॥
खउद्वचन बोलने वाली सरमा ने सीता के ऐसे वचन झुन
कर, अपने आँचल से सीता का अ्राँछयुक्त मुखमगडल पोंछ कर
कहा ॥ १२॥
एप ते यद्यभिप्रायस्तदा गच्छामि जानकि ।
गृह् शत्रोरभिप्रायमुपाहत्तां च पश्य मास ॥ १३ ॥
हे जानकी ! यदि तेरी यही इच्छा हे, तो ले में यह चली शोर
तू देख में अभी तेरे शत्र रावण का सव हाल जान कर यहाँ लोढ
धातोी हैँ॥ १३॥
एवमुक््त्वा ततो गत्वा सम्रीप॑ तस्य रक्षस। ।
शुआ्राव कथितं तस्य रावणस्य समन्त्रिण; ॥ १४ ॥
इस प्रकार कह सरमा रावण के यहाँ गयी ओर मंत्रियों.के साथ
रावण की जा सलाह हे! रही थी, वह समस्त उसने सुनी ॥ १७॥
१ ह्पृशन्ती-परिस्ठुजन्तो | ( गे।० ) हु
चतुर्खिशः सर्गः २१६६
सा भ्रुत्वा निश्चर्य तस्य निश्चयज्ञा दुरात्मनः ।
पुनरेवागमत्क्रिप्रमशोकवनिकां तदा ॥ १५ ॥
तदनन्तर सरमा निश्चय रूप से दुरात्ा रावण का भेद ज्ञान
शीघ्र दी प्रशोकवादिका में लोड आयी ॥ १४५ ॥
सा प्रविष्ट पुनस््तत्र ददर्श जनकात्मजाम् |
प्रतीक्षमाणां स्वाम्ेव 'भ्रष्टपद्मामिव श्रियम्् ॥ १९ ॥
घोर अशोकचाटिक! में थ्रा चह फिर आनकी जी से मिली ।
सरमा ने जानकी के उस समय ध्यपनी प्रतीक्षा में वैसे दी बैठे हुए
देखा ; मानों पद्मासनहीन लक्ष्मी बैठो हो॥ १६ ॥
तां तु सीता पुनः प्राप्तां सरमां वलणुभाषिणीश ।
परिष्वज्य च सुस्निग्ध ददों च स्ववमासनम् ॥ १७ ॥
... मधुससाविणो सरपा के पुनः आते देख, सीता उससे उठ कर
खय॑ धेंदीं ओर बैठने के लिये उसे ध्रासन दिया ॥ १७ ॥
इद्सीना सुख सर्वमाख्याहि मम ततक्ततः ।
क्ररस्य निएचर्य तस्य रावणस्य दुरात्मन; ॥ १८ ॥
फिर बोलीं, छुख से यहाँ वैठो ओर उस नृशंस दुरात्मा रावण ने
जे। कुछ निश्चय किया हो, चह मुझसे सब ठीक ढीक कहे ॥ १८॥
एबसुक्ता तु सरमा सीतया वेषमानया ।
कथित सबंमाचछ रावणरुय समन्त्रिण/ ॥ १९ ॥
जब थरथधर काँपती हुई सीता ने सरमा से इस प्रकार फट्दा,
तब सरमा ने वे खब बातें फहीं, जे! मंत्रियों के साथ रावण ने
परामर्श कर निश्चि की थी ॥ १६॥ 7०7 निश्चित की थीं ॥ १६ ॥
३ अऋष्टपक्मा--पश्मासनद्वीनामित्थे: । ( गो )
"3०० युद्धकाणडे
जनन्या राक्षसेन्रो वे लन्पोक्षा् वुह्गचा ।
अविद्धेन च वेदेहि मन्त्रिदद्धेन बोधितः ॥ २० ॥
उसने कहा--है बेदेंदी ! बूढ़े मंत्री के द्वारा, रावण की माता
कैकसी ने रावण के अनेक प्रकार से हितकारो बातें समझायी ॥२०।
दीयतवाममिसत्कृत्य महुजेन्द्राय भेथिली ।
निदशन ते पर्याप्त जनस्थाने यदद्भुतम् ॥ २१ ॥
उसने कहलाया कि, मनुजेन्ध श्रीरामंत्रन्ध के सत्कारपृवक
सीता लोटडा दो. क्योंकि जनस्थान में श्रीरामचन्द्र जी द्वारा जो
विश्मयात्पादक कार्य दुष्पा है बह उसके पराक्रमी होने का पर्याप्त
अमूना है ॥ २१ ॥
लद्ठनं च समुद्रस्य दशेन च हनूपतः ।
व्ध च रक्षसाँ युद्धे क! कुयोन्मानुपों झुबि | २२॥
फ़िर हनुमान ज्ञो का समुद्र फाँद कर लड्भा में आ कर सीता की
देखना, तथा युद्ध म॑ राक्तसों का वध करना, भला कहो तो सही,
क्या इस पृथिती तल पर झोर भी कोई मनुष्य ऐसे काम कर
सकता है? ॥ २२॥
एवं स अभमन्त्रिदृद्धेन मात्रा च वह भाषित)
न त्वामुत्तहते मोक्तमर्थमर्थपरों यथा ॥। २३ |
इस प्रकार उसके बूढ़े मंत्री तथा उसकी माता ने उसे बहुत
समझाया ; परन्तु चह तुम्हें बेसे ही छोड़ना नहीं चाहता जेसे धन
का लेभी घन के ॥ २३ ॥
# पाठान्तरै--“ सन्त्रिवदेश्वाबिद्वेन ।!
चतुस्तिशः सर्ग ३०१
नोत्सहत्यमृता मोक्त॑ युद्धे लामिति मथिलि ।
सामालस्य इशंसस्य निशचयो होप वतते || २४ ॥
हे देवि ! युद्ध में मरे बिना वह तुमे न छीड़ेगा। उस नृशंसः
का तथा उसके मंत्रियों का शही निश्चय है ॥ २७ ॥
तदेपा. निश्चिता बुद्धिमृत्युलोभादुपस्थिता ।
भयान्न शक्तस्त्वां मोक्तमनिरस्तस्तु संयुग ॥ २५॥
है देधि |! उसके सिर पर काल खेल रहा है, श्रतः उसने ऐसा'
निश्चय कर रखा हैँ । जब तक धद्द युद्ध में मारा न जञायगा, तव तक
तुम उसके पंजे से नहीं छूट पावागी डर कर ते वह कभो तुमकीा
न छेड़ेगा ॥ २५ ॥
राक्षसानां च सर्वेपामात्मनश्च वर्धेन हि ।
निहत्य रावणं संख्ये सरवंथा निशितेः धरे! |
प्रतिनेष्यति रामस्त्वामयोध्यामसितेक्षणे ॥ २६ ॥
है श्यामनेन्नवाली ! रावण ने प्रपमें तथा अन्य समस्त राक्तसों
के वध के निमित्त ही ऐसा निश्चय किया है। भीरामचन्द्र जी
युद्ध में झ्पने पैने वांणों से रावण फा मार; तुम्दें अपनी राजधानी
घयोाध्या में ले जाँयगे ॥ २६ ॥
एतस्सिनन्तरे शब्दों भेरीशइसमाकुलः
श्रते! वानरसन्यानां कम्पयन्धरणीवछम् [| २७ ॥
सरमा यह कद दी रही थी कि, इतने में घानरी सेनाओं का
थ्रोर तुरही का मिला हुश्श शब्द, पृथिवी के कंपायम्रान
करता हुआ, खुनाई पड़ा ॥ २७॥
[ नोट--फिण्कित्धाकाण्ड में वणन किया जा चुका
भी हुरद्दी और शहु थे । ।
है कि, चानरी सेना में ह
३०२ युद्धकायडे
श्रुत्वा तु तद्घानरसैन्यशब्दं
लड्भागता राक्षसराजम्रृत्या; |
नछ्ठोजसा देन्यपरीतचेष्ठा!
है किक ७. करे
श्रेयो न पश्यन्ति वृपस्य दोष; ॥ २८ ॥
इति चतुस्ल्रिशः सगः ॥
वानरी सेवा का चह रशारम्मघूचक शब्द जुन. लडडुगवासी
शवण के भृत्य रात्तस लोग श्त्यन्त हीनपुरुषार्थ ओर दीन हो गये ।
उसके रावण की बुद्धि के दोष से श्रपनों भलाई न देख पड़ी ॥ २८॥
युद्धकाएड का चौोंतीसवाँ सर्य पूरा हुआ |
“+--४६----
(६ 0
पश्चेत्रद: संग;
रूत-क-+ ७ भी
तेन शब्डुविमिश्रेण भेरी झब्देन राघव; ।
उपयाति महादाहू राम; परपुरक्षय! ॥| १॥ |
शत्रु के पुर के जीतने वाले महाआइ श्रोरामचन्द्र जी शड्भ और
तठुरही बञ॒वात हुए लड्भा पर चढ़ाई करने के तैयार हुए ॥ १॥
तं॑ निनाद निशम्याथ रावणो राक्षसेश्वरः !
एे के
मुह्त ध्यानमास्थाय सचिवानश्युदेक्षत || २ ॥
रात्तसराज रावण ने उस घार शब्द के खुना ओर कुछ देर
तक कुछ विचार कर, वह मंत्यों के मुल्लों के निहारने लगा ॥ २॥
अथ तान्सचिवांस्तत्र सर्वानाभाष्य रावणः |
सभां सन्नादयन्सवामित्युवाच महावरू। ॥ ३े ॥
' पश्चत्रिशः स्गः ३०३
महावल्नवान रावण प्पने समस्त मंत्रियों को सस्वोधन कर
और समाभवन के गुंजाता हुआ कहने लगा ॥ ३॥
जगत्सन्तापनः करो गहेयनराक्षसेश्वर! ।
तरणं सागरस्यापि विक्रमं वलसश्रयम्र ॥ ४ ॥
यदुक्तवन्तों रामस्य भवन्तस्तन्मया श्रुतम्
भवतश्चाप्यहं वेधि युद्धे सत्यपराक्रमान ॥ ५ ॥
तृष्णीकानीक्षतो5न्योन्यं विद्त्वा रामविक्रमम् ।
- ततस्तु सुमहामाजों माल्यवान्नाम राक्षस! ॥ ६ ॥
संसार भर के! सनन््तापित करते वाला नृशंस राज्षसराज रावण
श्रीयमचन्द्र जी की निन्दा फरता हुआ बोला--अआप लोगों ने राम
के पार उतरने, उनके पराक्रम तथा उनके सैन्यसंग्रह के सम्बन्ध
में जे कुछ कदा, वह सब्र मैंने छुना | में यह भी जानता हूँ कि,
आप लोग युद्ध में सत्यपराक्रमी हैं; पर झाश्चर्य है कि, इस समय
घाप लोग रामचन्द्र को महापराक्ममी समझ, छुपचाए झापस में
एक दूसरे का मुख निद्दार रहे हैं। वहाँ पर उस समय एक बड़ा
: भारी पणिडत माल्यवान नामक राक्षस था ॥ ७॥ * ॥ $ ॥
रावणस्य बचः श्रुत्वा इति मातामहो>्वीत् |
विधाखभिविनीतो' ये राजा राजन्नयानुग: ॥ ७॥
स शास्ति चिरमैश्वयमरींश्र कुरुते वश्े ।
* सन्दधानों हि काठैन विग्ृह्व॑ंश्वारिमिः सह ॥ < ॥
१ असिविनीत:--अभितः शिक्षितः | (गा ) २ नयातुग४--नीतिशाला-
चुप्तारी | ( गेा० )
३०७ युद्धकाणडे
सपक्षवधन कुवेन्महदेश्वयेमश्मुते ।
हीयमानेन कततेव्यो राज्ञां सन्धि। समेन च ॥ ९ ॥
वह रावण का नाना था--से वह्द राचण के इन बचनों के
सुन बोला--दे राजन ! जे। राजा शिक्षित हो, नीति शाख्राज्लसार
काय करता है; वह बहुव दिनों तक प्रजा पर शासन करता हुआ
ऐश्वर्य भोगता है, तथा अपने शत्रश्नों के अपने चश में करता है।
, ऐसा राजा सब बातों का अनुसन्धान करता है ओर अवसर पाकर
शत्र से लड़ता है। जे। राजा समय के अनुसार शत्र के साथ सन्धि
आर विश्रदद फरके अपने पक्त को दृढ़ करता है, वही बड़े भारी
ऐ/्वय को प्राप्त करता है। राजा का उचित है कि, ज्ञव वह अपने
के शत्रु से दवीनवल या समानबल जाने; तब शन्नु से मेल कर
क्षे॥७9॥5५॥ ६ ॥
न शत्रुमवमन्येत ज्यायान्कुरवीत विग्रहस् |
तन्महं॑ रोचते सन्धि; सह रामेण रावण ॥| १०॥
है रांचण ! शन्र केसा भी हो, उसे तुच्छ कभी न मानना चाहिये।
यदि स्वयं शत्रु से बलवान हो ते शत् से युद्ध करे। इस समय
( इस सिद्धान्तानुसार ) मुस्ते तो यही धब्छा जान पड़ता है कि,
शाम के साथ तुम सन्धि ( मेल ) कर लो ॥ १० ॥
यदर्थमभियुक्ताः स्म॒ सीता तस्मे प्रदीयताम् ।
यस्य देवषयः सर्वे गन्धर्वाश् जग्रेषिणः || ११ ॥
. जिस सोता के लिये राम ने लड़य पर चढ़ाई की है, उस सीता
के तुम उन्हें लोदा दे! । देखों, क्या देवता, क्या ऋषि और क्या
गन्धवं सब ही उनकी जीत चाहते हैं ॥ ११ ॥
पश्चत्निणः सग; ३०४
विरोध भा गमसतेन सन्धरिस्ते तेन रोचताम ।
अखजद्भगवान्पक्षो द्वावेव हि पितामह) ॥१२॥
अतः मुझे तो यही श्रच्छा लगता है कि, तुम्त उनसे युद्ध न
कर के उनके साथ मेल कर के । हे रातसराज | ब्रह्मा ने दो पत्त
वनाये हैं॥ १२ ॥
सुराणामसुराणां च धर्माथरमा तदाश्रयों |
धर्मो हि भ्रूयते पश्नों हयमराणां महात्मनाम् ॥ १३॥
भ्र्थात् देवता भ्रोर घछुर। फरमानुसार धर्म शोर धर्म इन
दोनों के आश्रय-पूत-पत्त हैं। खुना जाता है, महात्मा देवताओं का'
धर्म का पत्त है॥ १६ ॥
अधर्मो रक्षसां पक्षा हथसुराणां च रावण |
: धर्मो वे ग्रसतेड्धम ततः कृतमभूयुगम् ॥ १४ ॥
है रावण ! इसी प्रहार धझुरों ओर रातों का शर्म का पक्त
है। जव घर्म, अधर्म का असता है, तव सत्ययुग होता है प्रथवा
सथ्युग में ध्रधर्म का धर्म श्रस क्षेता है ॥ १४ ॥
अधर्मों ग्रसते धर्म ततस्तिष्यः प्रवर्तेते ।
तत्त्वया चरता लोकान्धर्मों विनिहते। महान् ॥ १५ ॥
शोर जब धर्म के अ्रधम अस लेता है, तव कलियुग प्रवृत्त
होता है। तुमने संसार में अपने आाचरणों से धर्म का बड़ा
सत्यानाश कर ॥ १४ ॥
अधम: प्रगहीतथ तेनास्परद्ठलिन! परे! ।
स प्रमादाहिहद्धस्तेड्धमोंडशिग्रसते हि न! ॥ १६ ॥
घां० रा० यु०--९०
३०६- गुद्धकायडे
अधर्म वरचेरा है, इसीसे शन्न हम लेगों से बलवान हो गये हैं।
तुम्हारे: प्रमाद से अधर्म वढ़ कर, हम त्लागों के ग्रास कर रहा
है॥ १६ ॥
विवर्धयति पश्चं च सुराणां 'सुरभावन) |
विषयेषु प्रसक्तेन यत्किच्वित्कारिणा तया ॥ १७॥
धर्म, देवताशों के अनुकूल होने के कारण उनके पत्ष के
वलवाब् कर रहा हैं । विषयासक्त हो तुमने जे कुछ किया ॥ १७॥
ऋषीणामग्रिकल्पानामुद्देयो जनिते महान |
तेपां ३३२३ (
तेषां प्रभावों दुधषः प्रद्दीध्र इद पावक! ॥ १८ ॥
उससे अप्लितुल्य ऋषि वहुत ढुःखी हुए। उन ऋषियों का
प्रभाव प्रदीध्त अग्नि के समान अत्यन्त ही द्र्ष है॥ १८॥
तपसा भावितात्मनों धमस्यानुग्रहे रता!
मुख्य यत्वेयजन्त्येते नित्य तेस्तेंद्टिनातय। | १९ ॥
क्योंकि वे लोग तप द्वारा अपने आत्मा के निर्मल कर, धर्म
फी असिवृद्धि में सदा लगे रहते हैं। वे पधान प्रधान अभिशेमादि
यज्ञों के नित्य ही किया करते हैं॥ १६॥
जुद्वत्यप्रीश विधिवद्देदांश्वाच्चेरधीयते ।
अभिभ्ूय च रक्षांसि ब्रह्मघोषानुदेरयन् ॥ २० ॥
वे विधिवत् हवन करते. शोर वेद् का पाठ किया करते हैं।
उस वेद्पाठ से रात्तसों का पराजय होता है॥ २० ॥
।उकन्न्वन««_«+»अममनपक,
१ सुरभावन:--सुराजुकूछ। । - गे )
” पश्चनिशः स्गः ३०७
दिश्योअपि विद्रुताः सवा; स्तनयिस्नुरिवेष्णगे ।
ऋषीणामग्रिकरपानामगिहेत्रसमुत्यित) | २१॥
जैसे ग्रीष्मकाल में छुपे के श्रातप से वाद इधर उधर भाग
जाते हैं, चेसे दो वेद्ध्वनि के सुन राक्षस चारों शोर भाग जाते
हैं। प्रसिसमान तेजस्वी ऋषियों के अ्रप्निहोत्र से निकलना
हुआ ॥ २१॥
आहत्य रक्षसां तेजा धृमों व्याप्य दिशों दश ।
तेष तेषु च देशेपु पुण्येप्येव हृहब्नते! | २२ ॥
(5 न तीन
चयमाणं तपसतीत्र सन््तापयति राक्षसान् |
देवदानवयक्षेभ्यो मृहीतश्च वरस्त्वया ॥ २३ ॥
धूम, दसों दिशाओं में व्याप्त हो कर राक़तसों के तेज के दवा
देता है। ये दृढब्नतधायो ऋषिगण जिन जिन पुण्यप्रद देशों में,
उम्र तप करते हैं, वह चर्हा के राक्तसों को दुःख देता है । है रावण !
ठुमने ब्रह्मा से यही बर पाया है कि, देववा, दानव और यत्त तुम्हें
न मार पावे॥ २२ ॥ २३ ॥
मालुपा बानरा ऋक्षा गोलाडगूला महावलाः |
वलवन्त इह्ागम्य गर्जन्ति दृहविक्रमा। ॥ २४ ॥
पर यहाँ तो महावत्ती मछुष्य, वानर, रीछ, गे।लाडगूल धाये
हुए हैं ओर थे बलवान ओर दृढ़पराक्रमी सिहनाद कर रहे
हैं॥ २४॥
उत्पातान्विविधान्द्टा पारान्वहुविर्धास्तथा |
विनाशमनुपश्यामि सर्वेषां रक्षसामहस ॥ २५ ॥
३०८ : ' चुद्धकायड़े
विविध प्रकार के ओर वहुत से भ्रयड्डुर उत्पातों को देख,
मुझे ते समस्त रात्तसों का नाश देख पड़ता है ॥ २४ ॥
खराभिस्तनिता घोरा मेघा। प्रतिभयझ्डरा। |
भर
शोणितेनाभिवरषन्ति लड्ढामुष्णेन सबंत! ॥ २६॥ .
' है राचण ! गधे भयहुर श्रावाजु से रेंकते हैं ओर वाद्ल
भयहुर गज़ना कर लड़ में सर्वत्र गर्मागर्म लोह वरपाते हैं ॥ २६ ॥
रुद्रतां वाहनानां च प्पतत्त्यासविन्दव: ।
ध्वजा ध्वस्ता विवर्णाश् न प्रभान्ति यथा पुरा | २७॥
सवारी के घाड़ों ओर हाथियों के रोने से उनकी श्राँखों से
आँछू पका करते हैं। धजाएँ धूलधूसरित वद्रंग हो रही हैं
ओर उनमें अ्व पहिले जैसी चमक दमक नहीं देख पड़ती ॥ २७ ॥
व्याल्य गोमायवे ग्रप्रा वाश्यन्ति च सुभेरवस् |
प्रविश्य लक्कामनिश समवायांश्र कुबेते || २८ ॥
रात के लड्ढापुरी में घुस कर गीदड़, गीध, सर्प श्रादि दल
वाँध कर, भयद्भूर चीर्कार करते हैं॥ २८॥ '
कालिकाः पाण्डुरेदन्ते; प्रहसन्त्यग्रतः स्थिता। |
स्ियः खप्नेषु मुष्णन्त्यों शृहांणि प्रतिभाष्य च ॥२९%।
सप्त में काली काली औरतें ( पृतना प्रमुख ) पीले' दाँत
चमकाती ओर हँसती हुई सामने भा खड़ी होती हैं। फिर पे
घर की चोजों के देख, उल्दी सीधी बातें करती हैं ॥ २६१ .
गृहाणां वलिकर्माणि श्वानः प्युपअुज्नते ।
खरा गोपू प्रजायस्ते मूषिका नकुझे। सह ॥ ३० ॥
पशञ्चभिणः सर्गः ४०६
धरों में ज्ञो प्रल्िकर्म होता है, उसके कुत्ते खा आते हैं।
गाँशा के साथ गधे और नेवलों के साथ सूपिका ( चुहियाँ ) देख
पडता ६॥ 3० ॥
माजारा हीपिमिः साथ सृकरा। शनके! सह |
फिनरा राक्षसश्रापि 'समोयुयानुप! सह ॥ ३१ ॥
ध्यान्नों के साथ बिलायें। का, कुत्तों के साथ खुप्रों का, गत्त्सों
थ्रोर मनुष्यों के साथ फिप्तरों का ज्ञौट़ा दिखाई दँता है॥ ३१॥
[ नेट-+अ्रथति इसे ख्ाभाविश्वन वहहवर विरोधी जीवों का एक्रन्न रहना
बमझलकारक है । )
पाण्दुरा रक्तपादाश्र बिहद्रा। कालचादिता। |
राक्षसानां विनाश्ञाय कपाता विचरन्ति च ॥ ३३२ ॥
पीके रंग के लाल परों वाले बहुत से ऋषृतर रातों के माश
फी सूचना देते हुए, मानों फालप्रेरित हो घरों में घूमते हैं ॥ ३२ ॥
वीचीकूचीति वाश्यन्त्यः शारिका वेश्मसु स्थिता। ।
पएतन्ति ग्रथिताआपि निर्मिता! कलहेपिण! ॥ ३३ ॥
घरों में पालतू मेनाएँ ग्रापस में लड़तीं ओर मोटे वेज न वाल
कर चाँचों चींनीं करती हैं श्योर अन्य पत्तियों से गुध कर एवं उनसे
द्वार कर नीचे गिर पता दें ॥ ३३ ॥ (' ४
पश्षिणश्॒ मृगाः सर्वे प्रत्यादित्यं रुदन्ति च॑ |
कराला विकटे मुण्ठ! परुष! क्ृप्णपिद्रल! ॥। ३४ ॥
काला ग्ह्मणि सर्वेपां काले कालेब्लवेक्षते |
एतान्यन्यानि दृष्टानि निमित्तान्युत्ततरिति च ॥ ३५ ॥
9 सम्ीयुः--मिधुनोंमार्व प्राएुए । (क्षि० )
३६० युद्धकायडे
पशु पत्ती सूर्य की शोर मुँह करके रोते हैं। भयद्भर विक्रराल
रुपधारो, सिर मुंडाये, काने पीके रंग का कालपुरुष, हम सब
ल्लोगों के घरों को ओर छुवद शाम, ताकता हुआ सा देख पड़ता है।
हे राजन | ये तथा इसी प्रकार के ओर भी अनेक घुरे शकुन
दिखिलाई पड़ते हैं॥ ३०॥ २५ ॥ |
[ विष्णु मन्यामहे देव माजु्प देहमास्थितस् |
न हिं मानुपमात्रोध्सो राघवे| दृढविक्रमः ।
येन वद्ध! समुद्रस्य स सेतु! परमादश्ुत+ ॥ ३६ ॥
छुम्ते तो ज्ञान पड़ता है कि, ये श्रीरामचन्द्र मनुष्य का रूप घारण
किये हुए साक्ञात् गिषु भगवान हैं; मिन्होंने समुद्र के ऊपर कैसा
अद्भुत पुल बाँधा है। ऐसे दृढ़पराक्रमी श्रीरामचन्द्र को फ्ैबल
मनुष्य ही न समसाना चाहिये ॥ रेई ॥
कुरुप्व नरराजेन सन्धि रामेण रावण । ]
ज्ञात्त्रा प्रधाय कार्याणि क्रियतामायतिक्षमम्' | २७ ॥
घशतणएव हे रावण | तुम अपने कल्याण का निश्चय कर तथा
शागे के कत्तन्यकर्म का उच्चित विचार कर. नरेन्द्र श्रीरामचन्द्र जी
के साथ सन्धि कर के ॥ ३७ ॥
इद वचस्तत्र निगद्य मार्यवान्
परीक्ष्य रक्षाधिपतेमंनः पुनः ।
अनुत्तमेपृत्तमपोरुषा बली
वर्भूव तृष्णी समवेक्ष्य रावणस् ॥ रे८ ॥
इत्ि पश्चनिश। समेः ॥
१ आयत्तिक्षम - उत्तकाछाहँ | | गे।० /
पदूनिशः सर्गः ३११
उत्तम पुरुपार्धथ ताला बलवान माव्यवान् इस प्रकार रात्तसपति
का, चचनत सुना कर अर रावण के मनेगत भावों के ताड़ कर,
चुप हो गया ॥ ३५॥
युद्धकागड का पतीसवाँ सगे पूरा हुआ |
438०८
पट्तरिंशः सगे:
व
तत माल्यवते वाक्य हितमुक्तं दशाननः
न मपयति टुष्टात्मा कालस्य दशमागतः) ॥ १ ॥
रावग के हित के लिये कही हुई माल्यवान की बातें, दुशत्मा
रावण के! भली न ज्ञान पढ़ीं । भ्रच्छीो जान दी क्यों पड़तों !
उसके सिर पर तो मोत सवार थी ॥ १ ॥
स बद्धा भुकु्टि वक्त्रे क्रीपस्य वशमागतः ।
अमर्पात्परिद्त्ताप्तो माल्यवन्तमथाब्रवीत् ॥ २ ॥
वह क्रोध में भर औोर भोंई टेढ़ी कर तथा प्ाँखे तरेर माल्यवान
से बेला ॥ २॥
हितबुद्धथा यदहितं बच! परुपप्ुच्यते ।
परपक्षं प्रविश्येव नेतच्छोत्रं गतं मम ॥ ३े ॥
शत्र का पत्त ले कर, मेरी दितकामना की बुद्धि से ठुमने जैसे
कठोर शौर ध्रह्तितकारी वचन कहे हैं, उनका मेरे कानों पर कुछ भी
असर नहीं पड़ा ॥ ३ ॥
|
श्श्२ युंद्धफायडे
मानुष॑ कृपणं राममेक शाखामूगाश्रयस |
सम मन्यसे केन त्वक्त॑ पित्रा बनाकुयमर ॥ ४ ॥
उस हुखिया राम के, तुम क्यों कर सामथ्यवान् समझ रहे
हो! स्थोंकि चद श्क्तेला है, वानरों के अवोन हैं, पिता ने उसे
घर से निऊ्राज्न दिया है ओर वह वन में रहता है ॥ ४ ॥
रक्षसामीश्वर माँ च देवतानां भयड्भरस |
हीन॑ माँ मन्यसे केन छह्दीन॑ सवविक्रमे! || ५ ॥
ओर मुस्े जे राज़सों का शज्ञा हैँ. देवताओं का भयदाता हैं
छोर सद प्रद्नार से पराक्रपों हैं, क्रिस्त प्रक्तार हीन समझते
हो !॥५ ॥
वीरहेपेण वा शझे पश्षपातेन वा रिपा;
तलयाऊई परुपाप्युक्त। परप्रीत्साइनतस वा ॥ ६ ॥
मुझे तुम पर सन्देह हो रहा है छि, तुमने ऐसे कठोर वचत
मुभसे क्ष्यों कहे? क्ष्या तुम्हें भेरो वीरता से देवर है अथवा
शत्र का पक्षपात करना इसका कारण है। श्रथवा मुझे उभाड़ने के
लिये ठुमने ऐसे कठोर वचन कहे हें ॥ है ॥|
प्रभवर्त पदस्थ हि परुषं क्रेउमिधास्वति |
पण्टित) शान्रततज्ञे दिना प्रोत्साइनादिपे! ॥ ७ ॥
जे। पण्डित है ओर शाखतत्वज्ञ है, वह प्रभावशाली झोर
राज्यपदारुद के, उत्साहित करने के लिवाय कठोर वचन नहीं
कहता ॥ ७॥
आनीय यथ बनात्सीतां पच्महनामिव भ्रियस् ।
किमयथे प्रतिदास्यामि राघवस्थ मयादहम् | < |
] घदूचिशः सर्गः 8१३
है माल्यवान् ! कमलद्दोन लक्ष्मी की तरह स्रीता के जनस्थान
से ला कर, राम फ्रे भय से में उसे क्यों दूँ ॥ ८॥
हृत॑ वानरकेटीशि। ससुग्रीव॑ संलक्ष्मणम्र् |
पश्य केश्रिदहोमिरत्वं राघवं निहतं मया ॥ ९ ॥
,.. इन करोड़ों पानरों शोर सुप्रीव तथा लक्ष्मण सहित राम के
मेरे हाथ से मरा हश्मा तुम देखेगे ॥ ६ ॥
इन्हें यश्य न तिष्ठन्ति देवतान्यपि संयुगे |
स कस्पाद्रावणे युद्धे भयमाहारषिष्यति ॥ १० ॥
घरे जिसके दन्द्व-युद्ध में देवता भी खड़े नहीं रह सकते,
वह रावण भन्ना युद्ध में किससे सयभीत है।गा ॥ १० ॥
द्विधा भज्येयमप्येब॑ न नमेयं तु कस्यचित् ।
एप मे सहजे देष) खभावों दुरतिक्रमः ॥ ११ ॥
मैं क्या करँ--मेरा यह स्वाभाविक दाष है कि, भले ही भेरे दे
टुकड़े दे जाये, पर में किसी के सामने नचने वाला नहीं। स्वभाव
दोता ही दुरतिक्रम है ॥ ११॥
यदि तावत्समुद्रे तु सेतुबंद्ों यदच्छया ।
रामेण विस्मयः के'5त्र येन ते भयमागतम् ॥ १२ ||
यदि रामचन्द्र ने किसी प्रकार समुद्र पर पुल पाँच द्वी लिया,
ते इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है, जिससे तुम डर गये ॥१२॥
स॒ तु तीत्वाणवं राम! सह वानरसेनया ।
प्रतिनानामि ते सत्यं न जीवन्मतियास्थति ॥ १३ ॥
३१७ युद्धकाणडे
सपुद्र पर पुल्ल वाँध, बानरी सेना सहित राम यदि इस पार
थ्रा गये हैं तो में तुमसे सत्य सत्य प्रतिक्षा करता हूँ कि, वे यहाँ से
जीते ज्ञागते न ला पा्वेगे ॥ १३ ॥
एवं ब्र॒ुवार्ण संरन्ध॑ रुष्ट विज्ञय रावणम् |
त्रीढता माल्यवान्वाक्य॑ नोत्तरं प्रत्यपद्यत ॥ १४ ॥|
क्रोध में भर ऐसी वातें कहते हुए, राचश के रुष्ठ हुआ जान,
माल्यवान, पत्यन्त लज्ञित हुआ झोर उसमे फिर छुछ भी न
कहा॥ १४ ॥
[चिन्तयन्मनसा तस्य॑ दुष्कृमपरिपाकजस |
पाप॑ नागयति होन॑ खस्य राष्ट्रस्य राक्षस! | १५ ॥ |
उसने मन में निश्चय कर लिया कि, भ्रव रावण के दुश्कर्मो '
का परिपाककाल समोप आा गया है। पाप इसकी, इसके राज्य को
झोर समस्त रात्सों को नाश करने वाला है॥ १४ ॥
जयाशिषा च राजान॑ वधयित्वा यथोचितम्।
मात्यवानभ्यनुज्ञता जगाम स्वं निवेशनम् ॥ १६ ||
४ महाराज की जय हो ” इस थ्ाशीर्वाद से रावण की बढ़ती
मना, ओर उससे विदा माँग, माल्यवान झपने घर के चला
गया ॥ १६ ॥ ड़
न
रावणस्तु सहामात्यो मन्त्रयित्वा विमृश्य च |
लड्रायामतुलां गुप्ति कारयामास राक्षस)॥ १७ ॥
रावण भी अपने मंत्रियों के साथ परामर्श भोर विचार करः
लड़ा की भली भाँति रक्ता का प्रबन्ध करता हुआ ॥ १७॥
; पद्निशः सगे: ३१४
: स व्यादिदेश पूर्वस्यां पहरतं द्वारि राक्षस ।
दंकिशस्यों कि श
स्ां महावीयें! महापाश्वमहोदरों ॥ १८ ॥
कै (
व्यादिदेश महाकायों राक्षसेवहुमिहतों ।
पश्चिमायामथो द्वारि प्रत्रमिन्रजितं तथा ॥ १९ ॥
व्यादिदेश महामाय॑ बहुभी राक्षसेट्रलम |
उत्तरस्यां पुरद्वारि व्यादिश्य शुकसारणा || २० ॥
उसने लड्ढ के पूर्वद्वार को रक्ता के लिये प्रहस्त के प्ौर
दत्तिणद्धार को रत्ता के लिये महावली महाकाय महापार्श्य शोर
महोद्र के वहुत से राक्षसों के साथ नियुक्त किया। इसी प्रकार
पश्चिमद्वार की रक्ता करने के लिये बहुत सी रात्तसी सेना के साथ
महामायांवो इन्द्रजीत को शाज्ञा दी । लद्भगवुरों के उत्तरद्वार की
रक्ता का भार उसने शुक झोर सारण के सौंपा ॥१८॥१६॥२०॥
खय॑ चात्र भविष्यामि मन्त्रिणस्ताजुवाच ह |
० » 0
राक्षस तु विरुपाक्ष॑ महावीयपराक्रमम् || २१ ॥
उसने मंत्रियों से कहा कि, उत्तरद्वार पर में स्वयं ज्ञाऊँगा।
वड़े बलवान ओर प्राक्रमी विरुपाक्ष राज़्स को ॥ २१ ॥
पध्यमेज्स्थापयद्गुल्मे वहुमिः सह राक्षसे! |
एवं विधान लड्गाया; छत्वा राक्षसपुड़व! ।
कृतकृत्यमिवात्मानं मन््यते कालचेदितः ॥ २२ ॥
डसने लझ्डुगपुरी के बीच वहुत से रात्तस सैनिकों सहित छावनी
डाल कर- रहने की शआज्षा दी। इस प्रकार लड्ढा .को रक्ताका
रात्तसश्रेष्ठ रावण ने, जिसकी मोत निकट आई हुई थी, प्रवन्ध कर,
छझपने का हृत्यकृत्य माना ॥ २२॥
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युद्धकफाणएडे
विसमयामास ततः स मन्त्रिणो
विधानमाज्ञाप्य पुरस्य पुष्कलम् |
जयाशिपा बन्त्रिगणेन पूमिता
विवेश चान्तः पुरमृद्धिमन्महत् || २३ ॥
इति पद्जिशः सर्गः ॥
रावण लड्ढा की चाकसी का इस प्रकार भल्ी माँति प्रवन्ध कर
तथा मंत्रियों को विदा कर ओर उनके जयसूचक आशोर्वोद से
सम्मानित हो, धन-जन-पुर्णे अपने विशाल अन्तःपुर में चला
गया ॥ २३॥
युद्धकायड का छत्तीसवाँ सर्ग पूरा छुश्स |
>-ह--
सपतत्रिशः सगे:
नरवानरराजो तो स च वायुसुतः कपिः |
जाम्ववन क्षराजश्व गक्षसथ् विभीषण! । १ ॥
अज्गदों वालिपुत्र्ध सोमित्रि:! शरभः कपिः ।
मुषेण: 'सहदायादो मेन्दी द्विविंद एवं च || २ ॥
गनो गवाक्षः छुम्ुदों नकेज्य पनसस्तया ।
रअमित्रविषयं प्राप्ता! समवेता। समर्थथनः ॥ ३॥
4 पतदायादः--प्तदान्धव: | इशि०) *े अमिन्नविषयं -अन्रुदेर्श । (गो०)
३ सम्यबन् - भर्मंत्रयनू । ( मो ?
सप्तत्रिण् सगे ३१७:
इधर नरेत्र श्रोयमचन्त झौर बानरेन्ध सुप्रीय, पचमनन््दस
हनुमान जी, आऋत्तराज जास्वान, रत्तस विभीपण, वालिपुतश्न धद्धद,
सुभिन्ानन्दन लत्मण, शरभ वानर, धान्धवों सहित खुपेगा, भेन््द,
दिविद्, गज, गवात्त, कुपुद, नल, पनस, अपने वैरी के देश में पहुँच
र एकन्न हो परामश करने लगे ॥ १॥ - ॥ १॥ '
इयं सा लक्ष्यते लट्ठा पुरी रावणपाहिता |
साशुरोरगगन्पर्वरमरेरपि दुनंया ॥ ४ ॥
पे कहने लगे--देखे, रावण शासित वद्द लड़ा नगयी, दैव्यों
नागों और गन्धवों से भो धजेय है ॥ ४॥
'कायसिद्धि पुरस्कृल्* मन्त्रयध्वं श्विनिर्णये ।
नित्य सन्निहितो श्त्र रावणे राक्षसाधिपः || ५ ॥
रात्तसराज रावण यहाँ सदा सतक रहता है। शतः ध्व दम
सब कागों के प्रधानतः विजयप्राप्ति के लिये मिल कर, विनार करना,
चाहिये॥ ४ ॥ '
तथा तेषु ब्रुवाणेप रावणावरणोअवीत |
ध्वाक्यमग्राम्यपदवत्पुष्फकछा * विभीषणः ॥ ६ ॥
उन कोगों के इस प्रकार कहने पर रावण के छोटे भाई विभीषण
' ने, ध्पनी रात्तसी भाषा न वोल, ऐसी भाषा में, जिसे वे सव लोग
साफ साफ समझ सरके--कह्ा | विभीषण ने जे! शब्द कई, पे थे ते
थोड़े द्वी, किन्तु उनमें श्रभिप्राय चहुत सा भरा हुआ था ॥ & ॥
! कार्यसिडिं--विजयसिरदिं । ( गे।० ) २ पुरस्कृच--म्रधानीकृष्म | (गे।०)
३ विनिर्णये--निर्मितते मन्न्रवध्यं । ( गा० ) ४ अप्रम्यपदवतु-- खद्शभापा
पदरद्तितमुक्ततानू । ( गो" ) ५ पुष्फलछार्थ - यद्दार्थाव्पश्षब्द । ( रा० )
औेरु८ युद्धकायडे
अनलः शरभश्रेव सम्पातिः प्रधसस्तथा ।
गत्वा लड्ढां ममामात्या। पुरी पुनरिहागता। ॥ ७ ॥
अनल, शरम, सम्पाति शोर प्रधस भेरे ये चार मंत्री लड़ा में
गये थे ओर वहाँ से लौट कर धये हुए हैं ॥ ७ ॥
भूत्वा शकुनयः सर्वे प्रविष्ठातय रिपेवेलस।
विधान बिहितं यज्व तदरृष्टा समुपस्थिता। ॥ ८ ॥
वे सव पत्ती वन कर, शन्रुसैन्य में गये थे ओर वहाँ रावण ने
जिस विधान से अपनी सेना के! नगर की रफ्ता के लिये मियुक्त
किया है--से। सव देख आये हैं ॥ ८॥
संविधान यदाहुस्ते रावणस्प दुरात्मन; ।
राम तदूब्रुवत; से यथा तत्वेन मे शुणु ॥ ९ ॥
है राम | दुरात्मा रावण ने अपनी सेता के जिस प्रकार नगर-
रक्षा के लिये नियुक्त किया है ओर जो मेरे मंत्रियों ने मुझे
वतलाया है, से सव में ग्रापसे ठीक ठीक निवेदन करता हूँ, शाप
छुनिये ॥ ६ ॥
पूर्व प्रहस्तः सवले द्वारमासाद्य तिष्ठ॑ति |
दक्षिणं च महावीय। महापाश्वेमहोंद्रों ॥ १० ॥
| के पूववहार पर सेनापति प्रहस्त अपनी सेना सद्दित डेरा
न् हुए हैं, दत्तिणद्वार पर बढ़े बलवान महापाश्य शयोर महोद्र
॥ १० ॥
इन्द्रजित्पश्रिमद्वारं रा्षसेवेहुमिद्तः ।
पह्चिशासिधनुष्मद्धि: शूलमुद्गरपाणिशि! ॥ ११ ॥
सप्तत्रिश: सर्ग: ३१६
रत्तसों की एक वड़ी भारी सेना के साथ इच्दजीत पश्चिमद्दार
की रत्ता कर रहा है। उसकी सेना के सैनिकों के हाथों में पा,
, तलवारें, कम्ानें, जिशूल, और घुगदर हैं ॥ ११॥
नानाप्रहरणै! शूरेराहते। रावणात्मज; |
राक्षसानां सहस्तेस्तु वहुमिः शख्धपाणिप्रि: ॥ १२॥
झनेक प्रकार के आायुध धारण किये शूरवीर याद्धा रावण के
पुन्न के साथ हैं भौर हज़ारों हथियारवन्द राध्ाससैनिकों को वह
झपने साथ लिये हुए हे ॥ १२ ॥
[ ज्ञोद--' झूरवीर योद्वाओं ” से अभिव्राय सैनावायकों से है
कौर सैनिकों से अभिप्राय स्लाधघारण सिपादियाँ से । | हि
४ ७३० 0
युक्तः परमसंविश्नों' राक्षसेवेदुमिृत: ।
उत्तर नगरद्वारं रावण खयमास्थित; | १३ ॥
अकम्पित दृदय वहुत से प्रधान प्रधान येद्धाओं के अपने साथ
लिये हुए रावण, खय॑ ल्ढलापुरी के उत्तरद्वार को रक्ा कर रहा
है॥ १३॥
विरुपाक्षस्तु महता शूलखज्नपनुष्मता |
बलेन राक्षस: साथ मध्यमं गुल्ममास्थितः ॥ १४॥
बड़ा बलवान, विरुपात्त शुल, खड॒ग ओर धन्ुष-धारियणी
राक्तसी सेना की लिये हुए नगरी के बीचों बीच छावनी डाले हुए
पड़ा है ॥ १४ ॥ न्
एतानेव॑विधान्गुस्माँछ॒ड्वायां समुदीक्ष्य ते |
... म्रामकाः सचिवाः सर्वे पुनः शीघ्रमिहागता। ॥ १५ ॥|
१ मस॑विभो--अकम्पित हंदये । ( गे।* )
३२० युद्धकाणड
मेरे मंनियण लड्ढा के समस्त मोर्चा के इस प्रकार देख कर
तुर्त मेरे पास चले आये हैं ॥ १५ ॥
गजानां च सहख व रथानामयुत॑ परे ।
हयानाम्रयुते हू च साम्रकाटिश्ि रक्षसाम ॥ १६ ॥
लड्ढुा में दस हजार हाथोसवार, दूस हजार रथसचार, वीस
हजार घुड़ुसवार और पक करोड़ से इछ अधिक पेदल राक्तस
सैनिद्न हैं ॥ १६ ॥
विक्रान्ता वलव॒तन्त् संयुगेष्वाततायिन:१ ।
जुए्ा राक्षराजस्थ नितल्यमेते निशाचरा। ॥(७।
दे रावण के खास सैनिक बढ़े परशाक्रमी आर घलवान ह
ओर युद्ध फरने में बड़े क्रूर हैं। ( इनके श्रतिरिक झौर भी सैतिक
भ्ु गे
है)॥ १७ ॥ ॥
एकेकस्पात्र युद्धाे राप्रसस्य विशांपतते |
परिवार; सहस्राणां सब्स्रमुपतिष्ठते | १८ |॥
है विशाम्पते ! इनमें से प्रत्यक योद्धा की सहायता के लिये
युद्ध में अ्रसंख्य लक्ष परिवार उपस्थित हो जाते हैं ॥ १८ |!
एवां प्रदृत्ति छट्ढायां मन्त्रिमोक्तां विभीषण। |
एवमुक्खा महावाहू राप्तसां स्तानदर्शयत् ॥ १९ ॥
महाइलवान् विभोषण ने अपने मंत्रियों से छुना हुआ यह जडढ ,
का वृतान्त खुना कर. अपने चारों राह्षम मंत्रियों को- श्रीयमचन्ध
जी के सामने उपस्थित किया ॥ १६ ॥
१ जाततायितर+-कूद इत्यधंश। गे।०) २ शव-स्येश-अन्तरह्वाः। (गो०)
सप्तत्रिशः सर्ग ४३२५१
लड्ढायां सचिवैः# से रामाय मत्यवेदयत् ।
राम कमलपत्राक्षमिद्मुत्तरमबवीत् | २० ।
रावणावरजः श्रीमान्रामप्रियचिकीरषया |
कुबेर तु यदा राम रावण; प्रत्ययुध्यत ॥| २१॥
उन चारों मंत्रियों ने श्रीरमचन्द्र जी से वह सब हाज्न कद्दा |
तव कमलनेध ध्रोरामचद्ध जो से रावण के छोटे भाई विभीषण ने,
उनकी प्रसन्नता के लिये थ्रागे यद् कहा। है राम! रावण जब
कुत्रेर से लड़ने गया था ॥ २० ॥ २१ ॥
पष्ठटिः शतसइस्राणि तदा नियोन्ति राक्षसाः ।
पराक्रमेण वीर्येण तेमसा सत्तगोरबात् ॥ २२१ ॥
सहक्षा येज्ज दर्पण रावणस्य दुरात्मन। |
अन्न 'म्युने कर्तव्यों रोषयेर त्वां न भीषये ॥२३॥
तब उसके साथ साठ ल्लाष याक्तस गये थे। वे पराक्रम, कल,
तेज्, साहस झ्ोर गय में दुष्ट रावण ही के समान जान पड़ते थे।
हे राम | झापके मेरी इन वातों को छुन न ते कुछ होना चाहिये
शोर न हरना ही चादिये; वंढिक भेरे इस प्रकार कथन का उद्देश्य
शापको शन्रुनिरसन के लिये'उत्तेजित करने का है ॥ २९॥ २३॥
समर्थों हयसि वीरयेंग सुराणामपि निग्रहे |
तद्गवांश्चतुरड्रेण* बलेन महता हृत; ॥ २४ ॥।
१ मन्युः--क्रोध: । (मे०) २ रोपये--शब्रुनिर्सनाय रापमुप्पादये । (गो)
३ चहुरज्े -रावणसेनावच्तुरयवेन |. ( गा? 2). # पाठान्तरै--” सधा ।
! धा० रा० यु०--*१
शेश२ युद्धकाणटे
प्योंकि भाप ते अकेले ही अपने वल् पराक्रम से देवताशों के
भी दण्ड दे सकते हैं। फिर आपके साथ यह बड़ी भारी रावण की
तरह चतुरक्षिणी सेना भी ते है ॥ २७॥
व्यूहयेदं वानरानीक निर्मेथिष्यसि रावणम् |
रावणावरजे वाक्यमेव॑ ब्रुवति राघव; ॥ ॥ १५ ॥|
शत्रुणां! प्रतिधातार्थमिदं वचनमत्रवीत् ।
है ० गीला
पूवद्वारे तु लद्ढाया नीला वानरपुद्गद। || २६ |
प्रहस्तप्रतियोद्धा स्पाह्मानरेबहुभिदृतः ।
अनद्गदों वालिपुन्नस्तु बलेन महता हृत; ॥ २७ ॥
से! आप वानरी सेना की व्यूह रचना कर के रावण को भलरी
भाँति नए कर डालेंगे। यह खुन श्रीरामचद्ध ज्ञी ने शन्नुओं का
सामना करने के लिये विभीषण से कहा | लड्ढा के पूर्वद्वार पर
चानस्थेष्ठ नोल चढ़ाई कर प्रहरुत के साथ युद्ध करे आर वहुत से
चानर उसकी सहायता के लिये उसके साथ जाँय । वालिपुत्र अडडद
पक बड़ी सेना के अपने साथ ले ॥ २४ ॥ २६ ॥ २७ ॥
दक्षिणे वाधतां द्वारे महापाश्वमहोदरौ ।
हलुमान्पश्चिमद्वारं निपीज्य पतनात्मज) | २८ ॥
प्रविशत्वप्रमेयात्मा बहुभिः कपिमिहंतः ।
दत्यदानवसद्ठानामपीणां च महात्मनाम ॥ २९॥
१ प्रतिधाताव--प्रतिक्रियाथे । (गो०)
सप्तत्रिशः सर्गः ३२३
दृत्षिणद्वार पर महापाश्वे ओर महोद्र युद्ध 'करें। श्रमित
बलशालो पवननन्दन दसुमान ज्ञी बहुत से बानरों का साथ ले,
लड्ढय के पश्चिमद्वार पर चढ़ाई करें । द्वेत्यों, दानवों भोर महात्मा
ऋषियों के ॥ श८ ॥ २६ ॥
विप्रकारप्रियः छ्षुद्रो चरदानबलछान्वितः ।
॥अ
परिक्रामति य। सवोह्लोकान्सन्तापयत्मजा। ॥ ३० ॥
सताने वाक्ले, नीच, वरदान से वल्वान, सव ल्लोक़ों में घूमने
वाले, समस्त प्रजाजनों के! सनन््तप्त करने वात्ते ॥ ३० ॥
तस्याहं राक्षसेच्गरस्थ खयमेव वधे धृतः ।
उत्तर नगरद्वारमहईं सोमित्रिणा सह ॥ ३१॥
उस रात्तसराज रावण का वध करने का निश्चय मेंने स्वयं किया
है। से लड्ढा के उस उत्तरद्वार पर, लक्ष्मण का साथ ज्वे, में ॥३१॥
निपीड्याभिप्रवेश्यामि सबलो यत्र रावण; |
वीयव
वानरेन्द्रश्व बलवान क्षरानश्व वीयवान् ॥ ३२ ॥
चढ़ाई करूँगा, जिस पर अपनी सेना सद्दित रावण दे ।
वलवान वानररज सुप्रीव ओर पराक्रमी ऋत्तरान जाम्बवान,॥रेश।
राक्षसेन्द्रानुजथेव गुल्मो भवतु मध्यमः ।
० » एे
न चैव मानुष॑ रूप काय हरिभिराहवे ॥ ३३ ॥
झोर विभीषण ये सेनासमूह के पीच में रहकर, सेना का
परिचालन करें। रणस्थल्न में कोई भी वानर मनुष्य का रुप धारण
न ऋरे। क्थोंकि ऐसा करने से अपने पराये की पददिचान न हो
सकेगी ॥ ३३ ॥
३२७ ' श्ुद्धकायडे
' एषा भवतु संज्ञा' नो युद्धेडस्मिन्चानरे बल्ले |
वानरा एवं नथिहं खजने5स्मिन्भविष्यति ॥ ३४ ॥
ह इस युद्ध में हमारी इस वानरी सेना का. यही सड्टेत रहेगा.। '
क्योंकि हमारी ओर के सैनिकों की पहिचान वानर हो होगी ॥ २४ ॥
बय॑ तु मानुषेणव सप्त योत्स्थामहे परान् |
. अहमेष सह श्राता रृक्ष्मणेन महोंजसा ॥ २५ ||
हम सात जन मलुष्य का रुप धारण कर श्र से लड़ेंगे।
में ओर महातेजस्वी मेरे छोटे साई व्तत्मण ॥ २५ ॥.
आत्मना पश्चमश्चायं सखा मम विभीषण!
स् राम; कृत्यसिद्ध्यथमेवमुक्ता विभीषणस् ॥ ३६ ॥
तथा अपने चारों मंत्रियों सहित मेरे मित्र चिसीषण। (ये
सात जन मनुष्य रूप धारण कर लड़ेंगे।) कार्यसिद्धि के लिये*
श्रीरामचन्द्र जी ने इस प्रकार चिसीपण से कहा ॥ ३६ ॥
सुवेलारोहणे बुद्धि चकार मतिमान्मतिम् |
रमणीयतरं दृष्टा सुवेडस्यथ गिरेस्तट्म् ॥ २७ || '
फिर बुद्धिमान भ्रीरामचन्द्र जी ने सुधेलपवंत पर चढ़ने की
इच्छा की । क्योंकि उस समय खुवेल्पर्चत वड़ा रमणीक द्खिलायी
पड़ता था.। ( धर्थात् श्रीयमचन्द्र ज्ञी छुवेलपर्चत पर युद्ध करे
के ध्रभिप्राय से नहीं, किन्तु केवल उसकी रमणीकता देखने के लिये
पर चढ़े ) ॥ ३७ ॥|
९ संज्ञा--सइतः। ( गो० )
ध्यप्रत्रिणः सर्गः ३२१४
ततस्तु रामों महता वलेन
प्रच्छाय सवा 'पूथिवीं सहात्मा |
प्रहष्टरूपेमिजगाम भ्लड्ढां
कृत्वा मतिं सो5रिवधे महात्मा ॥ ३८ ॥
इति सप्तश्रिणः सर्गः ॥|
तब 'मंहावुद्धिमान श्रीयमचन्द्र जी प्पनी महती सेना से
सुवेलपचत के मध्यमाग के ढक कर भर ध्रत्यन्त प्रसन्न हो कर,
शन्रुबध की इच्छा से छुवेलपर्वत पर चढ़ गये ॥ रे८ ॥
युद्धकाणड का सेतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
“>> -+-
अष्टन्निशः सर्गः
“++
स तु कृत्वा सुवेछस्प मतिमारोहणं प्रति |
लक्ष्मणानुगता रामः सुग्रीवमिदमब्रवीत् ॥ १ ॥
विभीपणं च पधर्मजमनुरक्त॑ निशाचरम |
' मन्त्रज्ं च विधिज्ञ! च श्छक्ष्णया परया गिरा ॥ २॥
श्रीरामचन्द्र जी लक््मण सहित छुवेल्पर्वत पर चढ़ने की दृच्छा
कर, धर्मज्ष, अनुरक्त एवं उचित परामर्श देने वाले, तथा कार्य करने '
की रीति जञानने वाले कषिरयाज्ञ छुश्नीव तथा राक्षस विभीषण से
मधुर शब्दों में कदने लगे ॥ १॥२॥
१ प्रथिबों-सुवेककटकभूमसिं । ( गो० ) २ महात्मा --मद्दाइडिः । (वो०)
८ ,जट्ठां --लऐ्ल केश धुवेलं । (गे० ) 8४ विधिज्ञं--कार्यज्ञ । ( गे।० )
शँ
67%
|
|
2
श्र
ध्भ
सुवेस साधुनेलस्द्रमिम धातुशतश्चितम | . ,
अध्यारोहममदे सर्व वत्स्यामोथ्त्र निशामिमाम ॥|
चला इम सद, विविध प्रक्तार की घातुओं से भरे पूरे, इस
छुनत्दर प्रवंतराज्ष छतल्ल पर चड्ढे चल- आर झआज़् का खत दही
विदातन्न !। २ गा
छड्य वालोकथिष्यामों निलय॑ तस्य रक्षस) |
में मरणान्ताय हता भावां दरात्मना ॥ 9 ||
चढ़ कर, हम ताग इस दुष रावण की आवास-स्वन्ी
न लोीने के लिये, भेटी ञ्री के
हि थे
लड्ढप के भी देखे ये, जे अपनी
येन धर्मो न विज्ञाता ने वद़्द्तं छुले तथा ।
राक्षस्या नीचया वृद्धचा येन तदगर्हित॑ कृतम ॥ ५ ॥
ऐसा पापछत्य करते समय उसने न ते घन की, न सद्चरिददतों
की आर न अपने श्रेष्चुल दी की हुछ परवाह की ओर अपनों
तीच राकली घुद्धि हो से यह गहित कर्म कर डाला ॥ १ ॥
तस्मिन्मे देते सपः क्ीर्तित राक्षसाथमे |
यस्वापराधान्नीचस्य वर्ष द्रक्ष्यामि रक्षसोघ् ॥ 5 ॥|
शव ते मुके दस रात्साथधम का नाम लेते ही करच आ जाता
है। क्योंकि इसी नीच के अपराध से मुक्के असंख्य रातों का दध
दरखत्ा पड़या ॥ 4 220 2 !
एक्रो हि छुख्ते पाप॑ कालप्राशदर्ञ गठ। ! .
नीचेनात्मापचारंण छुर्ल तेन विनश्यति ॥ ७ 0
ध्रष्टात्रिशः समें: ३२७
देखा, मत्यु के पाश में फंस, एक-जीव पाप करता है, किन्तु
उस एक नीच के अपराध से उसके सारे कुल का नाश होता है ॥७॥
एवं 'संमन्त्रयन्नेव सक्रोपो रावण प्रति।
रामः सुबेल वासाय चित्रसानुमपारूत् ॥ ८ ॥
' इस प्रकार वार्तानाप करते ओर रावश पर खींजते, श्रीरामचन्द्र
जी खुवेलपचत पर बांस करने के लिये उसके रंग विरंगे शएज्ों पर
चढ़ गये ॥ ५॥
पृष्ठतो लक्ष्मणश्रेनमन्वगच्छत्समाहितः ।
सदर चापमुद्यम्य सुमहद्िक्रमे रतः ॥ ९ ॥
पराक्रमी लक्ष्मण जी भी वाण सहित बड़े धनुष के हाथ में
लिये हुए, सावधानतापूर्वक श्रीरामचन्द्र जी के पीछे पीछे चले ॥0॥
तमन्वरोहत्मुग्रीवः सामात्य/ सविभीषणः |
हनुमानड्रदो नीलो मेन्दो द्विविद एवं च॥ १०॥
ग़जो गवाक्षे गवय। शरभो गन्धमादनः |
पनसः कुम्ुदश्चेव हरो रम्भश्च यूथप! ॥ ११ ॥
जाम्बवांश्व सुपेणशथ्च ऋषभश् महामतिः |
दुर्मुखश्च महातेजास्तथा शतबलिः कपिः ॥| १२॥
एते चान्ये च वहवो वानराः शीघ्रगामिनः |
ते वायुवेगम्रवणास्तं गिरि गिरिचारिणः ॥ १३ ॥
अध्यारोहन्त शतशः सुवेल यत्र राघवः |
ते ल्वदीर्षेश कालेन गिरिमारुहय स्वतः ॥ १४ ॥
१ संमन्त्रथन--वदन्। (रो।०)*,
ड्श्८ युदकायदे
उनऊे पीछे सत्नीद और मंत्रियों सदित विभोष्ण चक। फ़िर
हनुमाद नी, अड्डद, नोल, मेन््द, द्विविद, गज, गद्ाज्ञ. गदय: शस्नः
गन्धमादन. पनस, कुझुद, स्मग्ध, जास्ववान, सुफेण, महाइुद्धिमात
ऋपम, महातेजली इुपुख, तथा वानर शवर॒लि आदि तथा अन्य
दइत से तेज चलते दाले, तथा पव॒॑तों पर विचरने बाते बानर;
चायुवेग से डस सुवेज्ञपवत पर चढ़ ऋर, जहाँ प्रीयमचद्ध जो थे,
वहाँ ज्ञा पहुँचे । उस पच्त पर चढ़ने में उन समस्त वानरों के झुड
सो समय च लगाग २०॥ ११ ॥ र#२]॥ २३ | १४ 8
दस्णु) शिखर तस्य (विपक्तामिद से पुरीम ।
ता शुभा। पररद्वारां प्रश्ारपरिशायदताम ] १५ ॥
छुवेलपवत के शिक्षण पर चढ़, उन्दोंने लड्ढय के देखा, जो
ऐसी ज्ञान पड़ती थी. मानों आराश के छू रही हो । लड्ल अच्छे
हायें और परकोरईे से शेमित थी ॥ १४
लड़ां राक्ससम्पणा दर्गुहरिवृयपा:
पाकारचयसंस्थरच तदा नीछेनिशाचर। ॥ १६ |
अ
दच्घुस्त हरिश्रष्ठा प्राकारमपर ऋृतम ।
दे वृद्ध बानरा। सद राक्षसान्वद्धूकाडिणि!। |
समुज्वाविधान्ादांसत्र रामस्य पश्यत) ! १७ |
त्तचना
हुई है। घाकार की दोवालों ठथा चुजों पर चढ़ी हुई चोद संग की
पोशाक (वहीं ) पहिने हुए. निमाचर्से का शी ऐसी जान पढ़ठी
थी; मानों परकारे की दोवाल के ऊपर दसरे परकेरे की दोवाल
१ खेदिरक्-आह्ाशे लस्त्रमानामिद स्थिर । + सेान )
धष्रनिशः सर्गः ३२६
खड़ी ह।। उन सव वानरों ने यह भी देखा कि, थे सब राक्तस
युद्ध करने के तेथार हैं। तव ते! भीरामचन्ध जी के सामने ही थे
पानरथ्रेष्ठ विशिध प्रकार की वोलियाँ बाल कर, सिंहनाद करने
लगे ॥ १६ ॥ १७ ॥
ततो5स्तमगरमत्सूयं! सन्ध्यया प्रतिरक्षितः |
6 भेवतंते
पर्णचन्द्रप्रदीक्ता च क्षपा समभिवतंते | १८ ॥
तदनन्तर भगवान्, छुर्य॑ भ्रस्ताचल यामी हुए झोर रक्तवर्ण
सन्ध्या जरा उपस्थित हुईं। उस समय पूर्णमासी के चन्द्र से भूषित
रात्रि का प्रादुर्भाव हुआ ॥ १८ ॥
तत! स रामो हरिवाहिनीपति:
विभीषणेन प्रतिनन््यसत्कृतः ।
सलक्ष्मणो यूथपयूथसंहतः
सुवेलपृष्ठे न््ववसथथासुखम् ॥ १९ ॥
इति धाश्थ्रिणः सर्ग: ॥
तद्नन्तर भ्रीरामचन्द्र जी कपिसेनापतियों भोर विभीषण से
पूजित ओर सम्मानित हो कर, लद्यण जो के साथ छुवेलपंचत के
शिखर पर छुख से बसे ॥ १६ ॥
युद्धकागड का अड़्तीसवाँ सर्य पूरा हुआ |
«४००
एकोनचत्वारिशः सर्गः
प हि नम
वां शत्रिम्नुपितास्तत्र सुवेले हरिपुद्धवा ।
लड्ढायां ददशुवीरा वनान्युपवनानि च ॥ १ ॥
वानस्यूथपतियों ' ने उुवेलपर्वंत के शिखर पर, उस रात को
बिता कर, लड्जुपपुरी के समस्त वनों और उपयनों के देखा ॥ १॥
समसोम्यानि रभ्याणि विश्ञालान्यायतानि च |
दृष्टिरम्याणि ते दृष्ठा व्भूवुर्नातविस्मया। ॥ २॥
वे वन उपवन चारस, सुन्दर, रमणीक, पिशाल, चोड़े तथा
नेत्रों को खुख देने वाले थे। उनके देख, थे चानरयूथपति विस्मित
हुए ॥ २॥ 8. है
चम्पकाशेकपुनत्नागसारूतालसभाकुछा ।
तमालवनसंछत्ना नागमालासमाहता ॥ ३ ॥
वे बन उपयन चम्पा, अशोक, मौलसिरी, साखू शोर ताड़
बेक्षों से परिपूर्ण थे ओर तमाल के कत्तों के वन से व्यात्त ओर
नागकेसर के पेड़ों से घिरे हुए थे ॥ ३ ॥
हिन्तालैरजुनेनीपेः सप्तपरौश्र पुष्पितैः ।
तिलके। कर्णिकारैथ पाटलैश समन््ततः ॥ ४॥
उत्तमें चारों ग्रोर हिन्ताल, अजुंन, कदृंव, तिल्न्द, का्णिकार
(लकी ) व पाठल आदि के अच्छे फूले हुए वृत्त लगे हुए
॥७3॥ ह
॥।
एकोीनचत्वा रिश; सर्गः ३३१
शुशुभे पुष्पिताग्रेश् छतापरिगतैदुे! ।
धर्दि ्े
लड्ढा बहुविधर्दिव्येयगेन्द्रस्पामरावती ॥ ५॥
लताशों से लिपटे हुए ये चृत्त कलियों से सुशोमित थे। उनसे
लड्ढी की ऐसी शोभा हो रही थी, जैसी इन्द्र की श्रमरावती की
हो ॥ ५४ ॥
विचित्रक्ुसुमोपेते रक्तकोमलपह्नवे! |
गाइलेश तथा नीलेश्चित्राभिवेनराजिमिः ॥ ६ ॥
रंगविरंगे के लाल ल्लात्न पचों से, मन दरने वाले कुत्ते से,
हरी हरी दूव से प्रौर रंगविरंगो वक्ञावल्ली से, उस भूमि की अपूर्व
शेभा ही रही थी ॥ ६ ॥ - ,
गन्धाव्यान्यभिरम्याणि पुष्पाणि च फलानि च। _
धारयन्त्यगमास्तत्र भूषणानीव मानवा। ॥ ७ ॥
जैसे मशुपष्य भूपणों से भूषित या शोमायमान द्वोते हैं, वैसे ही
वहाँ के चुत्त गन्धयुक्त उन्दर फूलों और फन्नों को धारण किये हुए,
शोभायमान जान पड़ते थे ॥ ७ ॥
तस्चेत्ररथसड्भाश मनोज नन््दनोपमस् |
बर्न॑ स्ृरतुक रम्यं झुशभे पटपदायुतम्॥ 4 ॥
लड्ढा के वे वन चैत्ररथ वन के छुल्य भ्रथवा मनोहर नन्दन
कानन की ठरह सब ऋतुश्रों में मणीक थे झौर भोरों की मधुर
गुंजार से मन के मोहित किया करते थे॥प८॥
नत्यूहकोयष्टिमकै 2 ल्यमानैश्च वहिमिः |
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रुतं परभुतानां च झुभ्रवुवननिकरे ॥ ९ ॥|
>+ ..युद्धकाणडे |
उनमें ऋरनों के तठों वर चकई चक्रवा, जलपुर्ग, मार, कोकिल
आदि पत्ती नाच नाच कर चिह॒क रहे थे ॥ ६ ॥
नित्यमत्तविहृज्ञानि श्रमराचरितानि च । ु
कोकिलाकुरुपण्डानि%१ विहड्भाभिर्तानि व ॥ १० ॥
सदा ही मतवाले पत्तियों से युक्त, भोरों से परिपूर्ण, काइलों से
सेवित, . चूत्तों से पूर्ण, तथा विविध प्रकार के पत्तियों में कूजित वे
चन्र थे ॥१०